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शुक्रवार, 9 सितंबर 2016

Polythene ban needs a strong alternative

विकल्प के बिना बंद नहीं होगी पॉलीथिन


पिछले दिनों दिल्ली, गुड़गांव से ले कर चेन्नई, बंगलूर तक शहरों में हुए जलभराव का सबसे बड़ा कारण नालियों व सीवर में पॉलीथिन का फंसना सामने आया है। विडंबना है कि हर एक इंसान यह मानता है कि पॉलीथिन बहुत नुकसान कर रही है, लेकिन उसका मोह ऐसा है कि किसी न किसी बहाने से उसे छोड़ नहीं पा रहा है। नगर निगमों का बड़ा बजट सीवर व नालों की सफाई में जाता है और परिणाम शून्य ही रहते हैं और इसका बड़ा कारण पूरे मल-जल प्रणाली में पॉलीथिन का अंबार होना है। ऐसा नहीं है कि स्थानीय प्रशासन ने पॉलीथिन पर पाबंदी की पहल न की हो, पंजाब हो या कश्मीर या तिरुअनंतपुरम या चेन्नई या फिर रीवा, भुवनेश्वर, शिमला, देहरादून, बरेली, बनारस... देश के हर राज्य के कई सौ शहर यह प्रयास कर रहे हैं, लेकिन नतीजा अपेक्षित नहीं आने का सबसे बड़ा कारण विकल्प का अभाव है। पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के दो सदस्यों गोपाल गौड़ा व आदर्श कुमार गोयल की बेंच ने केंद्र सरकार को एक ऐसी उच्च स्तरीय समिति के गठन के निर्देश दिए हैं, जोकि पूरे देश में प्लास्टिक थैलियों के इस्तेमाल, बिक्री और निबटान पर पर्यावरणीय कारणों से पूर्ण पाबंदी की योजना की रूपरेखा प्रस्ततु कर सके। यह आदेश एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए जारी किए गए हैं, जिसमें पूरे देश में पॉलीथिन थैलियों को खाने से मवेशियों के मरने की व्यथा बताई गई थी। 
असल बात तो यह है कि कच्चे तेल के परिशोधन से मिलने वाले डीजल, पेट्रोल आदि के साथ ही पॉलीथिन बनाने का मसाला भी पेट्रो उत्पाद ही है। और इससे बड़ा मुनाफा कमाने वाले इस पर पाबंदी लगाने में अड़ंगे लगाते हैं। हालांकि, पॉलीथिन प्रकृति, इंसान और जानवर सभी के लिए जानलेवा है। घटिया पॉलिथिन का प्रयोग सांस और त्वचा संबंधी रोगों तथा कैंसर का खतरा बढ़ाता है। पॉलीथिन की थैलियां नष्ट नहीं होती हैं और धरती की उपजाऊ क्षमता को नष्ट कर इसे जहरीला बना रही हैं। साथ ही मिट्टी में इनके दबे रहने के कारण मिट्टी की पानी सोखने की क्षमता भी कम होती जा रही है, जिससे भूजल के स्तर पर असर पड़ता है। पॉलीथिन खाने से गायों व अन्य जानवरों के मरने की घटनाएं तो अब आम हो गई हैं। फिर भी बाजार से सब्जी लाना हो या पैक दूध या फिर किराना या कपड़े, पॉलीथिन के प्रति लोभ न तो दुकानदार छोड़ पा रहे हैं, न ही खरीददार। मंदिरों, ऐतिहासिक धरोहरों, पार्क, अभ्यारण्य, रैलियों, जुलूसों, शोभा यात्राओं आदि में धड़ल्ले से इसका उपयोग हो रहा है। शहरों की सुंदरता पर इससे ग्रहण लग रहा है। पॉलीथिन न केवल वर्तमान, बल्कि भविष्य को भी नष्ट करने पर आमादा है।
 यह मानवोचित गुण है कि इंसान जब किसी सुविधा का आदी हो जाता है तो उसे तभी छोड़ पाता है, जब उसका विकल्प हो। यह भी सच है कि पॉलीथिन बीते दो दशक के दौरान बीस लाख से ज्यादा लोगों के जीविकोपार्जन का जरिया बन चुका है, जोकि इसके उत्पादन, व्यवसाय, पुरानी पन्नी एकत्र करने व उसे कबाड़ी को बेचने जैसे काम में लगे हैं। वहीं पॉलीथिन के विकल्प के रूप में जो सिंथेटिक थैले बाजार में आए हैं, वे एक तो महंगे हैं, दूसरे कमजोर और तीसरे वे भी प्राकृतिक या घुलनशील सामग्री से नहीं बने हैं और उनके भी कई विषम प्रभाव हैं। कुछ स्थानों पर कागज के बैग और लिफाफे बनाकर मुफ्त में बांटे भी गए, लेकिन मांग की तुलना में उनकी आपूर्ति कम थी।