My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

रविवार, 31 अगस्त 2014

BIG DAMS BIG PROBLEMS

daily news, jaipur 01-09-2014http://dailynewsnetwork.epapr.in/330489/Daily-news/01-09-2014#page/7/1
बड़े बांध के बड़े खतरे
पंकज चतुर्वेदी

पानी इस समय विष्व के संभावित संकटों में षीर्श पर है । पीने के लिए पानी, उद्योग , खेेती के लिए पानी, बिजली पैदा करने को पानी । पानी की मांग के सभी मोर्चों पर आषंकाओं व अनिष्चितता के बादल मंडरा रहे हैं । बरसात के पानी की हर एक बूंद को एकत्र करना व उसे समुद्र में मिलने से रोकना ही इसका एकमात्र निदान है। इसके बनाए गए बड़े भारी भरकम बांध कभी विकास के मंदिर कहलाते थे । आज यह स्पश्ट हो गया है कि लागत उत्पादन, संसाधन सभी मामलों में ऐसे बांध घाटे का सौदा सिद्ध हो रहे हैं ।।
अंतरराश्ट्रीय मानकों के अनुसार नींव से 15 मीटर ऊंचाई के बांध को बड़े बांध में आंका जाता है । यदि किसी बांध की ऊंचाई 15 मीटर से कम हो , लेकिन उसके जलाषय की क्षमता 30 लाख घनमीटर से अधिक हो तो उसे भी बड़ा बांध कहा जाता है ।  इस समय दुनियाभर में कम से कम 45 हजार बड़े बांध हैं । बांधों के कारण नदियां खंडित व परिवर्तित हो गई हैं , जबकि आठ करोड़ से अधिक लोगों को अपने घर-गांव, खेत-व्यापार छोड़ कर पलायन करना पड़ा है । एक तरफ बाढ़ नियंत्रण, सिंचाई, बिजली जैसी सामाजिक व आर्थिक जरूरतें हैं तो दूसरी ओर बड़े बांधों की अधिक लागत, विस्थापन, पारिस्थिती और मत्सय संसाधनों का विनाष जैसी त्रासदियां हैं ।
सिंचाई, बिजली, नगरीय व औद्योगिक जल आपूर्ति के लिए बनाए गए बड़े बांध अक्सर अपने लक्ष्यों से बहुत पीछे रह जाते हैं । विष्व बांध आयोग ने पाया कि बाढ़ नियंत्रण के लिए बनाए गए बांध कई बार बाढ़ के खतरों को ही बढ़ा देते हैं ।  आयोग ने सभी बड़े बांधों के निर्माण में समयगत विलंब और लागत वृहद्ध की उल्लेखनीय प्रवृति देखी । विषाल बांधों की उम्र बीत जाने पर उनके रखरखाव के खतरे, जलवायु परिवर्तन की वजह से जलचव में आ रेह बदलाव के संकट , ऐसे बांधों का विषाल कब्रिस्तान उपजा रहे हैं । गाद भराव के कारण जलाषय की ामता में होने वाला दीर्घकालीन घटाव दुनियाभर में चिंता का विशय बना हुआ है । बांधों के करीबी मैदानों व खेतों में दलदलीकरण व लवणीकरण के खतरों से कृशि भूमि घटने का गंभीर संकट भारत सहित दुनियाभर के कई कृशि-प्रधान देष झेल रहे हैं ।
बड़े बांधों के कारण पर्यावरणीय तंत्र और जैवविविधता  पर अत्यधिक विपरित असर पड़ रहा है । जलाषय क्षेत्र में डूब की वजह से वनों व वन्य जीवों के के आवास व प्रजातियों का नाष हुआ है, जिसकी भरपाई असंभव है । यहां पानी रिसने से होने वाला जमीन का नुकसान, इलाके जानवरों का समाप्त होना आदि कुछ ऐसे नुकसान हैं जिनकी पूर्ति कोई भी वैज्ञानिक या तकनीकी खोज नहीं कर पाई है। इसी तरह बांध के उपर के हिस्से के जलग्रहण क्षेत्र के प्राकृतिक स्वरूप के बदरंग होने का खामियाजा समाज को भुगतना पड़ रहा है ।
बांधों के कारण लेाक-जीवन पपर पड़ रहे नकारात्मक प्रभावों का ना तो भलीभांति आकलन किया जाता है, ना ही उसे आय-व्यय में षामिल किया जाता है । जबकि यह प्रभाव काफी व्यापक है और इसमें नदी पर आश्रित समुदायों के जीवन, जीविका व स्वास्थ्य पर प्रभाव षामिल है । बड़े बांधो ंसे उपजी सबसे बड़ी त्रासदी है पुष्तैनी घर-गांवों से लेागों का विस्थापन । विस्थापितों को मिलने वाला मुआवजा जीवन को नए सिरे से षुरू करने को नाकाफी होता है । ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं होती है, जिनके नाम पुनर्वास या मुआवजे की सूची में होते ही नहीं है । भारत में ही अधिकांष घटनाओं में पाया गया है कि व्यवस्थित पुनर्वास और पर्याप्त मुआवजे के मामले बहुत ही कम हैं । अधिकंाष जगह लोग एक दषक से अधिक से अपने वाजिब मुआवजे के लिए लड़ रहे हैं और पैसा मिलना पूरी तरह भ्रश्टाचार की डोर पर टिका होता है।
बड़े बांधों के डूब क्षेत्र का निर्धारण इतनी निश्ठुरता से होता है कि उसमें सदियों पुरानी सांस्कृतिक धरोहरों, आध्यात्मिक अस्मिताओं और आस्थाओं के डबूने पर कोई संवेदना नहीं दिखती है । यह भी विडंबना है कि बड़े बांधों के विशम प्रभावों को झेलने वाले गरीब, किसान और आदिवासियों को इस बांध की सहूलियतों से मेहरूम रखा जाता है । उन्हें न  तो सिंचाई मिलती है और न ही बिजली , ना ही इन परियोजनाओं में रोजगार । यह भी पाया कि विषाल बांध अक्सर राजनेताओं, सरकारी संस्थाअेां, अंतरराश्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं और निर्माण कार्य में लगे ठेकेदारों के निजी हितों व स्वार्थों का केंद्र बन जाते हैं । यही नहीं बांध बन जाने के बाद निगरानी व मूल्यांकन की प्रक्रिया अक्सर अपनाई नहंी जाती है, तभी अनुभवों से सीखने व उसके अनुरूप सुधार करने की बात नदारत है ।
कुछ साल पहले जारी हुई विष्व बांध आयोग  की एक रिपोर्ट  समता, टिकाऊपन, कार्यक्षमता, भागीदारीपूर्ण निर्णय प्रक्रिया और जवाबदेही जैसे पांच मूल्यों पर आधारित थी और इसमें स्पश्ट कर दिया गया था कि ऐसे निर्माण उम्मीदों पर खरे नहीं उतर रहे हैं । विष्व बांध आयोग ने अपनी रिपोर्ट में बांधों से बेहतर परिणाम पाने के लिए कई सुझाव भी दिए थे । इसमें किसी बड़े बांध को बनाने से पहले उसकी सार्वजनिक स्वीकृति प्राप्त करना, उसके विकल्पों पर समग्र विचार करना, मौजूदा बांधो के अनुभवों के अनुसार कार्य करना आदि षामिल हैं । जिस नदी को बांध जा रहा हो, उसके पर्यावरणीय तंत्र और उस पर आश्रित लोगों की जरूरतों व सामाजिक मूल्यों को समझने से पुनर्वास के दर्द को कुछ कम किया जा सकता है । इसके अलावा जिन इलाके के लेाग बांध बनाने की त्रासदी का षिकार हो रहे हैं, बांध की सुविधाओं के लाभ में वहीं के लेागों की प्राथमिकता सुनिष्चित करना आवष्यक है ।
पुराने जलाषयों की मरम्मत, प्राकृतिक जलप्रपातों का इस्तेमाल, बेहतर जल प्रबंधन कुछ ऐसेे छोटे-छोटे प्रयोग हैं जो कि बड़े बांधों का सषक्त विकल्प बन सकते हैं । तेजी से बढ़ रही आबादी , भूमि के उपयोग में बदलाव और, प्राकृतिक आपदाओं के बढ़ते खतरे कुछ ऐसे कारक हैं जो कि किसी ऐसी परियोजना की प्रासंगिकता पर प्रष्न चिन्ह लगाते हैं जिसके निर्माण में कई साल  लगने हों व बड़ी पूंजी का निवेष होना हो । ऐसे निर्माण महज कुछ ठेकेदारों व औद्योगिक घरानों के अलावा किसी के हित में नहीं हैं ।

पंकज चतुर्वेदी
नेषनल बुक ट्रस्ट
5 वसंत कुंज इंस्टीट्यूषनल एरिया फेज-2
नई दिल्ली-110070

