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मंगलवार, 28 अक्तूबर 2014

Peace talk is only solution of Naxalism

क्या बातचीत से हल नहीं हो सकता नक्सलवाद मुद्दा ?

पंकज चतुर्वेदी

JAGRAN NATIONAL EDITION 29-10-14
http://epaper.jagran.com/epaper/29-oct-2014-262-edition-National-Page-1.html
बीते दो महीनों से बस्तर के अखबबारों में ऐसी खबरे खूब आ रही है कि अमुक दुर्दांत नक्सलवादी ने आत्मसमर्पण कर दिया, साथ में यह भी हो ता है कि नक्सलवादी  शोषण करते हैं, उनकी ताकत कम हो गई है  सो वे अपने हथियार डाल रहे हैं । हाल ही में झारखंड का एक मंत्री गिरफ्तार किया गया क्योंकि वह नक्सलियों का गिरोह संचालित करता था, उन्हें हथियार व अन्य इमदाद मुहैया करवाता था। ऐसा नहीं हैं कि इन दो किस्म की खबरों के बीच नक्सली गतिविधियां हो नहीं रही है। जिन गांवों में कोई भी सरकारी या सियासती दल नहीं पहुंच पाता है, वहां नक्सली जुलूस निकाल रहे हैं, आम सभा कर रहे हैं और जनता को बता रहे हैं कि सरकार व पुलिस उन पर अत्याचार करती है । उनकी सभाओं में खासी भीड़ भी पहुंच रही है।  नक्सली इलाकों मे सुरक्षा बलों को ‘‘खुले हाथ‘‘ दिए गए हैं। बंदूकों के सामने बंदूकें गरज रही हैं, लेकिन कोई मांग नहीं कर रहा है कि स्थाई शांति  के लिए कहीं से पहल हो।
यदि अरण्य में नक्सली समस्या को समझना है तो बस्तर अंचल की चार जेलों में निरूद्ध बंदियों के बारे में ‘सूचना के अधिकार’ के तरह मांगी गई जानकारी पर भी गौर करना जरूरी होगा। दंतेवाड़ा जेल की क्षमता 150 बंदियों की है और यहां माओवादी आतंकी होने के आरोपों के साथ 377 बंदी है जो सभी आदिवासी हैं। कुल 629 क्षमता की जगदलपुर जेल में नक्सली होने के आरोप में 546 लोग बंद हैं , इनमें से 512 आदिवासी हैं। इनमें महिलाएं 53 हैं, नौ लोग पांच साल से ज्यादा से बंदी हैं और आठ लोगों को बीते एक साल में कोई भी अदालत में पेषी नहीं हुई। कांकेर में 144 लोग आतंकवादी होने के आरोप में विचाराधीन बंदी हैं इनमें से 134 आदिवासी व छह औरते हैं इसकी कुल बंदी क्षमता 85 है। दुर्ग जेल में 396 बंदी रखे जा सकते हैं और यहां चार औरतों सहित 57 ‘‘नक्सली’’ बंदी हैं, इनमें से 51 आदिवासी हैं।सामने है कि केवल चार जेलों में हजार से ज्यादा आदिवासियों को बंद किया गया है। यदि पूरे राज्य में यह गणना करें तो पांच हजार से पार पहुंचेगी। इसके साथ ही एक और चैंकाने वाला आंकडा गौरतलब है कि ताजा जनगणना बताती है कि बस्तर अंचल में आदिवासियों की जनसंख्या ना केवल कम हो रही है, बल्कि उनकी प्रजनन क्षमता भी कम हो रही है। सनद 2001 की जनगणना में यहां आबादी वृद्धि की दर 19.30 प्रतिशत थी। सन 2011 में यह घट कर 8.76 रह गई है। चूंकि जनजाति समुदाय में कन्या भ्रूण हत्या जैसी कुरीतियां हैं ही नहीं, सो बस्तर, दंतेवाडा, कांकेर आदि में शेष देश के विपरीत महिला-पुरुष  का अनुपात बेहतर है। यह भी कहा जाता है कि आबादी में कमी का कारण हिंसा से ग्रस्त इलाकों से लोगों का बड़ी संख्या में पलायन है। ये आंकडे चीख-चीख कर कह रहे हैं कि आदिवासियांे के नाम पर बने राज्य में आदिवासी की सामाजिक हालत क्या है। यदि सरकार की सभी चार्जषीटों को सही भी मान लिया जाए तो यह हमारे सिस्टम के लिए शोचनीय नहीं है कि आदिवासियों का हमारी व्यवस्था पर भरोसा नहीं है और वे हथियार के बल पर अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए मजबूर हैं। इतने दमन पर सभी दल मौन हैं ौर यही नक्सलवाद के लिए खाद-पानी है।
