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बुधवार, 2 नवंबर 2016

Who is afraid of peaceful solution of naxalism ?

आखिर कौन नहीं चाहता है नक्सली समस्या का बातचीत से हल ?

                                                                                                                                             
पंकज चतुर्वेदी
21 अक्तूबर को देश की सर्वोच्च अदालत के सामने सन 2011 के एक मामले में सीबीआई ने रिपोर्ट पेश की कि किस तरह बस्तर में पुलिस निर्दोश ग्रामीणों को मार कर उन्हें फर्जी नक्सली बताती है । न्यायमुर्ति मदन लौकुर और एके गोयल की पीठ ने राज्य सरकार के वकील को सख्त आदेश दिया कि पुलिस कार्यवाही तात्कालिक राहत तो है लेकिन सथाई समाधान के लिए राज्य सरकार को नागालैंड व मिजोरम में आतंकवादियों से बातचीत की ही तरह बस्तर में भी बातचीत कर हिंसा का स्थाई हल निकालना चाहिए। हालांकि सरकारी वकील ने अदालत को आश्वस्त किया है कि वे सुप्रीम कोर्ट की मंशा उच्चतम स्तर तक पहुंचा देंगे। सनद रहे बस्तर से भी समय-समय पर यह आवाज उठती रही है कि नक्सली सुलभ हैं, वे विदेश में नहीं बैठे हैं तो उनसे बातचीत का तार क्यों नहीं जोड़ा जाए। कुछ महीनों पहले  हिंसा से सर्वाधिक प्रभावित दक्षिण बस्तर के दंतेवाड़ा में सर्व आदिवासी समाज का एक जलसा हुआ जिसमें पूर्व केंद्रीय मंत्री अरविंद नेताम, रिटायर्ड आईपीएस एसपी षोरी व नवल सिंह मंडावी, पूर्व सांसद गंगा पोटाई सहित इलाके के कई प्रतिश्ठित आदिवसी षािमल हुए। सभी की चिंता यही थी कि अरण्य मे ंलगातार हो रहे खूनखराबे से आदिवासियों में पलायन बढ़ा है और इसकी की परिणति है कि आदिवासियों की बोली, ंसस्कार, त्योहार, भोजन सभी कुछ खतरे में हैं। बात आई कि किसी भी स्तर पर नक्सलियों से बातचीत कर उन्हें हथियार डाल कर देख्,ा की लोकतांत्रिक मुख्य धारा में षामिल होने के लिए क्यों राजी नहीं किया जा सकता और इसके लिए अभी तक कोई प्रयास क्यों नहीं हुए।
दूसरी तरफ बीते छह महीनों से बस्तर के अखबारों में ऐसी खबरे खूब आ रही है कि अमुक दुर्दांत नक्सलवादी ने आत्मसमर्पण कर दिया, साथ में यह भी होता है कि नक्सलवादी षोशण करते हैं, उनकी ताकत कम हो गई है  सो वे अपने हथियार डाल रहे हैं । किसी नक्सली का विवाह भी करवाया जा रहा है।  ठीक यही हाल झारखंड में भी है, लगभग हर दिन किसी ग्रामीण के साथ पुलिस फोटो ख्ंिाचवाती है और उसे एरिया कमांडर बताया जाता है। इसके बावजूद नक्सली यहां वहां खून खराबा कर रहे हैं। दंतेवाड़ा में नक्सलियों ने बाकायदा एक सूची जारी की जिसमें बताया गया कि किस गांव से पुलिस वालों ने किन आदिवासियों को कब उठाया व बाद में उन्हें नक्सली बता कर आत्मसमर्पण करवा दिया व पुनर्वास की राशि दे दी। जिन गांवों में कोई भी सरकारी या सियासती दल नहीं पहुंच पाता है, वहां नक्सली जुलूस निकाल रहे हैं, आम सभा कर रहे हैं और जनता को बता रहे हैं कि सरकार व पुलिस उन पर अत्याचार करती है । उनकी सभाओं में खासी भीड़ भी पहुंच रही है।  नक्सली इलाकों मे सुरक्षा बलों को ‘‘खुले हाथ‘‘ दिए गए हैं। बंदूकों के सामने बंदूकें गरज रही हैं, लेकिन कोई मांग नहीं कर रहा है कि स्थाई षांति के लिए कहीं से पहल हो। इसके बीच पिस रहे हैं आदिवासी, उनकी संस्कृति, सभ्यता, बोली और मानवता।
