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शुक्रवार, 24 नवंबर 2017

हत्यारा बनाता परीक्षा का खौफ
पंकज चतुर्वेदी


इसी साल सितंबर महीने में गुरूग्राम के रेयान स्कूल में एक सात साल के बच्चे की हत्या को जो खुलासा सीबीआई ने किया है, यदि यह सच है तो एक महज अपराध नहीं है; यह हमारे पूरी शिक्षा प्रणाली पर सवालिया निशान है। कक्षा 11 में पढ़ने वाला एक बच्चा महज अपनी परीक्षा को कुछ दिन आगे खिसकाने के लिए एक मासूम का गला काट देता है। परीक्षा के परिणाम मनोनकूल ना आने पर आत्महत्या कर लेना तो भारतीय शिक्षा प्रणाली का पुराना रोग रहा है, लेकिन अब यह सोच कर आत्मा कांप जाती है कि शिखा में नंबर की अंधी दौड़ बच्चों को हत्यारा व अपराधी भी बना रही है। याद करें कि हाल ही के वर्षों में दिली व अन्य राज्यों से परीक्षा के परिणाम से रूष्ट बच्चों द्वारा अपने शिक्षक पर हमला और यहां तक कि हत्या करने के कुछ मामले सामने आए हैं। गुरूग्राम की घटना इस लिए ज्यादा भयावह है कि बगैर किसी प्रतिशोध-भाव या नफरत के केवल इस लिए हत्या कर दी जाए कि स्कूल का इम्तेहान कुछ दिन आगे खिसक जाएगा।

जरा गौर करंे कक्षा 11  के बच्चे यानि बामुश्किल 16 से 18 साल के। बीते दस-बारह साल से स्कूल में जा रहे होंगे , इस दौरान उसने कम से कम 70 पाठ्य पुस्तकें भी पढ़ी होंगी, लेकिन वहां बिताया समय, शिक्षक के उदबोधन और बांची गई पुस्तकें उसकों इतनी सी असफलता को स्वीकार करने और उसका सामना करने का साहस नहीं सिखा पाईं। उसमें अपने परिवार ,शिक्षक व समाज के प्रति भरोसा नहीं पैदा कर र्पाइं कि महज एक इम्तेहान के नतीजे के अच्छे नहंी होने से वे लेाग उसे स्वीकार करेंगे, अपनों की तरह, उसे ढांढस बंधाएंगे व आगे की तैयारी के लिए साथ देंगे। साफ जाहिर है कि बच्चे ना तो कुछ सीख रहे हैं और ना ही जो पढ रहे हैं उसका आनंद ले पा रहे हैं, बस एक ही धुन है या दवाब है कि परीक्षा में जैसे-तैसे अव्वल या बढ़िया नंबर आ जाएं।

यह विचारणीय है कि जो शिक्षा बारह साल में बच्चों को अपनी भावनाओं पर नियंत्रण करना ना सिखा सके, जो विशम परिस्थिति में अपना संतुलन बनाना ना सिखा सके, वह कितनी प्रासंगिक व व्यावहारिक है ? कक्षा दस के बच्चे का अव्वल आना इस लिए जरूरी है कि वह अपने मां-बाप की पसंद के विशय से अगली कक्षा में दाखिला ले पाए। ज्यादा नंबर तो साईंस , उससे कम तो कार्मस और सबसे कम तो आर्टस या ह्यूमेनेटेरियन। बचपन, शिक्षा, सीखना सब कुछ इम्तेहान के सामने कहीं गौण हो गया है । रह गई हैं तो केवल नंबरों की दौड़, जिसमें धन, धर्म , षरीर, समाज सब कुछ दांव पर लग गया है ।
क्या किसी बच्चे की योग्यता, क्षमता और बुद्धिमता का तकाजा महज अंकों का प्रतिशत ही है ? वह भी उस परीक्षा प्रणाली में , जिसकी स्वयं की योग्यता संदेहों से घिरी हुई है । सीबीएसई की कक्षा 10 में पिछले साल दिल्ली में हिंदी में बहुत से बच्चों के कम अंक रहे । जबकि हिंदी के मूुल्यांकन की प्रणाली को गंभीरता से देखंे तो वह बच्चों के साथ अन्याय ही है । कोई बच्चा ‘‘हैं’’ जैसे षब्दो ंमें बिंदी लगाने की गलती करता है, किसी केा छोटी व बड़ी मात्रा की दिक्कत है । कोई बच्चा ‘स’ , ‘ष’ और ‘श’ में भेद नहीं कर पाता है । स्पश्ट है कि यह बच्चे की महज एक गलती है, लेकिन मूल्यांकन के समय बच्चे ने जितनी बार एक ही गलती को किया है, उतनी ही बार उसके नंबर काट लिए गए । यानी मूल्यांकन का आधार बच्चों की योग्यता ना हो कर उसकी कमजोरी है ।
वास्तव में परीक्षाओं का मौजूदा स्वरूप आनंददायक शिक्षा के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा है । इसके स्थान पर सामूहिक गतिविधियों को प्रोत्साहित व पुरस्कृत किया जाना चाहिए । एम.ए. पास बच्चे जब बैक में पैसा जमा करने की स्लीप नहीं भर पाते या बारहवीं पास बच्च होल्डर में बल्ब लगानाया साईकिल की चैन चढ़ाने में असमर्थ रहतास है तो पता चलता है कि हम जो कुछ पढ़ा रहे हैं वह कितना चलताउ है। यह बात सभी शिक्षाशास्त्री स्वीकारते हैं ,इसके बावजूद बीते एक दशक में कक्षा में अव्वल आने की गला काट में ना जाने कितने बच्चे कुंठा का शिकार हो मौत को गले लगा चुके हैं । हायर सैकेंडरी के रिजल्ट के बाद ऐसे हादसे सारे देश में होते रहते हैं । अपने बच्चे को पहले नंबर पर लाने के लिए कक्षा एक-दो में ही पालक युद्ध सा लड़ने लगते हैं ।
कुल मिला कर परीक्षा व उसके परिणामों ने एक भयावह सपने, अनिश्चितता की जननी व बच्चों के नैसर्गिक विकास में बाधा का रूप  ले लिया है । कहने को तो अंक सूची पर प्रथम श्रेणी दर्ज है, लेकिन उनकी आगे की पढ़ाई के लिए सरकारी स्कूलों ने भी दरवाजों पर षर्तों की बाधाएं खड़ी कर दी हैं । सवाल यह है कि शिक्षा का उद्देश्य क्या है - परीक्षा में स्वयं को श्रेश्ठ सिद्ध करना, विशयों की व्यावहारिक जानकारी देना या फिर एक अदद नौकरी पाने की कवायद ? निचली कक्षाओं में नामांकन बढ़ाने के लिए सर्व शिक्षा अभियान और ऐसी ही कई योजनाएं संचालित हैं । सरकार हर साल अपनी रिपोर्ट में ‘‘ड्राप आउट’’ की बढ़ती संख्या पर चिंता जताती है । लेकिन कभी किसी ने यह जानने का प्रयास नहीं किया कि अपने पसंद के विशय या संस्था में प्रवेश ना मिलने से कितनी प्रतिभाएं कुचल दी गई हैं । एम.ए और बीए की डिगरी पाने वालों में कितने ऐसे छात्र हैं जिन्होंने अपनी पसंद के विशय पढ़े हैं । विशय चुनने का हक बच्चों को नहीं बल्कि उस परीक्षक को है जो कि बच्चों की प्रतिभा का मूल्यांकन उनकी गलतियों की गणना के अनुसार कर रहा है । बच्चा जो कुछ करना, पढना या प्रयास करना चाहता है, वह सबकुछ उसे स्कूल में मिलता नहीं और उसे वह भवन एक घुटनभरी चाहदीवारी लगता है। इसी का परिणाम है कि बचचें वहां से भागने, वहां की प्रक्रिया से बचने का प्रयास करते हें और उसकी परम परिणिति एक हत्या के रूप में सामने आई है।

वर्ष 1988 में लागू शिक्षा नीति (जिसकी चर्चा नई शिक्षा नीति के नाम से होती रही है) के 119 पृष्ठों के प्रचलित दस्तावेज से यह ध्वनि निकलती थी कि अवसरों की समानता दिलानेे तथा खाईयों को कम करके बुनियादी परिवर्तन से शिक्षा में परिवर्तन से आ जाएगा । दस्तावेज में भी शिक्षा के उद्देश्यों पर विचार करते हुए स्त्रोतों की बात आ गई है । उसमें बार-बार आय व्यय तथा बजट की ओर इशारे किए गए थे। इसे पढ़ कर मन में सहज ही प्रश्न उठता था कि देश की समूची आर्थिक व्यवस्था को निर्धारित करते समय ही शिक्षा के परिवर्तनशील ढ़ांचे पर विचार हो जाएगा । सारांश यह है कि आर्थिक ढांचा पहले तय होगा तब शिक्षा का ।  कई बजट आए और औंधे मुंह गिरे । लेकिन देश की आर्थिक दशा और दिशा का निर्धारण नहीं हो पाया । ऐसा हुआ नहीं सो शिक्षा में बदलाव का यह दस्तावेज भी किसी  सरकारी दफ्तर की धूल से अटी फाईल की तरह कहीं गुमनामी के दिन काट रहा है।

और अब तो परीक्षा या उसके परिणाम का भय बच्चे को इस हद तक कंुठित बना रहा है कि वह किसी की गर्दन काटने जैसे निर्मम अपराध से नहीं हिचक रहा। यह तो अदालत तय करेगी कि क्या वास्तव में ग्यारहवीं के बच्चे ने उस सात साल के बच्चे का गला काटा कि नहीं, लेकिन यह समय की मांग है कि परीक्षा व उससे उगाहे नंबरों की गला-काट दौड़ पर मानवीय और व्याहवारिक रूप से विचार किया जाए।

