My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

शुक्रवार, 30 मार्च 2018

why tomato farmers are crying after getting bumper yield

सरकार ले रही है खेती का ईनाम और किसानों को मिल रहा ठेंगा

मध्य प्रदेश के धार जिले के अमझेरा के किसानों को जब टमाटर के सही दाम नहीं मिले तो उन्होंने इस बार टमाटर से ही रंगपंचमी मना ली। सनद रहे मालवा अंचल में होली पर रंग नहीं खेला जाता, रंगपंचमी पर ही अबीर-गुलाल उड़ता है। ऐसा यहां पिछले साल भी हुआ था। राजधानी भोपाल से सटे रायसेन जिले के कुटनासीर गांव के किसान होशियार सिंह को जब लगा कि उसके खेत में उगे सौ क्रेट टमाटर का मंडी में मिलने वाला दाम मंडी तक ढो कर ले जाने का खर्च कहीं ज्यादा है तो उसने सारा माल सड़क पर ही फैंक दिया। उन्होंने पांचएकड़ में टमाटर लगाए थे।
मंडी में टमाटर की एक क्रैट यानि लगभग 25 किलो के महज 20 रुपए मिल रहे हैं जबकि, फसल को मंडी तक लाने का किराया प्रति क्रेट रु. 25, तुड़ाई रु. 10, हम्माली रु. 5 व दीगर खर्च मिलाकर कुल 48 रुपए का खर्च आ रहा था। अब दो रुपए के लिए व क्या दिनभर मंडी में दिन खपाते।
मध्य प्रदेश को लगातार पांच साल से कृषि कर्मण अवार्ड मिला है, लेकिन हकीकत में राज्य के किसानों के क्या हाल हैं? इसकी बानगी राज्य में टमाटर किसानों की हालत है। सनद रहे पिछले साल ही आलू किसानों के आंदोलन से राज्य सुलग उठा था।
मध्य प्रदेश का कृषि विभाग किसानों को टमाटर उगाने के लिए प्रोत्साहित करता रहा है। विभाग ने किसानों को बताया कि एक हैक्टेयर में 600 क्विंटल से ज्यादा टमाटर पैदा होता है। इसकी लागत जहां महज 88 हजार होती है और बेचने पर चार लाख अस्सी हजार मिलते हैं। कृषि विभाग की वेबसाइट कहती है कि इस तरह किसान को तीन लाख 91 हजार की शुद्ध आय होती है। जब किसानों ने सैंकड़ों हैक्टेयर जमीन को अपने श्रम-रज से ‘लाल’ कर दिया तो उनके हाथ निराशा ही लगी। आज एक हैक्टेयर की फसल के दाम बामुश्किल साठ हजार मिल रहे हैं यानि लागत से भी 28 हजार कम।
भोपाल की करोंद मंडी राज्य की सबसे बड़ी सब्जी मंडी कही जाती है। यहां पर थोक में टमाटर की कीमत पचास या साठ पैसे किलो है और उससे कुछ दूर स्थित आवासीय कालोनियों में इसके दाम छह से दस रुपए किलो है।

यही हाल गुजरात के साबरकांठा जिले के टमाटर उत्पादक गांवों - ईडर, वडाली, हिम्मतनगर आदि का है। जब किसानों ने टमाटर बोए थे तब उसके दाम तीन सौ रुपए प्रति बीस किलो थे। लेकिन पिछले पखवाड़े जब उनकी फसल आई तो मंडी में इसके तीस रुपए देने वाले भी नहीं थे। थक-हारकर किसानों ने फसल मवेशियों को खिला दी। गुजरात में गांवों तक अच्छी सड़क है, मंडी में भी पारदर्शिता है लेकिन किसान को उसकी लागत का दाम भी नहीं। जिन इलाकों में टमाटर का यह हाल हुआ, वे भीषण गर्मी की चपेट में आए हैं और वहां कोल्ड स्टोरेज की सुविधा है नहीं, सो फसल सड़े इससे बेहतर उसको मुफ्त में ही लोगों के बीच डाल दिया गया।
इस समय दिल्ली एनसीआर में टमाटर के दाम 20 रुपए किलो से कम नहीं है। यदि ये दाम और बढ़े तो सारा मीडिया व प्रशासन इसकी चिंता करने लगेगा, लेकिन किसान की चार महीने की मेहनत व लागत मिट्टी में मिल गई तो कहीं चर्चा तक नहीं हुई।

