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शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2015

communal riots drawback for development of country



दंगे देश को पीछे ढकेलते हैं

पंकज चतुर्वेदी


 सावधान ! हम पीछे की ओर लौट रहे हैं, ग्रेटर नोएडा का दादरी इलाका, जहां जमीन की कीमतें देश में सबसे ज्यादा हैं, जहां से देश का एकमाञ सुपर एक्सप्रेस वे गुजरता है, ठीक करीब ही फार्मूला 1 रेसिंग ट्रैक है, वहां बिसाहडा गांव में मंदिर के लाउड स्पीकर से एलान होता है कि दानिश मुसलमान ने गौ माता को मार डाला है और तीन चार सौ लोगों की भीड उसके घर पर हमला कर देती है, घर की हर चीज को खिडकी दरवाजे को तोडा जाता है, बुजुर्ग अखलाक को तब तक पीटा जाता है , जब तक उसके प्राण ना निकल गए, उसके 21 साल के बेटे दानिश ने अपने घर की पहली मंजिल के कमरे में छुपने की कोशशि की तो घर के उस हिस्से को भी तोडा गया, दानिश अस्पताल में जिंदगी मौत की लडाई लड रहा है, घर की औरतों का कहना है कि उनके यहां ईद का बकरे का गोश्त फ्रीज में रखा था।
यही नहीं पुलिस ने कुछ लोगों को पकडा और थाने ले आई तो लंपटों की भीड ने थाने पर हमला कर दिया, जिसमें एक डीएसपी व एक तहसीलदार भी घायल हुए, पुलिस वाले अपनी जान बचा कर भागते दिखे , उपद्रवियों ने कई वाहन फूंक डाले..... अभी तो जांच की जा रही है कि क्या वास्तव में दानिश के घर गाय का गोश्त था ? मंदिर से अफवाह फैला कर भडकाने वाले लोग कौन थे ? लेकिन जरा जरा सोचें कि सूचना, संचार , आर्थिक तौर पर इतने विकसित इलाकों में भी दंगों की फसल बाने के लिए इतने पुराने हथकंडे अपनाए जा रहे है और वे कारगर हो रहे हैं और 60 साल पहले की तरह पुलिस असफल हो रही है।
PRABHAT MEERUT, 4-10-15
मसला केवल बिसाहडा का ही नहीं है, एक सप्ताह से सुलग रहे रांची में भी बीती रात ठीक इसी तरह की अफवाहें फैलाई गई कि किसी मंदिर में गौ मांस है व वहां फिर दंगा भडक गया, ऐसा ही सफल प्रयास भागलपुर के जब्बरचक इलाके के एक धार्मिक स्थल से हुआ। सबसे ज्यादा चैंकाने वाला वाकिया तो उत्त्राखंड के कोटद्वार का है जहां एक मामूली से सडक हादसे को सांप्रदायिक रंग दे दिया गया, बदमाया किस्म के लेागों ने सब्जी फल की दुकानें लूटीं।
यह कुछ घटनाएं महज 24 घंटों के भीतर की हैं, ये घटनाएं अधिकांश उन इलाकों में हुई जहां सांप्रदायिक तनाव की घटनांए या तो बहुत कम होती हैं या फिर कई दशकों से वहां ऐसा हुआ नहीं था, ये सभी घटनाएं ऐसी हरकतों से शुरू हुई हैं जिनका उल्लेख आजादी के ठीक पहले सा उसके बाद सन 1955 तक तक मिलता रहा है
यह असहिष्णुता है, धार्मिकता है, कट्रटरता है या आपस में कम होता भरोसा या फिर कोई बहुत बडी साजिश,। यह बेहद गंभीर मसला है और ऐसी घटनाओं से देश की दुनिया में छबि खराब होती है व इसका विपरीत असर विकास पर भी पडता है। आज जब आटे-दाल के भाव लोगों का दिमाग घुमाए हुए हैं, बेराजगारों की कतार बढती जा रही है,  देश का आधा हिस्सा गंभीर सूखे की ओर बढ़ रहा है, ऐसे में धर्म-जाति, भोजन, वस्त्र, आस्था, पूजा पद्धति के नाम पर इंसान का इंसाने से भिड़ जाना व उसका खून कर देना, उस आईएसआईएस की हरकतों से कम नहीं है जो दुनिया में आतंक का राज चाहता है। विडंबना है कि प्रषासन के लिए यह महज कानून व्यवस्था का मसला होता है और नेताओं के लिए बयानबाजी व कीचड उछालने