My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

सोमवार, 30 नवंबर 2015

World Aids day 01 December ,







  

एड्स को मारना बाकी है

राष्ट्रीय सहारा१-१२-१५

                                                                   पंकज चतुव्रेदी


राजू सखाराम पटोले अपनी बस्ती में दया, सहयोग और सद्व्यवहार के लिए मशहूर था। बरबस कोई यकीन नहीं कर रहा था कि उसने अपनी बीवी और चार मासूम बच्चों की सिलबट्टे से हत्या कर दी। वह खुद भी नहीं जीना चाहता था, लेकिन उसे बचा लिया गया, तिल-तिल मरने के लिए। समाजसेवी के रूप में चर्चित राजू के इस पाशविक स्वरूप का कारण एक ऐसी बीमारी है, जिसके बारे में अधकचरा ज्ञान समाज में कई विकृतियां खड़ी कर रहा है। राजू को 1995 में डाक्टरों ने बताया था कि उसे एड्स है। इसके बाद अस्पतालों में उसके साथ अछूतों सरीखा व्यवहार होने लगा। वह जान गया था कि उसकी मौत होने वाली है। उसके बाद उसके मासूम बच्चों और पत्नी का भी जीना दुश्वार हो जाएगा। फिलहाल, राजू जेल में है, और पुलिस ने उसे ‘‘कड़ी सजा’ दिलवाने के कागज तैयार कर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान ली है। यह ऐसा पहला मामला नहीं है, जब एड्स
Peoples samachar MP 1-12-15
ने कई बेगुनाहों को जीते-जी मार डाला। हाल में यूनीसेफ ने बताया है कि अफ्रीका में 10 से 19 साल के युवाओं की मौत की सबसे पहली और दुनियाभर में दूसरी सबसे बड़ी वजह एड्स ही है। यूनीसेफ की रपट में कहा गया है कि प्रत्येक घंटे 15-19 आयु वर्ग के 26 नए एचआईवी पीड़ित सामने आ रहे हैं। इस बीमारी से पीड़ित इस आयु वर्ग के 20 लाख लोगों में से आधे छह देशों के हैं। इनमें भारत भी है। बाकी अफ्रीका के हैं। ये हैं-द. अफ्रीका, नाईजीरिया, केन्या, मोजांबिक और तंजानिया। यूनीसेफ की चेतावनी है कि लापरवाही के कारण मां के गर्भ से ही एड्स के जीवाणू नवजात में आने के मामलों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। अति गंभीर स्वास्य समस्या घोषित हो चुकी एड्स की बीमारी ऐसी ही अनेक सामाजिक समस्याएं और जटिलताएं पनपा रही है। यह संक्रामक रोग मनुष्य की बिगड़ी हुई जीवन शैली का परिणाम है। अवांछित, अनैतिक, अप्राकृतिक और उन्मुक्त यौनाचार इस संक्रमण के प्रमुख कारण हैं। साझा सूइयों से नशा करना, रक्तदान में बरती लापरवाहियां भी एड्स की जनक हैं। एशिया और तीसरी दुनिया के अविकसित या विकासशील देशों में इस संक्रमण का असर कुछ अधिक ही है। यह बात इंगित करती है कि एड्स के प्रसार में कहीं आर्थिक विषमता भी एक कारण है।एड्स से पीड़ित देशों की जनता अलबत्ता पहले ही गरीबी, कुपोषण से जूझ रही है, ऐसे में यदि वहां हालात पर काबू नहीं पाया गया तो आने वाले सदी में ये देश भीषण तबाही, जनहानि और घोर त्रासदी से ग्रस्त होंगे। इसके कारण उद्योग, व्यापार, कृषि, पर्यटन के साथ-साथ सुरक्षा व्यवस्था पर भी खतरे के बादल मंडरा सकते हैं। ऐसा कई अफ्रीकी देशों में हो भी चुका है। जांबिया का बार्कलेस बैंक केवल इसलिए बंद करना पड़ा क्योंकि उसके दस फीसद कर्मचारी एड्स के शिकार होकर मारे गए थे। युगांडा, केन्या, सूडान और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों में हालात बेहद नाजुक हैं। वहां का समूचा प्रशासनिक और चिकित्सा तंत्र ‘‘एड्स’ के हमले के सामने अकर्मण्य और असहाय स्थिति में है। सामाजिक ढ़ांचा तो अस्त-व्यस्त होने की कगार पर है। औद्योगिक इकाइयां लगातार वीरान होती जा रहीं हैं। दूर क्यों जाएं, हमारे देशके पूर्वोत्तर राज्यों की युवा पीढ़ी का बड़ा हिस्सा इसकी चपेट में है, और सरकार के लाख प्रयासों के बाद भी ना तो वहां की आर्थिक स्थिति सुधर पा रही है, और ना ही सरकारी योजनाएं सफल हो पा रही हैं। मनरेगा और सूचना के अधिकार जैसी योजनाएं वहां कहीं दिखती तक नहीं हैं।विशेषज्ञों की राय में इक्कीसवीं सदी का मध्य बेहद खौफनाक और त्रासदपूर्ण होगा। एक ओर जहां सामाजिक और प्रशासनिक वयवस्था पर गहरा संकट आसन्न होगा वहीं दूसरी ओर आर्थिक व्यवस्था पर चौतरफा दबाव और दिक्कतों की मार होगी। ‘‘एड्स’ के बारे में सर्वाधिक चिंताजनक बात यह है कि आज तक उसका कोई सटीक इलाज नहीं खोजा सका है, ऐसे में नए-नए प्रयोग और झूठे-सच्चे दावों के फेर में पड़ कर लोग घोर निराशा और धोखे का शिकार होते जा रहे हैं। ऐसी घटनाएं आये रोज पूरे देश से सुनाई देती हैं, जिनमें एड्स से हुई एक मौत के बाद मृतक के परिवार का सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया। मृतक के परिवारजनों के खून में एचआइवी पॉजिटिव पाया गया हो या नहीं, इसकी परवाह किए बगैर उनको स्कूल से भगा दिया गया। ऐसे लोग गांव-बस्ती से दूर एकाकी जीवन जीने को मजबूर हैं। यही नहीं ऐसे गांवों में दूसरे गांव के लोग शादी-ब्याह संबंध करने को राजी नहीं होते हैं। यह बानगी है कि एड्स किस तरह के सामाजिक विग्रह उपजा रहा है।दुनियाभर में एचआईवी वाइरस से ग्रस्त 90 फीसद लोग तीसरी दुनिया के देशों से हैं। अकेले भारत में इनकी संख्या 40 लाख से अधिक है। विकासशीलता के दौर में जब वहां प्रगति, विकास, शिक्षा व अन्य मूलभूत सुविधाओं के लिए अधिक धन व मानव संसाधन की जरूरत है, तब वहां के संसाधनों का एक हिस्सा एड्स से जूझने पर खर्च करना पड़ रहा है। भारत को 1990 से ही इसके लिए विदेशी कर्ज मिल रहा है। अनुमान है कि आज इस बीमारी पर होने वाला खर्चा सालाना 11 अरब डालर पहुंच गया है। एड्स को लेकर फैली भ्रांतियों के हालात इतने गंभीर हैं कि महानगरों के बड़े अस्पताल व डाक्टर एचआईवी संक्रमितों का इलाज अपने यहां करने से परहेज करते हैं। ऐसे लोगों को काम नहीं मिलता, ऐसे में एचआईवीग्रस्त लोगों की बड़ी संख्या बेरोजगार के रूप में अर्थव्यवस्था को आहत कर रही है। यहां जानना जरूरी है कि अभी तक उजागर एड्स के मामलों में 78 फीसद अलग-अलग तरह के यौन संबंधों से पनपे हैं। गौरतलब है कि 20 से 45 वर्ष आयु वर्ग के लोग सर्वाधिक यौन सक्रिय होते हैं। चिंता का विषय है कि जब इस आयुवर्ग के लोग एड्स जैसी बीमारी से ग्रस्त होंगे तो देश को सक्रिय मानव पंक्ति का कितना नुकसान होगा। एशियन विकास बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक बढ़ता हुआ एड्स संक्रमण कोरिया, मलयेशिया, ताईवान जैसे आर्थिक रूप से संपन्न और भारत, पाकिस्तान, फिलीपीन्स जैसे उभरते देशों के विकास में बड़ा अड़ंगा बन सकता है। एड्स का वाइरस कई साल तक शरीर में छिप कर अपना काम करता रहता है। संक्रमित व्यक्ति में बीमारी पूरी तरह फैलने में पांच से दस साल लगते हैं और फिर उसकी मृत्यु छह महीने से दो साल के बीच हो जाती है यानी एक इंसान को कई साल तक बीमारी से लड़ने, बेरोजगारी, सामाजिक उपेक्षा से जूझना होता है। एड्स पीड़ितों की देखभाल, उसके संक्रमण को फैलने से रोकने, उनके परिवार के बचाव और अंतिम संस्कार पर प्रति हजार व्यक्ति पर कोई 3000 करोड़ रुपये के व्यय का अनुमान विश्व स्वास्य संगठन का है। कहीं भी कोताही बरती तो इसका संक्रमण तेजी से विस्तार पाता है। मुल्क में स्कूल, शौचालय, सड़क, जननी सुरक्षा जैसे मदों में ध्यान की अत्यधिक जरूरत है, एड्स पर इतना व्यय विकास की गति अवरुद्ध करता प्रतीत होता है। बहरहाल, जागरूकता और सुरक्षा ही इस रोग व उससे उपजी त्रासदियों से बचाव का एकमात्र तरीका है।

    

शनिवार, 28 नवंबर 2015

broader changes are urgent need in Election system

जरूरी है व्‍यवहारिक चुनाव सुधार 

जनसत्‍ता 29.11.15
बिहार विधानसभा के चुनाव निपट गए। लगभग दो महीने तक पूरा देश उसमें अटका रहा। वहां के चुनाव प्रचार अभियान ने एक बार फिर यह साबित कर दिया कि तमाम उपायों के बावजूद चुनाव महंगे हो रहे हैं। निर्वाचन की समूची प्रणाली अर्थ-प्रधान हो गई है और विडंबना है कि कोई भी दल ईमानदारी से चुनाव सुधारों की दिशा में काम नहीं करना चाहता।

आधी-अधूरी मतदाता सूची, कम मतदान, पढ़े-लिखे मध्यवर्ग की मतदान में कम रुचि, महंगी निर्वाचन प्रक्रिया, राजनीति में बाहुबलियों और धन्नासेठों की पैठ, उम्मीदवारों की बढ़ती संख्या, जाति-धर्म की सियासत, आचार संहिता की अवहेलना आदि कुछ ऐसी बुराइयां हैं, जो स्वस्थ लोकतंत्र के लिए खतरनाक हैं।

रणनीतिकार मतदाता सूची का विश्लेषण कर तय कर लेते हैं कि हमें अमुक जाति या समाज के वोट चाहिए ही नहीं। यानी जीतने वाला निर्वाचन क्षेत्र का नहीं, किसी जाति या धर्म का प्रतिनिधि होता है। यहां कोई एक वोट के अंतर से जीते या पांच लाख के, दोनों को समान अधिकार प्राप्त हैं। अगर राष्ट्रपति पद के चुनावों की तरह किसी संसदीय क्षेत्र के कुल वोट और उसमें से प्राप्त मतों के आधार पर सांसदों की हैसियत, सुविधा आदि तय कर दी जाए तो नेता पूरे क्षेत्र के वोट पाने के लिए प्रतिबद्ध होंगे, न कि केवल जातीय वोट।

जमानत राशि बढ़ाने से निर्दलीय उम्मीदवारों की संख्या भले कम हुई हो, पर लोकतंत्र को नया खतरा वे पार्टियां बन रही हैं, जो राष्ट्रीय दल का दर्जा पाने के मकसद से तयशुदा वोट पाने के लिए अपने उम्मीदवार हर जगह खड़ा कर देती हैं। ऐसे प्रत्याशी चुनावों के दौरान कई गड़बड़ियां फैलाने में भी आगे रहते हैं। सैद्धांतिक रूप से यह बात सभी स्वीकार करते हैं कि ‘बेवजह उम्मीदवारों’ की बढ़ती संख्या स्वस्थ लोकतांत्रिक प्रक्रिया में बाधक है, इसके बावजूद इन पर पाबंदी के लिए चुनाव सुधारों की बात कोई राजनीतिक दल नहीं करता।

जब से चुनाव आयोग ने चुनाव खर्च पर निगरानी के लिए कुछ कड़े कदम उठाए हैं, तब से लगभग सभी पार्टियां कुछ लोगों को निर्दलीय या किसी छोटे दल के नाम से ‘छद्म’ उम्मीदवार खड़ा करती हैं। किसी जाति-धर्म या क्षेत्र विशेष के मतों को किसी के पक्ष में एकजुट होने से रोकने के लिए उसी जाति-संप्रदाय के किसी गुमनाम उम्मीदवार को खड़ा करना आम कूटनीति बन गया है। विरोधी उम्मीदवार के नाम या चुनाव चिह्न से मिलते-जुलते चिह्न पर किसी को खड़ा कर मतदाता को भ्रमित करने की योजना के तहत भी मतदान-मशीन का आकार बढ़ जाता है। चुनाव में बड़े राजनीतिक दल भले मुद्दों पर आधारित चुनाव का दावा करते हों, लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि देश के दो सौ से अधिक चुनाव क्षेत्रों में जीत का फैसला वोटकाटू उम्मीदवारों के कद पर निर्भर है।

ऐसे भी लोगों की संख्या कम नहीं है, जो स्थानीय प्रशासन या राजनीति में अपना रसूख दिखाने भर के लिए पर्चा भरते हैं। जेल में बंद कुख्यात अपराधियों का जमानत पाने, कारावास की चारदीवारी से बाहर निकलने के बहानों के रूप में या फिर मुकदमे के गवाहों और तथ्यों को प्रभावित करने के लिए चुनाव में पर्चा भरना भी एक आम हथकंडा है। विडंबना है कि कई राजनीतिक कार्यकर्ता जिंदगी भर मेहनत करते हैं और चुनाव के समय उनके इलाके में कहीं दूर का उम्मीदवार आकर चुनाव लड़ जाता है और पैसे या फिर जातीय समीकरणों के चलते जीत भी जाता है। संसद का चुनाव लड़ने के लिए निर्वाचन क्षेत्र में कम से कम पांच साल तक सामाजिक काम करने के प्रमाण प्रस्तुत करना, उस इलाके या राज्य में संगठन में निर्वाचित पदाधिकारी की अनिवार्यता ‘जमीन से जुड़े’ कार्यकर्ताओं को संसद तक पहुंचाने में कारगर कदम हो सकता है। इससे थैलीशाहों और नवसामंत वर्ग की सियासत में बढ़ रही पैठ को कुछ हद तक सीमित किया जा सकेगा। इस कदम से संसद में कॉरपोरेट दुनिया के बनिस्बत आम आदमी के सवालों को अधिक जगह मिलेगी।

