My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

शुक्रवार, 15 दिसंबर 2017

Now potato farmers are crying

अब आलू रूला रहा है  किसानों को
पंकज चतुर्वेदी
उत्त प्रदेश के षाहजहांपुर के जलालपुर स्थित कोल्ड स्टोरेज के मालिक ने पिछले दिनों अपने गोदाम में एक साल से भरा आलू निकाल कर सड़क पर फैंक दिया। लोगों ने लूटा, जानवरों ने खाया, फिर भी चारों ओर आलू सड़ रहा है। कोई बीस लाख दाम का बीस हजार बोरी आलू सड़क पर पड़ा हमारी कृशि नीति पर सवाल उठा रहा है। चूंिक पचास किलो की एक बोरी कोल्ड स्टोरेज में रखने का किराया नब्बे रूप्ए होता है और आज इतनी कीमत तो नए आलू की नहीं मिल रही अतः किसान को अपने श्रम को बिसरा देने की मजबूरी ही है। असल में बाजार में आलू की नई फसल आ गई है, नए आलू को ही माकूल दाम नहीं मिल रहे है।। वहीं बीते एक साल के दौरान जिन किसानों ने दाम बढ़ने की उम्मीद में आपना माल कोल्ड स्टारेज में रखा था, उनकी उम्मीदें नोटबंदी के चलते धराशाही हो गईं। किसानों को कोल्ड स्टोरेज से माल ढोने व किराया चुकाने में इतना पैसा लग रहा था कि उतना तो उन्हें माल बेच कर भी नहीं मिलता। किसानों ने अपना माल लावारिस छोड़ दिया। गौर करें इस तरह माल को छोड़ देना यानि एक साल की लागत, मेहनत सबकुछ बेकार गई।
विदित हो किसान 50-55 किलोग्राम आलू का एक बोरा बनाता है। इसको कोल्ड स्टोरेज में रखने का  किराया 90 से 110 रुपया तक होता है। खाली बोरी 17 या 18 रुपये में मिलती है । सुतली, पल्लेदारी, ट्रैक्टर का किराया आदि मिलाकर 25 रुपये और खर्च होते हैं। अभी आलू 80 से 90 रुपये में एक बोरा व्यापारी खरीद रहे हैं। इससे कोल्ड स्टोरेज का किराया ही नहीं निकल रहा है। किराया की बची रकम और बोरी के दाम के साथ मालिकों से लिया गया लोन किसानों पर चढ़ा हुआ है। अब यह कोल्ड स्टोरेज मालिक किसानों के लोन के खाते में डालकर अगले वर्ष वसूलेंगे। आलू की आर्थिकी किसान को घाटे में डालने के साथ कर्ज को बढ़ाने वाली बन चुकी है। किसान अपने खेत की मिट्टी भी बेचता है तो आलू उत्पादन की स्थिति से बेहतर हालात होते हैं। पूर्वाचंल के अकेले एक जिले गाजीपुर  के कोलड स्टोरेज में लगभग 13 मीट्रिक टन आलू पड़ा है। बीते एक साल के दौरान इसका आठ फीसदी भी नहीं बिका ।

समूचे उत्तर प्रदेश का आलू किसान अपने खेत में षानदार फसल देख कर ही तनाव में है। राज्य के कोल्ड स्टोरेज में पहले से ही 90 लाख मीट्रिक टन से ज्यादा आलू भरा है। बाहरी राज्यों से मांग न होने से निकासी हो नहीं रही है। उधर अगस्त महीने में कर्नाटक में आलू की फसल आ गई सो दक्षिणी राज्यों के निर्यात का रास्ता बंद हो गया। स्थानीय बाजार के लिए आलू के दाम अधिकतम 100 रूपए क्विंटल भी नहीं हैं। इससे किसान की लागत भी नहीं निकल रही। हालात यही रहे तो इस बार कोल्ड स्टोरेज में आलू सड़ेगा। वैसे भी सरकारी समर्थन मूल्य 487 रुपये प्रति क्विंटल की दर से तो कोल्ड स्टोरेज किराया व रखरखाव आदि की पूर्ति भी बामुश्किल हो पाती है।

