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बुधवार, 12 अक्तूबर 2016

Bundelkhand : chhatarpur, muharram of composite culture

बुंदेलखंड: छतरपुर में मुहर्रम


इस बार सत्य की असत्यता पर जीत के दो पर्व - दशहरा और मुहर्रम एक साथ हैं। ऐसे में बुंदेलखंड केसरी महाराज छत्रसाल की नगरी छतरपुर का मुहर्रम शांति, सांप्रदायिक सौहार्द और आपसी सामंजस्य का अनुकरणीय उदारहरण है। हर जाति और समाज के लोग इस त्याग और इंसाफ की राह पर चलने के पर्व में शिरकत करते हैं। 

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पूरे देश में कुछ लोगों द्वारा फैलाई जा रही सांप्रदायिकता के दौर में एकबारगी लगने लगता है कि खुदा और भगवान कोई दो अलग-अलग शक्तियां हैं, और वे साथ नहीं रह सकते। इस बार सत्य की असत्यता पर जीत के दो पर्व – दशहरा और मुहर्रम एक साथ हैं। ऐसे में बुंदेलखंड केसरी महाराज छत्रसाल की नगरी छतरपुर का मुहर्रम शांति, सांप्रदायिक सौहार्द और आपसी सामंजस्य का अनुकरणीय उदारहरण है। हर जाति और समाज के लोग इस त्याग और इंसाफ की राह पर चलने के पर्व में शिरकत करते हैं। वक्त के साथ कुछ लोगों ने यहां की भी फिजां बिगाड़ने की कोशिश की, लेकिन समृद्ध परंपराओं में रचे-बसे छतरपुरवासियों ने ऐसी हर साजिश को दृ़ढ़ता से नाकाम कर दिया। यहां की बड़ी कुजरहटी के बाशिंदे हारून चचा अपने जीवन के 70 से अधिक मुहर्रम देख चुके हैं। ऊदल सिंह के ताजिये की याद कर आज भी उनकी आंखें तर हो जाती हैं। बात उन दिनों की है, जब यहां जितने ताजिये मुसलमानों के होते थे, उतने ही हिंदुओं के। महाराज छतरपुर और नगर सेठ के ताजिये आलीशान होते थे, लेकिन गरीब होने के बावजूद ऊदल सिंह के ताजिये की शान निराली होती थी। बकौल हारून चचा, एक बार ऊदल ने तंगी की हालत में अपनी पत्नी की दुर यानि नथनी गिरवी रखकर ताजिया बनाया। लेकिन कहते हैं कि रहस्यमय तरीके से वह नथनी उसके घर वापस पहुंच गई। आज विज्ञान के युग में ऐसे चमत्कारों पर भरोसा भले न किया जा सके, लेकिन इस किंवदंती से यह तो प्रमाणित होता ही है कि हमारे देश में हिंदू और मुसलमान दोनों कौमें हाल तक मिलजुलकर रहती आई हैं।
ऊदल सिंह के बारे में ऐसा ही एक और किस्सा बड़ा चर्चित है। छतरपुर के सभी ताजिये चौक बाजार में रखे जाते हैं। एक बार नगर सेठ ने अपना ताजिया ऊंचा दिखाने के लिए उस पर लंबे-लंबे झंडे लगा दिए। ऊदल को अपना ताजिया छोटा दिखा। उसे यह नागवार गुजरा और उसने नगर सेठ के ताजिये से झंडे काटने के लिए हाथ बढ़ाया। तभी चमत्कार हुआ और नगर सेठ के ताजिये पर से झंडे अपने आप नीचे आ गए। इस तरह के लोक विश्वासों के जरिए इलाके में ऊदल सिंह की याद आज भी जीवित है। सरानी दरवाजे के पास भट्ट की बेहंर पर हर साल ऊदल कर ताजिया बनता है और इसके लिए पैसा शहर के हिंदू सर्राफ ही देते हैं।
छतरपुर महाराज विश्वनाथ सिंह तो ताजियों के साथ नंगे पांव चलते थे। महाराज का ताजिया महल के पिछवाड़े तोपखाने इमामबाड़े से उठता था। बताते हैं कि महाराज ने अपने राज्य की रक्षा और समृद्धि के लिए बनारस से पांच सूफियों को बुलाकर छतरपुर में बसाया था। वे थे-सैयद वली बाबा, जलाल शाह, कमानी वाले बाबा, सैयद अली और मस्तान शाह बाबा। इन पांचों की मजारें आज भी शहर के सभी धर्मावलंबियों की श्रद्धा का केंद्र हैं। इन्हीं सूफियों की प्रेरणा से महाराज मुहर्रम के सभी कार्यक्रमों में भागीदारी करते थें ।
