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शुक्रवार, 23 सितंबर 2016

Every victim of terrorism is equally like arm forces

आतंकवाद: फिर क्यों ना हो स्थाई निदान !


उड़ी में सेना के मुख्यालय पर आतंकी हमले के बाद देश में प्रतिहिंसा, बदले के उन्माद के बादल छाए हैं। कई सच्ची-झूठी खबरें उड़ रही हैं लेकिन इस पर कोई गौर नहीं कर रहा कि दुनिया की सबसे ताकतवर सेना के हथिायारों का गोदाम, वह भी पाकिस्तान की सीमा पर , वह भी कश्मीर में कितना लापरवाही से रक्षित किया जा रहा था। यह बानगी है कि हमारे देश में सुरक्षा बल अभी भी मोर्चा लेने में तो अव्वल हैं लेकिन मोर्चें के हालात ही ना बनें इसके लिए तैयार नहीं हैं। इस हमले में तो केवल फौजी मारे गए, लेकिन इसमें 20 से ज्यादा जवान बुरी तरह घायल भी हुए हैं। बीते कई-कई सालों से यह परंपरा रही है कि जब कभी देश में कहीं कोई धमाका, हमला होता है, लोग गिनने लगते हैं कि कितने मरे, सरकार में बैठे लोग आंकड़ों में बताने लगते हैं कि उनके कार्यकाल में यह बहुत कम है, वहीं विपक्ष हमलावर हो जाता है। कुल मिला कर जनता के प्रति जिम्मेदार लोग देश की आतंकवाद से लड़ने की नीति पर एक दूसरे की थुक्का-फजीती में लग जाते हैं।
भले ही आतंकवाद से निबटने की नीति का रास्ता लंबा और जटिल है, लेकिन आतंकवाद के शिकार हुए लोगों के लिए तो एक सशक्त नीति बनाई जा सकती है। हाल के हमले में मारे गए अलग-अलग राज्यों के जवानों को सरकारें द्वारा अलग-अलग मुआवजा देना, पिछले साल मथुरा जिले के शहीद हेमराज के गांव में गए नेताओं के वायदों का अभी तक तक क्रियान्वयन ना होना , बानगी है कि हम अभी तक आतंकवाद से बचाव और उससे पीड़ित लोगों को राहत के मामले में दिशाहिन, नीतिहीन और तथ्दर्थवाद के शिकार हैं। बीते एक दशक के दौरान देश में हुए आतंकवादी हमलों में घायल और मारे गए कई सौ लोगों के परिवारजन मुआवजा पाने के लिए दफ्तर-दर-दफ्तर भटक रहे हैं। एक जगह से मृत्यु प्रमाण पत्र मिलना है तो दूसरी जगह से वारिस का, तीसरी जगह से एफआईआर की कापी तो चौथी जगह से मुआवजे का परवाना। कई लोग स्थाई रूप से विकलांग हो गए और कुछ एक का इलाज कई-कई साल तक चल रहा है। एक बार कहीं कोई घटना घटती है तो सरकार व सियासी नेता तत्काल कुछ मुआवजे और इमदाद की घोषणा कर देते है। फिर राष्ट्रवाद धीरे-धीरे हवा हो जाता है और अपनों को खोए लोगों के सामने समाज-समय की हकीकत उजागर हो जाती है।
आतंकवाद अब अंतरराष्ट्रीय त्रासदी है। देश-दुनिया का कोई भी हिस्सा इससे अछूता नहीं है। भारत में यह अब महानगर ही नहीं छोटे शहर वाले भी महसूस करने लगे हैं कि ना जाने कौन से दिन कोई अनहोनी घट जाए। लेकिन इसके लिए तैयारी के नाम पर हम कागजों से ऊपर नहीं उठ पा रहे हैं। ट्रॉमा सेंटर अभी दिल्ली में भी भली-भांति काम नहीं कर रहे हैं, तो अन्य राज्यों की राजधानी की परवाह कौन करे। क्या यह