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गुरुवार, 27 फ़रवरी 2014

किताबों कि दुनिया पर पूरा पेज नेशनल दुनिया २७ फरवरी २०१४ http://www.nationalduniya.com/#


आने वाली सदी भी किताबों की ही है!
पंकज चतुर्वेदी
 दिन तो छुट्टी का था, लेकिन दिल्ली में  आईटीओ से मथुरा रोड़ जाने वाले रास्ते पर यातायात पुलिस वाले पसीना-पसीना हो रहे थे, एकबारगी हर साल नवंबर में लगने वाले ट्रैड फेयर की यादें ताजा हो गईं। ज्ञान और सूचना के कई विकल्प आज मौजूद हैं, पुस्तकें मुद्रित ेक अलावा ईबुक्स, सीडी, व कई अन्य रूप में मौजूद हैं, लेकिन प्रगति मैदान के भीतर जमा ठसा-ठस भीड़ का आकर्शण तो अभी भी कागज पर छपी पुस्तकें ही हैं । हर हॅाल में तिल रखने की जगह ना मिलना कहावत सजीव होती दिखी। भीड़ में कई सौ लोग ऐसे थे जो पांच सौ किलोमीटर दूर से आए थे और दो-चार दोस्त किराये की गाड़ी ले कर आए थे। बानगी है कि छपे हुए हरफ का करिष्मा ना केवल बरकरार है, बल्कि देष के आर्थि-षैक्षिक-सामजिक विकास के साथ दिन दुगन रात चैगुना बढ़ रहा है। एक आंकड़ा देना लाजिमी है- भारत में किताबों के व्यापार की सालाना बढ़ौतरी  22 से 30 फीसदी है। यह भी जान लें कि यह पूरा साम्राज्य केवल सरकारी सप्लाई की रीढ़ पर नहीं, दस-बीस रूपए की किताबें खरीद कर अपने दोस्तों के साथ साझा करने वालों की बदौलत है।
विकासमान समाज पर आधुनिकता और हाई-टेक का गहरा असर हो रहा है । इनसे जहां भौतिक जीवन आसान हुआ है, वहीं दूसरी ओर हमारे जीवन में परनिर्भरता का भाव बढ़ा है । इससे हमारे जीवन का मौलिक सौंदर्य प्रभावित हो रहा है । रचनात्मकता पिछड़ रही है और असहिश्णुता उपज रही है । ऐसे में पुस्तकें आर्थिक प्रगति और सांस्कृतिक मूल्यों के बीच संतुलन बनाए रखने में अदभुत और निर्णायक भूमिका निभाती है । सूचनाएं और संचार बदलते हुए विष्व के सर्वाधिक षक्तिषाली अस्त्र-षस्त्र बनते जा रहे हैं । पिछले दो दषकों में सूचना तंत्र अत्यधिक सषक्त हुआ है, उसमें क्रांतिकारी परिवर्तन आए हैं । लेकिन पुस्तक का महत्व और रोमांच इस विस्तार के बावजूद अक्षुण्ण है । यही नहीं कई स्थानों पर तो पुस्तक व्यवसाय में अत्यधिक प्रगति हुई है । यूरोप और अमेरिका में लेाग मानने लगे हैं कि पुस्तकें उनकी संस्कृति की पोशक हैं, तभी वहां लेखकों को बड़े-बड़े सम्मान दिए जा रहे हैं ।
बीते दो दषकेां से, जबसे सूचना प्रौद्योगिकी का प्रादुर्भाव हुआ है , मुद्रण तकनीक से से जुड़ी पूरी दुनिया एक ही भय में जीती रही है कि कहीं कंप्यूटर, टीवी सीडी की दुनिया छपे हुए काले अक्षरों को अपनी बहुरंगी चकाचैंध में उदरस्थ ना कर ले। जैसे-जैसे चिंताएं बढ़ीं,  पुस्तकों का बाजार भी बढ़ता गया। उसे बढ़ना ही था- आखिर साक्षरता दर बढ़ रही है, ज्ञान पर आधारित जीवकोपार्जन करने वालो की संख्या बढ़ रही है। जो प्रकाषक बदलते समय में पाठक के बदलते मूड को भांप गया , वह तो चल निकला, बांकी के पाठकों की घटती संख्या का स्यापा करते रहे।
दिल्ली में ही अब नेषनल बुक ट्रस्ट का विष्व पुस्तक मेला सालाना हो गया तो फेडरेषन आफ इंडियन पब्लिषर्स यानी एफआईपी तो कई सालों से अगस्त में पुस्तक मेला लगा ही रहा है।  कोलकाता और पटना के पुस्तक मेले तो पुस्तक प्रेमियों के ‘वेटिकन’ के तौर पर स्थापित हो चुके हैं।  भारत में पुस्तक मेलों आयोजन अब केवल धर्माथ या समाजसेवी काम नहीं रह गया है, कई ऐसी संस्थाएं भी मैदान में हैं जो हर साल लखनऊ, इंदौर, गुवाहाटी में निजी तौर पर पुस्तक मेलों का आयोजन करती हैं। इसके अलावा हर साल कम से कम 20 पुस्तक मेले तो नेषनल बुक ट्रस्ट लगाता ही है। छोटे गाव-कस्बों तक पुस्तकें पहुंचाने में नेषनल बुक ट्रस्ट की सचल प्रदर्षिनियों की बड़ी भूमिका है। साल के बारहों महीने-तीसों दिन संस्थान की कम से कम आठ गाडि़या किताबें ले कर पाठकों के दरवाजे तक पहुंचती रहती हैं। इसके अलावा हर छोटे-बड़े कस्बों में स्कूलों में प्रदर्षिनयों अब आम बात है। कहने के मायने यह हैं कि किताब भले ही एक उपभोक्ता वस्तु के तौर पर नहीं, लेकिन समाज के लिए एक अनिवार्य तत्व के तौर पर दिनो दिन स्थापित होती जा रही है।

