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बुधवार, 9 मार्च 2016

Traditional water tanks must be restore in there original shape and capicity




राजनीतिः तालाबों को बचाने की खातिर



तालाब कहीं कब्जे से, कहीं गंदगी से तो कहीं तकनीकी ज्ञान के अभाव से सूख रहे है। कहीं तालाबों को गैर-जरूरी मानकर समेटा जा रहा है तो कहीं ताकतवरों का कब्जा है। ऐसे कई मसले हैं जो अलग-अलग विभागों व मदों में बंट कर उलझे हुए हैं। इतने बड़े प्राकृतिक संसाधन के संरक्षण के लिए स्वतंत्र, अधिकार-संपन्न प्राधिकरण जरूरी है।



जमीन की नमी बरकरार रखनी हो या फिर भूजल का स्तर या फिर धरती के बढ़ते तापमान पर नियंत्रण, तालाब या झील ही ऐसी पारंपरिक संरचनाएं हैं जो बगैर किसी खास खर्च के यह सब काम करती हैं। यह दुखद है कि आधुनिकता की आंधी में तालाब को सरकार की भाषा में जल संसाधनमाना नहीं जाता है, वहीं समाज और सरकार ने उसे जमीन का संसाधन मान लिया। देश भर के तालाब अलग-अलग महकमोें में बंटे हुए हैं। जब जिसे सड़क, कॉलोनी, मॉल, जिसके लिए भी जमीन की जरूरत हुई, तालाब को पूरा व समतल बना लिया। आज शहरों में आ रही बाढ़ हो या फिर पानी का संकट, सभी के पीछे तालाबों की बेपरवाही ही मूल कारण है। इसके बावजूद पारंपरिक तालाबों को सहेजने की कोई साझी योजना नहीं है।
एक आंकड़े के अनुसार, मुल्क में आजादी के समय लगभग चौबीस लाख तालाब थे। बरसात का पानी इन तालाबों में इकट्ठा हो जाता था, जो भूजल स्तर को बनाए रखने के लिए बहुत जरूरी होता था। अकेले मद्रास प्रेसीडेंसी में ही पचास हजार और मैसूर राज्य में उनतालीस हजार तालाब होने की बात अंग्रेजों का राजस्व रिकार्ड दर्शाता है। दुखद है कि अब हमारी तालाब-संपदा अस्सी हजार पर सिमट गई है। उत्तर प्रदेश के पीलीभीत, लखीमपुर और बरेली जिलों में आजादी के समय लगभग एक सौ अस्सी तालाब हुआ करते थे। उनमें से अब बीस से तीस तालाब ही बचे हैं। जो बचे हैं, उनमें पानी की मात्रा न के बराबर है।
राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में अंगरेजों के जमाने में लगभग पांच सौ तालाबों के होने का जिक्र मिलता है, लेकिन कथित विकास ने इन तालाबों को लगभग समाप्त ही कर दिया। देश भर में फैले तालाबों, बावड़ियों और पोखरों की सन 2000-01 में गिनती की गई थी। देश में इस तरह के जलाशयों की संख्या साढेÞ पांच लाख से ज्यादा है, इनमें से करीब 4 लाख 70 हजार जलाशय किसी न किसी रूप में इस्तेमाल हो रहे हैं, जबकि करीब पंद्रह प्रतिशत बेकार पड़े हैं। यानी आजादी के बाद के तिरपन सालों में हमारा समाज कोई बीस लाख तालाब चट कर गया। बीस लाख तालाब बनवाने का खर्च आज बीस लाख करोड़ से कम नहीं होगा।
साल भर प्यास से कराहने वाले बुंदेलखंड के छतरपुर शहर के किशोर सागर का मसला बानगी है कि तालाबों के प्रति सरकार का रुख कितना कोताही भरा है। कोई डेढ़ साल पहले एनजीटी (राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण) के भोपाल खंडपीठ ने सख्त आदेश दिया कि इस तालाब पर कब्जा कर बनाए गए सभी निर्माण हटाए जाएं। अभी तक प्रशासन मापजोख नहीं कर पाया है कि कहां से कहां तक व कितने अतिक्रमण को तोड़ा जाए। गाजियाबाद में पारंपरिक तालाबों को बचाने के लिए एनजीटी के कई आदेश लाल बस्तों में धूल खा रहे हैं। तभी जरूरत महसूस हो रही है कि पूरे देश में तालाब संवर्धन के लिए सर्व अधिकार संपन्न ऐसे प्राधिकरण का गठन किया जाए जो तालाबों की माप, स्थिति का सर्वेक्षण कर उनके रखरखाव का तो ध्यान रखे ही, उसके पास उच्च न्यायालय स्तर के ऐसे अधिकार हों जो तालाबों पर कब्जे की हर कोशिश को कड़ाई से रोक सकें।
दसवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान 2005 में केंद्र सरकार ने जलाशयों की मरम्मत, नवीकरण और जीर्णोद्धार (आरआरआर) के लिए योजना बनाई। ग्यारहवीं योजना में काम शुरू भी हो गया, योजना के अनुसार राज्य सरकारों को योजना को अमली जामा पहनाना था। इसके लिए कुछ धन केंद्र सरकार की तरफ से और कुछ विश्व बैंक जैसी संस्थाओं से मिलना था। इस योजना के तहत इन जलाशयों की क्षमता बढ़ाना, सामुदायिक स्तर पर बुनियादी ढांचे का विकास करना था। गांव ,ब्लाक, जिला व राज्य स्तर पर योजना को लागू किया गया है। हर स्तर पर तकनीकी सलाहकार समिति का गठन किया जाना था।
केंद्रीय जल आयोग और केंद्रीय भूजल बोर्ड को इस योजना को तकनीकी सहयोग देने का जिम्मा दिया गया, जबकि निरीक्षण का काम जल संसाधन मंत्रालय कर रहा है। बस खटका वही है कि तालाब का काम करने वाले दीगर महकमे तालाब तो तैयार कर रहे हैं, लेकिन तालाब को तालाब के लिए नहीं। मछली वाले को मछली चाहिए तो सिंचाई वाले को खेत तक पानी। जबकि तालाब पर्यावरण, जल, मिट््टी, जीवकोपार्जन की एक एकीकृत व्यवस्था है और इसे अलग-अलग आंकना ही बड़ी भूल है। एक प्राधिकरण ही इस काम को सही तरीके से संभाल सकता है।
समाज को एक बार फिर बीती बात बन चुके जल-स्रोतों की ओर जाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है- तालाब, कुएं, बावड़ी। लेकिन एक बार फिर पीढ़ियों का अंतर सामने खड़ा है, पारंपरिक तालाबों की देखभाल करने वाले लोग किसी और काम में लग गए और अब तालाब सहेजने की तकनीक नदारद हो गई है। यही नहीं, सरकार का भी कोई एक महकमा मुकम्मल नहीं है जो सिमटते तालाबों के दर्द का इलाज कर सके। तालाब कहीं कब्जे से तो कहीं गंदगी से तो कहीं तकनीकी ज्ञान के अभाव से सूख रहे है। कहीं तालाबों को जान-बूझ कर गैर-जरूरी मान कर समेटा जा रहा है तो कहीं ताकतवरों का कब्जा है।
ऐसे कई मसले हैं जो अलग-अलग विभागों, मंत्रालयों, मदों में बंट कर उलझे हुए हैं। देश के इतने बड़े प्राकृतिक संसाधन, जिसकी कीमत खरबों-खरब रुपए है, के संरक्षण के लिए एक स्वतंत्र, अधिकार-संपन्न प्राधिकरण जरूरी है।
तालाब केवल इसलिए जरूरी नहीं हैं कि वे पारंपरिक जल-स्रोत हैं। तालाब पानी सहेजते हैं, भूजल का स्तर बनाए रखते हैं, धरती के बढ़ रहे तापमान को नियंत्रित करने में मदद करते हैं और उससे बहुत-से लोगों को रोजगार मिलता है।
सन 1944 में गठित अकाल जांच आयोग ने साफ निर्देश दिए थे कि आने वाले सालों में संभावित पेयजल संकट से जूझने के लिए तालाब ही कारगर होंगे। आयोग की रिपोर्ट तो लाल बस्ते में कहीं दब गई। आजादी के बाद इन पुश्तैनी तालाबों की देखरेख करना तो दूर, उनकी दुर्दशा करना शुरू कर दिया। चाहे कालाहांडी हो या फिर बुंदेलखंड या फिर तेलंगाना; देश के जल-संकट वाले सभी इलाकों की कहानी एक ही है। इन सभी इलाकों में एक सदी पहले तक कई-कई सौ बेहतरीन तालाब होते थे। यहां के तालाब केवल लोगों की प्यास ही नहीं बुझाते थे, यहां की अर्थव्यवस्था का मूल आधार भी होते थे। मछली, कमलगट्टा, सिंघाड़ा, कुम्हार के लिए चिकनी मिट्टी; यहां के हजारों-हजार घरों के लिए खाना उगाहते रहे हैं। तालाबों का पानी यहां के कुओं का जल-स्तर बनाए रखने में सहायक होता था।