अब भारत सरकार के गृहमंत्रालय की आठ साल पुरानी एक रपट की धूल हम ही झाड़ देते हैं - सन 2006 की ‘‘आंतरिक सुरक्षा की स्थिति’’ विषय पर रिपोर्ट में स्पष्ट बताया गया था कि देश का कोई भी हिस्सा नक्सल गतिविधियों से अछूता नहीं है। क्योंकि यह एक जटिल प्रक्रिया है - राजनीतिक गतिविधियां, आम लोगों को प्रेरित करना, शस्त्रों का प्रशिक्षण और कार्यवाहियां। सरकार ने उस रिपोर्ट में स्वीकारा था कि देश के दो-तिहाई हिस्से पर नक्सलियों की पकड़ है। गुजरात, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर में भी कुछ गतिविधियां दिखाई दी हैं। दो प्रमुख औद्योगिक बेल्टों - ‘भिलाई-रांची, धनबाद-कोलकाता’ और ‘मुंबई-पुणे-सूरत-अहमदाबाद’ में इन दिनों नक्सली लोगों को जागरूक करने का अभियान चलाए हुए हैं। इस रपट पर कार्यवाही, खुफिया सूचना, दूरगामी कार्ययाोजना का कहीं अता पता नहीं है। बस जब कोई हादसा होता है तो सश स्त्र बलों को खूनखराबे के लिए जंगल में उतार दिया जाता है, लेकिन इस बात पर कोई जिम्मेदारी नहीं तय की जाती है कि एक हजार नक्सली हथियार ले कर तीन घंटों तक गोलियां चलाते हैं, सड़कों पर लैंड माईन्य लगाई जाती है और मुख्य मार्ग पर हुई इतनी बड़ी योजना की खबर किसी को नहीं लगती है।
भारत सरकार मिजोरम और नगालैंड जैसे छोटे राज्यों में शांति  के लिए हाथ में क्लाशनेव रायफल ले कर सरेआम बैठे उग्रवादियों से ना केवल बातचीत करती है, बल्कि लिखित में युद्ध विराम जैसे समझौते करती है। कष्मीर का उग्रवाद सरेआम अलगाववाद का है और तो भी सरकार गाहे-बगाहे हुरीयत व कई बार पाकिस्तान में बैठे आतंकी आकाओं से शांतिपूर्ण हल की गुफ्तगु करती रहती है, फिर नक्सलियों मे ऐसी कौन सी दिक्कत है कि उनसे टेबल पर बैठ कर बात नहीं की जा सकती- वे ना तो मुल्क से अलग होने की बात करते हैं और ना ही वे किसी दूसरे देश  से आए हुए है। कभी विचार करें कि सरकार व प्रशा सन में बैठे वे कौन लोग है जो हर हाल में जंगल में माओवादियों को सक्रिय रखना चाहते हैं, जब नेपाल में वार्ता के जरिये उनके हथियार रखवाए जा सकते थे तो हमारे यहां इसकी कोशिशें  क्यों नहीं की गईं।  याद करें 01 जुलाई 2010 की रात को आंध््राप्रदेश  के आदिलाबाद जिले के जंगलों में महाराश्ट्र की सीमा के पास सीपीआई माओवादी की केंद्रीय कमेटी के सदस्य चेरूकुरी राजकुमार उर्फ आजाद और देहरादून के एक पत्रकार हेमचंद्र पांडे को पुलिस ने गोलियों से भून दिया था। पुलिस का दावा था कि यह मौतें मुठभेड में हुई जबकि तथ्य चीख-चीख कर कह रहे थे कि इन दोनों को 30 जून को नागपुर से पुलिस ने उठाया था। उस मामले में सीबीआई जांच के जरिए भले ही मुठभेड़ को असली करार दे दिया गया हो, लेकिन यह बात बड़ी साजिश  के साथ छुुपा दी गई कि असल में वे दोनों लोग स्वामी अग्निवेश  का एक खत ले कर जा रहे थे, जिसके तहत शीर्ष नक्सली नेताओं को केंद्र सरकार से शांति वार्ता करना था। याद करें उन दिनों तत्कालीन गृह मंत्री चिदंबरम ने अपना फैक्स नंबर दे कर खुली अपील की थी कि माओवादी हमसे बात कर सकते हैं। उस धोखें के बाद  नक्सली अब किसी भी स्तर पर बातचीत से डरने लगे हैं। इस पर निहायत चुप्पी बड़ी साजिश  की ओर इशा रा करती है कि वे कौन लोग हैं जो नक्सलियों से शांति वार्ता में अपना घाटा देखते हैं। यदि आंकड़ों को देखें तो सामने आता है कि जिन इलाकां में लाल-आतंक ज्यादा है, वहां वही राजनीतिक दल जीतता है जो वैचारिक रूप से माओ-लेनिन का सबसे मुखर विरोधी है।
एक तरफ सरकारी लूट व जंगल में घुस कर उस पर कब्जा करने की बेताबी है तो दूसरी ओर आदिवासी क्षेत्रों के सरंक्षण का भरम पाले खून बहाने पर बेताब ‘दादा’ लोग। बीच में फंसी है सभ्यता, संस्कृति, लोकतंत्र की साख। नक्सल आंदोलन के जवाब में ‘सलवा जुड़ुम’ का स्वरूप कितना बदरंग हुआ और इसकी परिणति दरभा घाटी में किस नृशंसता   से हुई ; सबके सामने है। बंदूकों को अपनो पर ही दाग कर खून तो बहाया जा सकता है, नफरत तो उगाई जा सकती है, लेकिन देश  नहीं बनाया जा सकता। तनिक बंदुकों को नीचे करें, बातचीत के रास्तें निकालें, समस्या की जड़ में जा कर उसके निरापद हल की कोशिश  करें- वरना सुकमा की दरभा घाटी या बीजापुर के आर्सपेटा में खून के दरिया ऐसे ही बहते रहेंगे। अब यह साफ होता जा रहा है कि नक्सलवाद सभी के लिए वोट उगाहने का जरिया मात्र है, वरना हजारों लोगों के पलायन, लाखें लोगों के सुरक्षा बलों के कैंप में रहने से बेपरवाही नहीं होती।

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