पंजाब के हालात भी अलग नहीं है। वहां इस साल आलू की पैदावार में 10-15 प्रतिशत की गिरावट आई है। वहां के किसानों को पिछले साल भी लागत का पैसा भी नहीं मिला था। भारत के कुल आलू उत्पादन में पंजाब का योगदान पांच प्रतिशत रहता है और जालंधर, कपूरथला, एसबीएस नगर तथा होशियारपुर जिले प्रमुख उत्पादन केंद्र हैं। वैसे पश्चिम बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश आलू के बड़े उत्पादक हैं लेकिन लेकिन वे बीज पंजाब से खरीदते हैं।
सनद रहे कि इस साल जुलाई में जब मध्यप्रदेश का किसाना प्याज के दाम को ले कर आंदोलन कर रहा था , तभी  सरकार को चेतावनी दे दी गई थी कि आने वाले महीनों में उत्तर प्रदेश के आलू किसान भी मप्र की तरह बंपर फसल का स्यापा करने वाले हैं। इसके बावजूद सरकार इस दिशा में फिलहाल कुछ नहीं सोचा। दुखद है कि हुक्मरान इंतजार करते हैं कि  संकट होगा, बवाल होग, मुआवजा बंटेंगा- समूची सियासत इसी पर चलती है।
भारत के सकल घरेलू उत्पाद का 31.8 प्रतिशत खेती-बाड़ी में तल्लीन कोई 64 फीसदी लोगों के पसीने से पैदा होता है । दुखद कि देश की अर्थ व्यवस्था की रीढ़ कहलाने वाली खेती के विकास के नाम पर बुनियादी सामाजिक सुधारों को लगातार नजरअंदाज किया जाता रहा है । पूरी तरह प्रकृति की कृपा पर निर्भर किसान के श्रम की सुरक्षा पर कभी गंभीरता से सोचा ही नहीं गया । फसल बीमा की कई योजनाएं बनीं, उनका प्रचार हुआ, पर हकीकत में किसान यथावत ठगा जाता रहा- कभी नकली दवा या खाद के फेर में तो कभी मौसम के हाथों । किसान जब ‘‘केश क्राप’’ यानी फल-सब्जी आदि की ओर जाता है तो आढ़तियों और बिचौलियों के हाथों उसे लुटना पड़ता है।
हर दूसरे-तीसरे साल कर्नाटक कंे कई जिलों के किसान अपने तीखे स्वाद के लिए मशहूर हरी मिर्चों को सड़क पर लावारिस फैंक कर अपनी हताशा का प्रदर्शन करते हैंे। तीन महीने तक दिन-रात खेत में खटने के बाद लहलहाती फसल को देख कर उपजी खुशी किसान के ओठों पर ज्यादा देर ना रह पाती है। बाजार में मिर्ची की इतनी अधिक आवक होती है कि खरीदार ही नहीं होते। उम्मीद से अधिक हुई फसल सुनहरे कल की उम्मीदों पर पानी फेर देती है- घर की नई छप्पर, बहन की षादी, माता-पिता की तीर्थ-यात्रा; ना जाने ऐसे कितने ही सपने वे किसान सड़क पर मिर्चियों के साथ फैंक आते हैं। साथ होती है तो केवल एक चिंता-- मिर्ची की खेती के लिए बीज,खाद के लिए लिए गए कर्जे को कैसे उतारा जाए? सियासतदां हजारेंा किसानों की इस बर्बादी से बेखबर हैं, दुख की बात यह नहीं है कि वे बेखबर हैं, विडंबना यह है कि कर्नाटक में ऐसा लगभग हर साल किसी ना किसी फसल के साथ होता है। सरकारी और निजी कंपनियां सपने दिखा कर ज्यादा फसल देने वाले बीजों को बेचती हैं, जब फसल बेहतरीन होती है तो दाम इतने कम मिलते हैं कि लागत भी ना निकले।
