My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

मंगलवार, 9 फ़रवरी 2016

Bundelkhand has forgotten animals in drought

सूखे की मार से मवेशी भी बेजार


AMAR UJALA 10-2-116
भीषण सूखे से बेहाल बुंदेलखंड का एक जिला है छतरपुर। यहां सरकारी रिकॉर्ड में 10 लाख 32 हजार चौपाए दर्ज हैं, जिनमें से सात लाख से ज्यादा तो गाय-भैंस ही हैं। तीन लाख के लगभग बकरियां हैं। चूंकि बारिश न होने के कारण कहीं घास बची नहीं है, सो अनुमान है कि इन मवेशियों के लिए हर महीने 67 लाख टन भूसे की जरूरत है। इनके लिए पीने के पानी की व्यवस्था का गणित अलग ही है। यह केवल एक जिले का हाल नहीं है, बल्कि दो राज्यों में फैले समूचे बुंदेलखंड के 13 जिलों में दूध देने वाले चौपायों की हालत भूख-प्यास से खराब है। आए रोज गांव-गांव में कई-कई दिन से चारा न मिलने या पानी न मिलने या फिर इसके कारण भड़क कर हाईवे पर आने से होने वाली दुर्घटनाओं के चलते मवेशी मर रहे हैं। आने वाले गर्मी के दिन और भी बदतर होंगे, क्योंकि तापमान भी बढ़ेगा।

सूखे की वजह से लोग काम की तलाश में शहरों की ओर भाग रहे हैं व गांव के गांव खाली हो गए हैं। गांवों में रह गए हैं बुजुर्ग या कमजोर। यहां भी किसान आत्महत्याओं की खबरें लगातार आ रही हैं। मवेशी चारे और पानी के अभाव में दम तोड़ रहे हैं। 'अन्ना प्रथा' यानी लोगों ने अपने मवेशियों को खुला छोड़ दिया है, क्योंकि चारे व पानी की व्यवस्था वह नहीं कर सकते। सैकड़ों गायों ने अपना बसेरा सड़कों पर बना लिया। इनमें कई सड़क दुर्घटना में मारी जाती हैं और कई चारे और पानी के अभाव में कमजोर होकर मर रही हैं।

वैसे तो बुंदेलखंड सदियों से तीन साल में एक बार अल्पवर्षा का शिकार रहा है। यहां से रोजगार के लिए पलायन की परंपरा भी एक सदी से ज्यादा पुरानी है, लेकिन दुधारू मवेशियों को मजबूरी में छुट्टा छोड़े देने का रोग अभी कुछ दशक से ही है। 'अन्ना प्रथा' यानी दूध न देने वाले मवेशी को आवारा छोड़ देने के चलते यहां खेत और इंसान दोनों पर संकट है। उरई, झांसी आदि जिलों में कई ऐसे किसान हैं, जिनके पास अपने जल साधन हैं, लेकिन वे अन्ना पशुओं के कारण बुवाई नहीं कर पाए। जब फसल कुछ हरी होती है, तो अचानक ही अन्ना गायों का रेवड़ आता है और फसल चट कर जाता है। बुंदेलखंड में एक करोड़ से ज्यादा चैपाए मुसीबत बन रहे हैं और उनका पेट भरना भी मुसीबत बन गया है।

यहां यह जानना जरूरी है कि अभी चार दशक पहले तक बुंदेलखंड के हर गांव में चारागाह की जमीन होती थी। शायद ही कोई ऐसा गांव या मजरा होगा, जहां कम से कम एक तालाब और कई कुंए नहीं हों। जंगल का फैलाव पचास फीसदी तक था। आधुनिकता की आंधी में बहकर लोगों ने चारागाह को अपना ‘चारागाह’ बना लिया व हड़प गए। तालाबों की जमीन समतल कर या फिर घर की नाली व गंदगी उसमें गिराकर उनका अस्तित्व खत्म कर दिया। हैंडपंप या ट्यूबवेल की मृग-मरीचिका में कुओं को बिसरा दिया गया। जंगलों की ऐसी कटाई हुई कि अब बुंदेलखंड में अंतिम संस्कार तक के लिए लकड़ी नहीं बची है, जिसके कारण वन विभाग के डिपो तीन सौ किलोमीटर दूर से लकड़ी मंगवा रहे हैं। जो कुछ जंगल बचे हैं, वहां मवेशी के चरने पर रोक है। कुल मिलाकर देखें, तो बंुदेलखंड के बाशिंदों ने खुद ही अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी और अब इसका खामियाजा इंसान ही नहीं, मवेशी भी भुगत रहे हैं।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Have to get into the habit of holding water

  पानी को पकडने की आदत डालना होगी पंकज चतुर्वेदी इस बार भी अनुमान है कि मानसून की कृपा देश   पर बनी रहेगी , ऐसा बीते दो साल भी हुआ उसके ...