संयुक्त राज्य अमेरिका और ब्रिटेन के बाद अंग्रेजी पुस्तकों के प्रकाषन में भारत का दुनिया में तीसरा स्थान है। भारत दुनिया के सबसे विषाल पुस्तक बाजारों में से एक हैं और इसी कारण हाल के वर्शों में विष्व के कई बड़े प्रकाषकों ने भारत की ओर अपना रुख किया है । विष्व पुस्तक बाजार में भारत के विकासमान महत्व को रेखांकित करने के उदाहरणस्वरूप ये तथ्य विचारणीय हैं-फ्रैंकफर्ट पुस्तक मेला, 2006 में भारत को दूसरी बार अतिथि देष सम्मान, सन 2009 के लंदन पुस्तक मेला का ‘मार्केट फोकस’ भारत होना, मास्को अंतरराश्ट्रीय पुस्तक मेला 2009 में भारत को अतिथि देष का दर्जा आदि। भारत में भी महंगाई, अवमूल्यन और प्रतिकूल सांस्कृतिक, सामाजिक-बौद्धिक परिस्थितियों के बावजूद पुस्तक प्रकाषन एक क्रांतिकारी दौर से गुजर रहा है । छपाई की गुणवत्ता में परिवर्तन के साथ-साथ विशय विविधता यहां की विषेशता है । समसामयिक भारतीय प्रकाषन एक रोमांचक और भाशाई दृश्टि से विविधतापूर्ण कार्य है। विष्व में संभवतः भारत ही एक मात्र ऐसा देष हैं जहां 37 से अधिक भाशाओं में पुस्तकें प्रकाषित की जाती हैं। संयुक्त राज्य अमरीका और ब्रिटेन के बाद अंग्रेजी पुस्तकों के प्रकाषन में भारत का तीसरा स्थान है । पुस्तकों की महत्ता का प्रमाण यह आंकड़ा है कि हमारे देष में हर साल लगभग 85 हजार पुस्तकें छप रही हैं, इनमें 25 प्रतिषत हिंदी, 20 प्रतिषत अंग्रेजी और षेश 55 प्रतिषत अन्य भारतीय भाशाओं में हैं। लगभग 16 हजार प्रकाषक सक्रिय रूप से इस कार्य में लगे हैं। प्रकाषक के साथ, टाईप सेटर , संपादक , प्रूफ रीडर, बाईंडिग, कटिंग, विपणन जैसे कई अन्य कार्य भी जुडे़ हैं। जाहिर है कि यह समाज के बड़े वर्ग के रोजगार का भी साधन है। विष्व बाजार में भारतीय पुस्तकों का बेहद अहम स्थान है। एक तो हमारी पुस्तकों की गुणवत्ता बेहतरीन है, दूसरा इसकी कीमतें कम हैं।  भारतीय पुस्तकें विष्व के 130 से अधिक देषों को निर्यात की जाती हैं।

