My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

शनिवार, 30 जुलाई 2016

Premchand : successful writer , fail on celluloid

मुंशी प्रेमचंद - आज है 135वीं जयंती

कृतियां सफल मगर फिल्में नहीं



साहित्य के भावों की जो उच्चता, भाषा की प्रौढ़ता और स्पष्टता, सुंदरता की जो साधना होती है, वह हमें सिनेमा में नहीं मिलती। -प्रेमचंद



 बीते तीन दशकों के टेलीविजन युग ने एक बात सिद्ध कर दी है कि यदि साहित्यिक कृतियों को थोड़ी मेहनत व गंभीरता से कैमरे में उतारा जाए तो न वे केवल लोकप्रिय होती हैं, बल्कि दर्शकों की पठन जिज्ञासा को भी बढ़ाती हैं। कुछ महान साहित्यकार ऐसे होते हैं, जिनकी रचनाएं अपने समय के साहित्य को तो प्रभावित करती ही हैं, अपितु वे आनेवाले समय के लिए भी पदचिन्ह छोड़ जाती हैं। भारतीय कथा लेखन जगत में जब प्रेमचंद का प्रवेश हुआ था, तब जीवन के यथार्थ से परे कल्पना लोक में विचर रही तिलिस्मी और जासूसी कहानियों/उपन्यासों का चरचराटा था। धनपत राय उर्फ नवाबराय इलाहाबादी उर्फ मुंशी प्रेमचंद ने साहित्य में दुख-दर्द, खुशी-गमी जैसी अनुभूतियों के रंग पहले उर्दू और फिर हिंदी में भरे। वे अपनी रचनाओं को किसान-मजदूर, ग्रामीण-शहरी, अमीर-गरीब के निजी अनुभवों से खींच कर लाए। तत्कालीन राजनीतिक विचारधाराओं, सामाजिक पाखंडों, स्वतंत्रता आंदोलन की जीवंत तस्वीर उनके कथा साहित्य में थी। अपने 56 साल के जीवन काल में उन्होंने कई विश्वस्तरीय उपन्यास, कथा संग्रह, नाटक, निबंध रचे।
उन्होंने तीन चर्चित पत्रों का संपादन भी किया। जिन दिनों प्रेमचंद की साहित्य साधना चरम पर थी, तब भारत में चित्रपट यानी सिनेमा की लोकप्रियता का भी शुरुआती दौर था। तब की फिल्में स्टंट या कैमरा ट्रिक के कारण नहीं चलती थीं, बल्कि सशक्त पटकथा उनकी सफलता की वजह हुआ करती थी। इसके बावजूद 1934 में उनकी कहानी पर बनी पहली फिल्म से लेकर 1978 में बनी शतरंज के खिलाड़ी तक गिनी-चुनी फिल्में ही दर्शकों को भा सकीं। वैसे प्रेमचंद ने स्वयं इस असफलता का दोष फिल्म निर्माताओं को दिया था, जिन्होंने फिल्मांकन के दौरान उनकी कहानी का कचूमर निकाल दिया था।सन् 1931 में बोलता सिनेमा शुरू हुआ और 1933 में प्रेमचंद ने बंबई का रुख किया। प्रेमचंद ने मिल मजदूरों पर केंद्रित एक कहानी लिखी, फिर उसके संवाद भी लिखे, यहां तक कि एक छोटा-सा रोल भी किया। मोहन भावनानी के अजंता सिनेटोन के बैनर तले बनी इस फिल्म में पहले तो निर्माता ने खूब बदलाव किए, फिर ब्रितानी सेंसर ने बहुत कुछ उड़ा दिया। उसके बाद भी फिल्म को बंबई में प्रदर्शन की इजाजत नहीं मिली। लेकिन पंजाब के लाहौर में इसकोे देखने को भीड़ उमड़ी तो कई जगह इससे प्रेरित होकर मजदूरों के विद्रोह हो गए। उसके बाद सरकार ने फिल्म को पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया। बाद में प्रेमचंद ने यह फिल्म बनारस में देखी तो वे बड़े दुखी हुए। उनकी कहानी का हुलिया ही बदल दिया गया था। तभी प्रेमचंद को फिल्मों की दुनिया जमी नहीं और वे मई, 1934 में अजंता सिनेटोन में फिल्मी लेखक के रूप में अनुबंधित होने के बावजूद 1935 में ही मुंबई छोड़कर बनारस वापस आ गए। इसके अगले ही साल सन् 1936 में उनका निधन हो गया। हालांकि इसके ठोस आंकड़े तो मौजूद नहीं हैं, लेकिन यह दावा है कि प्रेमचंद हिंदी में सबसे ज्यादा बिकने वाले लेखक हैं। लेकिन उनके देहावसान के बाद भी उनकी सफल कहानियों पर फिल्में बनती रहीं और लगभग सभी को असफलता का मुंह देखना पड़ा। प्रेमचंद के मुंबई प्रवास में एक फिल्म ‘नवजीवन’ बनी, जिसमें प्रेमचंद का मात्र नाम भर था और कहानी में भरसक परिवर्तन कर दिया गया था। 1934 में ही उनकी कृति ‘सेवा सदन’ पर इसी नाम से
एक फिल्म महालक्ष्मी सिनेटोन के झंडे तले बनी, पर इस फिल्म को देखकर खुद प्रेमचंद हक्के-बक्के रह गए कि यह उनकी ही लिखी कहानी है या किसी और की। वेश्याओं के जीवन सुधार की पृष्ठभूमि पर बनी यह फिल्म विशुद्ध फिल्मी फार्मूले में पेश की गई थी, जिसमें वेश्या-जीवन की कथा तो थी, पर वह नाच-गाने तक ही सीमित रह गई थी। कृति के मुख्य संदेश-वेश्या भी संवेदनशील प्राणी है। उसकी भी मानवीय भावनाएं हैं’ से यह फिल्म कोसों दूर थी। प्रेमचंद ने पाया कि वे यहां मिसफिट हैं, इसलिए वे एक वर्ष में ही मुंबई छोड़ आए।बंबई से प्रेमचंद द्वारा जैनेंद्र कुमार को लिखा गए एक पत्र के कुछ हिस्से गौरतलब हैं- ‘कर्जदार हो गया था, कर्ज पटा दूंगा, मगर और कोई लाभ नहीं। उपन्यास (गोदान) के अंतिम पृष्ठ लिखने बाकी हैं। उधर मन नहीं जाता। जी चाहता है, यहां से छुट्टी पाकर अपने पुराने अड्डे पर जा बैठूं। वहां धन नहीं है, मगर संतोष अवश्य है। यहां तो जान पड़ता है कि जीवन नष्ट कर रहा हूं।’ सनद रहे कि ‘गोदान’ की कहानी कर्ज पर ही केंद्रित है और जब प्रेमचंद इसे लिख रहे थे, तब खुद कर्ज से दबे हुए थे।मुंबई से लौटने के कोई डेढ़ वर्ष बाद 8 अक्टूबर, 1936 को इस महान कहानीकार का देहांत हो गया। प्रेमचंद के निधन के बाद भी उनकी चर्चित कहानियों पर फिल्में बनती रहीं। सन् 1941 में प्रेमचंद की उर्दू कहानी औरत की फितरत (हिंदी में त्रिया चरित्र) पर सिरको प्रोडक्शन ने फिल्म स्वामी बनाई, पर यह भी फिल्मी फार्मूलों से भरपूर थी। 1946 में भवनानी ने रंगभूमि बनाई, जो किसी सीमा तक कहानी के साथ न्याय करती थी, पर बॉक्स ऑफिस पर यह असफल रही और कुछ समय के लिए प्रेमचंद की कहानियों पर फिल्म निर्माण की बात ठंडी पड़ गई। इस संदर्भ में बिमल राय का उल्लेख जरूरी है। उन्होंने 1953 में प्रेमचंद की कथा, जिसका रूपांतरण सलिल चौधरी ने किया था, पर एक यथार्थपरक चित्र दो बीघा जमीन बनाया। इसे कई अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिले और आर्थिक दृष्टि से भी यह फिल्म सफल रही।
एक लंबे अंतराल के बाद फिर सन् 1959 में कृश्न चोपड़ा ने उनकी चर्चित कहानी दो बैलों की कथा पर आधारित फिल्म हीरा मोती बनाई। कृश्न चोपड़ा प्रेमचंद का मर्म समझते थे, इसलिए उन्होंने प्रभावी ढंग से इस फिल्म में स्वाधीनता और मानवप्रेम की कथा कही। यह फिल्म काफी सराही गई। कृश्न चोपड़ा ने ही प्रेमचंद के प्रसिद्ध उपन्यास गबन पर इसी नाम से 1966 में फिल्म शुरू की, पर वह उसे पूरी नहीं कर पाए। इसे बाद में ऋषिकेश मुखर्जी ने पूरा किया। इसमें कथा-वस्तु का निरूपण तो विशद था, पर फिल्म नहीं चली । इसी बीच त्रिलोक जेटली ने 1963 में गोदान बनाई, पर यह फिल्म प्रभावी नहीं बन पाई, लेखक-निर्देशक त्रिलोक जेटली उपन्यास और फिल्मी पटकथा में सामंजस्य नहीं कर पाए और इस फिल्म की असफलता के बाद प्रेमचंद फिर कुछ समय के लिए फिल्मों से गायब हो गए। सन् 1978 फिर प्रेमचंद चर्चा का विषय बने। उनकी दो कहानियों शतरंज के खिलाड़ी और कफन पर दो प्रख्यात फिल्मकारों ने फिल्म बनाई। जाने-माने फिल्मकार सत्यजित राय द्वारा हिंदी में निर्मित शतरंज के खिलाड़ी वस्तुत: राय की भी पहली हिंदी फिल्म थी। लंबे-लंबे अंग्रेजी संवादों और उबाऊ ट्रीटमेंट के कारण यह बहुत दुरूह हो गई। राय ने इसमें तथ्यों की ऐतिहासिकता और प्रामाणिकता पर अत्यधिक जोर दिया, पर राजनीतिक परिवेश से जुड़ी मानवीय संवेदनाओं से भरपूर कहानी के साथ वे अधिक न्याय नहीं कर पाए। दरअसल, यह डॉक्यूमेंट्री अधिक लगती है और फीचर फिल्म कम, इसलिए इसके सफल होने का सवाल ही नहीं उठता।प्रेमचंद की यथार्थपरक कहानी कफन पर मृणाल सेन ने सन् 1977 में तेलुगु में ओका ओरी कथा (एक गांव की कहानी) बनाई, पर भाषा के कारण इसका प्रदर्शन क्षेत्र विशेष तक ही सीमित रह गया। इसलिए इसे आंशिक सफलता मिली। मृणाल सेन की इस बात के लिए तारीफ करनी पड़ेगी कि उन्होंने कथा के साथ न्याय किया और उसका कैनवस भी बढ़ा दिया। वास्तविक लोकेशन्स पर शूटिंग के कारण यह गरीबी की समस्या का प्रामाणिक दस्तावेज बन गई है, जिसके प्रेमचंद भी हिमायती रहे और जिसके लिए लड़ते रहे। इस फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था। प्रेमचंद की कहानियों पर कुछ बाल फिल्में भी बनीं, जिसमें सबसे ज्यादा चर्चित ख्वाजा अहमद अब्बास द्वारा निर्देशित ‘ईद मुबारक’ थी। सन् 1960 में बनी यह 21 मिनट की फिल्म कई भाषाओं में उपलब्ध है। ‘सद्गति’ (1981) सत्यजीत राय निर्देशित और प्रेमचंद की अमर कहानी ‘सद्गति’ पर आधारित एकमात्र ऐसी फिल्म है, जो अप्रतिम कथाशिल्पी के साथ न्याय करती है। जिस तरह प्रेमचंद ने ‘सद्गति’ में ब्राह्मणवाद पर गहरी चोट की थी, उसी प्रकार सत्यजित राय ने भी तुर्श अभिव्यंजना की है। ओमपुरी, मोहन अगाशे, स्मिता पाटिल और गीता सिद्धार्थ इसके मुख्य कलाकार थे।फिर भी सवाल ज्यों का त्यों है। हिंदी के सबसे चहेते और लोकप्रिय कथाकार की सफल और लोकप्रिय कृतियों पर बनी फिल्में असफल क्यों हुईं? पर अब समय बदल रहा है। दर्शक बदल रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में सफल साहित्यिक कृतियों पर कुछ अच्छी फिल्में और टीवी धारावाहिक बने हैं, जो आर्थिक दृष्टि से भी सफल रहे हैं। सन् 1981 में प्रेमचंद की कृति सद्गति व उसके बाद निर्मला पर बने टीवी सीरियल ने इन पुस्तकों की बिक्री बढ़ा दी थी। जाहिर है कि प्रेमचंद की कृतियों के विस्तार को तीन घंटे में समेटने की कोशिशें असफल रहीं, लेकिन सोप ऑपेरा के तौर पर यह सफल रही हैं। इस संबंध में प्रेमचंद के कथा साहित्य की सामयिकता और उपयोगिता असंदिग्ध है। अब समय आ गया है कि उनकी कृतियों पर अच्छी फिल्में और धारावाहिक बनाए जाएं। अब इसका बाजार भी है। यदि ऐसा होता है तो इससे प्रेमचंद के साहित्य के मूल में जो सर्वग्राह्यता और मानवीय संप्रेषणीयता है, उससे आम आदमी भी खुद को जोड़ पाएगा।