जरूरी नहीं है कि संवेदनशील इलाकों में सचल अस्पताल, बड़े अस्पतालों में सदैव मुस्तैद विशेषज्ञ हों। आम सर्जन बीमारियों के लिए आपरेशन करने में तो योग्य होते हैं, लेकिन गोली या बम के छर्रे निकालने में उनके हाथ कांपते हैं। बारूद के धुंए या धमाकों की दहशत से बेहोश हो गए लोगों को ठीक करना, डरे-सहमें बच्चों या अपने परिवार के किसी करीबी को खो देने के आतंक से घबराए लोगों को सामान्य बनाना जैसे विषयों को यदि चिकित्सा की पढ़ाई में इस किस्म के मरीजों के त्वरित इलाज के विशेष पाठ्यक्रम को शामिल किया जाए तो बेहतर होगा।
आतंकवादी घटनाओं के शिकार हुए आम लोगों और सुरक्षा बलों के जवानों को आर्थिक मदद और उनके जीवनयापन की स्थाई व्यवस्था या पुनर्वास का काम अभी भी तदर्थवाद का शिकार है। कोई घटना होने के बाद तत्काल स्थानीय या कतिपय संस्थाएं अभियान चलाती हैं, कुछ लोग भाव विभोर हो कर दान देते हैं ओर असमान किस्म की इमदाद लोगों तक पहुंचती है। दिल्ली या मुंबई में हुए धमाके देश पर हमला मान लिए जाते हैं तो उन पर ज्यादा आंसू, ज्यादा बयान और ज्यादा मदद की गुहार होती है। उत्तर-पूर्वी राज्यों या छत्तीसगढ़, उड़ीसा या झारखंड की घटनाएं अखबारों की सुर्खिया ही नहीं बन पाती हैं। ऐसे में वहां के पीड़ितों को आर्थिक मदद की संभावनाएं भी बेहद क्षीण होती हैं। सशस्त्र बलों या अन्य सरकारी कर्मचारियों को सरकारी कायदे-कानून के मुताबिक कुछ मिल जाता है, लेकिन आम लोग इलाज के लिए भी अपने बर्तन-जमीन बेचते दिखते हैं। कुछ साल पहले हैदराबाद के धमाके में घायल हुए 25 साल के अब्दुल वासिफ मिर्जा का मामला गौरतलब है, वह 2007 के मक्का मस्जिद धमाके में घायल हुआ और उसका एक पैस काटना पड़ा,उसके परिवार वालों का सबकुछ बिक गया उसके इलाज में । अब वह एक बार बम धमाके में घायल हो गया।
वैसे तो केंद्र में प्रधानमंत्री और राज्यों में मुख्यमंत्री राहत कोष हैं, जिनसे ऐसी ही आकस्मिक घटनाओं के शिकार हुए लोगों की मदद का कार्य किया जाता है, लेकिन यह तभी संभव होता है जब ऐसी घटनाओं की जानकारी प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री तक जाए और साथ ही पदासीन व्यक्ति संवेदनशील हो। ऐसा हर समय संभव नहीं है, लेकिन आतंकवादी घटनाएं कभी भी कहीं भी संभव हैं। अब यह जरूरी लगता है कि आतंकवादी घटनाओं के शिकार लोगों के मुआवजे, राहत, इलाज, रोजगार के लिए ‘‘सिंगल विंडो’’ की तर्ज पर एक महकमा हो। ऐसी दुर्भाग्यपूुर्ण घटनाएं होने पर जिस तरह पुलिस, सुरक्षा एजंसिया, एंबूलेंस आदि त्वरित काम पर लग जाते हैं, उसी तरह इस महकमे के लोग भी चिकित्सा व अन्य तात्कालिक मदद का आकलन व उसे मुहैया करवाने, मृत लोगों के पोस्टमार्टम, लाशों को ससम्मान संबंधित लोगों के घर तक पहुंचाने, तत्काल दवा या अन्य चिकित्सीय जरूरतों का पता लगाने, गुम हो गए लोगों की सूचना, कौन किस अस्पताल में है इसकी खबर जैसे काम