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बुधवार, 15 जनवरी 2014

केन- बेतवा के जोड़ से घाटे में बुन्देलखं दैनिक हिंदुस्‍तान 15 1 2014http://paper.hindustantimes.com/epaper/viewer.aspx, राज एक्सप्रेस ३१-१-१४ , नईदुनिया , ३१-१-१४

 नईदुनिया , भोपाल ३१-१-१४
राज एक्सप्रेस, भोपाल ३१-१-१४
नदियां जोडने से तो घाटे में रहेगा बुंदेलखंड
पंकज चतुर्वेदी
सुप्रीम कोर्ट ने कह दिया कि देषभर की नदियों को जोड़ने का काम जल्द ही पूरा किया जाए। इस तरह की पहली परियोजना तो बुंदेलखंड में ही षुरू होनी थी- जोड़ की पहली परियोजना जल्दी ही षुरू हांे सकती है। पूरे तेरह साल लग गए इसे अपने क्रियान्वयन के स्तर पर आने पर। जाहिर है कि जिस इलाके के जन प्रतिनिधि जनता के प्रति कुछ कम जवाबदेह होतेे हैैं, जहां की जनता में जागरूकता की कमी होती है, जो इलाके पहले से ही षोशित व पिछड़ा होते हंै, सरकार में बैठे लोग उस इलाके को नए-नए खतरनाक व चुनौतीपूर्ण प्रयोगोें के लिए चुन लेतेे हैं । सामाजिक-आर्थिक नीति का यही मूल मंत्र है । बुंदेलखंड का पिछड़ापन जगजाहिर है , वहां सूखा हर तीन साल में आता है । इलाका भूकंपप्रभावित क्षेत्र है । कारखाने हैं नहीं, । जीवकोपार्जन का मूल माध्यम खेती है और आधी जमीन उचित सिंचाई के अभाव में कराह रही है । नदियों को जोड़ने के प्रयोग के लिए इससे बेहतर षोशित इलाका कहां मिलता । सो देष के पहले नदी-जोड़ो अभियान का समझौता इसी क्षेत्र के लिए कर दिया गया । समझौते में जन प्रतिनिधियों, स्थानीय नागरिकों की सहमति लेेने  के बारे में सोचा ही नहींे गया, सो स्थानीय हितों पर आषंकाओं की तलवार लटकी रहना लाजिमी है । अब तो राहंल गांधी भी बोल चुके हैं कि  नदियों का जोड़ घाटे का सौदा है। इसके बावजूद बंुदेलखंड में केन-बेतवा को जोड़ने का काम चल रहा है। हालांकि हाल ही में कांग्रेस के राजकुमार राहुल गांधी भी नदी-जोड़ परियोजनाओं को पर्यावरण और समाज-हित के विपरीत करार दे चुके हैं।
देष की सूखी नदियों को सदानीरा नदियों से जोड़ने की बात लगभग आजादी के समय से ही षुरू हो गई थी । प्रख्यात वैज्ञानिक-इंजीनियर सर विष्वैसरैया ने इस पर बाकायदा षोध पत्र प्रस्तुत किया था । पर्यावरण को नुकसान, बेहद खर्चीली और अपेक्षित नतीजे ना मिलने के डर से ऐसी परियोजनाओं पर क्रियान्वयन नहीं हो पाया । जब देष में विकास के आंकड़ों का आकलन सीमेंट-लोहे की खपत और उत्पादन से आंकने का दौर आया तो अरबों-खरबों की परियोजनाओं के झिलमिलाते सपने दिखाने में सरकारें होड़ करने लगीं ।  केन-बेतवा नदी को जोड़ने की परियोजना को फौरी तौर पर देखें तो स्पश्ट हो जाता है कि इसकी लागत, समय और नुकसान की तुलना में इसके फायदे नगण्य ही हैं । विडंबना है कि उत्तर प्रदेष को इस योजना में बड़ी हानि उठानी पड़ेगी तो भी राजनैतिक षोषेबाजी के लिए वहां की सरकार इस आत्महत्या को अपनी उपलब्धि बताने से नहीं चूक रही है ।