नई दिल्ली विष्व पुस्तक मेला कई मायनों में विष्व का अनूठा अवसर होता है - यहां एक साथ इतनी अधिक भाशाओं में, इतने अधिक विशयों पर पुस्तकें देखने को तो मिलती ही हैं, यहां आने वाली लाखेंा-लाख लोगों की भीड़ देष की विविधता और एकता की भी साक्षी होती है । इन सभी बातों को करीब से जानने के लिए वसंत के मोहक मौसम में विष्व पुस्तक मेले का आयोजन दिल्लीवासियों के लिए एक आनंदोत्सव की तरह है । यहां कई लेखक, खिलाड़ी, मषहरू सिनेमा कलाकार, राजनेता, विदेषी राजनीयिक नियमित आते हैं, किताबों और लोगों के साथ समय बिताते हैं।
बिना पुस्तक का समाज बिना हृृदय के षरीर की तरह है । विष्व पुस्तक मेला ज्ञान का एक ऐसा भंडार होता है जहां दिमाग की बंद खिड़कियां खुल जाती हैं । कितने सारे विचार, कितनी सारी भाषाओं में, कितने स्वरूपों में , यही विविधता हमारे देश की विशेषता भी हैं । ऐसी पुस्तकों के सहारे हम हर दिषा में, हर क्षेत्र में, हर समय उड़ान भर सकते हैं । पुस्तकें षांति की दूत होती हैं । ये न केवल व्यक्ति, समाज और राश्ट्र के रूप में हमारी अभिव्यक्ति का माध्यम बनती हैं , बल्कि हमें एहसास कराती हैं कि पूरी मानवता एक हैं ।  
हमारे देष में प्रकाषन का इतिहास 300 साल पुराना हो गया है। इसके बावजूद असंठित, अनियोजित और अल्पकालीक प्रकाषन आज भी इस व्यवसाय पर हावी है। इसकी छबि पुस्तक मेलों में देखने को भी मिलती है। भारत की 64.8 फीसदी आबादी साक्षर है, यानी कोई 84 करोड़ लोग लिख-पढ़ सकते हैं। यह बात सही है कि सभी साक्षर लोगो का रूझान पुस्तकें पढ़ने में नहीं होता है लेकिन व्यवसाय की दृश्टि से यह एक बड़ा उपभोक्ता वर्ग है। जो मनोरंजन, ज्ञानवर्धन, समय काटने, सूचना लेने जैसे कार्यों में पुस्तकों पर निर्भर होता है। जरूरत इस बात की है कि समाज के प्रत्येक वर्ग की आवष्यकताओं को समझा जाए और उसके अनुरूप पुस्तकें तैयार की जाएं और उनकी उपलब्धता हो। हमारी पठनीयता का स्तर विष्व स्तरीय हो, इसके लिए विदषी पुस्तकों की कतई जरूरत नहीं है, जरूरत है अपने पाठकों की जरूरत को समझने व उसके अनुरूप प्रकाषन करने की।
किताबें बिकती नहीं हैं, पूंजी कम है, कीमतें ज्यादा हैं, छपाई व कागज के दाम आसमान को छू रहे हैं, प्रकायाक लेखक का पारिश्रमिक खा जाते हैं, प्रकाषन का ध्ंाधा सरकारी खरी और कमीषनखोरी पर टिका है, टीवी ने किताबों की बिक्री कम कर दी है-- आदि--आदि ! ढेर सारी षिकायतें, षिकवे औ परेषानियां हैं, इसके बावजूद पुस्तक मेले आबाद है। लोगों को वहां जाना अच्छा लगता है(चाहे जो भी कारण हो)। जाहिर है कि ‘‘ ये जिंदगी के मेले दुनिया मे ंकम ना होंगे, अफसोस हम ना होंगे---’’


पटरी बाजार बनता नई दिल्ली विष्व पुस्तक मेला

‘बात करती हैं किताबें, सुनने वाला कौन है ?
सब बरक यूं ही उलट देते हैं पढ़ता कौन है ?’ अख्तर नज्मी

लेखकों, प्रकाषकों, पाठकों को बड़ी बेसब्री से इंतजार होता है हर दूसरे साल लगने वाले नई दिल्ली विष्व पुस्तक मेला का। हालांकि फेडरेषन आफ इंडियन पब्लिषर्स(एफआईपी) हर साल अगस्त में दिल्ली के प्रगति मैदान में ही पुस्तक मेला लगा रहा है और इसमें लगभग सभी ख्यातिलब्ध प्रकाषक आते हैं, बावजूद इसके नेषनल बुक ट्रस्ट के पुस्तक मेले की मान्यता अधिक है। वैष्वीकारण के दौर कें हर चीज बाजार बन गई है, लेकिन पुस्तकें अभी इस श्रेणी से दूर हैं। इसके बावजूद पिछले कुछ सालों से नई दिल्ली पुस्तक मेला पर वैष्वीकरण का प्रभाव देखने को मिल रहा है।  हर बार 1300 से 1400 प्रकाषक/विकेंता भागीदारी करते हैं, लेकिन इनमें बड़ी संख्या पाठ्य पुस्तकें बेचने वालों की होेती हे। दरियागंज के अधिकांष विक्रेता यहां स्टाल लगाते हैं। परिणामतः कई-कई स्टालों पर एक ही तरह की पुस्तें दिखती हैं।
यह बात भी तेजी से चर्चा में है कि इस पुस्तक मेले में विदेषी भागीदारी लगभग ना के बराबर होती जा रही है। यदि पाकिस्तान, श्रीलंका और नेपाल को छोड़ दें तो विष्व बैंक, विष्व श्रम संगठन, विष्व स्वास्थ्य संयुक्त राश्ट्र, यूनीसेफ आदि के स्टाल विदेषी मंउप में अपनी प्रचार सामग्री प्रदर्षित करते दिखते हैं। फै्रंकफर्ट और अबुधाबी पुस्तक मेला के स्टाल भागीदारों को आकर्शित करने के लिए होते हैं। इक्का-दुक्का स्टालों पर विदेषी पुस्तकों के नाम पर केवल ‘रिमेंडर्स’ यानी अन्य देषों की फालतू या पुरानी पुस्तकें होती हैं। ऐसी पुस्तकों को प्रत्येक रविवार को दरियागंज में लगने वाले पटरी-बाजार से आसानी से खरीदा जा सकता है।
नई दिल्ली पुस्तक मेला में बाबा-बैरागियों और कई तरह के धार्मिक संस्थाओं के स्टालों में हो रही अप्रत्याषित बढ़ौतरी भी गंभीर पुस्तक प्रेमियों के लिए चिंता का विशय है। इन स्टालों पर कथित संतों के प्रवचनों की पुस्तकें, आडियों कैसेट व सीडी बिकती हैं। कुरान षरीफ और बाईबिल से जुड़ी संस्थाएं भी अपने  प्रचार-प्रसार के लिए विष्व पुस्तक मेला का सहारा लेने लगी हैं।
पुस्तक मेला के दौरान बगैर किसी गंभीर योजना के सेमिनारों, पुस्तक लोकार्पण आयोजनों का भी अंबार होता है।  कई बार तो ऐसे कार्यक्रमों में वक्ता कम और श्रोता अधिक होते है। यह बात भी अब किसी से छिपी नहीं है कि दिल्ली में एक ऐसा समूह सक्रिय है जो सेमिनारों/ गोश्ठियों में बगैर बौद्धिक सहभागिता निभाए भोजन या नाष्ता करने के लिए कुख्यात है।
पुस्तक मेला के दौरान प्रकाषकों, धार्मिक संतों, विभिन्न एजंेंसियों द्वारा वितरित की जाने वाली निषुल्क सामग्री भी एक आफत है। पूरा प्रगति मैदान रद्दी से पटा दिखता है। कुछ सौ लोग तो हर रोज ऐसा ‘‘कचरा’’ एकत्र कर बेचने के लिए ही पुस्तक मेला को याद करते हैं। छुट्टी के दिन मध्यवर्गीय परिवारों का समय काटने का स्थान, मुहल्ले व समाज में अपनी बौद्धिक ताबेदारी सिद्ध करने का अवसर और बच्चों को छुट्टी काटने का नया डेस्टीनेषन भी होता है। पुस्तक मेला। यह बात दीगर है कि इस दौरान प्रगति मैदान के खाने-पीने के स्टालों पर पुस्तक की दुकानों से अधिक बिक्री होती है।