पंकज चतुर्वेदी



शुक्रवार, 17 नवंबर 2017

Hills are integral part of eco system

खोदते-खोदते खो रहे हैं पहाड़
पंकज चतुर्वेदी


उप्र के महोबा जिले के जुझार गांव के लोग अपने तीन सौ हेक्टेयर क्षेत्रफल का विशाल पहाड़ को बचाने के लिए एकजुट हैं। पहाड़ से ग्रेनाईट खोदने का ठेका गांव वालों के लिए आफत बन गया था। खनन के निर्धारित मानकों का अनुपालन न करते हुये नियमानुसार दो इंच ब्लास्टिंग के स्थान पर चार और छह इंच का छिद्रण कर विस्फोट कराने शुरु किये गये। इस ब्लास्टिंग से उछलकर गिरने वाले पत्थरों ने ग्रामीणों का जीना हराम कर दिया। लोगों के मकानों के खपरैल टूटने लगे और छतें दरकने लगी। पत्थरों के टूटने से उठने वाले धुन्ध के गुबार से पनपी सिल्फोसिस की बीमारी ने अब तक तीन लोगों की जान ले ली वहीं दर्जनों ग्रामीणों को अपनी चपेट में ले लिया। गांव के बच्चे अपंगता का शिकार हो रहे हैं। सरकार की निगाह केवल इससे होने वाली आय पर है जबकि समाज बता रहा है कि पहाड़ के साथ ही वहां की हरियाली, जल संसाधन, जीव-जंतु सभी कुछ खतम हो रहे है। वह दिन दूर नहीं जब वहां केवल रेगिस्तान होगा।


प्रकृति में जिस पहाड़ के निर्माण में हजारों-हजार साल लगते हैं, हमारा समाज उसे उन निर्माणों की सामग्री जुटाने के नाम पर तोड़ देता है जो कि बामुश्किल सौ साल चलते हैं। पहाड़ केवल पत्थर के ढेर नहीं हाते, वे इलाके के जंगल, जल और वायु की दशा और दिशा तय करने के साध्य होते हैं। जहां सरकार पहाड़ के प्रति बेपरवाह है तो पहाड़ की नाराजी भी समय-समय पर सामने आ रही है, कभी हिमाचल में तो कभी कश्मीर में तो कभी महाराश्ट्र या मध्यप्रदेश में अब धीरे धीरेे यह बात सामने आ रही है कि पहाड़ खिसकने के पीछे असल कारण उस बेजान खडी संरचना के प्रति बेपरवाही ही था। पहाड़ के नाराज होने पर होने वाली त्रासदी का सबसे खौफनाक मंजर अभी एक साल पहले ही उत्तराख्ंाड में केदारनाथ यात्रा के मार्ग पर देखा गया था। देश में पर्यावरण संरक्षण के लिए जंगल, पानी बचाने की तो कई मुहीम चल रही है, लेकिन मानव जीवन के विकास की कहानी के आधार रहे पहाड़-पठारों के नैसर्गिक स्वरूप को उजाड़ने पर कम ही विमर्श है। समाज और सरकार के लिए पहाड़ अब जमीन या धनार्जन का माध्यम रह गए हैं और पहाड़ निराश-हताश से अपनी अंतिम सांस तक समाज को सहेजने के लिए संघर्श कर रहे हैं।

हजारों-हजार साल में गांव-शहर बसने का मूल आधार वहां पानी की उपलब्धता होता था। पहले नदियों के किनारे सभ्यता आई, फिर ताला-तलैयों  के तट पर बस्तियां बसने लगीं। जरा गौर से किसी भी आंचलिक गांव को देखंे, जहां नदी का तट नहीं है- कुछ पहाड़, पहाड़े के निचले हिस्से में झील व उसके घेर कर बसी बस्तियों का ही भूगोल दिखेगा। बीते कुछ सालों से अपनी प्यास के लिए बदनामी झेल रहे बुंदेलखंड में सदियों से अल्प वर्शा का रिकार्ड रहा है, लेकिन वहां कभी पलायन नहीं हुआ, क्योंकि वहां के समाज ने पहाड़ के किनारे बारिश की हर बूंद को सहेजने तथा पहाड़ पर नमी को बचा कर रखने की तकनीक सीख लीथी। छतरपुर षहर बानगी है- अभी सौ साल पहले तक षहर के चारों सिरों पर पहाड़ थे, हरे-भरे पहाड़, खूब घने जंगल वाले पहाड़ जिन पर जड़ी बुटियां थी, पंक्षी थे, जानवर थे।

जब कभी पानी बरसता तो पानी को अपने में समेटने का काम वहां की हरिाली करती, फिर बचा पानी नीचे तालाबों में जुट जाता। भरी गरमी में भी वहां की षाम ठंडी होती और कम बारिश होने पर भी तालाब लबालब। बीते चार दशकों में तालाबों की जो दुर्गति हुई सो हुई, पहाड़ों पर हरियाली उजाड़ कर झोपड़-झुग्गी उगा दी गईं। नंगे पहाड़ पर पानी गिरता है तो सारी पहाडी काट देता है, अब वहां पक्की सडक डाली जा रही हैं। इधर हनुमान टौरिया जैसे पहाड़ को नीचे से काट-काट कर  दफ्तर, कालोनी सब कुछ बना दिए गए हैं। वहां जो जितना रूतबेदार है, उसने उतना ही हाड़ काट लिया।  वह दिन कभी भी आ सकता है कि वहां का कोई पहाड़ नीचे धंस गया और एक और मालिण बन गया।
खनिज के लिए, सड़क व पुल की जमीन के लिए या फिर निर्माण सामग्री के लिए, बस्ती के लिए, विस्तार के लिए , जब जमीन बची नहीं तो लोगों ने पहाड़ों को सबसे सस्ता, सुलभ व सहज जरिया मान लिया। उस पर किसी की दावेदारी भी नहीं थी।  अब गुजरात से देश की राजधानी को जोड़ने वाली 692 किलोमीटर लंबी अरावली पर्वतमाला को ही लें, अदालतें बार-बार चेतावनी दे रही हैं कि पहाड़ों से छेड़छाड़ मत करो, लेकिन बिल्डर लॉबी सब पर भारी है। कभी सदानीरा कहलाने वो इस इलाके में पानी का संकट जानलेवा स्तर पर खड़ा हो गया है। सतपुडा, मेकल, पश्चिमी घाट, हिमालय, कोई भी पर्वतमालाएं लें, खनन ने पर्यावरण को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है। रेल मार्ग या हाई वे बनाने के लिए पहाड़ों को मनमाने तरीके से बारूद से उड़ाने वाले इंजीनियर इस तथ्य को षातिरता से नजरअंदाज कर देते हैं कि पहाड़ स्थानीय पर्यावास, समाज, अर्थ व्यवस्था, आस्था, विश्वास का प्रतीक होते हैं।

पारंपरिक समाज भले ही इतनी तकनीक ना जानता हो, लेकिन इंजीनियर तो जानते हैं कि धरती के दो भाग जब एक-दूसरे की तरफ बढ़ते हैं या सिकुडते हैं तो उनके बीच का हिस्सा संकुचित हो कर ऊपर की ओर उठ कर पहाड़ की षक्ल लेता है। जाहिर है कि इस तरह की संरचना से छोड़छाड़ के भूगर्भीय दुश्परिणाम  उस इलाके के कई-कई किलोमीटर दूर तक हो सकते हैं। पुणे जिले के मालिण गांव से कुछ ही दूरी पर एक बांध है, उसको बनाने में वहां की पहाड़ियों पर खूब बारूद उड़ाया गया था। मालिध्ण वहीं गांव है जो कि दो साल पहले बरसात में पहाड़ ढहने के कारण पूरी तरह नश्ट हो गया था। यह जांच का विशय है कि इलाके के पहाड़ों पर हुई तोड़-फोड़ का इस भूस्खलन से कहीं कुछ लेना-देना है या नहीं। किसी पहाड़ी की तोड़फोड़ से इलाके के भूजल स्तर पर असर पड़ने, कुछ झीलों का पानी पाताल में चले जाने की घटनाएं तो होती ही रहती हैं।
यदि धरती पर जीवन के लिए वृक्ष अनिवार्य है तो वृक्ष के लिए पहाड़ का अस्तित्व बेहद जरूरी है। वृक्ष से पानी, पानी से अन्न तथा अन्न से जीवन मिलता है। ग्लोबल वार्मिंग व जलवायु परिवर्तन की विश्वव्यापी समस्या का जन्म भी जंगल उजाड़ दिए गए पहाड़ों से ही हुआ है। यह विडंबना है कि आम भारतीय के लिए ‘‘पहाड़’’ पर्यटन स्थल है या फिर उसके कस्बे का पहाड़ एक डरावनी सी उपेक्षित संरचना।  विकास के नाम पर पर्वतीय राज्यों में बेहिसाब पर्यटन ने प्रकृति का हिसाब गड़बउ़ाया तो गांव-कस्बों में विकास के नाम पर आए वाहनों, के लिए चौड़ी सड़कों के निर्माण के लिए जमीन जुटाने या कंक्रीट उगाहने के लिए पहाड़ को ही निशाना बनाया गया। यही नहीं जिन पहाड़ों पर  इमारती पत्थर या कीमती खनिज थे, उन्हें जम कर उजाड़ा गया और गहरी खाई, खुदाई से उपजी धूल को कोताही से छोड़ दिया गया। राजस्थान इस तरह से पहाड़ों के लापरवाह खनन की बड़ी कीमत चुका रहा है। यहां जमीन बंजर हुई, भूजल के स्त्रोत दूषित हुए व सूख गए, लोगों को बीमारियां लगीं व बारिश होने पर खईयों में भरे पानी में मवेशी व इंसान डूब कर मरे भी।