टमाटर के किसानों के बर्बाद होने का बड़ा कारण पाकिस्तान, कर्नाटक, महाराष्ट्र सहित कई स्थानों पर टमाटर का निर्यात नहीं हो पाना भी है। अभी एक साल पहले तक अकेले पाकिस्तान को हर रोज पांच सौ ट्रक टमाटर जाते थे। इस बार पाकिस्तान में किसानों ने अपनी फसल के कम दाम मिलने पर अपनी सरकार पर दवाब बनाया और पाकिस्तान ने भारत से टमाटर आयात रोक दिया। दूसरी तरफ कनार्टक व महाराष्ट्र में भी किसानों ने टमाटर पैदा करना शुरू कर दिया, सो वहां के बाजार में भी मप्र के टमाटर की मांग नहीं रही। यही नहीं इन राज्यों में टमाटर की कैचप बनाने के कई कारखाने भी हैं। विडंबना है कि मध्य प्रदेश या गुजरात के टमाटर उत्पादक इलाके में कभी इस तरह की यूनिट लगाने की सोची नहीं गई।
देश के अलग-अलग हिस्सों में कभी टमाटर तो कभी अंगूर, कभी मूंगफली तो कभी गोभी किसानों को ऐसे ही हताश करती है। राजस्थान के सिरोही जिले में जब टमाटर मारा-मारा घूमता है तभी वहां से कुछ किलोमीटर दूर गुजरात में लाल टमाटर के दाम ग्राहकों को लाल किए रहते हैं। दिल्ली से सटे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई जिलों में आए साल आलू की टनों फसल बगैर उखाड़े,मवेशियों को चराने की घटनाएं सुनाई देती हैं। आश्चर्य इस बात का होता है कि जब हताश किसान अपने ही हाथों अपनी मेहनत को चैपट करता होता है, ऐसे में गाजियाबाद, नोएडा, या दिल्ली में आलू के दाम पहले की ही तरह तने दिखते हैं। राजस्थान, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, और उप्र के कोई दर्जनभर जिलों में गन्ने की खड़ी फसल जलाने की घटनाएं हर दूसरे-तीसरे साल होती रहती है।
जब गन्ने की पैदावार उम्दा होती है तब शुगर मिलें या तो गन्ना खरीद पर रोक लगा देती हैं या फिर दाम बहुत नीचा कर देती हैं, वह भी उधारी पर। ऐसे में गन्ना काट कर खरीद केंद्र तक ढो कर ले जाना, फिर घूस दे कर पर्चा बनवाना और उसके बाद भुगतान के लिए दो-तीन साल चक्कर लगाना; किसान को घाटे का सौदा दिखता है।
अतः वह खड़ी फसल जला कर अपने कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था वाले देश में कृषि उत्पाद के न्यूनतम मूल्य, उत्पाद खरीदी, बिचैलियों की भूमिका, किसान को भंडारण का हक, फसल-प्रबंधन जैसे मुद्दे, गौण दिखते हैं और यह हमारे लोकतंत्र की आम आदमी के प्रति संवेदनहीनता की प्रमाण है। सब्जी, फल और दूसरी कैश-क्राप को बगैर सोचे-समझे प्रोत्साहित करने के दुष्परिणाम दाल, तिलहनों और अन्य खाद्य पदार्थों के उत्पादन में संकट की सीमा तक कमी के रूप में सामने आ रहे हैं। आज जरुरत है कि खेतों में कौन सी फसल और कितनी उगाई जाए, पैदा फसल का एक-एक कतरा श्रम का सही मूल्यांकन करे; इसकी नीतियां तालुका या जनपद स्तर पर ही बनें। कोल्ड स्टोरेज या वेअर हाउस पर किसान का कब्जा हो,साथ ही ग्रामीण अंचल में किसानों की सहकारी संस्थाओं द्वारा संचालित प्रसंस्करण के कारखाने लगें।