शनिवार, 22 फ़रवरी 2014

विश्‍व  पुस्‍तक मेला २०१४  के दौरान प्रकाशित    हर दिन की गतिविधियों पर दैनिक  बुलेटिन
 ''मेला वार्ता ''  के  सभी  अंक  यहां  देख सकते हैं  http://www.newdelhiworldbookfair.gov.in/77___mela-varta_ndwbf.ndwbf_page

हमारे बेशर्म जन प्रतिनिधि , द सी एक्‍सप्रेस आगरा 23 फरवरी 2014

जनसंदेश टाईम्‍स 24 फरवरी 2014http://jansandeshtimes.in/index.php?spgmGal=Uttar_Pradesh/Varanasi/Varanasi/24-02-2014&spgmPic=8

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मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014

सेना में भर्ती का तरीका बदलो डेली न्‍यूज , जयपुर 19 2 2014



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रविवार, 16 फ़रवरी 2014

सिस्टम नहीं चाहता कि डाक्टर बने
पंकज चतुर्वेदी
लोग तो भूल भी गए कि विष्व स्वास्थ्य संगठन ने सन 2000 तक भारत में ‘‘सबके लिए स्वास्थ्य’’ का लक्ष्य रखा था और वह योजन डाक्टरों की कमी से ओंधे मुंह गिर गई थी। ल ही में केंद्रीय मंत्रालय की आर्थिक मामलों की समिति ने एक ऐसी योजना का वायदा किया है जिसमें दस हजार करोड़ खर्च कर कोई दस हजार सरकारी अस्पतालों को मेंडिकल कालेज में तब्दील करने की बात है। हर साल डाक्टरी की अस्सी हजार सीटें बढ़ाने की बात यह योजना करती है। याद करें पिछले साल ही सुप्रीम कोर्ट ने मेडिकल कालेज के प्रवेष के लिए पूरे देष की एक परीक्षा पर रोक लगाते हुए एक बार फिर हर राज्य की अलग-अलग परीक्षा की व्यवस्था लागू कर दी थी  हालांकि वह फैसला तीन जजों की पीठ से एकमत नहीं आया था व असहमत जज ए.आर. दवे ने जो सवाल उठाए, वह पूरे देष के मन में भी आज भी हैं। भले ही मेडिकल काउंसिल आफ इंडिया के अधिकार सीमा पर सुप्रीम कोर्ट की व्याख्या सही हो, लेकिन इससे एक बार फिर निजी कालेजों में पीछे के रास्ते से प्रवेष की संभावनाएं बढ़ी हैं। इन दिनों कक्षा बारहवीं की परीक्षा दे रहे लाखांे बच्चों के मन में एमबीबीएस में प्रवेष की अभिलाशाएं है। देषभर में हजरों प्राईवेट कोचिंग सेटर चल रहें हैं, जहां बच्चों और उनके अभिभावकों को चिकने-चमकीले कागज पर छपे पर्चें बांटे जा रहे है, जिनमें मेडिकल कालेज की सालाना फीस, डोनेषन आदि का खुलासा बगैर किसी डर के किया गया था। यही नहीं हाल के दिनों में अखबारों में भी ऐसे विज्ञापन छपे, जिनमें मेडिकल कालेज में सीधे प्रवेष की दरें लिखी हुई थीं,  कहने की जरूरत नहीं कि इतना पैसा आम मध्यमवर्गीय के पास होना संभव नहीं है। यह तो बात हुई एमबीबीएस की, यदि डेंटिस्ट, होम्योपेथी, या आयुर्वेद डाक्टर की पढ़ाई की बात करें तो इतना समय और पैसा खर्च कर डिगरी पाने वालों के रोजगार की संभावनाएं बेहद क्षीण दिखती हैं।
गाजियाबाद  दिल्ली से सटा एक विकसित जिला कहलाता है, उसे राजधानी दिल्ली का विस्तार कहना ही उचित होगा। कोई 43 लाख आबादी वाले इस जिले में डाक्टरों की संख्या महज 1800 है, यानी एक डाक्टर के जिम्मे औसतन तीस हजार मरीज। इनका बीस फीसदी भी आम लोगों की पहुंच में नहीं है, क्योंकि अधिकांष डाक्टर उन बड़े-बड़े अस्पतालो में काम कर रहे है, जहां तक औसत आदमी का पहुंचना संभव नहीं होता। राजधानी दिल्ली में ही चालीस फीदी आबादी झोला छाप , नीमहकीमों या छाड़-फूंक वालों के बदौलत अपने स्वास्थ्य की गाड़ी खींचती है। कहने की जरूरत नहीं है कि ग्रामीण स्तर पर स्वास्थ सेवा की बानगी उ.प्र. का ‘‘एन एच आर एम’’ घेाटाला है। विष्व स्वास्थ्य सांख्यिकी संगठन के ताजा आंकड़ों के मुताबिक भारत में 13.3 लाख फीजिषियन यानी सामान्य डाक्टरों की जरूरत है जबकि उपलब्ध हैं महज 6.13 लाख।  सरकारी आंकड़े बताते हैं कि भारत में प्रति 1667 व्यक्ति पर औसतन एक डाक्टर उपलब्ध है। अब गाजियाबद जैसे षहीरी जिले और सरकार के आंकड़ों को आमने-सामने रखें तो सांख्यिकीय-बाजीगरी उजागर हो जाती है। यहां जानना जरूरी है कि अमेरिका में आबादी और डाक्टर का अनुपात 1ः 375 है, जबकि जर्मनी में प्रति 283 व्यक्ति पर एक डाक्टर उपलब्ध है। भारत में षहरी क्षेत्रों में तो डाक्टर हैं भी, लेकिन गांव जहां 70 फीसदी आबादी रहती है, डाक्टरों का टोटा है।  फिलहाल सरकार का लक्ष्य है कि हर साल इतने नये डाक्टर बनें कि हजार पर एक डाक्टर का औसत आ जाए। ैसे यह भी बहुत ज्यादा है , क्योंकि एक डाक्टर हर दिन बीस से तीस मरीज ही ठीक से देख सकता है। नद रहे कि बस्तर जैसे दुर्गम क्षेत्रों में तो कई गांव ऐसे हैं जहां आज तक आधुनिक स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंची ही नहीं हैं। षहरों में भी उच्च आय वर्ग या आला ओहदों पर बैठे लोगों के लिए तो स्वास्थ्य सेवाएं सहज हैं, लेकिन आम लोगों की हालत गांव की ही तरह है।