आज हिमालय के पर्यावरण, ग्लेशियर्स के गलने आदि पर तो सरकार सक्रिय हो गई है, लेकिन देश में हर साल बढ़ते बाढ़ व सुखाड़ के क्षेत्रफल वाले इलाकों में पहाड़ों से छेड़छाड़ पर कहीं गंभीरता नहीं दिखती। पहाड़ नदियों के उदगम स्थल हैं। पहाड़ नदियों का मार्ग हैं, पहाड़ पर हरियाली ना होने से वहां की मिट्टी तेजी से कटती है और नीचे आ कर नदी-तालाब में गाद के तौर पर जमा हो कर उसे उथला बना देती है। पहाड़ पर हरियाली बादलों को बरसने का न्यौता होती है, पहाड़ अपने करीब की बस्ती के तापमान को नियंत्रित करते हैं, इलाके के मवेशियेां का चरागाह होते हैं। ये पहाड़ गांव-कस्बे की पहचान हुआ करते थे। और भी बहुत कुछ कहा जा सकता है इन मौन खड़े छोटे-बड़े पहाड़ों के लिए, लेकिन अब आपको भी कुछ कहना होगा इनके प्राकृतिक स्वरूप को अक्षुण्ण रखने के लिए।

शुक्रवार, 10 नवंबर 2017

Dependency on Judiciary for clean environment

अदालतों के बदौलत नहीं बचेगी प्रकृति
                                                            पंकज चतुर्वेदी

गत छह नवंबर को दिल्ली व उसके आसपास के जिलों में प्रदूषण के कारण धुध छाई तो सरकारें तभी चेतीं जब अदालतों ने फटकार लगाना शुरू किया। इससे पहले दीपावली पर भी आतिशबाजी चलाने को ले कर सुप्रीम कोर्ट को ही पहल करनी पड़ी थी। हकीकत तो यह है कि भारत का समाज अभी किसी भी तरह प्रदूशण के संकट, आने वाले कुछ ही दशकों में पर्यावरणीय हानि के कारण बरपने वाले संकटों के प्रति बेपरवाह है। हमारे लिए हवा या पानी के खराब होने के चिंतांए व विमर्श महज तात्कालिक होते है।
जिस तरह देश की आबादी बढ़ रही  है, जिस तरह हरियाली व खेत कम हो रहे हैं, जिस तरह जल-स्त्रोतों का रीतापन बढ़ रही है; जिस तरह हम हर दिन वनस्पित और जंतुओं की कोई ना कोई प्रजाति को सदा के लिए खो रहे हैं, जिस तरह खेत  व घर में जहरीले रसायनों का इस्तेमाल बढ़ रहा है, जिस तरह भीशण गर्मी से जूझने के लिए वतानुकूलन  और अनय भोतिक सुखों की पूर्ति के लिए बिजली का इस्तेमाल बढ़ रहा है ; हमें पर्यावरणीय संवेदनशील बनना ही होगा- या कानून को हमें ऐसा करने पर मजबूर करना होगा।
पिछले 70 वर्षो में भारत में पानी के लिए कई भीषण संघर्ष हुए हैं, कभी दो राज्य नदी के जल बंटवारे पर भिड़ गए तो कहीं सार्वजनिक नल पर पानी भरने को ले कर हत्या हो गई। इन दिनों पंजाब, हरियाणा और दिल्ली के बीच नदियों के पानी के बंटवारे को ले कर घमासान मचा हुआ है।

 खेतों में नहर से पानी देने को हुए विवादों में तो कई पुश्तैनी दुश्मिनियों की नींव रखी हुई हैं। यह भी कडवा सच है कि हमारे देश में औरत पीने के पानी की जुगाड़ के लिए हर रोज ही औसतन चार मील पैदल चलती हैं। पानीजन्य रोगों से विश्व में हर वर्ष 22 लाख लोगों की मौत हो जाती है। इसके बावजूद देश के हर गांव- षहर में कुएं, तालाब, बावड़ी, नदी या समुद्र तक को जब जिसने चाहा है दूशित किया है। गत दो महीनेां के दौरान आस्था-ार्म क ेनम पर गणपति व देवी प्रमिमओं का विसर्जन कर हमनें संकट में भटक रहे जल को और जहरीला कर दिया। अब साबरमति नदी को ही लें, राज्य सरकार ने उसे बेहद सुंदर पर्यटन स्थल बना दिया, लेकिन इस सौदर्यीकरण के फेर में नदी का पूरा पर्यावरणीय तंत्र ही नश्ट कर दिया या। नदी के पाट को एक चौथाई से भी कम घटा दिया गया, उसके जलग्रहण क्षेत्र में  पक्के निर्माण कर दिए गया। नदी का अपना पानी तो था नहीं, नर्मदा से एक नहर ला कर उसमें पानी भर दिया। अब वहां रोशनी है, चमक-धमक है, बीच में पानी भी दिखता है, लेकिन नहीं है तो नदी सके अभिन्न अंग, उसके जल-जीव, दलदली जमीन, जमीन की हरियाली, व अन्य जैविक क्रियाएं। सौंदर्यीकरण के नाम पर पूरे तंत्र को नश्ट करने की कोशिशें महज नदी के साथ नहीं , हर छोटे-बड़े कस्बों के पारंपरिक तालाबों के साथ भी की गई।

दिल्ली में ही दो साल पहले विश्व सांस्कृतिक संध्या के नाम पर यमुना के संपूर्ण इको-सिस्टम यानि पर्यावरणीय तंत्र को जो नुकसान पहुंचाया गया, वह भी महज राजनीति की फेर में फंसकर रह गया। एक पक्ष यमुना के पहले से दूशित होने की बात कर रहा था तो दूसरा पक्ष बता रहा था कि पूरी प्रक्रिया में नियमों को तोड़ा गया। पहला पक्ष पूरे तंत्र को समझना नहीं चाहता तो दूसरा पक्ष  समय रहते अदालत गया नहीं व ऐसे समय पर बात को उठाया गया जिसका उद्देश्य नदी की रक्षा से ज्यादा ऐन समय पर समस्याएं खड़ी करना था।  लेाग उदाहरण दे रहे हैं कुंभ व सिंहस्थ का, वहां भी लाखो ंलोग आते है, लेकिन वह यह नहीं विचार करते कि सिंहस्थ, कुंभ या माघी या ऐसे ही मेले नदी के तट पर होते हैं, नदी तट हर समय नदी के बहाव से उंचा होता है और वह नदियों के सतत मार्ग बदलने की प्रक्रिया में विकसित होता है, रेतीला मैदान।

जबकि किसी नदी का जल ग्रहण क्षेत्र, जैसा कि दिल्ली में था, एक दलदली स्थान होता है जहां नदी अपने पूरे यौवन में होती है तो जल का विस्तार करती है। वहां भी धरती में कई लवण होते हैं, ऐसे छोटे जीवाणु होते है। जो ना केवल जल को षुद्ध करते हैं बल्कि मिट्टी की सेहत भी सुधारते हैं। ऐसी बेशकीमती जमीन को जब लाखों पैर व मशीनें रौंद देती हैं तो वह मृत हो जाती है व उसके बजंर बनने की संभावना होती है। अपने भक्तों को मच्छरों से बचाने के लिए हजारों टन रसायन नदी के भीतर छिड़का गया। वह तो भला हो एनजीटी का, वरना कई हजार लीटर कथित एंजाईम भी पानी में फैलाया जाता। अब आयोजन के बाद कथित सफााई का दिखावा हो रहा है, जबकि  जलग्रहण क्षेत्र में लागतार भारी वाहन चलने, सफाई के नाम पर गैंती-फावड़े चलाने से जमीन की ऊपरी नम सतह मर गई उसके प्रति किसी की सोच ही नहीं बन रही है। हो सकता है कि कुछ दिनों में आयोजन स्थल परजमा कई टन कूडा, पी का खाली बौतले आदि साफ हो जाए, लेकिन जिस नैसर्गिकता की सफााई हो गई, उसे लौटाना नामुमकिन है। सवाल यही है कि हम आम लोगों को नदी की पूरी व्यवस्था को समझाने में सफल नहीं रहे हैं और बस अदालती उम्मीद में बैठे हैं।
बात खेतो में पराली जलाने की हो या फि मुहल्ले में पतझड़ के दिनों में सूखे पत्तों को ढेर जलाने की, कम कागज खर्च करने की या फिर पॉलीथीन जैसे दानव के दमन की , कम बिजली व्यय का सवाल हो ा फिर परिवहन में कम कार्बन उत्सर्जन के विकल्पों की बात , जल संरक्षण के सवाल हों या फिर खेती के पारंपरिक तरीकों की; हम हर जगह पहले अदालती आदेश का और फिर उस आदेश के पालना के लिए कार्यपालिका की बाट जोहते रहते है।। सनद रहे अदालत कोई नया कानून नहीं बनाती, वह तो केवल पहले से उपलब्ध कानूनों की व्याख्या कर व्यवस्था देती है। जाहिर है कि कार्यपालिका और समाज दोनों ही पहले से उपलब्ध कानूनों की अनदेखी कर देश में र्प्यावरणीय संकट के कारण अस्तित्व पर सवालिया निशान खड़ा कर रहे है।।
देश के कई संरक्षित वन क्षेत्र, खनन स्थलों, समुद्र तटों आदि पर समय-समय पर ऐसे ही विवाद होते रहते हैं। हर पक्ष बस नियम, कानून, पुराने अदालती आदेशों आदि का हवाला देता है, कोई भी सामाजिक जिम्मेदारी, अपने पर्यावरण के प्रति समझदारी और परिवेश के प्रति संवेदनशीलता की बात नहीं करता है। ध्यान रहे हर बात में अदालतों व कानून की दुहाई देने का अर्थ यह है कि हमारे सरकारी महकमे और सामाजिक व्यवस्थां जीर्ण षीर्ण होती जा रही है और अब हर बात डंडे के जोर से मनवाने का दौर आ गया है। इससे कानून तो बच सकता है, लेकिन पर्यावरण नहीं।
आज जरूरत है कि प्राथमिक स्तर से ही पर्यावरण संरक्षण के केवल पाठ ही नहीं, उसके निदानों पर चर्चा हो। आतिशबाजी चलाने, पॉलीथीन के इस्तेमाल या जहरीले कीटनाशकों के इस्तेमाल पर पाबंदी  की जगह उसके निर्माण पर ही रोक हो, पर्यावरणीय नुकसान पहुंचाने को सियासती दांव-पेंच से परे रखा जाए। वरना आने वाले दो दशकां में हम विकास-शिक्षा के नाम पर आज व्यय हो रहे सरकारी बजट में कटौती कर उसका इस्तेमाल स्वास्थ्य, जल व साफ हवा जुटाने के संसाधनों को जुटाने पर मजबूर हो जाएंगे।

