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शुक्रवार, 27 मई 2016

Society needs to change attitude towards women, which can not be done by any law

निर्भया के बाद भी नहीं गई निराशा

                                                                                                                     पंकज चतुर्वेदी

निर्भया की मौत के बाद हुए देशव्यापी आंदोलन व नाबालिग बच्चों से दुष्कर्म के लिए बनाए गए विशेष सख्त कानून में कई मुकदमे दर्ज हो चुके हैं। पूरे देश में यह बात पहुंच चुकी है कि निर्भया कांड के एक नाबालिग आरोपी को छोड़कर बाकी सभी आरोपियों को फांसी की सजा सुनाई जा चुकी है। निर्भया कांड से उपजे जनाक्रोश को कुछ लोग भले ही सत्ता की सीढ़ी में बदलने मंे सफल रहे हों, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि न तो औरतों के प्रति समाज का नजरिया बदला है और न ही कानून की धार...



दिल्ली के ओखला से गत 17 मार्च को एक 15 साल की किशोरी का कुछ बदमाशों ने अपरहण किया, अप्रैल में पुलिस ने उसे बरामद भी किया। पुलिस ने इसे अपरहण के बजाय जबरन शादी का मामला बता दिया। जांच के नाम पर उससे ऐसी पूछताछ हुई कि उसने खुदकुशी करना ही बेहतर समझा। केरल के पेरूक्वाबूर में बीते 28 अप्रैल को जीशा की लाश मिली तो चार साल पहले का दिल्ली के निर्भया कांड की नृशंसता की टीस ताजा हो गई। हालांकि केरल दिल्ली से बहुत दूर है, लेकिन वहां विधानसभा चुनाव हो रहे थे, सो जीशा को लेकर खूब सियासत हुई। 27 साल की बेहद गरीब, दलित जीशा कानून की पढा़ई कर रही थी और बलात्कार के बाद उसे 38 बार चाकू से गोदा गया था, उसकी आंतें सड़क पर पड़ी थीं। उससे एक महीने पहले राजस्थान के बीकानेर जिले के नोखा फरीदाबाद में एक टीवी पत्रकार ने पांचवीं मंजिल से कूद कर आत्महत्या कर ली और इस मामले में एक दरोगा को आत्महत्या के लिए उकसाने के लिए गिरफ्तार किया गया है। दिल्ली के पॉश इलाके वसंत कुंज में ब्यूटी पार्लर चलाने वाली एक लड़की ने आएरोज होने वाली छेड़छाड़ से तंग आ कर बीती 10 मई को अपने किशनगढ़ स्थित मकान में पंखे से लटक कर आत्महत्या कर ली।
 दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालवाल बीते दिनों दिल्ली के रैनबसेरों का हाल जानने पहुंचीं तो उन्हें पता चला कि वहां तैनात अधेड़ उम्र के मर्द आठ से बारह साल की बच्चियों के शरीर को गलत तरीके से छूते हैं। ये तो कुछ महज वे घटनाएं हैं, जिनकी चर्चा मीडिया में खूब हुई। पूरे देश में ऐसी घटनाओं से अखबार पटे होते हैं, अब तो हमें याद रखना भी बंद कर दिया है कि बलात्कार या छेड़खानी से हताश किन लड़कियों ने कब और कहां मौत को गले लगा लिया। यह तब हो रहा है जब निर्भया की मौत के बाद हुए देशव्यापी आंदोलन व नाबालिक बच्चों से दुष्कर्म के लिए बनाए गए विशेष सख्त कानून में कई मुकदमे दर्ज हो चुके हैं। पूरे देश में यह बात पहुंच चुकी है कि निर्भया कांड के एक नाबालिग आरोपी को छोड़ कर बाकी सभी आरोपियों को फांसी की सजा सुनाई जा चुकी है। निर्भया कांड से उपजे जनाक्रोश को कुछ लोग भले ही सत्ता की सीढ़ी में बदलने मंे सफल रहे हों, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि न तो औरतों के प्रति समाज का नजरिया बदला है और न ही कानून की धार। हालांकि, निर्भया वाले कांड में न्याय तो हो चुका है, अपराधियों को फांसी पर चढ़ाने की विधिसम्मत प्रक्रिया यानी अपील आदि भी चल रही है। कथित नाबालिक आरोपी कानून के मुताबिक, सजा काट कर कहीं गुमनामी में है। सन् 2012 यानी जिस साल निर्भया कांड हुआ, उस साल पूरे देश में दुष्कर्म के 24,923 मामले दर्ज किए गए थे। 2015 में ये अपराध 28.7 प्रतिशत ज्यादा यानी 32,077 दर्ज किए गए। यही नहीं, 2011 में ऐसे मामलों में अपराधियों की दोषसिद्धी की दर 26.4 प्रतिशत थी, जो 2013 में 27.1 और वर्तमान में 28 प्रतिशत ही हो पाई है।