जब तब संसद में जर्जर स्वास्थ्य सेवाओं की चर्चा होती है तो सरकार डाक्टरों का रोना झींकती है, लेकिन उसे दूर करने के प्रयास कभी ईमानदारी से नहीं हुए। हकीकत में तो कई सांसदों या उनके करीबियों के मेंडिकल कालेज हैं और वे चाहते नहीं हैं कि देष में मेडिकल की पढ़ाई सहज उपलब्ध हो। बकौल मेडिकल कांउसिंल भारत में 335 मेडिकल कालेजों में 40,525 सीटें एमबीबीएस की हैं। इनमें से बड़ी संख्या में प्राईवेट मेडिकल कालेज हैं। पीएमटी परीक्षा के बाहर बंट रहे पर्चों को यदि भरोसे लायक माने तो मेडिकल कालेज में प्रवेष के लिए नौ से बीस लाख रूपए तो डोनेषन या केपिटेषन देना ही होगा। फिर सालाना षिक्षण षुल्क दो लाख तीस हजार से चार लाख बासठ हजार रुपए तक है। बच्चे को हाॅस्टल में रखने की खर्चा एक लाख रुपए, किताबों- काॅपी व मेडिकल यंत्रों का खर्च एक लाख रूपए सालाना। यानी एक साल का कम से कम खर्च पांच लाख रूपए। पांच साल का पच्चीस और डोनेषन मिला कर चालीस लाख। अभी हम मेडिकल में पीजी की बात करते ही नहीं हैं- इसके बाद नौकरी की तो अधिकतम एक लाख रूपए महीने यानी बारह लाख रूपए साल। इनकम टैक्स काट कर हाथ में आए आठ लाख रूपए। यदि प्राईवेट प्रेक्टिस करना हो तो क्लीनिक जमाने, उसके प्रचार-प्रसार में और पांच लाख रूपए। आवक का पता नहीं - कितनी होगी...... कब होगी। अलबत्ता तो सरकारी नौकरी करने वाले एक समूह ए के अफसर जिसकी महीने कर तन्खवाह अस्सी हजार रूपए हो, उसके लिए पढ़ाई का खर्च उठाना ही संभव नहीं है। यदि उसने कर्ज ले कर यह कर भी दिया तो आय के लिए कम से कम सात-आठ साल इंतजार करना पड़ेगा, तब तक एजुकेषन लोन पर ब्याज बढ़ने लगेगा। इसके विपरीत यदि कोई इंजीनियरिंग या एमबीए की पढ़ाई में इससे एक-चैथाई खर्च करता है तो पांच साल बाद ही उसकी सुनिष्चित आय होने लगती है।
मेडिकल एजुकेषन के महंगे होने, कठिन होने व अपेक्षा से बहुत कम डाक्टर होने की समस्या से सभी सरकारें वाकिफ हें, इसके बावजूद कई राज्य सरकारों व निजी मेडिकल कालेजों ने कोई 114 रिट लगा कर मेंडिकल कालेज में दाखिले की संयुक्त परीक्षा की व्यवस्था को चुनौती दी थी। विडबंना है कि प्रधान न्यायाधीष अलतमष कबीर की नौकरी के आखिरी दिन उन्होंने जो फैसला सुनाया उसमें अलग-अलग राज्यो ंव संस्थानों की अलहदा प्रवेष परीक्षा और संयुक्त प्रवेष परीक्षा के  गुण-दोश पर कोई चर्चा ही नहीं की, बस मेडिकल काउंसिल के अधिकार क्षेत्र को आधार बना कर फैसला सुना दिया। जरा विचार करें कि क्या मध्यप्रदेष का कोई बच्चा, दक्षिण या पूर्व के किसी राज्य की प्रवेष परीक्षा में षामिल होने की सोच भी सकता है। हालांकि केंद्र सरकार इस पर पुनर्विचार याचिका दायर करने पर विचार कर रही है, लेकिन यह वाकिया गवाह है कि हमारे मुल्क में मेडिकल की पढाई अभी भी आम लोगों से कितना दूर है।
कुछ साल पहले केंद्र के स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद ने ग्रामीण क्षेत्रों के लिए अलग से डाक्टर तैयार करने के चार साला कोर्स की बात कही थी, लेकिन सरकारी दम पर उसका क्रियान्वयन संभव था हीं नहीं, और प्राईवेट कालेज वाले ऐसी किसी को परवान चढ़ने नहीं देना चाहते।  हाल के वर्शेंा में इंजीनियरिंग और बिजनेस की पढ़ाई के लिए जिस तरह से कालेज खुले, उससे हमारा देष तकनीकी षिक्षा और विषेशज्ञता के क्षेत्र में दुनिया के सामने खड़ा हुआ है। हमारे यहां महंगी मेडिकल की पढ़ाई, उसके बाद समुचित कमाई ना होने के कारण ही डाक्टर लगातार विदेषों की ओर रूख कर रहे हैं। यदि मेडिकल की पढ़ाई सस्ती की जाए, अधिक मेडिकल कालेज खोलने की पहल की जाए, ग्रामीण क्षेत्र में डाक्टरों को समुचित सुविधाएं दी जाएं तो देष के मिजाज को दुरूस्त करना कोई बड़ी बात नहीं है, लेकिन मेडिकल की पढ़ाई में जिस तरह सरकार ने निजी क्षेत्र को विस्तार से रोक रखा है, जिस तरह अंधाधुंध फीस ली जा रही है; उससे तो यही लगता है कि सरकार ही नहीं चाहती कि हमारे यहां डाक्टरों की संख्या बढ़े।

