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शुक्रवार, 2 सितंबर 2016

Indian festivals are praying of ecology

पर्यावरण- मित्र बनाएं पर्वों को  

                                                                                                                           पंकज चतुर्वेदी
बारिश के बादल अपने घरों को लौट रहे हैं, सुबह सूरज कुछ देर से दिखता है और जल्दी अंधेरा छाने लगा है, मौसम का यह बदलता मिजाज असल में उमंगों. खुशहाली के स्वागत की तैयारी है । सनातन मान्यताओं की तरह प्रत्येक षुभ कार्य के पहले गजानन गणपति की आराधना अनिवार्य है और इसी लिए उत्सवों का प्रारंभ गणेश चतुर्थी से ही होता है। प्रधानमंत्री ‘मन की बात’ में अपील कर रहे हैं कि देव प्रतिमाएं प्लास्टर आफ पेरिस यानि पीओपी की नहीं बनाएं, मिट्टी की ही बनाए, लेकिन राजधानी दिल्ली में ही अक्षरधाम के करीब मुख्य एनएच-24 हो या साहिबााद में जीटी रेाड पर थाने के सामने ;धड़ल्ले से पीओपी की प्रतिमाएं बिक रही हैं। यह तो प्रारंभ है, इसके बाद दुर्गा पूजा या नवरात्रि, दीपावली से ले कर होली तक एक के बाद एक के आने वाले त्योहार असल में किसी जाति- पंथ के नहीं, बल्कि भारत की सम्द्ध सांस्कृतिक परंपराओं के प्रतीक हैं। विडंबना है कि जिन त्येाहरों के रीति रिवाज, खानपान कभी समाज और प्रकृति के अनुरूप हुआ करते थे, आज पर्व के मायने हैं पर्यावरण, समाज और संस्कृति सभी का क्षरण।

