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शुक्रवार, 18 नवंबर 2016

Rumars an antinational tandency

अफवाहें, संकट और बदहवासी


                                                                                                                                             पंकज चतुर्वेदी
देशहित में लिए गए एक बड़े निर्णय के चलते आम इंसान इन दिनों बदवहास सा है। किसी के यहां विवाह है तो कही बीमारी तो कही हर दिन के खर्चें, लोगों के पास पैसा होते हुए भी उनके हाथ खाली हैं। कोई सारी रात एटीएम के बाहर सो रहा है तो कहीं मारापीटी हो रही है। इस बीच पहले अफवाह उड़ गई कि देश में नमक का टोटा है। पहले से ही परेशान लोग नमक की ओर दौड़ गए। कहीं चार सौ रूपए किलो तक बिक गया नमक। दिल्ली के सीलमपुर में तो मुख्य सड़क पर स्थित एक थोक सामान वाले मॉल में भीड़ ने नमक की बोरियों की लूटपाट कर दी। मप्र के छतरपुर में कही कोई किसी व्यक्ति की मौत की खबर व्हाट्सएप या फेसबुक पर फैला रहा है तो कहीं दस का सिक्का ना चलने की सुरसुरी छोड़ दी जाती है। राजस्थान के बाडमेर में किसी ने हल्ला कर दिया कि आयकर वाले सभी लॉकर को सील कर रहे हैं, देखते ही देखते सारा बाजार बंद हो गया व लोग बैंक की ओर दौड़ गए, कुछ ही घंटों में कोई तीन हजार लॉकर खाली थे। असल में ऐसी अफवाहें महज मजे के लिए नहीं होती, उनके पीछे कुछ लोगों के निहित स्वार्थ हाते हैं, साजिश होती है और धूर्ततता होती है। विडंबना है कि संचार के आधुनिक व निरंकुश साधनों ने इन अफवाहों को पंख दे दिए है व पहले से ही गंभीर अपराधों में व्यस्त पुलिस अफवाहों को कभी गंभीरता से लेती नहीं। जब लेती है तब तक बात हाथ से निकल चुकी होती है।

