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गुरुवार, 23 अप्रैल 2015

Where has gone missing children?

देह-व्यापार में सिसकता बचपन
पंकज चतुर्वेदी


बात अभी 17 अप्रेल की है, गुमशुदा बच्चों के मामले में ढिलाई बरतने पर सुप्रीम कोर्ट ने ना केवल केंद्र सरकार को खूब कोसा, बल्कि महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय के सचिव पर पचास हजार का जुर्माना लगाते हुए तलब भी किया है। सोशल जस्टिस बेंच इस बात से बेहद नाराज था कि  कानून बनने के 15 साल बीत गए लेकिन केंद्र सरकार संसद के ही बनाये हुए कानून का पालन नहीं कर रही है। यहां बच्चे गायब हो रहे हैं और सरकार चिट्टी भेजने में लगी है। कोर्ट ने कहा कि इसे प्रशासन की अफसोसजनक हालत ही कहा जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार द्वारा बाल अधिकार संरक्षण आयोग  के अध्यक्ष व सदस्य की नियुक्ति होने पर भी नाखुषी जताई।  इसके अलावा राज्यों में एडवाइजरी बोर्ड के गठन न करने पर भी चिंता जताई। कोर्ट ने अगली सुनवाई एक मई को तय की है व सरकार को सारी  रिपोर्ट देने को कहा है। इससे पहले कोर्ट कई राज्यों के मुख्य सचिव और डीजीपी को तलब कर चुका है। सरकार मे बैठे लोग आंकड़ों से खेलते रहते हैं, अपनी खाल बचाने के लिए हलफनामें देते रहते हैं, लेकिन यह षर्मनाक सच है कि दिल्ली व उसके आसपास के जिलों से हर साल सबसे ज्यादा बच्चे गुम होते हैं।
Prajatantra Live 24-4-15

बाक्स
मध्यप्रदेष
प्रदेश में गुमशुदा बच्चों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है।  खासतौर पर बच्चियों के गुम होने की घटनाएं बढ़ी हैं। पहले तो पुलिस इन गुमशुदा बच्चों को ढूंढने में इतनी सक्रिय नहीं थी, लेकिन  वर्ष 2012 में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद से पुलिस के रवैये में बदलाव आया है और वे इन मामलों को गंभीरता से लेने  लगी है। फिर भी पुलिस की सारी कवायदों के बाद मार्च 2015  में ऑपरेशन स्माइल के तहत 710 गुमशुदा बच्चे ही बरामद किये गये।  इनमें 516 बालिकाएं है, जबकि बालकों की संख्या मात्र 194। यह अलग बात है, कि  फरवरी 2015 से यह आंकड़ा लगभग ड्योढा है। फरवरी में 490 गुमशुदा बच्चे बरामद किये गये थे, जिनमें 354 बालिकाएं और 136 बालक थे।
गौरतलब है, कि पिछले कुछ वर्षों में प्रदेश में बच्चियों के गायब होने की शिकायतों में आश्चर्यजनक ढंग से बढ़ोत्तरी हुई है। इनमें से कु छ की बरामदगी तो ऑपरेशन स्माइल के तहत हुई है, लेकिन बड़ी संख्या में बच्चियां आज भी लापता है। पुलिस मुख्यालय से प्राप्त आंकड़ों के मुताबिक प्रदेश में अभी भी लगभग साढ़े 3 हजार बच्चे गायब हैं, इनमें ढाई हजार से अधिक लड़कियां हैं। इनमें सबसे ज्यादा बच्चे इंदौर जिले से (262) हैं। जिसमें बच्चियों की संख्या 198 हैं। दूसरे स्थान पर जबलपुर है, जहां 227 बच्चों की बरामदगी आज तक नहीं हो पायी है। इनमें बच्चियों की संख्या 125 है। तीसरे स्थान पर सतना जिला है, जहां 175 बच्चे गायब हैं, इनमें 127 बच्चियॉं शामिल हैं चैथे स्थान पर छतरपुर है, जहां 153 गुमशुदा बच्चे के नाम थानों में दर्ज है और इनमें से 128 बच्चियॉं हैं।  प्रदेश की राजधानी भोपाल से 135 बच्चे गायब हैं, (100 बच्चियॉं) हैं। इसी तरह छिंदवाड़ा जिले से 132, (101 बच्चियॉं), शहडोल में 124, (78 बच्चियॉं), रीवा में 104, (84 बच्चियॉं) मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान के गृह जिले  विदिशा से 83, (67 बच्चियॉं), धार में 108,  (90 बच्चियॉं), खण्डवा में 74, (58 बच्चियॉं), होशंगाबाद में 71 (52 बच्चियॉं), बैतूल में 68 (60 बच्चियॉं), ग्वालियर में 81,  (62 बच्चियॉं), सागर में 92, (73 बच्चियॉं) और रतलाम में 80, (67 बच्चियॉं) के नाम विभिन्न थानों में दर्ज हैं। जबकि कई जिलों में गुमशुदा बच्चों की संख्या काफी कम है जैसे- शाजापुर में 22, लेकिन यहां भी गुमशुदा बच्चियों की संख्या अधिक है यानी 22 में से 15 बच्चियां।