Temporary measures can not give fresh breath to Delhi

पांच दिन की चांदनी, फिर जहरीले दिन 
पंकज चतुर्वेदी

सात नवंबर की रात से दिल्ली व उसके आसपास घना स्मॉग क्या छाया, सारा दोष पंजाब-हरियाण के किसानों के पराली जलाने पर डाल दिया गया।  वातावरण के जहरीले होने की ऐसी इमरजेंसी घोषित की गई कि पांच दिन बाद से दिल्ली महानगर की सड़कों पर वाहनों की सम-विषम योजना शुरू की गई है। यही नहीं यह पांबदी केवल दिल्ली की सीमा में लागू होगी, दिल्ली का विस्तारित क्षेत्र हो गए गाजियाबाद, नोएडा, फरीदाबाद या गुरूग्राम में ऐसा नहीं होगा। अभी वह विज्ञान समझ से परे ही है कि वायु को जहरीला करने वाला धुआं क्यों कर सीमा पार कर दिल्ली तक नहीं आता हे। हकीकत तो यह है कि दिल्ली एनसीआर में पूरे साल , महज बरसात के पंद्रह से पच्चीस दिन छोड़ कर, वायु प्रदूषण के यही हालात रहते हैं। गरमी में  फैंफड़ों में जहर भरने का देाष तापमान व राजस्थान-पाकिस्तान ेस आने वाली धूल को दिया जाता है तो ठंड में इसका देाषी किसानों को परली जलाने के कारणब ताया जाता है। पर्यावरण संरक्षण के मामले में विस्तारित दिल्ली का लगभग देा करोड़ आबादी वाला समाज और सरकार ठीक उन आदर्शवादियों की तरह है जो चाहते हैं कि भगत सिंह  घर-घर में पैदा हो, लेकिन उनके घर नहीं। यह कटु तथ्य है कि दिल्ली एनसीआर में पूरे साल हवा मान स्तर की तुलना में ‘6बहेद खराब’ स्तर की होती है और इसका मुख्य कारक यहीं छिपा है।
इसमें कोई शक नहीं कि दिल्ली के हालात भयावह हैं, इसमें भी कोई संशय नहीं कि खेत में खड़े ठूुठों को जलाने से पैदा हुआ धुआं परिवेश को जहरीला बनाने में कुछ भूमिका अदा कर रहा हैं। लेकिन हकीकत तो यह है कि दिल्ली की हवा को इतना घना बनाने में खुद दिल्ली-एनसीआर ही बड़ा दोषी है। सनद रहे इन दिनों हवा की गति बहुत कम है और ऐसे में पंजाब की तरफ से हवा के साथ काले धुंए के उड़ के आने की मात्रा बेहद कम है।
दरअसल इस खतरे के मुख्य कारण 2.5 माइक्रो मीटर व्यास वाला धुएं में मौजूद एक पार्टिकल और वाहनों से निकलने वाली गैस नाइट्रोजन ऑक्साइड है, जिसके कारण वायु प्रदूषण से हुई मौतों का आंकड़ा लगातार बढ़ता जा रहा है। इस खतरे का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि वायु प्रदूषण करीब 25 फीसदी फेंफड़े के कैंसर की वजह है। इस खतरे पर काबू पा लेने से हर साल करीब 10 लाख लोगों की जिंदगियां बचाई जा सकेंगी ।
यह स्पश्ट हो चुका है कि दिल्ली में वायु प्रदूशण का बड़ा कारण यहां बढ़ रहे वाहन, ट्राफिक जाम और राजधानी से सटे जिलों में पर्यावरण के प्रति बरती जा रही कोताही है। हर दिन बाहर से आने वाले कोई अस्सी हजार ट्रक या बसें यहां के हालात को और गंभीर बना रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि समस्या बेहद गंभीर है । सीआरआरआई की एक रपट के मुताबिक राजधानी के पीरागढी चौक से हर रोज 315554 वाहन गुजरते हैं और यहां जाम में 8260 किग्रा ईंधन की बर्बादी होती है। इससे निकलने वाला कार्बन 24119किग्रा होता है। कनाट प्लेस के कस्तूरबागांधी मार्ग पर प्रत्येक दिन 81042 मोटर वाहन गुजरते हैं व रेंगते हुए चलने के कारण 2226 किग्रा इंधन जाया करते हैं।। इससे निकला 6442 किग्रा कार्बन वातावरण को काला करता है। और यह हाल दिल्ली के चप्पे-चप्पे का है। यानि यहां सडकों पर हर रोज कई चालीस हजार लीटर इंधन महज जाम में फंस कर बर्बाद होता है। कहने को तो पार्टिकुलेट मैटर या पीएम के मानक तय हैं कि पीएम 2.5 की मात्रा हवा में 50पीपीएम और पीएम-10 की मात्रा 100 पीपीएम से ज्यादा नहीं होना चाहिए। लेकिन दिल्ली का कोई भी इलाका ऐसा नहीं है जहां यह मानक से कम से कम चार गुणा ज्यादा ना हो। पीएम ज्यादा होने का अर्थ है कि आंखों मंे जलन, फैंफडे खराब होना, अस्थमा, कैंसर व दिल के रोग।
यदि राष्ट्रीय भौतिक विज्ञान प्रयोगशाला के आंकउ़ों पर भरोसा करंे तो दिल्ली में हवा के साथ जहरीले कणों के घुलने में सबसे बड़ा योगदान 23 फीसदी धूल और मिट्टी के कणों का है।  17 प्रतिशत वाहनों का उत्सर्जन है। जनरेटर जैसे उपकरणों के चलते 16 प्रतिशत सात प्रतिशत औद्योगिक उत्सर्जन और  12 प्रतिशत पराली या अन्य जैव पदार्थों के जलाने से हवा जहरीली हो रही है। सबसे ज्यादा दोषी धूल और मिट्टी के कण नजर आ रहे हैं और इनका सबसे बड़ा हिससा दिल्ली एनसीआर में दो सौ से अधिक स्थानों प चल रहे बड़े निर्माण कार्यांे, जैसे कि मेट्रो, फ्लाई ओवर और इसमें भी सबसे ज्यादा एनएच-24 के चौड़ीकरण की उपज है। एक तो ये निर्माण र्बर वैकल्पिक मार्ग उपलब्ध करवाए व्यापक स्तर पर चल रहे हैं, दूसरा ये अपने निर्धारित समय-सीमा से कहीं बहुत बहुत दूर हैं। इनमें रिंग रोड़ पर साउथ-एक्सटेंशन मेंट्रो कार्य, गाजियाबाद में मेट्रो विस्तार व एलिवेटेड रोड प्रोजेक्ट सहित दर्जनों कार्य हैं। ये धूल-मिट्टी तो उड़ा ही रहे हैं, इनके कारण्ण हो रहे लंबे-लंबे जाम भी हवा को भयंकर जहरीला कर रहे हैं। राजधानी की विडंबना है कि तपती धूप हो तो भी प्रदूषण बढ़ता है, बरसात हो तो जाम होता है व उससे भी हवा जहरीली होती है। ठंड हो तो भी धुंध के साथ धुंआ के साथ मिल कर हवा जहरीली । याद रहे कि वाहन जब 40 किलोमीटर से कम की गति पर रैंगता है तो उससे उगलने वाला प्रदूषण कई गुना ज्यादा होता है।
कुछ ही दिनों पहले ही ंविश्व स्वास्थ संगठन ने दिल्ली को दुनिया का सबसे ज्यादा दूशित वायु वाले षहर के तौर पर चिन्हित किया है। इसके बावजूद यहां के निर्माण कार्य ना तो जन स्वास्थय की परवाह कर रहे हंे ना ही पर्यावरण कानूनों की। गत सात महीने से दिल्ली के लगभग बीच से निकलने वाले राश्ट्रीय राजमार्ग 24 के चौड़ीकरण का अनियोजित और बेतरतीब चौड़ीकरण दिल्ली के लिए जानलेवा बन रहा है। सनद रहे यह सड़क दिल्ली एनसीआर की एक तिहाई आबादी के दैनिक आवागमन के अलावा कई राज्यों को जोड़ने वाला ऐसा मार्ग है जो महानगर के लगभग बीच से गुजरता है। एक तो इसके कारण पहले से बनी सड़कें संकरी हो गई हैं, फिर बगैर वैकल्पिक व्यवस्था किए इस पर वाहन का बोझ डाल दिया गया। कालेखां से गाजीपुर तक का बामुश्किल नौ किलोमीटर का रास्ता पार करने में एक वाहन को एक घंटा लगा रहा है। उसके साथ ही खुदाई, मिक्सिंग प्लांट से उड़ रही धूल अलग है।
ठीक इसी तरह के लगभग 200 निर्माण कार्य राजधानी में अलग-अलग स्थानों पर चल रहेें हैं जहां हर दिन कोई 65 करोड़ रूपए का ईंधन जल रहा है लेागों के घंटे बरबाद हो रहे हैं। इसके चलते दिल्ली की हवा में कितना जहर घुल गया है, इसका अंदाजा खौफ पैदा करने वालो आंकड़ों कों बांचने से ज्यादा डाक्टरों के एक ंसंगठन के उस बयान से लगाया जा सकता है जिसमें बताया गया है कि देश की राजधानी में 12 साल से कम उम्र के 15 लाख बच्चे ऐसे है, जो अपने खेलने-दौड़ने की उम्र में पैदल चलने पर ही हांफ रहे हैं। इनमें से कई सौ का डाक्टर चेता चुके हैं कि यदि जिंदगी चाहते हो तो दिल्ली से दूर चले जाएं। 
जाहिर है कि यदि दिल्ली की संास थमने से बचाना है तो यहां ना केवल सड़कों पर वाहन कम करने होंगे, इसे आसपास के कम से कम सौ किलोमीटर के सभी षहर कस्बों में भी वही मानक लागू करने होंने जो दिल्ली षहर के लिए हों। अब करीबी षहरों की बात कौन करे जब दिल्ली में ही जगह-जगह चल रही ग्रामीण सेवा के नाम पर ओवर लोडेड  वाहन, मेट्रो स्टेशनों तक लोगों को ढो ले जाने वाले दस-दस सवारी लादे तिपहिएं ,पुराने स्कूटरों को जुगाड के जरिये रिक्शे के तौर पर दौड़ाए जा रहे पूरी तरह गैरकानूनी वाहन हवा को जहरीला करने में बड़ी भूमिका निभा रहे हैं। सनद रहे कि वाहन सीएजी से चले या फिर डीजल या पेट्रोल से, यदि उसमें क्षमता से ज्यादा वजन होगा तो उससे निकलने वाला धुआं जानलेवा ही होगा। यदि दिल्ली को एक अरबन स्लम बनने से बचाना है तो इसमें कथित लोकप्रिय फैसलों से बचना होगा, जिसमें सबसे महत्वपूर्ण है यहां बढ़ रही आबादी को कम करना। इसे अलावा दिल्ली में कई स्थानों पर सरे राह कूड़ा जलाया जा रहा है जिसमें घरेलू ही नहीं मेडिकल व कारखानों का भयानक रासायनिक कूड़ा भी हे। ना तो इस महानगर व उसके विस्तारित शहरों के पास कूड़ा-प्रबंधन की कोई व्यवस्था है और ना ही उसके निस्तारण्ण का। सो सबसे सरल तरीको उसे जलाना ही माना जाता हे। इससे उपजा धुओं पराली से कई गुना ज्यादा है।
आंकउ़ों और तथ्यों को गौर से देखें तो यह स्पष्ट होता है कि वाहनों के सम-विषम की योजना महज औपचारिकता मात्र है और इससे किसी भी तरह से वायू प्रदूषण पर नियंत्रण लगने वाला नहीं हे। फिर जब यह त्रासदी साल के 340 दिनों की है तो पांच दिन में क्या फर्क पडेगा? वैसे भी राजधानी क्षेत्र में साइ फीसदी वाहन दो पहिये हैं, जो कि सर्वाधिक प्रदूषण करते हैं, लेकिन वे  पाबंदी से बाहर हैं, सीएनजी वाहना, वीवीआईपी अैर आकस्मिक सेवा वाहन, महिलओं के वाहन, स्कूल छोड़ने जा रहे वाहन भी इससे बाहर हैं। आल ंइडिया टूरिस्ट के परमिट पर ंपजीकृत आले-उबर जैसी कंपनियों के डीजल वाहन भी इस पाबंदी में चलते ही हैं। जाहिर है कि महज 25 फीसदी लोग ही इसके तहत सड़कों पर अपनी कार ले कर नहीं आ पाएंगे।
सनद रहे कि इतनी बड़ी आबादी के लिए चाहे मेट्रो चलाना हो या पानी की व्यवस्था करना, हर काम में लग रही उर्जा का उत्पादन  दिल्ली की हवा को विषैला बनाने की ओर एक कदम होता है। यही नहीं आज भी दिल्ली में जितने विकास कार्यों कारण जाम , ध्ूाल उड़ रही है वह यहां की सेहत ही खबरा कर रही है, भले ही इसे भविश्य के लिए कहा जा रहा हो। लेकिन उस अंजान भविश्य के लिए वर्तमान बड़ी भारी कीमत चुका रहा है। दिल्लीवासी इतना प्रदूषण ख्ुाद फैला रहे हें और उसका दोष किसानों पर मढ़ कर महज खुद को ही धोखा दे रहे हैं। बेहतर कूड़ा प्रबंधन, सार्वजनिक वाहनों को एनसीआर के दूरस्थ अंचल तक पहुंचाने, राजधानी से भीड़ को कम करने के लिए यहां की गैरजरूरी गतिविधियों व प्रतिष्ठानों कोकम से कम दो  सौ किलोमीटर दूर शिफ्ट करने , कार्यालयों व स्कूलों के समय और उनके बंदी के दिनों में बदलाव जैसे दूरगामी कदम ही दिल्ली को मरता शहर बनाने से बचा सकते हैं। इवन-ऑड महज एक नारेबाजी सरीका दिखावटी कदम है।

