My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

शुक्रवार, 13 मार्च 2015

shut up! nonsense of FM

इस वाचाल लंपटता पर भी तो अंकुश हो!

 क्रिकेट विश्व कप के प्रति युवाओं के आकर्षण को देखते हुए दिल्ली का एक रेडियो स्टेशन उन पनौतियों को तलाश रहा है, जिनके टीवी के सामने बैठते ही भारत की टीम मैच हार जाती है। कमाल है, सरेआम अंधविश्वास फैलाना व किसी इंसान को असगुनाया घोषित करने के पाप पर लोग बस मजे ले रहे हैं। यह पहला वाकया नहीं है, जब रेडियो स्टेशनों पर मनोरंजन या लोगों से जुड़ने के नाम पर बदतमीजी की हद तक हरकतें होती रही हैं। देशभर के एफएम रेडियो पर इन दिनों धोखा देकर निजता में गहरे तक
डेली न्‍यूज एक्‍टीविस्‍ट, लखनउ 14 मार्च 15
घुसपैठ से ले कर किसी की कमजोरी का मजाक बनाने तक के काम बगैर किसी खर्चे के, बगैर किसी डर के और अंकुश के खुलेआम हो रहे हैं। याद करें, कुछ साल पहले सोनी टीवी के कार्यक्रम इंडियन आईडल के एक प्रतियोगी प्रशांत तमांग के बारे में एफएम पर कुछ ऐसी ही टिप्पणी कर दी गई थी, जिससे दार्जलिंग के आसपास हिंसा फैल गई थी। उस घटना से न तो सरकार ने सबक लिया और न ही रेडियो वालों ने। इंदौर जैसे शहर के एक एफएम स्टेशन का आरजे हर घंटे दोहराता है- सावधान रेडियो को बंद न करना वरना कान में डंडा कर दिया जाएगा। मैंने तो बड़ी गंभीरता से सुन कर इसे कान लिखा है, वैसे आम सुनने वालों को यह पुलिस वालों की प्रिय गाली व हरकत ही सुनाई देता है। दिल्ली का एक स्टेशन दिन में दसियों बार आपके पूर्वजों को गरियाता हुआ दावा करता है कि यह आपके जमाने का स्टेशन है, आपके बाप के जमाने का नहीं। लगता है कि बाप का जमाना बेहद पिछड़ा, बेकार था। यही स्टेशन डॉक्टर, इंजीनियर बनने का सपना देखने वालों को भी कट कर जाने की सीख देता है। जाहिर है कि इसे केवल लंपट, दिशाहीन और आवारा ही सुन सकते हैं। एक चैनल अखबार में छपी खबरों के विश्लेषण के नाम पर हर एक की खाल उधेड़ता है, जैसे कि दुनिया में कुछ सकारात्मक हो ही नहीं रहा हो। उधर सरकारी एफएम चैनल थके हुए, अपने पुराने ढर्रे पर घिसटते हुए और औपचारिकता पूरी करते दिखते हैं। उसकी प्रतिस्पर्द्धा में निजी चैनल तड़क-भड़क वाले, पटापट बतियाते और गुदगुदाते प्रतीत होते हैं। कोई मुर्गा बनाता है तो कोई बैंड बजाता है, किसी का समोसा है तो किसी का घंटा सिंह, एक स्टेशन पर तो आवाज के जरिए बेवकूफ बनाने का काम लड़की करती है। देेश के महानगरों के साथ-साथ उभरते हुए 55 शहरों में इस समय ढाई सौ से अधिक एफएम स्टेशन काम कर रहे हैं। राजधानी दिल्ली में ग्यारह, चैन्नई में पंद्रह, कोलकाता में बारह और मुंबई में तेरह एफएम स्टेशन चौबीसों घंटे श्रोताओं को खुद से बांधे रखने के लिए फिल्मी गीतों के अलावा मनोरंजक बातचीत, मुलाकात, हल्की-फुल्की सूचनाएं आदि देते रहते हैं। सनद रहे कि सन 2007 तक इनकी संख्या महज 69 थी। ये आंकड़े गवाह हैं कि एफएम किस तेजी से श्रोताओं को अपनी ओर खींच रहा है। हमारे यहां मोबाइल फोन के ग्राहकों की संख्या पचास करोड़ की ओर दौड़ रही है और मोबाइल हैंड सेट का सबसे