गुरुवार, 28 जुलाई 2016

first provide alternative than ban on polythene

बगैर विकल्प के बंद नहीं होगी पॉलीथीन पन्नी

पंकज चतुर्वेदी 
राजधानी दिल्ली से सटे गाजियाबाद महानगर के मेयर आशु वर्मा बीते दो महीने से हर दिन कम से कम दो घंटे केवल इस बात को देते हैं कि लोग पॉलीथीन का प्रयोग बंद कर दें, कभी रैली तो कभी बाजार जा कर समझाईश तो कभी अफसरों के सााथ जब्ती। विडंबना है कि हर एक इंसान यह मानता है कि पॉलीथीन बहुत नुकसान कर रही है, लेकिन उसका मोह ऐसा है कि किसी ना किसी बहाने से उसे छोड़ नहीं पा रहा है। श्री वर्मा कहते हैं कि नगर निगम का बड़ा बजट सीवर व नालों की सफाई में जाता है और परिणाम-शून्य ही रहते हैं और इसका बड़ा कारण पूरे मल-जल प्रणाली में पॉलीथीन का अंबार होना है। यह पहला मामला नहीं है जब स्थानीय प्रशासन ने पॉलीथीन पर पांबदी की पहल की हो, पंजाब हो या कश्मीर या तिरूअनंतपुरम या चैन्ने या फिर रीवा, भुवनेश्वर, शिमला, देहरादून, बरेली, देवास बनारस... देश के हर राज्य के कई सौ षहर यह प्रयास कर रहे हैं, लेकिन नतीजा अपेक्षित नहीं आने का सबसे बड़ा कारण विकल्प का अभाव है।
पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यों - श्री गोपाल गौड़ा व आदर्श कुमार गोयल की बैंच ने केंद्र सरकार को एक ऐसी उच्च स्तरीय समिति के गठन के निर्देश दिए हैं जो कि पूरे देश में प्लास्टिक थैलियों के इस्तेमाल, बिक्री और निबटान पर पर्यावरणीय कारणों से पूर्ण पांबदी की येाजना की रूपरेखा प्रस्ततु कर सके। यह आदेश एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए जारी किए गए हैं जिसमें पूरे देश में पोॅलीथीन थैलियों को खाने से मवेशियों के मरने की व्यथा बताई गई थी। असल बात तो यह है कि कच्चे तेल के परिशोधन से मिलने वाले डीजल, पेट्रोल आदि के साथ ही पॉलीथीन बनान का मसाला भी पेट्रो उत्पाद ही है। और इससे बड़ा मुनाफा कमाने वाले इस पर पाबंदी लगाने में अड़ंगे लगाते हैं। हालांकि पॉलीथीन प्रकृति, इंसान और जानवर, सभी के लिए जानलेवा है। घटिया पॉलिथीन का प्रयोग सांस और त्वचा संबंधी रोगों तथा कैंसर का खतरा बढ़ाता है । पॉलीथीन की थैलियां नश्ट नहीं होती हैं और धरती उपजाऊ क्षमता को नष्ट कर इसे जहरीला बना रही हैं। साथ ही मिट्टी में इनके दबे रहने के कारण मिट्टी की पानी सोखने की क्षमता भी कम होती जा रही है, जिससे भूजल के स्तर पर असर पड़ता है।  पॉलीथीन खाने से गायों व अन्य जानवरों के मरने की घटनाएं तो अब आम हो गई है। फिर भी बाजार से सब्जी लाना हो या पैक दूध या फिर किराना या कपड़े, पॉलीथीन के प्रति लोभ ना तो दुकानदार छोड़ पा रहे हैं ना ही खरीदार। मंदिरों, ऐतिहासिक धरोहरों, पार्क, अभ्यारण्य, रैलियों, जुलूसों, शोभा यात्राओं आदि में धड़ल्ले से इसका उपयोग हो रहा है। शहरों की सुंदरता पर इससे ग्रहण लग रहा है। पॉलीथीन न केवल वर्तमान बल्कि भविष्य को भी नष्ट करने पर आमादा है। यह मानवोचित गुण है कि इंसान जब किसी सुविधा का आदी हो जाता है तो उसे तभी छोड पाता है जब उसका विकल्प हो। यह भी सच है कि पॉलीथीन बीते दो दशक के दौरान बीस लाख से ज्यादा लेागों के जीवकोपार्जन का जरिया बन चुका है जो कि इसके उत्पादन, व्यवसाय, पुरानी पन्नी एकत्र करने व उसे कबाड़ी को बेचने जैसे काम में लगे हैं। वहीं पॉलीथीन के विकल्प के रूप में जो सिंथेटिक थैले बाजार में डाले गए हैं, वे एक तो महंगे हैं, दूसरे कमजोर और तीसरे वे भी प्राकृतिक या घुलनशील सामग्री से नहीं बने हैं और उनके भी कई विशम प्रभाव हैं।  कुछ स्थानों पर कागज के बैग और लिफाफे बनाकर मुफ्त में बांटे भी गए लेकिन मांग की तुलना में उनकी आपूर्ति कम थी।
असल में प्लास्टिक या पॉलीथीन के कचरे को बढ़ाने का काम समाज ने ही किया है। अभी कुछ साल पहले तक स्याही वाला फाउंटेन पेन होता था, उसके बाद ऐसे बाल-पेन आए, जिनकी केवल रिफील बदलती थी। आज बाजार मे ंऐसे पेनों को बोलबाला है जो खतम होने पर फेंक दिए जाते हैं।  देश की बढ़ती साक्षरता दर के साथ ऐसे पेनों का इस्तेमाल और उसका कचरा बढ़ता गया। जरा सोचें कि तीन दशक पहले एक व्यक्ति साल भर में बामुश्किल एक पेन खरीदता था और आज औसतन हर साल एक दर्जन पेनों की प्लास्टिक प्रति व्यक्ति बढ़ रही है। इसी तरह षेविंग-किट में पहले स्टील या उससे पहले पीतल का रेजर होता था, जिसमें केवल ब्लेड बदले जाते थे और आज हर हफ्ते कचरा बढ़ाने वाले ‘यूज एंड थ्रो’ वाले रेजर ही  बाजार में मिलते हैं। अभी कुछ साल पहले तक दूध भी कांच की बोतलों में आता था या फिर लोग अपने बर्तन ले कर डेयरी जाते थे। आज दूध तो ठीक ही है पीने का पानी भी कचरा बढ़ाने वाली बोतलों में मिल रहा है। अनुमान है कि पूरे देश में हर रोज चार करोड़ दूध की थैलियां और दो करोड़ पानी की बोतलें कूड़े में फैंकी जाती हैं। मेकअप का सामान, घर में होने वाली पार्टी में डिस्पोजेबल बरतनों का प्रचलन, बाजार से सामन लाते समय पोलीथीन की थैलियां लेना, हर छोटी-बड़ी चीज की पैकिंग ;ऐसे ही ना जाने कितने तरीके हैं, जिनसे हम कूड़ा-कबाड़ा बढ़ा रहे हैं।
यदि वास्तव में बाजार से पॉलीथीन का विकल्प तलाशना है तो पुराने कपड़े के थैले बनवाना एकमात्र विकल्प है। इससे कई लेागों को विकल्प मिलता है- पॉलीथीन निर्माण की छोटी-छोटी इकाई लगाए लेागों को कपड़े के थैले बनाने का,  उसके व्यापार में लगे लोगों को उसे दुकानदार तक पहुंचाने का और आम लेागों को सामाना लाने-लो जाने का। सनद रहे पूरे देश में कोई दस हजार से ज्यादा पौलीथीन थैलियां बनाने के छोअे-बउ़े कारखाने काम कर रहे हैं। जहां कोई 10 लाख टन थैलियां हर साल बनती व बाजार में आ कर प्रकृति को दूशित करती हैं। यह सच है कि जिस तरह पॉलीथीन की मांग है उतनी कपड़े के थैले की नहीं होगी, क्योंकि थैला कई-कई बार इस्तेमाल किया जा सकता है, लेकिन कपड़े के थैले की कीमत, उत्पादन की गति भी उसी तरह पॉलीथीन के मानिंद तेज नहीं होगी। इस तरह पौलीथीन बनाने वाली यूनिटों को रोजगार व उतनी ही आय का एक विकल्प मिलेगा। सबसे बड़ी दिक्कत है दूध, जूस, बनी हुई करी वाली सब्जी आदि के व्यापार की। हालांकि यह भयानक तथ्य है कि बाजार में उपलब्ध अधिकांश प्लास्टिक या पन्नी की भोजन पैकेजिंग खतरनाक है और उससे क्लोरीन जैसे पदार्थ खाने में जुटते हैं, परिणाम गुर्दे खराब होना। इस बारे में जागरूकता फैलाने के साथ-साथ विकल्प के तौर पर एल्यूमिनियम या अन्य मिश्रित धातु के खाद्य-पदार्थ के लिए माकूल कंटेनर बनाए जा सकते है।। सबसे बड़ी बात घर से बर्तन ले जाने की आदत फिर से लौट आए तो खाने का स्वाद, उसकी गुणवत्ता, दोनो ही बनी रहेगी। कहने की जरूरत नहीं है कि पॉलीथीन में पैक दूध या गरम करी उसके जहर को भी आपके पेट तक पहुंचाती है। आजकल बाजार माईक्रोवेव में गरम करने लायक एयरटाईट बर्तनों से पटा पड़ा है, ऐसे कई-कई साल तक इस्तेमाल होने वाले बर्तनों को भी विकल्प के तौर पर विचार किया जा सकता है। प्लास्टिक से होने वाले नुकसान को कम करने के लिए बायो प्लास्टिक को बढ़ावा देना चाहिए। बायो प्लास्टिक चीनी, चुकंदर, भुट्टा जैसे जैविक रूप से अपघटित होने वाले पदार्थों के इस्तेमाल से बनाई जाती है। हो सकता है कि षुरूअ ात में कुछ साल पन्नी की जगह कपड़े के थैले व अन्य विकल्प के लिए कुछ सबसिडी दी जाए तो लोग अपनी आदत बदलने को तैयार हो जाएंगे। लेकिन यह व्यय पॉलीथीन से हो रहे व्यापक नुकसान के तुलना में बेहद कम ही होगा।
सनद रहे कि 40 माइक्रान से कम पतली पन्नी सबसे ज्यादा खतरनाक होती है। जान कर दुखह ोगा कि कचरे-कबाउ़े से बीन-बीन कर एक. पुरानी पनी को ही गला कर नई पॉलीथीन बना दी जाती है, लेकिन एक सीमा ऐसी आती है जब उसका पुनर्चक्रण संभव नहीं होता व वह महज धरती पर बोझ होती है। सरकारी अमलों को ऐसी पॉलीथीन उत्पादन करेन वाले कारखानों को ही बंद करवाना पड़ेगा। वहीं प्लास्टिक कचरा बीन कर पेट पालने वालों के लिए विकल्प के तौर पर बंगलुरू के प्रयोग को विचार कर सकते हैं, जहां लावारिस फैंकी गई पन्नियों को अन्य कचरे के साथ ट्रीटमेंट करके खाद बनाई जा रही है। हिमाचल प्रदेश में ऐसी पन्नियों को डामर के साथ गला कर सड़क बनाने का काम चल रहा है। जर्मनी में प्लास्टिक के कचरे से बिजली का निर्माण भी किया जा रहा है।  विकल्प तो और भी बहुत कुद हैं, बस जरूरत है तो एक नियोजित  दूरगामी योजना और उसके क्रियान्वयन के लिए जबरदस्त इच्छाशक्ति की।

