My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

शनिवार, 27 जून 2015

तो क्या हम केवल नारे लगाना जानते हैं ?

प्रभात, मेरठ, 28 जून 15
                                                                    पंकज चतुर्वेदी
 यह देश के लिए गौरव की बात थी कि संयुक्त राष्‍ट्र संघ ने 21 जून को अंतरराष्‍ट्रीय योग दिवस  घोषित किया। इस अवसर पर दिल्ली के राजपथ पर भव्य आयोंजन हुआ, जिसमें लगभग 35 हजार लोगों ने एकसाथ योग किया। इन लोगों के लिए लगभग एक करोड़ रूप्ए खर्च कर बेहतरीन रबर वाले मैट या चटाई मंगवाई गई थी। जैसे ही आधे घंटे की शारीरिक क्रियांए समाप्त हुई, वहां योग कर रहे लोगों में चटाई लूटकर घर ले जाने की होड़ मच गई। बड़े लोगों की देखा-देखी बच्चें ने भी खूब चटाईयां लूंटी। अब जरा गौर करें कि योग केवल वर्जिश तो है नहीइं, यह मन, भावना, शरीर विचार को पवित्र रखने का सूत्र है। जाहिर है कि हम नारे लगाने को दिखावा करने को तो राजपथ पर जुड़ गएउ, लेकिन हमारी असल भावना योग की थी ही नहीं। बीते दो अक्तूबर को प्रधानमंत्री ने एक पहल की, आम लोगों से अपील की थी- निहायत एक सामाजिक पहल, अनिवार्य पहल और देष की छबि दुनिया में सुधारने की ऐसी पहल जिसमें एक आम आदमी भी भारत-निर्माण में अपनी सहभागिता बगैर किसी जमा-पूंजी खर्च किए दे सकता था- स्वच्छ भारत अभियान। पूरे देष में झाडू लेकर सड़कों पर आने की मुहीम सी छिड़ गई - नेता, अफसर, गैरसरकारी संगठन, स्कूल, हर जगह सफाई अभियान की ऐसी धूम रही कि बाजार में झाड़ुओं के दाम आसमान पर पहुंच गए। यह बात प्रधानमंत्री जानते हैं कि हमारा देश केवल साफ सफाई ना होने के कारण उत्पन्न संकटों के कारण हर साल 54 अरब डालर का नुकसान सहता है। इसमें बीमारियां, व्यापारिक व अन्य किस्म के घाटे षामिल है।। यदि भारत में लेाग कूड़े का प्रबंधन व सफाई सीख लें तो औसतन हर साल रू.1321 का लाभ होना तय है। लेकिन जैसे-जैसे दिन  आगे बढ़े, आम लोगों से ले कर षीर्श नेता तक वे वादे, षपथ और उत्साह हवा हो गए।
पिछले दिनांे दिल्ली में 13 दिनांे तक गली-सड़कों पर कूड़ों का अंबार रहा और वे नेता जो उस समय महज फोटो खिंचवाने के लिए खुद कूड़ा डलवा कर झाड़ू लगा रहे थे, ना तो इस गंदगी को साफ करने आगे आए और ना ही समस्या के समाधान पर गंभीर दिखे। जब हड़ताल समाप्त हो गई तो एक बार फिर टीवी कैमरों को बुला कर झाड़ू लगाने की अभिनय किया गया। देश, मुहल्ला साफ रहे, यह दिल से तो कोई  चाहता नहीं था, बस उससे राजनीतिक लाभ की संभावनाओं के फेर में हाथ में झाड़ू थाम ली गई थी।
‘‘मैं गंदगी को दूर करके भारत माता की सेवा करूंगा। मैं शपथ लेता हूं कि मैं स्वयं स्वच्छता के प्रति सजग रहूंगा और उसके लिए समय दूंगा। हर वर्ष सौ घंटे यानी हर सप्ताह दो घंटे श्रम दान करके स्वच्छता के इस संकल्प को चरितार्थ करूंगा। मैं न गंदगी करूंगा, न किसी और को करने दूंगा। सबसे पहले मैं स्वयं से, मेरे परिवार से, मेरे मोहल्ले से, मेरे गांव से और मेरे कार्यस्थल से शुरुआत करूंगा। मैं यह मानता हूं कि दुनिया के जो भी देश स्वच्छ दिखते हैं उसका कारण यह है कि वहां के नागरिक गंदगी नहीं करते और न ही होने देते हैं. इस विचार के साथ मैं गांव-गांव और गली-गली स्वच्छ भारत मिशन का प्रचार करूंगा। मैं आज जो शपथ ले रहा हूं वह अन्य सौ व्यक्तियों से भी करवाऊंगा, ताकि वे भी मेरी तरह सफाई के लिए सौ घंटे प्रयास करें। मुझे मालूम है कि सफाई की तरफ बढ़ाया गया एक कदम पूरे भारत को स्वच्छ बनाने में मदद करेगा। जय हिंद।’’ यह षपथ दो अक्तूबर को पूरे देष में सभी कार्यालयों, स्कूलों, जलसों में गूंजी थी। उस समय लगा था कि आने वाले एक साल में देष इतना स्वच्छ होगा कि हामरे स्वास्थ्य जैसे बजट का इस्तेमाल अन्य महत्वपूर्ण  समस्याओं के निदान पर होगा। लेकिन अब साफ दिख रहा है कि हम भारतीय केवल उत्साह, उन्माद और अतिरेक में नारे तो लगाते है। लेकिन जब व्याहवारिकता की बात आती है तो हमारे सामने दिल्ली के कूड़े के ढेर जैसे हालात होते हैं जहां गंदगी से ज्यादा सियासत प्रबल होती है।
JANSANDESH TIMES UP 29-6-15
पूर्वी दिल्ली नगर निगम के सफाई कर्मचरियों के वेतन को ले कर यह पहली हड़ताल नहीं थी, इससे तीन महीने पहले भी यही हालात बने थे। सफाई कर्मचारियों का वेतन ना मिलना अमानवीय है और इसका समाधान दिल्ली में खोजना कोई बड़ी बात नहीं थी- सभी सरकारें, निर्णय लेने वाले यहीं हैं बामुष्किल दस किलोमीटर के दायरे में। इसके बावजूद एक दल हड़ताल के लिए उकसाता रहा तो दूसरा उस पर निर्विकार रहा तो तीसरा  अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ता दिखा। सबसे दु,ाद यह है कि विरोध जताने के लिए मुख्य मार्गो पर ट्रालियों से ला कर कचरा उड़ेला गया, ताकि आम लोग बदबू, कूड़े से परेषान हों व उनकी मांग जल्दी मानी जाए। या फिर परेषान लोगों के मन में किसी व्यक्ति या दल विषेश के प्रति नफरत पैदा हो। घर से निकला कचरा, मरे हुए जानवरों के अंग, सड़ा मांस, अस्पताल की खतरनाक कचरा, सबकुछ बीच सड़क पर जमा कर दिया गया। दुपहिये वाले खूब गिरे। सड़क पर जाम हुआ। अभी इस बात का तो कोई हिसाब ही नहीं है कि इस कूड़े के कारण कितने पहलहे से बीमार लेागों पर एंटीबायोटिक का असर नहीं हुआ या फिर कितने और बीमारी हुए। टीवी बहसों पर घंटो चर्चाएं हुई व दोषारोपण होते रहे, लेकिन किसी भी दल, व्यक्ति, संस्था, संगठन या विभाग ने इस कूड़े को हटाने के प्रयास नहीं किए, किसी ने आंदोलनकारियों से यह अपील नहीं की कि इस तरह की हरकत नहीं की जाए।
लगता है कि कूड़ा हमारी राजनीति व सोच का स्थाई हिस्सा हो गया है। दिल्ली से चिपके गाजियाबद में एक निगम पार्षद व एक महिला दरोगा का आपसी झगड़ा हुआ व पार्शद के समर्थन में सफाई कर्मचारियों ने दरोगा के घर के बारह रेहड़ीभर कर बदबूदार कूड़ा डाल दिया। प्रधानमंत्री के निर्वाचन क्षेत्र, जाहं मिनी सचिवालय, क्योटो षहर का सपना और सत्ता के सभी तंत्र सक्रिय हैं, षहर में कूड़े व गंदगी का अलम यथावत है। अभी एक प्रख्यात अंतरराश्ट्रीय समाचार संस्था ने अपनी वेबसाईट पर षहर के दस प्रमुख स्थानों पर कूड़े के अंबार के फोटो दिए है।, जिनमें बबुआ पांडे घाट, बीएचईएल, पांडे हवेली, रवीन्द्रपुरी एक्सटेषन जैसे प्रमुख स्थान कई टन कूड़े से बजबजाते दिख रहे है।
षायद यह भारत की रीति ही है कि हम नारेां के साथ आवाज तो जोर से लगाते हैं लेकिन उनके जमीनी धरातल पर लाने में ‘किंतु-परंतु’ उगलने लगते हैं। कहा गया कि भातर को आजादी अहिंसा से मिली, लेकिन जैसे ही आजादी मिली, दुनिया के सबसे बड़े नरसंहारों में से एक विभाजन के दौरान घटित हो गया और बाद में अहिंसा का पुजारी हिंसा के द्वारा ही गौलोक गया। ‘‘यहां षराब नहीं बेची जाती है’’ या ‘‘देखो गधा मूत रहा है’’ से लेकर ‘दूरदृश्टि- पक्का इरादा’, ‘‘अनुषासन ही देष को महान बनाता है’’ या फिर छुआछूत, आतंकवाद, सांप्रदायिक सौहार्द या पर्यावरण या फिर ‘बेटी बचाओ’- सभी पर अच्छे सेमीनार होते हैं, नारे व पोस्ट गढ़े जाते हैं, रैली व जलसे होते हैं, लेकिन उनकी असलियत दीवाली पर हुई हरकतों पर उजागर होती है। हर इंसान चाहता है कि देष मे बहुत से षहीद भगत सिंह पैदा हों, लेकिन उनके घर तो अंबानी या धोनी ही आए, पड़ोस में ही भगत सिंह जन्मे, जिसके घर हम कुछ आंसु बहाने, नारे लगाने या स्मारक बनाने जा सकें। जब तक खुद दीप बन कर जलने की क्षमता विकसित नहीं होगी, तब तक दीया-बाती के बल पर अंधेरा जाने से रहा। प्रधानमंत्री का कम एक विचार आम लेागों को देना व उसके क्रियान्वयन के लिए षुरूआत करना है, उसे आगे बढ़ाना आम लोगों व तंत्र की जिम्मेदारी है।  अब तो लगता है कि सामुदायिक व स्कूली स्तर पर इस बात के लिए नारे गढ़ने होंगे कि नारों को नारे ना रहने दो, उन्हें ‘नर-नारी’ का धर्म बना दो।