बुधवार, 8 नवंबर 2017

environment protection must be in our basic education


पर्यावरण संरक्षण की मुश्किलें

हम हर दिन वनस्पति और जंतुओं की किसी न किसी प्रजाति को सदा के लिए खो रहे हैं, खेत और घर में जहरीले रसायनों का इस्तेमाल बढ़ रहा है, भीषण गरमी से जूझने में वातानुकूलित यंत्र और अन्य भौतिक सुखों की पूर्ति के लिए बिजली का इस्तेमाल बढ़ रहा है।

जिस तरह देश की आबादी बढ़ रही है, हरियाली और खेत कम हो रहे हैं, जल-स्रोतों का रीतापन बढ़ रहा है, हम हर दिन वनस्पति और जंतुओं की किसी न किसी प्रजाति को सदा के लिए खो रहे हैं, खेत और घर में जहरीले रसायनों का इस्तेमाल बढ़ रहा है, भीषण गरमी से जूझने में वातानुकूलित यंत्र और अन्य भौतिक सुखों की पूर्ति के लिए बिजली का इस्तेमाल बढ़ रहा है, उसके मद्देनजर हमें पर्यावरण को लेकर संवेदनशील बनना होगा। नहीं तो, एक दिन ऐसा आएगा जब कानूनन हमें ऐसा करने पर मजबूर किया जाएगा। पिछले सत्तर वर्षों के दौरान भारत में पानी के लिए कई बड़े संघर्ष हुए हैं। कभी दो राज्य नदी के जल बंटवारे पर भिड़ गए, तो कहीं सार्वजनिक नलों पर पानी भरने के सवाल पर उठे विवाद में हत्या तक हो गई। इन दिनों, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली के बीच नदियों के पानी के बंटवारे को लेकर घमासान मचा हुआ है। यह एक कड़वा सच है कि हमारे देश के कई इलाकों में आज भी महिलाएं पीने के पानी के जुगाड़ के लिए हर रोज औसतन चार मील पैदल चलती हैं। जलजनित रोगों से विश्व में हर साल बाईस लाख लोगों की मौत हो जाती है। इसके बावजूद देश के हर गांव-शहर में कुएं, तालाब, बावड़ी, नदी या समुद्र तक को जब जिसने चाहा है, दूषित किया है। पिछले दो महीनों के दौरान आस्था और धर्म के नाम पर देवताओं की मूर्तियों के विसर्जन के जरिए हमने पहले ही संकट में पड़े पानी को और जहरीला कर दिया। मसलन, साबरमती नदी को राज्य सरकार ने सुंदर पर्यटन स्थल बना दिया है लेकिन इस सौंदर्यीकरण के फेर में नदी का पूरा पारिस्थितिकी तंत्र ही नष्ट कर दिया गया। नदी के पाट को घटा कर एक चौथाई से भी कम कर दिया गया। उसके जलग्रहण क्षेत्र में पक्के निर्माण करा दिए गए। नदी का अपना पानी नहीं था तो नर्मदा से एक नहर लाकर उसमें पानी भर दिया गया।
अब वहां रोशनी है, चमक-दमक है, बीच में पानी भी दिखता है, लेकिन नदी के अभिन्न अंग रहे उसके जलीय-जीव, दलदली जमीन, हरियाली और अन्य जैविक क्रियाएं नहीं रहीं। सौंदर्यीकरण के नाम पर पूरे तंत्र को नष्ट करने की कोशिशें किसी एक नदी नहीं, बल्कि हर छोटे-बड़े कस्बों के पारंपरिक तालाबों के साथ भी की गर्इं। कुछ समय से उत्तर प्रदेश के इटावा के एक पुराने तालाब को सुंदर बनाने के नाम पर उसे संकरा कर रंगीन टाइल लगाने की योजना पर काम चल रहा है। हो सकता है कि उससे कुछ दिनों में शहर में रौनक आ जाए लेकिन न तो उसमें पानी इकट्ठा होगा और न ही वहां जमा पानी से जमीन की प्यास बुझेगी। यह भी तय है कि ऐसे तालाब में भी बाहर से पानी भरना होगा।ऐसा ही पूरे देश के सरोवरों के साथ हुआ। यानी तालाब के जलग्रहण और निकासी क्षेत्र में पक्के निर्माण कर उसकी चौहद्दी समेट दी गई, बीच में मंदिर की तरह कोई स्थायी आकृति बना दी गई और इसकी आड़ में आसपास की जमीन का व्यावसायिक इस्तेमाल कर लिया गया। इसके अलावा, करीब दो साल पहले, दिल्ली में विश्व सांस्कृतिक संध्या के नाम पर सारे नियम-कायदों को ताक पर रख कर यमुना के समूचे पारिस्थितिकी तंत्र को जो नुकसान पहुंचाया गया, वह भी महज राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप में उलझ कर रह गया। दोषियों को चिह्नित करने या फिर उनके खिलाफ कोई कार्रवाई करने की जरूरत नहीं समझी गई।
लोग उदाहरण देते हैं कुंभ और सिंहस्थ मेले का, कि वहां भी लाखों लोग आते हैं। लेकिन ऐसा कहने वाले लोग यह विचार नहीं करते कि सिंहस्थ, कुंभ या माघी या ऐसे ही मेले नदी के तट पर होते हैं। तट नदी के बहाव से ऊंचा होता है और वह नदियों के सतत् मार्ग बदलने की प्रक्रिया में विकसित होता है। जबकि किसी नदी का जल ग्रहण क्षेत्र, जैसा कि दिल्ली में था, एक दलदली स्थान होता है जहां नदी अपने पूरे यौवन में बहती है तो जल का विस्तार करती है। वहां भी धरती में कई लवण होते हैं। ऐसे छोटे जीवाणु होते हैं, जो न केवल जल को शुद्ध करते हैं, बल्कि मिट्टी की सेहत भी सुधारते हैं। ऐसी बेशकीमती जमीन को जब लाखों पैर और मशीनें रौंद देती हैं तो वह मृतप्राय हो जाती है और उसके बंजर हो जाने की आशंका होती है। नदी के जल कासबसे बड़ा संकट उसमें डीडीटी (डाइक्लोरो डाइफिनाइल ट्राइक्लोरोइथेन), मलाथियान जैसे रसायनों की बढ़ती मात्रा है। ये रसायन केवल पानी को जहरीला ही नहीं बनाते, बल्कि रोग प्रतिरोधक क्षमता को भी नष्ट कर देते हैं। सनद रहे कि पानी में अपने परिवेश के सामान्य मल, जल-जीवों के मृत अंश और सीमा में प्रदूषण को ठीक करने के गुण होते हैं। लेकिन जब नदी में डीडीटी जैसे रसायनों की मात्रा बढ़ जाती है तो उसकी यह क्षमता भी खत्म हो जाती है।
स्थिति कितनी जटिल है, इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि पर्व-त्योहार को मनाने के तरीके के लिए भी हम अदालतों या सरकारी आदेशों पर निर्भर होते जा रहे हैं। दिवाली पर आतिशबाजी चलाने के सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों की हर साल किस तरह अनदेखी की जाती है, यह किसी से छिपा नहीं है। कुछ लोग तो आदेशों की धज्जियां उड़ाने को ही अपनी सभ्यता मानते हैं। कुल मिला कर हम समाज को अपने परिवेश, पर्यावरण और परंपराओं के प्रति सही तरीके से न तो जागरूक बना पा रहे हैं और न ही प्रकृति पर हो रहे हमलों के विपरीत प्रभावों को सुनना-समझना चाहते हैं।कुछ लोग हरित पंचाट या अदालतों में जाते हैं। कुछ औद्योगिक घराने इसके परदे में अकूत कमाई करते हैं, कुछ ऐसे भी हैं जो ऐसे आदेशों की आड़ में अपनी दुकान चलाते हैं। लेकिन फिलहाल ऐसे लोग बहुत कम हैं जो धरती को नष्ट करने में अपनी भूमिका के प्रति खुद ही सचेत या संवेदनशील होते हैं। बात खेतों में पराली जलाने की हो या फिर मुहल्ले में पतझड़ के दिनों में सूखे पत्तों के ढेर जलाने का, कम कागज खर्च करने या फिर कम बिजली व्यय की, परिवहन में कम कार्बन उत्सर्जन के विकल्प, जल संरक्षण के सवाल या फिर खेती के पारंपरिक तरीकों की, हम हर जगह पहले अदालती आदेश और फिर उस पर अमल के लिए कार्यपालिका की बाट जोहते रहते हैं। जबकि अदालत कोई नया कानून नहीं बनाती। वह तो केवल पहले से उपलब्ध कानूनों की व्याख्या कर फैसला सुनाती है या व्यवस्था देती है।
देश के कई संरक्षित वन क्षेत्र, खनन स्थलों, समुद्र तटों आदि पर समय-समय पर ऐसे ही विवाद होते रहते हैं। हर पक्ष बस नियम-कानून, पुराने अदालती आदेशों आदि का हवाला देता है। कोई भी व्यक्ति सामाजिक जिम्मेदारी, पर्यावरण के प्रति अपनी समझदारी और परिवेश के प्रति संवेदनशीलता की बात नहीं करता है। हर बात में अदालतों और कानून की दुहाई देने का अर्थ यह है कि हमारे सरकारी महकमे और सामाजिक व्यवस्थाएं जीर्ण-शीर्ण होती जा रही है।
आज जरूरत इस बात की है कि प्राथमिक स्तर से ही पर्यावरण संरक्षण के केवल पाठ नहीं पढ़ाए जाएं, बल्कि उसके निदानों पर भी चर्चा हो। आतिशबाजी, पॉलीथीन या जहरीले कीटनाशकों के इस्तेमाल पर पाबंदी की जगह उसके निर्माण पर ही रोक हो। पर्यावरणीय नुकसान पहुंचाने को सियासी दांवपेच से परे रखा जाए। वरना आने वाले दो दशकों में हम विकास-शिक्षा के नाम पर आज व्यय हो रहे सरकारी बजट में कटौती कर उसका इस्तेमाल स्वास्थ्य, जल और साफ हवा के लिए संसाधनों को जुटाने पर मजबूर हो जाएंगे।