बुधवार, 27 जुलाई 2016

"No school going " status is warning for Pakistan

भारत-पाक तल्ख रिश्तों की बानगी है बच्चों का स्कूल छुड़वाना

पंकज चतुर्वेदी
हाल ही में भारत ने पाकिसतान स्थित अपने उच्चयोग का दर्जा घटा कर ‘‘नो स्कूल गोईंग’ का करते हुए पाकिस्तान को स्पष्‍ट संदेश दे दिया है। भारत के इस कदम से अंतरराष्‍ट्रीय मंच पर पाकिस्तान की साख एक असुरक्षित देश के तौर पर दर्ज हुई है और यह उसके लिए वैश्विक रूप से बेहद शर्मनाक है।  सनद रहे कि  भारत के विदेशों में दूतावास व उच्चायोग के कर्मचारी अपने बच्चों को उन्हीं देशों में शिक्षा दिलवाते हैं। कई देशों में तो भारत के सीबीएसई और आईसीएससी बोर्ड के स्कूल हैं। लेकिन जिन देशों के भीतरी हालात खतरनाक होते हैं वहां भारतीय मिशन को अपने बच्चों को साथ रखने या उनकी शिक्षा वहां करवाने की अनुमति नहीं होती है। कश्मीर में कुख्यात आतंकवादी बुरहान वानी के मारे जानेे के बाद पाकिस्तान की हरकतों से खफा भारत ने इस्लामाबाद स्थित अपने उच्चायेाग के कर्मचारियों को निर्देश दे दिया कि वे अपने बच्चें की शिक्षा की व्यवस्था पाकिस्तान से बाहर करें।
भारत ने इस्लामाबाद स्थित अपने उच्चायोग के अधिकारियों एवं कर्मचारियों को परामर्श दिया है कि वे अपने बच्चों को स्थानीय स्कूलों से हटा लें और उनकी पढ़ाई का प्रबंध पाकिस्तान के बाहर करें। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता विकास स्वरूप ने  बताया कि सरकार समय-समय पर विदेशों में अपने मिशनों में तैनात कर्मचारियों एवं उनके मुद्दों की तत्कालीन परिस्थितियों की समीक्षा करती रहती है।इसी के तहत इस्लामाबाद में तैनात अपने अधिकारियों को सलाह दी गई है कि वे अपने बच्चों की शिक्षा का प्रबंध पाकिस्तान के बाहर कर लें। प्रवक्ता ने बताया कि इस संबंध में निर्णय पिछले साल जून में ही ले लिया गया था ताकि अधिकारियों को वैकल्पिक इंतजाम करने का पर्याप्त समय मिल जाए। उन्होंने बताया कि इस बारे में पाकिस्तान सरकार को भी बता दिया गया है. सरकारी सूत्रों के अनुसार यह परामर्श केवल सुरक्षा कारणों से जारी किया गया है। इस फैसले से करीब पचास बच्चों को आगे की पढ़ाई के लिए इस्लामाबाद से भारत लौटना होगा। जाहिर है कि यह बच्चों के लिए एक कठिन कार्य होगा, लेकिन भारत सरकार उन बच्चों के भारत या अन्य किसी देश में प्रवेश व उनकी पढ़ाई की भरपाई के तत्काल कदम उठा रही है।
इस्लामाबाद में भारतीय उच्चायोग के अधिकारियों के बच्चों को सिर्फ दो स्कूलों- इंटरनेशनल स्कूल ऑफ इस्लामाबाद या अमेरिकन स्कूल और रूट्स इंटरनेशनल स्कूल में पढ़ाने की अनुमति है। इस पर त्वरित प्रतिक्रिया देते हुए इस्लामाबाद में पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता नफीस जकारिया ने कहा, ‘‘यह एक अनौपचारिक, अंदरूनी, प्रशासनिक व्यवस्था है जिसकी हमें दो महीने पहले सूचना दे दी गयी थी। इसके अलावा हमें कोई और बात नहीं बतायी गयी है।’’
पाकिस्तान में भारत का उच्चायोग आजादी के बाद से यानि 1947 से कार्यरत है। पहले यह कार्यालय कराची में था । सन 1960 में इस्लामाबाद में राजधानी बनने के बाद यह वहां आ गया। पाकिस्तान में हमारे उच्चायुक्त, उपउच्चायाुक्त के अलावा  राजनीतिक, सांस्कृतिक, सुरक्षा, वीजा, प्रशासन, परियोजना आदि अनुभागों में कुल 17 वरिश्ठ अधिकारी पदस्थ है, जिनमें कई सेना के रिटायर्ड अधिकारी हैं। हालांकि भारत ने यह कदम तब प्रचारित किया है जब पाकिस्तान की सरकार ने कश्मीर में आतंकवादियों से कड़ाई से निबटने के विरोध में पाकिस्तान में काला दिवस मनाया था और भारत की कश्मीर  नीति पर जहर उगला था। उससे पहले भारतीय उच्चायोग पर प्रदर्यान व षहर में भारतीयों के खिलाफ लगाए गए पोस्टरों से उपजे भय को प्रमाण्ण के तौर पर प्रस्तुत कर भारत ने अंतरराश्ट्रीय बिरादरी को उजागर किया है कि पाकिस्तान के हलात विदेशियों के लिए माकूल नहीं है। दिसंबर-2014 में  पेशावर के एक स्कूल में आतंकवादियों द्वारा सैंकड़ों बच्चों की हत्या की नृशंस घटना तो लेागों के स्मृति पटल पर हैं ही।
वैसे अंतरराष्‍ट्रीय राजनीति में इसे एक बड़ा कदम कहा जाता है। जानकारी के मुताबिक ऐसा कारगिल युद्ध के वक्त भी नहीं हुआ। हां, पाकिस्तान के साथ वर्ष 1965 और 1971 के युद्ध के दौरान जरूर यह कदम उठाया गया था। उस समय भारत ने अपना अधिकांश स्टाफ ही वापिस बुलवा लिया था। कहने की जरूरत नहीं है कि हमारा खुफिया तंत्र पाकिस्तान की हर हरकत पर गहरी नजर रखता है। यह भी सही है कि पाकिस्तान में हाफिज सईद व ऐसे ही कई अंतरराष्‍ट्रीय आतंकवादी खुलेआम घूम रहे हैं। हो सकता है कि कश्मीर के नाम पर पाकिस्तान में जिस तरह से लोगों को उकसाया जा रहा है उससे सुरक्षा खतरे की किसी गोपनीय सूचना को देखते हुए यह कदम उठाया गया हो। भारत मानता है कि पाकिस्तान की गतिविधियां बेहद आपत्तिजनक हैं। भारतीय उच्चायोग के अधिकारियों के बच्चे अगर पाकिस्तान के स्कूलों में जाते हैं तो उनकी सुरक्षा को भी खतरा होने की संभावना है। इसलिए सरकार ने इस तरह के निर्देश जारी किए हैं। ं
यह बात इशारा तो कर रही है कि दोनों देशों के बीच तनाव चरम पर है। इन दिनों पाकिस्तान के अलग अलग षहरों में नवाज शरीफ का तख्ता पलट कर सैनिक शासन के पोस्टर भी चस्पा किए गए हैं। नवाज शरीफ की पकड़ सत्ता पर ढ़ीली होती जा रही है। संभव है कि वहां किसी बड़े खून-खराबे की आशंका या संभावना को देखते हुए भारत के उच्चायोग के स्टाफ के बच्चों को हटाया जा रहा हो। कहने की जरूरत नहीं है कि युद्ध व हिंसा के हालात में सबसे ज्यादा कष्‍ट बच्चे ही सहते हैं। भातर के इस कदम से पाकिस्तन में कई अन्य देशों के विदेशी राजनयीक भी सतर्क हो गए है। और इससे पाकिस्तान के विदेश्ी निवेश आकर्शित करने व वहां के पर्यटन उद्योग को बड़ा झटका लगा है। वहीं भातर के इस कदम ने पाकिस्तान को भी कड़ा संदेश दे दिया है कि यदि वह नहीं सुधरा तो बल प्रयोग से परहेज नहीं किया
जाएगा।

शुक्रवार, 22 जुलाई 2016

Kwadiya now become Deuce in the name of religion


आस्था में न टूटे संस्कार की डोर

जनसंदेश मप्र
देहरादून से ले कर दिल्ली और फरीदाबाद से करनाल तक और राजस्थान तक के पांच राज्यों के कोई 70 जिले आगामी दस दिनों तक कांवड़ यात्रा को ले कर भयभीत और आशंकित हैं। हालांकि, प्रशासन ने कांवड़ में डीजे न बजाने, लाठी-डंडे आदि ले कर न चलने जैसे निर्देश जारी किए हैं। लेकिन पिछले अनुभव बताते हैं कि यह सबकुछ महज कागजी कवायद रह जाता है। कुछ लोगों की हरकतें हजारों श्रद्धालुओं, कठिन पद यात्रा करने वालों की आस्था पर भारी पड़ती हैं। प्रशासन असहाय-सा होता है व उनके रास्ते में रहने वाले लाखों लोगों का जीवन नर्क। धर्म व उसके संस्कारों का व्यापक उद्देश्य मानव कल्याण रहा है, लेकिन जिस तरह कांवड़ के फेर में बीमारों का अस्पताल जाना, बच्चों का स्कूल जाना व कर्मचारियों का अपने काम पर जाना थम जाता है, उससे इनके संस्कार पर सवाल खड़े होना लाजिमी है। जैसा कि बीते पांच सालों से घोषणा की जाती है, इस बार भी डीजे बजाने पर रोक जैसे जुमले उछाले जा रहे हैं, लेकिन यह तय है कि इनका पालन होना मुश्किल ही होता है। बडे़-बड़े वाहनों पर पूरी सड़क घेर कर, उद्दण्डों की तरह डंडा-लाठी-बेसबाल लहराते हुए, श्रद्धा से ज्यादा आतंक पैदा कर रहे कांवड़िए सड़कों पर आ जाते हैं। 
जनसंदेश उप्र
याद करें पिछले साल का श्रावण का महीना और दिल्ली-हरिद्वार राजमार्ग पर एक हत्या, डेढ़ सौ दुकानों में आगजनी व तोड़फोड़, कई बसों को नुकसान, सैकड़ों लोगों की पिटाई, हरिद्वार में विदेशी महिलाओं के साथ छेड़छाड़, स्कूल-दफ्तर बंद, लाखों बच्चों की पढ़ाई का नुकसान, जनजीवन अस्तव्यस्त। वह भी तब, जब दस हजार पुलिस वालों की दिन-रात ड्यूटी लगी हुई थी। यह कहानी किसी दंगे-फसाद की नहीं, बल्कि ऐसी श्रद्धा की है, जोकि अराजकता का रूप लेती जा रही है। श्रावण की शिवरात्रि से पहलेे लगातार दस दिनों तक देश की राजधानी दिल्ली और उसके आसपास 200 किलोमीटर के दायरे में इस तरह का आतंक धर्म के कंधों पर सवार हो कर निर्बाध चलता है। इसमें कितना धर्म या श्रद्धा थी, इसका आकलन कोई नहीं कर पाया। अब तो सुदूर गांवों में बाकयदा इसके क्लब बनते हैं, वे एक जैसे रंग की वर्दी बनवाते हैं। एक वाहन होता है, जिसमें खाने-पीने, लड़ने-भिड़ने का सामान होता है। श्रद्धा, आस्था, समर्पण के भाव नदारद होते हैं, उसकी जगह भीड़ मनोविज्ञान व लंपटाई हावी होती है। जरा विचार करें कि इस पूरे उत्सव से समाज या धर्म को मिल क्या रहा है? कुछ लोग केसरिया कच्छे व टीशर्ट बेच लेते हैं, कांवड़ का डिजाइनर सामान बिक जाता है, दिल्ली से लेकर रास्ते के कस्बों में चंदा जोड़ कर कैंप लगाने वालों को कुछ दिन काम मिल जाता है। लेकिन इसकी कीमत चुकानी होती है कई हजार करोड़ के नुकसान से। 
दिल्ली में यूपी बार्डर से लेकर आईएसबीटी और वहां से रोहतक व गुड़गांव और वहां से जयपुर की ओर जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग को जगह-जगह निर्ममता से खोद कर बड़े-बड़े पंडाल लगाए जा रहे हैं। राजधानी में भले ही बिजली की कमी हो, लेकिन बिजली को चुराकर सड़कों को कई-कई किलोमीटर तक जगमगा दिया गया है। कई शहरों में दूध, सब्जी जैसी आवश्यक वस्तुओं की सप्लाई बाधित होती है व इसका फायदा मुनाफाखोर उठाते हैं। बच्चों के स्कूल की पढ़ाई का हर्जा तो कहीं गिना ही नहीं जाता। जब हम अपने देश को विकास के मार्ग पर वैश्विक स्तर पर ले जाने की कल्पना कर रहे हैं तो सोचना होगा कि दस दिनों तक मानव संसाधन का इस तरह दुरुपयोग, परिवहन पर पाबंदी से हम क्या पा रहे हैं। क्या यह भीड़ अपने गांव के तालाब या नदी को साफ कर धर्म की सेवा नहीं कर सकती? अभी कुछ साल पहले तक ये सात्विक कांवड़िए अनुशासन व श्रद्धा में इस तरह डूबे रहते थे कि राह चलते लोग स्वयं ही उनको रास्ते दे दिया करते थे। बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद देश में धर्म की राजनीति का जो दौर शुरू हुआ, उसका असर कांवड़ यात्रा पर साल-दर-साल दिखने लगा। पहले संख्या में बढ़ोतरी हुई, फिर उनकी सेवा के नाम पर लगने वाले टेंटों-शिविरों की संख्या बढ़ी। गौरतलब है कि इस तरह के शिविर व कांवड़ लेकर आ रहे भक्तों की सेवाके सर्वाधिक शिविर दिल्ली में लगते हैं, जबकि कांवड़ियों में दिल्ली वालों की संख्या बमुश्किल 10 फीसदी होती है। यदि किसी कांवड़िए का जल छलक गया, किसी को सड़क के बीच में चलने के दौरान मामूली टक्कर लग गई तो खैर नहीं है। हॉकी, बेसबाल के बल्ले, भाले, त्रिशूल और ऐसे ही हथियारों से लैस ये भोले के भक्त तत्काल भालेबन जाते हैं और कानून-व्यवस्था, मानवता और आस्था सभी को छेद देते हैं। दिल्ली की एक तिहाई आबादी यमुना-पार रहती है। राजधानी की विभिन्न संस्थाओं में काम करने वाले कोई सात लाख लोग जीटी रोड के दोनों तरफ बसी गाजियाबाद जिले की विभिन्न कालोनियों में रहते हैं। इन सभी लोगों के लिए कांवड़ियों के दिनों में कार्यालय जाना त्रासदी से कम नहीं होता। इस बार दिल्ली एनसीआर में कांवड़ यात्रा के दौरान जबरदस्त अराजकता होगी, क्योंकि गाजियाबाद में नए बस अड्डे से दिलशाद गार्डन तक मेट्रो के काम के चलते जीटी रोड बेहद संकरी व गहरे गड्ढों वाली हो गई है। जाहिर है कि इस पर कांवड़ वालों का ही राज होगा व इसके दोनों तरफ बसी कालोनियों के लाखों लोग हाउस अरेस्ट होंगे। गाजियाबाद-दिल्ली सीमा पर अप्सरा बार्डर पूरी तरह कांवड़ियों की मनमानी की गिरफ्त में रहता है, जबकि इस रास्ते से गुरुतेग बहादुर अस्पताल जाने वाले गंभीर रोगियों की संख्या प्रतिदिन हजारों में होती है। ये लोग सड़क पर तड़पते हुए देखे जाते हैं। चूंकि मामला धर्म से जुड़ा होता है, सो कोई विरोध की सोच भी नहीं सकता। फिर कांवड़ सेवा केंद्रों की देखरेख में लगे स्वयंसेवकों के हाथों में चमकते त्रिशूल, हॉकियां, बेसबाल के बल्ले व लाठियां किसी की भी जुबान खुलने ही नहीं देती हैं। धर्म दूसरों के प्रति संवेदनशील हो, धर्म का पालन करने वाला स्वयं को तकलीफ देकर जन कल्याण की सोचे, यह हिंदू धर्म की मूल भावना है। कांवड़ियों की यात्रा में यह सभी तत्व नदारद हैं। फिल्मी पेरोडियों की धुन पर नाचना, जगह-जगह रास्ता जाम करना, आम जनजीवन को अस्त-व्यस्त कर देना, सड़कों पर हंगामा करना और जबरिया वसूले गए चंदों से चल रहे शिविरों में आहार लेना, किसी भी तरह धार्मिक नहीं कहा जा सकता है। जिस तरह कांवड़ियों की संख्या बढ़ रही है, उसको देखते हुए सरकार व समाज दोनों को ही इस पावन पर्व को दूषित होने से बचाने की जिम्मेदारी है। कांवड़ियों का पंजीयन, उनके मार्ग पर पैदल चलने लायक पतली पगडंडी बनाना, महानगरों में कार्यालय व स्कूल के समय में कांवड़ियों के आवागमन पर रोक, कांवड़ लाने की मूल धार्मिक प्रक्रिया का प्रचार-प्रसार, सड़क घेर कर शिविर लगाने पर पाबंदी जैसे कदम लागू करने के लिए अभी से कार्यवाही प्रारंभ करना जरूरी है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस धार्मिक अनुष्ठान में सांप्रदायिक संगठनों की घुसपैठ को रोका नहीं गया तो देश को जो नुकसान होगा, उससे बड़ा नुकसान हिंदू धर्म को ही होगा।

