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गुरुवार, 11 जून 2015

Flood destroying economy of asam

असम की अर्थ व्यवस्था को चाट जाती है बाढ़

                                                                                                                            पंकज चतुर्वेदी
डेली न्यूज , जयपुर , १२ जून १५ 
जब देश को मौसम विभाग ने इस चिंता में डाल दिया है कि इस साल औसत से कम बरसात होगी, इस समय देष के बड़े हिस्से में बूंद-बूंद पानी के लिए त्राहि-त्राहि मच रही है, तभी असम के आठ जिले बाढ के कारण जल मग्न हैं। कोई 45 हजार लोग विस्थापित हुए हैं, दो लोग मारे गए हैं व कई करोड़ की संपत्ति व फसल चैपट हो गई। यह भी जान लें कि राज्य के अधिकांष जिलों में ऐसे ही हालात अब सितंबर तक चलेंगे । कहने की जरूरत नहीं है कि यहां हर साल ऐसा ही होता है । यह विडंबना है कि राज्य का लगभग 40 प्रतिषत हिस्सा नदियों के रौद्र रूप से पस्त रहता है। अनुमान है कि इसमें सालाना कोई 200 करोड़ का नुकसान होता है जिसमें - मकान, सड़क, मवेषी, खेत, पुल, स्कूल, बिजली, संचार आदि षामिल हैं। राज्य में इतनी मूलभूत सुविधाएं खड़ा करने में दस साल लगते हैं , जबकि हर साल औसतन इतना नुकसान हो ही जाता है। यानि असम हर साल विकास की राह पर 19 साल पिछड़ता जाता है।  केंद्र हो या राज्य , सरकारों का ध्यान बाढ़ के बाद राहत कार्यों व मुआवजा पर रहता है, यह दुखद ही है कि आजादी के 67 साल बाद भी हम वहां बाढ़ नियंत्रण की कोई मुकम्मल योजना नहीं दे पाए हैं। यदि इस अवधि में राज्य में बाढ से हुए नुकसान व बांटी गई राहत राषि को जोड़े तो पाएंगे कि इतने धन में एक नया सुरक्षित असम खड़ा किया जा सकता था।
असम में हर साल तबाही मचाने वाली ब्रह्यंपुत्र और बराक नदियां, उनकी कोई 48 सहायक नदियां और  उनसे जुड़ी असंख्य सरिताओं पर सिंचाई व बिजली उत्पादन परियोजनाओं के अलावा इनके जल प्रवाह को आबादी में घुसने से रोकने की योजनाएं बनाने की मांग लंबे समय से उठती रही है। असम की अर्थ व्यवस्था का मूल आधार खेती-किसानी ही है, और बाढ़ का पानी हर साल लाखों हैक्टर में खड़ी फसल को नश्ट कर देता है। ऐसे में वहां का किसान कभी भी कर्ज से उबर ही नहीं पाता है। एक बात और ब्रह्यंपुत्र नदी के प्रवाह का अनुमान लगाना भी बेहद कठिन है। इसकी धारा की दिषा कहीं भी, कभी भी  बदल जाती है। परिणाम स्वरूप जमीनों का कटाव, उपजाऊ जमीन का नुकसान भी होता रहता है। यह क्षेत्र भूकंप ग्रस्त हे। और समय-समय पर यहां धरती हिलने के हल्के-फुल्के झटके आते रहते है।। इसके कारण जमीन खिसकने की घटनाएं भी यहां की खेती-किसानी को प्रभावित करती है। इस क्षेत्र की मुख्य फसलें धान, जूट, सरसो, दालें व गन्ना हैं। धान व जूट की खेती का समय ठीक बाढ़ के दिनों का ही होता है। यहंा धान की खेती का 92 प्रतिषत आहू, साली बाओ और बोडो किस्म की धान का है और इनका बड़ा हिसा हर साल बाढ़ में धुल जाता है।  असम में मई से ले कर सितंबर तक बाढ़ रहती है और इसकी चपेट में तीन से पांच लाख हैक्टर खेत आते हैं । हालांकि खेती के तरीकों में बदलाव और जंगलों का बेतरतीब दोहन जैसी मानव-निर्मित दुर्घटनाओं ने जमीन के नुकसान के खतरे का दुगना कर दिया है। दुनिया में नदियों पर बने सबसे बड़े द्वीप माजुली पर नदी के बहाव के कारण जमीन कटान का सबसे अधिक असर पड़ा है। बाढ़ का असर यहां के वनों व वन्य जीवों पर भी पड़ता है। हर साल कांजीरंगा व अन्य संरक्षित वनों में बाए़ से गेंडा जैसे संरक्षित जानवर भी मारे जाते हैं, वहीं इससे हरियाली को ीाी नुकसान होता है।
