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रविवार, 8 अक्तूबर 2017

India is running towards another drought

बरसात के तुरंत बाद ही आ धमका सूखे का अंदेशा



देश के बड़े राज्यों में से एक मध्य प्रदेश के कुल 51 में से 29 जिलों में अभी से जल-संकट के हालात हैं। राजधानी भोपाल की प्यास बुझाने वाले बड़े तालाब व कोलार में बमुश्किल चार महीने का जल शेष है। ग्वालियर के तिघरा डैम का जल जनवरी तक ही चल पाएगा। विदिशा में नल सूख चुके हैं। फिलहाल नौ जिलों को सूखा-ग्रस्त घोषित करने की तैयारी है, क्योंकि अल्प वर्षा और उसके बाद असामयिक बरसात ने किसानों की कंगाली में आटा गीला कर दिया है- या तो बुवाई ही नहीं हुई और हुई, तो बेमौसम बारिश से बीज मर गए। भले ही देश के कुछ हिस्सों में अभी पश्चिमी विक्षोभ के चलते बारिश हो रही हो, लेकिन यह खेती के काम की है नहीं। नवरात्रि के साथ ही बादल व बारिश भी विदा हो जाते हैैं। बिहार व पूर्वोत्तर राज्यों में बीते एक दशक की सबसे भयावह बाढ़ को अलग रख दें, तो भारतीय मौसम विभाग का यह दावा देश के लिए चेतावनी देने वाला है कि पिछले साल की तुलना में इस साल देश के 59 फीसदी हिस्से में कम बारिश हुई है। ऐसे में, खाद्यान्न उत्पादन प्रभावित होगा और इसका असर अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। अगली बरसात में कम से कम नौ महीने का इंतजार है। भारत का बड़ा हिस्सा अभी से सूखे, पानी की कमी और पलायन से जूझने लगा है। उत्तराखंड, हरियाणा, पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, ओडिशा, समूचा पूर्वोत्तर, केरल से लेकर अंडमान तक देश के बड़े हिस्से में आठ से लेकर 36 प्रतिशत तक कम बरसात हुई है। बुंदेलखंड में तो सैकड़ों गांव वीरान होने शुरू भी हो गए हैं। सच है कि हमारे सामने लगभग हर तीसरे साल यह सवाल खड़ा हो जाता है कि ‘औसत से कम’ पानी बरसा या बरसेगा, अब क्या होगा? देश के 13 राज्यों के 135 जिलों की कोई दो करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि प्रत्येक दस साल में चार बार पानी के लिए त्राहि-त्राहि करती है। यह भी सच है कि कम बारिश में भी उगने वाले मोटे अनाज जैसे ज्वार, बाजरा, कुटकी आदि की खेती व इस्तेमाल सालों-साल कम हुआ है, तो ज्यादा पानी मांगने वाले सोयाबीन व अन्य कैश क्रॉप ने अपना स्थान बढ़ाया है। इसने पानी पर निर्भरता बढ़ाई है और किसानों को रोने का कारण दिया है। 
पानी को लेकर हम अपनी आदतें भी खराब करते गए हैं। जब कुएं से रस्सी डालकर या चापाकल से पानी भरना होता था, तो जरूरत के अनुसार ही पानी निकालते थे। टोंटी वाले नलों और बिजली या ट्यूब वेल ने हमारी आदतें बिगाड़ीं, जो पानी बर्बाद करने का कारण बनीं। सूखा जमीन के सख्त होने, बंजर होने, खेती में सिंचाई की कमी, रोजगार घटने व पलायन, मवेशियों के लिए चारे या पानी की कमी जैसे संकट का जरिया बनता है। जानना जरूरी है कि भारत में औसतन 110 सेंटीमीटर बारिश होती है, जो अधिकांश देशों से बहुत ज्यादा है। यह बात दीगर है कि हम बारिश के कुल पानी का महज 15 प्रतिशत ही संचित कर पाते हैं, शेष बेकार जाता है। गुजरात के जूनागढ़, भावनगर, अमरेली और राजकोट के 100 गांवों ने पानी की आत्मनिर्भरता का गुर खुद सीखा। विछियावाड़ा गांव के लोगों ने डेढ़ लाख व कुछ दिन की मेहनत के साथ 12 रोक बांध बनाए व एक ही बारिश में 300 एकड़ जमीन सींचने के लिए पर्याप्त पानी जुटा लिया। इतने में एक नल कूप भी नहीं लगता। ऐसे ही प्रयोग मध्य प्रदेश में झाबुआ और देवास में भी हुए। यदि तलाशने चलें, तो कर्नाटक से लेकर असम तक और बिहार से लेकर बस्तर तक ऐसे हजारों हजार सफल प्रयोग सामने आ जाते हैं, जिनमें स्थानीय स्तर पर लोगों ने सुखाड़ को मात दी है। ऐसे छोटे-छोटे प्रयास पूरे देश में करने को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। कम पानी के साथ बेहतर समाज का विकास कतई कठिन नहीं है, बस हर साल, हर महीने इस बात के लिए तैयार होना होगा कि पानी की कमी है। दूसरा, ग्रामीण अंचलों की अल्प वर्षा से जुड़ी परेशानियों के निराकरण के लिए सूखे का इंतजार करने की बजाय इसे नियमित कार्य मानना होगा। कम पानी में उगने वाली फसलें, कम से कम रसायन का इस्तेमाल, पारंपरिक जल संरक्षण प्रणालियों को जिलाना, ग्राम स्तर पर विकास व खेती की योजना बनाना ऐसे प्रयास हैं, जो सूखे पर भारी पडे़ंगे।

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