My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

शनिवार, 12 मार्च 2016

पुस्‍तक समीक्षा सौंदर्य की नदी नर्मदा

नर्मदा की कहानी सहयात्री के शब्द

नर्मदा की कहानी सहयात्री के शब्द [1]


. उन्होंने नर्मदा नदी के किनारे-किनारे पूरे चार हजार किलोमीटर की यात्रा पैदल कर डाली। कोई साथ मिला तो ठीक, ना मिला तो अकेले ही। कहीं जगह मिली तो सो लिये, कहीं अन्न मिला तो पेट भर लिया। सब कुछ बेहद मौन, चुपचाप और जब उस यात्रा से संस्मरण शब्द और रेखांकनों के द्वारा सामने आये तो नर्मदा का सम्पूर्ण स्वरूप निखरकर सामने आ गया। अमृतलाल वेगड़ अब लगभग 85 साल के हो रहे हैं लेकिन नर्मदा के हर कण को समझने, सहेजने और सँवारने की उत्कंठा अभी भी युवा है। उन्होंने अपनी यात्रा के सम्पूर्ण वृतान्त को तीन पुस्तकों में लिखा। पहली पुस्तक ‘सौन्दर्य की नदी नर्मदा’ 1992 में आई थी और अभी तक इसके आठ संस्करण बिक चुके हैं। श्री वेगड़ अपनी इस पुस्तक का प्रारम्भ करते हैं - “कभी-कभी मैं अपने-आप से पूछता हूँ, यह जोखिम भरी यात्रा मैंने क्यों की? और हर बार मेरा उत्तर होता, अगर मैं यात्रा न करता, तो मेरा जीवन व्यर्थ जाता। जो जिस काम के लिये बना हो, उसे वह काम करना ही चाहिए और मैं नर्मदा की पदयात्रा के लिये बना हूँ।’’

श्री वेगड़ ने अपनी पहली यात्रा सन 1977 में शुरू की थी जब वे कोई 50 साल के थे और अन्तिम यात्रा 1987 में । इन ग्यारह सालों की दस यात्राओं का विवरण इस पुस्तक में है। लेखक अपनी यात्रा में केवल लोक या नदी के बहाव का सौन्दर्य ही नहीं देखते, बरगी बाँध, इंदिरा सागर बाँध, सरदार सरोवर आदि के कारण आ रहे बदलाव, विस्थापन की भी चर्चा करते हैं।

नर्मदा के एक छोर से दूसरे छोर का सफर 1312 किलोमीटर लम्बा है। यानी पूरे 2614 किलोमीटर लम्बी परिक्रमा। कायदे से करें तो तीन साल, तीन महीने और 13 दिन में परिक्रमा पूरी करने का विधान है। जाहिर है इतने लम्बे सफर में कितनी ही कहानियाँ, कितने ही दृश्य, कितने ही अनुभव सहेजता चलता है यात्री और वो यात्री अगर चित्रकार हो, कथाकार भी तो यात्राओं के स्वाद को सिर्फ अपने तक सीमित नहीं रखता।

श्री वेगड़ मूल रूप से चित्रकार हैं और उन्होंने गुरू रवीन्द्रनाथ टैगोर के शान्ति निकेतन से 1948 से 1953 के बीच कला की शिक्षा ली थी, फिर जबलपुर के एक कॉलेज में चित्रकला के अध्यापन का काम किया। तभी उनके यात्रा वृतान्त में इस बात की बारिकी से ध्यान रखा गया है कि पाठक जब शब्द बाँचे तो उसके मन-मस्तिष्क में एक सजीव चित्र उभरे। जैसे कि नदी के अर्धचन्द्राकार घुमाव को देखकर लेखक लिखते हैं, ‘‘मंडला मानो नर्मदा के कर्ण-कुण्डल में बसा है।’’ उनके भावों में यह भी ध्यान रखा जाता रहा है कि जो बात चित्रों में कही गई है उसकी पुनरावृति शब्दों में ना हो, बल्कि चित्र उन शब्दों के भाव-विस्तार का काम करें। वे अपने भावों को इतनी सहजता से प्रस्तुत करते हैं कि पाठक उनका सहयात्री बन जाता है। लेखक ने ‘छिनगाँव से अमरकंटक’ अध्याय में ये उदगार तब व्यक्त किये जब यात्रा के दौरान दीपावली के दिन वे एक गाँव में ही थे।

‘‘आखिर मुझसे रहा नहीं गया। एक स्त्री से एक दीया माँग लिया और अपने हाथ से जलाकर कुण्ड में छोड़ दिया। फिर मन-ही-मन बोला, ‘माँ, नर्मदे, तेरी पूजा में एक दीप जलाया है। बदले में तू भी एक दीप जलाना-मेरे हृदय में। बड़ा अन्धेरा है वहाँ, किसी तरह जाता नहीं। तू दीप जला दे, तो दूर हो जाये। इतनी भिक्षा माँगता हूं। तो दीप जलाना, भला?’’ एक संवाद नदी के साथ और साथ-ही-साथ पाठक के साथ भी।

इस पुस्तक की सबसे बड़ी बात यह है कि यह महज जलधारा की बात नहीं करती, उसके साथ जीवन पाते जीव, वनस्पति, प्रकृति, खेत, पंक्षी, इंसान सभी को इसमें गूँथा गया है और बताया गया है कि किस तरह नदी महज एक जल संसाधन नहीं, बल्कि मनुष्य के जीवन से मृत्यु तक का मूल आधार है। इसकी रेत भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है जितनी जल धारा और इसमें मछली भी उतनी ही अनिवार्य है जितना उसके तट पर आने वाले मवेशियों के खुरों से धरती का मंथना।

अध्याय 13 में वे लिखते हैं - ‘‘नर्मदा तट के छोटे-से-छोटे तृण और छोटे-से-छोटे कण न जाने कितने परव्राजकों, ऋषि-मुनियों और साधु-सन्तों की पदधूलि से पावन हुए होंगे। यहाँ के वनों में अनगिनत ऋषियों के आलम रहे होंगे। वहाँ उन्होंने धर्म पर विचार किया होगा, जीवन मूल्यों की खोज की होगी और संस्कृति का उजाला फैलाया होगा। हमारी संस्कृति आरण्यक संस्कृति रही। लेकिन अब? हमने उन पावन वनों को काट डाला है और पशु-पक्षियों को खदेड़ दिया है या मार डाला है। धरती के साथ यह कैसा विश्वासघात है।’’

श्री वेगड़ कहते हैं कि यह उनका नर्मदा को समझने-समझाने की ईमानदार कोशिश की है और वे कामना करते हैं कि सर्वस्व दूसरों पर लुटाती ऐसी ही कोई नदी हमारे सीनों में बह सके तो नष्ट होती हमारी सभ्यता-संस्कृति शायद बच सके। नगरों में सभ्यता तो है लेकिन संस्कृति गाँव और गरीबों में ही थोड़ी बहुत बची रह गई है।

इस पुस्तक को पढ़ने के बाद नर्मदा को समझने की नई दृष्टि तो मिलती ही है, लेखक की अन्य दो पुस्तकों को पढ़ने की उत्कंठा भी जागृत होती है।

सौन्दर्य की नदी नर्मदा, लेखक - अमृतलाल वेगड़,
प्रकाशन - मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी, भोपाल,
पृ. - 198
मूल्य - 70.00

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Do not burn dry leaves

  न जलाएं सूखी पत्तियां पंकज चतुर्वेदी जो समाज अभी कुछ महीनों पहले हवा की गुणवत्ता खराब होने के लिए हरियाणा-पंजाब के किसानों को पराली जल...