बुधवार, 20 जुलाई 2016

MY NEW FORTHCOMING BOOK JAL MAANGTAA JEEWAN

साथी देश निर्मोही ने आज का दिन कुछ खास बना दिया , मैं किताबे लिखने में आलसी हूँ या बहुत समय लेता हूँ, एक पुस्तक में दो से तीन साल , यह कताब लिखने से पहले ही श्री देश निर्मोही से करार हो गया था, महज पाठ-विस्तार देख कर कि , इसे वे छापेंगे. हमारे यहाँ पानी के चार स्रोत - नदी, तालाब, समुद्र और भू जल, सभी कि आधुनिकता की आँधी ने जहर बना दिया हे. यह पुस्तक कुछ फील्ड रपट के जरिये पानी के संकट पर विश्लेषण है. उम्मीद करता हूँ कि दोस्त इसे पसंद करेंगे .
धन्यवाद देश जी, शानदार कवर तैयार करने के लिए महेश्वर जी और इसकी भूमिका लिखने के लिए आबिद सुरती जी और मेरे सभी शुभ चिन्तक व् आलोचक.
श्री देश निर्मोही की टिप्पणी
आने वाली किताब
पर्यावरणविद एवं विज्ञान लेखक पंकज चतुर्वेदी की पुस्तक 'जल मांगता जीवन' इसी माह प्रकाशित होने जा रही है। पुस्तक की भूमिका में जाने माने साहित्यकार आबिद सुरती लिखते हैं -'भारत के सबसे दूषित वायु वाले शहर दिल्ली में कई जाने-माने पत्रकार, कथाकार, कलाकार रहते हैं पर उन प्रबुद्ध लोगों में से गिने-चुने लोग ही इन हालात से वाकि॰फ हैं। और इन विद्ववानों में से भी केवल इक्के-दुक्के धरती के लाल ही समाज की भलाई के लिए मैदान में उतरे हैं। पंकज, मेरा मित्र, मेरा हमदर्द उनमें से एक है। विषय चाहे नाले बने दरिया का हो या गायब होते तालाबों का, भूजल स्तर का हो या नंगे पर्वतों पर पेड़ो की खेती का, नीरस शिक्षा का हो या उजड़े गांवों का, कफन बांधकर कूद पड़ना उसकी फितरत में है। पानी, झील, कुएं जैसे विषयों पर अब तक उसके तीन हजार से अधिक आलेख देश भर के अखबारों, पत्रिकाओं में छप चुके हैं। हैरत की बात तो यह है कि उनकी लेखनी में रवानी होती है जो पाठक को बहते दरिया में यात्रा करते तिनके की तरह अंत तक ले जाती है। पानी तेरे रूप अनेक। बात ॰गलत नहीं, पर पानी का एक रूप ऐसा भी है जिसके विषय में हमारे यहां बहुत कम जानकारी है। क्योंकि पानी को हमने केवल प्राणहीन, तरल पदार्थ के रूप में ही देखा है, जबकी पानी प्राणदायी भी है और प्राणयुक्त भी। हम जो बोलते हैं वह पानी सुनता है। हम शुभ-शुभ बोलते हैं तो पानी प्रसन्न होता है। अशुभ बोलते हैं तो पानी का रंग मैला हो जाता है। जीभ पर शब्द लाने से पहले याद रहे कि हमारे जिस्म का लगभग सत्तर प्रतिशत हिस्सा पानी है।'
'जल मांगता जीवन' पर्यावरण जैसे महत्वपूर्ण विषय पर आधार से प्रकाश्य किताबों की एक पूरी सीरीज़ की पहली पुस्तक है। इसी कड़ी में हमारे युवा कथाकार मित्र कबीर संजय लुप्त होते वन्य जीवों पर एक दिलचस्प पुस्तक 'चीता: भारतीय जंगलों का गुम हुआ शहजादा' तैयार कर रहे हैं। संभवतया यह पुस्तक हम आगामी विश्व पुस्तक मेला के अवसर पर जारी कर पाएंगे।
आवरण: महेश्वर दत्त शर्मा

शुक्रवार, 15 जुलाई 2016

flood in cities due to infrastructure error

क्यों आ रही है शहरों में बाढ़!

समय चक्र
 पंकज चतुर्वेदी

विडंबना है कि शहर नियोजन के लिए गठित लंबे-चौडे़ सरकारी अमले पानी के बहाव में शहरों के ठहरने पर खुद को असहाय पाते हैं। सारा दोष नालों की सफाई न होने ,बढ़ती आबादी, घटते संसाधनों और पर्यावरण से छेड़छाड़ पर थोप देते हैं। वैसे इस बात का जवाब कोई नहीं दे पाता है कि नालों की सफाई सालभर क्यों नहीं होती और इसके लिए मई-जून का इंतजार क्यों होता है। महानगरों में भूमिगत सीवर जलभराव का सबसे बड़ा कारण हैं। जब हम भूमिगत सीवर के लायक संस्कार नहीं सीख पा रहे हैं तो फिर खुले नालों से अपना काम क्यों नहीं चला पा रहे हैं?