इस समय चुनाव कराना बेहद खर्चीला होता जा रहा है, तिस पर अगर किसी राज्य में दो चुनाव हो जाएं तो न सिर्फ सरकारी खजाने का दम निकलता है, राज्य के काम भी प्रभावित होते हैं। विकास के कई आवश्यक काम आचार संहिता के कारण रुके रहते हैं। ऐसे में तीनों चुनाव (कम से कम दो तो अवश्य)- लोकसभा, विधानसभा और स्थानीय निकाय एक साथ कराने की व्यवस्था जरूरी है। रहा सवाल सदन की स्थिरता का, तो उसके लिए एक मामूली कदम उठाया जा सकता है। प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री का चुनाव खुले सदन में वोट की कीमत, यानी जो जितने वोट से जीता है, उसके वोट की सदन में उतनी ही अधिक कीमत होगी- के आधार पर पांच साल के लिए हो।

लोकसभा का चुनाव लड़ने के लिए क्षेत्रीय दलों पर अंकुश भी स्थायी और मजबूत सरकार के लिए जरूरी है। कम से कम पांच राज्यों में दो प्रतिशत वोट पाने वाले दल को ही संसद के चुनाव में उतरने की पात्रता जैसा कोई नियम होना चाहिए। ठीक इसी तरह के बंधन राज्य स्तर पर भी हो सकते हैं। निर्दलीय चुनाव लड़ने की शर्तों को इस तरह बनाना जरूरी है कि अगंभीर प्रत्याशी लोकतंत्र का मजाक न बना पाएं। गौरतलब है कि सोलह से अधिक उम्मीदवार होने पर इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन की एक से अधिक यूनिट लगानी पड़ती है, जो खर्चीला और जटिल है। जमानत जब्त होने वाले निर्दलीय उम्मीदवारों को अगले दो चुनावों में उम्मीदवारी से रोकना जैसे कुछ कड़े कानून समय की मांग है।

चुनाव खर्च की बाबत कानून में ढेरों खामियों को सरकार और सभी सियासी पार्टियां स्वीकार करती हैं। पर उनके निदान के सवाल को सदा खटाई में डाला जाता रहा है। राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार में कानून मंत्री दिनेश गोस्वामी की अगुआई में गठित चुनाव सुधारों से संबंधित समिति का सुझाव था कि राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त दलों को सरकार की ओर से वाहन, र्इंधन, मतदाता सूचियां, लाउड-स्पीकर आदि मुहैया कराए जाने चाहिए। वे सिफारिशें कहीं ठंडे बस्ते में पड़ी हुई हैं। 1984 में भी चुनाव खर्च संशोधन के लिए एक गैर-सरकारी विधेयक लोकसभा में रखा गया था, पर नतीजा वही ‘ढाक के तीन पात’ रहा।

चुनाव में काले धन के बढ़ते उपयोग पर हर चुनाव के पहले घड़ियाली आंसू बहाए जाते हैं। 1964 में संथानम समिति ने कहा था कि राजनीतिक दलों का चंदा एकत्र करने का तरीका चुनाव के दौरान और बाद में भ्रष्टाचार को बेहिसाब बढ़ावा देता है। 1971 में वांचू समिति ने अपनी रपट में कहा था कि चुनावों में अंधाधुंध खर्च काले धन को प्रोत्साहित करता है। इस रपट में हर दल को चुनाव लड़ने के लिए सरकारी अनुदान देने और प्रत्येक पार्टी के खाते का नियमित आॅडिट करवाने के सुझाव थे। 1980 में राजाचलैया समिति ने भी लगभग यही सिफारिशें दी थीं। ये सभी दस्तावेज अब भूली हुई कहानी बन चुके हैं।

अगस्त-98 में एक जनहित याचिका पर फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिए थे कि उम्मीदवारों के खर्च में उनकी पार्टी के खर्च को भी शामिल किया जाए। आदेश में इस बात पर खेद जताया गया था कि सियासी पार्टियां अपने लेन-देन का नियमित आॅडिट नहीं कराती हैं। अदालत ने ऐसे दलों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई के भी निर्देश दिए थे। चुनाव आयोग जब कड़ा रुख अपनाता है तभी पार्टियां तुरत-फुरत गोलमाल रिपोर्टें जमा करती हैं। आज भी इस पर गंभीरता नहीं दिखती।
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शुक्रवार, 27 नवंबर 2015

India : The country of shops

दुकानों का भारत

पहले कहा जाता था कि भारत गांवों में बसता है और उसकी अर्थव्यवस्था का आधार खेती-किसानी है, लेकिन मुक्त अर्थव्यवस्था के दौर में यह पहचान बदलती सी लग रही है। लगता है कि सारा देश बाजार बन रहा है और हमारी अर्थव्यवस्था का आधार खेत से निकल कर दुकानों पर जा रहा है। भारत की एक प्रमुख व्यावसायिक संस्था के फौरी सर्वे के आंकड़े बताते हैं कि दुनिया में सबसे ज्यादा दुकानें भारत में हैं। जहां अमेरिका जैसे विकसित या सिंगापुर जैसे व्यापारिक देश में प्रति हजार आबादी पर औसत 7 दुकानें हैं, वहीं भारत में यह आंकड़ा 11 है। उपभोक्ताओं की संख्या की तुलना में भारत सबसे अधिक दुकानों वाला देश बन गया है। सवाल यह है कि इस आंकड़े को उपलब्धि मान कर खुश हों या अपने देश के पारंपरिक ढांचे के दरकने की चेतावनी मान कर सतर्क हो जाएं। इस निर्णय के लिए जरूरी है कि इसी सर्वे का अगला हिस्सा देखें, जिसमें बताया गया है कि भारत का मात्र दो प्रतिशत बाजार ही नियोजित है, शेष 98 प्रतिशत असंगठित है और उसकी कोई पहचान नहीं है। यूं भी कहा जा सकता है कि बेतरतीब खुल रहे पान व चाय की गुमटियों ने हमें यह गौरव दिलवा दिया है। यह असंगठित बाजार बहुत हद तक कानून सम्मत भी नहीं हैं। देश की राजधानी दिल्ली में सवा करोड़ की आबादी पर 12 लाख दुकान हैं। खोके, गुमटी, रेहड़ी पर बाजार अलग। कुल मिला कर देखें तो प्रत्येक 10 आदमी पर एक दुकान। इनमें दलालों, सत्ता के मठाधीशों को जोड़ा नहीं गया है, वरना जितने आदमी, उतनी दुकानें भी हो सकती हैं। बााजार की चमक ही तो है, जिसके मोहपाश में बंध कर एक तरफ खुदरा बाजार में बड़े ब्रांड, बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपना दखल बढ़ा रही हैं तो नई-नई बनती कालेानियों में घर तोड़ कर दुकान बनाने की प्रवृत्ति भी बेरोकटोक जारी है। अब छोटे कस्बों के बेरोजगार युवकों के शादी-संबंध कुछ हद तक उनके मुख्य सड़क पर स्थित पुश्तैनी मकान पर ही निर्भर हैं। घर के अगले हिस्से में भीतर जाने के लिए एक पतली गली छोड़ कर दो दुकानें बना ली जाती हैं। एक दुकान में खुद
बेरोजगार किसी रेडीमेट गारमेंट या किराने की दुकान खोल लेता है व दूसरे को किराए पर उठा देता है। इस बहाने उसकी शादी हो जाती है और फिर उसकी आय का जरिया ससुराल हो जाती है, भले ही उसकी दुकान चले या ना चले। यही लोग व्यापारी हित व व्यापारी एकता के नारे लगाते हुए जब-तब सड़कों पर आ जाते हैं। लोगों की जीवन शैली पर बाजार का वजन बढ़ना जारी है और सरकार इसे खुशहाली का प्रतीक मान रही है। गत पांच सालों में व्यक्तिगत लोन, क्रेडिट कार्ड पर कर्ज के आंकड़ों में कई सौ गुने की दर से बढ़ोतरी हुई है। जब बाजार में इस दौर में किसानों, बुनकरों ही नहीं महानगरों में रहने वाले मध्यमवर्गीय युवाओं में आत्महत्या की संख्या भी बेतहाशा बढ़ी है। कुछ रुपयों के लिए हत्या, घरों में चोरी, सरेआम छीना-झपटी की खबरें अब पुलिस की संवेदनओं को कतई नहीं झकझोरती हैं। देखते ही देखते ब्लैक एंड व्हाइट टीवी और एकरंगी स्क्रीन वाले मोबाइल नदारद होते जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि आम आदमी की बाइंग कैपेसिटी यानी खरीददारी की क्षमता बढ़ी है। समाज में दिखावे को पूरा न करने से बढ़ी कुंठा व उससे उपजते अनाचार की संख्या पर सरकार क्यों आंखें मूंदे हुए है?दुकानों का बढ़ना महज खरीददारी को ही नहीं बढ़ा रहा है, बल्कि इसके साए में बहुत कुछ गैरकानूनी भी फल-फूल रहा है। गली-मुहल्लों के नुक्कड़ों पर खुल गई गुमटियां या छोटी-मोटी दुकानें नकली, डुप्लीकेट ब्रांड व घटिया उत्पादों को खपाने का सबसे बड़ा केंद्र हैं। इसी के चलते हमारे उपभोक्ता सामान के अंतरराष्ट्रीय मानदंडों पर खरा उतरने के बारे में सोचते ही नहीं हैं और देशी शेयर विदेशों के बाजार में जाते ही ढेर हो जाते हैं। चीन जैसे देश के दोयम दजेर्े के माल हमारे बाजार में धड़ल्ले से बिकते हैं। ये असंगठित दुकानें कानून के विरुद्ध आवासीय क्षेत्रों में विकसित हो रही हैं, जिससे जन-पर्यावास का स्तर खराब हो रहा है। इनसे पाकिंर्ग, ध्वनि प्रदूषण, बिजली-पानी की कमी, आवासीय परिसरों की दरों में बेतहाशा वृद्धि जैसी समस्याएं उपज रही हैं। देश में इन दिनों सड़कों का जाल बिछ रहा है। कई सुपर फास्ट एक्सप्रेस वे भी हैं, लेकिन विडंबना है कि नई सड़क बनने से पहले ही उसके दोनों तरफ ढाबे, आटो मोबाइल रिपेयर दुकानें खुल जाती हैं। जब सड़क बन कर तैयार होती है तो वहां घना बाजार होता है व वाहनों की गति सपना बन जाती है। असंगठित बाजार जहां सार्वजनिक संसाधनों के दोहन में निर्मम है, वहीं कर चोरी अपना अधिकार समझता है। दिल्ली से हरिद्वार तक के हाइवे पर फैले लगभग एक सैकड़ा ढाबे हर रोज 20 लाख रूपए का व्यापार करते हैं, लेकिन इनमें से एक भी आयकर दाता की सूची में शामिल नहीं हैं। देश में व्यापार का बढ़ना समृद्धि का प्रतीक है, लेकिन अनियोजित व्यापार अराजकता को बढ़ावा देता है। फिर खेत पर मेहनत करने के बनिस्पत दिनभर दुकान पर बैठना कुछ इज्जत वाला काम है- ऐसा संदेश भी एक मृगमरीचिका से अधिक नहीं है। हमारा व्यापार तभी तक लक्ष्मी-वर्षा करेगा, जब तक खेतों में फसल लहलहाती रहेगी। विदेशों से सामान मंगवा कर अपने बाजार में बेचने से उपजी संपन्नता तो एक गुब्बारे के मानिंद है, इसकी हवा कभी भी निकल सकती है ।
= पंकज चतुर्वेदी