देश के अलग-अलग हिस्सों में कभी टमाटर तो कभी अंगूर, कभी मूंगफली तो कभी गोभी किसानों को ऐसे ही हताश करती है। राजस्थान के सिरोही जिले में जब टमाटर मारा-मारा घूमता है तभी वहां से कुछ किलोमीटर दूर गुजरात में लाल टमाटर के दाम ग्राहकों को लाल किए रहते हैं। दिल्ली से सटे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई जिलों में आए साल आलू की टनों फसल बगैर उखाड़े, मवेशियों को चराने की घटनाएं सुनाई देती हैं। आश्चर्य इस बात का होता है कि जब हताश किसान अपने ही हाथों अपनी मेहनत को चौपट करता होता है, ऐसे में गाजियाबाद, नोएडा, या दिल्ली में आलू के दाम पहले की ही तरह तने दिखते हैं। राजस्थान, मध्यप्रदेश, महाराश्ट्र, और उप्र के कोई दर्जनभर जिलों में गन्ने की खड़ी फसल जलाने की घटनांए हर दूसरे-तीसरे साल होती रहती है। जब गन्ने की पैदावार उम्दा होती है तो तब षुगर मिलें या तो गन्ना खरीद पर रोक लगा देती हैं या फिर दाम बहुत नीचा देती हैं, वह भी उधारी पर। ऐसे में गन्ना काट कर खरदी केंद्र तक ढो कर ले जाना, फिर घूस दे कर पर्चा बनवाना और उसके बाद भुगतान के लिए दो-तीन साल चक्कर लगाना; किसान को घाटे का सौदा दिखता है। अतः वह खड़ी फसल जला कर अपने
कृशि प्रधान अर्थव्यवस्था वाले देश में कृशि उत्पाद के न्यूनतम मूल्य, उत्पाद खरीदी, बिचौलियों की भूमिका, किसान को भंडारण का हक, फसल-प्रबंधन जैसे मुद्दे, गौण दिखते हैं सब्जी, फल और दूसरी कैश-क्राप को बगैर सोचे-समझे प्रोत्साहित करने के दुश्परिणाम दाल, तेल-बीजों(तिलहनों) और अन्य खाद्य पदार्थों के उत्पादन में संकट की सीमा तक कमी के रूप में सामने आ रहे हैं। आज जरूरत है कि खेतों में कौन सी फॅसल और कितनी उगाई जाए, पैदा फसल का एक-एक कतरा श्रम का सही मूल्यांकन करे; इसकी नीतियां तालुका या जनपद स्तर पर ही बनें। कोल्ड स्टोरेज या वेअर हाउस पर किसान का कब्जा हो, साथ ही प्रसंस्करण के कारखाने छोटी-छोटी जगहों पर लगें।
आज आलू किसानों को कर्ज से दबने से बचाने के लिए सरकारी संस्थाओं को पहले वेयर हाउसमें रखा माल न्यूनतम मूल्य पर खरीद कर उसे राशन की दुकानों या मिड डे मील जैसी योजनओं में तत्काल खपाने पर विचार करना चाहिए। नश्ट होती फसल केवल पैसे का अपव्यय ही नहीं है, यह श्रम, प्रकृति और देख में हर दिन भूखे सो रहे लाखों लोगों का अपमान भी है।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

After all, why should there not be talks with Naxalites?

  आखिर क्यों ना हो नक्सलियों से बातचीत ? पंकज चतुर्वेदी गर्मी और चुनाव की तपन शुरू हुई   और   नक्सलियों ने धुंआधार हमले शुरू कर दिए , हा...