मंगलवार, 27 मार्च 2018

Be aware The Dal is dying

ऐसे तो मर जाएगी डल झील

कश्मीर को खूबसूरती का पर्याय माना जाता है और डल झील उसके सौंदर्य में चार चांद लगाने वाले नगीनों में एक मानी जाती है, लेकिन अब इसका वजूद खतरे में पड़ता दिख रहा है



धरती का स्वर्ग कहलाने वाले श्रीनगर की फिजा बारूद की गंध से हताश है और शहर का ‘अस्तित्व’ कहे जाने वाली डल झील तिल-तिल कर मर रही है। यह झील इंसानों के साथ-साथ लाखों जलचरों, परिंदों का घर हुआ करती थी, झील से हजारों हाथों को काम व लाखों पेट को रोटी मिलती थी, अपने जीवन की थकान, हताशा और एकाकीपन को दूर करने देशभर के लाखों लोग इसके दीदार को आते थे। अब यह बदबूदार नाबदान और शहर के लिए मौत के जीवाणु पैदा करने का जरिया बन गई है। सरकार का दावा है कि वह डल को बचाने के लिए कृतसंकल्पित है, लेकिन साल-दर-साल सिकुड़ती झील इसे कागजी शेर की दहाड़ निरूपित करती है। एक मोटा अनुमान है कि अभी तक इस झील को बचाने के नाम पर कोई एक हजार करोड़ रुपये खर्च किए जा चुके हैं। होता यह है कि इसको बचाने की अधिकांश योजनाएं ऊपरी कॉस्मेटिक या सौंदर्य की होती हैं-जैसे एलईडी लाइट लगाना, फुटपाथ को नया बनाना आदि, लेकिन इन सबसे इस अनूठी जल-निधि के नैसर्गिक स्वरूप को अक्षुण्ण रखने की दिशा में कोई लाभ नहीं होता, उल्टे इस तरह के निर्माण कार्य का मलवा-अवशेष झील को गंदा जरूर करता है। लगता है इसकी अंदरूनी सेहत की परवाह किसी को नहीं है।