गुरुवार, 26 नवंबर 2015

agriculture is cultural heritage of India

खेत को आस्था का विषय बनाएं

                                                                   
पूरे मध्य भारत में अभी देवउठानी एकादसी पर गन्ने, बेर, सिंघाड़े, आंवले के साथ पूजा की। ऐसे ही संस्कार देष के अनय हिस्सों में मनाए जाते हैं। असल में खेत , किसान, फसल हमारे  लोक व सामाजिक जीवन में कई पर्व, त्योहार, उत्सव का केंद्र हैं, लेकिन विडंबना है कि किसान के लिए खेती घाटे का सौदा बन गई है।  अब जमीन की कीमत देकर खेत उजाड़ने की गहरी साजिश को हम समझ नहीं पा रहे हैं। यह जान लें कि कार, भवन, जैसे उत्पादों की तरह पेट भरने के लिए अनिवार्य अन्न किसी कारखाने में नहीं उगाया जा सकता है और जब तक खेत है तभी तक हम खाद्यान के मामले में आत्मनिर्भर हैं । एक तरफ देष की आबादी बढ़ रही है, लोगों की आय बढ़ने से भोजन की मात्रा बढ़ रही है, दूसरी ओर ताजातरीन आंकड़ा बताता है कि बीते साल की तुलना में इस बार गेहुू की पैदावार ही 10 फीसदी कम हुई है। दाल की फसल आने से पहले ही पता चल गया कि आवक कम होगी व बाजार रंग दिखा चुका है।
 यदि ताजातरीन जनगणना को देखें तो पता चलता है कि देश में पिछले एक दषक के दौरान किसानों की संख्या में तेजी से गिरावट आई है। इन दस वर्षों में किसानों की 90 लाख कम हो गई है। आजादी के बाद पहली बार जनगणना उनकी घटती संख्या दिखाई दी है। सबसे चिंताजनक बात यह है कि किसानों ने खेती छोड़कर कोई दूसरा काम-धंधा नहीं किया है बल्कि उनमें से ज्यादातर खाली बैठे हैं। इन्होंने जमीन बेच कर कोई नया काम-धंधा शुरू नहीं किया है बल्कि आज वे किसान से खेतिहर मजदूर बन गए हैं। वे अब मनरेगा जैसी योजनाओं में मजदूरी कर रहे हैं।
सन 2001 में देश में कुल आबादी का 31.7 फीसदी किसान थे जो 2011 में सिमट कर 24.6 रह गया है। जानना जरूरी है कि देश में इस तरह से कृषि भूमि का रकबा घटना बेहद खतरनाक संकेत है।  रहा है, वह देश की अर्थव्यवस्था के लिए कतई ठीक नहीं है। इससे भविष्य में अनाज के मामले में हमारी आत्मनिर्भरता खत्म हो सकती है, जो कि देश के लिए घातक होगा।
दूसरी तरफ इन्हीं 10 सालों में देश में कॉरपोरेट घरानों ने 22.7 करोड़ हेक्टेयर जमीन का अधिग्रहण किया और उस पर खेती शुरू की है। कॉरपोरेट घराने बड़ रकबों पर मषीनों से खेती करने को फायदे का सौदा मानते है।। हरियाणा, पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में कॉरपोरेट घरानों ने बड़े-बड़े कृषि फार्म खोल कर खेती शुरू कर दी है। कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि खेती का भी कॉरपोरेट घरानों के हाथों में चले जाना शुभ संकेत नहीं है। इससे देश की कोई भी भावी सरकार पूरी तरह से उनकी गुलाम बनकर रह जाएगी। उनका कहना है कि बैंकों की कृषि संबंधी नीतियां, लागत से कम उपज, सरकार द्वारा समर्थन मूल्य में अपेक्षाकृत कम वृद्धि, सिंचाई की असुविधा, प्राकृतिक प्रकोप, उद्योगीकरण, शहरीकरण के नाम पर कृषि भूमि का अधिग्रहण और कृषि का क्षेत्र असंगठित होना- ये कारण हैं कि देश में कृषि भू-स्वामियों की संख्या में लगातार कमी होती जा रही है। कॉरपोरेट घराने जिस तरह से नकदी खेती तथा मशीनीकरण की तरफ बढ़ रहे हैं उससे लाखों किसान विस्थापित होते जा रहे हैं।
देश में किसानों की दुर्दशा का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि मध्य प्रदेश, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, बिहार और कर्नाटक के 50 फीसदी से ज्यादा किसान आज कर्ज में डूबे हैं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश में पांच लाख से ज्यादा ्रगामीण खुदकुषी कर चुके हैं जिनमें अधिकाष्ंा किसान या खेतों में काम करने वाले मजदूर थे। इनमें से अधिकांष देष का पेट भरने के चक्कर में अपने  ऊपर कर्जा चढ़वाते गए़ । फिर या फिर मौसम दगा दे गया या फिर मेहनत की फसल जब ले कर मंडी गया तो वाजिब दाम नहीं मिला।
संसद में स्वीकार किया गया है कि राष्ट्रीय स्तर पर प्रति किसान केवल 1.16 हेक्टेयर जमीन बची है। पूरे देश में एक हेक्टेयर से भी कम जोत वाले किसानों की तादाद 61.1 फीसदी है। देश में 1950-51 में सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान 53.1 फीसदी हुआ करता थाजो अब बामुष्किल 14 फीसदी है। ‘नेशनल सैम्पल सर्वे’ की रिपोर्ट के अनुसार, देश के 40 फीसदी किसानों का कहना है कि वे केवल इसलिए खेती कर रहे हैं क्योंकि उनके पास जीवनयापन का कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा है।
देष की अर्थ व्यवस्था का मूल आधार कृशि है । आंकड़े भी यही कुछ कहते हैं। देष की 67 फीसदी आबादी और काम करने वालों का 55 प्रतिषत परोक्ष-अपरोक्ष रूप से खेती से जुड़ा हुआ है। एक अनुमान है कि चालू वित्त वर्ष में पिछले साल की तुलना में कोई तीन प्रतिशत कम, लगभग 85 लाख टन अनाज कम पैदा होगा। इस बीच मकान, कारखानों, सड़कों के लिए जिन जमीनों का अधिग्रहण किया जा रहा है वे अधिकांष अन्नपूर्णा रही हैं। इस बात को भी नजरअंदाज किया जा रहा है कि कम होते खेत एक बार तो मुआवजा मिलने से प्रति व्यक्ति आय का आंकड़ा बढ़ा देते हैं, लेकिन उसके बाद बेरोजगारों की भीड़ में भी इजाफा करते हैं। यही नहीं मनरेगा भी खेत विरेाधी है। नरेगा में काम बढ़ने से खेतों में काम करने वाले मजदूर नहीं मिल रहे है और  मजदूर ना मिलने से हैरान-परेषान किसान खेत को तिलांजली दे रहे हैं। गंभीरता से देखें तो इस साजिष के पीछे कतिपय वित्त संस्थाएं हैं जोकि ग्रामीण भारत में अपना बाजार तलाष रही हैं । खेती की बढ़ती लागत को पूरा करने के लिए कर्जे का बाजार खोल दिया गया है और सरकार इसे किसानों के प्रति कल्याणकारी कदम के रूप में प्रचारित कर रही है ।
हकीकत में किसान कर्ज से बेहाल है । नेषनल सैंपल सर्वें के आंकड़े बताते हैं कि आंध्रप्रदेष के 82 फीसदी किसान कर्ज से दबे हैं । पंजाब और महाराश्ट्र जैसे कृशि प्रधान राज्यों में यह आंकड़ा औसतन 65 प्रतिषत है । यह भी तथ्य है कि इन राज्यों में ही किसानों की खुदकुषी की सबसे अधिक घटनाएं प्रकाष में आई हैं । यह आंकड़े जाहिर करते हंै कि कर्ज किसान की चिंता का निराकरण नहीं हैं ।  परेषान किसान खेती से मुंह मोड़ता है, फिर उसकी जमीन को जमीन के व्यापारी खरीद लेते हैं।। मामला केवल इतना सा नहीं है, इसका दूरगामी परिणाम होगा अन्न पर हमारी आत्मनिर्भरता समाप्त होना तथा, जमीन-विहीन बेराजगारों की संख्या बढ़ना।
किसान को सम्मान चाहिए और यह दर्जा चाहिए कि देष के चहुंमुखी विकास में वह महत्वपूर्ण अंग है।
किसान भारत का स्वाभिमान है और देष के सामाजिक व आर्थिक ताने-बाने का महत्वपूर्ण जोड़ भी इसके बावजूद उसका षोशण हर स्तर पर है। किसान को उसके उत्पाद का सही मूल्य मिले, उसे भंडारण, विपणन की माकूल सुविधा मिले, खेती का खर्च कम हो व इस व्यवसाय में पूंजीपतियों के प्रवेष पर प्रतिबंध -जैसे कदम देष का पेट भरने वाले किसानों का पेट भर सकते हैं । चीन में खेती की विकास की सालाना दर 7 से 9 प्रतिषत है ,जबकि भारत में यह गत 20 सालों से दो को पार नहीं कर पाई है। अब तो विकास के नाम पर खेत उजाड़ने के खिलाफ पूरे देष में हिंसक आंदोलन भी हो रहे हैं।
यह वक्त है कि हम खेती का रकबा बढ़ाने पर काम करें, इसे लिए जरूरी है कि उत्पादक जमीन पर हर तरह के निर्माण पर पाबंदी हो।  किसान को फसल के सुनिश्चित दाम, उसके परिवार के लिए शिक्षा व  स्वास्थय की गारंटी हो और खेत व खेती को पावन कार्य घोषित किया जाए। खेती अकेले पेट भरने का नहीं भारत की सांस्कृतिक, सामाजिक पहचान भी हैं और इसके बेरंग होने का मतलब असली भारत का रंगहीन होना होगा।



राज एक्सप्रेस२७-११-१५
पंकज चतुर्वेदी

रविवार, 22 नवंबर 2015

Have you heard about Charthawal ?

क्‍या चरथावल गांव का नाम सुना है ? मुजफफरनगर का नाम तो याद ही होगा.. यहां की एक घटना जो हम सभी के लिए प्रेरणा हो सकती हैा यह एक विकसित कस्‍बा है कोई चालीस हजार आबादी का, गन्‍न्‍ेा की फसल के कारण लोगों में खुशहाली है, यहां मुस्लिम परिवार ज्‍यादा हैं, पिछले दिनों यहां के त्‍यागी मुस्लिम परिवारों की खाप पंचायत हुई व उसमें इस बात पर विमर्श हुआ कि शादियों में खर्च कैसे कम किया जाए, फैसला हुआ कि बारात में पांच से ज्‍यादा लेाग नहीं जाएंगे ताकि लडकी वालों पर वजन ना पडे, पिछले सप्‍ताह ही कस्‍बे के प्रधान चौधरी फतेहदीन त्‍यागी के बेटे की शादी बागपत जिले में तय हुईा घर में बारात जाने लायक दो सौ से ज्‍यादा मेहमान थे . पूर्व चैयरमैन फतेहदीन त्यागी के पुत्र फिरोज व ईशा त्यागी के पुत्र गालिब की शादी गौसपुर जिला बागपत में तय हुई थी दोनों की बारात एक जगह व एक साथ जानी थी उसके लिए 16 नवम्बर की तारीख तय हुई थी
कौन जाए व किसे छोडें, नाराजगी का भी ख्‍तरा, फिर प्रधानजी ने सभी रिश्‍तेदारों के नाम पर्चियों पर लिखवाए, एक बच्‍चे से पांच पर्चियां उठवाई और जिनके नाम निकले वही पांच बारात में गए, इसमें दुल्‍हे का सगा भाई व जीजा के नाम भी नहीं थे, बारात बगैर किसी तडक भडक के गई पांच लोगों के साथ वापिस आक र चौधरी फतेहदीन ने बढिया भेाज दिया, जिसमें सभी शामिल हुए...... काश ऐसे प्रयोग हम आप भी करें
जब चरथावल को खोज रहा था तो यहां की एक और घटना ऐसी मिली जिसे अपसे साझा करना जरूरी है ......चरथावल में एक ऐतिहासिक मुगकालीन मंदिर मौजूद है। यह मंदिर देखने में बेहद आकर्षक है इस मंदिर की बनावट तो मुगल स्थापत्य कला से ताल्लुक रखती है। इस मंदिर को प्रदेशभर में ठाकुरद्वारा के नाम से पुकारा जाता है। इस भव्य मंदिर की सबसे बडी खासियत यह है कि इसका सम्बन्ध मुगलों के शासन काल से जुडा है। चरथावल के स्थानीय निवासियों का कहना है कि इसका निर्माण जहांगीर ने करवाया था।
मंदिर के विषय में चरथावल के निवासी महेन्द्र ने बताया कि इस मंदिर को तोडने की जुगत मे लगे एक मुगल अधिकारी ने इसकी नींव ओर छज्जों को तोडने का का कार्य शुरू किया, तब इस नगर के लोगो ने इकठ्ठा होकर उस अधिकारी से इस मंदिर को न तोडने की फरियाद की लेकिन मुगल अधिकारी नही माना।
इसके बाद क्षेत्र के लोग बादशाह औरगंजेब के पास पहुँचे ओऱ उन्हे इस विषय से अवगत कराया, उसी वक्त बादशाह ने फरमान सुनाया कि एक आला अधिकारी तुरंत उस अपराधी को पकडकर लाये तथा उस मंदिर की मरम्मत करायें।जिसके बाद बादशाह के द्वारा भेजे गये अधिकारी ने इस मंदिर का जीर्णोध्दार कराया तथा इस मंदिर के परिसर के लिये जगह भी बढा दी। इस मंदिर के मुख्य दरवाजे पर लगे पत्थर से पता चलता है कि सन् 1930 में तीसरी बार इसका जीर्णोध्दार कराया गया। ठाकुरद्वारा मंदिर हिन्दु- मुस्लिम के भाईचारे की एक अद्भुत मिसाल है।
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शुक्रवार, 20 नवंबर 2015

Do not wait for next year to aware mass for Diwali Hazards

ना कानून का भय ना सामाजिक सरोकर की परवाह

पटाखे से निकले धुएँ में सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन डाइऑक्साइड, कार्बन मोनो ऑक्साइड, शीशा, आर्सेनिक, बेंजीन, अमोनिया जैसे कई जहर साँसों के जरिए शरीर में घुलते हैं। इनका कुप्रभाव परिवेश में मौजूद पशु-पक्षियों पर भी होता है। यही नहीं इससे उपजा करोड़ों टन कचरे का निबटान भी बड़ी समस्या है। यदि इसे जलाया जाये तो भयानक वायु प्रदूषण होता है। यदि इसके कागज वाले हिस्से को रिसाइकल किया जाये तो भी जहर घर, प्रकृति में आता है। और यदि इसे डम्पिंग में यूँ ही पड़ा रहने दिया जाये तो इसके विषैले कण ज़मीन में जज्ब होकर भूजल व जमीन को स्थायी व लाईलाज स्तर पर जहरीला कर देते हैं।
अभी 28 अक्तूबर को सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पीठ ने यह कहते हुए आतिशबाजी पर पूरी तरह पाबन्दी से इनकार कर दिया था कि इसके लिये पहले से ही दिशा-निर्देश उपलब्ध हैं व सरकार को इस पर अमल करना चाहिए।

तीन मासूम बच्चों ने संविधान में प्रदत्त जीने के अधिकार का उल्लेख कर आतिशबाजी के कारण साँस लेने में होने वाली दिक्कत को लेकर सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाई थी कि आतिशबाजी पर पूरी तरह पाबन्दी लगा दी जाये। सरकार ने अदालत को बताया था कि पटाखे जलाना, प्रदूषण का अकेला कारण नहीं है।

अदालत ने भी पर्व की जन भावनाओं का खयाल कर पाबन्दी से इनकार कर दिया, लेकिन बीती दीपावली की रात दिल्ली व देश में जो कुछ हुआ, उससे साफ है कि आम लोग कानून को तब तक नहीं मानते हैं, जब तक उसका कड़ाई से पालन ना करवाया जाये। पूरे देश में हवा इतनी जहर हो गई कि 68 करोड़ लोगों की जिन्दगी तीन साल कम हो गई।

अकेले दिल्ली में 300 से ज्यादा जगह आग लगी व पूरे देश में आतिशबाजी के कारण लगी आग की घटनाओं की संख्या हजारों में हैं। इसका आँकड़ा रखने की कोई व्यवस्था ही नहीं है कि कितने लोग आतिशबाजी के धुएँ से हुई घुटन के कारण अस्पताल गए। दीपावली की रात प्रधानमंत्री के महत्त्वाकांक्षी व देश के लिये अनिवार्य ‘स्वच्छता अभियान’ की दुर्गति देशभर की सड़कों पर देखी गई।

दीपावली की अतिशबाजी ने राजधानी दिल्ली की आबोहवा को इतना जहरीला कर दिया गया कि बाक़ायदा एक सरकारी सलाह जारी की गई कि 11 नवम्बर की रात से 12 नवम्बर के दिन तक यदि जरूरी ना हो तो घर से ना निकलें। इस बार दीपावली पर लक्ष्मी पूजा का मुहुर्त कुछ जल्दी था, यानि पटाखे जलाने का समय ज्यादा हो गया।

फेफड़ों को जहर से भर कर अस्थमा व कैंसर जैसी बीमारी देने वाले पीएम यानि पार्टिकुलर मैटर अर्थात हवा में मौजूद छोटे कणों की निर्धारित सीमा 60 से 100 माईक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर है, जबकि दीपावली की शाम से यह सीमा 900 के पार तक हो गई। ठीक यही हाल ना केवल देश के अन्य महानगरों के बल्कि प्रदेशों की राजधानी व मंझोले शहरों के भी थे।

सनद रहे कि पटाखे जलाने से निकले धुएँ में सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन डाइऑक्साइड, कार्बन मोनो ऑक्साइड, शीशा, आर्सेनिक, बेंजीन, अमोनिया जैसे कई जहर साँसों के जरिए शरीर में घुलते हैं। इनका कुप्रभाव परिवेश में मौजूद पशु-पक्षियों पर भी होता है। यही नहीं इससे उपजा करोड़ों टन कचरे का निबटान भी बड़ी समस्या है। यदि इसे जलाया जाये तो भयानक वायु प्रदूषण होता है।

यदि इसके कागज वाले हिस्से को रिसाइकल किया जाये तो भी जहर घर, प्रकृति में आता है। और यदि इसे डम्पिंग में यूँ ही पड़ा रहने दिया जाये तो इसके विषैले कण ज़मीन में जज्ब होकर भूजल व जमीन को स्थायी व लाईलाज स्तर पर जहरीला कर देते हैं। आतिशबाजी से उपजे शोर के घातक परिणाम तो हर साल बच्चे, बूढ़े व बीमार लोग भुगतते ही हैं।

दिल्ली के दिलशाद गार्डन में मानसिक रोगों का बड़ा चिकित्सालय है। यहाँ अधिसूचित किया गया है कि दिन में 50 व रात में 40 डेसीबल से ज्यादा का शोर ना हो। लेकिन यह आँकड़ा सरकारी मॉनिटरिंग एजेंसी का है कि दीपावली के पहले से यहाँ शोर का स्तर 83 से 105 डेसीबल के बीच है। दिल्ली के अन्य इलाकों में यह 175 तक पार गया है।