भारत सरकार के राश्ट्रीय अपराध अनुसंधान ब्यूरो के आंकड़े गवाह हैं कि देष में हर साल औसतन नब्बे हजार बच्चे गुमने की रपट थानों तक पहुंचती हैं, इनमें से तीस हजार से ज्यादा का पता नहीं लग पाता है। पाता। पिछले साल संसद में पेश एक आंकड़े के मुताबिक सिर्फ 2011 से 2014 के बीच सवा तीन लाख बच्चे लापता हो गए। जब भी इतने बड़े पैमाने पर बच्चों के गुम होने के तथ्य आते हैं तो सरकारी तंत्र रटे-रटाए औपचारिक स्पष्टीकरणों और समस्या के समाधान के लिए नए उपाय करने की बातों से आगे कुछ नहीं कर पाता।यह बात भी सरकारी रिकार्ड में दर्ज है कि भारत में कोई 900संगठित गिरोह , जिनके सदस्यों की संख्या पांच हजार के आसपास है जो बच्चे चुराने के काम में नियोजित रूप से सक्रिय हैं। लापता बच्चों से संबंधित आंकड़ों की एक हकीकत यह भी है कि राष्ट्रीय अपराध रेकार्ड ब्यूरो सिर्फ अपहरण किए गए बच्चों की गिनती बताता है। फिर, ज्यादातर मामलों में पुलिस प्राथमिकी दर्ज करने से इनकार कर देती है या टालमटोल करती है।




गुमषुदा बच्चों की सूचना पर वेबसाईट
विभिन्न सरकारी महकमों, स्वयंसेवी संस्थाओं व आम लोगों द्वारा गुमषुदा बच्चों की सूचना, उनके मिलने की संभावना व अन्य सहयोग के लिए एक वेबसाईट  काम कर रही है - ीजजचरूध्ध्ूूूण्जतंबाजीमउपेेपदहबीपसकण्हवअण्पदध्जतंबाबीपसक
यहां पर गुम हुए बच्चें को तलाषने में लगे संगठनों को एकीकृत सूचना मिल जाती है। यह वेबसाईट है तो बेहद उपयोगी व बहुआयामी, लेकिन इसकी दिक्क्त है कि यह केवल अंग्रेजी में उपलब्ध है। फिर जिन घरों से बच्चे गुमने की सबसे ज्यादा सूचना आती है वे परिवार इतने पढे लिखे नहीं होते कि वेबसाईट पर जा सकें। हालांकि बच्चों के गुमने बाबत मदद के लिए 919830920103 नंबर पर फोन भी किया जा सकता है। यह विड।बना है कि इतनी अत्याध्ुानिक तकनीक से लैस इस वेबसाईट पर पुलिस वाले जाते ही नहीं है और उनका जोर रहता है कि बच्चों के गुमने की कम से कम रपट थाने में दर्ज हो