यदि अरण्य में नक्सली समस्या को समझना है तो बस्तर अंचल की चार जेलों में निरूद्ध बंदियों के बारे में ‘सूचना के अधिकार’ के तरह मांगी गई जानकारी पर भी गौर करना जरूरी होगा। दंतेवाड़ा जेल की क्षमता 150 बंदियों की है और यहां माओवादी आतंकी होने के आरोपों के साथ 377 बंदी है जो सभी आदिवासी हैं। कुल 629 क्षमता की जगदलपुर जेल में नक्सली होने के आरोप में 546 लोग बंद हैं , इनमें से 512 आदिवासी हैं। इनमें महिलाएं 53 हैं, नौ लोग पांच साल से ज्यादा से बंदी हैं और आठ लोगों को बीते एक साल में कोई भी अदालत में पेशी नहीं हुई। कांकेर में 144 लोग आतंकवादी होने के आरोप में विचाराधीन बंदी हैं इनमें से 134 आदिवासी व छह औरते हैं इसकी कुल बंदी क्षमता 85 है। दुर्ग जेल में 396 बंदी रखे जा सकते हैं और यहां चार औरतों सहित 57 ‘‘नक्सली’’ बंदी हैं, इनमें से 51 आदिवासी हैं।सामने है कि केवल चार जेलों में हजार से ज्यादा आदिवासियों को बंद किया गया है। यदि पूरे राज्य में यह गणना करें तो पांच हजार से पार पहुंचेगी।
इसके साथ ही एक और चौंकाने वाला आंकडा गौरतलब है कि ताजा जनगणना बताती है कि बस्तर अंचल में आदिवासियों की जनसंख्या ना केवल कम हो रही है, बल्कि उनकी प्रजनन क्षमता भी कम हो रही है। सनद 2001 की जनगणना में यहां आबादी वृद्धि की दर 19.30 प्रतिशत थी। सन 2011 में यह घट कर 8.76 रह गई है। चूंकि जनजाति समुदाय में कन्या भ्रूण हत्या जैसी कुरीतियां हैं ही नहीं, सो बस्तर, दंतेवाडा, कांकेर आदि में षेश देश के विपरीत महिला-पुरूश का अनुपात बेहतर है। यह भी कहा जाता है कि आबादी में कमी का कारण हिंसा से ग्रस्त इलाकों से लोगों का बड़ी संख्या में पलायन है। ये आंकडे चीख-चीख कर कह रहे हैं कि आदिवासियांे के नाम पर बने राज्य में आदिवासी की सामाजिक हालत क्या है। यदि सरकार की सभी चार्जशीटों को सही भी मान लिया जाए तो यह हमारे सिस्टम के लिए षोचनीय नहीं है कि आदिवासियों का हमारी व्यवस्था पर भरोसा नहीं है और वे हथियार के बल पर अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए मजबूर हैं। इतने दमन पर सभी दल मौन हैं और यही नक्सलवाद के लिए खाद-पानी है। यह दुखद है कि ििजन अफसरों के बदौलत आदिवासी इलाकों के विकास की योजनाएं बनाई जाती हैं, वे जनजातियों की परंपराओं, मान्यताओं, मानसिकता को समझते ही नहीं है और उनके नजरिये में कोई दोरली, गोंडी, असुरी बोली छोड़कर खड़ी हिंदी बोलने लगे या षर्ट पैंट पहन ले या फिर  अपना जंगल छोड़कर षहर में रिक्शा चलाने लगे तो उसका विकास हो गया। आदिवासियों में पण यानि करेंसी का ज्यादा महत्व नहीं हुआ करता था, लेकिन कथित विकास योजनओं ने उन्हें ‘‘गांधीछाप’’ की ओर ढकेल दिया औक्र अब उसी में गड़बड़झाले के लिए  आदिवासी क्षेत्रों में बवाल होते हैं। इसी का परिणाम है कि अप्रतिम सौंदर्य के धनी अरण्य में बारूद की गंध समा गई है।
अब भारत सरकार के गृहमंत्रालय की आठ साल पुरानी एक रपट की धूल हम ही झाड़ देते हैं - सन 2006 की ‘‘आंतरिक सुरक्षा की स्थिति’’ विषय पर रिपोर्ट में स्पष्ट बताया गया था कि देश का कोई भी हिस्सा नक्सल गतिविधियों से अछूता नहीं है। क्योंकि यह एक जटिल प्रक्रिया है - राजनीतिक गतिविधियां, आम लोगों को प्रेरित करना, शस्त्रों का प्रशिक्षण और कार्यवाहियां। सरकार ने उस रिपोर्ट में स्वीकारा था कि देश के दो-तिहाई हिस्से पर नक्सलियों की पकड़ है। गुजरात, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर में भी कुछ गतिविधियां दिखाई दी हैं। दो प्रमुख औद्योगिक बेल्टों - ‘भिलाई-रांची, धनबाद-कोलकाता’ और ‘मुंबई-पुणे-सूरत-अहमदाबाद’ में इन दिनों नक्सली लोगों को जागरूक करने का अभियान चलाए हुए हैं। इस रपट पर कार्यवाही, खुफिया सूचना, दूरगामी कार्ययाोजना का कहीं अता पता नहीं है। बस जब कोई हादसा होता है तो सशस्त्र बलों को खूनखराबे के लिए जंगल में उतार दिया जाता है, लेकिन इस बात पर कोई जिम्मेदारी नहीं तय की जाती है कि एक हजार नक्सली हथियार ले कर तीन घंटों तक गोलियां चलाते हैं, सड़कों पर लैंड माईन्य लगाई जाती है और मुख्य मार्ग पर हुई इतनी बड़ी योजना की खबर किसी को नहीं लगती है।