शनिवार, 30 अगस्त 2014

WORK IS WORSHIP THE SEA EXPRESS

THE SEA EXPRESS , AGRA 31-8-14http://theseaexpress.com/Details.aspx?id=66428&boxid=30477480
काम में क्या बुराई है ?
पंकज चतुर्वेदी
पिछले दिनों अखबार में दो समाचार एक ही दिन छपे। पहले में दिल्ली से सटे उत्तरप्रदेष के एक जिले में सरकारी स्कूल के एक टीचर को लानत-मनानत दी गई थी, क्योंकि उसने बच्चों से अपनी कक्षा की सफाई करवाई थी। दूसरी खबर भी उत्तरप्रदेष से ही थी - स्थानीय निकाय में सफाई कर्मचारी की खाली जगहों के लिए एम.ए. पास लोगों ने अर्जी दी, इनमें कई सामान्य और उच्च जातियों से थे। पहली खबर के खलनायक घोशित षिक्षक को तो उसके अफसरों ने बाकायदा कारण बताओं नोटिस जारी किया गया है। ऐसे लोगों केी कमी नहीं होगी, जो बच्चों से कक्षा में झाड़ू लगवाने को बाल अधिकार, बाल श्रम या बच्चों के षोशण से जोड़ कर देखते हों और उनकी निगाह में ऐसा करने वाला षिक्षक एक हैवान हो। ऐसे लोग भी बड़ी संख्या में होंगे जो उच्च षिक्षा या ऊंची जाति के लोगों द्वारा सफाईकर्मी के लिए अर्जी देने को देष मेें बढ़ती बेरोजगारी, दुर्गति और षिक्षा के अवमूल्यीकरण से जोड़ कर देख रहे होंगे। क्या कभी ऐसा सोचा गया कि आजादी के साठ साल बीत जाने के बाद भी आम हिंदुस्तानी ना तो श्रम  की कीमत समझा है और ना ही षिक्षा का उद्देष्य। हम अभी भी मान कर बैठे हैं कि  डिगरी पाने का मतलब कुरसी पर बैठ कर बाबूगिरी करना ही है,जैसा कि लार्ड मैकाले ने सोचा था। हम अभी भी यह समझ नहीं पाए हैं कि जब तक श्रम को उसका सम्मान नहीं मिलेगा, देष में सामाजिक-साहचर्य स्थापित नहीं किया जा सकेगा ।
क्या अपने घर की सफाई करना दोयम दर्जे का काम है ? क्या षौचालय को साफ करना अछूत कर्म है ? क्या एम.ए की डिगरी पा कर खेत या खलिहान में काम करना सम्मान के विरूद्ध है ? इन सभी संषयों/भ्रांतियों का जवाब महात्मा गांधी के दर्षन से मिल जाता है। एनसीईआरटी द्वारा प्रकाषित पुस्तक ‘‘बहुरूप गांधी’’ में इंग्लैंड से बारएट ला गांधी को लेखक-प्रकाषक, सपेरे, मोची और सफाईकर्मी के रूप में बड़े ही सहज तरीके से बताया गया है। गांधीजी की बुनियादी षिक्षा में ‘‘षिक्षण में समवाय’’ की बात कही गई है। समवाय यानी जिस तरह कपड़े बुनने की खड्डी में तागे को दाएं-बाएं दोनो तरफ से लिया जाता है, उसी तरह पढ़ाई में पाठ्यक्रम और व्यावहारिक ज्ञान साथ-साथ बुनना चाहिए। अभी कुछ साल पहले तक ही स्कूलों में बागवानी, पाककला आदि अनिवार्य हुआ करते थे। गांधीजी के समवाय में अपनी और अपने परिवेष की सफाई महत्वपूर्ण अंग रही है। सरकार बदलने के साथ पाठ्यक्रम बदलते रहे। इस बार की नई किताबों में तो बिजली  का फ़्यूज जोड़ने, षौचालय की सफाई जैसे विशयांे पर पाठ हैं। विडंबना है कि जब ये बातें जीवन में अमली जामा पहनने लगती हैं तो सरकार व समाज अजीब तरह की आपत्तियां दर्ज करने लगते हैं। एक बच्चा जिस परिसर में पांच-छह घंटे बिताता है, वहां की सफाई के प्रति यदि वह जागरूक रहता है और जरूरत पड़ने पर झाड़ू उठा लेता है तो यह एक सजग समाज की ओर सषक्त कदम ही होगा। क्या किसी एक कर्मचारी के बदौलत स्कूल मंे सफाई की उम्मीद रखना जायज बात है?
अब एयरपोर्ट व बड़े-बड़े माॅल्स में सफाई की बता लें, वहां माहौल अच्छा है, वहां वेतन ठीक-ठाक है तो कई जाति-समाज के लेाग वहां काम कर रहे हैं। इससे पहले जूते के काम के साथ भी यह हंो चुका है। आज चमड़े के बड़े-बड़े कारखाने से ले कर कस्बों में जूतों की दुकान तक पर उन जाति के लोगों का कब्जा है, जो कथित तौर पर उंची जाति कही जाती थी। अब तो चमड़े का काम एक विषेशज्ञ तकनीकी काम हो चुका है। लेदर डिजाईनिंग के बड़े-बड़े संस्थान बड़े-बड़े घर के लोगों को बड़ी-बड़ी फीस के साथ आकर्शित कर रहे हैं। जाहिर है कि जिस काम में धन आने लगता है, वही बाजार का चहेता बन जाता है और फिर वहां कोई जाति-समाज का बंधन नहीं रहता है, वहां केवल एक ही विभाजन रहता है- गरीब और अमीर । यह आज के समाज को जरूर विचारना होगा कि कहीं हम आज के बच्चों को कुछ ज्यादा संरक्षित वातावरण में बड़ा नहीं कर रहे हैं ? विशम परिस्थितियों और चुनौतियों का सामना करने के लायक हिम्मत और मन देने के लिए किताबों के साथ श्रम, उद्यम और साहस की पुरानी परंपराएं इतनी खराब नहीं है जितना उन्हें प्रचारित किया जा रहा है। असल में डिगरी के मायने दफ्तर में कुर्सी पाने से आगे स्थापित करना है तो स्कूल के दिनों में गमला लगाना या सफााई करना या अन्य कोई कार्य को दोयम या अत्याचार समझने की वृत्ति से मुक्ति जरूरी है।
एक तरफ हम सफाई कर्मचारियों को किसी दूसरे रोजगार में लगाने की बड़ी-बड़ी योजनाएं और वादे करते हैं, दूसरी तरफ अन्य जाति के लोग यदि इस ओर आते हैं तो इसे हिकारत की नजर से देखते हैं, जैसे कि भंगी का जन्म-सिद्ध अधिकार छीना जा रहा हो। एक तरफ हम बच्चों को आत्मनिर्भर बनाने के नारे लगाते हैं, दूसरी ओर अपनी ही कक्षा की सफाई करने पर उसे षोशण का नाम दे देते हैं। लगता है कि हम अपने विकास की वैचारिक दिषा ही नहीं तय कर पा रहे हैं। बाल-षोशण के खिलाफ आवाज उठाने के लिए विदेषों से पोशित संस्थाएं ‘बचपन बचाने’ के नाम पर बच्चे की नैसर्गिक विकास गति के विरूद्ध काम कर रही हैं। बचपन में इंसान की क्षमताएं अधिक होती हैं, वह उस दौर में बहुत कुछ सीख सकता है, जो उसके व देष के भविश्य के लिए सषक्त नींव हो सकता है। यदि कोई बच्चा पढ़ने-लिखने के साथ-साथ स्कूल में ही चरखा चलाना सीख रहा है, वह बिजली की मोटर बांधने की ट्रेनिंग ले रहा है तो इसमें क्या बुराई है। 18-20 साल की उमर में आ कर उसे समझ आए कि उसने जो कारे-कागज बांचे हैं, वह उसके लिए ना तो रोटी जुटा सकते हैं और ना ही सम्मान तो यह विडंबना नहीं हैं ? दो मत नहीं हैं कि बच्चे को खेलने-कूदने, पढ़ने-लिखने, घर-स्कूल में एक सहज व अच्छा माहौल मिलना चाहिए, लेकिन यदि इसके साथ अपने काम स्वयं करने की प्रेरणा भी हो तो क्या बुराई है ? किसी बच्चे के काम सीखने, उसकी काम करने की परिस्थितियां अनुकूल होने, उसका षोशण ना होना सुनिष्चित करने में बहुत अंतर है। यदि कोई बच्चा खेल-खेल में जिंदगी को जीना सीख रहा है तो क्या गलत है ?
पंकज चतुर्वेदी
यूजी-1, 3/186 ए राजेन्द्र नगर
सेक्टर-2
साहिबाबाद
गाजियाबाद 201005
9891928376, 0120-4241060


Sad demises of Prof Bipan chandra


हमोर गुरूजी, इतिहासविद, प्रख्‍यात पंथनिरपेक्ष प्रो विपिन चंद्रा नहीं रहे, वे पांच साल हमारे अइध्‍यक्ष रहे व उन्‍होंने कई बेहतरीन पुस्‍तकों का योगदान दिया, आप का लेखन हर समय जिंदा रहेगा विपिन चंद्रा जी
बिपन चंद्रा से सम्बंधित मुख्य तथ्य
• बिपन चंद्रा वर्ष 1985 में भारतीय इतिहास कांग्रेस के अध्यक्ष (General President) रहे.
• बिपन चंद्रा वर्ष 1993 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के सदस्य बने.
• उन्होंने नई दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में ऐतिहासिक अध्ययन केंद्र की अध्यक्षता की.
• बिपन चंद्रा वर्ष 2004 से 2012 तक नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली के अध्यक्ष रहे.
• बिपन चंद्रा का जन्म हिमाचल प्रदेश की कांगड़ा घाटी में 1928 को हुआ था.

बिपन चंद्रा की प्रमुख पुस्तकें
• आर्थिक राष्ट्रवाद का उदय और विकास
• स्वतंत्रता के बाद भारत (India after Independence)
• इन द नेम ऑफ़ डेमोक्रेसी: जेपी मूवमेंट एंड इमर्जेसी (In the Name of Democracy: JP Movement and Emergency)
• आधुनिक भारत में राष्ट्रवाद और उपनिवेशवाद (Nationalism and Colonialism in Modern India)
• सांप्रदायिकता और भारतीय इतिहास-लेखन (Communalism and the Writing of Indian History)
• भारत का आधुनिक इतिहास (History of Modern India)
• महाकाव्य संघर्ष (The Epic Struggle)
• भारतीय राष्ट्रवाद पर निबंध (Essays on Indian Nationalism)


दो पुस्‍तकों पर प्रो बिपन चंद्रा के साथ मेरा नाम जुडा हुआ है, एक है मेरी पुस्‍तक ''क्‍या मुसलमान ऐसे ही होते हें'', जो सन 2011 में आई थी शिल्‍पायन से और उसकी भूमिका सर ने लिखी थी , दूसरी पुस्‍तक थी भगत सिंह की, ''मैं नास्तिक क्‍यों हूं'', उसकी भूमिका प्रो बिपन चंद्रा ने लिखी थी, हालांकि इस पुस्‍तक के पहले भी कई अनुवाद हुए, लेकिन उनकी इच्‍छा थी कि मैं इसका अनुवाद नए सिरे से करूं, यह पुस्‍तक नेशनल बुक ट्रस्‍ट ने छापी थी ,

यहा उनसे जुडा एक वाकिया साझा करना चाहूंगा, लखनउ के प्रो प्रमोद कुमार ''अंडमान की दंडी बस्‍ती'' पर पुस्‍तक लिख रहे थे और उनहोंने सावरकार के माफी मांगने वाले प्रकरण को विस्‍तार से लिखा था, प्रो बिपन चंद्रा उन दिनों हमारे अध्‍यक्ष थे, उन्‍होंने मुझे बुला कर कहा कि उस पुस्‍तक में सावरकर वाला प्रकरण नहीं होना चाहिए, मैेने उनसे पूछा कि आखिर क्‍यों,

उनका जवाब था कि '' सावरकर का आकलन केवल उस एक घटना से नहीं किया जा सकता, 1857 पर उनी पुस्‍तक व स्‍वतंत्रता संग्राम में उनके संघर्ष को नकारा नहीं जा सकता है'' वे बिंदास, निष्‍पक्ष और निडर थे
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Pankaj Chaturvedi's photo.

सोमवार, 25 अगस्त 2014

grabing agriculture land on name of development

विकास की भेंट चढ़ती उपजाऊ जमीन

मुद्दा पंकज चतुव्रेदी
RASHTRIY SAHARA 26-8-14http://www.rashtriyasahara.com/epapermain.aspx?queryed=9