हालांकि यह सरकार व समाज देानों जानता है कि रात 10 बजे के बाद पटाखे चलाना अपराध है। कार्रवाई होने पर छह माह की सजा भी हो सकती है। यह आदेश सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2005 में दिया था जो अब कानून की शक्ल ले चुका है।

1998 में दायर की गई एक जनहित याचिका और 2005 में लगाई गई सिविल अपील का फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिये थे। 18 जुलाई 2005 को सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायमूर्ति आरसी लाहोटी और न्यायमूर्ति अशोक शर्मा ने बढ़ते शोर की रोकथाम के लिये कहा था।

सुप्रीम कोर्ट ने अधिकारों की आड़ में दूसरों को तकलीफ़ पहुँचाने, पर्यावरण को नुकसान करने की अनुमति नहीं देते हुए पुराने नियमों को और अधिक स्पष्ट किया, ताकि कानूनी कार्रवाई में कोई भ्रम न हो। अगर कोई ध्वनि प्रदूषण या सुप्रीम कोर्ट के उपरोक्त निर्देशों का उल्लंघन करता है तो उसके खिलाफ भादंवि की धारा 268, 290, 291 के तहत कार्रवाई होगी।

इसमें छह माह का कारावास और जुर्माने का प्रावधान है। पुलिस विभाग में हेड कांस्टेबल से लेकर वरिष्ठतम अधिकारी को ध्वनि प्रदूषण फैलाने वालों पर कार्रवाई का अधिकार है। इसके साथ ही प्रशासन के मजिस्ट्रियल अधिकारी भी कार्रवाई कर सकते हैं।

विडम्बना है कि इस बार रात एक बजे तक जम कर पटाखे बजे, ध्वनि के डेसीमल को नापने की तो किसी को परवाह थी ही नहीं, इसकी भी चिन्ता नहीं थी कि ये धमाके व धुआँ अस्पताल, रिहाइशी इलाकों या अन्य संवेदनशील क्षेत्रों में बेरोकटोक किये जा रहे हैं।

असल में आतिशबाजी को नियंत्रित करने की शुरुआत ही लापरवाही से है। विस्फोटक नियमावली 1983 और विस्फोटक अधिनियम के परिपालन में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट आदेश दिये थे कि 145 डेसीबल से अधिक ध्वनि तीव्रता के पटाखों का निर्माण, उपयोग और विक्रय गैरकानूनी है। प्रत्येक पटाखे पर केमिकल एक्सपायरी और एमआरपी के साथ-साथ उसकी तीव्रता भी अंकित होना चाहिए, लेकिन बाजार में बिकने वाले एक भी पटाखे पर उसकी ध्वनि तीव्रता अंकित नहीं है।

सूत्रों के मुताबिक बाजार में 500 डेसीबल की तीव्रता के पटाखे भी उपलब्ध हैं। यही नहीं चीन से आये पटाखों में जहर की मात्रा असीम है व इस पर कहीं कोई रोक-टोक नहीं है। कानून कहता है कि पटाखा छूटने के स्थल से चार मीटर के भीतर 145 डेसीबल से अधिक आवाज नहीं हो। शान्ति क्षेत्र जैसे अस्पताल, शैक्षणिक स्थल, न्यायालय परिसर व सक्षम अधिकारी द्वारा घोषित स्थल से 100 मीटर की परिधि में किसी भी तरह का शोर 24 घंटे में कभी नहीं किया जा सकता।

पिछले महीने अदालत ने तो सरकार को समझाइश दे दी थी कि केन्द्र सरकार और सभी राज्य सरकारें पटाखों के दुष्प्रभावों के बारे में प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में व्यापक प्रचार करें और जनता को इस बारे में सलाह दे। सरकार ने विज्ञापन जारी भी किये, देश भर के स्कूलों में बच्चों को आतिशबाजी ना जलाने की शपथ, रैली जैसे प्रयोग भी हुए।

टीवी व अन्य प्रचार माध्यमों ने भी इस पर अभियान चला, लेकिन 11 नवम्बर की रात बानगी है कि सभी कुछ महज औपचारिकता, रस्म अदायगी या ढकोसला ही रहा। यह जान लें कि दीपावली पर परम्पराओं के नाम पर कुछ घंटे जलाई गई बारूद कई-कई साल तक आपकी ही जेब में छेद करेगी, जिसमें दवाइयों व डाक्टर पर होने वाला व्यय प्रमुख है।

हालांकि इस बात के कोई प्रमाण नहीं है कि आतिशबाजी चलाना सनातन धर्म की किसी परम्परा का हिस्सा है, यह तो कुछ दशक पहले विस्तारित हुई सामाजिक त्रासदी है। आतिशबाजी पर नियंत्रित करने के लिये अगले साल दीपावली का इन्तजार करने से बेहतर होगा कि अभी से ही आतिशबाजियों में प्रयुक्त सामग्री व आवाज पर नियंत्रण, दीपावली के दौरान हुए अग्निकाण्ड, बीमार लोग, बेहाल जानवरों की सच्ची कहानियाँ सतत प्रचार माध्यमों व पाठ्य पुस्तकों के माध्यम से आम लोगों तक पहुँचाने का कार्य शुरू किया जाये।

सोमवार, 16 नवंबर 2015

migration, drought and bundelkhand

पानीदार बुंदेलखंड से प्यास के कारण पलायन

AMAR UJALA 17-11-15
                                                                    पंकज चतुर्वेदी
मध्यप्रदेश की सरकार ने अभी पांच जिलों की 33 तहसीलों को सूखग्रस्त घोषित कर दिया है जिसमें बुंदेलखंड के टीकमगढ़ जिले की सभी तहसीलें हैं। टीकमगढ जिले के जतारा ब्लाक के जल संसाधन विभाग के तहत आने वाले 26 तालबों में अभी एक फुट पानी भी नहीं है। छतरपुर के हालात भी बदतर हैं।लेकिन हालात छतरपुर व पन्ना के भी कम खतरनाक नहीं है।। गांव-गांव में हैंडपंप सूख गए हैं और कस्बों में पानी के लिए आए रोज झगड़े हो रहे हैं। टीकमगढ़ जिले के आधे से ज्यादा गांव वीरान हो गए है। तो रेलवे स्टेशन से सटे कस्बों- खजुराहो, हरपालपुर, मउरानीपुर, बीना आदि के प्लेटफार्म पूरी गृहस्थी पोटली में बांधे हजारों लोगों से पटे पड़े हैं जो पानी के अभाव में गांव छोड़कर पेट पालने के लिए दिल्ली, पंजाब या लखनउ जा रहे हैं। आमतौर पर ऐसा पलायन दीवाली के बाद होता था, लेकिन इस बार खाली पेट व सूखा गला दोनो ने ही मजबूर कर दिया, अपने पुष्तैनी गांव-घरों से दूर दीवाली के दीये जलाने को। आषाढ़ में जो बरसा बस वही था, लगभग पूरा सावन-भादौ निकल गया है और जो छिटपुट बारिष हुई है, उसने बुंदेलखंड फिर से अकाल -सूखा की और जाता दिख रहा है। यहां सामान्य बारिष का तीस फीसदी भी नहीं बरसा, तीन-चैथाई खेत बुवाई से ही रह गए और कोई पैतीस फीसदी ग्रामीण अपनी पोटलियां ले कर दिल्ली-पंजाब की ओर काम की तलाष में निकल गए हैं। मनरेगा में काम करने वाले मजदूर मिल नहीं रहे है।  ग्राम पंचायतों को पिछले छह महीने से किए गए कामों का पैसा नहीं मिला है सो नए काम नहीं हो रहे हैं। सियासतदां इंतजार कर रहे हैं कि कब लोगेंा के पेट से उफन रही भूख-प्यास की आग भड़के और उस पर वे सियासत की हांडी खदबदाएं। हालांकि बुंदेलखंड के लिए यह अप्रत्याषित कतई नहीं है, बीते कई सदियों से यहां हर पांच साल में दो बार अल्प वर्शा होती ही है। गांव का अनपढ़ भले ही इसे जानता हो, लेकिन हमारा पढ़ा-लिखा समाज इस सामाजिक गणित को या तो समझता नहीं है या फिर नासमझाी का फरेब करता है, ताकि हालात बिगड़ने पर ज्यादा बजट की जुगाड़ हो सके। ईमानदारी से तो देश का नेतृत्व बुंदेलखंड की असली समस्या को समझ ही नहीं पा रहे है।
एक स्वयंसेवी संस्था ने पल्स पोलियो व कई ऐसी ही सरकारी संस्थाओं के आंकडज्ञत्रें का विष्लेेशण किया तो पाया कि बीते एक दशक में मप्र व उप्र के बुंदेलखंड के 13 जिलों से 63 लाख से ज्यादा लेाग रोजगार व पानी की कमी से हताश हो कर अपने घर-गांव छोड़ कर सुदूर नगरों को पलायन कर चुके है।। आज बुंदेलखंड के अधिकांश गांवों में केवल बूढे या अक्ष्म लोग ही मिलेंगे।  पिछली केंद्र सरकार ने बुंदेलख्ंाड पैकज के नाम पर साढे सात हजार करोड से ज्यादा की राषि दी थी। इसमें जल संसाधन विकसित करने, रोजगार की संभावना बनाने आदि के कार्य थे। दुर्भाग्य से यह पूरा पैसा कुछ जेबों में चला गया व आम बुंदेलखंडी मजदूरी करने को पलायन के विकल्प पर ही मजबूर रहा। उल्ल्ेखनीय है कि गत 10 सालों के दौरान यहां 3500 से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं। मरने वाले किसान फसल बर्बाद होने, कर्जा ना चुका पाने से निराष थे।
बुंदेलखंड की असली समस्या अल्प वर्शा नहीं है, वह तो यहां सदियों, पीढि़यों से होता रहा है। पहले यहां के बाषिंदे कम पानी में जीवन जीना जानते थे। आधुनिकता की अंधी आंधी में पारंपरिक जल-प्रबंधन तंत्र नश्ट हो गए और उनकी जगह सूखा और सरकारी राहत जैसे षब्दों ने ले ली। अब सूखा भले ही जनता पर भारी पड़ता हो, लेकिन राहत का इंतजार सभी को होता है- अफसरों, नेताओं-- सभी को। इलाके में पानी के पारंपरिक स्त्रोतों का संरक्षण व पानी की बर्बादी को रोकना, लोगो को पलायन के लिए मजबूर होने से बचाना और कम पानी वाली फसलों को बढ़ावा देना; महज ये तीन उपचार बुंदेलखंड की तकदीर बदल सकते हैं।
बुंदेलखंड में हीरा से ले कर ग्रेनाईट तक जमीन से उलीचा जाता है, लेकिन उससे जुड़े कोई कारखाने यहां नहीं हैं। जंगल तेंदू पत्ता, आंवला से पटे पड़े हैं, लेकिन इसका लाभ स्थानीय लोगों को नहीं मिलता हैं । दिल्ली, लखनऊ और उससे भी आगे पंजाब तक जितने भी बड़े निर्माण कार्य चल रहे हैं उसमें अधिकांश में  ‘‘ गारा-गुम्मा’’(मिट्टी और ईंट)का काम बुंदेलखंडी मजदूर ही करते हैं । शोषण, पलायन और भुखमरी को वे अपनी नियति समझते हैं । जबकि खदानों व अन्य करों के माध्यम से बुंदेलखंड सरकारों को अपेक्ष से अधिक कर उगाह कर देता हैं, लेकिन इलाके के विकास के लिए इस कर का 20 फीसदी भी यहां खर्च नहीं होता हैं ।
बुंदेलखंड के सभी कस्बे, षहर की बसाहट का एक ही पैटर्न रहा है - चारों ओर उंचे-उंचे पहाड, पहाड़ की तलहटी में दर्जनों छोटे-बड़े ताल-तलैयां और उनके किनारों पर बस्ती। टीकमगढ़ जैसे जिले में अभी तीन दषक पहले तक हजार से ज्यादा तालाब थे। पक्के घाटों वाले हरियाली से घिरे व विशाल तालाब बुंदेलखड के हर गांव- कस्बे की सांस्कृतिक पहचान हुआ करते थे । ये तालाब भी इस तरह थे कि एक तालाब के पूरा भरने पर उससे निकला पानी अगले तालाब में अपने आप चला जाता था, यानी बारिष की एक-एक बूंद संरक्षित हो जाती थी। उपेक्षा के षिकार शहरी तालाबों को कंक्रीट के जंगल निगल गए । रहे -बचे तालाब शहरांे की गंदगी को ढोनेे वाले नाबदान बन गए । गांवों की अर्थ व्यवस्था का आधार कहलाने वाले चंदेलकालीन तालाब सामंती मानसिकता के शिकार हो गए । आज के अत्याधुनिक सुविधा संपन्न भूवैज्ञानिकों की सरकारी रिपोर्ट के नतीजों को बुंदेलखंड के बुजुर्गवार सदियों पहले जानते थे कि यहां की ग्रेनाईट संरचना के कारण भूगर्भ जल का प्रयोग असफल रहेगा । तभी हजार साल पहले चंदेलकाल में यहां की हर पहाड़ी के बहाव की ओर तालाब तो बनाए गए, ताकि बारिश का अधिक से अधिक पानी उनमें एकत्र हो, साथ ही तालाब की पाल पर कुंए भी खोदे गए । लेकिन तालाबों से दूर या अपने घर-आंगन में कुंआ खोदने से यहां परहेज होता रहा ।
गत् दो दशकों के दौरान भूगर्भ जल को रिचार्ज करने वाले तालाबों को उजाड़ना और अधिक से अधिक टयूब वेल, हैंडपंपों को रोपना ताबड़तोड़ रहा । सो जल त्रासदी का भीषण रूप तो उभरना ही था । साथ ही साथ नलकूप लगाने में सरकार द्वारा खर्च अरबों रूपये भी पानी में गए । क्योंकि इस क्षेत्र में लगे आधेेेेेेे से अधिक हैंडपंप अब महज ‘शो-पीस’ बनकर रह गए हैं । साथ ही जल स्तर कई मीटर नीचे होता जा रहा है । इससे खेतों की तो दूर, कंठ तर करने के लिए पानी का टोटा हो गया है ।
पलायन, यहां के सामाजिक विग्रह का चरम रूप है । मनरेगा भी यहां कारर नहीं रहा है। स्थानीय स्तर पर रोजगार की संभावनाएं बढ़ाने के साथ-साथ गरीबों का षेाशण रोक कर इस पलायन को रोकना बेहद जरूरी है। यह क्षेत्र जल संकट से निबटने के लिए तो स्वयं समर्थ है, जरूरत इस बात की है कि यहां की भौगोलिक परिस्थितियों के मद्देनजर परियोजनाएं तैयार की जाएं । विशेषकर यहां के पारंपरिक जल स्त्रोतों का भव्य अतीत स्वरूप फिर से लौटाया जाए । यदि पानी को सहेजने व उपभोग की पुश्तैनी प्रणालियों को स्थानीय लोगों की भागीदारी से संचालित किया जाए तो बुंदेलखंड का गला कभी रीता नहीं रहेगा ।
यदि बंुदेलखंड के बारे में ईमानदारी से काम करना है तो सबसे पहले यहां के तालाबों का संरक्षण, उनसे अतिक्रमण हटाना, तालाब को सरकार के बनिस्पत समाज की संपत्ति घोशित करना सबसे जरूरी है। नारों और वादों से हट कर इसके लिए ग्रामीण स्तर पर तकनीकी समझ वाले लोगों के साथ स्थाई संगठन बनाने होंगे। दूसरा इलाके पहाड़ों को अवैध खनन से बचाना, पहाड़ों से बह कर आने वाले पानी को तालाब तक निर्बाध पहंुचाने के लिए उसके रास्ते में आए अवरोधों, अतिक्रमणों को हटाना जरूरी है। बुंदेलखंड में केन, केल, धसान जैसी गहरी नदियां हैं जो एक तो उथली हो गई हैं, दूसरा उनका पानी सीधे यमुना जैसी नदियों में जा रहा है। इन नदियों पर छोटे-छोटे बांध बांध कर पानी रोका जा सकता है। हां, केन-धसान नदियों को जोड़ने की अरबों रूपए की योजना पर फिर से विचार भी करना होगा, क्योंकि इस जोड़ से बंुदेलखंड घाटे में रहेगा। सबसे बड़ी बात, स्थानीय संसाधनों पर स्थानीय लोगों की निर्भरता बढ़ानी होगी।
कुछ जगह हो सकता है कि राहत कार्य चलें, हैंडपंप भी रोपे जाएं, लेकिन हर तीन साल में आने वाले सूखे से निबटने के दीर्घकालीन उपायों के नाम पर सरकार की योजनाएं कंगाल ही नजर आती है। । स्थानीय संसाधनों तथा जनता की क्षमता-वृद्धि, कम पानी की फसलों को बढ़ावा, व्यर्थ जल का संरक्षण जैसे उपायों को ईमानदारी से लागू करे बगैर इस शौर्य-भूमि का तकदीर बदलना नामुमकिन ही है ।