शहरीकरण की चपेट में लोग तालाबों को ही पी गए और अब उनके पास पीने के लिए कुछ नहीं बचा है। इंटरनेशनल क्राप्स रिसर्च इंस्टीटयूट फॉर द सेडिएरीडट्रापिक्स के विशेषज्ञ बोन एप्पन और सुब्बाराव का कहना है कि तालाबों से सिंचाई करना आर्थिक दृष्टि से लाभदायक तथा अधिक उत्पादकहोता है। उनका सुझाव है कि पुराने तालाबों के संरक्षण और नए तालाब बनाने के लिएभारतीय तालाब प्राधिकरणगठित किया जाए। पूर्व कृषि आयुक्त बीआर भंबूला का मानना है कि जिन इलाकों में सालाना बारिश का औसत 750 से 1150 मिमि है, वहां नहरों की अपेक्षा तालाब से सिंचाई अधिक लाभप्रद होती है।
असल में तालाबों पर कब्जा करना इसलिए आसान है कि पूरे देश के तालाब अलग-अलग महकमों के पास हैं- राजस्व विभाग, वन विभाग, पंचायत, मछली पालन, सिंचाई, स्थानीय निकाय, पर्यटनशायद और भी बहुत कुछ हों। कहने की जरूरत नहीं कि तालाबों को हड़पने की प्रक्रिया में स्थानीय असरदार लोगों और सरकारी कर्मचारियों की भूमिका होती ही है। अभी तालाबों के कई सौ मामले राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण के पास हैं। और चूंकि तालाबों के बारे में जानकारी देने का जिम्मा उसी विभाग के पास होता है, जिसकी मिलीभगत से उसकी दुर्गति होती है, सो हर जगह लीपापोती होती रहती है। आज जिस तरह जल संकट गहराता जा रहा है, जिस तरह सिंचाई व पेयजल की अरबों रुपए वाली योजनाएं पूरी तरह सफल नहीं रही हैं, तालाबों का सही इस्तेमाल कम लागत में बड़े परिणाम दे सकता है।
हकीकत में तालाबों की सफाई और गहराकरण अधिक खर्चीला काम नहीं है, न ही इसके लिए भारी-भरकम मशीनों की जरूरत होती है। यह सर्वविदित है कि तालाबों में भरी गाद, सालों-साल से सड़ रही पत्तियों और अन्य अपशिष्ट पदार्थों के कारण ही उपजी है, जो उम्दा दर्जे की खाद है। रासायनिक खादों ने किस कदर जमीन को चौपट किया है यह किसान जान चुके हैं और उनका रुख अब कंपोस्ट व अन्य देसी खादों की ओर है। किसानों को यदि इस खादरूपी कीचड़ की खुदाई का जिम्मा सौंपा जाए तो वे वे सहर्ष राजी हो जाते हैं।
यदि जल संकटग्रस्त इलाकों के सभी तालाबों को मौजूदा हालात में भी बचा लिया जाए तो वहां के हर इंच खेत को तर सिंचाई, हर कंठ को पानी और हजारों हाथों को रोजगार मिल सकता है। एक बार मरम्मत होने के बाद तालाबों के रखरखाव का काम समाज को सौंपा जाए। इसमें महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों, मछलीपालन सहकारी समितियों, पंचायतों, गांवों की जल बिरादरी को शामिल किया जाए। बिना समाज के सहयोग के और बिना इसका विकेंद्रित ढांचा खड़ा किए, तालाबों को नहीं बचाया जा सकता। असल में जब तालाबों की कारगर व्यवस्था थी, तो उसका यही स्वरूप था। आज उसे नए संदर्भ में पुनर्जीवित करने की जरूरत है।

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