इन दिनों राज्य शासन ने कोई 200 नाविकों को रोजगार पर लगा रखा है। वे दिनभर अपनी नाव से झील के चक्कर लगाते हैं और यदि कोई कूड़ा-मलवा तैरता दिखता है तो उसे जाली से निकाल कर नाव में एकत्र कर लेते हैं और बाद में इसे फेंक देते हैं। एकबारगी तो यह बहुत सुखद योजना लगती है, लेकिन हकीकत में नाविकों की भर्ती, उनको दिया जाने वाला पैसा, उनकी वास्तविक उपस्थिति, उनके द्वारा निकाले गए कूड़े का माकूल निस्तारण आदि अपने आप में एक बड़ा भ्रष्टाचार है। दरअसल अभी जरूरत है कि झील में गंदगी कम गिरे, उससे अतिक्रमण घटे और वहां पैदा होने वाली सब्जियों में कीटनाशक का इस्तेमाल बंद हो, लेकिन इसके लिए कुछ नहीं हो रहा है। 1डल महज एक पानी का सोता नहीं, बल्कि स्थानीय लोगों की जीवन-रेखा है। समुद्र तल से 1500 मीटर की ऊंचाई पर स्थित यह एक प्राकृतिक झील है और कोई पचास हजार साल पुरानी है। श्रीनगर शहर के पूर्वी और उत्तर-पूर्वी दिशा में स्थित यह जल-निधि पहाड़ों के बीच इस तरह से विकसित हुई थी कि बर्फके गलने या बारिश के पानी की एक-एक बूंद इसमें संचित होती थी। इसका जल ग्रहण क्षेत्र और अधिक पानी की निकासी का मार्ग बगीचों व घने जंगलों से आच्छादित हुआ करता था। इसके बावजूद स्थानीय लोग इसके प्रति बेहद उदासीन हैं। श्रीनगर शहर में स्थित 17 किलोमीटर क्षेत्र में फैली डल झील तीन तरफ से पहाड़ों से घिरी है। इसमें चार जलाशयों का जल आकर मिलता है-गगरी बल, लोकुट डी, बोड डल और नागिन। दुर्भाग्य से ये चारों ही जल ग्रहण क्षेत्र प्रदूषण के शिकार हैं और ये अपने साथ गंदगी लाकर डल का रोग दोगुना करते हैं। वनस्पतियां डल की खूबसूरती को चार चांद लगाती हैं। कमल के फूल, पानी में बहती कुमुदनी झील का नयनाभिराम दृश्य प्रस्तुत करती हैं, लेकिन इस जल निधि में व्यावसायिक दृष्टि से होने लगी निरंकुश खेती ने इसके पानी में रासायनिक खादों व कीटनाशकों की मात्र जहर की हद तक बढ़ा दी है। इस झील का प्रमुख आकर्षण यहां के तैरते हुए बगीचे हैं। यहीं मुगलों द्वारा बनवाए गए पुष्प वाटिका की सुंदरता देखते ही बनती है। यहां आने वाले पर्यटक शिकारे पर सवार होकर झील के तट पर बने विश्वविद्यालय, नेहरू पार्क, हजरत बल आदि का लुत्फ उठाते हैं। कहा जा सकता है कि हाउस बोट या शिकारे डल की सांस्कृतिक पहचान तो हैं ही, यहां के हजारों लोगों की रोजी-रोटी का साधन भी हैं। विडंबना है कि यही शिकारे और हाउस बोट अपने आधार डल केलिए संकट का कारक बन गए हैं।1एक जनहित याचिका पर जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एमएम कुमार और जस्टिस हसनैन मसूदी ने 30 अक्टूबर, 2012 को आदेश दिए थे कि डल में स्थित 320 से अधिक हाउस बोटों को झील के पश्चिमी छोर पर भेज दिया जाए। उन्होंने डल का जीवन बचाने के लिए झील में रहने वालों के पुनर्वास तथा दो सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट लगाने और डल की 275 कनाल भूमि पर से अवैध कब्जा हटाने के भी आदेश दिए थे। इसके साथ ही झील के किनारे वाहनों को धोने पर पाबंदी भी लगाई गई थी। दुर्भाग्य है कि इन सभी का पालन सरकारी महकमे आधे-अधूरे मन से ही करते रहे और आज भी हालात जस के तस ही हैं।1इन दिनों सारी दुनिया में ग्लोबल वार्मिग का हल्ला है और लोग इससे बेखबर हैं कि इसकी मार डल पर भी पड़ने वाली है। यदि डल का सिकुड़ना ऐसे ही जारी रहा तो इस झील का अस्तित्व बामुश्किल अगले 350 सालों तक ही बचा रहा पाएगा। यह बात रुड़की यूनिवर्सिटी के वैकल्पिक जल-ऊर्जा केंद्र द्वारा डल झील के संरक्षण और प्रबंधन के लिए तैयार एक विस्तृत प्रोजेक्ट रिपोर्ट में कही गई है। डल झील के लिए सबसे बड़ा खतरा उसके जल-क्षेत्र को निगल रही आबादी से है। 1986 में हुए एक सर्वे के मुताबिक लोगों ने झील के कोई 300 हेक्टेयर क्षेत्र पर खेती और 670 हेक्टेयर क्षेत्र पर आवास के लिए कब्जा किया हुआ है। रुड़की यूनिवर्सिटी की रिपोर्ट में बताया गया है कि झील में हर साल 61 लाख टन गंदगी गिर रही है जो सालाना 2.7 मिलीमीटर मोटी परत के तौर पर जम रही है। इसी गति से कचरा जमा होने पर वहां जल्दी ही सपाट मैदान होगा। जाहिर है हालात न सुधरे तो डल का नामोनिशान मिट जाएगा। ऐसे में जरूरी हो गया है कि इसकी गाद सफाई का काम शुरू किया जाए। यह भी तय है कि आम लोगों को झील के बारे में संवेदनशील व भागीदार बनाए बगैर इसे बचाने की कोई भी योजना सार्थक नहीं हो सकती है।


