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रविवार, 11 जनवरी 2015

use waste land for industries not agriculture land

RASHTRIYA SAHARA 12-1-15http://www.rashtriyasahara.com/epapermain.aspx?queryed=9

उपजाऊ पर नजर, बंजर की अनदेखी



 पंकज चतुव्रेदी
केंद्र सरकार ने अध्यादेश लाकर भूमि अधिग्रहण कानून में कई बड़े बदलाव कर दिए हैं। सबसे बडी विडंबना है कि अध्यादेश के बाद बहुफसली जमीन के अधिग्रहण का रास्ता भी साफ हो गया है। सरकार का तर्क है कि देश के व्यापक और तीव्र विकास के लिए जमीन चाहिए, लेकिन मौजूदा कानून के कई प्रावधान इसके आड़े आ रहे थे। ऐसे तकरे को सुनकर एकबारगी लगता है कि क्या हमारे देश में अब जमीन की कमी हो गई है, जो आधुनिकीकरण की योजनाओं के लिए देश की अर्थव्यवस्था का मूल आधार रहे खेतों को उजाड़ने पर मजबूर होना पड़ रहा है? इस बात को लोग लगातार नजरअंदाज कर रहे हैं या फिर लापरवाह हैं कि जमीन को बरबाद करने में इंसान कहीं कोई कसर नहीं छोड़ रहा है। जबकि जमीन को सहेजने का काम कर रहे किसान के खेत पर सभी की नजर लगी हुई है। विकास के लिए सड़कें, हवाई अड्डे बन रहे हैं। महानगरों की बढ़ती संख्या और उसमें रहने वालों की जरूरतों से अधिक निवेश के नाम पर बनाई जा रही बहुमंजिली इमारतों का ठिकाना भी उर्वर जमीन ही है। हजारों घटनाएं गवाह हैं कि कारखानों के लिए जमीन जुटाने की फिराक में खेतों को ही उजाड़ा जाता है तो लोगों का गुस्सा भड़कता है। यदि नक्शे और आंकड़ों को सामने रखें तो तस्वीर कुछ और ही कहती है। देश में लाखों-लाख हेक्टेयर ऐसी जमीन है जिसे विकास का इंतजार है। अब पका-पकाया खाने का लालच तो सभी को होता है, सो बेकार पड़ी जमीन को लायक बनाने की मेहनत से बचते हुए उपजाऊ जमीन को बेकार बनाना ज्यादा सरल व फायदेमंद लगता है। विदित हो कि देश में कुछ 32 करोड़ 90 लाख हेक्टेयर भूमि में से 12 करोड़ 95 लाख 70 हजार हेक्टेयर भूमि बंजर है। भारत में बंजर भूमि के ठीक- ठीक आकलन के लिए अभी तक कोई विस्तृत सव्रेक्षण तो हुआ नहीं है, फिर भी केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय का फौरी अनुमान है कि देश में सर्वाधिक बंजर जमीन मध्य प्रदेश में है, जो दो करोड़ एक लाख 42 हेक्टेयर है। उसके बाद राजस्थान का नंबर आता है। सर्वाधिक बंजर भूमि वाले मध्य प्रदेश में भूमि के नष्ट होने की रफ्तार भी सर्वाधिक है। यहां गत दो दशकों में बीहड़-बंजर दो गुने होकर 13 हजार हेक्टेयर हो गए हैं। धरती पर जब पेड़-पौधों की पकड़ कमजोर होती है तब बरसात का पानी सीधा नंगी धरती पर पड़ता है और वहां की मिट्टी बहने लगती है। जमीन के समतल न होने के कारण पानी को जहां भी जगह मिलती है, मिट्टी काटते हुए वह बहता है। इस प्रक्रिया में नालियां बनती हैं जो आगे चलकर गहरी होते हुए बीहड़ का रूप ले लेती हैं। एक बार बीहड़ बन जाए तो हर बारिश में वह और गहरा होता जाता है। इस तरह के भू-क्षरण से हर साल लगभग चार लाख हेक्टेयर जमीन उजड़ रही है। इससे सर्वाधिक प्रभावित चंबल, यमुना, साबरमती, माही और उनकी सहायक नदियों के किनारे के उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान और गुजरात के हिस्से हैं। बीहड़ रोकने का काम जिस गति से चल रहा है उसके अनुसार बंजर खत्म होने में 200 वर्ष लगेंगे, तब तक ये बीहड़ ढाई गुना अधिक हो चुके होंगे। बीहड़ों के बाद, धरती के लिए सर्वाधिक जानलेवा खनन-उद्योग रहा है। पिछले तीस वर्षो में खनिज उत्पादन 50 गुना बढ़ा, लेकिन यह लाखों हेक्टेयर जंगल और खेतों को वीरान बना गया है। नई खदान मिलने पर पहले वहां के जंगल साफ होते हैं। फिर खदान में