पिरुआ छीपी और हल्के बेलदार के नाम आज भी यहां के नामी ताजियेदारों में गिने जाते हैं। छतरपुर के मुहर्रम की एक खासियत यहां बनने वाली बुर्राके हैं। यह परंपरा तीन सौ साल से भी अधिक पुरानी बताई जाती है। चूंकि बुर्राकों में चेहरा होता है, अतः कई मुसलमान इसे बुतपरस्ती बताकर इस्लाम की शरीयत के खिलाफ बताते हैं। लेकिन बुंदेलखंड में मुहर्रम किसी एक जाति या समाज का पर्व नहीं माना जाता है। पैगंबर मुहम्मद के नवासे हसन और हुसैन की शहादत के शोक में शामिल होना यहां की सामाजिक प्रतिबद्धता रही है। यहां का समाज मानता रहा है कि हसन-हुसैन की शहादत आतंकवादी घटना थी। सो, इंसानी चेहरे वाली बुर्राकों को लेकर यहां कभी विवाद या झंझट होना तो दूर किसी कि उठाए ऐसे एतराज पर आमतौर से कोई कान तक नहीं देता।
बड़ी कुंजरहटी में सबसे बड़ी बुर्राक बनती है। कहा जाता है कि कोई डेढ़ सौ साल पहले कड़ा की बरिया के निवासी अग्रवाल के कोई औलाद नहीं हो रही थी। उन्होंने मुहर्रम में बुर्राक के सामने फरियाद की और बेटे के रूप में उनकी मुराद पूरी हो गई। बेटे का नाम बैनी रखा गया। तब से बड़ी कुजरहटी की बुर्राक पर चढ़ने वाले सोने के गहने व जेवरात उनका ही परिवार देता है। हर साल कर्बला के बाद ये गहने बैनी के कुल के लोगों को लौटा दिए जाते हैं। यह हिंदू परिवार इन गहनों को एक तिजोरी में सुरक्षित रखता है और नियमित रूप से उन्हें धूप-बत्ती दिखाता है।
मुहर्रम की रात सुलगते अंगारों पर चलना और उछलना यहां की दीगर खासियत है। शहर में सात जगहों-मोती मस्जिद के करीब, इलाहाबाद बैंक के पास, मऊ दरवाजे के सामने, ग्वालमगरा डाकखाना चौराहा, महल और नए मुहल्ले में मुहर्रम की तीन रातों में अलाव होता है और लोग हसन-हुसैन की शहादत को याद करते हुए सुलगते शोलों से खेलते हैं। कोई सौ साल पहले यह परंपरा जबलपुर से यहां आई थी। तब तलैया मुहाल के एक हिंदू कस्सी खंगार अलाव खेलने में माहिर माने जाते थे। उनकी परंपरा को उनका भतीजा गट्ठी आज भी जीवंत रखे है।
ताजियों के पहले शहर की सड़कों पर अली के शेर, सत्यजित राय के ’गोपी गाइन-बाघा बाइन‘ की याद ताजा करा देते हैं। कुछ युवा अपने शरीर पर बाघ की मानिंद धारियां डाल और पूंछ लगाकर सारे शहर में हुंकार लगाते दिखते हैं। शुरू में शुक्लाना मुहल्ले के नारायणसेन, मजीद मास्टर आदि शेर बनते थे। आज भी दर्जनों पढ़े-लिखे हिंदू-मुसलमान नौजवान यह काम आपसी भाईचारे के चलते और उसे बरकरार रखने के लिए करते हैं।
गौरतलब और आश्चर्यजनक तथ्य है कि अली के शेर, अलाव और अमन के प्रतीक छतरपुर में ही कुछ सलों से मुट्ठीभर लोग दंगे भड़काने का प्रयास करते रहे और हर बार दोनों फिरकों के लोगों की समझदारी से ऐसा हो नहीं पाया। इस दीगर चर्चा में जाने का मौका यह नहीं है लेकिन यह रेखांकित करने योग्य है कि यहां के लोगों की आस्था और आपसी ताल्लुक की दृढ़ कड़ी किसी भी भड़काऊ कोशिश का मुंहतोड़ जवाब देती आई है। ताजियों में बढ़-चढ़कर तलवार नचाने वाले युवकों का कहना है कि मुहर्रम भले ही एक धार्मिक पर्व है पर उनके लिए यह बुंदेलखंड की गंगा-जमुनी संस्कृति की मिसाल है ।

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