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बुधवार, 16 दिसंबर 2015

Shelter is not only problem of homeless


    

खुले में उनका घर-बार


                                                                      पंकज चतुर्वेदी
राष्ट्रीय सहारा१७दिसंबर२०१५
दिल्ली में शकूरबस्ती बस्ती में रेलवे की जमीन पर बनी झुग्गियों को तोड़ने के मसले में सभी दल अपने-अपने तरह से सियासम कर रहे हैं और बता रहे हैं कि किस तरह उजाड़े गए लोग खुले में जीवन जीने को मजबूर हैं जबकि रात का तापमान छह तक गिर चुका है। लेकिन जरा किसी रात दिल्ली की सड़कों पर चक्कर लगा कर देखें-फुटपाथों और फ्लाईओवरों की ओट में रात काटते हजारों लोग दिल्ली की खुशहाली के दावों की पोल खोलते दिखेंगे। शायद यह बात बहुत कम लोग जानते होंगे कि देश की राजधानी दिल्ली में हर साल भूख, लाचारी, बीमारी से कोई तीन हजार ऐसे लोग गुमनामी की मौत मर जाते हैं, जिनके सिर पर कोई छत नहीं होती है। पिछले साल सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पीठ ने सभी राज्य सरकारों को तत्काल बेघरों को आसरा मुहैया करवाने के लिए कदम उठाने के आदेश दिए थे। इससे तीन साल पहले 30 नवम्बर, 2011 को दिल्ली हाई कोर्ट के कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश एके सीकरी और राजीव सहाय एडला की पीठ ने दिल्ली सरकार को निर्देश दिया था कि बेघर लोगों के लिए ‘‘नाइटशेल्टर’ की कोई ठोस योजना तैयार कर अदालत में पेश की जाए। यह भी कहा था कि एक तरफ तो राज्य सरकार कहती है कि सरकारी रैनबसेरों में रहने को लोग नहीं आ रहे हैं, दूसरी ओर वे आए दिन देखते हैं कि लोग ठंड में रात बिताते हैं। लोकतंत्र की प्राथमिकता में प्रत्येक नागरिक को ‘‘रोटी-कपड़ा-मकान’ मुहैया करवाने की बात होती रही है। जाहिर है कि मकान को इंसान की मूलभूत जरूरत में शुमार किया जाता है। लेकिन सरकार की नीतियां तो मूलभूत जरूरत ‘‘सिर पर छत’ से कहीं दूर निकल चुकी हैं। आज मकान आवश्यकता से अधिक ‘‘रियल इस्टेट’ का बाजार बन गया है और घर-जमीन जल्दी-जल्दी पैसा कमाने का जरिया। जमीन व उस पर मकान बनाने के खर्च किस तरह बढ़ रहे हैं, यह अलग जांच का मुद्दा है। लेकिन पिछले कुछ दिनों से राजधानी दिल्ली व कई अन्य नगरों में सौंदर्यीकरण के नाम पर लोगों को बेघरबार करने की जो मुहिम शुरू हुई हैं, वे भारतीय लोकतंत्र की मूल आत्मा के विरुद्ध है।