पंकज चतुर्वेदी
लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।

गागर में सिमटते सागर , इंडिया अनलिमिटेड पञिका के फरवरी 2014 अंक में

गागर में सिमटते सागर
पंकज चतुर्वेदी

अब तो देष के 32 फीसदी हिस्से को पानी की किल्लत के लिए गरमी के मौसम का इंतजार भी नहीं करना पड़ता है- बारहों महीने, तीसों दिन यहां जेठ ही रहता है। सरकार संसद में बता चुकी है कि देष की 11 फीसदी आबादी साफ पीने के पानी से महरूम है। दूसरी तरफ यदि कुछ दषक पहले पलट कर देखें तो आज पानी के लिए हाय-हाय कर रहे इलाके अपने स्थानीय स्त्रोतों की मदद से ही खेत और गले दोनों के लिए अफरात पानी जुटाते थे। एक दौर आया कि अंधाधुंध नलकूप रोपे जाने लगे, जब तक संभलते जब तक भूगर्भ का कोटा साफ हो चुका था। समाज को एक बार फिर बीती बात बन चुके जल-स्त्रोतों की ओर जाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है - तालाब, कुंए, बावड़ी। लेकिन एक बार फिर पीढि़यों का अंतर सामने खड़ा है, पारंपरिक तालाबों की देखभाल करने वाले लोग किसी ओर काम में लग गए और अब तालाब सहेजने की तकनीक नदारद हो गई है। असल में तालाब की सफाई का काम आज के अंग्रेजीदां इंजीनियरों के बस की बात नहीं है।
बुंदेलखंड, जहां आज सूखे, प्यास और पलायन का हल्ला है; में जलप्रबंध की कुछ कौतुहलपूर्ण बानगी टीकमगढ़ जिले के तालाबों से उजाकर होती है । एक हजार वर्ष पूर्व ना तो आज के समान मशीनें-उपकरण थे और ना ही भूगर्भ जलवायु, इंजीनियरिंग आदि के बड़े-बडे़ इंस्टीट्यूट । फिर भी एक हजार से अधिक गढे़ गए तालाबों में से हर एक को बनाने में यह ध्यान रखा गया कि पानी की एक-एक बूंद इसमें समा सके । इनमें कैचमेंट एरिया (जलग्रहण क्षेत्र) और कमांड (सिंचन क्षेत्र) का वो बेहतरीन अनुपात निर्धारित था कि आज के इंजीनियर भी उसे समझ नहीं पा रहे हैं । पठारी इलाके का गणित बूझ कर तब के तालाब शिल्पियों ने उसमें आपसी ‘फीडर चेनल’ की भी व्यवस्था कर रखी थी । यानि थोड़ा सा भी पानी तालाबों से बाहर आ कर नदियों में व्यर्थ जाने की संभावना नही रहती थी । इन तालाबों की विशेषता थी कि सामान्य बारिश का आधा भी पानी बरसे तो ये तालाब भर जाएंगे । इन तालाबों को बांधने के लिए बगैर सीमेंट या चूना लगाए, बड़े-बड़े पत्थरों को सीढ़ी की डिजाइन में एक के ऊपर एक जमाया था ।
इंटरनेशनल क्राप्स रिसर्च इंस्टीटयूट फार द सेडिएरीडट्रापिक्स के विशेषज्ञ बोन एप्पन और श्री सुब्बाराव का कहना है कि तालाबों से सिंचाई करना आर्थिक दृष्टि से लाभदायक और अधिक उत्पादक होता है । उनका सुझाव है कि पुराने तालाबों के संरक्षण और नए तालाब बनाने के लिए ‘भारतीय तालाब प्राधिकरण’ का गठन किया जाना चाहिए । पूर्व कृषि आयुक्त बी. आर. भंबूला का मानना है कि जिन इलाकों में सालाना बारिश का औसत 750 से 1150 मिमि है, वहां नहरों की अपेक्षा तालाब से सिंचाई अधिक लाभप्रद होती है ।
यदि आजादी के बाद विभिन्न सिंचाई योजनाओं पर खर्च बजट व उससे हुई सिंचाई और हजार साल पुराने तालाबों को क्षमता की तुलना करें तो आधुनिक इंजीनियरिंेग पर लानत ही जाएगी । अंगे्रज शासक चकित थे, यहां के तालाबों की उत्तम व्यवस्था देख कर । उन दिनों कुंओं के अलावा सिर्फ तालाब ही पेयजल और सिंचाई के साधन हुआ करते थे । मध्यप्रदेष के छतरपुर जिले के अंधियारा तालाब की कहानी गौर करें- कोई दो दषक पहले वहां सूखा राहत के तहत तालाब गहराई का काम लगाया गया। इंजीनियर साहब ने तालाब के बीचों-बीच खूब गहरी खूुदाई करवा दी। जब इंद्र देवता मेहरबान हुए तो तालाब एक रात में लबालब हो गया, लेकिन यह क्या ? अगली सुबह ही उसकी तली दिख रही थी। असल में हुआ यूंकि बगैर सोचे हुई-समझे की गई खुदाई में तालाब की वह झिर टूट गई, जिसका संबंध सीधे इलाके के ग्रेनाईट भू संरचना से था। पानी आया और झिर से बह गया।  यहां जानना जरूरी है कि अभी एक सदी पहले तक बुंदेलखंड के इन तालाबों की देखभाल का काम पारंपरिक रूप से ढीमर समाज के लोग करते थे । वे तालाब को साफ रखते, उसकी नहर, बांध, जल आवक को सहेजते - ऐवज में तालाब की मछली, सिंघाड़े और समाज से मिलने वाली दक्षिणा पर उनका हक होता । इसी तरह प्रत्येक इलाके में तालाबों को सहेज ने का जिम्मा समाज के एक वर्ग ने उठा रखा था और उसकी रोजी-रोटी की व्यवस्था वही समाज करता था, जो तालाब के जल का इस्तेमाल करता था। तालाब तो लोक की संस्कृति  सभ्यता का अभिन्न अंग हैं और इन्हें सरकारी बाबुओं के लाल बस्ते के बदौलत नहीं छोड़ा जा सकता ।