आाषाढ़ में कुछ घंटे पानी क्या बरसा, राजधानी दिल्ली व उससे सटे शहर ठिठक गए। सड़क पर दरिया था और नाले उफान पर। दिल्ली से सटे गाजियाबाद, नोएडा, गुड़गांव जैसे शहरों के बडे़ नाम घुटने-घुटने पानी में डूबते दिखे। भोपाल में 10 से 12 फुट पानी था तो इंदौर में सभी मुख्य मार्ग जलमग्न थे। ऐसी ही खबरें लखनऊ, गोंडा हो या औरेया, गुवाहाटी हो या फिर मुंबई, सभी शहरों से आ रही हैं। पूरे देश में गर्मी से निजात के आनंद की कल्पना करने वाले सड़कों पर जगह-जगह पानी भरने से ऐसे दो-चार हुए कि अब बारिश के नाम से ही डर रहे हैं। शहर के नाम भले ही बदल जाएं, लेकिन कारण वहीं रहते हैं- नालों, सीवर में पॉलीथिन फंसना व उनकी ठीक सफाई नहीं होना, सड़क की त्रुटिपूर्ण डिजाइन और पारंपरिक जल निधियों पर अवैध कब्जे या पानी का रास्ता रोक कर स्थाई निर्माण करना। जलभराव एक राष्ट्रीय त्रासदी है जो शहरों की रफ्तार को थाम देता है, बीमारियों का कारक बनता है, जाम में फंसे वाहनों से निकले धुएं से पर्यावरणीय संकट खड़ा करता है, विदेशी मुद्रा से खरीदे गए पेट्रो-ईंधन की बर्बादी करता है और सबसे बड़ी बात जलभराव न होने की आड़ में होने वाले सफाई व अन्य कायोंर् में भ्रष्टाचार का जनक भी है। विडंबना है कि शहर नियोजन के लिए गठित लंबे-चौडे़ सरकारी अमले पानी के बहाव में शहरों के ठहरने पर खुद को असहाय पाते हैं। सारा दोष नालों की सफाई न होने ,बढ़ती आबादी, घटते संसाधनों और पर्यावरण से छेड़छाड़ पर थोप देते हैं। वैसे इस बात का जवाब कोई नहीं दे पाता है कि नालों की सफाई सालभर क्यों नहीं होती और इसके लिए मई-जून का इंतजार क्यों होता है। 
जनसंदेश टाईम्‍य उप्र
इसके हल के सपने, नेताओं के वादे और पीड़ित जनता की जिंदगी नए सिरे से शुरू करने की हड़बड़ाहट सब कुछ भुला देती है। यह सभी जानते हैं कि दिल्ली, मुंबई आदि महानगरों में बने ढेर सारे पुलों के निचले सिरे, अंडरपास और सबवे हल्की-सी बरसात में जलभराव के स्थाई स्थल हैं, लेकिन कभी कोई यह जानने का प्रयास नहीं कर रहा है कि आखिर निर्माण की डिजाइन में कोई कमी है या फिर उसके रखरखाव में।देशभर के शहरों में सुरसामुख की तरह बढ़ते यातायात को सहज बहाव देने के लिए बीते एक दशक के दौरान ढेर सारे फ्लाईओवर और अंडरपास बने। कई बार दावे किए गए कि अमुक सड़क अब ट्राफिक सिग्नल से मुक्त हो गई है, इसके बावजूद हर शहर में हर साल कोई 185 जगहों पर 125 बड़े जाम और औसतन प्रति दिन चार से पांच छोटे जाम लगना आम बात है। बरसात में तो यही संरचनाएं जाम का कारक बनती हैं।बारिश के दिनों में अंडर पास और बीआरटी कॉरीडोरों में पानी भरना ही था, इसका सबक हमारे नीति-निर्माताओं ने दिल्ली के दिल में स्थित आईटीओ के पास के शिवाजी ब्रिज और कनाट प्लेस के करीब के मिंटो ब्रिज से नहीं लिया था। ये दोनों ही निर्माण बेहद पुराने हैं और कई दशकों से बारिश के दिनों में दिल्ली में जलभराव के कारक रहे हैं। इसके बावजूद दिल्ल्ल्ी को ट्राफिक सिग्नल मुक्त बनाने के नाम पर कोई चार अरब रुपए खर्च कर दर्जनभर अंडरपास बना दिए गए। सबसे शर्मनाम तो है हमारे अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे को जोड़ने वाले अंडरपास का नाले में तब्दील हो जाना। कहीं पर पानी निकालने वाले पंपों के खराब होने का बहाना है तो सड़क डिजाइन करने वाले नीचे के नालों की ठीक से सफाई न होने का रोना रोते हैं तो दिल्ली नगर पालिका अपने यहां काम नहीं कर रहे कई हजार कर्मचारियों की पहचान न कर पाने की मजबूरी बता देती है। इन अंडरपास की समस्या केवल बारिश के दिनों में ही नहीं है। आम दिनों में भी यदि यहां कोई वाहन खराब हो जाए या दुर्घटना हो जाए तो उसे खींच कर ले जाने का काम इतना जटिल है कि जाम लगना तय ही होता है। असल में इनकी डिजाइन में ही खामी है, जिससे बारिश का पूरा जलजमाव उसमें ही होता है। जमीन के गहराई में जा कर ड्रैनेज किस तरह बनाया जाए, ताकि पानी की हर बूंद बह जाए, यह तकनीक अभी हमारे इंजीनियरों को सीखनी होगी। इंदौर, भोपाल के बीआरटी कॅरीडोर थोड़ी बरसात में नाव चलने लायक हो जाते हैं। ठीक ऐसे ही हालात फ्लाईओवरों के भी हैं। जरा पानी बरसा कि उसके दोनों ओर यानी चढ़ाई व उतार पर पानी जमा हो जाता है। कारण एक बार फिर वहां बने सीवरों की ठीक से सफाई न होना बता दिया जाता है। असल में तो इनकी डिजाइन में ही कमी है- यह आम समझ की बात है कि पहाड़ी जैसी किसी भी संरचना में पानी की आमद ज्यादा होने पर जल नीचे की ओर बहेगा। मौजूदा डिजाइन में नीचे आया पानी ठीक फ्लाईओवरों से जुड़ी सड़क पर आता है और फिर यह मान लिया जाता है कि वह वहां मौजूद स्लूस से सीवरों में चला जाएगा। असल में सड़कों से फ्लाईओवरों के जुड़ाव में मोड़ या अन्य कारण से एक तरफ गहराई है और यहीं पानी भर जाता है।
 कई स्थान पर इन पुलों का उठाव इतना अधिक है और महानगर की सड़कें हर तरह के वाहनों के लिए खुली भी हुई हैं, सो आए रोज इन पर भारी मालवाहक वाहनों का लोड न ले पाने के कारण खराब होना आम बात है। एक वाहन खराब हुआ कि कुछ ही मिनटों में लंबा हो जाता है। यह विडंबना है कि हमारे नीति निर्धारक यूरोप या अमेरिका के किसी ऐसे देश की सड़क व्यवस्था का अध्ययन करते हैं, जहां न तो दिल्ली की तरह मौसम होता है और न ही एक ही सड़क पर विभिन्न तरह के वाहनों का संचालन। उसके बाद सड़क, अंडरपास और फ्लाईओवरों की डिजाइन तैयार करने वालों की शिक्षा भी ऐसे ही देशों में लिखी गई किताबों से होती हैं। नतीजा सामने है कि आधी छोड़ पूरी को जावे, आधी मिले न पूरी पावे का होता है। हम अंधाधंुध खर्चा करते हैं, उसके रखरखाव पर लगातार पैसा फूंकते रहते हैं, उसके बावजूद न तो सड़कों पर वाहनों की औसत गति बढ़ती है और न ही जाम जैसे संकटों से मुक्ति। काश! कोई स्थानीय मौसम, परिवेश और जरूरतों को ध्यान में रख कर जनता की कमाई से उपजे टैक्स को सही दिशा में व्यय करने की भी सोचे। दिल्ली, कोलकाता, पटना, भोपाल, जबलपुर, सतना जैसे महानगरों में जल निकासी की माकूल व्यवस्था न होना शहर में जलभराव का स्थाई कारण कहा जाता है। नागपुर का सीवर सिस्टम बरसात के जल का बोझ उठाने लायक नहीं है, साथ ही उसकी सफाई महज कागजों पर होती है। मुंबई में मीठी नदी के उथले होने और सीवर की 50 साल पुरानी सीवर व्यवस्था के जर्जर होने के कारण बाढ़ के हालात बनना सरकारें स्वीकार करती रही हैं। शहरों में बाढ़ रोकने के लिए सबसे पहला काम तो वहां के पारंपरिक जल स्रोतों में पानी की आवक और निकासी के पुराने रास्तों में बन गए स्थाई निर्माणों को हटाने का करना होगा। यदि किसी पहाड़ी से पानी नीचे बह कर आ रहा है तो उसका संकलन किसी तालाब में ही होगा। विडंबना है कि ऐसे जोहड़-तालाब कंक्रीट की नदियों में खो गए हैं। परिणामत: थोड़ी ही बारिश में पानी कहीं भी बहने को बहकने लगता है। महानगरों में भूमिगत सीवर जलभराव का सबसे बड़ा कारण हैं। जब हम भूमिगत सीवर के लायक संस्कार नहीं सीख पा रहे हैं तो फिर खुले नालों से अपना काम क्यों नहीं चला पा रहे हैं? पॉलीथिन, घर से निकलने वाले रसायन और नष्ट न होने वाले कचरे की बढ़ती मात्रा, कुछ ऐसे कारण हैं, जोकि गहरे सीवरों के दुश्मन हैं।
महानगरों में सीवरों और नालों की सफाई भ्रष्टाचार का बड़ा माध्यम है। यह कार्य किसी जिम्मेदार एजेंसी को सौंपना आवश्यक है, वरना आने वाले दिनों में महानगरों में कई-कई दिनों तक पानी भरने की समस्या उपजेगी, जो यातायात के साथ-साथ स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा होगा। महानगरों में बाढ़ का मतलब है परिवहन और लोगों का आवागमन ठप्प होना। इस जाम के ईंधन की बर्बादी, प्रदूषण स्तर में वृद्धि और मानवीय स्वभाव में उग्रता जैसे कई दीर्घगामी दुष्परिणाम होते हैं। इसका स्थाई निदान तलाशने के विपरीत जब कहीं शहरों में बाढ़ आती है तो सरकार का पहला और अंतिम कदम राहत कार्य होता है, जोकि तात्कालिक सहानुभूतिदायक तो होता है, लेकिन बाढ़ के कारणों पर स्थाई रूप से रोक लगाने में अक्षम होता है। जलभराव और बाढ़ मानवजन्य समस्याएं हैं और इसका निदान दूरगामी योजनाओं से संभव है, यह बात शहरी नियोजनकर्ताओं को भलीभांति जान लेना चाहिए और इसी सिद्धांत पर भविष्य की योजनाएं बनानी चाहिए ।

सोमवार, 11 जुलाई 2016

The ignorance of traditinal tanks flooded Bhopal

दरिया में बदल गया एक स्मार्ट सिटी

चौबीस घंटे में ही 23 सेंटीमीटर वर्षा हुई और एक स्मार्ट सिटी दरिया में तब्दील हो गया। बेशक भोपाल में हुई यह बारिश सामान्य नहीं थी, लेकिन भोपाल का जो हाल हुआ, वह भी उम्मीदों के परे था। इस बारिश से हुए नुकसान का आकलन अभी जारी है।
इतनी बारिश में शायद देश के किसी बड़े शहर का यही हाल होता, पर मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल का यह हाल हैरत में इसलिए डालता है कि इस शहर के जल प्रबंधन को कभी स्विट्जरलैंड की तरह माना जाता था। पर एक ही घनी बारिश ने बता दिया कि किसी शहर की पारंपरिक जल व्यवस्था से छेड़छाड़ हमें किस संकट की ओर ले जा सकती है। यह उन तमाम शहरों के लिए चेतावनी भी है, जो अपनी कई परंपरागत व्यवस्थाओं को भूलकर स्मार्ट बनने की होड़ में शामिल हो गए हैं।
यह सच है कि भोपाल का जिस तरह से विस्तार हुआ, उसकी तुलना में वहां मूलभूत ढांचे का विकास नहीं हुआ। शहर में 723 नाले हैं, लेकिन उनमें से 80 प्रतिशत पर अवैध कब्जे हैं, सो उनकी कभी सफाई हो नहीं पाती। वहां हर रोज साढे़ सात सौ मीट्रिक टन कूड़ा निकलता है, मगर नगर निगम की क्षमता महज ढाई सौ मीट्रिक टन कचरा उठाने की है। ऐसे में, कूड़ा बरसों से जमा हो रहा था और पानी का जोर पाकर यह अधमरे सीवरों में फंस गया। सनद रहे कि भोपाल की बसावट पहाड़ों के बीच है और इसी के बीच झीलों की प्राकृतिक संरचना है।
चाहे जितनी भी बदरी बरसे, पूरा पानी तालाबों की गोद में ही गिरेगा। पर आज लोग यह भी भूल चुके हैं कि भोपाल की विशाल ताजुल मस्जिद के पीछे तीन तालाबों की ऐसी शृंखला थी, जो इस शहर की बारिश के पानी का प्रबंधन करती थी। बड़े और छोटे तालाब तो थे ही, मोतिया तालाब, नवाब सिद्दीकी तालाब व मुंशी हुसैन तालाब- ये तीनों एक नहर से जुड़े हुए थे। ईदगाह हिल्स इलाके का बरसाती पानी सबसे पहले मोतिया तालाब में आता, फिर उससे अगले और फिर अगले तालाब में। जब तीनों तालाब भर जाते थे, तो एक और नहर थी मुंशी तालाब में, जो गुरुबख्श तलैया में गिरती थी। आज मोतिया तालाब तो गंदे पानी के निस्तार के कारण नाबदान बन गया है।
नवाब सिद्दीकी तालाब के 60 फीसदी हिस्से पर तो लोगों ने मिट्टी भरकर कॉलोनी बना ली। तीसरे तालाब में अब महज कीचड़ रह गया है। अब यह मान लिया गया है कि इन्हें जिलाना नामुमकिन है। फिर तालाब से ज्यादा महत्वपूर्ण उस पर बने निर्माण हैं। यही सोच शहर की बाकी जल व्यवस्था को लेकर भी है।
अब भी समय है, भोपाल को स्मार्ट सिटी बनाने के लिए नक्शे तैयार करने वाले सबसे पहले यहां की पारंपरिक जल संरचनाओं के जल-आवक मार्ग और अतिरिक्त जल की निकासी के पारंपरिक सलीके को समझें, उनके अतिक्रमण हटाए जाएं। यह हो सका, तो भोपाल में अगर इससे दोगुने बादल भी बरसें, तब भी यह शहर दरिया नहीं बनेगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