किसानों की जमीन अधिग्रहण के मामले में हाल में सुप्रीम कोर्ट ने भी कुछ तल्ख टिप्पणी की है। देश के छोटे-बड़े शहरों में जहां अपार्टमेंट्स बन रहे हैं, वहां साल-दो साल पहले तक खेती होती थी। गांव वालों से औद्योगिकीकरण के नाम पर औने-पौने दाम पर जमीन छीनकर हजार गुणा दर पर बिल्डिरों को दे दी गई। गंगा और जमुना के दोआब का इलाका सदियों से देश की खेती की रीढ़ रहा है। यहां की जमीन सोना उगलती है। लेकिन विकास के नाम पर कृषि भूमि पर कंक्रीट के जंगल रोप दिए गए। मुआवजा बांट दिया और हजारों बेरोजगारों की फौज खड़ी कर दी गई। इससे पहले सिंगूर, नंदीग्राम, जैतापुर, भट्टा पारसौल जैसी लंबी सूची है। देश में स्पेशल इकानोमिक जोन बनाए जा रहे है, सड़क, पुल, कालोनी- सभी के लिए जमीन चाहिए, वह जमीन जिस पर किसान का हल चलता हो। सवाल है कि विकास योजनाओं के लिए सरकार को देश की अर्थव्यवस्था का मूल आधार रहे खेत उजाड़ने पर क्यों मजबूर होना पड़ रहा है? किसान के खेत पर सबकी नजर लगी है। उस पर सड़कें, हवाई अड्डे बन रहे हैं, महानगरों की बढ़ती आबादी की जरूरत से अधिक निवेश के नाम पर बनाई जा रही बहुमंजिली इमारतों का ठिकाना भी उर्वर जमीन ही है। तमाम घटनाएं गवाह हैं कि कारखानों के लिए जमीन जुटाने के नाम पर जब खेतों को उजाड़ा जाता है तो लोगों का गुस्सा भड़कता है जबकि नक्शे और आंकड़ों में तस्वीर दूसरा पहलू कुछ और कहता है। देश में बंजर बड़ी लाखों-लाख हेक्टेयर जमीन को विकास का इंतजार है। लेकिन क्योंकि सब पका-पकाया खाना चाहते हैं इसलिए बेकार पड़ी जमीन को लायक बनाने की मेहनत से बचते हुए कृषि भूमि पर ही नजर गड़ जाती है। विदित हो कि देश में कुल 32 करोड़ 90 लाख हेक्टेयर भूमि में से 12 करोड़ 95 लाख 70 हजार हेक्टेयर बंजर है। भारत में बंजर भूमि के ठीक-ठीक आकलन के लिए अब तक कोई विस्तृत सव्रेक्षण तो नहीं हुआ है, फिर भी केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय का अनुमान है कि सर्वाधिक बंजर जमीन (दो करोड़ एक लाख 42 हजार हेक्टेयर) मध्यप्रदेश में है। उसके बाद राजस्थान में एक करोड़ 99 लाख 34 हजार हेक्टेयर, महाराष्ट्र में एक करोड़ 44 लाख एक हजार हेक्टेयर बंजर जमीन है। आंध्रप्रदेश में एक करोड़ 14 लाख 16 हजार, कर्नाटक में 91 लाख 65 हजार, उत्तर प्रदेश में 80 लाख 61 हजार, गुजरात में 98 लाख 36 हजार, ओडिशा में 63 लाख 84 हजार तथा बिहार में 54 लाख 58 हजार हेक्टेयर जमीन बेकार है। पश्चिम बंगाल में 25 लाख 36 हजार, हरियाणा में 24 लाख 78 हजार, असम में 17 लाख 30 हजार, हिमाचल में 19 लाख 78 हजार, जम्मू-कश्मीर में 15 लाख 65 हजार, केरल में 12 लाख 79 हजार हेक्टेयर जमीन, धरती पर बेकार है । पंजाब सरीखे कृषि प्रधान राज्य में 12 लाख 30 हजार हेक्टेयर, उत्तर-पूर्व के मणिपुर, मेघालय और नागालैंड में क्रमश: 14 लाख 38 हजार, 19 लाख 18 हजार और 13 लाख 86 हजार हेक्टेयर भूमि बंजर है। सर्वाधिक बंजर भूमि वाले मध्यप्रदेश में भूमि के क्षरण की रफ्तार भी सर्वाधिक है। यहां गत दो दशकों में बीहड़ बंजर दो गुने होकर 13 हजार हेक्टेयर तक हो गए हैं। धरती पर जब पेड़-पौधों की पकड़ कमजोर होती है तब बरसात के पानी से नंगी की मिट्टी बहने लगती है। जमीन के समतल न होने के कारण पानी को जहां जगह मिलती है, मिट्टी काटते हुए बहता जाता है। इस प्रक्रिया में बनने वाली नालियां कालांतर में बीहड़ का रूप ले लेती हैं। एक बार बीहड़ बन जाए तो हर बारिश में वह और गहरा होता चला जाता है। इस तरह के भूक्षरण से हर साल करीब चार लाख हेक्टेयर जमीन उजड़ रही है। बीहड़ रोकने का काम जिस गति से चल रहा है उसके अनुसार बंजर खत्म होने में 200 वर्ष लगेंगे, लेकिन तब तक बीहड़ ढाई गुना अधिक हो चुके होंगे। बीहड़ों के बाद, धरती के लिए सर्वाधिक जानलेवा, खनन-उद्योग रहा है। पिछले तीस वर्षों में खनिज-उत्पादन 50 गुना बढ़ा लेकिन यह लाखों हेक्टेयर जंगल और खेतों को वीरान बना गया है। नई खदान मिलने पर पहले वहां के जंगल साफ होते हैं फिर खदान में कार्यरत श्रमिकों की दैनिक जलावन की जरूरत पूर्ति हेतु आस-पास की हरियाली होम होती है । तदुपरांत खुदाई की प्रक्रिया में जमीन पर गहरी-गहरी खदानें बनाई जाती है, जिनमें बारिश के दिनों में पानी भर जाता है । वहीं खदानों से निकली धूल- रेत और अयस्क मिशण्रदूर-दूर तक की जमीन की उर्वरा शक्ति हजम कर जाते हैं। खदानों के गैर नियोजित अंधाधुंध उपायोग के कारण जमीन के क्षारीय होने की समस्या भी बढ़ी है। ऐसी जमीन पर कुछ भी उगाना नामुमकिन होता है। हरितक्रांति के नाम पर जिन रासायनिक खादों द्वारा अधिक अनाज पैदा करने का नारा दिया जाता रहा है, वह भी जमीन की कोख उजाड़ने की जिम्मेदार रही हैं। रासायनिक खादों के अंधाधुंध इस्तेमाल से पहले कुछ साल तो दुगनीतिगुनी पैदावार मिली, पर उसके बाद भूमि बंजर होती जा रही है। जल समस्या के निराकरण के नाम पर मनमाने ढंग से रोपे जा रहे नलकूपों के कारण भी जमीन कटने-फटने की शिकायतें सामने आई हैं। सार्वजनिक चरागाहों के सिमटने के बाद रहे बचे घास के मैदानों में बेतरतीब चराई के कारण भी जमीन के बड़े हिस्से के बंजर होने की घटनाएं मध्य भारत में सामने आई हैं । सिंचाई के लिए बनाई गई कई नहरों और बांधों के आस-पास जल रिसने से भी दल-दल बन रहे हैं ।़ 1985 स्थापित राष्ट्रीय बंजर भूमि विकास बोर्ड ने 20 सूत्रीय कार्यक्रम के 16 वें सूत्र के तहत बंजर भूमि पर वनीकरण और वृक्षारोपण का कार्य शुरू किया था। इसके तहत एक करोड़ 17 लाख 15 हजार हेक्टेयर भूमि को हरा- भरा किया गया लेकिन आंकड़ों का खोखलापन सेटेलाइट द्वारा खींचे गए चित्रों से उजागर हो चुका है। कुछ साल पहले बंजर भूमि विकास विभाग द्वारा बंजर भूमि विकास कार्य बल के गठन का भी प्रस्ताव था। कहा गया कि रेगिस्तानी, पर्वतीय, घाटियों, खानों आदि दुर्गम भूमि की गैर वनीय बंजर भूमि को स्थायी उपयोग के लायक बनाने के लिए यह कार्य- बल काम करेगा लेकिन सब कागजों पर ही सिमटा रहा। केंद्र व राज्य सरकार के विभिन्न विभागों के कब्जे में पड़ी अनुत्पादक भूमि के विकास के लिए कोई कवायद न होना विडंबना है। सरकार बड़े औद्योगिक घरानों को तो बंजर भूमि सुधार के लिए आमंत्रित कर रही है, लेकिन छोटे काश्तकारों की भागीदारी के प्रति उदासीन है। विदित हो देश में कोई तीन करोड़ 70 लाख हेक्टेर बंजर भूमि कृषि योग्य समतल है। भूमिहीनों को इसका मालिकाना हक दे उस जमीन को कृषि योग्य बनाना क्रांतिकारी कदम होगा। स्पेशल इकानामिक जोन बनाने के लिए अनुपयोगी, अनुपजाऊ जमीन ली जाए। इससे जमीन का क्षरण रुकेगा, हरी-भरी जमीन पर मंडरा रहे संकट के बादल छंटेंगे। जमीन का मुआवजा बांटने में जो खर्च होता है, उसे बंजर भूमि के समतलीकरण, जल संसाधन जुटाने, सड़किबजली मुहैया करवाने जैसे कामों में खर्च करना चाहिए।
     

Tea estate :exploitationn of labourer



मौत नाच रही है चाय बागानों में
                                पंकज चतुर्वेदी
DAINIK JAAGRAN NATIONAL EDITION 25-8-14http://epaper.jagran.com/epaper/25-aug-2014-262-edition-National-Page-1.html



जिस चाय की चुस्की से लोग तरोताजा होते हैं, उसे आपके प्याले तक लाने वाले इन दिनों मुफलिसी से तंग आ कर मौत को गले लगा रहे हैं । वैसे तो भारत के विदेशी मुद्रा भंडार के मुख्य आय स्त्रोतों में चाय निर्यात का स्थान शीर्ष पर रहा है , लेेकिन चाय बागानों की समस्याओं को सुलझाने के मामले में सरकार की प्राथमिकता में यह कभी भी नहीं रहा । एक तरफ चाय बागानों की लागत बढ़ रही है, दूसरी ओर चाय उद्योग पर आए रोज नए-नए कर लगाए जा रहे हैं और तीसरी तरफ मुक्त व्यापार की अंध-नीति के चलते अंतरराश्ट्रीय बाजार में हमारी चाय के दाम गिर रहे हैं । इसका सीधा असर उन लाखों लोगों पर सीधा पड़ रहा है जिनका जीवकोपार्जन पीढि़यों से चायबागानों पर निर्भर रहा हैं । आए रोज बागान बंद हो रहे हैं । सरकार घटते निर्यात पर तो चिंतित है लेकिन रोजगार के घटते अवसरों पर विचार करने को ही राजी नहीं हैं सरकार के इस फैसले से कोई तीन हजार छोटे चाय बागानों और उनमें काम करने वाले पंद्रह लाख से अधिक मजदूरों पर संकट के बादल छाते दिख रहे हैं । उल्लेखनीय है कि पिछले वित्तीय वर्श के दौरान देष में 120 करोड़ किलो चाय का उत्पादन हुआ था।
सन 1883 में ईस्ट इंडिया कंपनी का चीन में चाय के व्यापार पर से एकाधिकार समाप्त हो गया था । भारत में इसका विकल्प तलाशने के लिए 1834 में लार्ड विलियम बेंटीक की अगुआई में एक कमेटी गठित की गई थी । असम में एक छोटे से बागान में चाय की चीनी किस्म के ‘बोहेडा’ के बात और पौधे लगाए गए । इसी बीच बंगाल आर्टिलरी के मेजर राबर्ट ब्रूस ने पाया कि असम के पहाड़ी क्षेत्र में सिंगफोस नामक एक जनजाति चाय उगाती है । उसी समय इस स्थानीय प्रजाति ‘वीरीदीस’ का व्यावसायिक उत्पादन शुरू हुआ  था। चाय की यह किस्म चीन के उत्पाद से बेहतर सिद्ध हुई । कुछ ही दिनों में चाय का लंदन के लिए निर्यात  होने लगा । देखते ही देखते भारत विश्व का सर्वाधिक चाय उत्पादन और निर्यात करने वाला देश बन गया ।
इतने पुराने निर्यात उद्योग की समस्याओं पर गंभीरता से विचार करना तो दूर रहा, सरकार इसे समेटने पर उतारू है । उत्तरी बंगाल के जलपाईगुडी जिले के दुआर में गत तीन वर्श के दौरान 22 चाय बागान बंद कर दिए गए । उसमें काम करने वाले 40 हजार मजदूरों के परिवार भूख से बेहाल हैं । गत सात महीनों में 100 से ज्यादा मजदूर असामयिक मारे जा चुके हैं जिनमें 18 तो केवल बूंदापानी बागान के हैं। हाल ही में उत्तर बंगाल के 120 छोटे बागानों में तालाबंदी घोषित कर दी गई है । इससे कोई तीन हजार मजदूर बेरोजगार हो गए है । ये ऐसे बागान हैं, जिनके पास अपने कारखाने नहीं हैं । ये पत्ता तुड़वा कर दूसरों को बेचते थे । इनमें काम करने वाले लगभग 400 लोेग बिहार और उत्तर प्रदेश से हैं, जबकि शेष में से अधिकांश झारखंड के हैं । यहां भुखमरी की हालत बन रही है और मजदूर अब कुछ भी करने को आमदा हैं । वैसे भी यहां मिलने वाली मजदूरी बेहद कम होती है - आठ घंटे का मेहनताना महज  90 -95 रूपए। मजदूर बागानों पर कब्जा कर खुद ही पत्ती तोड़ कर बेचने की धमकी दे रहे हैं ।
असम के चाय बागानों में बेहद कम मजदूरी के भुगतान को ले कर संघर्श की स्थिति बन रही हैं । यही नहीं संसद के पिछले सत्र के दौरान सरकार ने स्वीकार किया था कि चाय बागानों में भुखमरी फैलने के कारण 700 लोग मार चुके हैं ।
वैसे वास्तविक आंकडे इससे कहीं अधिक हैं । लेकिन इसे स्वीकारना होगा कि श्रमिकों का षोशण अकेले बागान मालिकों के हाथों ही नहीं हो रहा है, बल्कि उनके कल्याण का दावा करने वाले श्रमिक संगठन भी इसमें पीछे नहीं हैं । कुछ साल पहले नवंबर महीने में जलपाईगुड़ी जिले के वीरापारा में डलगांव चायबागान में एक मजदूर नेता व उसके परिवार को जिंदा जलाने की घटना से यह बात उजागर हो चुकी है ।
चाय बागान मालिकों का कहना है कि मौजूदा प्लांटेषन लेबर एक्ट के प्रावधानों के चलते उनकी उत्पादन लागत अधिक आ रही है और इसके चलते वे बागान चलाने में सक्षम नहीं है । सनद रहे इस कानून के तहत बागान मालिक मजदूरों को मेहनताने का भुगतान तो करना ही होता है, साथ ही श्रमिकों के लिए मकान, चिकित्सा, बच्चों के लिए स्कूल, छोटे बच्चों के लिए झूला घर जैसी सुविधाएं मुहैया करवाना भी अनिवार्य है । इंडियन टी एसोषिएसन की मांग है कि प्लांटेषन कानून में संषोधन कर श्रमिक कल्याण का जिम्मा सरकार को लेना चाहिए, क्योंकि वे लेाग पर्याप्त टैक्स चुका रहे हैं ।
बेरोजगारी से हैरान परेशान मजदूरों की जब कहीं सुनवाई नहीं हुई तो वे सुप्रीम कोर्ट की शरण में गए थे । इंटरनेशनल यूनियन आफ फूड, एग्रीकल्चर,होटल, रेस्टोरेंट, केटरिंग, टौबेको प्लांटेशन एंड एलाइड वर्कस एसोशिएसन द्वारा दायर याचिका में कहा गया था कि उत्तर बंगाल के 18 बड़े चाय बागानों में काम करने वाले 17,162 कर्मचारियों के महनताने के 36.60 करोड़ रूपए का भुगतान नहीं किया जा रहा है । अब तक बागानों के 240 लोग खुदकुशी कर चुके हैं । याचिका में यह भी कहा गया था कि असम में बागानों को सन 2002 से गैरकानूनी तरीके से बंद कर दिया गया है । सर्वाधिक पढ़े - लिखे लोगों के राज्य केरल में में तो गत् 20 सालों से चाय बागान मजदूरों को पूरी मजदूरी ही नहीं मिली है ।  इस याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार, भविष्य निधि विभाग, आठ राज्यों - असम, पश्चिम बंगाल,केरल, तमिलनाडू,त्रिपुरा,कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश और उत्तरांचल को नोटिस जारी कर स्थिति की जानकारी देने के लिए कहा था । लेकिन सुप्रीम कोर्ट सरकार तो चला नहीं सकती हैं और सरकार में बैठे लोग कागज भरने व काम अटकाने में माहिर होते हैं। लिहाजा यह मामला भी वहीं अटका हुआ है।