शुक्रवार, 3 नवंबर 2017

agriculture is spiritual matter for India

खेत को आस्था का विषय बनाएं
पंकज चतुर्वेदी 



श्रावण शुरू  होते ही मध्य भारत या गोबर पट्टी के ग्रामीण अंचलों में में बहुरा चौथ, ऋषि  पंचमी, हर छट जैसे कई पर्व-त्योहार लोक जीवन में होने लगते है। जब खेती को बिसरा चुके परिवार के लोगों को भी , भले ही परंपरा के नाम पर खेत-खलिहान की याद आ जाते हैं । ऐसे ही संस्कार देश के अन्य हिस्सों में मनाए जाते हैं। इनमें पूजा और आहार दोनो ही खेती-किसानी पर केंद्रित होते हैं। यह सिलसिला दीवाली और उसके आगे होली तक चलता रहता है, जब लोग अपने पूजा या संस्कार के लिए खेत-खलिहान को तलाशते हैं। असल में खेत , किसान, फसल हमारे  लोक व सामाजिक जीवन में कई पर्व, त्योहार, उत्सव का केंद्र हैं, लेकिन विडंबना है कि किसान के लिए खेती घाटे का सौदा बन गई है।  अब जमीन की कीमत देकर खेत उजाड़ने की गहरी साजिश को हम समझ नहीं पा रहे हैं। यह जान लें कि कार, भवन, जैसे उत्पादों की तरह पेट भरने के लिए अनिवार्य अन्न किसी कारखाने में नहीं उगाया जा सकता है और जब तक खेत है तभी तक हम खाद्यान के मामले में आत्मनिर्भर हैं ।

एक तरफ देश की आबादी बढ़ रही है, लोगों की आय बढ़ने से भोजन की मात्रा बढ़ रही है, दूसरी ओर ताजातरीन आंकड़ा बताता है कि बीते साल की तुलना में इस बार गेहुू की पैदावार ही 10 फीसदी कम हुई है। दाल की फसल आने से पहले ही पता चल गया कि आवक कम होगी व बाजार रंग दिखा चुका है। जब किसान अपनी मेहनत की फसल सड़क पर इस लिए फैंक देता है क्योंकि उसे मेहनम का वाजिब दाम नहीं अमलता तो समाज उसमें अन्याय और सियासत तलाशता है, लेकिन खेती को सहेजने के लिए मध्य वर्ग कभी उसके साथ खड़ा नहीं दिखता।
यदि ताजातरीन जनगणना को देखें तो पता चलता है कि देश में पिछले एक दशक के दौरान किसानों की संख्या में तेजी से गिरावट आई है। इन दस वर्षों में किसानों की 90 लाख कम हो गई है। आजादी के बाद पहली बार जनगणना उनकी घटती संख्या दिखाई दी है। सबसे चिंताजनक बात यह है कि किसानों ने खेती छोड़कर कोई दूसरा काम-धंधा नहीं किया है बल्कि उनमें से ज्यादातर खाली बैठे हैं। इन्होंने जमीन बेच कर कोई नया काम-धंधा शुरू नहीं किया है बल्कि आज वे किसान से खेतिहर मजदूर बन गए हैं। वे अब मनरेगा जैसी योजनाओं में मजदूरी कर रहे हैं।

सन 2001 में देश में कुल आबादी का 31.7 फीसदी किसान थे जो 2011 में सिमट कर 24.6 रह गया है। अब यह सिमट कर 20 फीसदी के आसपास रह गया है।  जानना जरूरी है कि देश में इस तरह से कृषि भूमि का रकबा घटना बेहद खतरनाक संकेत है।  रहा है, वह देश की अर्थव्यवस्था के लिए कतई ठीक नहीं है। इससे भविष्य में अनाज के मामले में हमारी आत्मनिर्भरता खत्म हो सकती है, जो कि देश के लिए घातक होगा।
दूसरी तरफ इन्हीं 10 सालों में देश में कॉरपोरेट घरानों ने 22.7 करोड़ हेक्टेयर जमीन का अधिग्रहण किया और उस पर खेती शुरू की है। कॉरपोरेट घराने बड़ रकबों पर मशीनों से खेती करने को फायदे का सौदा मानते है।। हरियाणा, पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में कॉरपोरेट घरानों ने बड़े-बड़े कृषि फार्म खोल कर खेती शुरू कर दी है। कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि खेती का भी कॉरपोरेट घरानों के हाथों में चले जाना शुभ संकेत नहीं है। इससे देश की कोई भी भावी सरकार पूरी तरह से उनकी गुलाम बनकर रह जाएगी। उनका कहना है कि बैंकों की कृषि संबंधी नीतियां, लागत से कम उपज, सरकार द्वारा समर्थन मूल्य में अपेक्षाकृत कम वृद्धि, सिंचाई की असुविधा, प्राकृतिक प्रकोप, उद्योगीकरण, शहरीकरण के नाम पर कृषि भूमि का अधिग्रहण और कृषि का क्षेत्र असंगठित होना- ये कारण हैं कि देश में कृषि भू-स्वामियों की संख्या में लगातार कमी होती जा रही है। कॉरपोरेट घराने जिस तरह से नकदी खेती तथा मशीनीकरण की तरफ बढ़ रहे हैं उससे लाखों किसान विस्थापित होते जा रहे हैं।