नोट बंदी के पहले से ही 10 के सिक्के को ले कर खबरें हवा में थीं, और उसके बाद तो लोगों ने सिक्के लेने से ही इंकार कर दिया। चाहे मध्यप्रेदश का गुना हो या उप्र का मुजफ्फरनगर, कहीं से हल्ला हो जाता है कि आयकर की टीम पुलिस के साथ आ रही है और धड़ाधड़ शहर की दुुकानों के शटर गिर जाते हैं। बीच में शक्कर का स्टाक खतम होने की अफवाह भी उड़ी। उत्तरांचल के बागेश्वर जिले में आधिकारिक रूप से भांग की खेती होती है। किसी ने अफवाह उड़ा दी कि पूरी खेती को अवैध घोषित किया गया है व जल्द ही किसानों की गिरफ्तारी होगी। रातों-रात रैखोली, पाना, उसो, नायल, कठानी आदि गांवों में भांग की खड़ी फसल को आग लगा दी गई।
जब कभी देश दहशत में होता है कहीं फिर से भूकंप आने तो कभी चांद का मुंह टेढ़ा होने, नासा के हवाले से अगले भूकंप का समय बताने जैसे अफवाहें एसएमएस या व्हाट्सएप से उड़ने लगती हैं। कई लोग ऐसे भी होते हैं जो अंजाने में इस तरह के संदेशों को अपने परिचितों को भेज कर अपराध कर रहे हैं। जो लोग अभी कुछ महीने पहले तक नए आईटी एक्ट की धारा 66 ए को समाप्त करने के लिए प्रणप्रााण से जुटे थे, उन्हें अब लगा कि काश कोई ऐसा कानून होता तो इन अफवाहबाजों पर कुछ रोक लगा सकता।
यह गैरसंवेदनशीलता और गैरजिम्मेदारी की पराकाष्ठा है कि कुछ लोग आम लोगों की परेशानियों को नजरअंदाज कर उन्हें और तनावों में ढकेल रहे होते हैं। असल में यह बदवहासी जनता को उत्तेजित कर देती है और वे हर सूचना में अपने निहितार्थ कुछ बुरे की आशंका तलाशते हैं। ऐसे में कई बार भीड़तंत्र का उन्माद सक्रिय हो जाता है और पहले से ही संकट में खड़े देश, बाजार व समाज का ध्यान मूल समस्या से हट कर कहीं गलत दिशा में चला जाता है।
याद करें पिछले साल दीवाली के दौरान दिल्ली के त्रिलोकपुरी, समयपुर बादली और उसके बाद बवाना में लोग आपस में लड़े, जब झगड़े के आखिरी सूत्र तक जाने का प्रयास हुआ तो पता चला कि यह सब किया धरा उसी फितरत का है जो बीते कई दशकों से लोगों को उकसाती-भड़काती रही है और कानून में उस पर कोई खास सख्ती है नहीं। सोशल मीडिया व व्हाट्सएप जैसे औजारों ने उसकी धार को बेहद तीखा व त्वरित कर दिया है। अफवाहें अब बेहद खतरनाक होती जा रही हैं- कभी बिहार में नमक की कमी का हल्ला तो कभी किसी बाबा की भविष्यवाणी पर खजाने की उत्तेजना, असल में इसके छुपे हुए मकसद कुछ और ही होते हैं। गुजरात में पटेल आंदेालन के दौरान संचार तंत्र की तीव्रता पर सवार अफवाहों ने बड़ा नुकसान किया था।
तीन साल पहले के दुर्भाग्यपूर्ण मुजफ्फरनगर दंगे में सोशल मीडिया के जरिये फैली अफवाहों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है और इस पर एक विधायक पर मुकदमा भी दर्ज हुआ है। इससे पहले इंदौर के चंदन नगर में भी झूठी बेसिर-पैर की खबरों ने दंगा करवा दिया था। जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, उनके गली-कस्बे तक ऐसी-ऐसी अफवाहें हर रोज हवा में तैरती हैं कि मारा-मार की नौबत आ जाती है। अफवाहें कितनी विध्वंसकारी होती है, उसकी बानगी लगभग तीन साल पहले दक्षिण के राज्यों में भी देखने को मिली थी, जब बंगलूरू का रेलवे प्लेटफार्म उन लोगों से पट गया जो सुदूर उत्तर-पूर्वी राज्यों से वहां रोजगार या शिक्षा के लिए आए हुए थे। चौबीस घंटे में ही ऐसी अफवाहें हैदराबाद और पुणे में भी फैल गईं और पूर्वोत्तर के लोगों का वहां से पलायन शुरू हो गया था। यह बात सभी स्वीकार रहे हैं कि फेसबुक-ट्वीटर जैसे व्यापक असर वाले सोशल मीडिया अफवाह फैलाने वालों के पसंदीदा अस्त्र बनते जा रहे हैं, एक तो इसमें फर्जी पहचान के साथ पंजीकृत लोगों को खोजना मुश्किल होता है, फिर खोज भी लिया तो सर्वर अमेरिका में होने के कारण मुकदमें को अंजाम तक पहुंचाने के लिए पर्याप्त सबूत जुटाना लगभग नामुमकिन होता है। अब आईटी एक्ट की धारा 66 ए का भय भी समाप्त हो गया है जिसमें इलेक्ट्रानिक संचार माध्यमों के माध्यम से अफवाह, गलत सूचना, मार्फ फोटो, फर्जी एकांड बना कर गलत सूचना देने पर कड़ी सजा का प्रावधान था। उस धारा को सुप्रीम कोर्ट ने समाप्त क्या किया, अफवाही, उपद्रवी लोगों की उड़की लग गई हैं।