शुक्रवार, 26 जून 2015

Happy Iad, Story in Nandan-July-15


प्यार बांटते चलो

nandan July 15

                                                         पंकज चतुर्वेदी
शाम ढ़लते ही पूरा मुहल्ला छतों पर आ गया । सभी की निगाहें दूर आसमान पर टिकी हैं । तभी
सलीम ने अपने पिता को आते देख लिया और गोली की गति से सीढि़यां उतरते हुए सड़क पर आ गया और उनसे जा लिपटा ।
‘‘अब्बू, जल्दी चलो ना ! मेरे नए कपड़े लाने हैं-- ‘‘ चलते हैं बेटे, अभी चलते हैं । लेकिन पहले रोज़ा तो खोल लें ।’’ असलम ने सलीम को गोदी में उठाया व घर के भीतर आ गए ।
कमरे में अम्मी ने दस्तरखान बिछा रखा था । सभी ने मिल कर अल्लाह को याद किया, फिर रोज़ा खोला । बच्चों ने तेजी से खाना खतम किया और बाजार के लिए निकल पड़े ।
असलम ने छुटकी को गोदी में उठाया व सलीम की उंगली थामी । बाजार में बेहद भीड़ थी । हर चेहरे पर खुशी... लगता है कि आज सभी लोग अपने दुख-दर्द, दुश्मनी-विवाद सभी कुछ भुला कर बस ईद के रंग में खो जाना चाहते हैं !!
शंकर दर्जी की दुकान पर जैसे लोगों की भीड़ टूट पड़ी थी । बाहर तक लोग दिख रहे थे।
‘‘अस्सलामुअलैकुम असलम भाई..... ईद के चांद की बहुत-बहुत बधाईयां........’’। षंकर ने असलम को दूर से देख लिया था। असलम ने मुसाफा करते हुए शंकर को  मुबारकबाद दी ।
शंकर ने फटाफट सिले हुए कपड़े निकलवाए । सलीम अपना छोटा सा कुरता-पायजामा पा कर फूला नहीं समा रहा था । तभी शंकर ने एक छोटी सी टोपी सलीम की ओर बढ़ा कर कहा, ‘‘ये हमारे बेटे को..... हमारी तरफ से ईद की भेंट.......।’’ सलीम ने तत्काल टोपी लगाई और शंकर को शुक्रिया कहा ।
छुटकी के लिए शनील की फ्राक और चूं-चूं आवाज करने वाले जूते लिए गए । 
सलीम की तो जैसे रात बड़ी मुश्किल से कटी। सूरज निकलने से पहले ही वह बिस्तर से खड़ा हो गया । आठ बजते-बजते वह नए कपड़े व टोपी के साथ दोस्तों के बीच था । तभी अब्बा उसे अपने साथ  ईदगाह ले गए।
ईदगाह में ठसा-ठस भीड़ थी । तभी लाउड स्पीकर पर इमाम साहब की आवाज गूंजी, ‘‘हज़रात, नमाज़ का वक्त हो गया है । सभी लोग अपनी जगह पर तशरीफ ले आएं ।’’
ठीक नौ बजे जमात खड़ी हुई । दूर-दूर तक कंघे से कंधा सटाए हुए लोगों की सफें़़ (सीधी कतारें) दिख रही थीं । हजारों सिर एक साथ खुदा की इबादत में झुकते दिख रहे थे।
नमाज खतम होते ही एक-दूसरे से गले मिल कर मुबारकबाद देने का सिलसिला शुरू हो गया । ईदगाह के बाहर लगे मेले में छुटकी और सलीम ने पालकी वाला झूला झूला, गोलगप्पे  और कुल्फी खाई । दोनों ने खिलौने भी खरीदे । असलम साहब गरीबों को दान देने व दोस्तों से मिले में मशगूल हो गए ।
जब तीनों लोग घर पहुंचे तो शंकर चाचा अपनी बेटी खुशी के साथ वहां पहले से मौजूद थे । असलम और  शंकर गले मिले । खुशी ने जब ईद की मुबारकबाद दी तो असलम ने उसे ईदी के पचास रूपए दिए ।
‘‘यार असलम, मुझे तो ईद का इंतजार रहता है। इस समय इतना काम मिलता है कि आने वाले तीन महीने काम ना करो तो भी नवाब की तरह जी सकता हूं...... ।  साल में तीन-चार बार ईद नहीं मना सकते ....?’’ शंकर के साथ-साथ सभी हंस दिए ।
‘‘पापा, ऐसे थोड़े ही होता है । रमजान का पवित्रा महीना इस्लामी-हिजरी कलैंडर में साल में एक बार ही आता है । इस महीने इस्लाम को मानने वाले कड़ा उपवास करते हैं व खुदा की इबादत करते हैं। इस महीने के आखिर में ईद मनाई जाती है।’’ खुशी बोली ।
‘‘शंकर भाई आप भूल जाते हो। ईद तो दो बार आती ही है - एक बार ईद-उल-फितर और दूसरी ईद-उल-जुहा। ईद-उल-फितर रमजान के बाद आती है। ईद-उल -जुहा पर कुर्बानी दी जाती है।’’ असलम ने याद दिलाया।
तभी सलीम की अम्मी ने पकवानों की एक थाली आगे कर दी । उसमें कटोरियों में तरह-तरह की सेवईयां, दहीबड़े और मिठाईयां थीं।

सलीम की मां  ने दूर इशारा किया, ‘‘ वो देखो ! चांद निकल आया है । ’’ पटाखों के धमाके सुनाई देने लगे । मस्जिद के लाउड स्पीकरों से रह-रह कर घोषणा की जा रही है ,‘‘ चांद हो गया है । कल ईद मनाई जाएगी । ईद की नमाज सुबह नौ बजे होगी । ’’

खोदते-खोदते खो रहे हैं पहाड़

Dainik Jagran 27-6-15
                                                           पंकज चतुर्वेदी

पिछले एक सप्ताह से मानसून क्या शुरू हुआ, देश के अलग-अलग हिस्सों में पहाड़ धंसने की अनगिनत घटनाएं सामने आ रही हैं। मुंबई-पुणे हाईवे पर इतने पत्थर गिरे की रासता ही बंद हो गयाा। मुंबई से सचे रायगढ जिले के मोहेकचिवाड़ी गांव में पहाड़ धंसा तो पांच लोग मारे गए। राज्य के रत्नागिरी, कर्जत, दाभौल, लोनावाला आदि में पहाड़ सरकने से अब तक 12 लोग मर चुके हैं। उत्तरांचल के चमैाली में पहाड़ के मलवे ने कई गांवों को बर्बाद कर दिया है। सिलीगुड़ी से भी ऐसी ही खबरे हैं। थोड़ा सा पानी बरसने पर ही देश के अलग-अलग हिस्सों में सड़कों पर पानी जमा होना भी असल में पहाड़ों से की गई मनमानी का ही प्रकोप है। ऐसी घटनांए अभी बारिश के तीन महीनों में खूब सुनाई देंगी। जब कही मौत होगी तो कुछ मुआवजा बांटा जाएगा, लेकिन घटना के असल कारण को कुछ लेाग जानबूझ कर नजरअंदाज कर रहे हैं। पहाड़ खिसकने के पीछे असल कारण उस बेजान खडी संरचना के प्रति बेपरवाही ही था। पहाड़ के नाराज होने पर होने वाली त्रासदी का सबसे खौफनाक मंजर अभी दो साल पहले ही उत्तराख्ंाड में केदारनाथ यात्रा के मार्ग पर देखा गया था। देष में पर्यावरण संरक्षण के लिए जंगल, पानी बचाने की तो कई मुहीम चल रही है, लेकिन मानव जीवन के विकास की कहानी के आधार रहे पहाड़-पठारों के नैसर्गिक स्वरूप को उजाड़ने पर कम ही विमर्ष है। समाज और सरकार के लिए पहाड़ अब जमीन या धनार्जन का माध्यम रह गए हैं और पहाड़ निराष-हताष से अपनी अंतिम सांस तक समाज को सहेजने के लिए संघर्श कर रहे हैं।
हजारों-हजार साल में गांव-षहर बसने का मूल आधार वहां पानी की उपलब्धता होता था। पहले नदियों के किनारे सभ्यता आई, फिर ताल-तलैयों  के तट पर बस्तियां बसने लगीं। जरा गौर से किसी भी आंचलिक गांव को देखंे, जहां नदी का तट नहीं है- कुछ पहाड़, पहाड़े के निचले हिस्से में झील व उसके घेर कर बसी बस्तियों का ही भूगोल दिखेगा। बीते कुछ सालों से अपनी प्यास के लिए बदनामी झेल रहे बुंदेलखंड में सदियों से अल्प वर्शा का रिकार्ड रहा है, लेकिन वहां कभी पलायन नहीं हुआ, क्योंकि वहां के समाज ने पहाड़ के किनारे बारिष की हर बूंद को सहेजने तथा पहाड़ पर नमी को बचा कर रखने की तकनीक सीख लीथी। छतरपुर षहर बानगी है- अभी सौ साल पहले तक षहर के चारों सिरों पर पहाड़ थे, हरे-भरे पहाड़, खूब घने जंगल वाले पहाड़ जिन पर जड़ी बूटियां थी, पंक्षी थे, जानवर थे। जब कभी पानी बरसता तो पानी को अपने में समेटने का काम वहां की हरियाली करती, फिर बचा पानी नीचे तालाबों में जुट जाता। भरी गरमी में भी वहां की षाम ठंडी होती और कम बारिष होने पर भी तालाब लबालब। बीते चार दषकों में तालाबों की जो दुर्गति हुई सो हुई, पहाड़ों पर हरियाली उजाड़ कर झोपड़-झुग्गी उगा दी गईं। नंगे पहाड़ पर पानी गिरता है तो सारी पहाडी काट देता है, अब वहां पक्की सडक डाली जा रही हैं। इधर हनुमान टौरिया जैसे पहाड़ को नीचे से काट-काट कर  दफ्तर, कालोनी सब कुछ बना दिए गए हैं। वहां जो जितना रूतबेदार है, उसने उतना ही हाड़ काट लिया। यह कहानी देश के हर कस्बे या उभरते शहर की है, किसी को जमीन चाहिए थी तो किसी को पत्थर तो किसी को खनिज; पहाड़ को एक बेकार, बेजान संरचना समझ कर खोद दिया गया। अब समझ में आ रहा है कि नष्ट किए गए पहाड़ के साथ उससे जुड़ा पूरा पर्यावरणीय तंत्र ही नष्ट हो गया है।
खनिज के लिए, सड़क व पुल की जमीन के लिए या फिर निर्माण सामग्री के लिए, बस्ती के लिए, विस्तार के लिए , जब जमीन बची नहीं तो लोगों ने पहाड़ों को सबसे सस्ता, सुलभ व सहज जरिया मान लिया। उस पर किसी की दावेदारी भी नहीं थी।  अब गुजरात से देष की राजधानी को जोड़ने वाली 692 किलोमीटर लंबी अरावली पर्वतमाला को ही लें, अदालतें बार-बार चेतावनी दे रही हैं कि पहाड़ों से छेड़छाड़ मत करो, लेकिन बिल्डर लाॅबी सब पर भारी है। कभी सदानीरा कहलाने वो इस इलाके में पानी का संकट जानलेवा स्तर पर खड़ा हो गया है। सतपुडा, मेकल, पष्चिमी घाट, हिमालय, कोई भी पर्वतमालाएं लें, खनन ने पर्यावरण को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है। रेल मार्ग या हाई वे बनाने के लिए पहाड़ों को मनमाने तरीके से बारूद से उड़ाने वाले इंजीनियर इस तथ्य को षातिरता से नजरअंदाज कर देते हैं कि पहाड़ स्थानीय पर्यावास, समाज, अर्थ व्यवस्था, आस्था, विष्वास का प्रतीक होते हैं। पारंपरिक समाज भले ही इतनी तकनीक ना जानता हो, लेकिन इंजीनियर तो जानते हैं कि धरती के दो भाग जब एक-दूसरे की तरफ बढ़ते हैं या सिकुडते हैं तो उनके बीच का हिस्सा संकुचित हो कर ऊपर की ओर उठ कर पहाड़ की षक्ल लेता है। जाहिर है कि इस तरह की संरचना से छोड़छाड़ के भूगर्भीय दुश्परिणाम  उस इलाके के कई-कई किलोमीटर दूर तक हो सकते हैं। पुणे जिले के मालिण गांव से कुछ ही दूरी पर एक बांध है, उसको बनाने में वहां की पहाडि़यों पर खूब बारूद उड़ाया गया था। यह जांच का विशय है कि इलाके के पहाड़ों पर हुई तोड़-फोड़ का इस भूस्खलन से कहीं कुछ लेना-देना है या नहीं। किसी पहाड़ी की तोड़फोड़ से इलाके के भूजल स्तर पर असर पड़ने, कुछ झीलों का पानी पाताल में चले जाने की घटनाएं तो होती ही रहती हैं। यदि गंभीरता से देखें तो लालची मनुष्य के निए फिलहाल पहाड़ का छिन्न-भिन्न होता पारिस्थिति तंत्र चिंता का विषय ही नहीं है। इसका विमर्श कभी पाठ्य पुस्तकों में होता ही नहीं हैं।

यदि धरती पर जीवन के लिए वृक्ष अनिवार्य है तो वृक्ष के लिए पहाड़ का अस्तित्व बेहद जरूरी है। वृक्ष से पानी, पानी से अन्न तथा अन्न से जीवन मिलता है। ग्लोबल वार्मिंग व जलवायु परिवर्तन की विश्वव्यापी समस्या का जन्म भी जंगल उजाड़ दिए गए पहाड़ों से ही हुआ है। यह विडंबना है कि आम भारतीय के लिए ‘‘पहाड़’’ पर्यटन स्थल है या फिर उसके कस्बे का पहाड़ एक डरावनी सी उपेक्षित संरचना।  विकास के नाम पर पर्वतीय राज्यों में बेहिसाब पर्यटन ने प्रकृति का हिसाब गड़बउ़ाया तो गांव-कस्बों में विकास के नाम पर आए वाहनों, के लिए चैड़ी सड़कों ेक निर्माण के लिए जमीन जुटाने या कंक्रीट उगाहने के लिए पहाड़ को ही निशाना बनाया गया। यही नहीं जिन पहाड़ों पर  इमारती पत्थर या कीमती खनिज थे, उन्हें जम कर उजाड़ा गया और गहरी खाई, खुदाई से उपजी धूल को कोताही से छोड़ दिया गया। राजस्थान इस तरह से पहाड़ों के लापरवाह खनन की बड़ी कीमत चुका रहा है। यहां जमीन बंजर हुई, भूजल के स्त्रोत दूषित हुए व सूख गए, लोगों को बीमारियां लगीं व बारिश होने पर खईयों में भरे पानी में मवेशी व इंसान डूब कर मरे भी।

