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शनिवार, 17 जून 2017

President election should be on mutual consent



सर्वसम्मति से हो राष्ट्रपति  का चुनाव

                                              
पंकज चतुर्वेदी
भारत गणतंत्र के 13वें राष्ट्रपति  चुनाव की अधिसूचना जारी होते ही राजनीतिक दल अपने-अपने खेमे को संभालने में लग गए हैं। याद रहे कि आजादी के बाद हुए 13 बार राष्ट्रपति  चुनाव में केवल एक बार सन 1977 में ही नीलम संजीव रेड्डी आम सहमति से निर्वाचित हुए थे, वरना हर बा मतदान होता ही है और केंद्र का सत्ताधारी दल अपनी पसंद का उम्मीदवार जिताने में सफल होता है। कहने को हमारा राष्ट्रपति  तीनों सेना का प्रमुख, भारतीय लोकतंत्र का सर्वषक्तिमान और देष का प्रथम नागरिक होता है, लेकिन कई स्थान पर उसकी भूमिका रबर-स्टैंप  की ही होती है। यह किसी से छिपा नहीं है कि पिछले कुछ सालों में राजनीतिक विद्वेष निजी हमलों के निचचले स्तर पर आ गया है। छोटे से छोटे चुनाव में भाजपा हर कीमत पर जीत सुनिष्चित करने के लिए हर तरीका अपनाती है। लेकिन भारत का राष्ट्रपति  किसी राजनीतिक दल का नहीं होता और यदि सन 2017 का राष्ट्रपति  सर्वसम्मति से चुना जाए तो यह देष की राजनीति के लिए एक सुखद पहल होगा। हालांकि इस साल एकमत हो कर जीएसटी बिल पास करने का प्रयोग काफी कुछ सफल रहा है।