              
पंकज चतुर्वेदी
नेषनल बुक ट्रªस्ट ,इंडिया
नई दिल्ली 110070



flood in asam

असम की अर्थ व्यवस्था को चाट जाती है बाढ़
पंकज चतुर्वेदी

dainik hindustan 25-8-14http://paper.hindustantimes.com/epaper/viewer.aspx

पूवोत्तर के सबसे बड़े राज्य असम के 14 जिले इन दिनों पूरी तरह जलमग्न हैं। राज्य का लगभग 40 प्रतिषत हिस्सा नदियों के रौद्र रूप पस्त है।अनुमान है कि कोई 200 करोड़ का नुकसान हो चुका है जिसमें - मकान, सउ़क, मवेषी, खेत, पुल, स्कूल, बिजली, संचार आदि षामिल हैं। राज्य में इतनी मूलभूत सुविधाएं खड़ा करने में दस साल लगते हैं , जबकि हर साल औसतन इतना नुकसान हो ही जाता है। वहां हर साल कम से कम तीन महीने बाढ़ के कारण यही हालत रहती है।  राज्य सरकारों का ध्यान बाढ़ के बाद राहत कार्यों व मुआवजा पर रहता है, यह दुखद ही है कि आजादी के 67 साल बाद भी हम वहां बाढ़ नियंत्रण की कोई मुकम्मल योजना नहीं दे पाए हैं।यदि इस अवधि में राज्य में बाढ से हुए नुकसान व बांटी गई राहत राषि को जोड़े तो पाएंगे कि इतने धन में एक नया सुरक्षित असम खड़ा किया जा सकता था।
असम में हर साल तबाही मचाने वाली ब्रह्यंपुत्र और बराक नदियां, उनकी कोई 48 सहायक नदियां और  उनसे जुड़ी असंख्य सरिताओं पर सिंचाई व बिजली उत्पादन परियोजनाओं के अलावा इनके जल प्रवाह को आबादी में घुसने से रोकने की योजनाएं बनाने की मांग लंबे समय से उठती रही है। असम की अर्थ व्यवस्था का मूल आधार खेती-किसानी ही है, और बाढ़ का पानी हर साल लाखों हैक्टर में खड़ी फसल को नश्ट कर देता है। ऐसे में वहां का किसान कभी भी कर्ज से उबर ही नहीं पाता है। एक बात और ब्रह्यंपुत्र नदी के प्रवाह का अनुमान लगाना भी बेहद कठिन है। इसकी धारा की दिषा कहीं भी, कभी भी  बदल जाती हे। परिणाम स्वरूप जमीनों का कटाव, उपजाऊ जमीन का नुकसान भी होता रहता है। यह क्षेत्र भूकंप ग्रस्त हे। और समय-समय पर यहां धरती हिलने के हल्के-फुल्के झटके आते रहते है।। इसके कारण जमीन खिसकने की घटनाएं भी यहां की खेती-किसानी को प्रभावित करती है। इस क्षेत्र की मुख्य फसलें धान, जूट, सरसो, दालें व गन्ना हैं। धान व जूट की खेती का समय ठीक बाढ़ के दिनों का ही होता है। यहंा धान की खेती का 92 प्रतिषत आहू, साली बाओ और बोडो किस्म की धान का है और इनका बड़ा हिसा हर साल बाढ़ में धुल जाता है।  असम में मई से ले कर सितंबर तक बाढ़ रहती है और इसकी चपेट में तीन से पांच लाख हैक्टर खेत आते हैं । हालांकि खेती के तरीकों में बदलाव और जंगलों का बेतरतीब दोहन जैसी मानव-निर्मित दुर्घटनाओं ने जमीन के नुकसान के खतरे का दुगना कर दिया है। दुनिया में नदियों पर बने सबसे बड़े द्वीप माजुली पर नदी के बहाव के कारण जमीन कटान का सबसे अधिक असर पड़ा है।
नदी पर बनाए गए अधिकांष तटबंध व बांध 60 के दषक में बनाए गए थे । अब वे बढ़ते पानी को रोक पाने में असमर्थ हैं । फिर उनमें गाद भी जम गई है, जिसकी नियमित सफाई की कोई व्यवस्था नहीं हैं। पिछले साल पहली बारिष के दवाब में 50 से अधिक स्थानों पर ये बांध टूटे थे । इस साल पहले ही महीने में 27 जगहों पर मेढ़ टूटने से जलनिधि के गांव में फैलने की खबर है। वैसे मेढ़ टूटने की कई घटनाओं में खुद गांव वाले ही षामिल होते हैं । मिट्टी के कारण उथले हो गए बांध में जब पानी लबालब भर कर चटकने की कगार पर पहुंचता है तो गांव वाले अपना घर-बार बचाने के लिए मेढ़ को तोड़ देते हैं । उनका गांव तो थोड़ सा बच जाता है, पर करीबी बस्तियां पूरी तरह जलमग्न हो जाती हैं । बराक नदी गंगा-ब्रह्यपुत्र-मेधना नदी प्रणाली की दूसरे नंबर की सबसे बड़ी नदी है। इसमें उत्तर-पूर्वी भारत के कई सौ पहाड़ी नाले आकर मिलते हैं जो इसमें पानी की मात्रा व उसका वेग बढ़ा देते हैं। वैसे इस नदी के मार्ग पर बाढ़ से बचने के लिए कई तटबंध, बांध आदि बनाए गए और ये तरीके कम बाढ़ में कारगर भी रहे हैं।
हर साल की तरह इस बार भी सरकारी अमले बाढ़ से तबाही होने के बाद राहत सामग्री बांटने के कागज भरने में जुट गए हैं । विडंबना ही हैं कि राज्य में राहत सामग्री बांटने के लिए किसी बजट की कमी नहीं हैं, पर बाढ़ रोकने के लिए पैसे का टोटा है । बाढ़ नियंत्रण विभाग का सालाना बजट महज सात करोड़ है, जिसमें से वेतन आदि बांटने के बाद बाढ़ नियंत्रण के लिए बामुष्किल एक करोड़ बचता हैं । जबकि मौजूदा मेढ़ों व बांधों की सालाना मरम्मत के लिए कम से कम 70 करोड़ चाहिए । यहां बताना जरूरी है कि राजय सरकार द्वारा अभी तक इससे अधिक की राहत सामग्री बंाटने का दावा किया जा रहा हैं ।
ब्रह्मपुत्र घाटी में तट-कटाव और बाढ़ प्रबंध के उपायों की योजना बनाने और उसे लागू करने के लिए दिसंबर 1981 में ब्रह्मपुत्र बोर्ड की स्थापना की गई थी । बोंर्ड ने ब्रह्मपुत्र व बराक की सहायक नदियों से संबंधित योजना कई साल पहले तैयार भी कर ली थी । केंद्र सरकार के अधीन एक बाढ़ नियंत्रण महकमा कई सालों से काम कर रहा हैं और उसके रिकार्ड में ब्रह्मपुत्र घाटी देष के सर्वाधिक बाढ़ ग्रस्त क्षेत्रों में से हैं । इन महकमों नेेे इस दिषाा में अभी तक क्या कुछ किया ? उससे कागज व आंकड़ेां को जरूर संतुश्टि हो सकती है, असम के आम लेागों तक तो उनका काम पहुचा नहीं हैं ।
असम को सालाना बाढ़ के प्रकोप से बचाने के लिए ब्रह्मपुत्र व उसकी सहायक नदियों की गाद सफाई, पुराने बांध व तटबंधों की सफाई, नए बांधों को निर्माण जरूरी हैं । लेकिन सियासती खींचतान के चलते जहों जनता ब्रह्मपुत्र की लहरों के कहर को अपनी नियति मान बैठी है, वहीं नेतागण एकदूसरे को आरोप के गोते खिलवाने की मषक्कत में व्यस्त हो गए हैं । हां, राहत सामग्री की खरीद और उसके वितरण के सच्चे-झूठे कागज भरने के खेल में उनकी प्राथमिकता बरकारार हैं ।