देश में किसानों की दुर्दशा का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि मध्य प्रदेश, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, बिहार और कर्नाटक के 50 फीसदी से ज्यादा किसान आज कर्ज में डूबे हैं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश में पांच लाख से ज्यादा ग्रामीण खुदकुशी कर चुके हैं जिनमें अधिकाश्ंा किसान या खेतों में काम करने वाले मजदूर थे। इनमें से अधिकांश देश का पेट भरने के चक्कर में अपने  ऊपर कर्जा चढ़वाते गए़ । फिर या फिर मौसम दगा दे गया या फिर मेहनत की फसल जब ले कर मंडी गया तो वाजिब दाम नहीं मिला।
संसद में स्वीकार किया गया है कि राष्ट्रीय स्तर पर प्रति किसान केवल 1.16 हेक्टेयर जमीन बची है। पूरे देश में एक हेक्टेयर से भी कम जोत वाले किसानों की तादाद 61.1 फीसदी है। देश में 1950-51 में सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान 53.1 फीसदी हुआ करता थाजो अब बामुश्किल 14 फीसदी है। ‘नेशनल सैम्पल सर्वे’ की रिपोर्ट के अनुसार, देश के 40 फीसदी किसानों का कहना है कि वे केवल इसलिए खेती कर रहे हैं क्योंकि उनके पास जीवनयापन का कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा है।
देश की अर्थ व्यवस्था का मूल आधार कृशि है । आंकड़े भी यही कुछ कहते हैं। देश की 67 फीसदी आबादी और काम करने वालों का 55 प्रतिशत परोक्ष-अपरोक्ष रूप से खेती से जुड़ा हुआ है। एक अनुमान है कि चालू वित्त वर्ष में पिछले साल की तुलना में कोई तीन प्रतिशत कम, लगभग 85 लाख टन अनाज कम पैदा होगा। इस बीच मकान, कारखानों, सड़कों के लिए जिन जमीनों का अधिग्रहण किया जा रहा है वे अधिकांश अन्नपूर्णा रही हैं। इस बात को भी नजरअंदाज किया जा रहा है कि कम होते खेत एक बार तो मुआवजा मिलने से प्रति व्यक्ति आय का आंकड़ा बढ़ा देते हैं, लेकिन उसके बाद बेरोजगारों की भीड़ में भी इजाफा करते हैं। यही नहीं मनरेगा भी खेत विरेाधी है। नरेगा में काम बढ़ने से खेतों में काम करने वाले मजदूर नहीं मिल रहे है और  मजदूर ना मिलने से हैरान-परेशान किसान खेत को तिलांजली दे रहे हैं। गंभीरता से देखें तो इस साजिश के पीछे कतिपय वित्त संस्थाएं हैं जोकि ग्रामीण भारत में अपना बाजार तलाश रही हैं । खेती की बढ़ती लागत को पूरा करने के लिए कर्जे का बाजार खोल दिया गया है और सरकार इसे किसानों के प्रति कल्याणकारी कदम के रूप में प्रचारित कर रही है ।
हकीकत में किसान कर्ज से बेहाल है । नेशनल सैंपल सर्वें के आंकड़े बताते हैं कि आंध्रप्रदेश के 82 फीसदी किसान कर्ज से दबे हैं । पंजाब और महाराश्ट्र जैसे कृशि प्रधान राज्यों में यह आंकड़ा औसतन 65 प्रतिशत है । यह भी तथ्य है कि इन राज्यों में ही किसानों की खुदकुशी की सबसे अधिक घटनाएं प्रकाश में आई हैं । यह आंकड़े जाहिर करते हैं कि कर्ज किसान की चिंता का निराकरण नहीं हैं ।  परेशान किसान खेती से मुंह मोड़ता है, फिर उसकी जमीन को जमीन के व्यापारी खरीद लेते हैं।। मामला केवल इतना सा नहीं है, इसका दूरगामी परिणाम होगा अन्न पर हमारी आत्मनिर्भरता समाप्त होना तथा, जमीन-विहीन बेराजगारों की संख्या बढ़ना। किसान को सम्मान चाहिए और यह दर्जा चाहिए कि देश के चहुंमुखी विकास में वह महत्वपूर्ण अंग है।
किसान भारत का स्वाभिमान है और देश के सामाजिक व आर्थिक ताने-बाने का महत्वपूर्ण जोड़ भी इसके बावजूद उसका षोशण हर स्तर पर है। किसान को उसके उत्पाद का सही मूल्य मिले, उसे भंडारण, विपणन की माकूल सुविधा मिले, खेती का खर्च कम हो व इस व्यवसाय में पूंजीपतियों के प्रवेश पर प्रतिबंध -जैसे कदम देश का पेट भरने वाले किसानों का पेट भर सकते हैं । चीन में खेती की विकास की सालाना दर 7 से 9 प्रतिशत है ,जबकि भारत में यह गत 20 सालों से दो को पार नहीं कर पाई है। अब तो विकास के नाम पर खेत उजाड़ने के खिलाफ पूरे देश में हिंसक आंदोलन भी हो रहे हैं।
यह वक्त है कि हम खेती का रकबा बढ़ाने पर काम करें, इसे लिए जरूरी है कि उत्पादक जमीन पर हर तरह के निर्माण पर पाबंदी हो।  किसान को फसल के सुनिश्चित दाम, उसके परिवार के लिए शिक्षा व  स्वास्थय की गारंटी हो और खेत व खेती को पावन कार्य घोषित किया जाए। खेती अकेले पेट भरने का नहीं भारत की सांस्कृतिक, सामाजिक पहचान भी हैं और इसके बेरंग होने का मतलब असली भारत का रंगहीन होना होगा।


wastage of paper is one of the cause of global warming

कागज बचेगा तो पेड़ बचेगा
पंकज चतुर्वेदी




संसद सत्र के दौरान प्रश्नकाल के लिए हर दिन लगभग एक ट्रक कागज, जिसमें विभिन्न प्रश्नों के जवाब व उससे संबंधित दस्तावेज होते हैं, संसद भवन जाता है और शाम  होते-होते इसका अधिकांश हिस्सा रद्दी हो जाता है। ठीक यही हालात देशभर की विधानसभाओं के हैं। कभी इस पर कोई ठोस अध्ययन तो हुआ नहीं, लेकिन अनुमान है कि हर साल महज संसदीय कार्यों के लिए कुछ ही घंटे के वास्ते कोई 2100 ट्रक कागज बर्बाद होता है।  इसी तरह विभिन्न विभाग की मीटिंगेां के लिए तैयार की जाने वाली रिपोर्ट, अनुशंसाएं, सदस्यों के लिए कार्यवाही रिपोर्ट आदि पर कागज का व्यय हजरों टन है। इस पर लगा व्यय, श्रम, परिवहन आदि अलग है। एक तो कुछ ही घंटों में इससे उपजे कचरे का निस्तारण, दूसरा इसे तैयार करनेे में काटे गए पेड़ों का हिसाब लगाएं तों स्पश्ट होगा कि भारत की कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका की कार्य व्यवसथा में मामूली से सुधार कर दिया जाए तो हर साल हजारों पेड़ों को कटने से रोक जा सकता है, वहीं कई लाख टन कचरे में कमी की जा सकती है।
उल्लेखनीय है कि दो साल हिमाचल प्रदेश विधानसभा ने कागज-रहित सदन के प्रयोग के तहत सभी तरह के प्रश्नों के जवाब टेब्लेट पर प्रदान करने का सफल प्रयोग किया है। इसमें कोई साढ़े छह हजार करोड़ का व्यय हुआ और सालाना पंद्रह करोड़ की बचत हुई।  पिछले साल केरल विधानसभा ने भी विधायकों के प्रश्न ऑनलाईन भेजने और उसका जवाब भी डिजिटल उपलब्ध करवाने का सफल प्रयोग किया है।
पिछले दिनों एक केंद्रीय कार्यालय में स्वयंसेवी संस्थाओं को वित्तीय सहायता देने के प्रस्तावों पर बैठक का अयोजन हुआ, जिसमें कुल 18 सरकारी व गैर सरकारी सदस्य व कुछ विभागीय कर्मचारी षामिल थे। इसके लिए आवेदन करने वाली संस्थाओं का विवरण और पिछली बैठक का कार्यवृत आदि सभी सदस्यों को दिए गए। हर एक सदस्य के पास कोई आठ सौ पन्ने थे। पांच बाईंडिंग में सामग्री दी गई थी। सतर्कता और रिकार्ड के लिए कुछ अतिरिक्त बाईंडिंग भी बनाई गईं। यानि कुछ घंटे की मीटिंग के लिए लगभग बीस हजार फोटोकॉपी वाले चिकने कागज होम हो गए। ना तो कोई सदस्य उन पुलिंदे को अपने घर ले गया और ना ही उसका इस्तेमाल उस बैठक के बाद कुछ रह गया। ऐसी सैंकड़ों बैठकें पूरे देश में हर दिन होती हैं। हजारों संस्थाअेंा की वार्शिक रपट छपती हैं, लाखों फोटोकापी कहीं प्रवेश तो कहीं नौकरी की अर्जी के नाम पर होती है। हास्यास्पद यह है कि जिन दस्तावेजों का रिकार्ड स्वयं सरकारी महकमों में होता है, उसे अपने रिकार्ड में चैक करने के बनिस्पत उनकी फोटोकॉपी मंगवा कर फिर उससे मूल के मिलान का कार्य किया जाता है। इस तरह होने वाले कागज का व्यय हर दिन में करोड़ों पन्ने।
यह तो सभी जानते हैं कि कागज पेड़ों की लुगदी (पल्प) से बनता है। पिछले चार दशकों में कागज का उपयोग 400 फीसदी बढ़ गया है। एक टन अच्छी गुणवत्ता वाले पेपर बनाने के लिए 12 से 17 पेड़ लगते हैं। सारी दुनिया में हर रोज  कागज बनाने के लिए 80 हजार से 150 हजार पेड काटे जाते हैं । साक्षरता दर में वृद्धि और औधोगिक विकास में वृद्धि के कारण साल-दर-साल कागज की माँग बढ रही है। भारत में कागज और गत्तों की मौजूदा खपत लगभग 100 लाख टन होने का अनुमान है। देश में लगभग सभी प्रकार के कागज मिलों की उत्पादन क्षमता बढ़ रही है और कारखानों को पुनिर्मित किया जा रहा है। यह अनुमान लगाया गया है कि 2025 तक देश में कागज की मांग करीब 2.5 करोड़ मेट्रिक टन होगी, जो वास्तव में भारतीय कागज उद्योग से मिलना आसान नहीं है। एक तो हमारे यहां वन और कृशि भूमि का रकवा घट रहा है, दूसरा हरियाली के लिए पारंपरिक पेड़ों को रोपने की प्रवृति भी कम हो रही है। पेड़ कम होने से सांस लेने के लिए अनिर्वाय आक्सीजन की कमी, ग्लोबल वार्मिंग, जलवायु परिवर्तन जैसी दिक्कतें बढ़ रही हैं। एक तरह पढ़े-लिखों की संख्या में इजाफे और कार्यालयीन कार्य बढ़ने से कागज की बढती मांग है तो दूसरी ओर कागज उपजाने के मूल तत्व पेड़ों का संकट।
देश में सामाजिक-आर्थिक विकास की दृष्टि से कागज उद्योग देश का सबसे पुराना और बेहद महत्वपूर्ण उद्योग है। अनुमान है कि इस व्यवसाय में कोई 25000 करोड़ रूपये  की पूंजी लगी है। दुनिया के कागज उत्पाद में इसका हिस्सा लगभग 1.6 प्रतिशत है।  इस उद्योग में लगभग सवा लाख लोग सीधे और कोई साढ़े तीन लाख लोग अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार पा रहे हैं। पिछले पाँच वर्षों से कागज की खपत लगभग 6 प्रतिशत वार्षिक दर से बढ़ रही है।  लेकिन ब़ढते पर्यावरणीय संकट के चलते इसके विकास में विराम की प्रबल संभावना है।
अजब संकट है, एक तरह ज्ञान की वर्शा तो दूसरी तरह पेड़ की कटाई से प्रकृति के अस्तित्व को संकट। कहा जाता है कि एक परिवार सालभर में छह पेड़ों से बने कागज चट कर जाता है। हमारे देा की शिक्षा व्यवस्था में हर साल नौ लाख टन कागज लगता हे। अब इस व्यय पर तो नियंत्रण किया नहीं जा सकता। ऐसे में उन संस्थाओं को अपने कागज के व्यय पर नियंत्रण करना होगा जहां इनका इस्तेमाल महज औपचारिकता या कुछ घंटे के लिए हो रहा है।
इसके अलावा सरकारी कार्यालयों में कागज के दोनों तरफ लिखने का अनिवार्यता, प्रत्येक कागज की आफिस कॉपी रखने, वहां से निकले कागज को पुनर्चक्रण के लिए भेजने की व्यवस्था जैसे कदम उठाए जाने चहिए। बार-बार पाठ्य पुस्तकें बदलने से रोकने और बच्चों को अपने पुराने साथियों की पुस्तकों से पढ़ने के लिए प्रेरित करना भी कागज की बर्बादी रोकने का एक सशक्त कदम हो सकता है। विभिन्न सदनों, अदालतों, कार्यालयों में पांच पेज से ज्यादा के ऐजेंडे, रिपोर्ट आदि को केवल डिजिटल कर दिया जाए तोकागज की खपत कम कर, पेड़ों का संरक्षण और शिक्षा के अत्यावश्यक कागज की आपूर्ति के बीच बेहतरीन सामंजस्य बनाया जा सकता है। इससे पेड़ के साथ-साथ कूड़ा व श्रम बच सकता है।