कार्यरत श्रमिकों की दैनिक जलावन की जरूरत हेतु आसपास की हरियाली होम होती है। तदुपरांत खुदाई की प्रक्रिया में जमीन पर गहरी- गहरी खदानें बनाई जाती है, जिनमें बारिश के दिनों में पानी भर जाता है। वहीं खदानों से निकली धूल-रेत और अयस्क मिशण्रदूर-दूर तक की जमीन की उर्वरा शक्ति हजम कर जाते हैं। खदानों के गैरनियोजित अंधाधुंध उपयोग के कारण जमीन के क्षारीय होने की समस्या भी बढ़ी है। ऐसी जमीन पर कुछ भी उगाना नामुमकिन ही होता है। हरित क्रांति के नाम पर जिन रासायनिक खादों द्वारा अधिक अनाज पैदा करने का नारा दिया जाता है, वे भी जमीन की कोख उजाड़ने की जिम्मेदार रही हैं। रासायनिक खादों के अंधाधुंध इस्तेमाल से पहले कुछ साल तो दुगनी-तिगुनी पैदावार मिली, फिर उसके बाद भूमि बंजर हो रही है। यही नहीं, जल समस्या के निराकरण के नाम पर मनमाने ढंग से रोपे जा रहे नलकूपों के कारण भी जमीन कटने-फटने की शिकायतें सामने आई हैं। सार्वजनिक चरागाहों के सिमटने के बाद रहे-बचे घास के मैदानों में बेतरतीब चराई के कारण भी जमीन के बड़े हिस्से के बंजर होने की घटनाएं मध्य भारत में सामने आई हैं। सिंचाई के लिए बनाई गई कई नहरों और बांधों के आसपास जल रिसने से भी दल-दल बन रहे हैं। जमीन को नष्ट करने में समाज का लगभग हर वर्ग और तबका लगा हुआ है, वहीं इसके सुधार का जिम्मा मात्र सरकारी कंधों पर है। वर्ष 1985 में स्थापित राष्ट्रीय बंजर भूमि विकास बोर्ड ने 20 सूत्रीय कार्यक्रम के 16वें सूत्र के तहत बंजर भूमि पर वनीकरण और वृक्षारोपण का कार्य शुरू किया था। आंकड़ों के मुताबिक इस योजना के तहत लगभग 1.17 करोड़ हेक्टेयर भूमि को हरा-भरा किया गया। लेकिन इन आंकड़ों का खोखलापन सेटेलाईट चित्रों से उजागर हो चुका है। प्राकृतिक और मानव-जनित कारणों के चलते आज खेती, पशुपालन, गोचर और जंगल सभी पर खतरा है। पेयजल संकट गहरा रहा है। ऐसे में केंद्र व राज्य सरकारों के विभिन्न विभागों के कब्जे में पड़ी ढेर सारी अनुत्पादक भूमि के विकास के लिए कोई कारगर प्रयास नहीं किया जाना एक विडंबना ही है। आज सरकार बड़े औद्योगिक घरानों को तो बंजर भूमि सुधार के लिए आमंत्रित कर रही है, लेकिन इस कार्य में छोटे काश्तकारों की भागीदारी के प्रति उदासीन है। विदित हो कि हमारे देश में कोई तीन करोड़ 70 लाख हेक्टेयर बंजर भूमि ऐसी है जो कृषि योग्य समतल है। अनुमान है कि प्रति हेक्टेयर 2500 रपए खर्च कर इस जमीन पर सोना उगाया जा सकता है। यानी यदि 9250 करोड़ रपए खर्च किए जाएं तो यह जमीन खेती लायक की जा सकती है, जो हमारे देश की कुल कृषि भूमि का 26 प्रतिशत है। सरकारी खर्चो में बढ़ोत्तरी के मद्देनजर इतनी राशि सरकारी तौर पर एकमुश्त मुहैया हो पाना बहुत मुश्किल लगता है। ऐसे में भूमिहीनों को मालिकाना हक देकर उस जमीन को कृषि योग्य बनाना, देश के लिए क्रांतिकारी कदम होगा। इससे कृषि उत्पादन बढ़ेगा, लोगों को रोजगार मिलेगा और पर्यावरण रक्षा भी होगी। यदि यह भी नहीं कर सकते तो स्पेशल इकोनामी जोन बनाने और अन्य औद्योगिक जरूरतों के लिए ऐसी ही अनुपयोगी, अनुपजाऊ जमीनों को लिया जाए। इसके बहुआयामी लाभ होंगे- जमीन का क्षरण रुकेगा और हरी-भरी जमीन पर मंडरा रहे संकट के बादल छटेंगे। चूंकि जहां बेकार बंजर भूमि अधिक है वहां गरीबी, बेरोजगारी भी है; अत: नए कारखाने वगैरह लगने से उन इलाकों की आर्थिक स्थिति भी सुधरेगी। बस करना यह होगा कि जो पैसा जमीन का मुआवजा बांटने में खर्च करने की योजना है, उसे समतलीकरण, जल संसाधन जुटाने, सड़क-बिजली मुहैया करवाने जैसे कामों में खर्च करना होगा।
     

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