आज हिमालय के पर्यावरण, ग्लेषियर्स के गलने आदि पर तो सरकार सक्रिय हो गई है, लेकिन देष में हर साल बढ़ते बाढ़ व सुखाड़ के क्षेत्रफल वाले इलाकों में पहाड़ों से छेड़छाड़ पर कहीं गंभीरता नहीं दिखती। पहाड़ नदियों के उदगम स्थल हैं। पहाड़ नदियों का मार्ग हैं, पहाड़ पर हरियाली ना होने से वहां की मिट्टी तेजी से कटती है और नीचे आ कर नदी-तालाब में गाद के तौर पर जमा हो कर उसे उथला बना देती है। पहाड़ पर हरियाली बादलों को बरसने का न्यौता होती है, पहाड़ अपने करीब की बस्ती के तापमान को नियंत्रित करते हैं, इलाके के मवेषियेां का चरागाह होते हैं। ये पहाड़ गांव-कस्बे की पहचान हुआ करते थे। और भी बहुत कुछ कहा जा सकता है इन मौन खड़े छोटे-बड़े पहाड़ों के लिए, लेकिन अब आपको भी कुछ कहना होगा इनके प्राकृतिक स्वरूप को अक्षुण्ण रखने के लिए।

बुधवार, 24 जून 2015

stress killing paramilitary personal

सुरक्षा बलों के लिए मौतघर बनता बस्तर

                                                                                                                             पंकज चतुर्वेदी
17 जून की सुबह, नक्सल प्रभवित बीजापुर में सीआरपीएफ की 168वीं बटालियन के कैंप में गोली चलने से दहशत फैल गई। पता चला कि स्टोर में तैनात हेड कांस्टेबल पवित्र यादव ने एके-47 से खुद को गोली मार ली। प्दिले तीन महीनों के दौरान यह ऐसी चैथी घटना है कि अपने शौर्य व साहस के लिए मशहूर केंद्रीय आरक्षित पुलिस बल यानि सीआरपीएफ के जवान ने हालात से हार कर मौत को गले लगा लिया। दुनिया की सबसे खूबसूरत जगहों में से है बस्तर, हरियाली, झरने, पषु-पक्षी और इंसान भी सभी नैसर्गिक वातावरण में उन्मुक्त । भले ही अखबार की सुर्खिया डराएं कि बस्तर में बारूद की गंध आती है लेकिन हकीकत तो यह है कि किसी भी बाहरी पर्यटक के लिए कभी भी कोई खतरा नहीं है। पूरी रात जगदलपुर से रायपुर तक आने वाली सड़क वाहनों से आबाद रहती है। यहां टकराव है तो बंदूकों का, नक्सलवाद ने यहां गहरी जड़ें जमा ली है। तो जब स्थानीय पुलिस उनके सामने असहाय दिखी तो केंद्रीय सुरक्षा बलों को यहां झोंक दिया गया।  विडंबना है कि उनके लिए ना तो माकूल भोजन-पनी है और ना ही स्वास्थ्य सेवाएं, ना ही सड़कें और ना ही संचार। परिणाम सामने हैं कि बीते पांच सालों के दौरान यहां सीने पर गोली खा कर षहीद होने वालों से कहीं बड़ी संख्या सीने की धड़कनें रूकने या मच्छरों के काटने से मरने वालों की है।
सरकरी आंकड़े बताते हैं कि  जनवरी-2009 से दिसंबर-2014 के बीच नक्सलियों से जूझते हुए केंद्रीय रिजर्व पुलिस यानि सीआरपीएफ के कुल 323 जवान देष के काम आए। वहीं इस अवधि में 642 सीआरपीएफ कर्मी दिल का दौरा पड़ने से मर गए। आत्म हत्या करने वालों की संख्या 228 है। वहीं मलेरिया से मरने वालों का आंकड़ा भी 100 से पार है। अपने ही साथी या अफसर को गोली मार देने के मामले भी आए रोज सामने आ रहे हैं। कुल मिला कर सीआरपीएफ दुष्मन से नहीं खुद से ही जूढ रही है।  सुदूर बाहर से आए केंद्रीय बलों के जवान ना तो स्थानीय भूगोल से परिचित हैं , ना ही उन्हें स्थानीय बोली-भाशा- संस्कार की जानकारी होती है और ना ही उनका कोई अपना इंटेलिजेंस नेटवर्क बन पाया हे। वे तो मूल रूप से स्थानीय पुलिस की सूचना या दिषा-निर्देष पर ही काम करते हैं। यह किसी से छिपा नहीं है कि स्थानीय पुलिस की फर्जी व षोशण की कार्यवाहियों के चलते दूरस्थ अंचलों के ग्रामीण खाकी वर्दी पर भरोसा करते नहीं हैं। अधिकांष मामलों में स्थानीय पुलिस की गलत हरकतों का खामियाजा केंद्रीय बलों को झेलना पड़ता है।  बेहद घने जंगलों में लगतार सर्चिग्ंा व पेट्रोलिंग का कार्य बेहद तनावभरा है, यहा दुष्मन अद्ष्य है, हर दूसरे इंसान पर षक होता है, चाहे वह छोटा बच्चा हो या फिर फटेहाल ग्रामीण। पूरी तरह बस अविष्वास, अनजान भय और अंधी गली में मंजिल की तलाष। इस पर भी हाथ बंधे हुए, जिसकी डोर सियासती आकाओं के हाथों मैं। लगातार इस तरह का दवाब कई बार जवानों के लिए जानलेवा हो रहा है।
सड़कें ना होना, महज सुरक्षा के इरादे से ही जवानों को दिक्कत नहीं है, बल्कि इसका असर उनकी निजी जिंदगी पर भी होता है। उनकी पसंद का भेाजन, कपड़े, यहां तक कि पानी भी नहीं मिलता है। बस्तर का भूजल बहुत दूशित है, उसमें लोहे की मात्रा अत्यधिक है और इसी के चलते गरमी षुरू होते ही आम लोगों के साथ-साथ जवान भी उल्टी-दस्त का षिकार होते हैं। यदा-कदा कैंप में टैंकर से पानी सप्लाई होती भी है, लेकिन वह किसी वाटर ट्रीटमेंट प्लांट से षेाधित हो कर नहीं आता है। कहते हैं कि जवान पानी की हर घूट के साथ डायरिया, पीलिया व टाईफाईड के जीवाणू पीता है।बेहद उमस, तेज गरमी यहां के मौसम की विषेश्ता है और इसमें उपजते हैं बड़े वाले मच्छर जोकि हर साल कई जवानों की असामयिक मौत का कारण बनते हैं। हालांकि जवानों को कडा निर्देष है कि वे मच्छरदानी लगा कर सोऐं, लेकिन रात की गरमी और घने जंगलों में चैकसी के चलते यह संभव नहीं हो पाता। यहां तक कि बस्तर का मलेरिया अब पारंपरिक कुनैन से ठीक नहीं होता है। घने जंगलों, प्राकृतिक झरनों और पहाड़ों जैसी नैसर्गिक सुंदरता से भरपूर बस्तर में भी पूरे देष की तरह मौसम बदलते हैं, उनके स्थानीय बोलियों में नाम भी हैं, लेकिन वहां के बाषिंदे इन मौसमों को बीमारियों से चीन्हते हैं। इसके बावजूद केंद्रीय बलों के जवानों के लिए स्वास्थ्य सेवाए बेहद लचर है।। जवान यहां-वहां जा नहीं सकते, जगदलपुर का मेडिकल कालेज बेहद अव्यवस्थित सा है।
मोबाईल नेटवर्क का कमजोर होना भी जवानों के तनाव व मौत का कारण बना हुआ है। सनद रहे कि बस्तर की क्षेत्रफल केरल राजय से ज्यादा है। यहां बेहद घने जंगल हैं और उसकी तुलना में मोबाईल के टावर बेहद कम हैं। आंचलिक क्षेत्रों में नक्सली टावर टिकने नहीं देते तो कस्बाई इलाकों में बिजली ठीक ना मिलने से टावर कमजोर रहते हैं। बेहद तनाव की जिंदगी जीने वाला जवान कभी चाहे कि अपने घर वालों का हालचाल जान ले तो भी वह बड़े तनाव का मसल होता है। कई बार यह भी देखने में आया कि सिग्नल कमजोर मिलने पर जवान फोन पर बात करने कैंप से कुछ बाहर निकला और नक्सलियों न उनका षिकार कर दिया। कई कैंप में जवान ऊंचे एंटिना पर अपना फोन टांग देते हैं व उसमें लंबे तार के साथ ‘इयर फोन‘ लगा कर बात करने का प्रयास करते हैं। सीआरपीएफ की रपट मे ंयह माना गया है कि लंबे समय तक तनाव, असरुक्षा व एकांत के माहौल ने जवानों में दिल के रोग बढ़ाए हैं। वहीं घर वालों का सुख-दुख ना जान पाने की दर्द भी उनको ंभीतर ही भीतर तोड़ता रहता है। तिस पर वहां मनोरंजन के कोई साधन हैं नहीं और ना ही जवान के पास उसके लिए समय है।
साफ दिख रहा है कि जवानों के काम करने के हालात सुधारे बगैर बस्तर के सामने आने वाली सुरक्षा चुनौतियों से सटीक लहजे में निबटना कठिन होता जा रहा है। अब जवान पहले से ज्यादा पढ़ा-लिखा आ रहा है, वह पहले से ज्यादा संवेदनषील और सूचनाओं से परिपूर्ण है; ऐसे में उसके साथ काम करने में अधिक जगरूकता व सतर्कता की जरूरत है। नियमित अवकाष, अफसर से बेहतर संवाद, सुदूर नियुक्त जवान के परिवार की स्थानीय परेषानियों के निराकरण के लिए स्थानीय प्रषासन की प्राथमिकता व तत्परता, जवानों के मनोरजंन के अवसर, उनके लिए पानी , चिििकत्सा जैसी मूलभूत सुविधाओं को पूरा करना आदि ऐसे कदम हैं जो जवानों में अनुषासन व कार्य प्रतिबद्धता, देानो को बनाए रख सकते हैं।