बच्चों के गुम होने के संदर्भ में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की एक रिपोर्ट बेहद डरावनी व सभ्य समाज के लिए षर्मनाक है। इसमें कहा गया है कि देश में हर साल दर्ज होने वाली 45 हजार से ज्यादा बच्चों की गुमशुदगी की रिपोर्ट में से तकरीबन 11 हजार बच्चों का कोई नामोनिशान तक नहीं मिल पाता है। इनमें से आधे जबरन देह व्यापार में धकेल दिए जाते हैं, षेश से बंधुआ मजदूरी कराई जाती है या फिर उन्हें भीख मांगने पर मजबूर किया जाता है। कोई डेढ लाख बच्चे उनके मां-बाप द्वारा ही बंधुआ मजदूरी के लिए बेचे जाते हैं। यह भी चैंकाने वाला तथ्य है कि दो लाख बच्चे तस्करी कर विदेष भेजे जाते हैं जहां उनसे जानवरों की तरह काम लिया जाता है। मानवाधिकर आयोग और यूनिसेफ की एक रिपोर्ट को मानें तो  गुम हुए बच्चों में से 20 फीसद बच्चे विरोध और प्रतिरोध के कारण मार दिए जाते हैं। कुछ बच्चे अंग तस्करों के हाथों भी फंसते  हैं । यह एक दुखद लेकिन चैंकाने वाला तथ्य है कि भारत में हर दसवां बच्चा यौन षोशण का षिकार हो रहा है। यही नहीं सुप्रीम कोर्ट भी चेता चुकी है कि हमारा देष बाल वैष्यावृति के लिए एषिया की सबसे बड़ी मंडी के रूप में उभर रहा है।
भारत में अक्सर गरीब, पिछडे और अकाल ग्रस्त इलाकों में लड़कियों को उनके पालकों को मीठे-मीठे लुभावनों में फंसा कर  षहरों में लाया जाता है और उन्हें देह व्यापार में ढकेल दिया जाता है।  गरीब देषो में आर्थिक स्थिति में बहुत भिन्नता है, इसलिए दूरदराज के किसी कस्बे में बिना किसी हुनर के भी ऊंची मजदूरी पर रोजगार दिलाने के रंगीन सपने कभी-कभी परिवार  परिवार वालों को आसानी से लुभा जाते हैं। कई बार षादी के झांसे में भी लड़कियों को फंसाया जाता है। दिल्ली विष्वविद्यालय में स्कूल आफ सोषल वर्क के डा. केके मुखोपाध्याय के एक षोध-पत्र में लिखा है कि बाल वेष्यावृति का असल कारण विकास से जुड़ा हुआ है और इसे अलग से आर्थिक या सामाजिक समस्या नहीं माना जा सकता । इस षेाध में यह भी बात स्पश्ट हुई है कि  छोटी उम्र में ही वेष्यावृृति के लिए बेची-खरीदी गई बच्चियों में से दो-तिहाई अनुसूचित, अनुसूचित जनजातियों या बेहद पिछड़ी जातियों से आती हैं। केंद्रीय समाज कल्याण बोर्ड ने कुछ साल पहले एक सर्वेक्षण करवाया था जिसमें बताया गया था कि देष में लगभग एक लाख वेष्याएं हैं जिनमें से 15 प्रतिषत 15 साल से भी कम उम्र की हैं।  हालांकि गैर सरकारीसंगठनों का दावा है कि ये आंकड़े हकीकत से कई गुणा कम है। असल में देष में पारंपरिक रूप से  कम उम्र की कोई 10 लाख बच्चियां देह व्यापार के नरक में छटपटा रही हैं।
विदित हो अभी एक साल पहले ही दिल्ली पुलिस ने राजधानी से लापता बच्च्यिों की तलाष में एक ऐसे गिरोह को पकड़ा था जो बहुत छोटी बच्चियों को उठाता था, फिर उन्हें राजस्थान की पारंपरिक वैष्यावृति के लिए बदनाम एक जाति को बेचा जाता था। अलवर जिले के दो गांवों में पुलिस के छापे से पता चला कि कम उम्र की बच्चियों का अपरहण किया जाता है। फिर उन्हें इन गांवों में ले जा कर ‘बलि के बकरे’’ की तरह खिलाया-पिलाया जाता है। गाय-भैंस से ज्यादा दूध लेने के लिए लगाए जाने वाले हार्मोन के इंजेक्षन ‘‘आॅक्सीटासीन’’ दे कर छह-सात साल की उम्र की इन लड़किया को कुछ ही दिनों में 14-15 साल की तरह किषोर बना दिया जाता और फिर उन्हें यौन संबध बनाने के लिए मजबूर किया जाता था। ऐसा नहीं है कि दिल्ली पुलिस के उस खुलासे के बाद यह धिनौना धंधा रूक गया। अभी अलवर, मेरठ, आगरा, मंदसौर सहित कई जिलों के कई गांव इस पैषाचिक कृत्य के लिए सरेआम जाने जाते हैं। पुलिस से छापे मारती है, बच्चियों को महिला सुधार गृह भेज दिया जाता है। फिर दलाल लोग ही बच्चियों के परिवारजन बन कर उन्हें महिला सुधार गृह से छुड़वाते हैं और सुदूर किसी मंडी में फिर उन्हें बेच देते हैं।