9891928376

शुक्रवार, 13 नवंबर 2015

children, children day and ecology

बाल दिवस, पर्यावरण और बच्चे

बाल दिवस, पर्यावरण और बच्चे [1]

बाल दिवस, 14 नवम्बर 2015 पर विशेष


.हम बच्चे को अधिक-से-अधिक शिक्षा देकर जागरूक बना रहे हैं, बेहतर जिन्दगी जीने की सीख दे रहे हैं या फिर अच्छा पैसा कमाने के लिये तैयारी करवा रहे हैं।

उम्मीदों, सपनों, चुहलताओं और समाज व देश का भविष्य बनने को आतुर बच्चों के लिये यह बाल दिवस महज एक खेल का दिन नहीं है, यह संकट सामने खड़ा है कि वे जब बड़े होंगे या उनका वंश आगे बढ़ेगा तो वे किस दुनिया में साँस लेंगे, किस तरह का पानी पीएँगे, उनकी बौद्धिक क्षमता का इस्तेमाल समाज की खुशहाली के लिये होगा या फिर मानवता को बचाने के लिये संघर्षरत रहेंगे।

हमारी शिक्षा की भाषा, समाजिक विज्ञान व विज्ञान की पुस्तकों का बड़ा हिस्सा अतीती को याद करने का होता है लेकिन आज जरूरत है कि उनमें भविष्य की दुनिया पर विमर्श हो। बाल मन और जिज्ञासा एक-दूसरे के पूरक शब्द ही हैं। वहीं जिज्ञासा का सीधा सम्बन्ध विज्ञान से है।

शिशुकाल में उम्र बढ़ने के साथ ही अपने परिवेश की हर गुत्थी को सुलझाने की जुगत लगाना बाल्यावस्था की मूल-प्रवृत्ति है। भौतिक सुखों व बाजारवाद की बेतहाशा दौड़ के बीच दूषित हो रहे सामाजिक परिवेश और बच्चों की नैसर्गिक जिज्ञासु प्रवृत्ति पर बस्ते के बोझ और इम्तेहानों की बौद्धिक तंगी के कारण एक बोझिल सा माहौल पैदा हो गया है। ऐसे में बच्चों के चारों ओर बिखरे विज्ञान की रोचक जानकारी सही तरीके से देना बच्चों के लिये राहत देने वाला कदम होगा।

यह हमारे नीति निर्धारक लगातार चेता रहे हैं कि हमारे देश में विज्ञान पर नए शोध करने वालों की संख्या लगातार घट रही है। कम्प्यूटर, सूचना तकनीक, अन्तरिक्ष विज्ञान में दुनिया को टक्कर देने वाले देश में भविष्यवाणियाँ करने वाले कारपोरेट बाबा-फकीरों के जलवे चरमोत्कर्ष पर हैं और बच्चे विज्ञान से विमुख हो रहे हैं।

यह अजीब विरोधाभास है और शायद चेतावनी का बिन्दु भी। किसी भी प्रगतिगामी और आधुनिक देश के लिये जरूरी है कि वहाँ के बाशिन्दों की सोच वैज्ञानिक हो। बच्चे के सामने दुनिया के मौजूदा संकट का एक नक्शा हो व उससे जूझने या संकट को कम करने के सपने हों।

यह कतई जरूरी नहीं कि छोटे से बचे को भविष्य की चुनौतियों या पर्यावरणीय संकट के डर से मुस्कुराना भुलाने पर मजबूर कर दिया जाये, लेकिन ऐसा भी नहीं कि वे उससे बेखबर रहें।

एक बात स्पष्ट करना चाहूँगा कि ‘पर्यावरण’ स्वयं कुछ करने का नाम है, ना कि पढ़ने का ; हाँ, यह बात जरूर है कि क्या, क्यों, कैसे, कब, कहाँ जैसे सवालों का जवाब तलाशने में पढ़ना मदद अवश्य कर सकता है। लेकिन पढ़े हुए का आनन्द लेने और उसे अपने व्यावहारिक जीवन में उतारने के लिये उसे स्वयं करना जरूरी है।

घर के बाहर की ज़मीन कच्ची रहे तो किस तरह पानी को ज़मीन में जज्ब कर बचाया जा सकता है, पेड़ लगाने के बाद उसे बड़ा करने के लिये क्या किया जाये, या बिजली का व्यय बचाकर हम कैसा भविष्य बना सकते हैं?.....ऐसे सवाल बच्चे के मन में उपजना जरूरी है।

आज बच्चे जिस दुनिया में आँख खोल रहे हैं वह पूरी तरह विज्ञानमय और पर्यावरण के लिये चुनौतीमय है। उनका मन एक सपाट तख्ती की तरह होता है, वे अपने परिवेश में जो कुछ देखते-सुनते हैं, उनके मन पर अंकित हो जाता है। बड़े होने के साथ ही उनके सामने क्या? क्यों? कैसे? के सवालों का पहाड़ खड़ा हो जाता है।

जब उनको मिलने वाले सवालों के जवाबों में तथ्यों व तर्क का अभाव होता है तो उनमें अन्धविश्वास की ग्रंथि घर कर जाती है। लेकिन यदि जिज्ञासाओं का समाधान विज्ञान-सम्मत होता है तो एक वैज्ञानिक प्रवृत्ति जन्म लेती है, जिसकी हमारे देश को बेहद जरूरत है। पंडित नेहरू ने भी भारत में इसी साइंटिफिक टेंपर या वैज्ञानिक प्रवृत्ति लाने पर जोर दिया था।

सवा सौ करोड़ से अधिक की आबादी वाले इस देश में छह से 17 वर्ष के स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या लगभग 16 करोड़ है। इसके अलावा कई करोड़ ऐसी बच्चियाँ व लड़के भी हैं, जो कि अपने देश, काल और परिस्थितियों के कारण स्कूल नहीं जा पा रहे हैं। पर वे साँस लेते हैं, भोजन, पानी उनकी भी आवश्यकता है, फिर उन्हें पर्यावरण के ज्ञान से वंचित कैसे रखा जा सकता है।

लेकिन इतना बड़ा बाजार और इस मसले पर सकारात्मक पुस्तकें ना के बराबर। अनुमान है कि हमारे देश में सभी भाषाओं में मिलाकर पाठ्येत्तर पर्यावरणीय विज्ञान पुस्तकों का सालाना आँकड़ा मुश्किल से पाँच सौ को पार कर पाता है। यह एक कटु सत्य है कि दूरस्थ अंचलों को छोड़ दें, दिल्ली जैसे महानगर में एक फीसदी बच्चों के पास उनके पाठ्यक्रम के अलावा कोई विज्ञान पुस्तक पहुँच ही नहीं पाती है।

उन बच्चों के लिये विज्ञान के मायने एक उबासी देने वाली, कठिन परिभाषाओं और कठिन कहे जाने वाला विषय मात्र है। लेकिन इन बच्चों को जब कुछ प्रयोग करने को कहा जाता है या फिर यूँ ही अपनी प्रकृति में विचरण के लिये कहा जाता है तो वे उसमें डूब जाते हैं।

पुस्तक मेलों में ही देख लें, जहाँ जादू, मनोरंजक खेल, कम्प्यूटर पर नए प्रयोग सिखाने वाली सी.डी. बिक रही होती है, वहाँ बच्चों की भीड़ होती है। आज भी मानसिक रोग के इलाज के लिये लोग डॉक्टर के बनिस्पत झाड़ फूँक या मजार-मन्दिर पर जाने को प्राथमिकता देते हैं।

इन दिनों विज्ञान-गल्प के नाम पर विज्ञान के चमत्कारों पर ठीक उसी तरह की कहानियों का प्रचलन भी बढ़ा है, जिनमें अन्धविश्वास या अविश्वनीयता की हद तक के प्रयोग होते हैं। किसी अन्य गृह से आये अजीब जन्तु या एलियन या फिर रोबोट के नाम पर विज्ञान को हास्यास्पद बना दिया जाता है। समय से बहुत आगे या फिर बहुत पीछे जाकर कुछ कल्पनाएँ की जाती हैं।

लेकिन ये कल्पनाएँ 140 साल पहले की फ्रांसीसी लेखक ज्यूल वार्न के बाल उपन्यास ‘ट्वेंटी थाउजेंड लीग अंडर दी सी’ जैसी कतई नहीं होती हैं। जान कर आश्चर्य होगा कि लेखक ने उस काल में समुद्र की उर्जा, वहाँ मिलने वाली काई से जीवन जीने की कल्पना करते हुए रोमांचक उपन्यास लिख दिया था।

यह विडम्बना ही है कि आज बाजार पौराणिक, लोक और परी कथाओं से पटा हुआ है, हालांकि इसमें से अधिकांश बाल साहित्य कतई नहीं है। भूत-प्रेत, चुड़ैल के कामिक्स बच्चों को खूब भा रहे हैं।, लेकिन हमारे देश के लेखक एक ऐसा अच्छा विज्ञान-गल्प तैयार करने में असफल रहे हैं, जिसके गर्भ में नव- सृजन के कुछ अंश हों, किसी नई खोज की शुरुआत हो सके।

सवा सौ करोड़ से अधिक की आबादी वाले इस देश में छह से 17 वर्ष के स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या लगभग 16 करोड़ है। इसके अलावा कई करोड़ ऐसी बच्चियाँ व लड़के भी हैं, जो कि अपने देश, काल और परिस्थितियों के कारण स्कूल नहीं जा पा रहे हैं। पर वे साँस लेते हैं, भोजन, पानी उनकी भी आवश्यकता है, फिर उन्हें पर्यावरण के ज्ञान से वंचित कैसे रखा जा सकता है। लेकिन इतना बड़ा बाजार और इस मसले पर सकारात्मक पुस्तकें ना के बराबर। अनुमान है कि हमारे देश में सभी भाषाओं में मिलाकर पाठ्येत्तर पर्यावरणीय विज्ञान पुस्तकों का सालाना आँकड़ा मुश्किल से पाँच सौ को पार कर पाता है। बच्चों के बीच प्रकृति पर केन्द्रित पुस्तकें लोकप्रिय बनाने और उनके ज्ञान के माध्यम से समाज में जागरुकता लाने की यदि ईमानदारी से कोशिश करना है तो पुस्तकों को तैयार करते समय पुस्तकों की भाषा, स्थानीय परिवेश का विज्ञान, वे जो कुछ पढ़ रहे हैं, उसका उनके जीवन में उपयोग कहाँ और कैसे होगा, पुस्तकों के मुद्रण की गुणवत्ता और उनके वाजिब दाम पर ध्यान देने की आवश्यकता है।

याद रखना होगा कि अपने परिवेश को जानने-बूझने का गुण बच्चों में अधिक होता है। बच्चों की इस रुचि को बनाए रखने और इसको विस्तार देने में बालपन की रोमांचक दृष्टि की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। (जैसे की बचपन में ही बादलों को देख कर उसमें हाथी या अन्य छवि खोजना, घास के हरेपन को महसूस करने जैसे एहसास होते हैं।) जाहिर है कि हर बच्चा नैसर्गिक रूप से वैज्ञानिक नजरिए वाला होता है। जरूरत तो होती है बस उसे अच्छी पुस्तकों व प्रयोगों के माध्यम से तार्किक बनाने की।

पर्यावरण - पठन को लोकप्रिय बनाने के लिये भी कुछ प्रयास करने होंगे। बड़ी संख्या में बच्चे और उनके अभिभावक यह मान लेते हैं कि विज्ञान कुछ जटिल विशय है जोकि कुछ ‘होशियार’ बच्चों के बस की ही बात है। यह भ्रान्ति भी व्यापक है कि विज्ञान वही पढ़े जो कि डॉक्टर, इंजीनियर या वैज्ञानिक बनना चाहता है।

प्रकृति विचरण के नियमित कार्यक्रम, बच्चों से उनकी जिज्ञासाओं को नियमित रूप से डायरी में नोट करने व उसके सम्भावित सिद्धान्तों पर चर्चा करने के लिये प्रेरित करना, जन्तर-मन्तर, तारा मंडल , औषधीय पौधों के बगीचों, चिड़ियाघर, छोटे कारखानों आदि में बच्चों के नियमित भ्रमण आयोजित करना, स्कूल / सामुदायिक पुस्तकालयों में ‘खुद करके देखो’, रोचक तथ्यों जैसे विषयों की पुस्तकों के लिये अलग से स्थान रखना और वहाँ बच्चों के नियमित, मुक्त आवागमन को सुनिश्चित करना जैसे कार्य स्कूलों में करने होंगे।

ग्रहण, मंगल ग्रह अभियान, किसी बीमारी के फैलने, भूकम्प/बाढ़ आदि प्राकृतिक विपदाओं के समय टीवी चैनलों पर आमतौर पर अन्धविश्वास, बाबा-बैरागियों के भयग्रस्त प्रवचन समाज, विशेष तौर पर बच्चों में भय पैदा करते हैं। काश बच्चों के बीच चर्चाओं का आयोजन और उस पर अधिक-से-अधिक सामग्री एकत्र कर पोस्टर/वालपेपर/हस्त लिखित पुस्तक तैयार करने के लिये प्रेरित किया जाये।