Flooded city with trusty mouth

जलजमाव : प्राकृतिक नहीं, मानवजन्य

Peoples Samachar MP 25-6-15
मानसून की पहली फुहार क्या गिरी, कुछ घंटे पानी क्या बरसा, दिल्ली से लेकर भोपाल तक, हर बार की तरह हर शहर पानी-पानी हो गया। दिल्ली से सटे गाजियाबाद, नोएडा, गुड़गांव जैसे शहरों के बडेÞ नाम घुटने-घुटने पानी में डूबते दिखे। रेगिस्तानी जोधपुर में सारा शहर उफनते दरिया की तरह हो गया। हरियाणा के भिवानी, सोनीपत से ले कर उप्र के महोबा जैसे शहर के लोग सड़कों पर भरे पानी की गहराई देखकर डर गए कि यदि कहीं तीन दिन बारिश हो गई तो उनका क्या होगा। कोलकता को तो पहली बारिश ने दरिया बना दिया है। इंदौर में नए बने बीआरटीएस में नाव चलने की नौबत आ गई। मप्र में कई शहर-कस्बों में बाढ़ के चलते दो लोग मर गए। गरमी से निजात पाने के लिए भगवान से जल्द पानी बरसाने की प्रार्थना करने वाले और बारिश के आगमन के बाद उसमें भीगने, मौसम का आनंद उठाने की कल्पना करने वाले लोग सड़कों पर जगह-जगह पानी भरने से ऐसे दो-चार हुए कि अब बारिश के नाम से ही डर रहे हैं।
पहली बारिश में मुंबई तो पूरा शहर ही दरिया बन गया। कल्पना करें कि अभी वहां कम से कम दो महीने की बरसात बाकी है। यह हालत केवल मुंबई, दिल्ली या कुछ महानगरों की नहीं है। कमोबेश देश के हर शहर का हाल थोड़ी-सी बरसात में ऐसा ही होता है- सड़कों पर पानी के साथ वाहनों का सैलाब जो या तो वहीं थम जाते हैं या फिर जैसे-तैसे पानी के नीचे छुपे गड्ढों में दुर्घटना की आशंका के साथ रेंगते हुए या फिर धक्के के सहारे आगे बढ़ते हैं। पूरी बारिश ऐसे दृश्यों का सिलसिला अनवरत चलता रहता है। और कुछ दिन बीतने के बाद फिर पानी के लिए त्राहि-त्राहि करती जनता। पिछले कुछ सालों में देखा गया कि हरियाणा, पंजाब के तेजी से उभरते कई शहर- अंबाला, हिसार, कुरुक्षेत्र, लुधियाना आदि एक रात की बारिश में तैरने लगते हैं। रेल, बसें सभी कुछ बंद! अहमदाबाद, सूरत के हालात भी ठीक नहीं थे। पटना में गंगा तो नहीं उफनी पर शहर के वीआईपी इलाके घुटने-घुटने पानी में तर रहे। किसी भी शहर का नाम लें, कुछ न कुछ ऐसे ही हालात देखने-सुनने को मिल ही जाते हैं। विडंबना है कि शहर नियोजन के लिए गठित लंबे- चौड़े सरकारी अमले पानी के बहाव में शहरों के ठहरने पर खुद को असहाय पाते हैं। सारा दोष नालों की सफाई न होने, बढ़ती आबादी, घटते संसाधनों और पर्यावरण से छेड़छाड़ पर थोप देते हैं। वैसे इस बात का जवाब कोई नहीं दे पाता है कि नालों की सफाई सालभर क्यों नहीं होती और इसके लिए मई-जून का इंतजार क्यों होता है। इसके हल के सपने, नेताओं के वादे और पीड़ित जनता की जिंदगी नए सिरे से शुरू करने की हड़बड़ाहट सब कुछ भुला देती है। यह सभी जानते हैं कि दिल्ली में बने ढेर सारे पुलों के निचले सिरे, अंडरपास और सब-वे हलकी सी बरसात में जलभराव के स्थायी स्थल हैं, लेकिन कभी कोई यह जानने का प्रयास नहीं कर रहा है कि आखिर निर्माण की डिजाइन में कोई कमी है या फिर उसके रखरखाव में। ऐसा ही हाल दूसरे शहरों का है, जहां पानी की निकासी की मुकम्मल व्यवस्थाएं नहीं हैं, विशेषकर सड़कों के किनारे। शायद नियोजन के कर्ताधर्ता यह सोचते हैं कि पानी अपने आप रास्ता बना लेगा और बहकर निकल जाएगा। हर साल आने वाली इस समस्या के बावजूद कभी इस बात पर गंभीरता से विचार नहीं किया गया कि सड़कों पर जमा होने वाले पानी को तत्काल वहां से निकालने की व्यवस्था की जाए। इसके लिए यदि पंचवर्षीय योजना भी बनाई जाती तो वह कब की पूरी हो चुकी होती। हमारे देश में संस्कृति, मानवता और बसावट का विकास नदियों के किनारे ही हुआ है। सदियों से नदियों की अविरल धारा और उसके तट पर मानव-जीवन फलता- फूलता रहा है। बीते कुछ दशकों में विकास की ऐसी धारा बही कि नदी की धारा आबादी के बीच आ गई और आबादी की धारा को जहां जगह मिली वह बस गई। और यही कारण है कि हर साल कस्बे नगर बन रहे हैं और नगर महानगर। बेहतर रोजगार, आधुनिक जनसुविधाएं और उज्जवल भविष्य की लालसा में अपने पुश्तैनी घर-बार छोड़कर शहर की चकाचांैंध की ओर पलायन करने की बढ़ती प्रवृत्ति का परिणाम है कि देश में शहरों की आबादी बढ़ती जा रही है। दिल्ली, कोलकाता, पटना जैसे महानगरों में जल निकासी की माकूल व्यवस्था न होना शहर में जलभराव का स्थायी कारण कहा जाता है। मुंबई में मीठी नदी के उथले होने और 50 साल पुरानी सीवर व्यवस्था के जर्जर होने के कारण बाढ़ के हालात बनना सरकारें स्वीकार करती रही हैं। बेंगलुरू में पारंपरिक तालाबों के मूल स्वरूप में अवांछित छेड़छाड़ को बाढ़ का कारक माना जाता है। शहरों में बाढ़ रोकने के लिए सबसे पहला काम तो वहां के पारंपरिक जल स्रोतों में पानी की आवक और निकासी के पुराने रास्तों में बन गए स्थायी निर्माणों को हटाने का करना होगा। यदि किसी पहाड़ी से पानी नीचे बहकर आ रहा है तो उसका संकलन किसी तालाब में ही होगा। विडंबना है कि ऐसे जोहड़-तालाब कांक्रीट की नदियों में खो गए हैं। परिणामत: थोड़ी ही बारिश में पानी कहीं बहने को बहकने लगता है। इन कांक्रीट की नदियों के बीच पानी की निकासी के लिए अन्य मूलभूत सुविधाओं की तरह कोई प्रावधान नहीं किया जाता। महानगरों में भूमिगत सीवर जलभराव का सबसे बड़ा कारण है। जब हम भूमिगत सीवर के लायक संस्कार नहीं सीख पा रहे हैं तो फिर खुले नालों से अपना काम क्यों नहीं चला पा रहे हैं? पोलिथीन, घर से निकलने वाले रसायन और नष्ट न होने वाले कचरे की बढ़ती मात्रा, कुछ ऐसे कारण हैं जो कि गहरे सीवरों के दुश्मन हैं। इन कारणों से सीवर अक्सर जाम हो जाती हैं और गंदगी सड़कों पर बहने लगती है। सीवर को जाम होने से रोकने के प्रति जागरूकता पैदा करना भी जरूरी है, लेकिन इस ओर भी कभी कोई ध्यान नहीं दिया जाता। महानगरों में सीवरों और नालों की सफाई भ्रष्टाचार का बड़ा माध्यम है। यह कार्य किसी जिम्मेदार एजेंसी को सौंपना आवश्यक है, वरना आने वाले दिनों में महानगरों में कई-कई दिनों तक पानी भरने की समस्या उपजेगी, जो यातायात के साथ-साथ स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा होगी। दिल्ली में तो हाई कोर्ट लगभग हर साल नगर निगम को नालों की सफाई को लेकर फटकारता है, लेकिन जिम्मेदर अफसर इससे बेपरवाह रहते हैं। नदियों या समुद्र के किनारे बसे नगरों में तटीय क्षेत्रों में निर्माण कार्य पर पांबदी की सीमा का कड़ाई से पालन करना समय की मांग है। तटीय क्षेत्रों में अंधाधुंध निर्माण जल बहाव के मार्ग में बाधा होते हैं, जिससे बाढ़ की स्थिति बन जाती है। सीआरजेड कानून में तटों पर निर्माण, गंदगी आदि पर कड़े प्रावधान हैं, लेकिन सरकारी अमले कभी भी इन पर क्रियान्वयन की सोचते तक नहीं हैं। विभिन्न नदियों पर बांधे जा रहे बड़े बांधों के बारे में नए सिरे से विचार करना जरूरी है। गत वर्ष सूरत में आई बाढ़ हो या फिर उससे पिछले साल सूखाग्रस्त बुंदेलखंड के कई जिलों का जलप्लावन, यह स्पष्ट होता है कि कुछ
अधिक बारिश होने पर बांधों में क्षमता से अधिक पानी भर जाता है। ऐसे में बांधों का पानी दरवाजे खोलकर छोड़ना पड़ता है। अचानक छोड़े गए इस पानी से नदी का संतुलन गड़बड़ाता है और वह बस्ती की ओर दौड़ पड़ती है। सनद रहे, ठीक यही हाल दिल्ली में भी यमुना के साथ होता है। हरियाणा के बांधों में पानी अधिक होने पर जैसे ही पानी छोड़ा जाता है, राजधानी के पुश्तों के पास बनी बस्तियां जलमग्न हो जाती हैं। बांध बनाते समय उसकी अधिकतम क्षमता, अतिरिक्त पानी आने पर उसके अन्यत्र भंडारण के प्रावधान रखना शहरों को बाढ़ के खतरे से बचा सकता है। महानगरों में बाढ़ का मतलब है परिवहन और लोगों का आवागमन ठप होना। इस जाम से ईंधन की बर्बादी, प्रदूषण स्तर में वृद्धि और मानवीय स्वभाव में उग्रता जैसे कई दीर्घगामी दुष्परिणाम होते हैं। इसका स्थायी निदान तलाशने के विपरीत जब कहीं शहरों में बाढ़ आती है तो सरकार का पहला और अंतिम कदम राहत कार्य लगाना होता है, जो कि तात्कालिक सहानुभूतिदायक तो होता है, लेकिन बाढ़ के कारणों पर स्थायी रूप से रोक लगाने में अक्षम होता है। जल भराव और बाढ़ मानवजन्य समस्याएं हैं और इसका निदान दूरगामी योजनाओं से संभव है; यह बात शहरी नियोजनकर्ताओं को भलीभांति जान लेना चाहिए और इसी सिद्धांत पर भविष्य की योजनाएं बनाना चाहिए।
                                                                                                                                                                     (आलेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं) 
                                                                                                                                                                                       पंकज चतुर्वेदी

सोमवार, 15 जून 2015

Mathura may ruin soon!

मथुरा कैसे झेल पाएगा ऐसे भूकंप को ?

                                                               पंकज चतुर्वेदी

हाल ही में नेपाल  में आए विनााषकारी भूकंप के झटके पूरे देष ने सहे हैं। ऐसे में राश्ट्रीय आपदा प्रबंधन
संस्थान ने उत्तर प्रदेष के 26 जिलों को भूकंप के प्रति संवेदनषील जोन-4 में रखा है। जोन 4 का अर्थ है कि पांच क्षमता के भूकंप आने की प्रबल संभावना व उससे कमजोर संरचनाओं की पूरी तरह तबाही। इसमें से एक मथुरा भी है, जो बीते दो दषकों से पल-पल दरक रहा है। लोग चिंता में हैं और प्रषासन किसी बड़े हादसे के इंतजार में है। द्वारिकाधीष मंदिर के पीेछे की सघन बस्ती चैबिया पाड़ा, मथुरा की पहचान है। पहाड़ी  के ढलान पर स्थित इस बसावट में गजापायसा लगभग चोटी पर है। अभी एक दषक पहले तक यहां बने मकान एक दूसरे से सटे हुए थे, आज इनके बीच तीन से छह फुट की दूरी है। कोई भी घर ऐसा नहीं है जिसकी दीवारें चटक नहीं गई हों। जब कहीं से गड़गड़ाहट की आवाज आती है तो लोग जान जाते हैं कि किसी का आषियाना उजड़ गया है। किसी का संकल्प है तो किसी की आस्था व बहुत से लोगों की मजबूरी, वे जानते हैं कि यह मकान किसी भी दिन अर्रा कर जमींदोज हो सकता है, लेकिन वे अपने पुष्तैनी घरों को छोड़ने को राजी नहीं हैं। आए रोज मकान ढह रहे हैं व सरकारी कागजी घोड़े अपनी रफ्तार से बेदिषा दौड़ रहे हैं।
कृश्ण की नगरी के नाम से विष्व प्रसिद्ध मथुरा असल में यमुना के साथ बह कर आई रेत-मिट्टी के टीलों पर बसी हुई हैं। जन्मभूमि से लेकर होली गेट तक की मथुरा की आबादी लगभग नदी के तट पर ही हैं।  नगर के बसने का इतिहास सात सौ साल पहले का है, लेकिन अभी दो षतक पहले तक यहां टीलों पर केवल अस्थाई झुग्गियां हुआ करती थीं। वैसे तो मथुरा ब्रज में कंकाली टीला, भूतेष्वर टीला, सोंख टीला, सतोहा टीला, गनेषरा टीला कीकी नगला, गौसना, मदनमोहन मंदिर टीला जैसे कई बस्तियां हैं। लेकिन सबसे घनी बस्ती वाले हैं - चैबों का टीला, उसके बगल में गोसाईयों की बस्ती व पीछे का कसाई पाड़ा। जब चैबों के यहां जजमान आने लगे, परिवहन के साधन बढ़े तो असकुंडा घाट के सामने द्वारिकाधीष मंदिर के पीछे चैबों ने टिकाने बना लिए। देखते ही देखते पूरी पहाड़ी पर बहुमंजिला भवन बन गए। फिर उनमें षौचालय, सीवर, बिजली, एसी लगे।
कोई दो दषक पहले इप बस्तियों में मकान में दरार आना षुरू हुईं, पहले तो इसे निर्माण के दौरान कोई कमी मान लिया गया, लेकिन जब मकानों के बीच की दूरियां बढ़ीं और उसके बाद मकान का ढह कर बिखर जाने का सिलसिला षुरू हुआ तो लोगों की चिंताएं बढ़ने लगीं। अभी तक चैबच्चा, काला महल, सतघड़ा, ताजपुरा, महौली की पौर, घाटी बहालराय, सरवरपुरा, काजी पाड़ा, रतन कुंड, नीम वाली गली सहित 35 मुहल्लों में हजार से ज्यादा मकान ताष के पत्तों की तरह बिखर चुके हैं। नगर पालिका ने जब इसी प्रारंीिाक जाच की तो पता चला कि लगभग 90 साल पहले पड़ी पानी सप्लाई की भूमिगत लाईन जगह-जगह से लीक कर रही थी व उससे जमीन दलदल बन कर कमजोर हुई। लगातार लीकेज ठीक करने का काम भी हुआ, लेकिन मर्ज काबू में नहीं आया। आठ साल पहले आईआईटी रूड़की का एक दल भी यहां जांच के लिए आया। उन्होंने जमीन के ढहने के कई कारण बताए- जमीन की सहने की क्षमता से अधिक वनज के पक्के निर्माण, अंधाधुंध बोरिंग करने से भूगर्भ जल की रीता होना व उससे निर्वात का निर्माण तथा, जल निकासी की माकूल व्यवस्था ना होना।  यह भी सामने आया है कि सीवर व पानी की लाईन में अवैध कनेक्षन लीकेज का सबसे बड़ा कारण हैं। मामला विधान सभा में भी उठा, लेकिन सरकार में बैठे लोगों को ना तो समस्या की सटीक जानकारी रही और ना ही उसके समाधान का सलीका। अब हर दिन समस्या पर विमर्ष तो होता है, लेकिन समाधान के प्रयास नहीं। जवाहरलाल नेहरू षहरी परियोजना के तहत यहां सीवर व ड्रेनेज के अलावा पेयजल लाईनें नए सिरे से बिछाने का बजट भी कें्रद को भेजा गया, लेकिन स्वीकृत नहीं हुआ।
असल में इस समस्या को बुलाया तो बाषिंदों ने ही है। रेत व पीली मिट्टी के टीलों पर मनमाने ढंग से मकान तान दिए गए। फिर सन साठ के बाद मकानों में ही षौचालय बने व उसकी माकूल तकनीकी निकासी का जरिया बना नहीं। जब बढ़ी आबादी के लिए पानी की मांग हुई तो जमीन का सीना चीर कर नलकूप रोपे गए। दो से पांच फुट चैड़ी गलियो ंमें जम कर एयरकंडीषनर लगे। यही नहीं बस्ती से सट कर बह रही यमुना को होली गेट के करीब बैराज बना कर बांधा गया। इनका मिला-जुला परिणाम है कि जमीन भीतर से खोखली, दलदली व कमजोर हो गई। एसी व अन्य कारकों से तापमान बढ़ने ने इस समस्या को और विकराल बनाया। सरकार में बैठे लोग समस्या को समझते हैं लेकिन ऐसा कोई फैसला लेने से बचते हैं जिसमें  जनता को कोई नसीहत हो। परिणाम सामने हैं आए दिन मकान ढहते हैं, बयानबाजी होती है और हालात जस के तस रह जाते हैं।
अभी आए भूकंप का हालांकि मथुरा पर ज्यादा असर नहीं था, लेकिन पुराने मथुरा के कई भवनों के बीच की दरार बढ़ गई है। उस भूकंप के बाद आज भी पुरोन मथुरा में लोग अपने घरों में सोने से डर रहे हैं। यदि मथुरा की पुरानी बस्ती को बचाना है तो सबसे पहले वहां हर तरीके के नए निमार्ण पर रोक लगनी चाहिए। फिर बैराज के बनने से  बढ़े दलदल व जमीन के कमजोर होने का अध्ययन होना चाहिए। भूजल पर पाबंदी तो है लेकिन उस पर अमल नहीं। यह जान लें कि पहाड़ पर बनी बस्तिययों में नीचे की ओर जल निकासी निर्बाध होना चाहिए व कहीं भी लीकेज बेहद खतरनाक हो सकता हे। यदि इन ंिबदुओं के साथ पुराने मथुरा के पुनर्वासन पर काम किया जाए तो मकानों के ढहने की समस्या का निराकरण करना कठिन नहीं है।