रविवार, 10 जुलाई 2016

Bundelkhand : flood in drought area

सूखे से बिलखते बुंदेलखंड में बरसात की तबाही 

                                                                                                                                            पंकज चतुर्वेदी

Raj express 11-7-16
जहां अभी कल तक सूखे का दर्द था, आज बरसात कहर बन गई है। जिसने खेत जोते व बोये, उसे बीज नश्ट होने का डर सता रहा है। याद हो कि मध्यप्रदेश व उत्तर प्रदेश के लगभग 14 जिलों में फैले बंुदेलखंड के सैंकडों गांव बीते आठ महीने से पानी की कमी के चलते वीरान हो गए थे । लेकिन इस बार आशाढ़ के पहले ही पक्ष में दो दिन  ऐसा पानी बरसा कि बाढ़ के हालात बन गए। जो प्रशासन अभी तक सूखा राहत की गणित लगा रहा था, अब नाव, रस्सी व बाढ़ की जुगत में लग गया है। बारिश से उपजी तबाही में प्रकृति का असामयिक तेवर तो है ही इंसान ने आफत को खुद बुलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उल्लेखनीय है कि बुंदेलखंड में इस समय बरसात से तबाही वाले इलाके में बड़ा हिस्सा केन या उसकी सहाक नदियें के किनारों का है। आमतौर पर षांत कही जाने वाली छोटी सी नदी केन अचानक  क्यों  उफन गई ? वास्तव में यह इस नदी के जल ग्रहण क्षेत्र के पर्यावरण के साथ किए जा रहे छेड़छाड़ का नतीजा है ।
केन बांदा में खतरे के निशान से ऊपर 105.25 मीटर पर बह रही है। पन्ना जिले में कई गांव इसकी चपेट में आ कर पूरी तरह बर्बाद हो गए हैं। केन नदी जबलपुर के मुवार गांव से निकलती है । पन्ना की तरफ 40 किमी आ कर यह कैमूर पर्वतमालाओं के ढलान पर उत्तर दिशा में आती है । तिगरा के पास इसमें सोनार नदी मिलती है । पन्ना जिले के अमानगंज से 17 किमी दूर पंडवा नामक स्थान पर छह नदियों - मिठासन, बंधने, फलने, ब्यारमा आदि का मिलन केन में होता है और यहीं से केन का विस्तार हो जाता है ।यहां से नदी छतरपुर जिले की पूर्वी सीमा को छूती हुई बहती है । आगे चल कर नदी का उत्तर बहाव विध्य पर्वत श्रंखलाओं के बीच संकुचित मार्ग में होता है । इस दौरान यह नदी 40 से 50 मीटर ऊंचाई के कई जल प्रपात निर्मित करती है । पलकोहां(छतरपुर) के करीब इसमें सामरी नामक नाला मिलता है । कुछ आगे चल कर नोनापंाजी के पास गंगउ तालाब है । इस पर एक बांध बना हुआ है । यहां से नदी उतार पर होती है । सो इसका बहाव भी तेज होता है । एक अन्य बांध बरियारपुर पर है ।
छतरपुर जिले की गौरीहार तहसील को छूती हुई यह नदी बांदा(उ.प्र.) जिले में प्रवेश करती है । रास्ते में इसमें बन्ने, कुटनी, कुसियार, लुहारी आदि इसकी सहायक नदियां हैं । बांदा जिले में इसके बाएं तट पर चंद्रावल नदी और दाएं तट पर मिरासन नाला आ जुड़ता है । कोई 30 हजार वर्ग किमी जल-ग्रहण क्षमता वाली इस नदी को 1906 में सबसे पहले बंाधा गया । खजुराहो से कुछ ही किलोमीटर दूरी पर स्थित ,सन 1915 में बना गंगउ बांध इतना जर्जर हो चुका है कि किसी भी समय उसमें जमा अथाह जल-निधि दीवारें तोड़ कर बाहर आ सकती हैं। सनद रहे कि मध्यप्रदेश के छतरपुर की सीमा में पांच ऐसे बांध है जिनका मालिकाना हक उ.प्र. का है। लिहाजा इनमें जमा पानी तो उ.प्र. लेता है, लेकिन इनसे उपजे संकटों जैसे - सीलन, दलदल, बाढ़ आदि को म.प्र. झेलता है।
म.प्र. में केन और सिमरी नदी के मिलन स्थल पर बना गंगउ बांध गत कई सालों से बेकार घोशित हो चुका है। ऐसा नहीं है कि गंगउ की जर्जर हालत के बारे में उ.प्र. सरकार को जानकारी नहीं है। इस बांध की मुख्य वियर की निरीक्षण गैलेरी, चैनल गेट की रैलिंग और पुल नंबर चार की कोई 100 मीटर दीवार सन 2003 में ही खराब हो गई थी। चूंकि बांध के मुख्य हिस्से संरक्षित वन क्षेत्र‘ पन्ना राश्ट्रीय वन’ में आते हैं , सो सुप्रीम कोर्ट से इसकी मरम्म्त की अनुमति ली गई थी। कहा जाता है कि राज्य सरकार के पास बजट की कमी थी और मरम्मत का काम कामचलाउ किया गया। बीते चार सालों में कम बारिश के कारण यह बांध भरा ही नहीं सो इसके टूटे-फूटे हिस्सों पर किसी का ध्यान गया नहीं।
बगैर सोचे समझे नदी-नालों पर बंधान बनाने के कुप्रभावों का ताजातरीन उदाहरण मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में बहने वाली छोटी नदी ‘‘केन’’ है । बुंदेलखंड सदैव से वाढ़ सुरक्षित माना जाता रहा है । गत डेढ दशक से केन अप्रत्याशित ढंग से उफन रही है, और पन्ना, छतरपुर और बांदा जिले में जबरदस्त नुकसान कर रही है । केन के अचानक रौद्र हो जाने के कारणों को खोजा तो पता चला कि यह सब तो छोटे-बड़े बांधों की कारिस्तानी है । सनद रहे केन नदी, बांदा  जिले में चिल्ला घाट के पास यमुना में मिलती है । जब अधिक बारिश होती है, या किन्हीं कारणों से यमुना में जल आवक बढ़ती है तफ इसके बांधों के कारण इसका जल स्तर कुछ अधिक ही बढ़ जाता है । उधर केन और उसके सहायक नालों पर हर साल सैकड़ों ‘‘स्टाप-डेम’’ बनाए जा रहे हैं, जो इतने घटिया हैं कि थोड़ा ही जल संग्रहण होने पर टूट जाते है । केन में बारिश का पानी बढ़ता है, फिर ‘‘स्टाप-डेमों’’ के टूटने का जल-दबाव बढ़ता है । पन्ना जिले में इटवांखास गांव के पास निर्माणाधीन सिरस्वाहा बांध और बिलखुर बांध पहली ही बरसात में कच्ची मिट्टी के घंरोदों की तरह ढह गए हैं। फिर इस बर बरसात का जल रोकने के नाम पर गांव-गांव में खूब चैक डेब बना दिए गए, ना तो उसकी िडजाईन का ध्यान रखा गया और ना ही गुणवत्ता का। जो पहली बरसात हुई, ये संरचनांए बह गई व इससे नदियों में पानी का वेग तेज हो गया। बेतरतीब रेत निकालने और पत्थर निकाल कर स्टोन क्रशर में डालने, नदियों केजल ग्रहण क्षेत्र में वनस्पति कम होने और नंग ेपहाउ़ो ंसे जम कर मिट्टी बहने के चलते इलाके की नदियां पहले ही उथली हो गई हैं। ऐसे में वेग से आया पानी तबाही ही मचाताएगा।
यह भी तथ्य है कि साथ ही केन की राह पर स्थित पुराने ‘‘ओवर-एज’’ हो गए बांधों में भी टूट-फूट होती है । यानी केन क्षमता से अधिक पानी ले कर यमुना की और लपलपाती है । वहां का जल स्तर इतना उंचा होता है कि केन के प्राकृतिक मिलन स्थल का स्तर नीचे रह जाता है । रौद्र यमुना, केन की जलनिधि को पीछे ढकेलती है । इसी कशमकश में नदियों की सीमाएं बढ़ कर गांवों-सड़कों -खेतों तक पहुंच जाती हैं । इन दिनों  बांदा के भूरा गढ में केन का जल स्तर 108.20 मीटर पर है और इसके बेक-स्ट्रोक का ही प्रभाव है कि बांदा से पन्ना तक इसके व इसकी सहायक नदियों - मिढासन, ब्यारमा, पतने, गलका आदि के किनारे बसे खेत-गांव पानी-पानी हो गए हैं।
अचानक हुई तेज बरसात ने कई सउ़के बहा दीं, खेतांे ंमे ंपानी भरने से वहां बोया गया बीज मरने की संभावना है। यानि राहत की बरसात दुख का कारक बन गई। ऐसे हालातों से निबटने के लिए इलाके के पारंपरिक तालबों को गहरा कर उनके जल ग्रहण क्षेत्र को कब्जों से मुक्त करना, केन व उसकी सहायाक नदियों की गहराई पर ध्यान देना, मुख्य नदी को तालाबों से जोडना आदि ऐसे उपाय है जो कि बुंदेलखंड को प्राकृतिक आपदाओं की देहररी मार से बचा सकते हैं।



शुक्रवार, 8 जुलाई 2016

This can not be a pond or lake

कम से कम यह तालाब तो नहीं कहलाता 

                                                                                                                                            पंकज चतुर्वेदी

जनसंदेश टाईम्‍स, उप्र 9 जुलाई 16
‘‘ कुलपहाड़ कस्बे के देहाती क्षेत्र की पंचयात में पिछले दिनों कुछ अफसर व एनजीओ वाले आए, वन विभाग की जमीन पर बने पुराने तालाब पर एक घंटे पोकलैंड मशीन चलाई, दूसरे तालाब पर एक घंटे में पत्थर लगवाए , फोटो खिंचवाए और चले गए। ग्राम सरपंच वीरेन्द्र यादव (भान सिंह का खुड़ा) उनसे कहते रहे कि इसमें पानी नहीं टिकेगा क्योंकि इसके निचले हिस्से को खुला छोड़ दिया है, पर किसी ने सुनी नहीं। एक जुलाई को पानी बरसा तो उसमें पानी तो ठहरा नहीं, हां, वहां से निकल पर पानी की धार ने ढेर सारी जमीन काट और दी। सरचंप श्री यादव दुखी हैं कि यह योजना तालाब बचाने से ज्यादा फोटो खिंचाने की है। ’’हाल ही मेंें सेंटर फार साईंस एंड इनवायरमेंट(सीएसई) ने बुंदेलखंड के सूखे पर झांसी में एक सेमीनार और अगले दिन महोबा और बांदा जिले के कुछ ऐसे इलाकों के भ्रमण का अयोजन किया, जहां तालाब खेत बनाए जा रहे हैं।
केंद्र सरकार के पिछले महीने आए  बजट में यह बात सुखद है कि सरकार ने स्वीकार कर लिया कि देश की तरक्की के लिए गांव व खेत जरूरी हैं, दूसरा खेत के लिए पानी चाहिए व पानी के लिए बारिश की हर बूंद को सहेजने के पारंपरिक उपाय ज्यादा कारगर हैं। तभी खेतों में पांच लाख तालाब खोदने व उसे मनरेगा के कार्य में षामिल करने का उल्लेख बजट में किया गया । सबसे बड़े सवाल खड़े हुए खेत-तालाब योजना पर। इस योजना में उत्तर प्रदेश सरकार कुल एक लाख पांच हजार का व्यय मान रही है और इसका आधा सरकार जमा करती है, जबकि आधा किसान वहन करता है। असल में इस येाजना को जब राज्य सरकार के अफसरों ने कुछ एनजीओं के साथ मिल कर तैयार किया था तो उसमें मशीनों से काम करवाने का प्रावधान नहीं था। यह खुदाई इंसान द्वारा की जानी थी, सो इसका अनुमानित व्यय एक लाख रखा गया था। बाद में पलायन के कारण यहां मजूदर मिले नहीं, लक्ष्य को पूरा करना था, सो आधे से भी कम व्यय में मशीने लगा कर कुंड खोदे गए। यही नहीं इसके लिए किसान को पंजीकरण उप्र सरकार के कृशि विभाग के पोर्टल पर आनलाईन करना होता है। कहने की जरूरत नहीं कि यह किसान के लिए संभव नहीं है। और यहीं से बिचौलियों की भूमिका षुरू हो जाती है। जिसमें पंजीकरण करने, खाते में पैसा डलवने, मशीन की व्यवस्था, फोटो ख्ंिाचवा कर काम का सत्यापन का पूरा पैकेज होता है।
कृशि विज्ञान केंद बांदा के निदेशक प्रो. एनके बाजपेयी अपने राजस्थान के अनुभवों को साझा कर कहते हैं कि बीस गुणा बीस फुट आमाप व 10 फुट गहराई का तालाब ठीक से बनाया जाए तो उससे एक एकड़ में सिंचाई हो जाती है।, लेकिन ऐसे तालाब बनाने के लिए सबसे महत्वपूर्ण होता है स्थान का चयन। ऐसे तालाब जल ग्रहण क्षेत्र, ऊंचाई वाले स्थान और ऐसी जगह होना चाहिए जहां से पानी बह कर जाता हो, तभी ये सफल होते हैं। वे ऐसे कुंड की सफलता के लिए प्लास्टिक की तली लगाने का सुझाव देते हैं। विडंबना है कि महोबा, बांदा में खेतो ंमें रोपे गए अधिकांश तालाबों में वहां की भूवैज्ञानिक संरचना को गंभीरता से लिया नहीं गया। वहां तो लक्ष्य पूर्ति, मशीन का एक दिन में ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल और वाह-वाही लूटने की होड़ मची है।
महोबा से कानपुर जाने वाले मुख्य मार्ग पर रिवई पंचायत में तीन गंाव आते हैं। यहां खेतो में अभी तक 25 तालाब बने। इनमें से अधिकांश तालाब गांव के रसूखदार बड़े लेागेां के खेत में हैं। हकीकत तो यह है कि तैयार की गई संरचना को तालाब तो नहीं कहा जा सकता। यह कुंड हैं जोकि चार मीटर गहरा है और उसकी लंबाई चौड़ाई 30 गुणा 25 मीटर लगभग हैं। यह पूरा काम पानी की आवक या निकासी के गणित को सोच बगैर पोकलैंड मशीनों से करवाया जाता है और इसका असल खर्च सरकारी अनुदान से भी कम होता हैं। कहने की जरूरत नहीं कि अर्जी को सरकारी मेज पर खिसकाने, पोकलैंड मशीन लाने व ऐसे ही कई कामों में मध्यस्थ के बगैर बात नहीं बनती और इसके लिए कुछ एनजीओबाज लेाग सक्रिय भी हैं। यह भी जानना जरूरी है कि तालाब महज एक गड्ढा नहीं है, जिसमें बारिश का पानी जमा हो जाए और लोग इस्तेमाल करने लगें। तालाब कहां खुदेगा, इसको परखने के लिए वहां की मिट्टी, जमीन पर जल आगमन व निगमन की व्यवस्था, स्थानीय पर्यावरण का खयाल रखना भी जरूरी होता है। तालाब की सीधी चार मीटर की गहराई में कोई मवेशी तो नीचे उतर कर पानी पी नहीं सकता, , इंसान का भी वहां तक पुहंचना खतरे से खाली नहीं हैं। लापेारिया, राजस्थान में कई तालाब बनाने वाले लक्ष्मण सिंह का कहना है कि इस संरचना को तालाब तो कहते नहीं है और इस तरह की आकृति भले ही तात्कालिक रूप से जमीन की नमी बनाए रखने या सिंचाई में काम आए, लेकिन इसकी आयु ज्यादा नहीं होती।
गत दो दशकों से पानी और तालाब जैसे मुद्दो के प्रति संवेदनशील बेलाताल के पत्रकार कैलाश सोनी मुख्यमंत्री व सांसद उमा भारती द्वरा बनाई गई जल सलाहकार समिति के सदस्य भी हैं। श्री सोनी के अनुसार यह योजना मायावती के समय मुख्य सचिव रहे एक अफसर ने बनाई थी, जिसे अभी कुछ एनजीओ ने फिर से प्रस्तुत किया। इसके तहत बनी संरचना तालाब तो है नहीं, हां, इससे मवेशी, रात-बिरात खेत से गुजर रहे लोगों के गिरने का खतरा जरूर खड़ा हो गया है।
यह भी देखा गया है ग्रेनाईट संरचना वाले इलाकों में कुएं या तालाब खुदे, रात में पानी भी आया और कुछ ही घंटों में किसी भूगर्भ की झिर से कहीं बह गया। दूसरा , यदि बगैर सोचे -समझे पीली या दुरमट मिट्टी में तालाब खोद तो  धीरे-धीरे पानी जमीन में बैठेगा, फिर दल-दल बनाएगा और फिर उससे ना केवल जमीन नश्ट होगी, बल्कि आसपास की जमीन के प्राकृतिक लवण भी पानी के साथ बह जाएंगे। षुरूआत में भले ही अच्छे परिणाम आएं, लेकिन यदि नमी, दलदल, लवण बहने का सिलसिला महज पंद्रह साल भी जारी रहा तो उस तालाब के आसपास लाइलाज बंजर बनना वैज्ञानिक तथ्य है।
दिल्ली व भोपाल से गए पत्रकारों को एक खेत-कंुड या तालाब दिखाया गया और बताया गया कि यह पहली बारिश में इतना भर गया। असल में हुआ यूं कि इस तालाब या कुंड से सटा खेत निचाई पर है और उसमें एक दिन बरसा जबरदस्त पानी भर गया। इस खेत में एक चौडा सीमंेट पाईप लगा कर उस कुंड को भरा गया। असल में धनंजय ंिसंह के उस खेत में बने तालाब में पानी आने का रास्ता ही नहीं है।इस तालबा के पानी की असलियत खोल दी उसी पंचायत में डेढ किलोमीटर दूर स्थित मालगुजारी तालबाभगवंत सागर ने। यह तालाब रिवई पंचायत के ही सुनेचा गांव की हद से लगा हैं और 22 बीघे का है। यहां पर नोएडा की एक कारपोरेट फर्म ने समाज सेवा कर कर बचाने की योजना के तहत तालाब के गहरीकरण का प्रकल्प किया था। वहां पत्रकारों के आने की खबर के पांच दिन पहले बड़ी-बड़ी मशीने लगाकर बेतरतीब खुदाई कर दी गई । जिस तरफ तालाब का पहले से उंचा हिस्सा था, उसके पाल पर मिअ्टी डाल दी और निचले हिस्से को खुला छोड़ दिया। ख्ुादाई भी ऐसी ककि हीं एक फुट तो कही पांच फुट। इस तालाब की छह इंच गहराई तक मिट्टी में नमी नहीं थी। जरा सोचें कि क्या यह संभव है कि एक बारिश में एक जगह दो फुट पानी भर जा और उससे दो किलोमीटर से भी कम स्थान पर मिट्टी मंें नमी भी ना हो। सनद रहे हैं कि अकेले इसी पंचात के तहत पुराने चर तालाब हैं जो देखभाल या कब्जों के चलते समाप्त हो गए हैं। तालाबबाज एनजीओ ऐसे तालाबों के संरक्षण से बचते हैं और उसमें कारपोरेट को घुसेडते हैं, उनकी असली रूचि सरकार से सबसिडी ले कर तालाब के नाम पर मशीनों से गढडे खोदने में हैं।
इसमें कोई षक नहीं कि नए तालाब जरूर बनें, लेकिन आखिर पुराने तालाबों का जिंदा करने से क्यांे बचा जा रहा है? लेकिन तालाब के नमा पर महज गढडे खेादना इसका विकल्प नहीं है। तालाब गांव की लेाक भावना का प्रतीक हैयानि सामूहिक, सामुदायिक, जबकि खेतों में खुदे कुंड निजी। उसमें भी पैसे वाले कसिान जोकि 52 हजार जेब में रखता हो, उन्हीं के लिए। ऐसे खेत तालाब तात्कालिक रूप् से तो उपयेागी हो सकते हैं, लेकिन दूरगामी सोच तो यही होगी कि मद्रास रेसीडेंसी के ‘ऐरी तालाब प्रणाली’’ के अनुरूप् सार्वजनिक तालाबों को संरक्षित किया जा व उसका प्रबंधन समाज को सौंपा जाए।