 ये आंकड़े बानगी हैं कि भले ही कानून बदला, खूब बहस हुई, परंतु अभी भी समाज के जिम्मेदार हिस्से का ‘माईंड सेट’ औरतों के प्रति बदला नहीं है व मांग, मोमबत्ती और नारे उछालने वाले असल में इस आड़ में अपनी रोटी सेंक रहे हैं। ये वही लेाग हैं, जो छत्तीसगढ़ में सोनी सोरी या मीना खल्को या ऐसे ही सैकड़ों मामलों में पुलिस द्वारा औरतों के साथ किए गए पाशविक व्यवहार पर केवल इसलिए चुप रहते हैं, क्योंकि वहां उनकी विचारधारा का राज है। कोई साढ़े तीन साल पहले दिल्ली व देश के कई हिस्सों में उस अनाम अंजान ‘दामिनी’ के लिए खड़ा हुआ आंदोलन, आक्रोश, नफरत सभी कुछ विस्मृत हो चुका है। अभी दिल्ली के ईद-गिर्द एक महीने में ही जो कुछ हो गया, उस पर महज कुछ सियासी तीरबाजी या स्थानीय गरीब लोगों द्वारा गुस्से का इजहार, कहीं न कहीं इस बात पर तो सवाल खड़े करता ही है कि कहीं विरोध एक नियोजित एकांकी होता है, जिसके मंचन के पात्र, संवाद, मीडिया आदि सभी कुछ कहीं बुनी जाती है और उसके निर्देशक महज सत्ता तक पहंुचने के लिए बच्चियों के साथ वहशियाना व्यवहार को मौके की तरह इस्तेमाल करते हैं। या फिर जंतर-मंतर पर प्रज्ज्वलित होने वाली मोमबत्तियां केवल उन्हीं लोेगों का झकझोर पा रही हैं, जो पहले से काफी कुछ संवदेनशील हैं। समाज का वह वर्ग, जिसे इस समस्या को समझना चाहिए, अपने पुराने रंग में ही है, इसमें आम लोग हैं, पुलिस भी है और समूचा तंत्र भी। दिल्ली में दामिनी की घटना के बाद हुए देशभर के धरना-प्रदर्शनों में शायद करोड़ों मोमबत्तियां जलकर धुआं हो गई हों, संसद ने नाबालिग बच्चियों के साथ छेड़छाड़ पर कड़ा कानून भी पास कर दिया हो, निर्भया के नाम पर योजनाएं भी हैं, लेकिन समाज के बड़े वर्ग पर दिलोदिमाग पर औरत के साथ हुए दुर्व्यवहार को ले कर जमी भ्रांतियों की कालिख दूर नहीं हो पा रही है। ग्रामीण समाज में आज भी औरत पर काबू रखना, उसे अपने इशारे पर नचाना, बदला लेने, अपना आतंक बरकरार रखने के तरीके आदि में औरत के शरीर को रौंदना एक अपराध नहीं, बल्कि मर्दानगी से जोड़ कर ही देखा जाता है। केवल कुंठा दूर करने या दिमागी परेशानियों से ग्रस्त पुरुष का औरत के शरीर पर बलात हमला महज महिला की अस्मत या इज्जत से जोड़कर देखा जाता है। फांसी की मांग, नपुंसक बनाने का शोर, सरकार को झुकाने का जोर, सबकुछ अपनी जगह लाजिमी हैं, लेकिन जब तक बलात्कार को केवल औरतों की समस्या समझ कर उसपर विचार किया जाएगा, जब तक औरत को समाज की समूची इकाई न मान कर उसके विमर्श पर नीतियां बनाई जाएंगी, परिणाम अधूरे ही रहेंगे। आज भी हमारे देश में किसी को प्रताड़ित करने या किसी के प्रति अपना गुस्सा जताने का सबसे भदेस, लोकप्रिय, सर्वव्यापी, सहज, बेरोकटोक, बगैर किसी कानूनी अड़चन वाला तरीका है- विरोधी की मां और बहन के साथ अपने शारीरिक संबंध स्थापित करने वाली गाली देना। अब तो यह युवाओं का तकियाकलाम सा बनता जा रहा है। आज भी टीवी पर खबरिया चैनलों से ले कर सास-बहू वाले सीरियलों वाले चैनल तक ऐसे विज्ञापन चल रहे हैं जिसमें औरत के शरीर को जितनी गहराई तक देखा जा सके, दिखा कर माल बेचा जा रहा है। आज भी देश में हर रोज करोड़ों चुटकुले, एमएएस क्लीप और वीडियो फुटेज बेचे, खरीदे, शेयर किए जा रहे हैं, जो औरत के कामुक शरीर से संबंधित होते हैं। अकेले फेसबुक पर ही ‘भाभी’ और ‘आंटी’ जैसे पवित्र रिश्ते के नाम पर कोई एक दर्जन पेज हैं, जो केवल नंगापन और अश्लीलता परोस रहे हैं। अखबारों के क्लासीफाइड मसाज, एस्कार्ट के विज्ञापनों से भरे पड़े हैं, जिनके बारे में सभी को पता है कि वे क्या हैं। मामला दिल्ली का हो या फिर बस्तर का, सभी जगह पुलिस का रवैया वैसा ही है, मामले को दबाने, हल्का करने, कुछ छिपाने का प्रयास करने का। जब तक सार्वजनिक रूप से मां-बहन की गाली बकना, धूम्रपान की ही तरह प्रतिबंधित करने जैसे आधारभूत कदम नहीं उठाए जाते, अपने अहम की तुष्टि के लिए औरत के शरीर का विमर्श सहज मानने की मानवीय वृत्ति पर अंकुश नहीं लगाया जा सकेगा। भले ही जस्टिस वर्मा कमेटी सुझाव दे दे, महिला हेल्पलाइन शुरू हो जाए, एक तरफ से कानून और दूसरी ओर से समाज के नजरिए में बदलाव की कोशिश एकसाथ किए बगैर असामनता, कुंठा, असंतुष्टि वाले समाज से ‘रंगा-बिल्ला’ या ‘राम सिंह-मुकेश’ की पैदाइश को रोका नहीं जा सकेगा।

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