शनिवार, 13 जून 2015

Empty stomach and packed godown

कमी भोजन की नहीं प्रबंधन की है

प्रभात, मेरठी, 14 जून 15
                                                           पंकज चतुर्वेदी

जिस समय देश विकासोन्मुखी व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उभर कर आए नए भारत की वर्षगांठ की बधाईयां लेने व देने में मशगूल था, ठीक उसी समय एक ऐसी भी खबर आई जो राष्‍ट्रीय मीडिया में सुर्खियों से वंचित रह गई। वह खबर एक ऐसे राज्य से आई जहां की सार्वजनिक वितरण प्रणाली व खाद्य सुरक्षा योजनओं की बानगी देश-दुनिया में दी जाती रही है। एक बच्चे की लावारिस लाश मिलती है,उसके पोस्टमार्टम में पता चलता है कि उसके पेट में कई दिनों से अन्न का एक दाना नहीं गया था, भूख से उसकी अंतडिया सिकुड गई थीं। बाप काम की तलाश में भटक रहा था, लेकिन काम नहीं था, उसका राशन कार्ड भी कुछ महीनों पहले सरकारी लालफीताशही में उलझ कर निरस्त हो गया था। उस घर के जो दो बच्चे बचे थे, वे भी भूख से किसी भी पल दम तोड़ जाते।  जिस देश में नए खरीदे गए अनाज को रख्,ाने के लिए गोदामों में जगह नहीं है, जहां सामाजिक जलसों में परोसा जाने वाला आधे से ज्यादा भोजन कूड़ा-घर का पेट भरता है, वहां ऐसे भी लोग हैं जो अन्न के एक दाने के अभाव में दम तोड़ देते है।
बंगाल के बंद हो गए चाय बागानों में आए रोज मजूदरों के भूख के कारण दम तोड़ने की बात हो या फिर महाराष्‍ट्र में अरबपति शिरडी मंदिर के पास ही मेलघाट में हर साल हजारों बच्चों की कुपोषण से मौत की खबर या फिर राजस्थान के बारां जिले में सहरिया आदिवासियों की बस्ती में पैदा होने वाले कुल बच्चें के अस्सी फीसदी के उचित खुराक ना मिल पाने के कारण छोटे में ही मर जाने के वाकिये.... यह इस देष में हर रोज हो रहा है, लेकिन विज्ञापन में मुस्कुराते चैहरों, दमकती सुविधाओं के फेर में वास्तविकता से परे उन्मादित भारतवासी तक ऐसी खबरें या तो पहुंच नहीं रही हैं या उनकी संवेदनाओं को झकझोर नहीं रही हैं।
हाल की ही रोंगटे खड़े कर देने वाली घटना छत्तीसगढ़ के सरगुजा इलाके में अंबिकापुर जिले की है। विकासखंड मैनपाट के नर्मदापुर खालपारा निवासी संगतराम मांझी अपने तीनों पुत्र राजाराम 9 वर्ष, सरवन 6 वर्ष एवं शिवकुमार 5 वर्ष के साथ रोजी-रोटी की तलाश में मंगलवार को पैदल ही सीतापुर आया था। यहां बच्चों के साथ उसने दो दिन बिताया। गुरुवार की शाम को वह अपने तीनों बच्चों को लेकर ग्राम पीडि़या जाने निकला था। रात के अंधेरे में उससे दो बच्चे सरवन एवं शिवकुमार बिछड़ गए और भटकते हुए दोनों कतकालो डूमरपारा पहुंच गए। सुबह गांव की एक औरत ने पेड़ के नीचे सो रहे बच्चें को देखा व लोगों को बुलाया। तब तक षिकुमार की सांसें थम चुकी थीं, सरवन को अस्पताल ले जाया गया तो वह बड़ी मुषिकल से बचा।  मृत बच्चे के पोस्टमार्टम से पता चला कि उसने कई दिनों से कुछ खाया नहीं था व भूख से उसकी आंतें तक सिकुड़ गई थीं। संगतराम का परिवार बेहद गरीब था और अभावों में बमुश्किल परिवार का गुजर बसर हो रहा था। आर्थिक तंगी के कारण संगतराम के बीमार पत्नी की मौत पहले ही हो चुकी थी। तीनों बच्चों के लालन-पालन की जिम्मेदारी संगतराम के कंधों पर ही थी। उसके पास गरीबी रेखा का राशन कार्ड था जिसमें 35 किलो चावल मिलता था, परंतु कार्ड सत्यापन के दौरान उसका राशनकार्ड निरस्त कर दिया गया था। उसे अपने गांव में मनरेगा के तहत कभी काम ही नहीं मिला। हालांकि अब प्रषासन संगतराम को पागल करार दे कर भूख से मौत का कलंक मिटाने का प्रयास कर रहा है, लेकि बाप के मानसिक अस्थिर होने, उसके पास काम ना होने से हम इस राश्ट्रीय षर्म खुद को परे नहीं कर सकते हैं।
भूख से मौत वह भी उस देष में जहां खाद्य और पोशण सुरक्षा की कई योजनाएं अरबों रूप्ए की सबसिडी पर चल रही हैं, जहां मध्यान्य भोजन योजना के तहत हर दिन 12 करोड़ बच्चें को दिन का भरपेट भोजन देने का दावा हो, जहां हर हाथ को काम व हर पेट को भोजन के नाम पर हर दिन करोड़ों का सरकारी फंड खर्च होता हो; दर्षाता है कि योजनाओं व हितग्राहियों के बीच अभी भी पर्याप्त दूरी है। वैसे भारत में हर साल पांच साल से कम उम्र के 10 लाख बच्चों के भूख या कुपोशण से मरने के आंकड़े संयुक्त राश्ट्र संगठन ने जारी किए हैं। ऐसे में प्दिली नवरात्रि पर गुजरात के गांधीनगर जिले के एक गांव में माता की पूजा के नाम पर 16 करोड़ रूपए दाम के साढ़े पांच लाख किलो षुद्ध घी को सड़क पर बहाने, मध्यप्रदेष में एक राजनीतिक दल के महासम्मेलन के बाद नगर निगम के सात ट्रकों में भर कर पूड़ी व सब्जी कूड़ेदान में फैंकने की घटनाएं बेहद दुभाग्यपूर्ण व षर्मनाक प्रतीत होती हैं।
हर दिन कई लाख लोगों के भूखे पेट सोने के गैर सरकारी आंकड़ो वाले भारत देष के ये आंकड़े भी विचारणीय हैं। देष में हर साल उतना गेहूं बर्बाद होता है, जितना आस्ट्रेलिया की कुल पैदावार है। नश्ट हुए गेहूं की कीमत लगभग 50 हजार करोड़ होती है और इससे 30 करोड़ लोगों को सालभर भरपेट खाना दिया जा सकता है। हमारा 2.1 करोड़ टन अनाज केवल इस लिए बेकाम हो जात है, क्योंकि उसे रखने के लिए हमारे पास माकूल भंडारण की सुविधा नहीं है। देष के कुल उत्पादित सब्जी, फल, का 40 फीसदी प्रषीतक व समय पर मंडी तक नहीं पहुंच पाने के कारण सड़-गल जाता है। औसतन हर भारतीय एक साल में छह से 11 किलो अन्न बर्बाद करता है।  जितना अन्न हीम एक साल में बार्बा करते हैं उसकी कीमत से ही कई सौ कोल्ड स्टोरेज बनाए जा सकते हैं जो फल-सब्जी को सड़ने से बचा सके। एक साल में जितना सरकारी खरीदी का धान व गेहूं खुले में पड़े होने के कारण मिट्टी हो जाता है, उससे ग्रामीण अंचलों में पांच हजार वेयर हाउस बनाए जा सकते हैं। यह आंकड़ा किसी से दबा-छुपा नहीं है, बस जरूरत है तो एक प्रयास करने की। यदि पंचायत स्तर पर ही एक कुंटल अनाज का आकस्मिक भंडारण व उसे जरूरतमंद को देने की नीति का पालन हो तो कम से कम कोई भूखा तो नहीं मरेगा।
विकास,विज्ञान, संचार व तकनीक में हर दिन कामयाबी की नई छूने वाले मुल्क में इस तरह बेरोजगारी व खाना ना मिलने से होने वाली मौतें मानवता व हमारे ज्ञान के लिए भी कलंक हैं। हर जरूरतमंद को अन्न पहुंचे इसके लिए सरकारी योजनाओं को तो थोडा़ा चुस्त-दुरूस्त होना होगा, समाज को भी थोड़ा संवेदनषील बनना होगा। हो सकता है कि हम इसके लिए पाकिस्तन से कुछ सीख लें जहां षादी व सार्वजनिक समारोह में पकवान की संख्या, मेहमानों की संख्या तथा खाने की बर्बादी पर सीधे गिरफ्तारी का कानून है। जबकि हमारे यहां होने वाले षादी समारोह में आमतौर पर 30 प्रतिषत खाना बेकार जाता है। गांव स्तर पर अन्न बैंक, प्रत्येक गरीब, बेरोजगार के आंकड़े रखना जैसे कार्य में सरकार से ज्यादा समाज को अग्रणी भूमिका निभानी होगी। बहरहाल हमें एकमत से स्वीकार करना होगा कि अंबिकापुर जिले में एक आदिवासी बच्च्ेा की ऐसी मौत हम सभी के लिए षर्म की बात है। यह विडंबना है कि मानवता पर इतना बड़ा धब्बा लगा और उस इलाके के एक कर्मचाीर या अफसर को सरकार ने दोशी नहीं पाया, जबकि ये अफसरान इलाके की हर हनजी उपलब्धि को अपनी बताने से अघाते नहीं हैं।

शुक्रवार, 12 जून 2015

Only export can not be a solution for pulses


घट रही है थाली में दाल की मात्रा 

 

 

शायद सभी सियासती पार्टियों की रुचि देश के स्वास्थ्य से कहीं अधिक दालें बाहर से मंगवाने में है. तभी तो इतने शोर के बावजूद दाल के वायदा कारोबार पर रोक नहीं लग रही है. इससे भले ही बाजार भाव बढ़े, सटोरियों को बगैर दाल के ही मुनाफा हो रहा है.