असल में प्लास्टिक या पॉलीथिन के कचरे को बढ़ाने का काम समाज ने ही किया है। अभी कुछ साल पहले तक स्याही वाला फाउंटेन पेन होता था, उसके बाद ऐसे बाल पेन आए, जिनकी केवल रिफिल बदलती थी। आज बाजार मे ऐसे पेनों को बोलबाला है, जो खत्म होने पर फेंक दिए जाते हैं। देश की बढ़ती साक्षरता दर के साथ ऐसे पेनों का इस्तेमाल और उसका कचरा बढ़ता गया। जरा सोचें कि तीन दशक पहले एक व्यक्ति साल भर में बमुश्किल एक पेन खरीदता था और आज औसतन हर साल एक दर्जन पेनों की प्लास्टिक प्रति व्यक्ति बढ़ रही है। इसी तरह शेविंग-किट में पहले स्टील या उससे पहले पीतल का रेजर होता था, जिसमें केवल ब्लेड बदले जाते थे और आज हर हफ्ते कचरा बढ़ाने वाले ‘यूज एंड थ्रो’ वाले रेजर ही बाजार में मिलते हैं। अभी कुछ साल पहले तक दूध भी कांच की बोतलों में आता था या फिर लोग अपने बर्तन लेकर डेयरी जाते थे। आज दूध तो ठीक ही है, पीने का पानी भी कचरा बढ़ाने वाली बोतलों में मिल रहा है। अनुमान है कि पूरे देश में हर रोज चार करोड़ दूध की थैलियां और दो करोड़ पानी की बोतलें कूड़े में फेंकी जाती हैं। मेकअप का सामान, घर में होने वाली पार्टी में डिस्पोजेबल बर्तनों का प्रचलन, बाजार से सामान लाते समय पॉलीथिन की थैलियां लेना, हर छोटी-बड़ी चीज की पैकिंग, ऐसे ही न जाने कितने तरीके हैं, जिनसे हम कूड़ा-कबाड़ा बढ़ा रहे हैं। यदि वास्तव में पॉलीथिन का विकल्प तलाशना है तो पुराने कपड़े के थैले बनवाना एकमात्र विकल्प है। सनद रहे पूरे देश में कोई दस हजार से ज्यादा पॉलीथिन थैलियां बनाने के छोटे-बड़े कारखाने में काम कर रहे हैं। जहां कोई 10 लाख टन थैलियां हर साल बनती व बाजार में आकर प्रकृति को दूषित करती हैं। यह सच है कि जिस तरह पॉलीथिन की मांग है, उतनी कपड़े के थैले की नहीं होगी, क्योंकि थैला कई-कई बार इस्तेमाल किया जा सकता है, लेकिन कपड़े के थैले की कीमत, उत्पादन की गति भी उसी तरह पॉलीथिन के मानिंद तेज नहीं होगी। इस तरह पॉलीथिन बनाने वाली यूनिटों को रोजगार व उतनी ही आय का एक विकल्प मिलेगा। सबसे बड़ी दिक्कत है दूध, जूस, बनी हुई करी वाली सब्जी आदि के व्यापार की। हालांकि, यह भयानक तथ्य है कि बाजार में उपलब्ध अधिकांश प्लास्टिक या पन्नी की भोजन पैकेजिंग खतरनाक है और उससे क्लोरीन जैसे पदार्थ खाने में जुटते हैं, परिणाम गुर्दे खराब होना। इस बारे में जागरूकता फैलाने के साथ-साथ विकल्प के तौर पर एल्यूमिनियम या अन्य मिश्रित धातु के खाद्य-पदार्थ के लिए माकूल कंटेनर बनाए जा सकते हैं। सबसे बड़ी बात घर से बर्तन ले जाने की आदत फिर से लौट आए तो खाने का स्वाद, उसकी गुणवत्ता, दोनों ही बनी रहेगी। कहने की जरूरत नहीं है कि पॉलीथिन में पैक दूध या गरम करी उसके जहर को भी आपके पेट तक पहुंचाती है। आजकल बाजार माइक्रोवेव में गरम करने लायक एयरटाइट बर्तनों से पटा पड़ा है, ऐसे कई-कई साल तक इस्तेमाल होने वाले बर्तनों को भी विकल्प के तौर पर विचार किया जा सकता है। प्लास्टिक से होने वाले नुकसान को कम करने के लिए बायोप्लास्टिक को बढ़ावा देना चाहिए। बायो प्लास्टिक चीनी, चुकंदर, भुट्टा जैसे जैविक रूप से अपघटित होने वाले पदाथोंर् के इस्तेमाल से बनाई जाती है। हो सकता है कि शुरुआत में कुछ साल पन्नी की जगह कपड़े के थैले व अन्य विकल्प के लिए कुछ सब्सिडी दी जाए तो लोग अपनी आदत बदलने को तैयार हो जाएंगे। लेकिन यह व्यय पॉलीथिन से हो रहे व्यापक नुकसान के तुलना में बेहद कम ही होगा। सनद रहे कि 40 माइक्रान से कम पतली पन्नी सबसे ज्यादा खतरनाक होती है। कचरे-कबाड़े से बीन-बीन कर एक पुरानी पन्नी को ही गलाकर नई पॉलीथिन बना दी जाती है, लेकिन एक सीमा ऐसी आती है, जब उसका पुनर्चक्रण संभव नहीं होता व वह महज धरती पर बोझ होती है। सरकारी अमलों को ऐसी पॉलीथिन उत्पादन करने वाले कारखानों को ही बंद करवाना पड़ेगा। वहीं प्लास्टिक कचरा बीनकर पेट पालने वालों के लिए विकल्प के तौर पर बंगलुरू के प्रयोग को विचार कर सकते हैं, जहां लावारिस फेंकी गई पन्नियों को अन्य कचरे के साथ ट्रीटमेंट करके खाद बनाई जा रही है। हिमाचल प्रदेश में ऐसी पन्नियों को डामर के साथ गला कर सड़क बनाने का काम चल रहा है। जर्मनी में प्लास्टिक के कचरे से बिजली का निर्माण भी किया जा रहा है। विकल्प तो और भी बहुत हैं, बस जरूरत है तो एक नियोजित दूरगामी योजना और उसके क्रियान्वयन के लिए जबरदस्त इच्छाशक्ति की।

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