प्राथमिक फीचर इस समय एफएम हो गया है। जाहिर है कि इसे सुनने वाले हर वर्ग के सामाजिक-आर्थिक ढांचे के और अशिक्षित से लेकर अल्प व उच्च शिक्षित वर्ग भी है। रेडियो एक अंधा माध्यम है, जिसमें आवाज व स्वर के माध्यम से जीवंत परिस्थितियों को सृजित किया जाता है और श्रोता को दृश्य का एहसास होता है। यह वक्ता की क्षमता और बुद्धिमत्ता पर निर्भर करता है कि वह किस तरह श्रोता को भावनाओं के अतिरेक में ले जा कर अपने संदेश का क्रियान्वयन करवाता है।आज का एफएम दोतरफा नहीं तितरफा संवाद का माध्यम बन गया है। दूरसंचार क्रांति ने रेडियो के इस नए अवतार को आम लोगों में पैठ बनाने की बेपनाह गुंजाइश दी। शहरों में लोगों के आवागमन का समय बढ़ रहा है और सड़क पर मची ट्रैफिक की मारामार, प्रदूषण, रोज की चिंताओं से कुछ देर के लिए सुकून पाने के लिए लोग एफएम को अपना हमराही बना लेते हैं। विडंबना है कि इतनी जिम्मेदारी वाले संचार माध्यम ने फूहड़ता और लंपटता का रास्ता चुन लिया है। भला ही है कि सरकार ने निजी एफएम चैनलों को खबर प्रसारित करने का अधिकार नहीं दिया है, वरना जिस तरह से बेवकूफ बनाने का धंधा रेडियो पर चल रहा है, वह अफवाहों का बक्सा बन जाता।हमारे मुल्क में एफएम रेडियो का प्रसार कम्यूनिटी-रेडियो के तौर पर हुआ, जाहिर है कि उसकी सामाजिक जिम्मेदारियां भी होतीं। पहले हवा महल जैसे कार्यक्रम, युद्ध, बाढ़, भूकंप जैसी विपदाओं के समय मनोरंजन के साथ-साथ लोगों को संदेश देते थे और एक सकारात्मक जनमानस तैयार करते थे। देखते ही देखते रेडियो से नाटक गायब हो गया, नाटक लिखने वाले टीवी सीरियल की ओर चले गए और नाटक तैयार करने वालों की नई पीढ़ी को तैयार करना रेडियो ने ही बंद कर दिया। संवाद, गीत और संदेश का मिला-जुला काम आरजे करने लगे- हींग लगे न फिटकरी, रंग भी चोखा! लेकिन इतने चोखे की उम्मीद कतई नहीं की गई कि किसी के पति को मार डालने या बाप के गुस्साने को दोयम बताने की जुर्रत हो जाए। आज आधे से ज्यादा आरजे शब्दों के साथ खेलते हैं और लड़कियों के साथ फ्लर्ट करते हैं। अधिकांश कार्यक्रम लड़के-लड़कियों को प्रेम के रूप में देह की भाषा के संस्कार देते हैं, धोखा देना या बेवकूफ बनाने के नए-नए तरीके सिखाते हैं।टीवी सीरियल और समाचारों में अश्लीलता पर तो यदा-कदा हंगामा होता रहता है। इनकी सामग्री पर नियंत्रण करने के नियामक भी हैं। लेकिन टीवी के दर्शकों से कई गुना अधिक लोगों की पहुंच वाले माध्यम रेडियो की सामग्री, भाषा और प्रस्तुति पर कोई न तो गौर करने वाला है और न ही नियंत्रित। यह रेडियो की वाचाल लंपटता का चरम काल है, यदि स्थिति संभाली नहीं गई तो बात हाथ से निकल सकती है। एफएम रेडियो को अधिक जिम्मेदार बनाने के लिए उनके लिए दिशा-निर्देश और सामाजिक सरोकारों में भागीदारी को बढ़ाना होगा।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

After all, why should there not be talks with Naxalites?

  आखिर क्यों ना हो नक्सलियों से बातचीत ? पंकज चतुर्वेदी गर्मी और चुनाव की तपन शुरू हुई   और   नक्सलियों ने धुंआधार हमले शुरू कर दिए , हा...