शनिवार, 23 अगस्त 2014

Yes governments hear louds

द सी एक्‍सप्रेस, आगरा के मेरे साप्‍ताहिक कालम में आज कर्नाटक के कुछ ऐसे गांवों की चर्चा जिनकी अधिकांश आबादी बहरी है, लेकिन सरकारी रिकार्उ में वे विकलांग नहीं हैं, इसे इस लिंक http://theseaexpress.com/Details.aspx?id=66315&boxid=158551488या मेरे ब्‍लाग pankajbooks.blogspot.inपर पढ सकते हैं
हां! सरकारें ऊंचा सुनती हैं
पंकज चतुर्वेदी
पूरा गांव या तो सुन नही ंपाता है या फिर जोर से बोलो तो कुछ सुन पाता है। कहने को यह आदिवासी बाहुल्य गांव है, लेकिन कई पीढि़यों से यहां यही हालात हैं, ना तो कोई षोध हो रहा है और ना ही कोई इलाज। यह दर्द है कनार्टक के उत्तरी कन्नड़ा जिले के बासवन्नाकोप्पा गांव का यह गांव तालुका मुख्यालय मुंदगोड से कोई 18 किलोमीटर दूर है। यहां पीढी दर पीढी बहरेपन से सारा गांव परेषान है। पहले कान से कुछ चिपचिपा सा पदार्थ निकलता है और फिर धीरे-धीरे सुनने की क्षमता चुकती जाती है। यह कहानी घने जंगलों के बीच बसे कई और गांवों की भी जहां के वाषिंदे आवाजों को महसूस करने से मोहताज होते जा रहे हैं।
बासवन्नाकोप्पा गांव में कुछ घर सिद्दी व हरिजनों के हैं, लेकिन बहुसंख्यक आबादी ‘केरेवोक्कालिंगा’ नामक जनजाति की है। सौ से अधिक आबादी में से कोई साठ कान के रोगी है। यहां यह भी जानना जरूरी है कि यह रोग केवल इसी जाति के लेागों में है, यहीं निवास करने वाली अन्या जातियों में नहीं।यहां से दो किजोमीटर दूर स्थित गांव ‘सुल्लाली’ को भी केप्पा यानी बहरी-बस्ती कहते हैं। यहां भी तीन-चैथाई वाषिंदे केरेवोक्कालिंगा ही हैं। यहां इस बीमारी का आगमन कोई 35 सालों के दौरान हुआ है। इन दोनों गावांे में स्कूल जाने वाले बच्चे कान कमजोर होने के ज्यादा षिकार हैं और इससे उनकी पढ़ाई भी प्रभवित हो रही है।
जैसा कि आमतौर पर कहा जाता है कि जो बच्चे बहरे होते हैं वे गूंगे भी होते हैं, लेकिन केरेवोक्कालिंगा लोगों में ऐसा नहीं है।यहां तक कि जन्मजात बहरे बच्चे भी बोलने में कोई दिककत नहीं महसूस करते हैं। यहा ंबहरेपन की षुरूआत कान बहने से होती है। छोटे बच्चों के कान पहले दुखने षुरू होते हैं, फिर रिसाव और उसके बाद श्रवण क्षमता का क्षय। सबकुछ पिछले कई दषकों से चल रहा है, इसके बावजूद इलाज के नाम पर नीम-हकीमी नुस्खों का ही जोर है। इमली के पेड़ की छाल को जला कर उसमें नीबू का रस मिला कर बनाया गया नुस्खा या फिर किसी भी तेल में तुलसी का छोंक लगा कर बनाई गई कथित दवा ही यहां ज्यादा प्रचलित है। कुछ लोग षहरी डाक्टसे अंग्रेजी दवा भी लाए, डाक्टर ने इनफेक्ष्षन या एलर्जी की दवाएं दीं। इसमें से कुछ भी कारगर नहीं रहा और अब आदिवासी इसे अपनी नियति मान कर अपने देवी-देवताओं से मनाते हैं कि उनके यहां बच्चों को यह रोग ना लगे।
आदिवासियों के ओझा ‘गुडिगा’ का प्रचार है कि ‘किलुदेव’ की नाराजी के चलते यह रोग गांव में बस गया है। देवता के श्राप की मुक्ति के नाम पर गुडिगा खूब कमाता है। जब किसी धर में कोई महिला गर्भवती होती है तो उसकी उड़ कर लगती है।  आने वाले बच्चे को देवा के प्रकोप से बचाने के नाम पर खूब भेंट मिलती हे। कई बार नवजात षिषु के कान में भी बगैर जाने-समझे नुस्खे आजमाए जाते हैं। इसी का परिणाम होता है कि कान बहने का रोग बहरेपन में बदल जाता है।
हालांकि इस गांव में प्राथमिक षाला खुले तीस साल हो गए हैं, लेकिन बहरेपन के कारण बच्चे स्कूल आते नहीं हैं। यहां दाई-नर्स भी आती है और उसकी मानें तो वह अपने अफसर डाक्टरों को बहरे गांवों की दिक्कत बताती रही है, लेकिन ऊपर से ही उनके लिए कोई दवा नहीं आती है।  जिला प्रषासन इस तरह बहरों के गांव हाने पर अनभिज्ञता जाता है। वैसे यह बहरापन इन गावों का नहीं, बल्कि सरकारी सिस्टम का है। इस बात का रिकार्ड उपलब्ध है कि सन 1980 में मुंदगोड केे तहसीलदार ने जिला प्रषासन को ‘बहरे गाव’ के बारे में सूचना भेजी थी। फिर तहसीलदार का तबादला हो गया व रिपोर्ट लाल बस्ते में गुम हो गई। एक बात और इलाके में विकलांगता के सर्वे में भी यहां का रिकार्ड षामिल नहीं होता है।
यदि स्थानीय डाक्टरों की मानें तो कुछ गांवों में जन्मजात बहरेपन के मुख्य कारण हैं - गर्भवती महिलाओं को पेाशक आहार की कमी,नजदीकी रिष्तों में विवाह होना, माता-पिता में गुप्त रोग और नवजात के कानों में गुनिया-ओझा के प्रयोग। यह बात भी सामने आई है कि बहरापन एक आनुवांषिकी रोग है और लगातार एक ही रक्त-कुल में विवाह करने से यह बढ़ता जाता है। ये लोग आपस के नजदीकी रिष्तों में ही षादी करते हैं ।  एक तो यह उनकी परंपरा है और फिर ये इलाके इतने बदनाम हो गए हैं कि अन्य कोई गांव के लोग ‘बहरों के गांव में ’’ रिष्ते को राजी नहीं होते हैं। जबकि कान बहने की समस्या की जड़ में मूल रूप से गंदे पानी से नहाना व वह पानी कान में जाना या बच्चों को रोग प्रतिरोधक टीके नहीं लगवाना है। केरेवोक्कालिंगा गांवों में यह सभी समस्याएं हैं ही।यहां पीने के पानी के सुरक्षित स्त्रोत हें नहीं। यहां कई साल पहले लिफ्ट इरीगेषन की एक परियोजना षुरू हुई थी, लेकिन वह आधी-अधूरी ही रही। सुल्लाली गांव में तो अभी भी लेाग खुले कुंए का पानी ही पीते हैं।
सनद रहे एक ऐसा ही गांव उत्तरी कन्नडा से कई हजार किलोमीटर दूर झारखंड के देवघर जिले में भी है। झूमरवाड नामक इस गांव की आबादी मुस्लिम हैं और यहां भी हर दूसरा चेहरा कम सुनने वाला है। हो सकता हे कि ऐसे कई और गांव देष के आंचलिक क्षेत्रों में हों। यहां साफ-सफाई के प्रति जागरूकता, साफ पानी की व्यवस्था, पुष्तों से बहरेपन के कारणों का पता लगाने के लिए विषेश षोध की व्यवस्था और इसके लिए माकूल दवा के खास इंतजाम जरूरी है। यह दुखद है कि विज्ञान के क्षेत्र में अंतरिक्ष पर काबिज होने के लिए काबिल इंसान उनके इलाज की तो बात दूर , ऐसे गांवंो ंव उनकी दिक्कतों से वाकिफ नहीं है।

save the traditional water tanks, demand for taalaab pradhikaran

जैसा कि हमने अपनी एक पोस्‍ट में उल्‍लेख किया था कि आज गाजियाबाद में बहुत सी संस्‍थआों, साथ्यिों ने श्री संजय कश्‍यप के नेत्रत्‍व में एक ज्ञापन केंद्रीय जल संसाधन मंत्री माननीया उमा भारतीजी के नाम, जिलाधीश के माध्‍यम से भेजा है, जिसमें पूरे देश के पारंपरिक जल स्‍त्रोत तालाबों के विस्‍त़त सर्वे, उनके रखरखाव, उनसे जुडे कानूनी विवादों के त्‍वरित निबटारे, तालाबों की जल क्षमता बढाने व उन्‍हें एक बार फिर समाज से जोडने जैसे अधिकारों से संपन्‍न तालाब प्राधिकरण के गठन की मांग की गई थी, हमारी योजना इस कार्य में देशभर के सभी सुधिजनों, संस्‍थाओं को जोडने की है, एक लक्ष्‍य रखा गया है कि देशभर के कम से कम एक लाख लोग इस ज्ञापन पर हस्‍ताक्षर करें व एक दिन हम सभी साथी स्‍वयं मंत्री को मिल कर वह ज्ञापन सौंप कर अपनी बात विस्‍त़त रूप से रखेंा इस बाबात तैयार ज्ञापन मेरे पास से या संजय कश्‍यप जी से मंगवाया जा सकता है, उसे अपनी संस्‍था के नाम से पहले अपने जिले में कलेक्‍टर के माध्‍यम से केंद्रीय मंत्री को पहुंचाएं फिर उस पर विस्‍त़त हस्‍ताक्षर अभियान चला कर उसे हमें भेज देंा इससे एक तो स्‍थानीय स्‍तर पर अभियान से लोग जुडेंगे व जागरूकता निर्मित होगी,
मेरा निवेदन है कि हमारे सभी दोस्‍त इस कार्य में पूरी ताकत से जुटें, ज्ञापन की प्रति मुझसे या संजयजी से ईमेल पर मंगवाई जा सकती हैा, इस पर आप अपी संस्‍थ का नाम, व स्‍थानीय तालाब की समस्‍या जोडने के लिए भी स्‍वतंत्र हैं बस दो महीने में इस पर लोगों के नाम, ईमले, मोबाईल नंबर सहित अधिक से अधिक हस्‍ताक्षर वाली प्रति हम तक पहुंच जाए और इसे अपने जिले के कलेक्‍टर को देने की सूचना भी ा संजय जी का ईमेल हैsankash@rediffmail.com और मेरा है pc7001010@gmail.com हम आपको आपेन फाईल और पीडीएफ देानो भेज देंगे

इस बाबत कुछ अखबारों में छपी खबरें तथा ज्ञापन की प्र
ति भी प्रस्‍तुत है 





सोमवार, 18 अगस्त 2014

SAY NOT TO BT SEEDS

बेंगन से पहले याद करो  बीटी काटन !
पंकज चतुर्वेदी
DAILY NEWS JAIPUR 19-8-14http://dailynewsnetwork.epapr.in/323277/Daily-news/19-08-2014#page/7/1