 

Prabhat Khabar, Jharkhand, bihar 13-6-15
बेमौसम बारिश ने देशभर में खेती-किसानी का जो नुकसान किया है, उसका असर जल्द ही बाजार में दिखने लगा है.हमारे यहां मांग की तुलना में दाल का उत्पादन कम होता है और इस बार की प्राकृतिक आपदा की चपेट में दाल की फसल को जबरदस्त नुकसान हुआ है. अनुमानत: पंद्रह प्रतिशत फसल नष्ट हो गयी है, जबकि गुणवत्ता कम होने की भी काफी संभावना है. 
 
वह दिन अब हवा हो गये हैं, जब आम मेहनतकश लोगों के लिए प्रोटीन का मुख्य स्नेत दालें हुआ करती थीं. देश की आबादी बढ़ी, लोगों में पौष्टिक आहार की मांग भी बढ़ी, यदि कुछ नहीं बढ़ा तो दाल बुवाई का रकबा. परिणाम सामने हैं- मांग की तुलना में आपूर्ति कम है और बाजार भाव मनमाने हो रहे हैं. अरहर दाल में गत एक साल में प्रति किलो 26 रुपये का उछाल आया है.
 
भारत में दालों की सालाना खपत 220 से 230 लाख टन है, जबकि कृषि मंत्रलय कह चुका है कि इस बार दाल का उत्पादन 184.3 लाख टन रह सकता है, जो पिछले साल के उत्पादन 197.8 लाख टन से कम है. इस तरह दूसरे अनाजों की भी कमी और दाम में बढ़ोतरी होगी. सनद रहे कि गत 25 वर्षो से हम हर वर्ष दालों का आयात तो कर रहे हैं, लेकिन दाल में आत्मनिर्भर बनने के लिए इसका उत्पादन और रकबा बढ़ाने की कोई ठोस योजना नहीं बन पा रही है. भारत दुनिया में दाल का सबसे बड़ा खपतकर्ता, उत्पादक और आयातक देश है. 
 
दुनिया में दाल के कुल खेतों का 33 प्रतिशत हमारे यहां है, जबकि खपत 22 फीसदी. इसके बावजूद अब वे दिन सपने हो गये हैं, जब आम-आदमी को ‘दाल-रोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओ’ कह कर कम में ही गुजारा करने की सीख देता था.
 
दलहन फसलों की बुवाई के रकबे में बढ़ोतरी न होना चिंता की बात है. सन् 1965-66 में देश के 227.2 लाख हेक्टेयर खेतों पर दाल बोयी जाती थी, सन् 2005-06 आते-आते यह घट कर 223.1 लाख हेक्टेयर रह गया. सन् 2000 आते-आते इसमें कुछ बढ़ोतरी तो हुई और यह 22.64 फीसदी हो गया. लेकिन ये आंकड़े हकीकत में मांग से बहुत दूर रहे. हम गत् 25 वर्षो से लगातार विदेशों (म्यांमार, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और टर्की) से दालें मंगवा रहे हैं.
 
पिछले साल देश के बाजारों में दालों के रेट बहुत बढ़े थे, लेकिन आलू-प्याज के लिए कोहराम मचानेवाले राजनीतिक दल चुप्पी साधे रहे थे. पिछले साल सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी एमएमटीसी ने नवंबर तक 18,000 टन अरहर और मसूर की दाल आयात करने के लिए वैश्विक टेंडर को मंजूरी दी थी. माल आया भी, उधर हमारे खेतों ने भी बेहतरीन फसल उगली. एक तरफ आयातित दाल बाजार में थी, सो किसानों को अपनी अपेक्षित कीमत नहीं मिली. 
 
ऐसे में किसान के हाथ फिर निराशा लगी और अगली फसल में उसने दालों से एक बार फिर मुंह मोड़ लिया. इस बार तो संकट सामने दिख रहा है, बेहतर होगा कि सरकार अभी से दाल आयात करना शुरू कर दे. एक तो इस समय माल खरीदने पर कम दाम में मिलेगा, दूसरा बाजार में बाहर का माल आने से देश में इसकी आपूर्ति सामान्य रहेगी व इसके चलते इसके भाव भी नियंत्रण में रहेंगे.
 
दाल के उत्पादन को प्रोत्साहित करने के इरादे से केंद्र सरकार ने सन् 2004 में इंटीग्रेटेड स्कीम फार आयल सीड, पल्सेज, आयल पाम एंड मेज (आइएसओपीओएम) नामक योजना शुरू की थी. इसके तहत दाल बोनेवाले किसानों को सब्सिडी के साथ-साथ कई सुविधाएं देने की बात कही गयी थी. 1991 में शुरू हुई राष्ट्रीय दलहन विकास परियोजना भी आधे-अधूरे मन से शुरू योजना थी, उसके भी कोई परिणाम नहीं निकले. 1950-51 में हमारे देश में दाल की खपत प्रति व्यक्ति/प्रति दिन 61 ग्राम थी, वह 2009-10 आते-आते 36 ग्राम से भी कम हो गयी.
 
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् (आइसीएआर) की मानें, तो हमारे देश में दलहनों के प्रामाणिक बीजों हर साल मांग 13 लाख क्विंटल है, जबकि उपलब्धता महज 6.6 लाख क्विंटल. यह तथ्य बानगी है कि सरकार दाल की पैदावार बढ़ाने के लिए कितनी गंभीर है. 
 
यह दुख की बात है कि भारत, जिसकी अर्थ-व्यवस्था का आधार कृषि है, वहां दाल जैसी मूलभूत फसलों की कमी को पूरा करने की कोई ठोस कृषि-नीति नहीं है. कमी हो तो बाहर से मंगवा लो, यह तदर्थवाद देश की परिपक्व कृषि-नीति का परिचायक कतई नहीं है.
नेशनल सैंपल सर्वे के एक सर्वेक्षण के मुताबिक आम भारतीयों के खाने में दाल की मात्र में लगातार हो रही कमी का असर उनके स्वास्थ्य पर दिखने लगा है.
 
इसके बावजूद दाल की कमी कोई राजनीतिक मुद्दा नहीं बन पा रहा है. शायद सभी सियासती पार्टियों की रुचि देश के स्वास्थ्य से कहीं अधिक दालें बाहर से मंगवाने में है. तभी तो इतने शोर के बावजूद दाल के वायदा कारोबार पर रोक नहीं लग रही है. इससे भले ही बाजार भाव बढ़े, सटोरियों को बगैर दाल के ही मुनाफा हो रहा है.

गुरुवार, 11 जून 2015

Flood destroying economy of asam

असम की अर्थ व्यवस्था को चाट जाती है बाढ़

                                                                                                                            पंकज चतुर्वेदी
डेली न्यूज , जयपुर , १२ जून १५ 
जब देश को मौसम विभाग ने इस चिंता में डाल दिया है कि इस साल औसत से कम बरसात होगी, इस समय देष के बड़े हिस्से में बूंद-बूंद पानी के लिए त्राहि-त्राहि मच रही है, तभी असम के आठ जिले बाढ के कारण जल मग्न हैं। कोई 45 हजार लोग विस्थापित हुए हैं, दो लोग मारे गए हैं व कई करोड़ की संपत्ति व फसल चैपट हो गई। यह भी जान लें कि राज्य के अधिकांष जिलों में ऐसे ही हालात अब सितंबर तक चलेंगे । कहने की जरूरत नहीं है कि यहां हर साल ऐसा ही होता है । यह विडंबना है कि राज्य का लगभग 40 प्रतिषत हिस्सा नदियों के रौद्र रूप से पस्त रहता है। अनुमान है कि इसमें सालाना कोई 200 करोड़ का नुकसान होता है जिसमें - मकान, सड़क, मवेषी, खेत, पुल, स्कूल, बिजली, संचार आदि षामिल हैं। राज्य में इतनी मूलभूत सुविधाएं खड़ा करने में दस साल लगते हैं , जबकि हर साल औसतन इतना नुकसान हो ही जाता है। यानि असम हर साल विकास की राह पर 19 साल पिछड़ता जाता है।  केंद्र हो या राज्य , सरकारों का ध्यान बाढ़ के बाद राहत कार्यों व मुआवजा पर रहता है, यह दुखद ही है कि आजादी के 67 साल बाद भी हम वहां बाढ़ नियंत्रण की कोई मुकम्मल योजना नहीं दे पाए हैं। यदि इस अवधि में राज्य में बाढ से हुए नुकसान व बांटी गई राहत राषि को जोड़े तो पाएंगे कि इतने धन में एक नया सुरक्षित असम खड़ा किया जा सकता था।
असम में हर साल तबाही मचाने वाली ब्रह्यंपुत्र और बराक नदियां, उनकी कोई 48 सहायक नदियां और  उनसे जुड़ी असंख्य सरिताओं पर सिंचाई व बिजली उत्पादन परियोजनाओं के अलावा इनके जल प्रवाह को आबादी में घुसने से रोकने की योजनाएं बनाने की मांग लंबे समय से उठती रही है। असम की अर्थ व्यवस्था का मूल आधार खेती-किसानी ही है, और बाढ़ का पानी हर साल लाखों हैक्टर में खड़ी फसल को नश्ट कर देता है। ऐसे में वहां का किसान कभी भी कर्ज से उबर ही नहीं पाता है। एक बात और ब्रह्यंपुत्र नदी के प्रवाह का अनुमान लगाना भी बेहद कठिन है। इसकी धारा की दिषा कहीं भी, कभी भी  बदल जाती है। परिणाम स्वरूप जमीनों का कटाव, उपजाऊ जमीन का नुकसान भी होता रहता है। यह क्षेत्र भूकंप ग्रस्त हे। और समय-समय पर यहां धरती हिलने के हल्के-फुल्के झटके आते रहते है।। इसके कारण जमीन खिसकने की घटनाएं भी यहां की खेती-किसानी को प्रभावित करती है। इस क्षेत्र की मुख्य फसलें धान, जूट, सरसो, दालें व गन्ना हैं। धान व जूट की खेती का समय ठीक बाढ़ के दिनों का ही होता है। यहंा धान की खेती का 92 प्रतिषत आहू, साली बाओ और बोडो किस्म की धान का है और इनका बड़ा हिसा हर साल बाढ़ में धुल जाता है।  असम में मई से ले कर सितंबर तक बाढ़ रहती है और इसकी चपेट में तीन से पांच लाख हैक्टर खेत आते हैं । हालांकि खेती के तरीकों में बदलाव और जंगलों का बेतरतीब दोहन जैसी मानव-निर्मित दुर्घटनाओं ने जमीन के नुकसान के खतरे का दुगना कर दिया है। दुनिया में नदियों पर बने सबसे बड़े द्वीप माजुली पर नदी के बहाव के कारण जमीन कटान का सबसे अधिक असर पड़ा है। बाढ़ का असर यहां के वनों व वन्य जीवों पर भी पड़ता है। हर साल कांजीरंगा व अन्य संरक्षित वनों में बाए़ से गेंडा जैसे संरक्षित जानवर भी मारे जाते हैं, वहीं इससे हरियाली को ीाी नुकसान होता है।
राज्य में नदी पर बनाए गए अधिकांष तटबंध व बांध 60 के दषक में बनाए गए थे । अब वे बढ़ते पानी को रोक पाने में असमर्थ हैं । फिर उनमें गाद भी जम गई है, जिसकी नियमित सफाई की कोई व्यवस्था नहीं हैं। पिछले साल पहली बारिष के दवाब में 50 से अधिक स्थानों पर ये बांध टूटे थे । इस साल पहले ही महीने में 27 जगहों पर मेढ़ टूटने से जलनिधि के गांव में फैलने की खबर है। वैसे मेढ़ टूटने की कई घटनाओं में खुद गांव वाले ही षामिल होते हैं । मिट्टी के कारण उथले हो गए बांध में जब पानी लबालब भर कर चटकने की कगार पर पहुंचता है तो गांव वाले अपना घर-बार बचाने के लिए मेढ़ को तोड़ देते हैं । उनका गांव तो थोड़ सा बच जाता है, पर करीबी बस्तियां पूरी तरह जलमग्न हो जाती हैं । बराक नदी गंगा-ब्रह्यपुत्र-मेधना नदी प्रणाली की दूसरे नंबर की सबसे बड़ी नदी है। इसमें उत्तर-पूर्वी भारत के कई सौ पहाड़ी नाले आकर मिलते हैं जो इसमें पानी की मात्रा व उसका वेग बढ़ा देते हैं। वैसे इस नदी के मार्ग पर बाढ़ से बचने के लिए कई तटबंध, बांध आदि बनाए गए और ये तरीके कम बाढ़ में कारगर भी रहे हैं।
हर साल की तरह इस बार भी सरकारी अमले बाढ़ से तबाही होने के बाद राहत सामग्री बांटने के कागज भरने में जुट गए हैं । विडंबना ही हैं कि राज्य में राहत सामग्री बांटने के लिए किसी बजट की कमी नहीं हैं, पर बाढ़ रोकने के लिए पैसे का टोटा है । बाढ़ नियंत्रण विभाग का सालाना बजट महज सात करोड़ है, जिसमें से वेतन आदि बांटने के बाद बाढ़ नियंत्रण के लिए बामुष्किल एक करोड़ बचता हैं । जबकि मौजूदा मेढ़ों व बांधों की सालाना मरम्मत के लिए कम से कम 70 करोड़ चाहिए । यहां बताना जरूरी है कि राजय सरकार द्वारा अभी तक इससे अधिक की राहत सामग्री बंाटने का दावा किया जा रहा हैं ।
ब्रह्मपुत्र घाटी में तट-कटाव और बाढ़ प्रबंध के उपायों की योजना बनाने और उसे लागू करने के लिए दिसंबर 1981 में ब्रह्मपुत्र बोर्ड की स्थापना की गई थी । बोंर्ड ने ब्रह्मपुत्र व बराक की सहायक नदियों से संबंधित योजना कई साल पहले तैयार भी कर ली थी । केंद्र सरकार के अधीन एक बाढ़ नियंत्रण महकमा कई सालों से काम कर रहा हैं और उसके रिकार्ड में ब्रह्मपुत्र घाटी देष के सर्वाधिक बाढ़ ग्रस्त क्षेत्रों में से हैं । इन महकमों नेेे इस दिषाा में अभी तक क्या कुछ किया ? उससे कागज व आंकड़ेां को जरूर संतुश्टि हो सकती है, असम के आम लेागों तक तो उनका काम पहुचा नहीं हैं ।
असम को सालाना बाढ़ के प्रकोप से बचाने के लिए ब्रह्मपुत्र व उसकी सहायक नदियों की गाद सफाई, पुराने बांध व तटबंधों की सफाई, नए बांधों को निर्माण जरूरी हैं । लेकिन सियासती खींचतान के चलते जहों जनता ब्रह्मपुत्र की लहरों के कहर को अपनी नियति मान बैठी है, वहीं नेतागण एकदूसरे को आरोप के गोते खिलवाने की मषक्कत में व्यस्त हो गए हैं । हां, राहत सामग्री की खरीद और उसके वितरण के सच्चे-झूठे कागज भरने के खेल में उनकी प्राथमिकता बरकारार हैं ।