एक बात और, हमारे देश में बच्चों के लिये किये जा रहे किसी भी काम को प्रायः धर्मार्थ मान लिया जाता है, जबकि जरूरत इस बात की है कि बच्चों को विज्ञान के करीब लाने के कार्य को सरकार मानव संसाधन विकास की मूलभूत योजनाओं में प्राथमिकता से शामिल करे।

आज हमारा जीवन आये दिन नई-नई तकनीकी खोजों से आलोकित हो रहा है, लेकिन इनकी खोज के पीछे की कहानियाँ, व्यक्ति, संस्था गुमनाम ही हैं। ऐसे अन्वेषणों पर तत्काल पुस्तकें जरूरी हैं ताकि बच्चों का कौतुहल और जागृत हो और वे खुद ऐसी खोजों के लिये प्रेरित हों।

इसमें प्राथमिकता के आधार पर बच्चों के लिये ढेर सारी विज्ञान पुस्तकों का प्रकाशन तथा उनकी बच्चों तक सहजता से पहुँच बनाना बेहद सस्ता और आसान उपाय है। जरूरत बस सशक्त इच्छाशक्ति की है।

How to reduce the weight of school bags, on Childrens' day












आज है बाल दिवस

बस्ते के बोझ से दबा बचपन



उम्र साढ़े आठ साल, कक्षा तीन में पढ़ती है। स्कूल सुबह पौने आठ से है, सो साढ़े छह बजे सो कर उठती है। स्कूल से घर आने में दो बज जाता है। फिर वह खाना खाती है और कुछ देर आराम करती है। पांच बजते-बजते किताबों, कापियों और होम वर्क से जूझने लगती है। यह काम कम से कम तीन घंटे का होता है। उसके बाद अंधेरा हो जाता है। यह अंधेरा बचपन की मधुर यादें कहे जाने वाले खेल, शैतानियां, उधम सभी पर छा जाता है। अजीब सी छटपटाहट है, उसके बालसुलभ मन में। कुछ देर टीवी देखेगी और सो जाएगी, उस खौफ के साथ, जो उसके साथ बस्ते की शक्ल में चिपटा हुआ है। छटपटा तो महान शिक्षाविद प्रो. यशपाल की वह रिपोर्ट भी रही होगी, जिसमें बच्चे के बस्ते का बोझ कम करने के साथ-साथ शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के कई सुझाव आज से बीस साल पहले दिए गए थे।छोटी कक्षाओं में सीखने की प्रक्रिया के लगातार नीरस होते जाने व बच्चों पर पढ़ाई के बढ़ते बोझ को कम करने के इरादे से मार्च 1992 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने देश के आठ शिक्षाविदों की एक समिति बनाई थी, जिसकी अगुआई प्रो. यशपाल कर रहे थे। समिति ने देशभर की कई संस्थाओं व लोगों से संपर्क किया व जुलाई 1993 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी। उसमें साफ लिखा गया था कि बच्चों के लिए स्कूली बस्ते के बोझ से अधिक बुरा है, न समझ पाने का बोझ। सरकार ने सिफारिशों को स्वीकार भी कर लिया और एकबारगी लगा कि उन्हें लागू करने के लिए भी कदम उठाए जा रहे हैं। फिर देश की राजनीति मंदिर-मस्जिद जैसे विवादों में ऐसी फंसी कि उस रिपोर्ट की सुध ही नहीं रही।वैसे सरकार में बैठे लोगों से बात करें तो वे इस बात को गलत ही बताएंगे कि यशपाल समिति की रिपोर्ट लागू करने की ईमानदार कोशिशें नहीं हुईं। जमीनी हकीकत जानने के लिए उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में चिनहट के पास गणेशपुर गांव के बच्चों का उदाहरण काफी है। कक्षा पांच की विज्ञान की किताब के पहले पाठ के दूसरे पेज पर दर्ज था कि पेड़ कैसे श्वसन किया करते हैं। बच्चों से पूछा गया कि आपमें से कौन-कौन श्वसन क्रिया करता है, सभी बच्चों ने मना कर दिया कि वे ऐसी कोई हरकत करते भी हैं। हां, जब उनसे सांस लेने के बारे में पूछा गया तो वे उसका मतलब जानते थे। बच्चों से पूछा गया कि सहायता का क्या
Prabhat , meerut, 15-11-15
मतलब है तो जवाब था कि पूछना, रूपया, मांगना। उनके किताबी ज्ञान ने उन्हें सिखाया कि दुनिया का अर्थ शहर, जमीन, पृथ्वी या जनता होता है। आंगनबाड़ी केंद्र में चार्ट के सामने रट रहे बच्चों ने न तो कभी अनार देखा था और न ही उन्हें ईख, ऐनक, ऐड़ी और ऋषि के मायने मालूम थे। सामने है कि किताबों ने बच्चों को भले ही ज्ञानवान बना दिया हो, पर कल्पना व समझ के संसार में वे दिनों-दिन कंगाल होते जा रहे हैं ।यशपाल समिति की पहली सिफारिश थी कि बच्चों को निजी सफलता वाली प्रतियोगिताओं से दूर रखा जाए। क्योंकि यह आनंददायक शिक्षा के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा है। इसके स्थान पर सामूहिक गतिविधियों को प्रोत्साहित व पुरस्कृत किया जाना चाहिए। इसके विपरीत बीते एक दशक में कक्षा में अव्वल आने की गला काट प्रतिस्पर्धा में न जाने कितने बच्चे कुंठा का शिकार होकर मौत को गले लगा चुके हैं। हायर सेकेंडरी के रिजल्ट के बाद ऐसे हादसे सारे देश में होते रहते हैं। अपने बच्चे को पहले नंबर पर लाने के लिए कक्षा एक-दो में ही पालक युद्ध सा लड़ने लगते हैं। कहने को अब कक्षा दस में ग्रेडिंग सिस्टम लागू कर दिया गया है। लेकिन ग्रेड भी तो नंबर-दौड़ का ही दूसरा चेहरा है। समिति की दूसरी सिफारिश पाठ्य पुस्तक के लेखन में शिक्षकों की भागीदारी बढ़ाकर उसे विकेंद्रित करने की थी। सभी स्कूलों को पाठ्य पुस्तकों और अन्य सामग्री के चुनाव सहित नवाचार के लिए बढ़ावा दिए जाने की बात भी इस रपट में थी। अब प्राईवेट स्कूलों को अपनी किताबें चुनने का हक तो मिल गया है, लेकिन यह अच्छा व्यापार बन कर बच्चों के शोषण का जरिया बन गया है। पब्लिक स्कूल अधिक मुनाफा कमाने की फिराक में बच्चों का बस्ता भारी करते जा रहे हैं। उधर सरकारी स्कूलों के लिए पाठ्य पुस्तकें तैयार करने वाला एनसीईआरटी इतने विवादों में है कि वह पुस्तकें लिखने वाले लेखकों का नाम तक गोपनीय रखने लगा है। किताबें किस रंग की हों, इसका फैसला सड़कों पर करने के लिए सियासती दल कमर कस रहे हैं। ऐसे ही हालात विभिन्न राज्यों के पाठ्य पुस्तक निगमों के हैं। दिल्ली सरकार के स्कूलों के लिए एनसीईआरटी द्वारा तैयार पुस्तकें आधा साल गुजरने के बाद भी बच्चों तक नहीं पहुंचती हैं। जाहिर है कि बच्चों को अब पूरे साल का पाठ्यक्रम तीन महीने में पूरा करने की कवायद करनी होगी। ऐसे में उन पर पढ़ाई का बोझ कम होने की बात करना बेमानी ही होगा। पाठ्य पुस्तकों को स्कूल की संपत्ति मानने व उन्हें बच्चों को रोज घर ले जाने की जगह स्कूल में ही रखने के सुझाव न जाने किस लाल बस्ते में बंध कर गुम हो गए।समिति की एक राय यह भी थी कि केंद्रीय स्कूल व नवोदय विद्यालयों के अलावा सभी स्कूलों को उनके राज्य के शिक्षा मंडलों से संबद्ध कर देना चाहिए। लेकिन आज सीबीएसई से संबद्धता स्कूल के स्तर का मानदंड माना जाता है और हर साल खुल रहे नए-नए पब्लिक स्कूलों को अपनी संबद्धता बांटने में सीबीएसई दोनों हाथ खोले हुए है। नतीजा है कि राज्य बोर्ड से पढ़ कर आए बच्चों को दोयम दर्जे का माना जा रहा है। कक्षा दस व बारह के बच्चों को कोर्स रटने की मजबूरी से छुटकारा दिलाने के लिए समिति ने परीक्षाओं के तरीकों में आमूलचूल बदलाव की बात कही थी। पर नतीजा वही ढाक के तीन पात रहा और बोर्ड की परीक्षाओं में अव्वल आने का सबसे बढि़या फंडा रटना ही माना जा रहा है ।शिक्षाविदों की एक और सिफारिश अभी तक मूर्तरूप नहीं ले पाई है, जिसमें सुझाया गया था कि नर्सरी कक्षाओं में दाखिले के लिए होने वाले टेस्ट व इंटरव्यू बंद होने चाहिए। साथ ही गैर सरकारी स्कूलों को मान्यता देने के मानदंड कड़े करने की बात भी कही गई थी। जगह, स्टाफ, पढ़ाई और खेल के सामान के मानदंड सरकारी स्कूलों पर भी लागू हों। यह सर्वविदित है कि आज प्राईवेट स्कूल खोलना कितना सरल हो गया है और दूरस्थ गांवों तक बड़े-बड़े नाम वाले पब्लिक स्कूल खोल कर अभिभावकों की जेब काटने के धंधे पर कहीं कोई अंकुश नहीं है।आज छोटे-छोटे बच्चे होमवर्क के आतंक में दबे पड़े हैं। जबकि यशपाल समिति की सलाह थी कि प्राइमरी क्लासों में बच्चों को गृह कार्य सिर्फ इतना दिया जाना चाहिए कि वे अपने घर के माहौल में नई बात खोजें और उन्हीं बातों को विस्तार से समझें। मिडिल व उससे ऊपर की कक्षाओं में होम वर्क जहां जरूरी हो, वहां भी पाठ्य पुस्तक से नहीं हो। पर आज तो होम वर्क का मतलब ही पाठ्य पुस्तक के सवालों-जवाबों को कापी पर उतारना या उसे रटना रह गया है। कक्षा में 40 बच्चों पर एक टीचर, विशेषरूप से प्राइमरी में 30 बच्चों पर एक टीचर होने की सिफारिश खुद सरकारी स्कूलों में भी लागू नहीं हो पाई है। अब एक ही शिक्षक को एक साथ कई कक्षाएं पढ़ाने की बाकायदा ट्रेनिंग शुरू हो गई है। पत्राचार के जरिए बीएड की उपाधि देने वाले पाठ्यक्रमों की मान्यता समाप्त करने की सिफारिश भी यशपाल कमेटी ने की थी। विडंबना है कि इस रिपोर्ट को सरकार द्वारा स्वीकार कर लेने के बाद करीबन एक दर्जन विश्वविद्यालयों को पत्राचार से बीएड कोर्स की अनुमति सरकार ने ही दी।समिति ने पाठ्यक्रम को तैयार करने में विषयों के चयन, भाषा, प्रस्तुति, बच्चों के लिए अभ्यास आदि पर गहन चिंतन कर कई सुझाव दिए थे। उन सब की चर्चा रिपोर्ट जारी होने के समय खूब हुई। पर धीरे-धीरे शैक्षिक संस्थाओं को दुकान बनाने वाले काकस का पंजा कसा और सबकुछ पहले जैसा ही होने लगा। भाषा के मायने संस्कृतनिष्ठ जटिल वाक्य हो गए, तभी बच्चे कहने में नहीं हिचकिचाते हैं कि वे श्वसन क्रिया तो करते ही नहीं हैं।आज हमारे देश में शिक्षा के नाम पर विदेशी पैसे की बाढ़ आई हुई है। उसे मनमाने तरीके से उड़ाने वाले यह नहीं सोच रहे हैं कि यह धन हमारे देश पर यानी हम सभी पर कर्ज है, जिसे मय सूद के लौटाना है। पैसा विदेशी है तो उससे क्रियान्वित होने वाली अवधारणाएं व प्रक्रियाएं भी सात समंदर पार वाली हैं। ऐसे में स्थानीय देश, काल व परिस्थितियों को ध्यान में रख कर तैयार प्रो. यशपाल व उनके आठ सहयोगियों की रपट अधिक कारगर व सटीक होगी। डीपीईपी, सर्व शिक्षा अभियान, स्कूल चलो या शिक्षा गारंटी योजना जैसे प्रयोग स्कूल में बच्चों के नामांकन को भले ही बढ़ा सकते हैं, शब्द व अंक को पहचानने वाले साक्षरों के आंकड़ों में शायद इजाफा भी हो जाए, पर शिक्षा का मूल उद्देश्य यानी जागरूक नागरिक कहीं नहीं दिखेगा। अपने वजन से अधिक का बस्ता ढोते बच्चों के लिए शिक्षा भी महज एक बोझ बनकर रह गई है। काश, इससे उबरने की सुध कोई लेता!
= पंकज चतुर्वेदी

गुरुवार, 12 नवंबर 2015

Hungry country and wastage of food

भूखी आबादी बनाम अन्न की बर्बादी

                                                      पंकज चतुर्वेदी

देश में हर साल उतना गेहूं बर्बाद होता है, जितना आस्ट्रेलिया की कुल पैदावार है। नष्ट हुए गेहूं की कीमत लगभग 50 हजार करोड़ रु. होती है और इससे 30 करोड़ लोगों को सालभर भरपेट खाना दिया जा सकता है। हमारा 2.1 करोड़ टन अनाज केवल इसलिए बर्बाद हो जाता है क्योंकि उसके लिए हमारे पास माकूल भंडारण की सुविधा नहीं है एक साल में जितना सरकारी खरीदी का धान व गेहूं खुले में पड़े होने के कारण मिट्टी हो जाता है, उससे ग्रामीण अंचलों में पांच हजार वेयरहाउस बनाए जा सकते हैं। यह आंकड़ा किसी से दबा-छुपा नहीं है, बस जरूरत है तो योजनाबद्ध और ईमानदार प्रयास करने की