भारत सरकार के कृशि मंत्रालय की संसदीय समिति की सर्वसम्मत रिपोर्ट साफ कह रही है कि जीन-संषोधित यानी जीएम फसलेंा का प्रयोग इंसान व जीन-जंतुओं पर बुरा असर डालता है।इसके बावजूद उत्तर प्रदेष सरकार ने पिछले साल ही अपने राज्य में कपास के बीटी बीजों को मंजूरी देने का मन बना लिया है। संसदीय समिति ने वैज्ञानिकों के एक स्वतंत्र समूह से इस पर मषवरा किया था। अब देष का सर्वोच्च अदालत द्वारा गठित तकनीकी विषेशज्ञ समिति की अंतरिम रपट भी जीएम फसलों को नुकसानदेह बता कर उसपर कम से कम दस साल की पाबंदी लगाने की सिफारिष कर चुकी है। जैसी कि समिति का सुझाव था कि इस तरह की फसलों के दीर्घकालीक प्रभाव के आकलन के लिए एक उच्च षक्ति प्राप्त कमेटी भी बनाई जाए, लेकिन अभी तक कुछ ऐसा हुआ नहीं है। इस तरह के चिंताजनक निश्कर्शों के बावजद राजनेताओं और औघोगिक घरानों की एक बड़ी लाॅबी येन केन प्रकारेण जीएम बीजों की बड़ी खेप बाजार में उतारने पर उतारू है। अब देखना है कि नई सरकार का इस पर क्या रवैया रहता है।
सनद रहे अक्तूबर-2009 में जेनेटिक इंजीनियरिंग एप्रूवल कमेटी की हरी झंडी के बाद हिंदुस्तान में बीटी बैंगन की खेती व बिकी्र का रास्ता साफ हो गया था। बीटी बैंगन के पक्ष में दिए जा रहे तथ्यों में यह भी बताया जा रहा है कि बीटी काटन की ख्ेाती षुरू होने के कारण कपास पैदावार में भारत दुनिया में दूसरे नंबर पर आ गया है। कहा जा रहा है कि इन बीजों की फसल पर सूखे का असर नहीं होगा, कीटनाषकों पर होने वाला खर्चा भी बचेगा, क्योंकि इस फसल पर कीड़ा लगता ही नहीं है। ज्यादा फसल का भी लालच दिया जा रहा है। भारत की षाकाहारी थाली में बैंगन एक पसंदीदा सब्जी है। इसकी जितनी जरूरत है, उतना उत्पाद हजरों किस्मों के साथ पहले से ही हो रहा है। ऐसे में षरीर की प्रतिरोधक क्षमता घटाने वाले तत्वों की संभवना और भरमार से बंटाधार करने वाली महंगी किस्म उगाने के लिए प्रेरित करना ना तो व्यावहारिक है और ना ही वैज्ञानिक। सबसे बड़ी बात , बीटी काटन के कड़वे अनुभवों पर सुनियोजित तरीके से पर्दा भी डाला जा रहा है।
 बीटी यानी बेसिलस थुरिनजियसिस मिट्टी में पाया जाने वाला एक बेक्टेरिया है। इसकी मदद से ऐसे बीज तैयार करने का दावा किया गया है , जिसमें कीटों व जीवों से लड़ने की क्षमता होती है। भारत की खेती अपने पारंपरिक बीजो ंस हाती है। किसान के खेत में जो सबसे अच्छी फली या फल होता है, उसे बीज के रूप में सहेज कर रख लिया जाता है। सरकारी फार्मों से नई नस्लों के बीज खरीदने की प्रचलन भ्ी बढ़ा है। बीटी बीजों की त्रासदी है कि इसकी फसल से बीज नहीं निकाले जा सकते, हर साल कंपनी से नए बीज खरीदना ही होगा।
बिना किसी नफा-नुकसान का अंदाजा लगाए सन 2002 में पहली बार बीटी कपास की खेती षुरू कर दी गई थी। किसानों ने तो सपने बोए थे, पर फसल के रूप में उनके हाथ धोखा, निराषा और हताषा  ही लगी थी। उस दौर में सरकारी अफसर तक किसानों के पीछे लगे थे कि यह नया अमेरिकी बीज है, ऐसी फसल मिलेगी कि रखने को जगह नहीं मिलेगी । हुआ ठीक उसका उलटा - खेत मे उत्पादन लागत अधिक लगी और फसल इतनी घटिया कि सामान्य से भी कम दाम पर खरीददार नहीं मिल रहे हैं । भारत में पहली बार बोए गए बायोटेक बीज बीटी काटन की पहली फसल से ही थोथे दावों का खुलासा हो गया था। तब बीज बेचने वाली कंपनी अपनी खाल बचाने के लिए किसानों के ही दोश गिनवाने लगी और अपने बीजों के दाम 30 फीसदी घटाने को भी राजी हो गई थी।
बेहतरीन फसल और उच्च गुणवत्ता के कपास के सपने दिखाने वाले बीटी काटन बीज पर्यावरणविदों के भारी विरोध और कर्नाटक और आंध्रप्रदेष में उसकी हकीकत उजागर होने के बावजूद मध्यप्रदेष में भी बोए गए । चार साल पहले दक्षिणी राज्यों में नए बीज की पहली फसल ने ही दगा दे दिया था। आंध्रप्रदेष में सन 2002 और 2003 में एक अध्ययन से स्पट हो गया कि बीज कंपनी के दावे के विपरीत फसयल कम हो रही, साथ ही बोलवर्म नामक कीड़ा भ्ी फसल में खूब लगा। इस मामले ने राजनैतिक रंग ले लिया था। तीन साल पहले राज्य के कृशि मंत्री ने विधानसभा में स्वीकारा थां कि बीटी काटन बीज अपनी कसौटी पर खरे नहीं उतरे । कपास के फूल का आकार छोटा है और उसकी पौनी भी ठीक से नहीं बनती है । इसी कारण नए बीज का उत्पाद बाजार में 200 से 300 रूपए प्रति कुंटल कम कीमत पर बिका ।
यहां जानना जरूरी है कि बीटी काटन बीज , बेहतरीन किस्म के अन्य संकर बीज से कोई प्रति पैकेट कोई एक हजार रूपए महंगा है। एक पैकेट को एक से डेढ़ एकड़ में बोया जाता है । बीज महंगा, दवा व खाद का खर्च ज्यादा और फसल भी कम ! आखिर किस तर्क पर सरकारी अमले इस विदेषी बीज की तारीफ में पुल बांध रहे हैं  ?
दो साल पहले मध्यप्रदेष में जिन ख्ेातों में बीटी काटन लगाया गया, वहां वीारानी छा गई थी । 70 प्रतिषत फसल तो वैसे ही सूख गई । कंपनी ने यहां कुछ किसानों को ही बीज बेचने का एजेंट बनाया था ।  कई फिल्मी हस्तियों, क्लब में नाचने वाली लड़कियों व भोज के आयोजन के माध्यम से इन बीजों का प्रचार-प्रसार सन 2004 में षुरू हुआ । यही नहीं कुछ किसानों के फोटो के साथ पोस्टर बांटे गए, जिनमें दावा था कि इनके खेतों में महिको-184 बीज के एक पैकेट में 25 कुंटल कपास पैदा हुआ । हकीकत में किसी भी खेते में पांच कुंटल से अधिक पैदावार हुई ही नहीं ।
प्रदेष के एक जिले धार में कपास की फसल पर एक सर्वेक्षण किया गया । किसान अनुसंधान एवं षैक्षणिक प्रगति संस्थान और संपर्क नामक दो गैरसरकारी संगठनों ने धार जिले के खेतों पर गहन षोध कर पाया कि बीटी बीज उगाने पर एक एकड़ में खर्च राषि रू. 2127.13 आती है, जबकि गैर-बीटी बीज से यह व्यय रू. 1914.86 ही होता है । प्रति एकड़ ज्यादा खर्च करने पर भी फसल लगभग बराबर होती है । यही नहीं बीटी कंपनियों का यह दावा गलत साबित हुआ कि नए जमाने के बीजों में छेदक इल्ली डेंडू का प्रकोप नहीं होता है । बीटी बीज वाले खेतोें में तीन-चार बार कीटनाषक छिड़कना ही पड़ा । विडंबना है कि नए बीजों के हाथों किसानों के लुटने के बावजूद राज्य सरकार इन बीजों  को थोपने पर उतारू है ।
वैसे अब किसानों को बीटी काटन की धोखाधड़ी समझ आ गई है । अगली फसल के लिए किसानों ने एक बार फिर अपने पारंपरिक ज्ञान और प्रक्रिया को ही अपनाने की फैैसला किया है ।
अब बैगन की बारी है। किसानों पर दवाब बनाने के लिए कंपनी अब सरकारी कायदों और कर्ज आदि का सहारा ले रही है । गलत तथ्य तो पेष किए जा ही रहे हैं। यह क्यों नहीे बताया जा रहा है कि बीटी बीजों के फूलों से कीटों के परागण की नैसर्गिक प्रक्रिया बाध्य होगी और बेहतरीन बीज सहेज कर रखने की हमारी पारंपरिक खेती नश्ट होगी। देषभर से कोई दस हजार लोगों ने सरकार के इस निर्णय के खिलाफ पर्यावरण मंत्रालय को लिखा है। बीटी बीज बेचने वाली बहुराश्ट्रीय कंपनी ने सरकार में बैठे लोगों के बीच एक लाॅबी बना ली है। यह तय है कि आने वाले दिन किसानों के लिए नए टकराव व संघर्श के होंगे ।

पंकज चतुर्वेदी
नई दिल्ली -110070
संपर्क 9891928376


अमेरिका में बीटी बीज ्
मोनसेंटो ने सन 1996 में अपने देष अमेरिका में बोलगार्ड बीजों ाक इस्तेमाल ाुरू करवाया था। पहले साल से ही इसके नतीजे निराषाजनक रहे। दक्षिण-पूर्व राज्य अरकांसस में हाल के वर्शों तक कीटनाषक का इस्तेमाल करने के बावजूद बोलगार्ड बीज ों की 7.5 फीसदी फसल बोलवर्म की चपेट में आ कर नश्ट हो गई।  1.4 प्रतिषत फसल को इल्ली व अन्य कीट चट कर गए। मिसीसिपी में बोलगार्ड पर बोलवर्म का असर तो कम हुआ ,लेकिन  बदबूदार कीटों से कई तरह की दिक्कतें बढ़ीं।

इसे क्यों नजरअंदाज किया गया ?
दुनियाभर में कहीं भी बीटी फसल को खाद्य पदार्थ के रूप में मंजूरी नहीं मिली है। अमेरिका में मक्का और सोयाबीन के बीटी बीज कुछ खेतों में बोए जाते हैं, लेकिन इस उत्पाद को  इंसान के खाने के रूप में इस्तेमाल पर पाबंदी है। पूरे यूरोप में भी इस पर सख्त पाबंदी है। ऐसे में भारत में लोकप्रिय व आम आदमी की तरकारी बैंगन के बीटी पर मंजूरी आष्चर्यजनक लगती है। मामला यहीं रूकता नहीं दिख रहा है। भिंडी, टमाटर और धान के बीटी बीजों पर भी काम षुरू है।
बीटी बैंगन की अनुवांषिक अभियांत्रिक कमेटी में सुप्रीम कोर्ट की ओर से नियुक्त बाहरी पर्यवेक्षक व प्रख्यात वैज्ञानिक  डा. पुश्प भार्गव के मुताबिक बीटी बैंगन पर मोंसेन्टो ंकपनी की रिपोर्ट पर आम लोगों की राय लेने के लिए अलबत्ता तो बहतु कम समय दिया गया था, फिर भी लगभग सभी राय इस बीज के विरोध में आई थीं। मंजूरी देते समय इन प्रतिकूल टिप्पणियों पर ध्यान ही नहीं दिया गया। भारतीय कृशक समाज  इसे देष की खेती पर विदेषी षिकंजे की साजिष मानता है। पहले बीज पर कब्जा होगा, फिर उत्पाद पर।
बीटी बीजों की अधिक कीमत और इसके कारण खेती की लागत बढ़ने व उसकी चपेट में आने के बाद किसानों की खुदकुषी की बढ़ती घटनाओं को नजरअंदाज करने के पीछे लेन-देन की भी खबरें हैं।

पंकज चतुर्वेदी
संपर्क 9891928376

रविवार, 17 अगस्त 2014

Save the Hills

खोदते-खोदते खो रहे हैं पहाड़
JANSANDESH TIMES U.P- 8-9-14http://www.jansandeshtimes.in/index.php?spgmGal=Uttar_Pradesh/Varanasi/Varanasi/08-09-2014&spgmPic=9
पंकज चतुर्वेदी
naidunia national edition 18-8-14http://naiduniaepaper.jagran.com/epapermain.aspx