भारतीय संविधान की के अनुच्छेद 54 में राष्ट्रपति  निर्वाचन की प्रक्रिया का विवरण है। इसी के अनुसार अगले राष्ट्रपति  के चुनाव की अधिसूचना जारी हो गई है। नामाकंन जमा करने की अंतिम तिथि 28 जून है। उम्मीदवार को 50 अनुमोदक और 50 प्रस्तावकों के हस्ताक्षर के साथ नामांकन प्रस्तुत करना होता है। ये प्रस्तावक और अनुमोदकों का मतदाता होना अनिवार्य है। और इस निर्वाचन में मतदाता होते हैं दोनो सदनों के सांसद और सभी विधानसभाओं के विधायक। 17 जुलाई मतदान और 20 जुलाई 2017 को चुनाव परिणाम आएंगे। इस बार निर्वाचन अधिकारी लोकसभा के महासचिव को बनाया गया है। यह भी जान लें ि कइस चुनाव में कोई चुनाव चिन्ह नहीं होता और सभी मतदाता सभी उम्मीदवारों को वोट देते हैं, बस फर्क होता है कि उन्हें अपनी प्राथमिकता बताना होता है। जिस उम्मीदवार को पहली प्राथमिकता से ज्यादा वोट मिलते हैं, वहीं विजयी होता है। प्रत्येक राज्य से विधायक औ सांसद के मतों की कीमत एक फार्मूले के अनुसार तय की जाती है जिसमें महत्वपूर्ण भेमिका उस राज्य की आबादी की होती है। इस बार कुल मत 10,98,882 है। यानि विजेता को 5,49,442 वोट पाना अनिवार्य है। वैसे फौरी तौर पर देखें तो केंद्र की सत्ता में बैठे लोगों को  अपना उम्मीदावार जितवाने में कोई दिक्कत नहीं होना चाहिए।, लेकिन इसमें कुछ पैंच भी हैं। सबसे बड़ा संट षिसेना को ले कर है। उसके पास 18 सांसद और 63 विधायाकों के मत हैं।  हालांकि वह एनडीए का पुराना भागीदार दल है, लेकिन सन 2007 के चुनाव में उसने मराठी मानुश के नाम पर प्रतिभादेवी सिंह पाटिल को वोट दे कर एनडीए को धता बता चुकी है। इस बार भी उसके संबंध भाजपा से बेहद कटु हैं। भाजपा में ही षत्रुघन सिन्हा जैसे कई सांसद और विधायक है जिनकी ‘‘आत्मा की आवाज’’ कभी भी जाग्रत हो सकती है।
इसमें कोई षक नहीं है कि इस दौर में लोकतंत्र कई चुनौतियों से जूझ रहा है, देष की आर्थिक स्थिति, सीमा पर तनाव , अंतरराश्ट्रीय स्तर पर मंदी और रोजगार की कमी जैसे  कई संकट हैं जिनका सामना करने के लिए केवल बहुमत की संख्या से काम नहीं चल सकता। जरूरी है कि देष की राजनीति टकराव का रास्ता छोड़ कर सहमति और सामंजस्य से विकास और आम नागरिक की भलाई का कोई रास्ता चुने। राष्ट्रपति  के चुनाव के लिए भी एनडीए को दक्षिण के कुछ दलों के समर्थन का भरोसा है, लेकिन लाख गधित उनके पक्ष में दिख रहा हो, लेकिन थोड़े में ही खेल बिगड़ भी सकता है। यह खतरा एनडीए के रण्णनीतिकार भी जानते है।। उधर कांग्रस की छतरी के तले एकत्र हुए विपक्ष ने फिलहाल तो सर्वसम्म्ति से उम्मीदवार तय करने की बात कही है। एनडीए ने वैंकेया नायडू, राजनाथ सिंह और अरूण जेटली की तीन सदस्यों की कमेटी सर्वसम्मत निर्विरोध  निर्वाचन के लिए गठित की है। विपक्ष के मन भी एक भय है, यदि उनका उम्मीदवार चुनाव हार गया तो? आम लोग इस चुनाव के तरीके या गणित से इतने वाकिफ नहीं हैं, लेकिन दूर तक संदेष तो यही जाएगा कि मोदी सरकार की बड़ी जीत । इस जीत के हंगामें का असर अगले साल होने वाले कई राज्यों के विधान सभा चुनावों मनोवैज्ञानिक तौर पर विपरीत ही जाएगा। कुल मिला कर देखें तो दोनों ही खेमे अपने-अपने डर और आषंका से घिरे हैं और दोनों ही खेमे टकराव के बनिस्पत निर्विरोध चुनाव को प्राथमिकता देंगे।
होना भी यही चाहिए कि देष के सर्वोच्च पद के लिए सियासती अखाड़े ना खुदें और सभी को स्वीकार्य कोई  इस पद को सुषोभित करे। यूपीए, बिहर केगठबंधन और ममता बनर्जी का हट होगा कि कोई संघ का कट्टर छबि वाला इस पर ना आए। उधर विपक्ष महिला, दलित या आदिवासी के नाम पर कहीं सहमत हो सकता है। विप्ख की ओर से महात्मा गांधी के पौत्र और बंगाल के पूर्व राज्यपाल राजमोहन गांधी और लोकसभा की पूर्व स्पीकर व बाबू जगजीवनराम की बेटी मीराकुमार के नाम पर काफी कुछ सहमति है। जबकि सत्ताधारी दल में अभी कई नाम हवा में हैं। द्रोपदी मूर्म से ले कर  लालकृश्ण आडवाणी तक के नाम उछाले जा रहे हैं, लेकिन खबर यह है कि एनडीए खेमा एपीजे अब्दुल कलाम जैसा कोई सर्वमान्य नाम को तलाष चुका है। हालांकि पार्टीका एक कट्टरवादी धड़ा आजादी के बाद पहली बार मिले सबसे बड़े बहुमत का लाभ उठा कर किसी कट्टर छबि वाले संघ कार्यकर्ता को यह पद देने की वकालत कर रहा है तो आज की भाजपा में गत 10 सालों के दौरान दल बदल कर आए लोग, जिनका अब बहुमत है, वे किसी गैरराजनीतिक व्यक्ति को इस पद के लिए चुनने के हिमायती हैं। अनुमान है कि 21 जून तक यह खेमा अपने नाम की घोशण कर देगा।
हालांकि एनडीए के वरिश्ठ नेता इस पूरे सप्ताह सोनिया गांधी से ले कर ममता बनर्जी, सतीषचंद्र मिश्र, सीताराम येचुरी आदि से मेल मुलाकात कर सम्मत नाम की संभावना तलाष रहे हैं। लेकिन यह सब पैतरेबाजी हैं। देष के स्वस्थ लोकतत्र और बिखराव की राजनित से बचने का यह सटीक अवसर है कि सभी दल मिल कर हमारे देष के प्रथम नागरिक को चुनें।

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