खूब हल्ला हुआ, निर्देश, आदेश का हवाला दिया गया, अदालतों के फरमान बताए गए, लेकिन गणपति का पर्व वही पुरानी गति से ही मनाया जा रहा है। महाराष्ट्र, उससे सटे गोवा, आंध््राप्रदेश व तेलगांना, छत्तीसगढ़, गुजरात व मप्र के मालवा-निमाड़ अंचल में पारंपरिक रूप से मनाया जाने वाला गणेशोत्सव अब देश में हर गांव-कस्बे तक फैल गया है। दिल्ली में ही हजार से ज्यादा छोटी-बड़ी मूर्तियां स्थापित हो रही हैं। यही नहीं मुंबई के प्रसिद्ध लाल बाग के राजा की ही तरह विशाल प्रतिमा, उसी नाम से यहां देखी जा सकती है। पारंपरिक तौर पर मूर्ति मिट्टी की बनती थी, जिसे प्राकृतिक रंगों, कपड़ों आदि से सजाया जाता था। आज प्रतिमाएं प्लास्टर आफ पेरिस से बन रही हैॅ, जिन्हें रासायनिक रंगों से पोता जाता है। कुछ राज्य सरकारों ने प्लास्टर आफ पेरिस की मूर्तियों को जब्त करने की चेतावनी भी, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया और पूरा बाजार घटिया रासायनिक रंगों से पुती प्लास्टर आफ पेरिस की प्रतिमाओं से पटा हुआ है। इंदौर के पत्रकार सुबोध खंडेलवाल ने गोबर व कुछ अन्य जड़ी बूटियों को मिला कर ऐसी गणेश प्रतिमाएं बनवाई जो पानी में एक घंटे में घर में ही घुल जाती है, लेकिन बड़े गणेश मंडलों ने ऐसे पर्यावरण-मित्र प्रयोगों को स्वीकार नहीं किया। बंबई मे भी गमले में बीज के साथ गणपति प्रतिमा के प्रयोग हुए लेकिन लेागों को तो चटक रंग वाली विशाल, पीओपी की जहरीली प्रतिमा में ही भगवान का तेज दिख रहा है। पंडालों को सजाने में बिजली, प्लास्टिक आदि का इस्तमेाल होता है। सांस्कृतिक कार्यक्रमों में कला के नाम पर भौंडे प्रदर्शन प्रदर्शन व अश्लीलता का बोलबाला है।
अभी गणेशात्सव का समापन होगा ही कि नवरात्रि में दुर्गा पूजा शुरू हो जाएगी। यह भी लगभग पूरे भारत में मनाया जाने लगा है। हर गांव-कस्बे में एक से अधिक स्थानों पर सार्वजनिक पूजा पंडाल बन रहे हैं। बीच में विश्वकर्मा पूजा भी आ आ गई और अब इसी की प्रतिमाएं बनाने की रिवाज शुरू हो गई है। कहना ना होगा कि प्रतिमा स्थापना कई हजार करोड़ की चंदा वसूली का जरिया है। एक अनुमान है कि हर साल देश में इन तीन महीनों के दौरान 10 लाख से ज्यादा प्रतिमाएं बनती हैं और इनमें से 90 फीसदी प्लास्टर आफ पेरिस की होती है। इस तरह देश के ताल-तलैया, नदियों-समुद्र में नब्बे दिनों में कई सौ टन प्लास्टर आफ पेरिस, रासायनिक रंग, पूजा सामग्री मिल जाती है। पीओपी ऐसा पदार्थ है जो कभी समाप्त नहीं होता है। इससे वातावरण में प्रदूषण का मात्रा के बढ़ने की संभावना बहुत अधिक है। प्लास्टर आफ पेरिस, कैल्शियम सल्फेट हेमी हाइड्रेट होता है जो कि जिप्सम (कैल्शियम सल्फेट डीहाइड्रेट) से बनता है चूंकि ज्यादातर मूर्तियां पानी में न घुलने वाले प्लास्टर आफ पेरिस से बनी होती है, उन्हें विषैले एवं पानीे में न घुलने वाले नॉन बायोडिग्रेडेबेल रंगों में रंगा जाता है, इसलिए हर साल इन मूर्तियों के विसर्जन के बाद पानी की बॉयोलॉजिकल आक्सीजन डिमांड तेजी से घट जाती है जो जलजन्य जीवों के लिए कहर बनता है। चंद साल पहले मुम्बई से वह विचलित करने वाला समाचार मिला था जब मूर्तियों के धूमधाम से विसर्जन के बाद लाखों की तादाद में जुहू किनारे मरी मछलियां पाई गई थीं।
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा दिल्ली में यमुना नदी का अध्ययन इस संबंध में आंखें खोलने वाला रहा है कि किस तरह नदी का पानी प्रदूषित हो रहा है। बोर्ड के निष्कर्षों के मुताबिक नदी के पानी में पारा, निकल, जस्ता, लोहा, आर्सेनिक जैसी भारी धातुओं का अनुपात दिनोंदिन बढ़रहा है।
इन आयोजनों में व्यय की गई बिजली से 500 से अधिक गांवों को सालभर निर्बाध बिजली दी जा सकती हे। नवरात्रि के दौरान प्रसाद के नाम पर व्यर्थ हुए फल, चने-पूड़ी से कई लाख लोगों का पेट भरा जा सकता है। इस अवधि में होने वाले ध्वनि प्रदूषण, चल समारोहों के कारण हुए जाम से फुंके ईंधन व उससे उपजे धुंऐ से होने वाले पर्यावरण के नुकसान का तो हिसाब लगाना ही मुश्किल है। दुर्गा पूजा से उत्पन्न प्रदूषण से प्रकृति संभल पाती नहीं है और दीपावली आ जाती है। आतिशबाजी का जहरीला धुआं, तेल के दीयों के बनिस्पत बिजली का बढ़ता इस्तेमाल, दीपावली में स्नेह भेट की जगह लेन-देन या घूस उपहार का बढ़ता प्रकोप, कुछ ऐसे कारक हैं जो सर्दी के मौसम की सेहत को ही खराब कर देते हैं। यह भी जानना जरूरी है कि अब मौसम धीरे -धीरे बदल रहा है और ऐसे में हवा में प्रदूषण के कण नीचे रह जाते हैं जो सांस लेने में भी दिक्कत पैदा करते हैं।
सबसे बड़ी बात धीरे-धीरे सभी पर्व व त्योहारों के सार्वजनिक प्रदर्शन का प्रचलन बढ़ रहा है और इस प्रक्रिया में ये पावन-वैज्ञानिक पर्व लंपटों व लुच्चों का साध्य बन गए हैं प्रतिमा लाना हो या विसर्जन, लफंगे किस्म के लडके मोटर साईकिल पर तीन-चार लदे-फदे, गाली गलौच , नशा, जबरिया चंदा वूसली, सडक पर जाम कर नाचना, लडकियों पर फब्तियों कसना, कानून तोड़ना अब जैसे त्योहारों का मूल अंग बनता जा रहा है। इस तरह का सामाजिक  व सांस्कृतिक प्रदूशण नैसर्गिक प्रदूशध से कहीं कम नहीं है।
सवाल खड़ा होता  है कि तो क्या पर्व-त्योहारों का विस्तार गलत है? इन्हें मनाना बंद कर देना चाहिए? एक तो हमें प्रत्येक त्योहर की मूल आत्मा को समझना होगा, जरूरी तो नहीं कि बड़ी प्रतिमा बनाने से ही भगवान ज्यादा खुश होंगे ! क्या छोठी प्रतिमा बना कर उसका विसर्जन जल-निधियों की जगह अन्य किसी तरीेके से करके, प्रतिमाओं को बनाने में पर्यावरण मित्र सामग्री का इस्तेमाल करने  जैसे प्रयोग तो किए जा सकते हैं पूजा सामग्री में प्लास्टिक या पोलीथीन का प्रयोग वर्जित करना, फूल- ज्वारे आदि को स्थानीय बगीचे में जमीन में दबा कर उसका कंपोस्ट बनाना, चढ़ावे के फल , अन्य सामग्री को जरूरतमंदों को बांटना, बिजली की जगह मिट्टी के दीयों का प्रयोग ज्यादा करना, तेज ध्वनि बजाने से बचना जैसे साघारण से प्रयोग हैंं ; जो पर्वो से उत्पन्न प्रदूषण व उससे उपजने वाली बीमारियांे पर काफी हद तक रोक लगा सकते हैं। पर्व आपसी सौहार्द बढ़ाने, स्नेह व उमंग का संचार करने के और बदलते मौसम में स्फूर्ति के संचार के वाहक होते हैं। इन्हें अपने मूल स्वरूप में अक्षुण्ण रखने की जिम्मेदारी भी  समाज की है।
भारतीय पर्व असल में प्रकृति को उसकी देन, के लिए धन्यवाद देने के लिए होते हैं, लेकिन इस पर बाजारवाद जो रंग चढ़ा है, उससे वे प्रकृति-हंता बन कर उभरे है। प्रशासन के लिए भी प्रधानमंत्री की अपील काफी है कि वह बलात पीओपी की प्रतिमाओं के निर्माण पर पाबंदी लगाए। समाज को भी गणपति या देवी प्रतिमाओं को पानी में विसर्जित करने के बजाए जमींदोज करने के विकल्प पर विचार करना चाहिए।

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