रविवार, 25 मार्च 2018

we need bull too for village economy, only cow milk can not change economy of farmer

बगैर बछड़े के नहीं बचेगा देहात 

पंकज चतुर्वेदी
हरियाणा राज्य जहां की अर्थ व्यवस्था या समृद्धि का मूल आधार खेती -किसानी है ; के नए सालाना बजट में एक अजब प्रावधान किया गया है- सरकारी स्तर पर ऐसी योजना लागू की जाएगी ताकि गाय के बछड़े पैदा हो ही नहीं, बस बछिया ही हो। इसके पीछे कारण बताया गया है कि इससे आवार पशुओं की समस्या से निजात मिलेगी। कैसी विडंबना है कि जिस देश में मंदिर के बाहर बैठे पाषण  नंदी को पूजने और चढौत के लिए लोग लंबी पंक्तियों में लगते हैं, वहां साक्षात नंदी का जन्म ही ना हो, इसके लिए सरकार भी वचनबद्ध हो रही है। हालांकि यह भारत में कोई सात साल पुरानी योजना है जिसके तहत गाय का गर्भाधान ऐसे सीरम से करवाया जाता है जिससे केवल मादा ही पैदा हो जो दूध दे सके, लेकिन इसे ज्यादा सफलता नहीं मिली है क्योंकि यह देशी गाय पर कारगर नहीं है। महज संकर गाय ही इस प्रयोग से गाभिन  हो रही हैं। चूंकि इस कार्य के लिए बीज का संवर्धन और व्यापार में अमेरिका व कनाड़ा की कंपनियां गली हैं तो जाहिर है कि आज नहीं तो कल इसका बोलबाला होगा। इस तरह के एक ही लिंग के जानवर पैदा करने की योजना बनाने वालों को प्रकृति के संतुलन को बिगड़ने  और ताजा-ताज बीटी कॉटन बीजों की असफलता को भी याद कर लेना चाहिए।

ये कोई ज्यादा पुरानी बात नहीं हैं, बामुश्किल तीन दशक पहले तक गांव में बछड़ा होना शुभ  माना जाता था, दो साल उसकी खिलाई-पिलाई हुई और उसके बाद वह पूरे घर के जीवकोपार्जन का आधार होेता था घर के दरवाजे पर बंधी सुंदर बैल की जोड़ी ही उसकी संपन्न्ता और रूतबे का प्रमाण होती थी। बछड़ा एक महीने का भी हजार रूप्ए में बिक जाता था, जबकि गैया या बछड़ी को दान करना पड़ता था। चुपके से खेती के मशीनीकरण का प्रपंच चला । इसमें कुछ मशीन बनाने वाली , कुछ ईंधन बेचने वाली और सबसे ज्यादा बैंकिग को विस्तार देने वाले लोग शामिल थे। दुष्परिणाम  सामने हैं कि आबादी के लिहाज से खाद्यान की कमी, पहले की तुलना में ज्यादा भंडारण की सुविधा, विपणन के कई विकल्प होने के बावजूद किसान के लिए खेती घाटे का सौदा बन गई हैं और उसका मूल उसकी लागत बढ़ना है।