Rashtriy Sahara 13-11-15

पिछले महीने अस्सी साल बाद जारी किए गए सामाजिक, आर्थिक और जातीय जनगणना के आंकड़े भारत की चमचमाती तस्वीर के पीछे का विद्रूप चेहरा उजागर करने के लिए काफी हैं। देश के 51.14 प्रतिशत परिवारों की आय का जरिया महज अस्थाई मजदूरी है। 4.08 लाख परिवार कूड़ा बीन कर, तो 6.68 लाख परिवार भीख मांग कर अपना गुजारा करते हैं। गांव में रहने वाले 39.39 प्रतिशत परिवारों की औसत मासिक आय दस हजार रुपये से भी कम है। आय और व्यय में असमानता की हर दिन गहरी होती खाई का ही परिणाम है कि कुछ दिनों पहले ही संयुक्त राष्ट्र के खाद्य व कृषि संगठन द्वारा जारी की गई रपट में बताया गया है कि भारत में 19.4 करोड़ लोग भूखे सोते हैं। हालांकि सरकार के प्रयासों से पहले के मुकाबले ऐसे लोगों की संख्या कम हुई है। हमारे यहां बीपीएल यानी गरीबी की रेखा से नीचे जीवनयापन करने वालों की संख्या को ले कर भी गफलत है। हालांकि यह आंकड़ा 29 फीसद के आसपास सर्वमान्य-सा है। भूख, गरीबी, कुपोषण व उससे उपजने वाली स्वास्य, शिक्षा, मानव संसाधन प्रबंधन की दिक्क्तें देश के विकास में सबसे बड़ी बाधक हैं। हमारे यहां न तो अन्न की कमी है और न ही रोजगार के लिए श्रम की। कागजों पर योजनाएं भी हैं, लेकिन कमी है तो उन योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए जिम्मेदार स्थानीय स्तर की मशीनरी में जिम्मेदारी और संवेदना की। जिस देश में नए खरीदे गए अनाज को रखने के लिए गोदामों में जगह नहीं है, जहां सामाजिक जलसों में परोसा जाने वाला आधे से ज्यादा भोजन कूड़ा-घर का पेट भरता है, वहां ऐसे भी लोग हैं, जो अन्न के एक दाने के अभाव में दम तोड़ देते हैं। बंगाल के बंद हो गए चाय बागानों में आए रोज मजूदरों के भूख के कारण दम तोड़ने की बात हो या फिर महाराष्ट्र में अरबपति शिरडी मंदिर के पास ही मेलघाट में हर साल हजारों बच्चों की कुपोषण से मौत की खबर या फिर राजस्थान का बारां जिला हो या मध्यप्रदेश का शिवपुरी जिला, जहां आदिवासियों की बस्ती में पैदा होने वाले कुल बच्चों के अस्सी फीसद के उचित खुराक न मिल पाने के कारण छोटे में ही मर जाने के वाकये
Peoples samachar 16-11-15
इस देश में हर रोज हो रहे हैं। लेकिन विज्ञापन में मुस्कुराते चेहरों, दमकती सुविधाओं के फेर में वास्तविकता से परे उन्मादित भारतवासी तक ऐसी खबरें या तो पहुंच नहीं रही हैं या उनकी संवेदनाओं को झकझोर नहीं रही हैं। देशभर के कस्बे-शहरों से आए रोज गरीबी, कर्ज व भुखमरी के कारण आत्महत्या की खबरें आती हैं, लेकिन वे किसी अखबार की छोटी-सी खबर बन कर समाप्त हो जाती है। इन दिनों बुंदेलखंड की आधी ग्रामीण आबादी सूखे से हताश होकर पेट पालने के लिए अपने घर-गांव से पलायन कर चुकी है।भूख से मौत या पलायन, वह भी उस देश में जहां खाद्य और पोषण सुरक्षा की कई योजनाएं अरबों रुपये की सब्सिडी पर चल रही हैं, जहां मध्याह्न भोजन योजना के तहत हर दिन 12 करोड़ बच्चों को दिन का भरपेट भोजन देने का दावा हो, जहां हर हाथ को काम व हर पेट को भोजन के नाम पर हर दिन करोड़ों का सरकारी फंड खर्च होता हो; दर्शाता है कि योजनाओं व हितग्राहियों के बीच अब भी पर्याप्त दूरी है। वैसे भारत में हर साल पांच साल से कम उम्र के 10 लाख बच्चों के भूख या कुपोषण से मरने के आंकड़े संयुक्त राष्ट्र ने जारी किए हैं। ऐसे में नवरात्रि पर गुजरात के गांधीनगर जिले के एक गांव में माता की पूजा के नाम पर 16 करोड़ रुपये दाम के साढ़े पांच लाख किलो शुद्ध घी को सड़क पर बहाने, मध्य प्रदेश में एक राजनीतिक दल के महासम्मेलन के बाद नगर निगम के सात ट्रकों में भर कर पूड़ी व सब्जी कूड़ेदान में फेंकने की घटनाएं बेहद दुर्भाग्यपूर्ण व शर्मनाक प्रतीत होती हैं।हर दिन कई लाख लोगों के भूखे पेट सोने के गैर सरकारी आंकड़ों वाले भारत देश के ये आंकड़े भी विचारणीय हैं- देश में हर साल उतना गेहूं बर्बाद होता है, जितना आस्ट्रेलिया की कुल पैदावार है। नष्ट हुए गेहूं की कीमत लगभग 50 हजार करोड़ रुपये होती है और इससे 30 करोड़ लोगों को सालभर भरपेट खाना दिया जा सकता है। हमारा 2.1 करोड़ टन अनाज केवल इसलिए बर्बाद हो जाता है, क्योंकि उसे रखने के लिए हमारे पास माकूल भंडारण की सुविधा नहीं है। देश के कुल उत्पादित सब्जी-फल का 40 फीसद समय पर मंडी तक नहीं पहुंच पाने के कारण सड़-गल जाता है। औसतन हर भारतीय एक साल में छह से 11 किलो अन्न बर्बाद करता है। जितना अन्न हम एक साल में बर्बाद करते हैं, उसकी कीमत से ही कई सौ कोल्ड स्टोरेज बनाए जा सकते हैं जो फल-सब्जी को सड़ने से बचा सके। एक साल में जितना सरकारी खरीदी का धान व गेहूं खुले में पड़े होने के कारण मिट्टी हो जाता है, उससे ग्रामीण अंचलों में पांच हजार वेयरहाउस बनाए जा सकते हैं। बस जरूरत है तो एक प्रयास करने की। यदि पंचायत स्तर पर ही एक क्विंटल अनाज का आकस्मिक भंडारण व उसे जरूरतमंद को देने की नीति का पालन हो तो कम से कम कोई भूखा तो नहीं मरेगा। बुंदेलखंड के पिछड़े जिले महोबा के कुछ लोगों ने ‘‘रोटी बैंक’ बनाया है। बैंक से जुड़े लोग भोजन के समय घरों से ताजा बनी रोटियां एकत्र करते हैं और उन्हें अच्छे तरीके से पैक कर भूखों तक पहुंचाते हैं। बगैर किसी सरकारी सहायता के चल रहे इस अनुकरणीय प्रयास से हर दिन 400 लोगों को भोजन मिल रहा है। बैंक वाले बासी या ठंडी रोटी नहीं लेते है ताकि खाने वाले का आत्मसम्मान भी जिंदा रहे। यह बानगी है कि यदि इच्छाशक्ति हो तो छोटे से प्रयास भी भूख पर भारी पड़ सकते हैं। विकास, विज्ञान, संचार व तकनीक में हर दिन कामयाबी की नई ऊंचाई छूने वाले मुल्क में इस तरह बेरोजगारी व खाना न मिलने से होने वाली मौतें मानवता व हमारे ज्ञान के लिए भी कलंक हैं। हर जरूरतमंद को अन्न पहुंचे, इसके लिए सरकारी योजनाओं को तो थोड़ा चुस्त-दुरूस्त होना होगा, समाज को भी थोड़ा संवेदनशील बनना होगा। हो सकता है कि हम इसके लिए पाकिस्तान से कुछ सीख लें, जहां शादी व सार्वजनिक समारोह में पकवान की संख्या, मेहमानों की संख्या तथा खाने की बर्बादी पर सीधे गिरफ्तारी का कानून है। जबकि हमारे यहां होने वाले शादी समारोह में आमतौर पर 30 प्रतिशत खाना बेकार जाता है। गांव स्तर पर अन्न बैंक, प्रत्येक गरीब, बेरोजगार के आंकड़े रखने जैसे कार्य में सरकार से ज्यादा समाज को अग्रणी भूमिका निभानी होगी। बहरहाल, हमें एकमत से स्वीकार करना होगा कि अंबिकापुर जिले में एक आदिवासी बच्चे की ऐसी मौत हम सभी के लिए शर्म की बात है। यह विडंबना है कि मानवता पर इतना बड़ा धब्बा लगा और उस इलाके के एक कर्मचारी या अफसर को सरकार ने दोषी नहीं पाया। भूख व कुपोषण जैसे मसलों पर सरकारी ओहदेदारों की जिम्मेदारी तय करने में कड़ाई, मुफ्त बंटने वाले भोजन की गुणवत्ता से समझौता न करना और ग्रामीण स्तर पर खाद्य सुरक्षा की योजना व क्रियान्वयन हमें भूख से मौत जैसे सामाजिक कलंक से मुक्ति दिलवा सकता है।

शनिवार, 7 नवंबर 2015

Understand the traditions and science of Diwali

दीवाली की मूल भावना को भी समझो

MP Jansandesh, Satna 7-11-15

उत्तर वैदिक काल में शुरू हुई आकाश दीप की परंपरा को कलयुग में दीवाली के रूप में मनाया जाता है।  श्राद्ध पक्ष में भारत में अपने पुरखों को याद करने के बाद जब वे वापस अपने लोकों को लौटते थे तो उनके मार्ग को आलोकित करने के लिए लंबे-लंबे बाँसों पर कंदील जलाने की परंपरा बेहद प्रचीन रही है। फिर द्वापर युग में राजा राम लंका विजय के बाद अयोध्या लौटे तो नगरवासियों ने अपने-अपने घर के दरवाजों पर दीप जला कर उनका स्वागत किया। हो सकता है कि किसी सैनिक परिवार ने कुछ आग्नेय अस्त्र-शस्त्र चलाए हों, लेकिन दीपावली पर आतिशबाजी चलाने की परंपरा के बहुत पुराना होने के कोई प्रमाण मिलते नहीं हैं। हालांकि अब तो देश की सर्वोच्च अदालत ने भी कह दिया कि पूर्व में घोषित दिशा निर्देशों के अनुरूप आतिशबाजी चलाने पर कोई पाबंदी लगाई नहीं जा सकती। लेकिन यह भी जानना जरूरी है कि समाज व संस्कृति का संचालन कानून या अदालतों से नहीं बल्कि लोक कल्याण की व्यापक भावना से होता रहा है और यही इसके सतत पालन व अक्षुण्ण रहे का कारक भी है।
दीपावली की असल भावना को ले कर कई मान्यताएं हैं और कई धार्मिक आख्यान भी। यदि सभी का अध्ययन करें तो उनकी मूल भावना भारतीय समाज का पर्व-प्रेम, उल्लास और सहअस्तित्व की अनिवार्यता है। विडंबना है कि आज की दीपावली दिखावे, परपीड़न, परंपराओं की मूल भावनाओं के हनन और भविष्य के लिए खतरा खड़ा करने की संवेदनशील औजार बन गई हे। अभी दीपावली से दस दिन पहले ही देश की राजधानी दिल्ली की आवोहवा इतनी जहरीली हो गई है कि हजरों ऐसे लेाग जो सांस की बीमारियों से पीडि़त हैं, उन्हें मजबूरी में शहर छोड़कर जाना पड़ रहा है, हालांकि अभी आतिशबाजी शुरू नहीं हुई है। अभी तो बदलते मौसम में भारी होती हवा, वाहनों के प्रदूषण, धूल व कचरे को जलाने से उत्पन्न धुंए के घातक परिणाम ही सामने आए हैं।  भारत का लोक गर्मियों में खुले में,छत पर सोता था,। किसान की फसल तैयार होती थी तो वह खेत में होता था। दीपावली ठंड के दिनों की शुरूआत होता हे। यानि लोक को अब अपने घर के भीरत सोना शुरू करना होता था। पहले बिजली-रोशनी तो थी नहीं। घरों में सांप-बिच्छू या अन्य कीट-मकोड़े होना आम बात थी। सो दीपावली के  पहले घरें की सफई की जाती थी व घर के कूड़े को दूर ले जा कर जलाया जाता था। उस काल में घर के कूउ़े में काष्ठ, कपड़ा या पुरना अनाज ही हेाता था। जबकि आज के घर कागज, प्लास्टिक, धातु व और ना जाने कितने किस्म के जहरीले पदार्थों के कबाड़े से भरे होते हैं। दीवारों पर लगाया गया इनेमल-पैंट भी रसायन ही हेाता है। इसकी गर्द हवा को जबरदस्त तरीके से दूषित करती हे। सनद रहे कि दीपावली से पहले शहर की हवा विषैली होनो के लिए दिल्ली का उदाहरण तो बानगी है, ठीक यही हालात देश के सभी महानगरों, से ले कर कस्बों तक के हैं।
Raj Express Bhopal 11-11-15
दुखद है कि हम साल में एक दिन बिजली बंद कर ‘पृथ्वी दिवस’ मानते हैं व उस दौरान धरती में घुलने से बचाए गए कार्बन की मात्रा का कई सौ गुणा महज दीपावली के चंद घंटों में प्रकृति में जोड़ देते हैं। हम जितनी बिजली बेवजह फूंकते हैं, उसके उत्पादन में प्ररूकुर्त इंधन, तथा उसे इस्तेमाल से निकली उर्जा उतना ही कार्बन प्रकृति में उड़ेल देता हे। कार्बन की बढती मात्रा के कारण जलवायु चक्र परिवर्तन,  धरती का तापमान बढना जैसी कई बड़ी दिक्कतें समाने आ रही हैं। काश हम दीपावली पर बिजली के बनिस्पत दीयों को ही प्राथमिकता दे। इससे कई लोगों को रोजगार मिलता है, प्रदूषण कम होता है और पर्व की मूल भावना जीवंत रहती है।
दीपावली में सबसे ज्यादा जानलेवा भूमिका होती है आतिशबाजी या पटाखों की। खासतौर पर चीनी पटाखों में तो बेहद खतरनाक रसायन होते हैं जो सांस लेने की दिक्कत के साथ-साथ फैंफडों के रोग दीर्घकालिक हो सकते हैं।  दीवाली पर आतिशबाजी के कारण होने वाले वायु प्रदूषण को लेकर अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के डॉक्टरों का यह खुलासा चौंकाने वाला है कि इससे न केवल सांस की बीमारी बढ़ती है, बल्कि गठिया व हड्डियों के दर्द में भी इजाफा हो जाता है। संस्थान द्वारा इस बार शोध किया जाएगा कि दीपावली पर आतिशबाजी जलाने के कारण हवा में प्रदूषण का जो जहर घुलता है, उसका गठिया व हड्डी के मरीजों पर कितना असर पड़ता है। एम्स के विशेषज्ञों का कहना है कि अब तक हुए शोध में यह पाया गया है कि वातावरण में पार्टिकुलेट मैटर 2.5 का स्तर अधिक होने पर गठिया के मरीजों की हालत ज्यादा खराब हो जाती है। चूंकि दीपावली में आतिशबाजी के कारण प्रदूषण का स्तर बहुत बढ़ जाता है, लिहाजा इस बार गठिया के मरीजों पर दीपावली में होने वाले प्रदूषण के असर पर शोध किया जाएगा।
विशेषज्ञ यह भी मानते हैं कि जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण भी गठिया की बीमारी के लिए जिम्मेदार कारक हैं। इस मामले में पिछले दो वर्षो से शोध चल रहा है। केंद्र सरकार के विज्ञान व प्रौद्योगिकी विभाग की मदद से किए जा रहे देश में अपनी तरह के इस अनूठे शोध के तहत गठिया के 400 व 500 सामान्य व्यक्तियों पर अध्ययन किया जा रहा है। यह शोध रिपोर्ट वर्ष 2016 तक आएगी। दिल्ली में दीपावली सबसे ज्यादा धूमधाम से मनाई जाती है। इस त्योहार पर राजधानी सचमुच किसी दुल्हन की तरह सजाई-संवारी जाती है। लेकिन इस साज-सज्जा का एक स्याह पक्ष यह भी है कि दीपों के त्योहार के इस मौके पर दिल्ली में इतनी ज्यादा आतिशबाजी होती है कि कई बार तो दीवाली के अगले दिन तक पूरे वातावरण में प्रदूषण की धुंध सी छाई रहती है। यह प्रदूषण बीमार लोंागें के लिए तो मुसीबत खड़ा करता ही है, स्वस्थ व्यक्ति को बीमार बना देता है।
आतिशबाजी के धुंए, आग, आवाज के शिकार इंसान तो होते ही हैं, पशु-पक्षी, पेड़, जल स्त्रोत भी इसके कुप्रभाव से कई महीनों तक हताश-परेशान रहते हैं। विडंबना है कि आज पढा लिखा व आर्थिक रूप से संपन्न समाज महज दिखावे के लिए हजारों-हजार करोड़ की आतिशबाजी फूंक रहा हे। इससे पैसे की बर्बादी तो होती ही हैं, लेकिन सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचता है पर्यावरण को। ध्वनि और वायु प्रदूषण दीपावली पर बेतहाशा बढ़ जाता है। जो कई बीमारियों का कारण है।
दीवाली के बाद अस्पतालों में अचानक 20 से 25 प्रतिशत ऐसे मरीजों की संख्या में वृद्धि हो जाती है जिसमें अधिकतर लोग सांस संबंधी व अस्थमा जैसी समस्या से पीडि़त होते हैं। हर साल  विश्व में 2 से चार लाख लोगों की मौत वायु प्रदूषण की वजह से होती है। वातावरण में धूल व धुएं के रूप में अति सूक्ष्म पदार्थ मुक्त तत्वों का हिस्सा होता है, जिसका व्यास 10 माइक्रोमीटर होता है, यही वजह है कि यह नाक के छेद में आसानी से प्रवेश कर जाता है, जो सीधे मानव शरीर के श्वसन प्रणाली, हृदय, फेफड़े को प्रभावित करता है। इसका सबसे ज्यादा प्रभाव छोटे बच्चे और अस्थमा के मरीजों पर होता है।  धुंध (स्मॉग) की वजह से शारीरिक परिवर्तन से लेकर सांस फूलना, घबराहट, खांसी, हृदय व फेफड़ा संबंधी दिक्कतें, आंखों में संक्रमण, दमा का अटैक, गले में संक्रमण आदि की परेशानी होती है। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के अनुसार दिल्ली में पटाखों के कारण दीपावली के बाद वायु प्रदूषण छह से दस गुना और आवाज का स्तर 15 डेसिबल तक बढ़ जाता है। इससे सुनने की क्षमता प्रभावित हो सकती है। तेज आवाज वाले पटाखों का सबसे ज्यादा असर बच्चों, गर्भवती महिलाओं तथा दिल और सांस के मरीजों पर पड़ता है। मनुष्य के लिए 60 डेसिबल की आवाज सामान्य होती है। इससे 10 डेसिबल अधिक आवाज की तीव्रता दोगुनी हो जाती है, जो मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए घातक होती है। दुनिया के कई देशों में रंगारंग आतिशबाजी करने की परंपरा है। आकाश को जगमग करने के लिए बनाए जाने वाले पटाखों में कम से कम 21 तरह के रसायन मिलाए जाते हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि 20 मिनट की आतिशबाजी पर्यावरण को एक लाख कारों से ज्यादा नुकसान पहुंचाती है।
जाहिर है कि दीपावली का मौजूदा स्वरूप ना तो शास्त्र सम्मत है और ना ही लोक परंपराओं के अनूरूप और ना ही प्रकृति, इंसान व जीवजगत के लिए कल्याणाकरी, तो  फिर क्यों ना दीपावली पर लक्ष्मी को घर बुलाएं, सरस्वती का स्थाई वास कराएं ओर एकदंत देव की रिद्धी-सिद्धी का आव्हान करें- दीपावली दीयों के साथ, अपनों के साथ, मुसकान के साथ आतिशबाजी रहित ही मनाएं।