का जरिया, जबकि असल में यह नासूर बनती सामाजिक समस्या है जो देश की प्रगति के पैर में बेडि़यों की तरह है। अपने आसपास सतर्क भी रहें कि कहीं कोई ऐसी कुत्सित हरकत तो नहीं कर रहा है जिस व्यापार, धंधे, प्रापर्टी, मानव संसाधन और सबसे बड़ी बात भरोसे का निर्माण करने में इंसान व मुल्क को दशकों लगते हैं, उसे बर्बाद करने में पल भी लगता। महज कोई क्षणिक आक्रोश, विद्वेश या साजिश की आग में समूची मानवता और रिष्ते झुलस जाते हैं और पीछे रह जाती हैं संदेह, बदले और सियासती दांव पेंच की इबारतें। दो साल पहले पष्चिमी उत्त प्रदेश के चार जिलों में भउ़के भयावह दंगे की जांच की जस्टिस विष्णु सहाय आयोग की रपट के पूरे पन्ने अभी खुले नहीं हैं, लेकिन कहानी वही पुरानी है। दंगे भड़कने के दौरान कोई भी नेता, दल या संगठन अपने दल-बल के साथ सामने नहीं आया व लोगों को षांत करने में सक्रिय नहीं हुआ। जब पूरा बवंडर तबाही कर गया उसके बाद बयानवीर एक दूसरे पर कीचड़ उछालते दिखे। लेकिन इस सच को ना तो कोई आयोग और ना ही कोई जांच एजेंसी न्याय की चैखट तक ले जा पाएगी, क्योंकि हर बार की तरह इन दंगों का भी अपना अर्थषास्त्र है। 
आजादी के बाद सन 1964 में कलकत्ता, राऊरकेला और जमषेदपुर में कई दिनोतं क ख्ूनखराबा हुआ था, जिसमें 2000 से ज्यादा लोग मारे गए थे। जांच आयोग ने पाया था कि असल में दंगा भड़काने के पीछे शराब के ठेकों पर कब्जा करने वाली लाॅबी के निजी टकराव थे। मार्च-1968 में असम के करीम गंज में एक मुसलमान किसान की गाय एक हिंदू के खेत में घुस गई, आपसी झगड़ा इतना विकराल हो गया कि दंगे में 82 लोग मारे गए। अक्तूबर-1977 के बनारस दंगे में 36 जानें गई थीं व इसके पीछे का कारण एंग्लो-बंगाली कालेज के मैदान में जुलाहों द्वारा अपना तागा सुखाने का साधारण सा विवाद था।  मार्च-1978 में संभल के दंगे का कारण पदो स्मगलरों के गुटों का आपसी विवाद पाया गया था।  1984 में इंदिरा गांधी की हत्ष्या के बाद सिंख दंगों में तीन हजार से ज्यादा सिखों की जान और अरबों की संपत्ति नश्ट की गई थी। इसके लिए कईं जांच आयोग, कई विषेश दल गठित हुए, यदि कईं की गंभीरता से जांच करें तो यह संगठित अपराध, लूटपाट, राजनीति का घालमेल नजर आता है।
जरा याद करें 27 फरवरी 2002 को साबरमती एक्सप्रेस में 50 कार सेवकों (25 महिलाएं व 15 बच्चे) को जिंदा जला देने के बाद गुजरात के 25 में से 16 जिलों के 151 शहर और 993 गांवों में मुसलमानों पर योजनाबद्ध हमले हुए। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इन दंगों  में कुल 1044 लोग मारे गए, जिनमें 790 मुसलमान और 254 हिंदू थे। यहां व्यापारी वर्ग के डरपोक कहे जाने वाले बोहरोंके व्यवसाय-दुकानों का निशाना बना कर फूंका गया। मुसलमानों की होटलों, वाहनों को बाकायदा नक्षा बना कर नश्ट किया गया, बाद में पता चला कि असल खुन्नस तो व्यापारिक प्रतिद्वंदिता की थी, जिसे  सांप्रदायिक रंग दे दिया गया। यह बात ब और पुख्ता हो गई जब दंगों के बाद गुजरात के गांवों में मुसलमानेां की दुकानों से सामान ना खरीदन जैसे पर्चें बांटे गए। उत्तर प्रदेश में कई बार दंगों की वजह सरकारी संपत्ति पर कब्जा कर रही है। अभी 2014 में सहारनपुर में सिखों व मुसलमानेां के बीच हुए तनाव का असली कारण सरकारी जमीन पर धार्मिक स्थल के नाम पर कब्जा करने की साजिश के तौर पर सामने आया था।

