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गुरुवार, 3 नवंबर 2016

Disagree can not be forced to keep quit with slangs

समय के सवालों पर अप्रिय तल्खी

Posted On November - 3 - 2016
पंकज चतुर्वेदी
सोशल मीडिया खासकर फेसबुक पर अपशब्द कहना, किसी की निष्ठा पर शक करना, किसी की जाति-समाज को एक बार में ही नकार देना, एक ऐसी समस्या बनती जा रही है जो इसे ‘सोशल’ नहीं रहने देगी। जान लें कि असहमति, प्रतिरोध और प्रश्न लोकतंत्रात्मक व्यवस्था के अभिन्न अंग हैं और इसके बगैर लोकतंत्र का स्वरूप, सद्दाम हुसैन के इराक या मौजूदा चीन से ज्यादा नहीं होता। भारत में सत्ता परिवर्तन महज वोट के माध्यम से, इतनी शांति व सहजता से इसीलिए होते रहे हैं कि यहां सवाल करने का हक सभी को है, लेकिन जब यही सवाल मां-बहन के लिए अपमानजनक बनने लगे, देश के प्रति निष्ठा को ही संदिग्ध करार देने का जरिया बन जाएं तो एकबारगी सोचना पड़ता है कि भारत में गालियां व असहमति पर इतने कटु स्वर पहले से ही थे या फिर सोशल मीडिया की आमदरफ्त ने नए वर्ग को तैयार किया है।
सनद रहे कि विभिन्न राजनीतिक, सामाजिक व व्यापारिक घरानों के अपने सोशल मीडिया एकांश व वहां बैठे वेतनभोगी लोग अब एक हकीकत हैं, लेकिन कई ऐसे लोग जिन्हें हम जान-परख कर इस आभासी दुनिया में अपना मित्र बनाते हैं। वे भोपाल के हादसे या फिर सर्जिकल स्ट्राइक या ऐसे ही किसी मसले पर तर्क, बुद्धि और विवेक से परहेज रखकर ऐसी भाषा व अप्रामाणिक बाते करते हैं कि लोकतंत्र का मूल मंत्र ‘सवाल करने का हक’ खतरे में दिखने लगता है। ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो अपने विचारों का तालिबानीकरण कर चुके हैं व संवाद या मध्य-मार्ग की उनके शब्दों में कोई जगह होती नहीं है।
भोपाल में हुई मुठभेड़ के बाद कई ऐसे स्वर सुनने को मिले कि यदि पुलिस ने उन्हें फर्जी मुठभेड़ में मारा तो भी बधाई, उन्होंने सफाई की। पूरा इलेक्ट्रानिक मीडिया, गैरकानूनी तरीके से फरार युवकों को आतंकवादी कहता रहा, जबकि नियमानुसार उनके आगे कथित या मुजरिम शब्द होना था। इसका कई सौ गुणा असर सोशल मीडिया पर था, यहां स्वयं न्यायाधीश, स्वयं वकील और स्वयं जल्लाद की पूरी राजनीतिक विचारधारा कब्जा जमाए थी और जिस किसी ने मुठभेड़ पर सवाल उठाए उन्हें पाकिस्तानी या ऐसे ही लफ्जों से नवाजा जाने लगा। नि:संदेह जेल-प्रहरी रमाशंकर यादव की हत्या बेहद दुखद है व उसके हत्यारे मौत के पात्र हैं, लेकिन यह भी जान लें कि शहीद यादव की मौत का असली जिम्मेदार था कौन? असल में उसकी मौत का असली कारण जेल-तंत्र का भ्रष्टाचार था। 56 वर्षीय रमाशंकर यादव की बायपास सर्जरी हो चुकी थी और वे कई महीनों से जेल प्रशासन को अपनी रात की ड्यूटी बदलने को कह रहे थे। चूंकि दिन की ड्यूटी कमाई वाली होती है सो उस पर बड़ी चढ़त चढ़ाने वाले को ही उसमें दर्ज किया जाता रहा। इतने खूंखार बंदी जिस जेल में हों, जिसके बारे में पता था कि इनमें से तीन पहले भी जेल से भाग चुके हैं, बगैर शस्त्र के रक्षक को ड्यूटी पर लगाया गया। ऐसे सवाल कोई उठाता है तो उसे गाली देने वाले लोग तर्क के बनिस्बत पूरी तरह राजनीतिक, वह भी कुत्सित के, मोहरे बन जाते हैं।
विडंबना यह है कि तार्किक बात करने की जगह खुद के अलावा सभी को देशद्रोही करार देने वाले सोशल मीडिया पर एक गिरोह के रूप में होते हैं व मौका पाते है असहमति के स्वर को निर्ममता से दबाते हैं। यह भी सही है कि उनको भी सवालों से असहमति का हक है, जैसे कि सवाल उठाने वाले को, लेकिन परिचर्चा में किसी की नस्ल या मां-बाप पर संदेह करना, उसकी बहन के साथ अपने रिश्ते बलात जोड़ना, इसका तरीका तो नहीं है। यह समझना जरूरी है कि सेना हो या पुलिस, भारत में वह लोकतंत्रात्मक सत्ता के अधीन है और सत्ता जनता के प्रति जवाबदेह। यदि देश की बड़ी आबादी को भोपाल में मुठभेड़ पर संशय है तो तथ्य व प्रमाण के साथ खुलासा करने में क्या बुराई है, बनिस्बत इसके कि सवाल खड़े करने वाले को ही कोसा जाए। हमने देखा है कि आपातकाल या उसके बाद पंजाब में या फिर कुछ पूर्वोत्तर राज्यों में जब कभी पुलिस या बलों को निरंकुश अधिकार दिए गए तो कई ज्यादती की खबरें भी सामने आईं। आज सवाल उठाने पर पुलिस का मनेाबल नीचा गिरने की बात करने वाले, रेड लाइट जंप करने पर पुलिस द्वारा पकड़ंे जाने पर जुर्माना देने के बनिस्बत सिफारिशें करवाते दिखते हैं। वे सड़क पर थूकते हैं, घर का कचरा लापरवाही से फेंकते हैं, कर चेारी करते हैं, वे सार्वजनिक स्थान पर तंबाकू का इस्तेमाल करते हैं, वे सुविधा शुल्क लेते व देते हें, लेकिन राष्ट्रवाद को अपनी गालियों में लपेट कर किसी को भी चोटिल करने में शर्म महसूस नहीं करते।
इस तरह की प्रवृत्ति असल में अभिव्यक्ति की आजादी के मूलभूत अधिकार ही नहीं, लोकतंत्र की आत्मा ‘प्रतिरोध’ की भी बेइज्जती है। सवाल उठाना एक स्वस्थ समाज की पहचान है और जवाब देने एक समर्थ सरकार की काबिलियत। असहमति पर सहमत होना एक अच्छे नागरिक का गुण है व असहमति को तर्क के साथ स्वीकार करना प्रजातंत्र का गहना।

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