इस विभाग द्वारा किए जाएं। वरना होता यह है कि किसी हादसे की हालत में अस्पतलों और सड़कों पर बदहवास सी बड़ी भीड़ उन लोगों की होती है जो किसी अपने की तलाश कर रहे होते हैं। अस्पताल के लोग तिमारदारी में लगे होते हैं और पुलिसवाले अपराधी की तलाश में। ऐसे में पूछताछ करने वाले असंतुष्ट हो कर नारेबाजी या अन्य व्यवधान खड़ा कर देते हैं। क्या ऐसी घटनाओं के तुरंत बाद जांच करने वाले, सतर्कता बरतने वाले, घायलों के इलाज की व्यवस्था करने और धरपकड़ की जिम्मेदारियां अलग-अलग एजेंसी पर डालने जैसा साधारण काम नहीं किया जा सकता? ऐसे में ना तो पुलिस को घायल की चिंता करना होगा और ना ही एनआईए को सुरक्षा की।
सबसे बड़ी बात कि ऐसे महकमे के लिए दान के दरवाजे सालभर खुले हों, जिस तरह कुछ टीवी चैनल अपने-अपने विशेष फंड बना कर दानदाताओं के नाम अपनी स्क्रीन पर दिखाने की बात क कर राहत सामग्री जोड़ रहे हैं, सरकारी महकमों को भी दानदाताओं को धन्यवाद के लिए विज्ञापनों का सहारा ले कर लोगों को आकर्षित करना होगा। अपने किसी प्रिय के जन्मदिन या स्मृति में ‘‘आतंकवाद प्रकोष्ठ’’ के लिए दान देने के लिए आकर्षित करना कोई बड़ी बात नहीं है। इससे एक तो धन राशि या राहत, जरूरतमंद तक पहुंचाने का केवल एक ही माध्यम तय होगा, जिससे लोगों को भटकना नहीं पड़ेगा, साथ ही यह संस्था आतंकवाद से पीड़ित के आश्रितों को स्थाई रोजगार दिलवाने का कम भी कर सकती है। हो सकता है कि कुछ कंपनियां या विभाग ऐसे लोगों को रोजगार के लिए कुछ आरक्षित सीटें रख दें।
आतंकवाद की अराजक स्थिति में टीवी के चैनल बदल-बदल कर आंसू बहाने वालों के असली राष्ट्रप्रेम की परीक्षा यह विभाग हो सकता है। ऐसी संस्था की निशुल्क सेवा या संकट के समय कुछ समय देने वालों को एकत्र किया जा सकता है, यह नए महकमे के खर्चों को कम करने में सहायक कदम होगा। सबसे बड़ी बात सरकारी सेवा करने वाले सभी लोगों को फौज व राहत अभियान का प्राथमिक प्रशिक्षण देना और समय-समय पर उनके लिए ओरिएंटेशन कैंप आयोजित करना समय की मांग है। लोगों को प्राथमिक उपचार, सामान्य लिखा-पढ़ी के काम भी दिए जा सकते हैं।
क्रिकेट के मैदान पर तिरंगे ले कर उधम मचाने वाले युवाओं का भी देश-प्रेम के प्रति दृष्टिकोण महज नेताओं को गाली देने या पाकिस्तान को मिटा देने तक ही सीमित है। यह हमारी पाठ्य पुस्तकों और उससे उपज रही शिक्षा का खोखला दर्शन नहीं तो और क्या है? बातें युवाओं की लेकिन नीति में दिशाहीन, अनकहे सवालों से जझते युवा ।
यदि सरकार इस विषय में सोचती हैं तो इससे आम आदमी की देश व समाज के प्रति संवेदनशीलता तो बढ़ेगी ही, आतंकवाद के नाम पर राजनीति करने वालों की दुकानें भी बंद हो जाएंगी। मानवता के दुश्मनों के हाथों मारा गया प्रत्येक निर्दोष उसी सम्मान, राहत और सहानुभूति का हकदार है, जितना की वर्दीधारी।

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