Urbanization is threat to Eco system



अनियोजित शहरीकरण: पर्यावरण का सबसे बड़ा संकट 

                                                                                                                       पंकज चतुर्वेदी

जागरण , १२ जून १५ 
देश  की राजधानी दिल्ली हो मुंबई या कोलकाता - कही ंपानी नहीं है तो कहीं बिजली का संकट, कहीं गरम हो कर वाहन सड़क पर जाम कर रहे हैं तो कहीं  भीशण गर्मी से स्वास्थ्य समस्याएं उभर रही हैं। नारे-वादे-आरोप-प्रत्यारोप तो बहुत से हैं, लेकिन सर्वषक्तिमान महानगर के पास इनका कोई हल नहीं हैं। असल में शहरीकरण आधुनिकता और विकास की सार्वभौम प्रक्रिया है और अव्यवस्थाएं, अनाचार, असमानता, इसके स्वाभाविक उत्पाद। साल दर साल बढती गरमी, गांव-गांव तक फैल रहा जल-संकट का साया, बीमारियों के कारण पट रहे अस्पताल,.. ऐसे कई मसले हैं जो आम लोगों को पर्यावरण के प्रति जागरूक बना रहे हैं। कहीं कोई नदी, तालाब के संरक्षण की बात कर रहा है तो कही पेड़ लगा कर धरती को बचाने का संकल्प, जंगल व वहां के बाशिंदे जानवरों को बचाने के लिए भी सरकार व समाज प्रयास कर रहे हैं। लेकिन भारत जैसे विकासशील  व्यवस्था वाले देष में पर्यावरण का सबसे बड़ा संकट तेजी से विस्तारित होता ‘शहरीकरण’ एक समग्र विषय के तौर लगभग उपेक्षित है। असल में देखें तो संकट जंगल का हो या फिर स्वच्छ वायु का या फिर पानी का ; सभी के मूल में विकास की वह अवधारणा है जिससे शहररूपी सुरसा सतत विस्तार कर रही है और उसकी चपेट में आ रही है प्रकृति और नैसर्गिकता।
हमारे देश में संस्कृति, मानवता और बसावट का विकास नदियों के किनारे ही हुआ है । सदियों से नदियों की अविरल धारा और उसके तट पर मानव-जीनव फलता-फूलता रहा है । बीते कुछ दशकों में विकास की ऐसी धारा बही कि नदी की धारा आबादी के बीच आ गई और आबादी की धारा को जहां जगह मिली वह बस गई । और यही कारण है कि हर साल कस्बे नगर बन रहे हैं और नगर महानगर । बेहतर रोजगार, आधुनिक जनसुविधाएं और, उज्जवल भविष्य की लालसा में अपने पुश्तैनी घर-बार छोड़ कर शहर की चकाचांैंध की ओर पलायन करने की बढ़ती प्रवृति का परिणाम है कि देश में एक लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की संख्या 302 हो गयी है । जबकि 1971 में ऐसे शहर मात्र 151 थे । यही हाल दस लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की है । इसकी संख्या गत दो दशकों में दुगुनी होकर 16 हो गयी है । पांच से 10 लाख आबादी वाले शहर 1971 में मात्र नौ थे जो आज बढ़कर आधा सैंकड़ा हो गये हंैं । विशेषज्ञों का अनुमान है कि आज देश की कुल आबादी का 8.50 प्रतिशत हिस्सा देश के 26 महानगरों में रह रहा है । विष्व बैंक की ताजा रिपोर्ट बताती है कि आने वाले 20-25 सालों में 10 लाख से अधिक आबादी वाले षहरों की संख्या 60 से अधिक हो जाएगी जिनका देष के सकल घरेलू उत्पाद मे ंयोगदान 70 प्रतिषत होगा। एक बात और बेहद चैकाने वाली है कि भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी की रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या षहरों में रहने वाले गरीबों के बराबर ही है । यह संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है, यानी यह डर गलत नहीं होगा कि कहीं भारत आने वाली सदी में ‘अरबन स्लम’ या शहरी मलिन बस्तियों में तब्दील ना हो जाए। देष की लगभग एक तिहाई आबादी  31.16 प्रतिषत अब शहरों में रह रही हैं। 2011 की जनगणना के आंकड़े गवाह हैं कि गांव छोड़ कर षहर की ओर जाने वालों की संख्या बढ़ रही है और अब 37 करोड 70 लाख लोग शहरों के बाशिंदे  हैं । सन 2001 और 2011 के आंकड़ों की तुलना करें तो पाएंगे कि इस अवधि में शहरों की आबादी में नौ करोड़ दस लाख का इजाफा हुआ जबकि गावंो की आबादी नौ करोड़ पांच लाख ही बढ़ी।
लेकिन षहर भी  दिवास्वप्न से ज्यादा नहीं ंहै, देष के चारों महानगर अब आबादी का बोझ सहने लायक नहीं ंहैं जबकि दीगर 9735 षहर भले ही आबादी से लबालब हों, लेकिन उनमें से मात्र 4041 को ही सरकारी दस्तावेज में शहर की मान्यता मिली है। शेष  3894 श हरों में श हर नियोजन या नगर पालिका तक नहीं है। यहां बस खेतों को उजाड़ कर बेढब अधपक्के मकान खड़े कर दिए गए हैं जहां पानी, सड़क, बिजली आदि गांवों से भी बदतर है।

दिल्ली, कोलकाता, पटना जैसे महानगरों में जल निकासी की माकूल व्यवस्था न होना शहर में जल भराव का स्थाई कारण कहा जाता है । मुंबई में मीठी नदी के उथले होने और सीवर की 50 साल पुरानी सीवर व्यवस्था के जर्जर होने के कारण बाढ़ के हालात बनना सरकारें स्वीकार करती रही है। बंगलौर में पारंपरिक तालाबों के मूल स्वरूप में अवांछित छेड़छाड़ को बाढ़ का कारक माना जाता है । शहरों में बाढ़ रोकने के लिए सबसे पहला काम तो वहां के पारंपरिक जल स्त्रोतों में पानी की आवक और निकासी के पुराने रास्तों में बन गए स्थाई निर्माणों को हटाने का करना होगा । यदि किसी पहाड़ी से पानी नीचे बह कर आ रहा है तो उसका संकलन किसी तालाब में ही होगा । विडंबना है कि ऐसे जोहड़-तालाब कंक्रीट की नदियों में खो गए हैं । परिणामतः थोड़ी ही बारिश में पानी कहीं बहने को बहकने लगता है ।
महानगरों में भूमिगत सीवर जल भराव का सबसे बड़ा कारण हैं । जब हम भूमिगत सीवर के लायक संस्कार नहीं सीख पा रहे हैं तो फिर खुले नालों से अपना काम क्यों नहीं चला पा रहे हैं ? पोलीथीन, घर से निकलने वाले रसायन और नष्ट न होने वाले कचरे की बढ़ती मात्रा, कुछ ऐसे कारण हैं, जोकि गहरे सीवरों के दुश्मन हैं ।

शहर के लिए सड़क चाहिए, बिजली चाहिए, मकान चाहिए, दफ्तर चाहिए, इन सबके लिए या तो खेत होम हो रहे हैं या फिर जंगल।  जंगल को हजम करने की चाल में पेड़, जंगली जानवर, पारंपरिक जल स्त्रोत, सभी कुछ नश्ट हो रहा है। यह वह नुकसान है जिसका हर्जाना संभव नहीं है। शहरीकरण यानी रफ्तार, रफ्तार का मतलब है वाहन और वाहन हैं कि विदेषी मुद्रा भंडार से खरीदे गए ईंधन को पी रहे हैं और बदले में दे रहे हैं दूषित  वायु। शहर को ज्यादा बिजली चाहिए, यानी ज्यादा कोयला जलेगा, ज्यादा परमाणु संयंत्र लगेंगे। शहरीकरण के लिए ज्यादा ईंटें, रेत  व सीमेंट चाहिए, जाहिर है कि इसके लिए प्राकृतिक संसाधनों पर ही निरंकुष जोर पड़ता है।
श हर का मतलब है औद्योगिकीकरण और अनियोजित कारखानों की स्थापना जिसका परिणाम है कि हमारी लगभग सभी नदियां अब जहरीली हो चुकी हैं। नदी थी खेती के लिए, मछली के लिए , दैनिक कार्यों के लिए , नाकि उसमें गंदगी बहाने के लिए। गांवों के कस्बे, कस्बों के शहर और शहरों के महानगर में बदलने की होड़, एक ऐसी मृग मरिचिका की लिप्सा में लगी है, जिसकी असलियत  कुछ देर से खुलती है। दूर से जो जगह रोजगार, सफाई, सुरक्षा, बिजली, सड़क के सुख का केंद्र होते हैं, असल में वहां सांस लेना भी गुनाह लगता है।
शहरों की घनी आबादी संक्रामक रोगों के प्रसार का  आसान जरिया होते हैं, यहां दूषित  पानी या हवा भीतर ही भीतर इंसान को खाती रहती है और यहां बीमारों की संख्या ज्यादा होती है।  देश  के सभी बड़े शहर इन दिनों कूड़े को निबटाने की समस्या से जूझ रहे हैं। कूड़े को एकत्र करना और फिर उसका शमन करना, एक बड़ी चुनौती बनता जा रहा है। एक बार फिर शहरीकरण से उपज रहे कचरे की मार पर्यावरण पर ही पड़ रही है।
असल में शहरीकरण के कारण पर्यावरण को हो रहा नुकसान का मूल कारण अनियोजित शहरीकरण है। बीते दो दषकों के दौरान यह पवृति पूरे देष में बढ़ी कि लोगों ने जिला मुख्यालय या कस्बों की सीमा से सटे खेतों पर अवैध कालोनियां काट लीं। इसके बाद जहां कहीं सड़क बनी, उसके आसपास के खेत, जंगल, तालाब को वैध या अवैध तरीके से कंक्रीट के जंगल में बदल दिया गया। देष के अधिकांष उभरते षहर अब सड़कों के दोनेां ओर बेतरतीब बढ़ते जा रहे हैं। ना तो वहां सार्वजनिक परिवहन है, ना ही सुरक्षा, ना ही बिजली-पानी की न्यूनतम मांग। असल में देष में बढ़े काले धन को जब बैंक या घर मे ंरखना जटिल होने लगा तो जमीन में निवेष के अंधे कुंए का सहरा लिया जाने लगा। इससे खेत की कीमतें बढ़ीं, खेती की लागत भी बढ़ी और किसानी लाभ का काम नहीं रहा गया। पारंपरिक षिल्प और रोजगार की त्यागने वालों का सहारा षहर बने और उससे वहां का अनियोजित व बगैर दूरगामी सोच के विस्तार का आत्मघाती कदम उभरा।
विकास के नाम पर मानवीय संवेदनाओं में अवांछित दखल से उपजती आर्थिक विषमता, विकास और औद्योगिकीकरण की अनियोजित अवधारणाएं और पारंपरिक जीवकोपार्जन के तौर-तरीकेां में बाहरी दखल- शहरों की ओर पलायन को प्रोत्साहित करने वाले तीन प्रमुख कारण हैं । इसके लिए सरकार और समाज दोनो को साझा तौर पर आज और अभी चेतना होगा ।, अन्यथा कुछ ही वर्षों में ये हालात देश की सबसे बड़ी समस्या का कारक बनेंगें - जब प्रगति की कहानी कहने वाले महानगर बेगार,लाचार और कुंठित लोगों से ठसा-ठस भरे होंगे, जबकि देश का गौरव कहे जाने वाले गांव मानव संसाधन विहीन पंगु होंगे ।




पंकज चतुर्वेदी
यूजी-1, 3/186 ए राजेन्द्र नगर
सेक्टर-2
साहिबाबाद
गाजियाबाद 201005
9891928376, 0120-4241060




रविवार, 7 जून 2015

When illegal bangladeshi will out of country ?