‘‘नदियों का पानी समुद्र में ना जाए, बारिष  में लबालब होती नदियां गांवेंा -खेतों में घुसने के बनिस्पत ऐसे स्थानों की ओर मोड़ दी जाए जहां इसे बहाव मिले तथा समय- जरूरत पर इसके पानी को इस्तेमाल किया जा सके ’’ - इस मूल भावना को ले कर नदियों को जोड़ने के पक्ष में तर्क दिए जाते रहे हैं । लेकिन यह विडंबना है कि केन-बेतवा के मामले में तो ‘‘ नंगा नहाए निचोडै़ क्या’ की लोकोक्ति सटीक बैठती है । केन और बेतवा दोनों का ही उदगम स्थल मध्यप्रदेष में है । दोनो नदियां लगभग समानांतर एक ही इलाके से गुजरती हुई उत्तर प्रदेष में जा कर यमुना में मिल जाती हैं । जाहिर है कि जब केन के जल ग्रहण क्षेत्र में अल्प वर्शा या सूखे का प्रकोप होगा तो बेतवा की हालत भी ऐसी ही होगी । वैसे भी केन का इलाका पानी के भयंकर संकट से जूझ रहा है । सरकारी दस्तावजे दावा करते हैं कि केन में पानी का अफरात है । जबकि हकीकत इससे बेहद परे है ।
सन 1990 में केंद्र की एनडीए सरकार ने नदियों के जोड़ के लिए एक अध्ययन षुरू करवाया था और इसके लिए केन बेतवा को चुना गया था। सन 2005 में मध्यप्रदेष और उत्तरप्रदेष सरकार के बीच इस परियोजना व पानी के बंटवारे को ले कर एक समझौते पर दस्तखत हुए। सन 2007 में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने इस परियोजना में पन्ना नेषनल पार्क के हिस्से को षामिल करने पर आपत्ति जताई। हालांकि इसमें कई और पर्यावरणीय संकट हैं लेकिन सन 2010 जाते-जाते सरकार में बैठे लोगों ने प्यासे बुंदेलखंड को एक चुनौतीपूर्ण प्रयोग के लिए चुन ही लिया।
यहां जानना जरूरी है कि 11 जनवरी 2005 को केंद्र के जल संसाधन विभाग के सचिव की अध्यक्षता में मध्य प्रदेष, उत्तर प्रदेष और राजस्थान के मुख्य सचिवों की बैठक हुई थी, जिसमें केन-बेतवा को जोड़ने पर विचार हुआ था । उस मीटिंग में उ.प्र. के अधिकारियों ने स्पश्ट कहा था कि केन में पानी की अधिकता नहीं है और इसका पानी बेतवा में मोड़ने से केन के जल क्षेत्र में भीशण जल संकट उत्पन्न हो जाएगा । केंद्रीय सचिव ने इसका गोल मोल जवाब देते हुए कह दिया कि इस विशय पर पहले ही चर्चा हो चुकी है, अतः अब इस पर विचार नहीं किया जाएगा । इस मीटिंग में उ.्रप्र. के अफसरों  ललितपुर के दक्षिणी व झांसी जिले के वर्तमान में बेहतरीन सिंचित खेतों का पानी इस परियोेजना के कारण बंद होने की संभावना भी जताई, जिस पर कोई माकूल उत्तर नहीं मिला ।
केन-बेतवा मिलन की सबसे बड़ी त्रासदी तो यह होगी कि राजघाट व माताटीला बांध पर खर्च अरबों रूपए  व्यर्थ हो जाएंगे । यहां बन रही बिजली से भी हाथ धोना पड़ेगा । केंद्र सरकार ने यह बात मानी तो लेकिन लगभग उसी धुन पर गा दिया कि ‘‘कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है ’’ यहां तो कुछ पाने के लिए बहुत कुछ खोने की नौबत है ।
उल्लेखनीय है कि राजघाट परियोजना का काम जापान सरकार से प्राप्त कर्जे से अभी भी चल रहा है,  इसके बांध की लागत 330 करेाड से अधिक तथा बिजली घर की लागत लगभग 140 करोड़ है  । राजघाट  से इस समय 953 लाख यूनिट बिजली भी मिल रही है । यह बात भारत सरकार स्वीकार कर रही है कि नदियों के जोड़ने पर यह पांच सौ करोड बेकार हो जाएगा । जनता की खून-पसीने की कमाई से निकले टैक्स के पैसे की इस बरबादी पर किसी को काई गम भी नहीं हो रहा है । यहां तो उत्सव का माहौल है - नया निर्माण, नए ठेके और नए सिरे से कमीषन !