हकीकत में तालाबों की सफाई और गहरीकरण अधिक खर्चीला काम नही है ,ना ही इसके लिए भारीभरकम मषीनों की जरूरत होती है। यह सर्वविदित है कि तालाबों में भरी गाद, सालों साल से सड़ रही पत्तियों और अन्य अपशिष्ठ पदार्थो के कारण ही उपजी है, जो उम्दा दर्जे की खाद है। रासायनिक खादों ने किस कदर जमीन को चैपट किया है? यह किसान जान चुके हैं और उनका रुख अब कंपोस्ट व अन्य देषी खादों की ओर है। किसानों को यदि इस खादरूपी कीचड़ की खुदाई का जिम्मा सौंपा जाए तो वे वे सहर्ष राजी हो जाते हैं। उल्लेखनीय है कि राजस्थान के झालावाड़ जिले में ‘‘खेतों मे पालिश करने’’ के नाम से यह प्रयोग अत्यधिक सफल व लोकप्रिय रहा है । कर्नाटक में समाज के सहयोग से ऐसे कोई 50 तालाबों का कायाकल्प हुआ है, जिसमें गाद की ढुलाई मुफ्त हुई, यानी ढुलाई करने वाले ने इस बेषकीमती खाद को बेच कर पैसा कमाया। इससे एक तो उनके खेतों को उर्वरक मिलता है, साथ ही साथ तालाबों के रखरखाव से उनकी सिंचाई सुविधा भी बढ़ती है। सिर्फ आपसी तालमेल, समझदारी और अपनी पंरपरा तालाबों के संरक्षण की दिली भावना हो तो ना तो तालाबों में गाद बचेगी ना ही सरकारी अमलों में घूसखोरी की कीच होगी।
सन 1944 में गठित ‘फेमिन इनक्वायरी कमीशन’ ने साफ निर्देश दिए थे कि आने वाले सालों में संभावित पेयजल संकट से जूझने के लिए तालाब ही कारगर होंगे । कमीशन की रिर्पाट तो लाल बस्ते में कहीं दब गई । आजादी के बाद इन पुश्तैनी तालाबों की देखरेख करना तो दूर, उनकी दुर्दशा करना शुरू कर दिया । चाहे कालाहांडी हो या फिर बुंदेलखंड या फिर तेलंगाना ; देष के जल-संकट वाले सभी इलाकों की कहानी एक ही है। इन सभी इलाकों में एक सदी पहले तक कई-कई सौ बेहतरीन तालाब होते थे। यहां के तालाब केवल लोगों की प्यास ही नहीं बुझाते थे, यहां की अर्थ व्यवस्था का मूल आधार भी होते थे । मछली, कमल गट्टा , सिंघाड़ा , कुम्हार के लिए चिकनी मिट्टी ; यहां के हजारों-हजार घरों के लिए खाना उगाहते रहे हैं । तालाबों का पानी यहां के कुओं का जल स्तर बनाए रखने में सहायक होते थे  । शहरीकरण की चपेट में लोग तालाबों को ही पी गए और अब उनके पास पीने के लिए कुछ नहीं बचा है ।
गांव या शहर के रूतबेदार लोग जमीन पर कब्जा करने के लिए बाकायदा तालाबों को सुखाते हैं, पहले इनके बांध फोड़े जाते हैं, फिर इनमें पानी की आवक के रास्तों को रोका जाता है - न भरेगा पानी, ना रह जाएगा तालाब । गांवों में तालाब से खाली हुई उपजाऊ जमीन लालच का कारण होती है तो शहरों में कालोनियां बनाने वाले भूमाफिया इसे सस्ता सौदा मानते हैं । यह राजस्थान में उदयपुर से ले कर जेसलमेर तक, हैदराबाद में हुसैनसागर, हरियाणा में दिल्ली से सटे सुल्तानपुर लेक या फिर उ.प्र. के चरखारी व झांसी हो या फिर तमिलनाडु की पुलिकट झील ; सभी जगह एक ही कहानी हहै। हां, पात्र अलग-अलग हो सकते हैं। सभी जगह पारंपरिक जल-प्रबंधन के नश्ट होने का खामियाजा भुगतने और अपने किये या फर अपनी निश्क्रियता पर पछतावा करने वाले लोग एकसमान ही हैं। कनार्टक के बीजापुर जिले की कोई बीस लाख आबादी को पानी की त्राहि-त्राहि के लिए गरमी का इंतजार नहीं करना पड़ता है।  कहने को इलाके चप्पे-चप्पे पर जल भंडारण के अनगिनत संसाधन मौजूद है, लेकिन हकीकत में बारिष का पानी यहां टिकता ही नहीं हैं। लोग रीते नलों को कोसते हैं, जबकि उनकी किस्मत को आदिलषाही जल प्रबंधन के बेमिसाल उपकरणों की उपेक्षा का दंष लगा हुआ है। समाज और सरकार पारंपरिक जल-स्त्रोतों कुओं, बावडि़यों और तालाबों में गाद होने की बात करता है, जबकि हकीकत में गाद तो उन्हीें के माथे पर है। सदा नीरा रहने वाली बावड़ी -कुओं को बोरवेल और कचरे ने पाट दिया तो तालाबों को कंक्रीट का जंगल निगल गया।