बीती 30जुलाई को पुणे जिले के अंबेगांव तहसील के मालिण गांव में यदि बस का ड्रायवर नहीं पहुंचता तो पता ही नहीं चलता कि कभी वहां बस्ती भी हुआ करती थी।  गांव एक पहाड के नीचे था और बारिश में ऊपर से जो मलवा गिरा कि पूरा गांव ही गुम गया। अब धीरे धीरे यह बात सामने आ रही है कि पहाड़ खिसकने के पीछे असल कारण उस बेजान खडी संरचना के प्रति बेपरवाही ही था। पहाड़ के नाराज होने पर होने वाली त्रासदी का सबसे खौफनाक मंजर अभी एक साल पहले ही उत्तराख्ंाड में केदारनाथ यात्रा के मार्ग पर देखा गया था। देष में पर्यावरण संरक्षण के लिए जंगल, पानी बचाने की तो कई मुहीम चल रही है, लेकिन मानव जीवन के विकास की कहानी के आधार रहे पहाड़-पठारों के नैसर्गिक स्वरूप को उजाड़ने पर कम ही विमर्ष है। समाज और सरकार के लिए पहाड़ अब जमीन या धनार्जन का माध्यम रह गए हैं और पहाड़ निराश-हताश से अपनी अंतिम सांस तक समाज को सहेजने के लिए संघर्श कर रहे हैं।
हजारों-हजार साल में गांव-शहर बसने का मूल आधार वहां पानी की उपलब्धता होता था। पहले नदियों के किनारे सभ्यता आई, फिर ताला-तलैयों  के तट पर बस्तियां बसने लगीं। जरा गौर से किसी भी आंचलिक गांव को देखंे, जाहं नदी का तट नहीं है- कुछ पहाड़, पहाड़े के निचले हिस्से में झील व उसके घेर कर बसी बस्तियों का ही भूगोल दिखेगा। बीते कुछ सालों से अपनी प्यास के लिए बदनामी झेल रहे बुंदेलखंड में सदियों से अल्प वर्षा का रिकार्ड रहा है, लेकिन वहां कभी पलायन नहीं हुआ, क्योंकि वहां के समाज ने पहाड़ के किनारे बारिश की हर बूंद को सहेजने तथा पहाड़ पर नमी को बचा कर रखने की तकनीक सीख लीथी। छतरपुर शहर बानगी है- अभी सौ साल पहले तक षहर के चारों सिरों पर पहाड़ थे, हरे-भरे पहाड़, खूब घने जंगल वाले पहाड़ जिन पर जड़ी बुटियां थी, पंक्षी थे, जानवर थे। जब कभी पानी बरसता तो पानी को अपने में समेटने का काम वहां की हरिाली करती, फिर बचा पानी नीचे तालाबों में जुट जाता। भरी गरमी में भी वहां की षाम ठंडी होती और कम बारिष होने पर भी तालाब लबालब। बीते चार दषकों में तालाबों की जो दुर्गति हुई सो हुई, पहाड़ों पर हरियाली उजाड़ कर झोपड़-झुग्गी उगा दी गईं। नंगे पहाड़ पर पानी गिरता है तो सारी पहाडी काट देता है, अब वहां पक्की सडक डाली जा रही हैं। इधर हनुमान टौरिया जैसे पहाड़ को नीचे से काट-काट कर  दफ्तर, कालोनी सब कुछ बना दिए गए हैं। वहां जो जितना रूतबेदार है, उसने उतना ही हाड़ काट लिया।  वह दिन कभी भी आ सकता है कि वहां का कोई पहाड़ नीचे धंस गया और एक और मालिण बन गया।
खनिज के लिए, सड़क व पुल की जमीन के लिए या फिर निर्माण सामग्री के लिए, बस्ती के लिए, विस्तार के लिए , जब जमीन बची नहीं तो लोगों ने पहाड़ों को सबसे सस्ता, सुलभ व सहज जरिया मान लिया। उस पर किसी की दावेदारी भी नहीं थी।  अब गुजरात से देष की राजधानी को जोड़ने वाली 692 किलोमीटर लंबी अरावली पर्वतमाला को ही लें, अदालतें बार-बार चेतावनी दे रही हैं कि पहाड़ों से छेड़छाड़ मत करो, लेकिन बिल्डर लाॅबी सब पर भारी है। कभी सदानीरा कहलाने वो इस इलाके में पानी का संकट जानलेवा स्तर पर खड़ा हो गया है। सतपुडा, मेकल, पश्‍चिमी घाट, हिमालय, कोई भी पर्वतमालाएं लें, खनन ने पर्यावरण को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है। रेल मार्ग या हाई वे बनाने के लिए पहाड़ों को मनमाने तरीके से बारूद से उड़ाने वाले इंजीनियर इस तथ्य को शातिरता से नजरअंदाज कर देते हैं कि पहाड़ स्थानीय पर्यावास, समाज, अर्थ व्यवस्था, आस्था, विश्‍वास का प्रतीक होते हैं। पारंपरिक समाज भले ही इतनी तकनीक ना जानता हो, लेकिन इंजीनियर तो जानते हैं कि धरती के दो भाग जब एक-दूसरे की तरफ बढ़ते हैं या सिकुडते हैं तो उनके बीच का हिस्सा संकुचित हो कर ऊपर की ओर उठ कर पहाड़ की शक्ल लेता है। जाहिर है कि इस तरह की संरचना से छोड़छाड़ के भूगर्भीय दुश्परिणाम  उस इलाके के कई-कई किलोमीटर दूर तक हो सकते हैं। पुणे जिले के मालिण गांव से कुछ ही दूरी पर एक बांध है, उसको बनाने में वहां की पहाडि़यों पर खूब बारूद उड़ाया गया था। यह जांच का विशय है कि इलाके के पहाड़ों पर हुई तोड़-फोड़ का इस भूस्खलन से कहीं कुछ लेना-देना है या नहीं। किसी पहाड़ी की तोड़फोड़ से इलाके के भूजल स्तर पर असर पड़ने, कुछ झीलों का पानी पाताल में चले जाने की घटनाएं तो होती ही रहती हैं।
आज हिमालय के पर्यावरण, ग्लेश्‍यर्स के गलने आदि पर तो सरकार सक्रिय हो गई है, लेकिन देश में हर साल बढ़ते बाढ़ व सुखाड़ के क्षेत्रफल वाले इलाकों में पहाड़ों से छेड़छाड़ पर कहीं गंभीरता नहीं दिखती। पहाड़ नदियों के उदगम स्थल हैं। पहाड़ नदियों का मार्ग हैं, पहाड़ पर हरियाली ना होने से वहां की मिट्टी तेजी से कटती है और नीचे आ कर नदी-तालाब में गाद के तौर पर जमा हो कर उसे उथला बना देती है। पहाड़ पर हरियाली बादलों को बरसने का न्यौता होती है, पहाड़ अपने करीब की बस्ती के तापमान को नियंत्रित करते हैं, इलाके के मवेशियेां का चरागाह होते हैं। ये पहाड़ गांव-कस्बे की पहचान हुआ करते थे। और भी बहुत कुछ कहा जा सकता है इन मौन खड़े छोटे-बड़े पहाड़ों के लिए, लेकिन अब आपको भी कुछ कहना होगा इनके प्राकृतिक स्वरूप को अक्षुण्ण रखने के लिए।

My few children books



'सिन्दबाद के सात समुद्री सफर' 'अरेबियन नाईट्स' की सर्वाधिक प्रसिद्ध कथाओं में से एक है। ये कथाएं एशिया की किस्सागोई की सदियों पुरानी समृद्ध परम्परा का ऐसा उदाहरण हैं, जिनकी लोकप्रियता आज भी जस की तस है। इन कथाओं में तत्कालीन अरब-समाज के वैभवपूर्ण जीवन की झलक मिलती है। सिन्दबाद के समुद्री सफर की ये कहानियां अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जोखिम उठाने को प्रेरित करती हैं और बताती हैं कि भविष्य की सुख-शान्ति और सम्पन्नता वर्तमान के कठोर परिश्रम पर निर्भर करती है।

इन बहुचर्चित कहानियों का प्रस्तुत संस्करण तैयार किया है युवा साहित्यकार पंकज चतुर्वेदी ने। उन्होंने बच्चों, किशोरों और नवसाक्षरों के लिए अनेक पुस्तकों का लेखन और संपादन किया है। पत्रकारिता का भी उन्हें लम्बा अनुभव है। - See more at: http://www.printsasia.com/book/%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%A6-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%A4-%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80-%E0%A4%B8%E0%A4%AB%E0%A4%B0-%E0%A4%AA%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%9C-%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A5%80-8189914146-9788189914141#sthash.2M7gGMKL.dpuf
पठनीय और संग्रहणीय पुस्तकें

'सिन्दबाद के सात समुद्री सफर' 'अरेबियन नाईट्स' की सर्वाधिक प्रसिद्ध कथाओं में से एक है। ये कथाएं एशिया की किस्सागोई की सदियों पुरानी समृद्ध परम्परा का ऐसा उदाहरण हैं, जिनकी लोकप्रियता आज भी जस की तस है। इन कथाओं में तत्कालीन अरब-समाज के वैभवपूर्ण जीवन की झलक मिलती है। सिन्दबाद के समुद्री सफर की ये कहानियां अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जोखिम उठाने को प्रेरित करती हैं और बताती हैं कि भविष्य की सुख-शान्ति और सम्पन्नता वर्तमान के कठोर परिश्रम पर निर्भर करती है।

इन बहुचर्चित कहानियों का प्रस्तुत संस्करण तैयार किया है युवा साहित्यकार पंकज चतुर्वेदी ने। उन्होंने बच्चों, किशोरों और नवसाक्षरों के लिए अनेक पुस्तकों का लेखन और संपादन किया है। पत्रकारिता का भी उन्हें लम्बा अनुभव है। फिलहाल वे नेशनल बुक ट्रस्ट में कार्यरत हैं - See more at: http://www.printsasia.com/book/%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%A6-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%A4-%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80-%E0%A4%B8%E0%A4%AB%E0%A4%B0-%E0%A4%AA%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%9C-%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A5%80-8189914146-9788189914141#sthash.2M7gGMKL.dpuf
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पुस्तक परिचय
अमर शहीद खुदीराम बोस (जीवनी):पंकज चतुर्वेदी ,पृष्ठ :24 , मूल्य : 11 रुपये ,संस्करण :2010, प्रकाशक : नेशनल बुक ट्र्स्ट ,इण्डिया नेहरू भवन 5 , इन्स्टीट्यूशनल एरिया , फेज़-2 ,वसन्त कुंज , नई दिल्ली-110070
11अगस्त 1908 की सुबह किशोर खुदीराम बोस को फाँसी दे दी गई । अवस्था 19 वर्ष ।किंग्सफोर्ड को बम विस्फोट से मारने का प्रयास किया । उस दिन बग्घी में किंग्सफोर्ड नहीं थे, उनके स्थान पर उनके मित्र की पत्नी और बेटी मारी गई ।मुज़फ़्फ़रपुर के इस काण्ड  में खुदीराम को फाँसी की सजा सुनाई गई । मुज़फ़्फ़रपुर जेल के जल्लाद ने खुदीराम को फाँसी का फ़न्दा लगाने से मना कर दिया तो अलीपुर जेल के जल्लाद को बुलाया गया ।1857 के बाद का यह सबसे बलिदानी था । देश प्रेम की भावना इनकी नस-नस में समाई हुई थी ।पंकज चतुर्वेदी ने बहुत ही रोचक और सरल भाषा में खुदीराम बोस के जीवन और त्याग का चित्रण किया है ।यह पुस्तक किशोरों के लिए पठनीय ही नही वरन् संग्रहणीय भी है ।
विपिन चन्द्र पाल (जीवनी):पंकज चतुर्वेदी ,पृष्ठ :24 , मूल्य : 11 रुपये ,संस्करण :2010, प्रकाशक : नेशनल बुक ट्र्स्ट ,इण्डियानेहरू भवन 5 , इन्स्टीट्यूशनल एरिया , फेज़-2 ,वसन्त कुंज , नई दिल्ली-110070
सशस्त्र विद्रोह के हिमायती विपिन चन्द्र पाल ने वन्देमातरम् का नारा लगाने वाले पत्रकारों की पिटाई से व्यथित होकर वन्देमातरम्अखबार शुरू करने का निश्चय किया । रवीन्द्र नाथ टैगौर और अरविन्द घोष ने इस कार्य में भरपूर सहयोग किया ।अपनी कलम से विपिनचन्द्र पाल ने आज़ादी के साथ -साथ सामाजिक चेतना जगाने का काम भी किया ।रूढ़ियों का विरोध कलम के द्वारा तो किया ही अपने जीवन में भी उन आदर्शों का पालन किया । सम्पादन के क्षेत्र में इनका विशिष्ट कार्य सदा याद किया जाएगा ।लन्दन से प्रकाशित अंग्रेज़ी पत्र स्वराज का सम्पादन किया  । अंग्रेज़ी मासिक हिन्दू रिव्यूकी स्थापना की इलाहाबाद से मोती लाल नेहरू द्वारा प्रकाशित डेमोक्रेटसाप्ताहिक का भी सम्पादन किया । बहुमुखी प्रतिभा के धनी विपिन चन्द्र पाल का जीवन प्रत्येक भारतीय के लिए अनुकरणीय है । इस छोटी -सी पुस्तक में पंकज चतुर्वेदी जी ने  इनके जीवन के विभिन्न आयामों को बखूबी सहेजा है ।इस तरह की पुस्तकों की आज के दौर में ज़्यादा ज़रूरत है ।
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Saturday, August 13, 2011

कहाँ गए कुत्ते के सींग ?
पहले दुनिया ऐसी नहीं थी; यह बात वैज्ञानिक भी मानते हैं और समाज भी। पूर्वोत्तर राज्यों में यह मान्यता है कि पहले कुत्ते के सींग होते थे। फिर वे सींग गए कहाँ ? कहीं तो गए होंगे ना ? यह पुस्तक नगालैण्ड की एक ऐसी ही मान्यता पर आधरित है।

लो गर्मी आ गई
मौसम का बदलना महसूस करना बेहद जटिल है। कहा नहीं जा सकता कि कल से अमुक ऋतु आ जाएगी। लेकिन भारतीय वार-त्योहार बदलते मौसम की ओर इशारा करते हैं। रंगों का त्योहार होली किस तरह से गर्मी के आने की दस्तक देता है ? जरा इस पुस्तक के रंगों में डूब कर तो देखो !