भारत सरकार मिजोरम और नगालैंड जैसे छोटे राज्यों में षांति के लिए हाथ में क्लाशनेव रायफल ले कर सरेआम बैठे उग्रवादियों से ना केवल बातचीत करती है, बल्कि लिखित में युद्ध विराम जैसे समझौते करती है। कश्मीर का उग्रवाद सरेआम अलगाववाद का है और तो भी सरकार गाहे-बगाहे हुरीयत व कई बार पाकिस्तान में बैठे आतंकी आकाओं से षांतिपूर्ण हल की गुफ्तगु करती रहती है, फिर नक्सलियों मे ऐसी कौन सी दिक्कत है कि उनसे टेबल पर बैठ कर बात नहीं की जा सकती- वे ना तो मुल्क से अलग होने की बात करते हैं और ना ही वे किसी दूसरे देश से आए हुए है। कभी विचार करें कि सरकार व प्रशासन में बैठे वे कौन लोग है जो हर हाल में जंगल में माओवादियों को सक्रिय रखना चाहते हैं, जब नेपाल में वार्ता के जरिये उनके हथियार रखवाए जा सकते थे तो हमारे यहां इसकी कोशिशें क्यों नहीं की गईं।  याद करें 01 जुलाई 2010 की रात को आंध््राप्रदेश के आदिलाबाद जिले के जंगलों में महाराश्ट्र की सीमा के पास सीपीआई माओवादी की केंद्रीय कमेटी के सदस्य चेरूकुरी राजकुमार उर्फ आजाद और देहरादून के एक पत्रकार हेमचंद्र पांडे को पुलिस ने गोलियों से भून दिया था। पुलिस का दावा था किक यह मौतें मुठभेड में हुई जबकि तथ्य चीख-चीख कर कह रहे थे कि इन दोनों को 30 जून को नागपुर से पुलिस ने उठाया था। उस मामले में सीबीआई जांच के जरिए भले ही मुठभेड़ को असली करार दे दिया गया हो, लेकिन यह बात बड़ी साजिश के साथ छुुपा दी गई कि असल में वे दोनों लोग स्वामी अग्निवेश का एक खत ले कर जा रहे थे, जिसके तहत षीर्श नक्सली नेताओं को केंद्र सरकार से षांति वार्ता करना था। याद करें उन दिनों तत्कालीन गृह मंत्री चिदंबरम ने अपना फैक्स नंबर दे कर खुली अपील की थी कि माओवादी हमसे बात कर सकते हैं। उस धोखें के बाद नक्सली अब किसी भी स्तर पर बातचीत से डरने लगे हैं। इस पर निहायत चुप्पी बड़ी साजिश की ओर इशारा करती है कि वे कौन लोग हैं जो नक्सलियों से षांति वार्ता में अपना घाटा देखते हैं। यदि आंकड़ों को देखें तो सामने आता है कि जिन इलाकेां में लाल-आतंक ज्यादा है, वहां वही राजनीतिक दल जीतता है जो वैचारिक रूप से माओ-लेनिन का सबसे मुखर विरोधी है। यह जान लें कि नक्सली हिंसा बनाए रखने में पुलिस के भी अपने स्वार्थ हैं, कर्मचारी भी उनका वास्ता दे कर आंचलिक इलाकों में सेवा ना करने की जुगत में रहते हैं। विकास कार्य में भ्रश्टाचार पर भी नक्सली हिंसा का पर्दा चढा दिया जाता है। जाहिर है कि सरकारी मशीनरी का बड़ा वर्ग बातचीत  या षांति चाहता नहीं है।
एक तरफ सरकारी लूट व जंगल में घुस कर उस पर कब्जा करने की बेताबी है तो दूसरी ओर आदिवासी क्षेत्रों के सरंक्षण का भरम पाले खून बहाने पर बेताब ‘दादा’ लोग। बीच में फंसी है सभ्यता, संस्कृति, लोकतंत्र की साख। नक्सल आंदोलन के जवाब में ‘सलवा जुड़ुम’ का स्वरूप कितना बदरंग हुआ और इसकी परिणति दरभा घाटी में किस नृशंसता से हुई ; सबके सामने है। बंदूकों को अपनो पर ही दाग कर खून तो बहाया जा सकता है, नफरत तो उगाई जा सकती है, लेकिन देश नहीं बनाया जा सकता। तनिक बंदुकों को नीचे करें, बातचीत के रास्तें निकालें, समस्या की जड़ में जा कर उसके निरापद हल की कोशिश करें- वरना सुकमा की दरभा घाटी या बीजापुर के आर्सपेटा में खून के दरिया ऐसे ही बहते रहेंगे। अब यह साफ होता जा रहा है कि नक्सलवाद सभी के लिए वोट उगाहने या बजट उड़ने का जरिया मात्र है, वरना हजारों लोगों के पलायन, लाखों लोगों के सुरक्षा बलों के कैंप में रहने पर इतनी बेपरवाही नहीं होती।

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