विदेश से आयातित डीप फ्रोजन सीमेन यानि डीएफएस को प्रयोगशाला में इस तैयार किया जाता है कि इसमें केवल एक्स क्रोमोजोम ही हों। इसे नाईट्रोजन बर्फ वाली ठंडक में सहेज कर रखा जाता है। फिलहाल यह जर्सी और होरेस्टिक  फ्रीजियन नस्ल की गायों में ही सफल है। देशी गाय में इसकी सफलता का प्रतिशत तीस से भी कम है। विदेशी नस्ल की गाय की कीमत ज्यादा, उसका रखरखाव महंगा  और इस वैज्ञानिक तरीके से  गर्भाधान के बाद चार साल बाद उसके दूध की मात्रा में कमी आने का कटु सत्य सबके सामने है लेकिन उसे छुपाया जाता है। यही नहीं इस सीमेन के प्रत्यारोपण में पंद्रह सौ रूपए तक का खर्च आता है सो अलग। सबसे बड़ी बात कि किसी भी देश की संपन्न्ता की बड़ी निशानी माने जाने वाले ‘लाईव स्टॉक’ या पशु धन की हर साल घटती संख्या से जूझ रहे देश में अपनी नस्लों का कम होना एक बड़ी चिंता है। यह एक भ्रम है कि भारत की गायें कम दूध देती है। पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान, बरेली में चार किस्म की भारतीय गायों - सिंघी, थारपारकर, वृंदावनी, साहीवाल पर षोध कर सिद्ध कर दिया है कि इन नस्लों की गाये ंना केवल हर दिन 22 से 35 लीटर दूध देती हैं, बल्कि ये संकर या विदेशी गायों से अधिक काल तक यानि 8 से 10 साल तक ब्याहती व दूध देती हैं। एनडीआरआई, करनाल के वैज्ञानिकांे की ताजा रिपोर्ट तो और भी चौंकाने वाली है, जिसमें हो गया है कि ग्लोबल वार्मिग के कारण ज्यादा तपने वाले भारत जैसे देशों में अमेरिकी नस्ल की गायों ना तो जी पाएंगी और ना ही दूधदे पाएंगी। हमारी देशी गायों के चमड़े की मोटाई के चलते इनमें ज्यादा गर्मी सहने, कम भोजन व रखरखाव में भी जीने की क्षमता है।
यदि बारिकी से देखें तो कुछ ही सालों में हमें इन्हीें देशी गायो की षरण में जाना होगा, लेकिन तब तक हम पूरी तरह विदेशी सीमेंस पर निर्भर होंगे और हो सकता हैकि ये ही विदेशी कंपनियां हमें अपने ही देशी सांड का बीज बेचें।
अब जरा हमारे तंत्र में बैल की अनुपयोगिता या उसके आवार होने की हकीकत पर गौर करें तो पाएंगे कि हमने अपनी परंपरा को त्याग कर खेती को ना केवल महंगा किया, बल्कि गुणवत्ता, रोजगार, पलायन, अनियोजित षहरीकरण जैी दिक्कतों का भी बीज बोया। पूरे देश में एक हेक्टेयर से भी कम जोत वाले किसानों की तादाद 61.1 फीसदी है। देश में 1950-51 में सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान 53.1 फीसदी हुआ करता था। संसद में पेश की गई आर्थिक समीक्षा में अब इसे 13.9 फीसदी बताया गया है। ‘नेशनल सैम्पल सर्वे’ की रिपोर्ट के अनुसार, देश के 40 फीसदी किसानों का कहना है कि वे केवल इसलिए खेती कर रहे हैं क्योंकि उनके पास जीवनयापन का कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा है। जरा गौर करें कि जब एक हैक्टेयर से कम रकबे के अधिकांश किसान हैं तो उन्हें ट्रैक्टर की क्या जरूरत थी, उन्हें बिजली से चलने वाले पंप या गहरे ट्यूब वेल की क्या जरूरत थी। उनकी थोड़ी सी फसल के परिवहन के लिए वाहन की जरूरत ही क्या थी। एक बात जान लें कि ट्रैक्ट ने किसान को सबसे ज्यादा उधार में डुबोया, बैल से चलने वाले रहट की जगह नलकूप व बिजली के पंप ने किसान को पानी की बर्बादी और खेती लागत को विस्तार देने पर मजबूर किया। बैल को घर से दूर रखने के चलते कंपोस्ट की जगह नकली खाद की फिराक में किसान बर्बाद हुआ। सरकार ने खूब कजें्र बांट कर पोस्टर में किसान का मुस्कुराता चेहरा दिखा कर उसकर सुख-चैन सब लूट लिया।  खेत मजदूर का रोजगार छिना तो वह षहरों की और दौड़ा।
मानव सभ्यता के आरंभ से ही गौ वंश इंसान की विकास पथ का सहयात्री रहा है। मोईन जोदडों व हडप्पा से मिले अवशेश साक्षी हैं कि पांच हाजर साल पहले भी हमारे यहां गाय-बैल पूजनीय थे। आज भी भारत की ग्रामीण अर्थ व्यवस्था का मूल आधार गौ-वंश हे। हांलाकि भैंस के बढ़ते प्रचलन तथा कतिपय कारखाना मालिकों व पेट्रो- उद्योग के दवाब में गांवों में अब टेªक्टर व अन्य मशीनों की प्रयोग बढ़ा है, लेकिन यह बात अब धीरे-धीरेे समझ आने लगी है कि हल खींचने, पटेला फेरने, अनाज से दानों व भूसे को अलग करने फसल काटने, पानी खींचने और अनाज के परिवहन में छोटे किसानों के लिए बैल ना केवल किफायती है, बल्कि धरती व पर्यावरण का संरक्षक भी है। आज भी अनुमान है कि बैल हर साल एक अरब 20 करोड़ घंटे हल चलाते हैं। गौ रक्षा के क्षेत्र में सक्रिय लोगों को यह बात जान लेना चाहिए कि अब केवल धर्म, आस्था या देवी-देवता के नाम पर गाय को बचाने की बात करना ना तो व्याहवारिक है और ना तार्किक। जरूरी है कि लोगों को यह संदेश दिया कि गाय केवल अर्थ व्यवस्था ही नहीं पर्यावरण की भी संरक्षक है और इसी लिए इसे बचाना जरूरी है।
बस्तर अंचल का एक जिला मुख्यालय है -कोंडागांव। कहने को यह जिला मुख्यालय है लेकिन आज भी निपट गांव ही हे। कहने की जरूरत नहीं कि वहां नक्सलियों की अच्छी पकड़ है। यहां पर डा. राजाराम त्रिपाठी ने जड़ी बूटियों के जंगल लगा रखे हैं। कोई 140 किस्म की जड़ी बूटियां यहां से दुनियाभर के कई देशों में जाती हैं। डा. त्रिपाठी के उत्पादों की खासियत है कि उसमें किसी भी किस्म का कोई भी रसायन नहीं होता है। उनके जंगलों में 300 से ज्यादा गायें हैं। आसपास के इलाकों में जब कोई कहता है कि उनकी गाय बीमार है, बेकार है या लावारिस छोड़ देता है तो डा. त्रिपाठी उसे अपने यहां ले आते हैं, उसका इलाज करते हैं व अन्य गाय-समूह के साथ जंगलों में छोड़ देते हैं। इन गायों के गोबर व मूत्र से ही वे जडी बूटियों के झाड़ों की रक्षा करते हैं और इसी लिए वे गायों की रक्षा करते हैं। डा. त्रिपाठी बताते हैं कि गायों के चलने से उनके खुरों से जमीन की एक किस्म की मालिश होती है जो उसकी उर्वरा व प्रतिरोधी षक्ति को बढ़ावा देती है।  कहने की जरूरत नहीं है कि डा. त्रिपाठी की गाय में श्रद्धा है, लेकिन उन्होंने इस श्रद्धा को अपने व्यवसाय से जोड़ा तथा दुनिया में देश का नाम भी रोशन किया।