 
Raj Express Bhopal 18-12-15
एक तरफ जमीन की कमी व आवास का टोटा है तो दूसरी ओर सुंदर पांच सितारा होटल बनाने के लिए सरकार व निजी क्षेत्र सभी तत्पर हैं। कुल मिला कर बेघरों की बढ़ती संख्या आने वाले दिनों में कहीं बड़ी समस्या का रूप ले सकती है। एक तरफ झुग्गी बस्तियों को उजाड़ा जा रहा है, दूसरी ओर उन्हें शहर से दूर खदेड़ा जा रहा है। जबकि उनकी रोजी-रोटी इस महानगर में है। इसी करके हर रोज हजारों लोग फुटपाथ पर सोने को विवश हैं। ना तो वे भिखारी हैं और ना ही चोर-उचक्के। उनमें से कई अपनी हुनर के उस्ताद हैं । फिर भी समाज की निगाह में वे अविश्वसनीय और संदिग्ध हैं। कारण उनके सिर पर छत नहीं है। सरकारी कोठियों में चाकचौबंद सुरक्षा के बीच रहने वाले हमारे खद्दरधारियों को शायद ही जानकारी हो कि राजधानी में हजारों ऐसे लोग हैं, जिनके सिर पर कोई छत नहीं है। याद करें कि दिल्ली की एक-तिहाई से अधिक यानि 40 लाख के लगभग आबादी नरकनुमा झुग्गी बस्तियों में रहती है। इसके बावजूद ऐसे लोग भी बकाया रह गए हैं, जिन्हें झुग्गी भी मयस्सर नहीं है। ऐसे लोगों की सही-सही संख्या की जानकारी किसी भी सरकारी विभाग को नहीं है। जब लाखों लोगों के लिए झुग्गियों में जगह है तो ये क्यों आसमान तले सोते हैं? सवाल करने वाले पुलिस वाले भी होते हैं। इस क्यों का जवाब होता है, पुरानी दिल्ली की पतली-संकरी गलियों में पुश्तों से थोक का व्यापार करने वाले व्यापारियों के पास। झुग्गी लेंगे तो कहीं दूर से आना होगा। फिर आने-जाने का खर्च बढ़ेगा। समय लगेगा। झुग्गी का किराया देना होगा। सो अलग। राजधानी की सड़कों पर कई तरह के भारी ट्रैफिक पर पाबंदी के बाद लालकिले के सामने फैले चांदनी चौक से पहाड़गंज तक के सीताराम बाजार और उससे आगे मुल्तानी ढ़ांडा व चूनामंडी तक के थोक बाजार में सामान के आवागमन का जरिया मजदूरों के कंधे व रेहड़ी ही रह गए हैं। यह काम कभी देर रात होता है तो कभी अल्लसुबह। ऐसे में उन्हीं मजदूरों को काम मिलता है जो वहां तत्काल मिल जाएं। फिर यदि काम करने वाला दुकान का शटर बंद होने के बाद वहीं चबूतरे या फुटपाथ पर सोता हो तो बात ही क्या है? मुफ्त का चौकीदार। अब सोने वाले को पैसा रखने की कोई सुरक्षित जगह तो है नहीं यानि अपनी बचत भी सेठजी के पास ही रखेगा। एक तो पूंजी जुट गई, साथ में मजदूर की जमानत भी हो गई। दिल्ली में ऐसे लोगों के लिए 64 स्थायी रैनबसेरे बना रखे हैं,जबकि 46 प्रस्तावित हैं। इनमें से 10 को दिल्ली नगर निगम और शेष 15 को गैरसरकारी संस्थाएं संचालित कर रही हैं। पिछले साल भी कड़ाके की ठंड के दौरान अस्थायी रैनबसेरों को उजाड़ने का मामला हाई कोर्ट में गया था और ऐसे 84 केंद्रों को बंद करने पर अदालत ने रोक लगा दी थी। इसके बावजूद सरकार ने इनको संचालित करने वाले एनजीओ का अनुदान बंद कर दिया यानी उन्हें बंद कर दिया। अब अदालत इस मसले पर भी सुनवाई कर रही है। इनमें से अधिकांश पुरानी दिल्ली इलाके में ही हैं। ठंड के दिनों में कुछ अस्थायी टैंट भी लगाए जाते हैं। सब कुछ मिला कर इनमें बमुश्किल दो हजार लोग आसरा पाते हैं। बाकी लोग पेट में घुटने मोड़ कर रात बिताने को मजबूर हैं। मीना बाजार व जामा मस्जिद के रैनबसेरों में सात से आठ सौ लोगों के सोने की जगह है। फिलहाल, जामा मस्जिद वाले रैनबसेरे को अवैध रूप से भारत में रह रहे बांग्लादेशियों की जेल के रूप में बदल दिया है। इन बेसहारा लेगों के नाम ना तो वोटर लिस्ट में हैं और ना ही इनके राषन कार्ड हैं, सो इनकी सुध लेने की परवाह किसी भी नेता को नहीं है। जाहिर है कि मजदूरी के भुगतान मे मालिक की धमक और शोषण को उन्हें चुपचाप नियति समझ कर सहना होता है। दिल्ली को आबाद रखने के लिए अपना खून-पसीना बहाने वाले इन लोगों में गंभीर रोग, संक्रमण, बच्चों का यौन षोशण आम बात है। आजादी के जश्न या गणतंत्र की वर्षगांठ मनाने के लिए हर साल ये लोग फुटपाथों से खदेड़े जाते हैं। यदि पुलिस पकड़ कर ले जाए तो इनमें से कई इसे अपना सौभाग्य मानते हैं। सनद रहे किसी भी संवेदनशील मौके पर पुलिस की सक्रियता का कागजी सबूत होता है, प्रतिबंधात्मक कार्यवाहियां। लावारिस या संदिग्ध हालत में घूमना यानि धारा 109, अशांति की आशंका पर 107,116, 151 के तहत कार्यवाही करने को गुडवर्क माना जाता है और ऐसे में इन बेघरों से अच्छा शिकार कौन हो सकता है। जेल, जलालत और अस्थायी रैनबसेरे इस समस्या के प्रति लापरवाही या आंखें फेर लेने से अधिक नहीं है। मानसिक रूप से अस्वस्थ या घर से भागे बच्चों का सड़कों पर लावारिस सोना-घूमना गैरकानूनी के साथ-साथ समाज के लिए खतरनाक है। कुशल कारीगरों व मेहनतकशों का मजबूरी में फुटपाथों पर सोना देश के लिए शर्मनाक है। तकलीफदेह तो यह है कि दिल्ली की कोई 40 फीसदी आबादी झुग्गियों में है, और अधिकांश झुग्गियां सरकारी जमीन पर अवैध कब्जा हैं। जाहिर है कि कभी भी उनको उजाड़ा जा सकता है।

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