दूर की दोस्त
चिड़िया भी आसमान में उड़ती है और वायुयान भी, लेकिन दोनों एक दूसरे को देख कर दूर भागते हैं। यह कहानी है ऐसी ही दूर की दोस्ती की।

पहिया

गाँव के बच्चे का खिलौना, दोस्त, हमराही ; सभी कुछ एक उपेक्षित सा पड़ा पहिया बन जाता है। एक पहिए की नजर एक गाँव का सफर ।
Tuesday, May 24, 2011

रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
रेल भारती , मार्च -अप्रैल 2011 




चंदा और खरगोश :पंकज चतुर्वेदी
चित्रांकन :अजीत नारायण
प्रकाशक :Pratham Books 930,4rth Cross Ist Main, MICO Layout,Stage 2,Bangalore 560076

चन्दा और खरगोश एक छोटी सी कथा है-खरगोश के धरती पर आने की ।खरगोश ठहरा बच्चा । चाँद पर रहता है उसके साथ-साथ । ।दोनों में गहरी दोस्ती है । धरती, हरे-भरे पेड़ ,नीला समुद्र हमेशा उसे लुभाते रहते हैं; इसीलिए वह हमेशा नीचे झाँकता रहता है । चाँद उसे ऐसा करने से मना करता है ;पर वह मानता नहीं । चाँद पर तेज आँधी चलती है ।झाँकते समय एक दिन वह गिर पड़ता है और कई साल तक हवा में तैरते हुए धरती पर उतर आता है। चाँद पर रहते हुए तो वह हाथी जितना बड़ा था ;लेकिन धरती पर आते-आते बहुत छोटा हो जाता है ।बाल भी टूट्कर छोटे हो जाते हैं ।
चाँद को खरगोश आज तक नहीं भूल पाया है ।उसकी लाल-लाल आँखों इस बात की गवाह हैं ।
अजीत नारायण के चित्रों का वैविध्य इस कहानी में और भी चार चाँद लगा देते हैं ।



खुशी : पंकज चतुर्वेदी
चित्रांकन :अजीत नारायण
प्रकाशक :Pratham Books 930,4rth Cross Ist Main, MICO Layout,Stage 2,Bangalore 560076
बच्चों के लिए लिखना सबसे कठिन कार्य है ।बच्चे जितने छोटे उनके भाषा-ज्ञान ,मनोविज्ञान के अनुरूप लेखन उतना ही चुनौती-भरा है।पंकज चतुर्वेदी जी ने मुनिया और राजू के पतंग उड़ाने के प्रसंग को रोचक , सरल और सहज भाषा में पिरोकर प्रस्तुत किया है । उड़ाते समय पतंग पेड़ में फँस जाती है और झटका देने पर टूट जाती है। बाँस से निकालने के प्रयास में पतंग तो निकलती नहीं ,ऐसे में कुछ आम टूट्कर गिर जाते हैं ।राजू और मुनिया आम खाकर खुश हो जाते हैं ।
आगे चिड़िया का बच्चा पतंग की डोर को मुँह से पकड़कर उड़ने का मज़ा लेता है ।पतंग उसकी चोंच से छूटती है तो खरगोश को मिल जाती है ;लेकिन उठाते समय उसके तीखे नाखूनों से फट जाती है ।
खरगोश रोने लगता है तो उसकी माँ फटी पतंग की झण्डियाँ बनाकर दरवाज़े को सजा देती है ।
इस प्रकार एक पतंग सबको खुशी प्रदान करती है ।शब्दाडम्बर से दूर यह किताब शिशु वर्ग को रिझाने में सफल है ।इस छोटी सी रोचक कथा को अजीत नारायण ने अपने चित्रांकन से सजाकर और भी रोचक बना दिया है ।



बस्ते से बाहर कॉपी पेंसिल
लेखक :श्री पंकज चतुर्वेदी
चित्रांकन :श्री मेहुल
मूल्य : 40 रुपये , पृष्ठ : 16 (कवर सहित)
प्रकाशक : रूम टू रीड इंडिया पब्लिकेशंस
ई-18 ए ईस्ट ऑफ़ कैलाश नई दिल्ली ११००६५
        'बस्ते से बाहर कॉपी पेंसिल' पुस्तक नई कल्पना को सँजोकर लिखी है । जो आम तौर पर बाल साहित्य लिखा जा रहा है , यह पुस्तक पुस्तक उससे हटकर है ।बस्ते में बन्द कॉपी और पेंसिल में विवाद होता है । बस्ता परेशान हो उठा ।उसने दोनों को बस्ते से बाहर निकलकर दौड़ लगाने के लिए कहा । जो सबसे तेज़ दौड़ेगा , वही अव्वल माना जाएगा। दोनों का अपना-अपना अहंकार है ।दोनों बस्ते से बाहर निकल कर दौड़ पड़ते हैं और आँधी में फँस जाते हैं। कॉपी जब उड़ने लगी तो पेंसिल उस पर सवार होकर उसे बचा लेती है। साथ ही चाँदनी रात का मज़ा भी लेती है । जान बचाने पर कॉपी पेंसिल को धन्यवाद देती है।
          परोक्ष रूप में साथ-साथ रहने एवं सामंजस्य का निर्वाह करने को महत्त्व प्रदान किया गया है ।बाल-मन की उड़ान को पंकज जी ने कथासूत्र में बाँधकर प्रस्तुत किया है ।लेखक इस कार्य में सफल हुआ है कि बच्चों के परिवेश की कहानी उनसे सर्वाधिक निकट होती है ।यह पुस्तक प्रकाशन के –'शिक्षा वह माध्यम है जिसका उपयोग वे जीवन भर करते हैं।' उद्देश्य को एवं स्वस्थ चिन्तन को विकसित करने में सक्षम है । चित्रांकन कहानी के अनुरूप एवं प्रभावशाली है ।



"कहानी कहने की कला " मेरे द्वारा सम्पादित पुस्तक में डॉ. हरी कृष्ण देवसरे, प्रो. कृष्ण कुमार. रामेश्वर कम्बोज "हिमांशु", प्रोफ. रामजन्म शर्मा , स्मिता मिश्र, अरुणा मिश्र और मेरा आलेख . यह पुस्तक कहानी सुनाने के हेर पहलु, तकनीक, प्रभाव पर चर्चा करती हें. इसे राष्ट्रीय पुस्तक न्यास यानि नेशनल बुक ट्रस्ट ने प्रकाशित किया हें, कीमत हें ७०.०० रूपये



'सिन्दबाद के सात समुद्री सफर' 'अरेबियन नाईट्स' की सर्वाधिक प्रसिद्ध कथाओं में से एक है। ये कथाएं एशिया की किस्सागोई की सदियों पुरानी समृद्ध परम्परा का ऐसा उदाहरण हैं, जिनकी लोकप्रियता आज भी जस की तस है। इन कथाओं में तत्कालीन अरब-समाज के वैभवपूर्ण जीवन की झलक मिलती है। सिन्दबाद के समुद्री सफर की ये कहानियां अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जोखिम उठाने को प्रेरित करती हैं और बताती हैं कि भविष्य की सुख-शान्ति और सम्पन्नता वर्तमान के कठोर परिश्रम पर निर्भर करती है।

इन बहुचर्चित कहानियों का प्रस्तुत संस्करण तैयार किया है युवा साहित्यकार पंकज चतुर्वेदी ने। उन्होंने बच्चों, किशोरों और नवसाक्षरों के लिए अनेक पुस्तकों का लेखन और संपादन किया है। पत्रकारिता का भी उन्हें लम्बा अनुभव है।

Publisher:Remadhav Publications ISBN-10:8189914146 - See more at: http://www.printsasia.com/book/%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%A6-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%A4-%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80-%E0%A4%B8%E0%A4%AB%E0%A4%B0-%E0%A4%AA%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%9C-%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A5%80-8189914146-9788189914141#sthash.2M7gGMKL.dpuf

  प्रकाशक रेमाधव प्रकाशन
'सिन्दबाद के सात समुद्री सफर' 'अरेबियन नाईट्स' की सर्वाधिक प्रसिद्ध कथाओं में से एक है। ये कथाएं एशिया की किस्सागोई की सदियों पुरानी समृद्ध परम्परा का ऐसा उदाहरण हैं, जिनकी लोकप्रियता आज भी जस की तस है। इन कथाओं में तत्कालीन अरब-समाज के वैभवपूर्ण जीवन की झलक मिलती है। सिन्दबाद के समुद्री सफर की ये कहानियां अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जोखिम उठाने को प्रेरित करती हैं और बताती हैं कि भविष्य की सुख-शान्ति और सम्पन्नता वर्तमान के कठोर परिश्रम पर निर्भर करती है।

इन बहुचर्चित कहानियों का प्रस्तुत संस्करण तैयार किया है युवा साहित्यकार पंकज चतुर्वेदी ने। उन्होंने बच्चों, किशोरों और नवसाक्षरों के लिए अनेक पुस्तकों का लेखन और संपादन किया है। पत्रकारिता का भी उन्हें लम्बा अनुभव है। फिलहाल वे नेशनल बुक ट्रस्ट में कार्यरत हैं - See more at: http://www.printsasia.com/book/%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%A6-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%A4-%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80-%E0%A4%B8%E0%A4%AB%E0%A4%B0-%E0%A4%AA%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%9C-%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A5%80-8189914146-9788189914141#sthash.2M7gGMKL.dpuf










'सिन्दबाद के सात समुद्री सफर' 'अरेबियन नाईट्स' की सर्वाधिक प्रसिद्ध कथाओं में से एक है। ये कथाएं एशिया की किस्सागोई की सदियों पुरानी समृद्ध परम्परा का ऐसा उदाहरण हैं, जिनकी लोकप्रियता आज भी जस की तस है। इन कथाओं में तत्कालीन अरब-समाज के वैभवपूर्ण जीवन की झलक मिलती है। सिन्दबाद के समुद्री सफर की ये कहानियां अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जोखिम उठाने को प्रेरित करती हैं और बताती हैं कि भविष्य की सुख-शान्ति और सम्पन्नता वर्तमान के कठोर परिश्रम पर निर्भर करती है।

इन बहुचर्चित कहानियों का प्रस्तुत संस्करण तैयार किया है युवा साहित्यकार पंकज चतुर्वेदी ने। उन्होंने बच्चों, किशोरों और नवसाक्षरों के लिए अनेक पुस्तकों का लेखन और संपादन किया है। पत्रकारिता का भी उन्हें लम्बा अनुभव है। फिलहाल वे नेशनल बुक ट्रस्ट में कार्यरत हैं - See more at: http://www.printsasia.com/book/%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%A6-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%A4-%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80-%E0%A4%B8%E0%A4%AB%E0%A4%B0-%E0%A4%AA%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%9C-%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A5%80-8189914146-9788189914141#sthash.2M7gGMKL.dpuf

Why was the elephant not a companion?

    हाथी क्यों न रहा साथी ?                                                                    पंकज चतुर्वेदी   हाथियों और मानव के ब...