गुरुवार, 5 नवंबर 2015

Urgent need of Police reforms

क्यों नहीं रहा पुलिस का डर

पंकज चतुर्वेदी


पिछले कुछ महीनों से दिल्ली और करीबी एनसीआर के जिलों- गाजियाबाद, नोएडा, गुडगावं व फरीदाबाद में सरेआम अपराधों की जैसे झड़ी ही लग गई है। भीड़भरे बाजार में जिस तरह से हथियारबंद अपराधी दिनदहाड़े लूटमार करते हैं , महिलाओं की जंजीर व मोबाईल फोन झटक लेते हैं, बैंक में लूट तो ठीक ही है, अब तो एटीएम मषीन उखाड़ कर ले जाते हैं; इससे साफ है कि अपराधी पुलिस से दो कदम आगे हैं और उन्हें कानून या खाकी वर्दी की कतई परवाह नहीं है। पुलिस को मिलने वाला वेतन और कानून व्यवस्था को चलाने के संसाधन जुटाने पर उसी जनता का पैसा खर्च हो रहा है जिसके जानोमाल की रक्षा का जिम्मा उन पर है। दिल्ली और एनसीआर बेहद संवेदनषील इलाका है और यहां की पुलिस से सतर्कता और अपराध नियंत्रण के लिए अतिरिक्त चैकस रहने की उम्मीद की जाती है। विडंबना है कि एनसीआर की पुलिस में कर्मठता और व्यावसायिकता की बेहद कमी है। वैसे यहां पुलिस की दुर्गति का मूल कारण सरकार की पुलिस संबंधी नीतियों का पुराना व अप्रासंगिक होना है।
ऐसा नहीं है कि पुलिस खाली हाथ हैं, आए रोज कथित बाईकर्स गेंग पकड़े जाते हैं, बड़े-बड़े दावे भी होते हैं लेकिन अगले दिन ही उससे भी गंभीर अपराध सुनाई दे जाते हैं। लगता है कि दिल्ली व पड़ोसी इलाकों में दर्जनों बाईकर्स-गैंग काम कर रहे हैं और उन्हें पुलिस का कोई खौफ नहीं हैं। अकेले गाजियाबाद जिले की हिंडन पार की कालोनियों में हर रोज झपटमारी की दर्जनों घटनाएं हो रही हैं और अब पुलिस ने मामले दर्ज करना ही बंद कर दिया है। जिस गति से आबादी बढ़ी उसकी तुलना में पुलिस बल बेहद कम है। मौजूद बल का लगभग 40 प्रतिषत  नेताओं व अन्य महत्वपूर्ण लोगों की सुरक्षा में व्यस्त है। खाकी को सफेद वर्दी पहना कर उन्हीं पर यातायात व्यवस्था का भी भार है। अदालत की पेषियां, अपराधों की तफ्तीष, आए रोज हो रहे दंगे, प्रदर्षनों को झेलना। कई बार तो पुलिस की बेबसी पर दया आने लगती है।
मौजूदा पुलिस व्यवस्था वही है जिसे अंग्रेजों ने 1857 जैसी बगावत की पुनरावृत्ति रोकने के लिए तैयार किया था।  अंग्रेजों को बगैर तार्किक क्षमता वाले आततायियों की जरूरत थी ,इसलिए उन्होंने इसे ऐसे रूप में विकसित किया कि पुलिस का नाम ही लोगों में भय का संचार करने को पर्याप्त हो। आजादी के बाद लोकतांत्रिक सरकारों ने पुलिस को कानून के मातहत जन-हितैषी संगठन बनाने की बातें तो कीं लेकिन इसमें संकल्पबद्धता कम और दिखावा ज्यादा रहा। वास्तव में राजनीतिक दलों को यह समझते देर नहीं लगी कि पुलिस उनके निजी हितों के पोषण में कारगर सहायक हो सकती है और उन्होंने सत्तासीन पार्टी के लिए इसका भरपूर दुरुपयोग किया। परिणामतः आम जनता व पुलिस में अविश्वास की खाई बढ़ती चली गयी और समाज में असुरक्षा और अराजकता का माहौल बन गया। शुरू-शुरू में राजनैतिक हस्तक्षेप का प्रतिरोध भी हुआ। थाना प्रभारियों ने विधायकों व मंत्रियों से सीधे भिड़ने का साहस दिखाया पर जब ऊपर के लोगों ने स्वार्थवश हथियार डाल दिये तब उन्होंने भी दो कदम आगे जाकर राजनेताओं को ही अपना असली आका बना लिया। अन्ततः इसकी परिणति पुलिस-नेता-अपराधी गठजोड़ में हुई जिससे आज पूरा समाज इतना त्रस्त है कि सर्वोच्च न्यायालय तक ने पुलिस में कुछ ढांचागत सुधार तत्काल करने की सिफारिषें कर दीं। लेकिन लोकषाही का षायद यह दुर्भाग्य ही है कि अधिकांष राज्य सरकारें सुप्रीम कोर्ट के इस आदेष को नजरअंदाज कर रही हैं। परिणति सामने है- पुलिस अपराध रोकने में असफल है।
कानून व्यवस्था या वे कार्य जिनका सीधा सरोकार आम जन से होता है, उनमें थाना स्तर की ही मुख्य भूमिका होती है। लेकिन अब हमारे थाने बेहद कमजोर हो गए हैं। वहां बैठे पुलिसकर्मी आमतौर पर अन्य किसी सरकारी दफ्तर की तरह क्लर्क का ही काम करते हैं। थाने आमतौर पर षरीफ लोगों को भयभीत और अपराधियों को निरंकुष बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। आज जरूरत है कि थाने संचार और परिवहन व अन्य अत्याधुनिक तकनीकों से लैस हांे। बदलती परिस्थितियों के अनुसार थानों के सशक्तीकरण महति है। आज अपराधी थानें में घुस कर हत्या तक करने में नहीं डरते। कभी थाने उच्चाधिकारियों और शासन की प्रतिष्ठा की रक्षा के सीमावर्ती किलों की भांति हुआ करते थे। जब ये किले कमजोर हो गये तो अराजक तत्वों का दुस्साहस इतना बढ़ गया कि वे जिला पुलिस अधीक्षक से मारपीट और पुलिस महानिदेशक की गाड़ी तक को रोकने से नहीं डरते हैं।
रही बची कसर जगह-जगह अस्वीकृत चैकियों, पुलिस सहायता बूथों, पिकेटों आदि की स्थापना ने पूरी कर दी है। इससे पुलिस-शक्ति के भारी बिखराव ने भी थानों को कमजोर किया है। थानों में ”स्ट्राइकिंग फोर्स“ नाममात्र की बचती है। इससे किसी समस्या के उत्पन्न होने पर वे त्वरित प्रभावी कार्यवाही नहीं कर पाते हैं । तभी पुलिस थानों के करीब अपराध करने में अब अपराधी कतई नहीं घबराते हैं।
पुलिस सुधारों में अपराध नियंत्रण, घटित अपराधों की विवेचना और दर्ज मुकदमें को अदालत तक ले जाने के लिए अलग-अलग  विभाग घटित करने की भी बात है।  सनद रहे अभी ये तीनों काम  एक ही पुलिस बल के पास है, तभी आज थाने का एक चैथाई स्टाफ हर रोज अदालत के चक्कर लगाता रहता है। नियमित पेट्रोलिंग लगभग ना के बराबर है। यह भी एक दुखद हकीकत है कि पुलिस को गष्त के लिए पेट्रोल बहुत कम या नहीं मिलता है। पुलिसकर्मी अपने स्तर पर इंधन जुटाते हैं, जाहिर है कि इसके लिए गैरकानूनी तरीकों का सहारा लेना ही पड़ता होगा।  दिल्ली एनसीआर में कई थाने ऐसे है, जहां टेलीफोन कनेक्षन कट चुके है। समीपवर्ती गाजियाबाद जिले की पुलिस तो अभी भी सन 65 के माडल की जीप पर गष्त कर रही है, जबकि अपराधी पलक झपकते ही हवा से बातें करने वाली मोटरसाईकल पर सवार होते हैं।  यहं उल्लेखनीय है कि पाकिस्तान के कराचीं में पुलिस विषेश रूप से तैयार किए गए तिपहिया स्कूटरों पर गष्त करती है। एक तो उस पर एक साथ तीन पुलिसवाले सवार हो जाते हैं, फिर इसमें इंधन का खर्च कम है और साथ ही यह तेज गति से गलियों में भी दौड़ लेता है।
इन दिनों पुलिस सुधार का हल्ला चल रहा है । सुप्रीम कोर्ट भी इस बारे में निर्देश दे चुका हैं, लेकिन देश का नेता पुलिस का उपनिवेशिक चेहरे को बदलने में अपना नुकसान महसूस करता है । तभी विवेचना और कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए अलग-अलग एजेंसियों की व्यवस्था पर सरकार सहमत नहीं हो पा रही है ।  वे नहीं चाहते हैं कि थाना प्रभारी जैसे पदों पर बहाली व तबादलों को समयबद्ध किया जाए।  इसी का परिणाम है कि दिल्ली एनसीआर में अपराधी पुलिस की कमजोरियों का भरपूर लाभ उठा रहे हैं। ़
वैसे भी अपराधों में इजाफा महानगरीय अपसंस्कृति का एक अभिन्न हिस्सा है। कोई एक दषक पहले दिल्ली नगर निगम के स्लम विभाग द्वारा करवाए गए एक सर्वेक्षण की रिपोर्ट भले ही कहीं लाल बस्ते में बंध कर गुम हो गई हे, लेकिन वह है आज भी प्रासंगिक। निगम के स्लम तथा जे जे विभाग की रिपोर्ट में कहा गया था कि राजधानी में अपराधों में ताबडतोड बढ़ौतरी के सात मुख्य कारण हैं - अवांछित पर्यावरण, उपेक्षा तथा गरीबी, खुले आवास, बडा परिवार, अनुशासनहीनता व नई पीढी का बुजुर्गों के साथ अंतर्विरोध और नैतिक मूल्यों में गिरावट। पुलिस की मौजूदा व्यवस्था इन कारकों के प्रति कतई संवेदनषील नहीं है। वह तो डंडे और अपराध हो जाने के बाद अपराधी को पकड़ कर जेल भेजने की सदियों पुरानी नीति पर ही चल रही है।
आज जिस तरह समाज बदल रहा है, उसमें संवेदना और आर्थिक सरोकार प्रधान होते जा रहे हैं, ऐसे में सुरक्षा एजेंसियों की जिम्मेदारी, कार्य प्रणाली व चेहरा सभी कुछ बदलना जरूरी है ।  आज जरूरत डंडे का दवाब बढ़ाने की नहीं है, सुरक्षा एजेंसियों को समय के साथ आधुनिक बनाने की है ।


पंकज चतुर्वेदी
सहायक संपादक
नेषनल बुक ट्रस्ट इंडिया
 नेहरू भवन, वसंत कुंज इंस्टीट्यूषनल एरिया फेज-2
 वसंत कुंज, नई दिल्ली-110070
 संपर्क- 9891928376




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