गुरुवार, 7 जुलाई 2016

Aadhar will be mandatary for rail ticket

रेलवे के लायक तो मजबूत नहीं है ‘आधार’ का आधार

राज एक्सप्रेस
                                                                     पंकज चतुर्वेदी
इसमें कोई शक नहीं है भारत में रेलवे 163 साल पुरानी होने के बाद भी यात्रियों की उम्मीदों की कसौटी पर खरी नहीं उतर पा रही है। भीड़ इसकी सबसे बड़ी दिक्कत है व उससे ही उपज रही है गंदगी, लेटलतीफी, सार्वजनिक सुविधाओं की कमी आदि। पिछले दो दशक के दौरान कंप्यूटर से आरक्षण व्यवस्था लागू होने के बाद से ही रेलवे की बड़ी चुनौती इसमें भ्रश्टाचार, बिचौलिये, दलाल व अत्याधुनिक तकनीक को भी गच्चा दे कर जायज यात्रियों की सीटें उड़ाकर बउ़े कमीशन में बेचना रहा है।  फिलहाल रेलवे ने तय किया है कि अब हर टिक्ट खरीदने वाले को अपना आधा नंबर जरूर बताना होगा। यह योजना कुछ चरणों में लागू होगी व आने वाले छह महीने में इस पर पूरी तरह अमल हो जाएगा। इसमें कोई षक नहीं कि आधार से टिकट जुड़ने के कई लाभ हैं लेकिन हमारी ‘‘आधार -व्यवस्था’’ और रेल कर्मचारियों की कमजोर नियत को देखते हुए षक ही है कि यह योजना पूरी तरह कारगर होगी।
रेलवे टिकटों की कालाबाजरी रोकने और आरक्षित टिकटों के गोरखधंधे से निबटने में असफल रेलवे के लंबे-चौड़े अमले को अब सात साल पुरानी आधार याजना का सहारा है। गौर करना जरूरी है कि पिछले साल ही सुप्रीम कोर्ट सरकारी योजनओं में लाभ पाने के लिए आधार की अनिवार्यता पर पांबदी लगा चुकी है। ऐसे में रेलवे टिकट पर आधार की अनिवार्यता किस तरह लागू हो पाएगी, इस पर सवाल खड़े है।। शुरुआत में आधार कार्ड की जरूरत सिर्फ रिजर्वेशन कराने के लिए ही जरूरी होगा लेकिन बाद में इसे सभी प्रकार के टिकटों के लिए अनिवार्य कर दिया जाएगा। पहले चरण में वरिष्ठ नागरिक, स्वतंत्रता संग्राम सैनानी ,विकलांग जैसी विशेश छूट वालांे के लिए आधार कार्ड जरूरी किया जाएगा। अनुमान है कि जुलाई महीने के अंत तक यह लागू हो जाएगा। उसके बाद आधार कार्ड की जरूरत सिर्फ आरक्षित टिकट बुक कराने के लिए ही अनिवार्य होगी। आगे चल कर सभी प्रकार के टिकटों के लिए इसे अनिवार्य कर दिया जाएगा। सरकार का दावा है कि देश की 96 फीसदी आबादी आधार नंबर पा चुकी है। योजना के अनुसार टिकट बुकिंग के समय आधार कार्ड संख्या यात्रा टिकट पर छपी होगी। चलती ट्रेन में टिकट निरीक्षक एक डिवाईस के साथ चैकिंग करेंगे व आधार नंबर डालते ही उनके सामने यात्री का फोटो व अन्य विवरण होगा। ऐसे में फर्जी नाम से टिकट बुक करवाना या यात्रा करना असंभव हो जाएगा।
यह येाजना कितनी सफल होगी, उसके लिए पिछले साल राजस्थान के सीकर की इस घटना को याद कर लें, जहां .हनुमानजी के नाम से भी आधार कार्ड जारी हो चुका है। कार्ड पर उनकी तस्वीर छपी है। पिता के नाम के आगे ‘पवनजी’ लिखा है। उस पर पता ‘वार्ड नंबर-छह दांतारामगढ़, पंचायत समिति के पास, जिला सीकर’ लिखा है। फोटो भी हनुमानजी का। इस आधार कार्ड पर पंजीयन क्रमांक 1018/18252/01821 है। कार्ड का नंबर है 209470519541। देश के दूरस्थ अंचल की क्या कहें राजधानी दिल्ली के राश्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में आने वाले गाजियाबाद जिले के षहरी इलाकों के आधार कार्ड आए रोज कूड़े में या लावारिस मिलते रहते हैं। यहां लेागों का आधार पंजीयन तो हो गया, लेकिन उन तक र्काउ नहीं पहुंचे। जो कंप्यूटर जानते हैं या जिनकी मजबूरी रही, उन्होंने तो खुद अपना कार्ड प्राप्त कर लिया, लेकिन नियमानुसार होने वाली सरकारी डिलेवरी यहां षत प्रतिशत असफल रही है।  इन हालातों में आधार का रिकार्ड क्या वास्तव में 96 फीसदी आबादी का उपलब्ध है और वह प्रामाणिक है, इस पर सवालिया निशान तो है ही।
जहां तक रेलवे टिकटों के धंधे की बात है तो यह मान लें कि बगैर स्टाफ की मिलीभगत के यह होता नहीं है। हर ट्रैन के हर प्लेटफसर्म पर पहुंचने पर टीटी के पास खड़ी भीड़, अचानक एसी प्रथम में अवांछित लोगों को सोने को मिल जाना , आम बात है और यह सब बगैर किसी जायज टिकट या आरक्षण के रेलवे के चैकिंग कर्मचारियों की सहमति या मिलीभगत से ही हेाता है। ऐसे में आधार कार्ड कहां तक उपरी कमाई को रोक पाएगा।  फिर बगैर आरक्षण के यात्रा करने वले गरीब लोगों या आकस्मिक यात्रा करने वलों का ट्रेन में चढ़ना संभव ही नहीं होगा, क्योंकि फिलहाल यह संभव नहीं लगता कि इंसान हर समय अपने साथ आधार कार्ड ले कर चलेगा।
ऐसा नहीं है कि आधार से यात्री टिकट को जोड़ने में कुछ गलती है। यह एक आदर्श स्थिति है और इससे रेलवे स्टेशन पर जमा होने वाली बेवहज की अवांछित भीड़ को नियंत्रित किया जा सकता है। दूसरा देलवे में होने वाले अपराध, आकस्मिक दुघर्टना की स्थिति में लापता लेागों की वास्तविक संख्या व पहचान को तलाशना भी सरल होगा। लेकिन यह भी जान लें कि यह तभी संभव है जब रेलवे की कुल भीड़ के लिए पर्याप्त सीट उपलब्ध हों, छोटे स्टेशनों पर आगमन व निर्गमन की चाक चौंबंद व्यवस्था हो और स्टाफ कर्मठ ,ईमानदार और प्रतिबद्ध हो।
आधार का पूरा डाटा रेलवे के कर्मचारियों को उपलब्ध करवा देने का बससे बड़ा संकट है कि पूरी आबादी के डाटा बेस के लीक होने, बेचने व दुरूप्योग की संभावना। यदि ऐसा होता है तो यह देश की सुरक्षा और व्यक्ति की निजता पर बड़ा खतरा होगा। रेलवे को आधार की अनिवार्यता षुरू करने से पहले एक बार फिर उपलब्ध सुविधाओं, ट्रैन में स्थान, गाडियों की लेटलतीफी, उसमें सफाई जैसी सुविधाओं पर ध्यान देना चाहिए। भारतीय रेल हमारे देश की कैसी छबि यात्रियों के समक्ष प्रस्तुत करती है, इसके लिए दिल्ली निजामुद्दन स्टेशन से फरीदाबाद का बामुश्किल 20 किलेामीटर का सफर बोगी के दरवाजे पर खड़े हो कर कर लें,- दोनेा तरफ कूड़ें गंदगी का अंबार, पटरी पर षराब पीते लोग, ख्ुाली नालियां, बदबू , बता देगी कि डिजिटल इंडिया के बनिस्पत मूलभूत सुविधाअें ंपर ध्यान देना जरूरी हे। हो सकता है कि किसी कंपनी से थोक में डाटा वाली हैंड डिवाईस खरीी का अनुबंध योजना की असली जड़ हो, तभी बगैर किसी तैयारी के इसे लागू करने पर रेल मंत्रालय अड़ा हुआ है।