एक तरफ प्यास से बेहाल हो कर अपने घर-गांव छोड़ते लोगों की हकीकत है तो दूसरी ओर पानी का अकूत भंडार ! यदि जल संकट ग्रस्त इलाकों के सभी तालाबों को मौजूदा हालात में भी बचा लिया जाए तो वहां के हर्र इंच खेत को तर सिंचाई, हर कंठ को पानी और हजारों हाथों को रोजगार मिल सकता है । एक बार मरम्मत होने के बाद तालाबों के रखरखाव का काम समाज को सौंपा जाए, इसमें महिलाओं के स्वयं सहायता समूह, मछली पालन सहकारी समितियां, पंचायत, गांवों की जल बिरादरी को शामिल किया जाए । जरूरत इस बात की है कि आधुनिकता की आंधी के विपरीत दिशा में ‘‘अपनी जड़ों को लौटने’’ की इच्छा शक्ति विकसित करनी होगी ।
पंकज चतुर्वेदी
सहायक संपादक
नेषनल बुक ट्रस्ट इंडिया
 नेहरू भवन, वसंत कुंज इंस्टीट्यूषनल एरिया फेज-2
 वसंत कुंज, नई दिल्ली-110070
 संपर्क- 9891928376

शनिवार, 15 फ़रवरी 2014

MUSLIM TUSHTIKARAN The Sea Express Agra 16-2-14http://theseaexpress.com/Details.aspx?id=10175&boxid=125831416

जनसंदेश टाईम्‍स, उप्र 19  2  2014


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Why was the elephant not a companion?

    हाथी क्यों न रहा साथी ?                                                                    पंकज चतुर्वेदी   हाथियों और मानव के ब...