राज्य में नदी पर बनाए गए अधिकांष तटबंध व बांध 60 के दषक में बनाए गए थे । अब वे बढ़ते पानी को रोक पाने में असमर्थ हैं । फिर उनमें गाद भी जम गई है, जिसकी नियमित सफाई की कोई व्यवस्था नहीं हैं। पिछले साल पहली बारिष के दवाब में 50 से अधिक स्थानों पर ये बांध टूटे थे । इस साल पहले ही महीने में 27 जगहों पर मेढ़ टूटने से जलनिधि के गांव में फैलने की खबर है। वैसे मेढ़ टूटने की कई घटनाओं में खुद गांव वाले ही षामिल होते हैं । मिट्टी के कारण उथले हो गए बांध में जब पानी लबालब भर कर चटकने की कगार पर पहुंचता है तो गांव वाले अपना घर-बार बचाने के लिए मेढ़ को तोड़ देते हैं । उनका गांव तो थोड़ सा बच जाता है, पर करीबी बस्तियां पूरी तरह जलमग्न हो जाती हैं । बराक नदी गंगा-ब्रह्यपुत्र-मेधना नदी प्रणाली की दूसरे नंबर की सबसे बड़ी नदी है। इसमें उत्तर-पूर्वी भारत के कई सौ पहाड़ी नाले आकर मिलते हैं जो इसमें पानी की मात्रा व उसका वेग बढ़ा देते हैं। वैसे इस नदी के मार्ग पर बाढ़ से बचने के लिए कई तटबंध, बांध आदि बनाए गए और ये तरीके कम बाढ़ में कारगर भी रहे हैं।
हर साल की तरह इस बार भी सरकारी अमले बाढ़ से तबाही होने के बाद राहत सामग्री बांटने के कागज भरने में जुट गए हैं । विडंबना ही हैं कि राज्य में राहत सामग्री बांटने के लिए किसी बजट की कमी नहीं हैं, पर बाढ़ रोकने के लिए पैसे का टोटा है । बाढ़ नियंत्रण विभाग का सालाना बजट महज सात करोड़ है, जिसमें से वेतन आदि बांटने के बाद बाढ़ नियंत्रण के लिए बामुष्किल एक करोड़ बचता हैं । जबकि मौजूदा मेढ़ों व बांधों की सालाना मरम्मत के लिए कम से कम 70 करोड़ चाहिए । यहां बताना जरूरी है कि राजय सरकार द्वारा अभी तक इससे अधिक की राहत सामग्री बंाटने का दावा किया जा रहा हैं ।
ब्रह्मपुत्र घाटी में तट-कटाव और बाढ़ प्रबंध के उपायों की योजना बनाने और उसे लागू करने के लिए दिसंबर 1981 में ब्रह्मपुत्र बोर्ड की स्थापना की गई थी । बोंर्ड ने ब्रह्मपुत्र व बराक की सहायक नदियों से संबंधित योजना कई साल पहले तैयार भी कर ली थी । केंद्र सरकार के अधीन एक बाढ़ नियंत्रण महकमा कई सालों से काम कर रहा हैं और उसके रिकार्ड में ब्रह्मपुत्र घाटी देष के सर्वाधिक बाढ़ ग्रस्त क्षेत्रों में से हैं । इन महकमों नेेे इस दिषाा में अभी तक क्या कुछ किया ? उससे कागज व आंकड़ेां को जरूर संतुश्टि हो सकती है, असम के आम लेागों तक तो उनका काम पहुचा नहीं हैं ।
असम को सालाना बाढ़ के प्रकोप से बचाने के लिए ब्रह्मपुत्र व उसकी सहायक नदियों की गाद सफाई, पुराने बांध व तटबंधों की सफाई, नए बांधों को निर्माण जरूरी हैं । लेकिन सियासती खींचतान के चलते जहों जनता ब्रह्मपुत्र की लहरों के कहर को अपनी नियति मान बैठी है, वहीं नेतागण एकदूसरे को आरोप के गोते खिलवाने की मषक्कत में व्यस्त हो गए हैं । हां, राहत सामग्री की खरीद और उसके वितरण के सच्चे-झूठे कागज भरने के खेल में उनकी प्राथमिकता बरकारार हैं ।

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