उस मीटिंग में उ.्रप्र. सरकार जल के बंटवारे से भी सहमत नहीं थी । उ.प्र. की मांग ािी कि दौडत्रन बांध के लिए 60 टी.एम.सी. पानी के अलावा  उसे स्थानीय व औद्योगित जरूरतों की पूर्ति के लिए 12.5 टीएमसी पानी और मिले । इससे म.प्र. सरकार सहमत नहीं थी । मुख्यमंत्रियों द्वारा किए गए समझौते में वह बंटवारा अभी भी अनिर्णय की स्थिति में है ।
प्रख्यात चिंतक प्रो. योगेन्द्र कुमार अलघ का स्पश्ट कहना है कि केन-बेतवा को जोड़ना बेहद दूभर और संवेदनषील मसला है । इस इलाके में सामान्य बारिष होती है और यहां की मिट्टी कमजोर है , जबकि ऊंचे-ऊंचे उतार हैं जाहां से पानी तेजी से नीचे उतरता है । प्रो. अलघ ने कहा कि इस परियोजना को बनाते समय यह विचार ही नहीं किया गया कि बंुदेलखंड में जौ, दलहन, तिलहन, गेंहू जैसी फसलें होती हैं, जिन्हें सिंचाई के लिए अधिक पानी की जरूरत नहीं होती है । जबकि इस योजना में सिंचाई की जो तस्वीर बताई गई है, वह धान जैसे अधिक सिंचाई वाली फसल के लिए कारगर है ।
जाहिर है कि इस परियोजना को तैयार करने वालों को बंुदेलखंड की भूमि, उसके उपयोग, आदि की वास्तविक जानकारी नहीं है ।  महज नक्षों, टोपोषीट के सहारे  करीब 2000 करोड़ रुपए खर्च कर 231 किलोमीटर लंबी नहर के माध्यम से केन का पानी बेतवा में डालने की योजना बना ली गई है । यह भी एक दुर्भाग्य ही है कि इन दोनों नदियों को जोड़ने के बारे में नेषनल वाटर डेवलपमेंट एजेंसी ने जिस रिपोर्ट को प्रस्तुत किया है , उसे 20 साल पहले तैयार किया गया था । यह रिपोर्ट तकनीकी समिति द्वारा नकार दी गई थी । सरकार की वेबसाईट पर आज भी 20 साल पुराने आंकडों के साथ नदियों को जोड़ने से होने वाली खुषहाली के सपने दिखाए जा रहे हैं ।
इस परियोजना से कई लाख लोगों को विस्थापित करना होगा । इसकी चपेट में पन्ना के राश्ट्रीय पार्क का बड़ा हिस्सा भी होगा, जिसे बाघ का प्राकृतिक आवास माना जाता है ।  केन के घडियालों के पर्यावास पर इसका विशम प्रभाव होना तय है । इसके कारण कई हजार हैक्टर ऐसी भूमि नश्ट हो जाएगी, जिस पर आज बढिया सिंचाई हो रही है । परियोजना का कार्यकाल 9 साल बताया जा रहा है, लेकिन सरकार की अभी तक की सभी परियोजनाएं गवाह हैं कि इसका 15 सालों में भी पूरा होना संदेहास्पद ही रहेगा ।  यानी एक सुनहरे सपने की फिराक में एक पूरी पीढ़ी को कश्ट झेलने होंगे ।
हमारे देष में लेाकतंत्र है । लोकतंत्र में उम्मीद की जाती है कि जनता से जुड़े किसी मसले पर जनता की सहमति अवष्य ली जाए । अरबों रुपए बर्बाद किए जाएंगे, अरबों का नया खर्चा होगा, हजारों को उजाड़ा जाएगा ; लेकिन इस बारे में आम लोगों को न तो जानकारी दी जा रही है और न उनकी सहमति ली गई । क्षेत्र के पर्यावरणविदेां,, जन प्रतिनिधियों, सामाजिक संगठनों, प्रचार माध्यमों किसी को भी यह नहीं बताया जा रहा है कि इस परियोजना से फायदे व नुकसान क्या होंगे ।
बुंदेलखंड में लगभग 4000 तालाब हैं, इनमें से आधे कई किलोमीटर वर्ग क्षेत्रफल के हैं । ये तालाब हजार से अधिक वर्श पुराने हैं और स्थानीय तकनीक व षिल्प के अद्भ्ुात नमूने हैं । काष , सरकार कुछ करोड़ खर्च कर इन तालाबों को गहरा  करने व मरम्मत करने पर विाचार करती । काष बारिष में उफनती केन को उसकी ही उप नदियों - बन्ने, केल, उर्मिल, धसान आदि से जोड़ने की योजना बनाई होती । प्रो. अलघ का भी कहना है कि बंुदेलखंड में एक बड़ी परियोजना के बनिस्पत कई छोटी-छोटी योजनाओं पर काम किया जाए तो बेहतर होगा ।

पंकज चतुर्वेदी
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