सोमवार, 4 जुलाई 2016

Drops of hope in drought prone bundelkhand

Farm pond can not be a lake or pond

कम से कम यह तालाब तो नहीं है
पंकज चतुर्वेदी
दैनिक जागरण 5-7-16
बुंदेलखंड क्षेत्र के कुलपहाड़ कस्बे के देहाती क्षेत्र की पंचयात है-इनौरा। पिछले दिनों कुछ अफसर व एनजीओ वाले उनके यहां आए, वन विभाग की जमीन पर बने पुराने तालाब पर एक घंटे पोकलैंड मशीन चलाई, दूसरे तालाब पर एक घंटे में पत्थर लगवाए, फोटो खिंचवाए और चले गए। ग्राम सरपंच वीरेन्द्र यादव (भान सिंह का खुड़ा) उनसे कहते रहे कि इसमें पानी नहीं टिकेगा क्योंकि इसके निचले हिस्से को खुला छोड़ दिया है, पर किसी ने सुनी नहीं। एक जुलाई को पानी बरसा तो उसमें पानी तो ठहरा नहीं, दूसरी तरफ वहां से निकली पानी की धार ने ढेर सारी जमीन काट और दी। सरचंप श्री यादव दुखी हैं कि यह योजना तालाब बचाने से यादा फोटो खिंचाने की है। हाल ही में सेंटर फार साइंस एंड इनवायरमेंट (सीएसई) ने बुंदेलखंड के सूखे पर झांसी में एक सेमीनार और अगले दिन महोबा और बांदा जिले के कुछ ऐसे इलाकों के भ्रमण का अयोजन किया, जहां तालाब खेत बनाए जा रहे हैं। इस आयोजन में राजस्थान के लापोडिया में तालाब गढने वाले लक्ष्मण सिंह से ले कर मराठवाड़ा से ललित बाबर व पंडित वासरे, बुंदेलखंड से ही कई पानी-सहेजने वाले अनुभवी लोग शामिल हुए थे। झांसी से 225 किलोमीटर के रास्ते में यह देखना सुखद था कि सड़क के दोनों तरफ किसानों ने अपने खेतों में तालाब से निकली काली गाद को बिछा रखा था। सनद रहे इलाके के कई बड़े तालबों की सफाई व गहराई का काम कहीं सरकार तो बहुत सी जगह आम लोग कर रहे हैं। पहली ही बारिश में उसका असर भी दिखा और जल-निधियां तर हो गईं।
एक दशक के दौरान कम से कम तीन बार उम्मीद से कम मेघ बरसना बुंदेलखंड की सदियों की परंपरा रही है। यहां के पारंपरिक कुएं, तालाब और पहाड़ कभी भी समाज को इं्रद्र की बेरूखी के सामने झुकने नहीं देते थे। जिन लोगों ने तालाब बचाए, वे प्यास व पलायन से निरापद रहे। अनेक विद्वानों ने भारत के विभिन्न क्षेत्रों में बनी जल संचय प्रणालियों का गहन अध्ययन कर उनका विवरण प्रस्तुत किया है। इस विवरण में जल संरचनाओं की विविधता के साथ-साथ उस क्षेत्र की जलवायु से उनका सह-संबंध प्रतिपादित होता है।
केंद्र सरकार के पिछले महीने आए बजट में यह बात सुखद है कि सरकार ने स्वीकार कर लिया कि देश की तरक्की के लिए गांव व खेत जरूरी हैं, दूसरा खेत के लिए पानी चाहिए व पानी के लिए बारिश की हर बूंद को सहेजने के पारंपरिक उपाय यादा कारगर हैं। तभी खेतों में पांच लाख तालाब खोदने व उसे मनरेगा के कार्य में शामिल करने का उल्लेख बजट में किया गया है। खेत में तालाब यानि किसान के अपने खेत के बीच उसके द्वारा बनाया गया तालाब, जिससे वह सिंचाई करे, अपने इलाके का भूजल स्तर को समृद्ध करे और तालाब में मछली, सिंघाड़ा आदि उगा कर कमाई बढ़ाए। ऐसा भी नहीं है कि यह कोई नया या अनूठी योजना है। इससे पहले मध्य प्रदेश में बलराम तालाब, और ऐसी ही कई योजनाएं व हाल ही में उ.प्र. के बुंदेलखंड के सूखाग्रस्त इलाके में कुछ लोग ऐसे प्रयोग कर रहे हैं। सरकारी सोच की तारीफ इसलिए जरूरी है कि यह तो माना कि बड़े बांध के व्यय, समय और नुकसान की तुलना में छोटी व स्थानीय सिंचाई इकाई यादा कारगर हैं।
सबसे बड़े सवाल खड़े हुए खेत-तालाब योजना पर। इस योजना में उत्तर प्रदेश सरकार कुल एक लाख पांच हजार का व्यय मान रही है और इसका आधा सरकार जमा करती है, जबकि आधा किसान वहन करता है। असल में इस येाजना को जब राय सरकार के अफसरों ने कुछ एनजीओं के साथ मिलकर तैयार किया था तो उसमें मशीनों से काम करवाने का प्रावधान नहीं था। यह खुदाई इंसान द्वारा की जानी थी, सो इसका अनुमानित व्यय एक लाख रखा गया था। बाद में पलायन के कारण यहां मजूदर मिले नहीं, लक्ष्य को पूरा करना था, सो आधे से भी कम व्यय में मशीने लगा कर कुंड खोदे गए। यही नहीं इसके लिए किसान को पंजीकरण उप्र सरकार के कृषि विभाग के पोर्टल पर ऑनलाइन करना होता है। कहने की जरूरत नहीं कि यह किसान के लिए संभव नहीं है। और यहीं से बिचौलियों की भूमिका शुरू हो जाती है।
हालांकि यह भी सही है कि जो संरचना तैयार की गई है, उसे तालाब तो नहीं कहा जा सकता। यह कुंड है जो कि चार मीटर गहरा है और उसकी लंबाई चौड़ाई 30 गुणा 25 मीटर लगभग हैं। यह पूरा काम पानी की आवक या निकासी के गणित को सोचे बगैर पोकलैंड मशीनों से करवाया जाता है और इसका असल खर्च सरकारी अनुदान से भी कम होता हैं।
तालाब की सीधी चार मीटर की गहराई में कोई मवेशी तो नीचे उतर कर पानी पी नहीं सकता। इंसान का भी वहां तक पुहंचना खतरे से खाली नहीं हैं। फिर यहां की पीली मिट्टी, जो कि धीरे-धीरे पानी को सोखती हैं व गहराई से दलदल का निर्माण करती है। लापोरिया, राजस्थान में कई तालाब बनाने वाले लक्ष्मण सिंह का स्वयं कहना है कि इस तरह की संरचना को तालाब तो नहीं ही कह सकते हैं। इस तरह की आकृति भले ही तात्कालिक रूप से जमीन की नमी बनाए रखने या सिंचाई में काम आए, लेकिन इसकी आयु यादा नहीं होती।
इसमें कोई शक नहीं कि नए तालाब जरूर बनें, लेकिन आखिर पुराने तालाबों को जिंदा करने से क्यांे बचा जा रहा है? लेकिन तालाब के नाम पर महज गड्ढे खोदना इसका विकल्प नहीं है। तालाब गांव की लेाक भावना का प्रतीक हैं यानि सामूहिक, सामुदायिक, जबकि खेतों में खुदे कुंड निजी। उसमें भी पैसे वाले किसान जो कि 52 हजार जेब में रखता हो, उन्हीं के लिए। ऐसे खेत तालाब तात्कालिक रूप से तो उपयेागी हो सकते हैं, लेकिन दूरगामी सोच तो यही होगी कि मद्रास रेसीडेंसी के ‘ऐरी तालाब प्रणाली’’ के अनुरूप सार्वजनिक तालाबों को संरक्षित किया जाए व उसका प्रबंधन समाज को सौंपा जाए।
चाहे कालाहांडी हो या बुंदेलखंड या फिर तेलंगाना; देश के जल-संकट वाले सभी इलाकों की कहानी एक ही है। इन सभी इलाकों में एक सदी पहले तक कई-कई सौ बेहतरीन तालाब होते थे। यहां के तालाब केवल लोगों की प्यास ही नहीं बुझाते थे, यहां की अर्थ व्यवस्था का मूल आधार भी होते थे। तालाब महज पानी सहेजने का जरिया नहीं होते, उका पूरा एक पर्यावणीय तंत्र होता है। जो पंक्षी, मछली, पेड़, गाद, समाज को एक-दूसरे पर निर्भर रहने का संदेश देता है। जबकि खेत में बनाए गए कुंड दिखावे या तात्कालिक जरूरत की पूर्ति के लिए हैं। पुराने तालाब मछली, कमल गट्टा , सिंघाड़ा, कुम्हार के लिए चिकनी मिट्टी ; यहां के हजारों-हजार घरों के लिए खाना उगाहते रहे हैं। तालाबों का पानी यहां के कुओं का जल स्तर बनाए रखने में सहायक होते थे। शहरीकरण की चपेट में लोग तालाबों को ही पी गए और अब उनके पास पीने के लिए कुछ नहीं बचा है।
काश किसी बड़े बांध पर हो रहे समूचे व्यय के बराबर राशि एक बार एक साल विशेष अभियान चला कर पूरे देश के पारंपरिक तालाबों की गाद हटाने, अतिक्रमण मुक्त बनाने में खर्च कर दिया जाए तो भले ही कितनी भी कम बारिश हो, ना तो देश का कोई कंठ सूखा रहेगा और ना ही जमीन की नमी मारी जाएगी।

शनिवार, 2 जुलाई 2016

Talaab Pimps are active in Bundelkhand

दलाल अब तालाब भी नहीं छोड रहे हैं 

बुंदेलखंड के उप्र के महोबा जिले की रिवई पंचायत के तीन गांव हैं पास पास ही, वहां खेतों में तालाब बनाने की योजना के तहत 26 तालाब बन गए जिसमें किसानों को उनके खाते में सीधे 52 हजार पांच सौ का भुगतान हुआ.बहरहाल यह अलब बहस है कि क्‍या केवल चौरस खोदा गया गढडा तालाब कहलाएगा या नहीं . जिसमें मवेशी या इंसान नीचे तक नहीं उतर सकता. लेकिन यहां चार पुराने तालाब भी हैं जो लगभग समाप्‍त हो रहे हैं, एक में गांव की गंदी नालियां जा रही हैं, तालाब प्रेमी बन कर उभरे कतिपय समाजसेवियों को उनकी चिंता नहीं रही. इसमें कारपोरेट भी घुस आयाा. नोएडा का एक समूह है धरमपाल सत्‍यपाल = रजनीगंधा के नाम से उत्‍पाद हैं उनके. उनका भी इलाके में कारपोरेट सोशल रिस्‍पोंसेबिलीटी के तहत प्रोजेक्‍ट है. सुनेचा गांव के बाहर एक पुराना तालाब है भगवत सागर, शायद चार सौ साल पुराना मालगुजारी तालाब, लगभग 22 बीघे का होगा. इसमें पानी अाने के पारंपरिक हिस्‍से को घेर कर खेत बना लिया गया. पुलिया में पत्‍थर फंसा दिए गए, लेकिन जैसे ही खबर मिली कि दिल्‍ली से कुछ पत्रकार आ रहे हैं तो चार दिन जेसीबी व पोकलैंड मशीन लगा कर उसकी बेतरतीब खुदाई करवा दी गई. कहीं एक फुट गहरा तो कहीं पांच फुट, कहीं बिल्‍कुल नहीं. फिर काम बंद कर दिया गया. कोई सामान्‍य नजर से भी देखेगा तो पता चल जाएगा कि पुराने बुंदेली मालगुजारी तालाब के बडे हिस्‍से पर लेाग कब्‍जा कर चुके हैं और यह पूरी तरह खाली पडा है. इसमें खुदाई के नाम पर दखिावा भी हुआ, लेकिन इसमें पानी कभी नहीं भरेगा. यह है तालाब बाजों के कारनामे जाे अब कारपोरेटों को सामाजिक जिम्‍मेदारी के नाम पर तालाबों के साथ इस तरह की छेडछाड करने के लिए आमंति्रत कर रहे हैं और दो हजार गडढे खुदवाने का काम तो चल ही रहा है. जरा इन चित्रो में देखें, तालाब का जो हिस्‍सा उंचा हैं वहां मिट्रटी खोदक र डाल दी और जहां से निकासी होना चाहिए उसे खुला छोड दिया गया. गांव के पास स्थित मंगल तालाब जिसका रकवा आठ हेक्टेयर से अधिक है मोती तालाब का रकवा पांच हेक्टेयर से अधिक है तथा हनुमान तलैया का रकवा भी चार हेक्टेयर के आसपास है। फिर भी इन तालाओं के गहरीकरण कराये जाने की शासन प्रशासन सुध नही ले रहा है।ऐसे ही दलाल आज फोन कर गाली दे रहे हैा मुझे,धमकी दे रहे है, मैं सन 1986 से बुंदेलखंड के तालबों पर लखि रहा हूं और दलाल मुझे घटिया लेखक कह रहे हैं जिन्‍होंने इस इलाके को अभी दो साल पहले ही देखा होगा. यह उनकी खीज है, आगे भी और ऐसे ही खुलासे करूंगा.यहां भी और अन्‍य माध्‍यमों पर भी.
यहां कर्जा दिलवाने, मशीने किराये पर लाने, कारपोरेट के अधूरे कामों को वाह वाही दिलवाने के बाकायदा दलाल सक्रिय हैं जिनके चैहरे जल्‍द ही बेनकाब होंगे 







Why was the elephant not a companion?

    हाथी क्यों न रहा साथी ?                                                                    पंकज चतुर्वेदी   हाथियों और मानव के ब...