                        

कब कम होगी देश  की दस करोड आबादी 

                                          पंकज चतुर्वेदी
RAJ EXPRESS, 8-6-15
भारत के प्रधानमंत्री ने जब बंगाल में अपने प्रचार के दौरान यह घोशणा की थी कि यदि उनकी सरकार आएगी तो बांग्लादेशियों  को उनके देश  वापिस भेज दिया जाएगा तो उनके इस बयान का व्यापक रूप से स्वागत हुआ था। इन दिनों प्रधानमंत्रीजी बांग्लादेश  की यात्रा पर भी हैं और दुनिया का भूगोल बदलने वाले एक बड़े समझौते  पर हस्ताक्षर हो गए हैं जिसके तहत दोनो देश  अपनी ऐसी जमीनों की अदला-बदली कर रहे हैं जो  एक दूसरे देश  की सीमा के भीतर है। आम लोग उम्मीद कर रहे हैं कि जमीन अदला-बदली के साथ कुछ ऐसी भी होगा कि देश  की सुरक्षा एजंसियों के लिए चुनौती बने बांग्लादेशी  अवैध प्रवासियों की वापिसी भी सहज हो सकेगी। निशाने पर बांग्लादेशी हैं। उनकी भाषा, रहन-सहन और नकली दस्तावेज इस कदर हमारी जमीन से घुलमिल गए हैं कि उन्हें विदेशी सिद्ध करना लगभग नामुमकिन हो चुका है। ये लोग आते तो दीन हीन याचक बन कर हैं, फिर अपने देश  को लौटने को राजी नहीं होते हैं । ऐसे लोगो को बाहर खदेड़ने के लिए जब कोई बात हुई, सियासत व वोटों की छीना-झपटी में उलझ कर रह गई । गौरतलब है कि पूर्वोत्तर राज्यों में अषांति के मूल में ये अवैध बांग्लादेशी  ही हैं। आज जनसंख्या विस्फोट से देश  की व्यवस्था लडखड़ा गई है । मूल नागरिकों के सामने भोजन, निवास, सफाई, रोजगार, षिक्षा, स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं का अभाव दिनों -दिन गंभीर  होता जा रहा है । ऐसे में  अवैध बांग्लादेशी  कानून को धता बता कर भारतीयों के हक नाजायज तौर पर बांट रहे हैं । ये लोग यहां के बाषिंदों की रोटी तो छीन ही रहे हैं, देश  के सामाजिक व आर्थिक समीकरण भी इनके कारण गड़बड़ा रहे हैं  ।
हाल ही में मेघालय हाई कोर्ट ने भी स्पश्ट कर दिया है कि सन 1971 के बाद आए सभी बांग्लादेशी  अवैध रूप् से यहां रह रहे है। अनुमान है कि आज कोई दस करोड़ के करीब बांग्लादेशी  हमारे देश  में जबरिया रह रहे हैं। 1971 की लड़ाई के समय लगभग 70 लाख बांग्लादेशी (उस समय का पूर्वी पाकिस्तान) इधर आए थे । अलग देश  बनने के बाद कुछ लाख लौटे भी । पर उसके बाद भुखमरी, बेरोजगारी के षिकार बांग्लादेशियों  का हमारे यहां घुस आना अनवरत जारी रहा । पष्चिम बंगाल, असम, बिहार, त्रिपुरा  के सीमावर्ती  जिलों की आबादी हर साल बैतहाषा बढ़ रही है । नादिया जिला (प बंगाल) की आबादी 1981 में 29 लाख थी । 1986 में यह 45 लाख, 1995 में 60 लाख और आज 65 लाख को पार कर चुकी है । बिहार में पूर्णिया, किश नगंज, कटिहार, सहरसा आदि जिलों की जनसंख्या में अचानक वृद्धि का कारण वहां बांग्लादेशियों  की अचानक आमद ही है ।
असम में 50 लाख से अधिक विदेशियों  के होने पर सालों खूनी राजनीति हुई । वहां के मुख्यमंत्री भी इन नाजायज निवासियों की समस्या को स्वीकारते हैंे, पर इसे हल करने की बात पर चुप्पी छा जाती है । सुप्रीम कोर्ट के एक महत्वपूर्ण निर्णय के बाद विदेषी नागरिक पहचान कानून को लागू करने में राज्य सरकार का ढुलमुल रवैया राज्य में नए तनाव पैदा कर सकता है । अरूणाचल प्रदेश  में मुस्लिम आबादी में बढ़ौतरी सालाना 135.01 प्रतिश त है, जबकि यहां की औसत वृद्धि 38.63 है । इसी तरह पष्चिम बंगाल की जनसंख्या बढ़ौतरी की दर औसतन 24 फीसदी के आसपास है, लेकिन मुस्लिम आबादी का विस्तार 37 प्रतिश त से अधिक है । यही हाल मणिपुर व त्रिपुरा का भी है । जाहिर है कि इसका मूल कारण बांग्लादेशियों  का निर्बाध रूप से आना, यहां बसना और निवासी होने के कागजात हांसिल करना है । कोलकता में तो अवैध बांग्लादेशी  बड़े स्मगलर और बदमाश  बन कर व्यवस्था के सामने चुनौति बने हुए हैं ।
राजधानी दिल्ली में सीमापुरी हो या यमुना पुष्ते की कई किलोमीटर में फेैली हुई झुग्गियां, लाखेंा बांग्लादेशी  डटे हुए हैं । ये भाशा, खनपान, वेश भूशा के कारण स्थानीय बंगालियों से घुलमिल जाते हैं । इनकी बड़ी संख्या इलाके में गंदगी, बिजली, पानी की चोरी ही नहीं, बल्कि डकैती, चोरी, जासूसी व हथियारों की तस्करी बैखौफ करते हैं । सीमावर्ती नोएडा व गाजियाबाद में भी इनका आतंक है । इन्हें खदेड़ने के कई अभियान चले । कुछ सौ लोग गाहे-बगाहे सीमा से दूसरी ओर ढकेले भी गए । लेकिन बांग्लादेश  अपने ही लोगों को अपनाता नहीं है । फिर वे बगैर किसी दिक्कत के कुछ ही दिन बाद यहां लौट आते हैं । जान कर अचरज होगा कि बांग्लादेशी  बदमाषों का नेटवर्क इतना सश क्त है कि वे चोरी के माल को हवाला के जरिए उस पार भेज देते हैं । दिल्ली व करीबी नगरों में इनकी आबादी 10 लाख से अधिक हैं । सभी नाजायज बाषिंदों के आका सभी सियासती पार्टियों में हैं । इसी लिए इन्हें खदेड़ने के हर बार के अभियानों की हफ्ते-दो हफ्ते में हवा निकल जाती है ।
सीमा सुरक्षा बल यानी बीएसएफ की मानें तो भारत-बांग्लादेश  सीमा पर स्थित आठ चेक पोस्टों से हर रोज कोई 6400 लोग वैध कागजों के साथ सीमा पार करते हैं और इनमें से 4480 कभी वापिस नहीं जाते। औसतन हर साल 16 लाख बांग्लादेशी  भारत की सीमा में आ कर यहीं के हो कर रह जाते हैं।सरकारी आंकड़ा है कि सन 2000 से 2009 के बीच कोई एक करोड़ 29 लाख बांग्लादेशी  बाकायदा पासपोर्ट-वीजा ले कर भारत आए व वापिस नहीं गए। असम तो अवैध बांग्लादेशियों  की  पसंदीदा जगह है। सन 1985 से अभी तक महज 3000 अवैध आप्रवासियों को ही वापिस भेजा जा सका है।  राज्य की अदालतों में अवैध निवासियों की पहचान और उन्हें वापिस भेजने के कोई 40 हजार मामले लंबित हैं। अवैध रूप से घुसने व रहने वाले स्थानीय लोगों में षादी करके यहां अपना समाज बना-बढ़ा रहे हैं।
भारत में बस गए करोडों़ से अधिक विदेशियों  के खाने -पीने, रहने, सार्वजनिक सेवाओं के उपयोग का खर्च न्यूनतम पच्चीस रूपए रोज भी लगाया जाए तो यह राषि सालाना किसी राज्य के कुल बजट के बराबर हो जाएगी । जाहिर है कि देश  में उपलब्ध रोजगार के अवसर, सरकारी सबसिडी वाली सुविधाओं पर से इन बिन बुलाए मेहमानों का नाजायज कब्जा हटा दिया जाए तो भारत की मौजूदा गरीबी रेखा में खासा गिराव आएगा ।
इन घुसपैठियों की जहां भी बस्तियां होती हैं, वहां गंदगी और अनाचार का बोलबाला होता है । ये कुंठित लोग पलायन से उपजी अस्थिरता के कारण जीवन से निराश  होते हैं । इन सबका विकृत असर हमारे सामाजिक परिवेश  पर भी बड़ी गहराई से पड़ रहा है । हमारे पड़ोसी देषों से हमारे ताल्लुकात इन्हीं घुसपैठियों के कारण तनावपूर्ण भी हैं । इस तरह ये विदेषी हमारे सामाजिक, आर्थिक और अंतरराश्ट्रीय पहलुओं को आहत कर रहे हैं ।
दिनों -दिन गंभीर हो रही इस समस्या से निबटने के लिए सरकार तत्काल ही कोई अलग से महकमा बना ले तो बेहतर होगा, जिसमें प्रषासन, पुलिस के अलावा मानवाधिकार व स्वयंसेवी संस्थाओं के लेाग भी हों ं। साथ ही सीमा को चोरी -छिपे पार करने के रैक्ेट को तोड़ना होगा । वैसे तो हमारी सीमाएं बहुत बड़ी हैं, लेकिन यह अब किसी से छिपा नहीं हैं कि बांग्लादेश  व पाकिस्तान सीमा पर मानव तस्करी का बाकायदा धंधा चल रहा है, जो कि सरकारी कारिंदों की मिलीभगत के बगैर संभव ही नहीं हैं ।
आमतौर पर विदेशियों  को खदेड़ने की बातें सांप्रदायिक रंग ले लेती हैं । सबसे पहले तो इस समस्या को किसी जाति या संप्रदाय के विरूद्ध नहीं अपितु देश  के लिए खतरे के रूप में लेने की सश क्त राजनैतिक इच्छा श क्ति का प्रदर्षन करना होगा । इस देश  में देश  का मुसलमान गर्व से और समान अधिकार से रहे, यह सुनिष्चित करने के बाद इस तथ्य पर आम सहमति बनाना जरूरी है कि ये बाहरी लोग हमारे संसाधनों पर डाका डाल रहे हैं और इनका किसी जातिविषेश से कोई लेना देना नहीं है ।
यहां बसे विदेशियों  की पहचान और फिर उन्हें वापिस भेजना एक जटिल प्रक्रिया है । बांग्ला देश  अपने लोगों की वापिसी सहजता से नहीं करेगा । इस मामले में सियासती पार्टियों का संयम भी महति है । वर्ग विषेश के वोटों के लालच में इस सामाजिक समस्या को धर्म आधारित बना दिया जाता है । यदि सरकार में बैठे लोग ईमानदारी से इस दिषा में पहल करते है तो एक झटके में देश  की आबदी को कम कर यहां के संसाधनों, श्रम और संस्कारों पर अपने देश  के लोगों का हिस्सा बढाया जा सकता है।

पंकज चतुर्वेदी




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