बच्चियों की खरीद-फरोख्त करने वाले दलाल स्वीकार करते हैं कि एक नाबालिक  कुवांरी बच्ची को धंधे वालोें तक पहुंचाने के लिए उन्हे ंचैगुना दाम मिलता है। वहीं कम उम्र की बच्ची के लिए ग्राहक भी ज्यादा दाम देते हैं। फिर कम उम्र की लड़की ज्यादा सालों तक धंधा करती है। तभी दिल्ली व कई बड़े षहरों में हर साल कई छोटी बच्चियां गुम हो जाती हैं और पुलिस कभी उनका पता नहीं लगा पाती है।
इस बात को ले कर सरकार बहुत कम गंभीर है कि भारत  बांग्लादेष, नेपाल जेसे पड़ोसी देषों की गरीब बच्चियों की तिजारत का अतंरराश्ट्रय बाजार बन गया है। जधन्य तरीके से पेट पालने वाले हर बच्चे के जीवन का अतीत बेहद दर्दनाक ही होता हे। भले ही मुफलिसी को बाल वैष्यावृृति के लिए प्रमुख कारण माना जाए, लेकिन इसके और भी कई कारण हैं जो समाज में मौजूद विकृृत मन और मस्तिश्क के साक्षी हैं।
एक तो एड्स के भूत ने योनाचारियों को भयभीत कर रखा है सो वे छोटी बच्चियों की मांग ज्यादा करते हैं, फिर कुछ नीम हकीमों ने भी फैला रखा है कि यौन-संक्रमण रोग ठीक करने के लिए बहुत कम उम्र की बच्ची से यौन संबंध बनाना कारगर उपाय हे। इसके अलावा देष में कई सौ लोग इन मासूमों का इस्तेमाल पोर्न वीडियों व फिल्में बनाने में कर रहे हैं। अरब देषो में भातर की गरीब मुस्लिम लड़कियों को बाकायदा निकाह करवा कर सप्लाई किया जाता है। हैदराबाद तो इसकी सर्व सुलभ मंडी है। ताईवान, थाईलेंड जैसे देह-व्यापार के मषहूर अड्डो की सप्लाई- लाईन भी भारत बन रहा है। यह बात समय-समय पर सामने आती रहती है कि गोवा, पुश्कर जेसे अंतरराश्ट्रीय पर्यटकों के आकर्शण केंद्र बच्चियों की खपत के बड़े केंद्र हैं।
कहने को तो सरकारी रिकार्ड में कई बड़े-बड़े दावे व नारे हैं- जैसे कि सन 1974 में देष की संसद ने बच्चों के संदर्भ में एक राश्ट्रीय नीति पर मुहर लगाई थी ,जिसमें बच्चों को देष की अमूल्य धरोहर घोशित किया गया था। भारतीय दंड संहिता  की धारा 372 में नाबालिक बच्चों की खरीद-फरोख्त करने पर 10 साल तक सजा का प्रवधान है। असल में इस धारा में अपराध को सिद्ध करना बेहद कठिन है, क्योंकि अभी हमारा समाज बाल-वैष्यावृति जैसे कलंक से निकली किसी भी बच्ची के पुनर्वास के लिए सहजता से  राजी नहीं है। एक बार जबरिया ही सही इस फिसलन में जाने के बाद खुद परिवार वाले बच्ची को अपनाने को तैयार नहीं होते, ऐसे में भुक्तभोगी से किसी के खिलाफ गवाही की उममीद नहीं की जा सकती हे। दुनिया के 174 देषों, जिसमें भारत भी षामिल है, के संयुक्त राश्ट्र बाल अधिकार समझौते की धारा 34 में स्पश्ट उल्लेख है कि बच्चों को सभी प्रकार के यौन उत्पीड़न से निरापद रखने की जिम्मेदारी सरकार पर है। कहने की जरूरत नहीं है कि यह बात किताबों से आगे नहीं हे।
कहने को तो देष का संविधान बिना किसी भेदभाव के बच्चों की देखभाल, विकास और अब तो षिक्षा की भी गारंटी देता है, लेकिन इसे नारे से आगे बढ़ाने के लिए ना तो इच्छा-षक्ति है और ना ही धन, जबकि गरीबी, बेराजगारी, पलायन, सामाजिक कुरीतियों, रूढिवादी लोगों के लिए बच्चियों को देह व्यापार के ध्ंाधे में ढकेलने के लिए उनका आर्थिक और आपराधिक तंत्र बेहद ताकतवर है। कहने को कई आयोग बने हुए हैं, लेकिन वे विभिन्न सियासती दलों के लोगों को पद-सुविधा देने से आगे काम नहीं कर पा रहे हैं।
आज बच्चियों को केवल जीवित रखना ही नहीं, बल्कि उन्हें इस तरह की त्रासदियों से बचाना भी जरूरी है और इसके लिए सरकार की सक्रियता, समाज की जागरूकता और पारंपरिक लोक की सोच में बदलाव जरूरी है।

पंकज चतुर्वेदी


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