बुधवार, 1 नवंबर 2017

Recruitment process in Army needs to be modernise


भर्ती प्रक्रिया में उद्दंडता

पिछले दिनों मध्य प्रदेश के जबलपुर शहर में में थल सेना में सिपाही की 83 पदों की भर्ती के लिए आयोजित परीक्षा के दौरान संस्कारधानी कहलाने वाला शहर अराजकता, गुंडागर्दी और लफंगई से हताश हो गया। आसपास ही नहीं दूर-दूर के आठ राज्यों कोई बीस हजार युवा जमा हुए, कुछ नाराजगी हुई, फिर पत्थरबाजी, आगजनी, लूटपाट, औरतों से छेड़छाड़। यह सब करने वाले वे लोग थे, जिनमें से कुछ को भारतीय फौज का हिस्सा बनना था। यह पहली बार नहीं हुआ है कि पिछड़े और बेराजगारी से तंग अल्प शिक्षित हजारों युवाफौज में भर्ती होने पहुंच जाते हैं और भर्ती स्थल वाले शहर में तोड़-फोड़, हुड़दंग, तो कहीं मारापिटी, अराजकता होती है। जिस फौज पर आज भी मुल्क को भरोसा है, जिसके अनुशासन और कर्तव्यनिष्ठता की मिसाल दी जाती है, उसमें भर्ती के लिए आए युवकों द्वारा इस तरह का कोहराम मचाना, भर्ती स्थल पर लाठीचार्ज होना, जिस शहर में भर्ती हो रही हो वहां तक जाने वाली ट्रेन या बस में अराजक भीड़ होना या युवाओं का मर जाना जैसी घटनाओं का साक्षी पूरा मुल्क हर साल होता है। इसी का परिणाम है कि फौज व अर्ध सैनिक बलों में आए रोज अपने ही साथी को गोली मारने, ट्रेन में आम यात्रियों की पिटाई, र्दुव्‍यवहार, फर्जी मुठभेड़ करने जैसे अरोप बढ़ रहे हैं। विडम्बना यह है कि हालात दिनोंदिन खराब हो रहे हैं, इसके बावजूद थल सेना में सिपाही की भर्ती के तौर-तरीकों में कोई बदलाव नहीं आ रहा है-वही अंग्रेजों की फौज का तरीका चल रहा है-मुफलिस, विपन्न इलाकों में भीड़ जोड़ लें वह भी बगैर परिवहन, ठहरने या भोजन की सुविधा के और फिर हैरान-परेशान युवा जब बेकाबू हों तो उन पर लाठी या गोली ठोक दो। कंप्यूटर के जमाने में क्या यह मध्यकालीन बर्बरता की तरह नहीं लगता है? जिस तरह अंग्रेज देशी अनपढ़ को मरने के लिए भरती करते थे, उसी तर्ज पर छंटाई। जबकि आज फौज में सिपाही के तौर पर भर्ती के लिए आने वालों में हजारों ग्रेजुएट व व्यावसायिक शिक्षा वाले होते हैं। थल सेना में सिपाही की भर्ती के लिए सार्वजनिक विज्ञापन दे दिया जाता है कि अमुक स्थान पर पांच या सात दिन की ‘‘भर्ती-रैली’ होगी। भर्ती रैली का विज्ञापन छपते ही हजारों युवा भर्ती-स्थल पहुंचने लगते हैं। इसमें भर्ती बोर्ड यह भी ध्यान नहीं रखता कि छतरपुर या ऐसे ही छोटे शहरों की क्षमता या वहां इतने संसाधन नहीं मौजूद नहीं होते हैं कि वे पांच दिन के लिए पचास-साठ हजार लोगों की अतिरिक्त क्षमता झेल पाएं। भर्ती का स्थल तय करने वाले यह विचारते ही नहीं है कि उक्त स्थान तक पहुंचने के लिए पर्याप्त सार्वजनिक परिवहन उपलब्ध भी है कि नहीं। और फिर यह तो असंभव ही है कि पचास हजार या उससे ज्यादा लोगों की भीड़ का शारीरिक परीक्षण हर दिन दस घंटे और पांच या सात दिन में ईमानदारी से किया जा सके। कहा तो यही जाता है कि इस तरह की रैलियां असल में अपने पक्षपात या गड़बड़ियों को अमली जामा पहनाने के लिए ही होती हैं। यही कारण है कि प्रत्येक भर्ती केंद्र पर पक्षपात और बेईमानी के आरोप लगते हैं, हंगामे होते हैं और फिर स्थानीय पुलिस लाठियां चटका कर ‘‘हरी वर्दी’ की लालसा रखने वालों को ‘‘लाल’ कर देती है। सेना भी इस बात से इनकार नहीं कर सकती है कि बीते दो दशक में थल सेना अफसरों की कमी तो झेल ही रही है, नये भर्ती होने वाले सिपाहियों की बड़ी संख्या अनुशासनहीन भी है। फौज में औसतन हर साल पचास से ज्यादा आत्महत्या या सिपाही द्वारा अपने साथी या अफसर को गोली मार देने की घटनाएं साक्षी हैं कि अब फौज को अपना मिजाज बदलना होगा। फौज को अपनी भर्ती प्रक्रिया में कंप्यूटर, एनसीसी, स्थानीय प्रशासन का सहयोग लेना चाहिए। भर्ती के लिए भीड़ बुलाने के बनिस्पत ऐसी प्रक्रिया अपनानी चाहिए, जिसमें निराश लोगों की संख्या कम की जा सके। शायद पहले लिखित परीक्षा तालुक या जिला स्तर पर आयोजित करना, फिर मेडिकल टेस्ट प्रत्येक जिला स्तर पर सालभर स्थानीय सरकारी जिला अस्पताल की मदद से आयोजित करना, स्कूल स्तर पर कक्षा दसवीं पास करने के बाद ही सिपाही के तौर पर भर्ती होने की इच्छा रखने वालों के लिए एनसीसी की अनिवार्यता या उनके लिए अलग से बारहवीं तक का कोर्स रखना जैसे कुछ ऐसे सामान्य उपाय हैं, जो हमारी सीमाओं के सशक्त प्रहरी थल सेना को अधिक सक्षम, अनुशासित और गौरवमयी बनाने में महत्त्वपूर्ण हो सकते हैं। सिपाही स्तर पर भर्ती के लिए कक्षा नौ के बाद अलग से कोर्स कर दिया जाए।


     

Why was the elephant not a companion?

    हाथी क्यों न रहा साथी ?                                                                    पंकज चतुर्वेदी   हाथियों और मानव के ब...