यह तथ्य भी गौरतलब है कि भारत में हिंदू-मुस्लिम जबकों की 1200 साल की सहयात्रा में दंगों का अतीत तो पुराना है नहीं। कहा जाता है कि अहमदाबाद में सन् 1714, 1715, 1716 और 1750 में हिंदू मुसलमानों के बीच झगड़े हुए थे। उसके बाद 1923-26 के बीच कुछ जगहों पर मामूली तनाव हुए । सन् 1931 में कानपुर का दंगा भयानक था, जिसमें गणेश शंकर विद्यार्थी की जान चली गई थी। दंगें क्यों होते हैं? इस विशय पर प्रो. विपिन चंद्रा, असगर अली इंजीनियर से ले कर सरकार द्वारा बैठाए गए 100 से ज्यादा जांच आयोगों की रिपोर्ट तक साक्षी है कि झगड़े ना तो हिंदुत्व के थे ना ही सुन्नत के। कहीं जमीनों पर कब्जे की गाथा है तो कहीं वोट बैंक तो कहीं नाजायज संबंध तो कहीं गैरकानूनी धंधे।
सन् 1931 में कानपुर में हुए दंगों के बाद कांग्रेस ने छह सदस्यों का एक जांच दल गठित किया था। सन् 1933 में जब इस जांच दल की रिपोर्ट सार्वजनिक की जानी थी तो तत्कालीन ब्रितानी सरकार ने उस पर पाबंदी लगा दी थी। उस रिपोर्ट में बताया गया था कि सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक विविधताओं के बावजूद सदियों से ये दोनों समाज दुर्लभ सांस्कृतिक संयोग प्रस्तुत करते आए हैं। उस रिपोर्ट में दोनों संप्रदायों के बीच तनाव को जड़ से समाप्त करने के उपायों को तीन वर्गों में विभाजित किया गया था -धार्मिक-शैक्षिक, राजनीतिक-आर्थिक और सामाजिक। उस समय तो अंग्रेजी सरकार ने अपनी कुर्सी हिलती देख इस रिपोर्ट पर पाबंदी लगाई थी। आज कतिपय राजनेता अपनी सियासती दांवपेंच को साधने के लिए उस प्रासंगिक रिपोर्ट को भुला चुके हैं। मुंबई दंगों की श्रीकृश्ण आयोग की रपट का जिन्न तो कोई भी सरकार बोतल से बाहर नहीं लाना चाहती।
मुसलमान ना तो नौकरियों में है ना ही औद्योगिक घरानों में, हां हस्तकला में उनका दबदबा जरूर है। लेकिन विडंबना है कि यह हुनरमंद अधिकांश जगह मजदूर ही हैं। यदि देश में दंगों को देखें तो पाएंगे कि प्रत्येक फसाद मुसलमानों के मुंह का निवाला छीनने वाला रहा है। भागलपुर में बुनकर, भिवंडी में पावरलूम, जबलपुर में बीडी, मुरादाबाद में पीतल, अलीगढ़ में ताले, मेरठ में हथकरघा..., जहां कहीं दंगे हुए मजदूरों के घर जलें, उनमे कुटीर उद्योग चैपट हुए। एस. गोपाल की पुस्तक ‘‘द एनोटोमी आॅफ द कन्फ्रंटेशन’’ में अमिया बागछी का लेखन इस कटु सत्य को उजागर करता है कि सांप्रदायिक दंगे मुसलमानों की एक बड़ी तादाद को उन मामूली धंधों से भी उजाड़ रहे हैं जो उनके जीवनयापन का एकमात्रा सहारा है। (प्रिडेटरी कर्मशलाईजेशन एंड कम्यूनिज्म इन इंडिया)। गुजरात में दंगों के दौरान मुसलमानों की दुकानों को आग लगाना, उनका आर्थिक बहिष्कार आदि गवाह है कि दंगे मुसलमानों की आर्थिक गिरावट का सबसे कारण है। यह जान लें कि उ.प्र. में मुसलमानों के पास सबसे ज्यादा व सबसे उपजाऊ जमीन  और दुधारू मवेषी पष्चिमी उत्तर प्रदेश में ही हैं। इस बार का दंगा मुसलमानेां को इस पुष्तैनी धंधे से मरहूम करने की बड़ी साजिश  दिखता है।
दंगे मानवता के नाम पर कलंक हैं। धर्म, भाषा, मान्यताओं, रंग जैसी विशमताओं के साथ मत-विभाजन होना स्वाभाविक है। लेकिन जब सरकार व पुलिस में बैठा एक वर्ग खुद सांप्रदायिक हो जाता है तो उसकी सीधी मार निरपराध, गरीब और अशिक्षित वर्ग पर पड़ती है। यही हमारे देश में होता है फिर सवाल केवल मुसलमान से ही क्यों पूछा जाता है?
एक बारगी लगता हो कि दंगे महज किसी कौम या फिरके को नुकसान पहुंचाते हैं, असल में इससे नुकसान पूरे देश के विकास, विष्वास और व्यवसाय को होता है। आज जरूरत इस बात की है कि दंगों के असली कारण, साजिश को सामने लाया जाए तथा मैदान में लड़ने वालों की जगह उन लेागों को कानून का कड़ा पाठ पढ़ाया जाए जो घर में बैठ कर अपने निजी स्वार्थ के चलते लोगों को भड़काते हैं व देश के विकास को पटरी से नीचे लुढकाते हैं।


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