अफवाहें फैला कर फिजा बिगाड़ने के लिए आधुनिक संचार का दुरूपयोग करने का चलन बीते छह सालों से पंजाब में बखूबी हुआ है। बेहतर आर्थिक स्थिति के मार्ग पर तेजी से आगे बढ़ने वाले राज्य में अफवाहों का बाजार भी उतना ही तेजी से विकसित हो रहा है, जितनी वहां की समृद्धता। ये अफवाहें लोगों के बीच भ्रम पैदा कर रही हैं, आम जन-जीवन को प्रभावित कर रही हैं और कई बार भगदड़ के हालात निर्मित कर रही हैं। विडंबना है कि बेसिर पैर की इन लफ्फाजियों के पीछे असली मकसद को पता करने में सरकार व समाज दोनों ही असफल रहे हैं। यह जीवट, लगन और कर्मठता पंजाब की ही हो सकती है, जहां के लोगों ने खून-खराबे के दौर से बाहर निकल कर राज्य के विकास के मार्ग को चुना व उसे ताकतवर बनाया। बीते एक दशक के दौरान पंजाब के गांवों-गांवों तक विकास की धारा बही है। संचार तकनीक के सभी अत्याधुनिक साधन वहां जन-जन तक पहुंचे हैं, लेकिन गत डेढ़-दो सालों में यही माध्यम वहां के अफवाहों का वाहक बना है।
कुछ साल पहले पंजाब में अफवाह ‘‘हत्यारे मोबाईल कॉल’’ की थी । 9888888888 नंबर से फोन आता है, सेल फोन की स्क्रीन लाल हो जाती है और इंसान मर जाता है। ये अफवाह एक महीने तक पंजाब के गांव-गांव में आतंक फैलाती रहीं। लोगों ने अपने मोबाईल बंद कर दिए, कुछ लोग केवल एसएमएस के जरिए लोगों को ऐसे कॉल के बारे में सतर्क करते रहें, कई लोगों ने तो मारे डर के लैंड लाईन फोन उठाना भी बंद कर दिया।
उसके बाद एक और अफवाह ने पंजाब की नींद उड़ा दी थी कि भूचाल आने वाला है। यह खबर किसी के मोबाईल पर एसएमएस के माध्यम से ही आई थी। फिर कुछ गांवों में गुरूद्वारों से घोषणा कर दी गई कि लोग रात में अपने घरों में ना सोएं क्योंकि रात में भूकंप आने वाला है। कई गांवों में बाकायदा लंगर लगा दिए गए। उधर कथित जन सेवक अपने मोबाईल की पूरी फोन बुक को यह सूचित करने में लग गए कि भूचाल आने वाला है। कुछ ही घंटों में यह चर्चा पंजाब से पार हरियाणा, हिमाचल और दिल्ली तक आ गई। लाखों-लाख लोग रातभर खुले में सतनाम वाहे गुरू जपते हुए रात बिताने पर मजबूर हुए। पहला एसएमएस किसका था ?, उसकी सूचना का स्त्रोत क्या था ? गुरूद्वारे के लाउड स्पीकर से इस बतकही का एलान करने के पीछे कौन लोग थे ? जवाब एक बार फिर चुप्पी साधे हुए हैं। ऐसी अफवाहें कहां से शुरू होती हैं, किसने इसे फैलाया और कौन इस झूठ को सच बनाने के कुतर्क देता है, यह सब खोजने की परवाह किसी को नहीं होती। रही-बची कसर चौबीसों घंटे कुछ तीखा परोसने को लालायित टीवी चैनल पूरी कर देते हैं। हां जब से विधानसभा चुनाव हुए हैं, अफवाहें फैलना बंद हो गई हैं।
अभी पिछले साल भी देश के गणेश भगवानों को एक बार फिर दूध पिलाने पर कतिपय लोग उतारू हो गए थे। इस बार भी पिछली बार की तरह अफवाह की शुरूआत पंजाब से ही हुई थी। सुबह होते-होते मंदिरों की भीड़ की खबर का सीधा प्रसारण भी होने लगा। इसी साल के शुरूआत में रोटी-प्याज मांगने वाली औरत, दरवाजे पर हल्दी के छापे लगाने की बात और ऐसी ही कई अफवाहें मध्यप्रदेश व उत्तरप्रदेश के आंचलिक इलाकों में फैली थीं। मुंह नोचवा बंदर की अफवाहें कभी मथुरा तो कभी कानपुर तो कभी रांची, हर तीन-चार साल में देश के अलग-अलग हिस्सों में फैलती रहती हैं।
एक बात गौर करने की है कि मोबाईल या इंटरनेट से अफवाहें फैलाने में पंजाब या ऐसे इलाके ज्यादा अव्वल हैं जिनकी आर्थिक स्थिति विकास के पथ पर तेज दौड़ रही है। वैसे इन अफवाहों को फैलाने की मंशा तो अभी तक साफ नहीं हो पाई है, लेकिन एक बड़े वर्ग का मानना है कि संचार क्रांति की तिजारत में लगे लोग इसके पीछे हो सकते हैं । ऐसे सनसनीखेज मैसेज प्राईवेट मोबाईल कंपनियों के दिमाग की उपज होते हैं और इनके जरिये वे रातों-रात लाखों-करोड़ों का धंधा कर लेती हैं। सनद रहे कि पंजाब, कर्नाटक, पुणे जैसे इलाकों के दूरस्थ ग्रामीण अंचलों तक मोबाईल ग्राहकों की संख्या देश के शीर्ष आंकड़ों में हैं। इसी तरह इन राज्यों में गांव-गांव तक केबल टीवी का संजाल है; ऐसी खबरें आंचलिक दर्शकों की संख्या और इसके बल पर टीवी कंपनियों की रेटिंग बढ़ाने का माध्यम बन गई हैं।
अफवाहों की बयार के पीछे कुछ ऐसे संगठनों का दिनों-दिन मजबूत होना भी कहा जा रहा है जोकि झूठ को बार-बार बोल कर सच बनाने के सिद्धांत का हिमायती हैं। कहा जाता है कि किसी खबर के फैलने व उसके समाज पर असर को आंकने के सर्वें के तहत ऐसी लप्पेबाजियों को उड़ाया जा रहा है। आज तकनीक इतनी एडवांस है कि किसी एसएमएस का शुरूआत या सोशल साईट पर भड़काऊ संदेश देने वाले का पता लगाना बेहद सरल है, इसके बावजूद इतने संवेदनशील मसले पर पुलिस व प्रशासन का टालू रवैया अलग तरह की आशंका खड़ी करता है।
बहरहाल अफवाहों की परिणति संकटकाल में चल रहे राहत कार्यों में व्यवधान के तौर पर भी होती है। अफवाहें अनैतिक व गैरकानूनी भी हैं। फिर ऐसे में संवेदनशील रहे इलाकों की सरकारों में बैठे लोगों का इस मामले में आंखें मूंदे रखना कहीं कोई गंभीर परिणाम भी दे सकता है।

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