1976 में राष्ट्रीय कृषि आयोग की रिपोर्ट में कहा गया था कि गोबर को चूल्हे में जलाया जाना एक अपराध है उर्जा विशेषज्ञ मानते हैं कि हमारे देश में गोबर के जरिए 2000 मेगावाट उर्जा उपजाई जा सकती है । यह तथ्य सरकार में बैठे लेाग जानते हैं कि भारत में मवेशियों की संख्या कोई तीस करोड़ है। इनसे लगभग 30 लाख टन गोबर हर रोज मिलता है।  इसमें से तीस प्रतिशत को कंडा/उपला बना कर जला दिया जाता है। यह ग्रामीण उर्जा की कुल जरूरत का 10 फीसदी भी नहीं है । ब्रिटेन में गोबर गैस से हर साल सोलह लाख यूनिट बिजली का उत्पादन होता हे। चीन में डेढ करोड परिवारों को घरेलू उर्जा के लिए गोबर गैस की सप्लाई होती है। यदि गोबर का सही इस्तेमाल हो तो हर साल छह करोड़ टन के लगभग लकड़ी को बचाया जा सकता है। साढे तीन करोड़ टन कोयला बच सकता है। इसे कई करोड़ लेागों को रेाजगार  मिल सकता है। बैल को बेकार या आवारा मान कर बेकार कहने वालों के लिए यह आंकड़े विचारणीय है।
यदि देश के पांच करोड़ के करीब आवारा पशुओं से कार्य प्रारंभ किया जाए तो खेती के व्यय को कम करने के लिए कंपोस्ट, बिजली-डीजल व्यय घटाने के लिए गोबर गैस तथा जमीन की सेहत को बरकरार रखने के लिए खेती कर्म में बैल के इस्तेमाल की षुरूआत की जा सकती है। यहां की जमीन कड़ी है और छोटे नटवा यानि बैल से दो बार हल-बखर कर जमीन को खेतीके काबिल बनाया जा सकता है। अधिकांश किसान छोटी जोत के हैं सो, उन्हें जब ट्रैक्टर की जगह बैल के इस्तेमाल को प्रेरित किया जाएगा तो उनका खेती का व्यय आधा हो जाएगा। सबसे बड़ी बात अन्ना पशुओं की संख्या घटने से उनकी मेहनत पर संभावित डाका तो नहीं पडेगा।

यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम अपनी ताकत को पहचान नहीं रहे और किसानी, दुगध उत्पादन में वृद्धि, बेकार पशुओं के निदान को उन विदशी विकल्पों में तलाश रहे हैं जो कि ना तो हमारे देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप है और ना ही व्याहवारिक।  जान लें कि बगैर बैल के ना तो पर्व-त्योहर हो सकेंगे, ना ही खेती और ना देशी गाय।


शुक्रवार, 23 मार्च 2018

To save trees, do not waste paper

कागज बचेगा तो पेड़ बचेगा

पंकज चतुर्वेदी

संसद सत्र के दौरान प्रशनकाल के लिए हर दिन लगभग एक ट्रक कागज, जिसमें विभिन्न प्रश्नों के जवाब व उससे संबंधित दस्तावेज होते हैं, संसद भवन जाता है और षाम होते-होते इसका अधिकांश हिस्सा रद्दी हो जाता है। ठीक यही हालात देशभर की विधानसभाओं के हैं। कभी इस पर कोई ठोस अध्ययन तो हुआ नहीं, लेकिन अनुमान है कि हर साल महज संसदीय कार्यों के लिए कुछ ही घंटे के वास्ते कोई 2100 ट्रक कागज बर्बाद होता है।  इसी तरह विभिन्न विभाग की मीटिंगेां के लिए तैयार की जाने वाली रिपोर्ट, अनुशंसाएं, सदस्यों के लिए कार्यवाही रिपोर्ट आदि पर कागज का व्यय हजरों टन है। इस पर लगा व्यय, श्रम, परिवहन आदि अलग है। एक तो कुछ ही घंटों में इससे उपजे कचरे का निस्तारण, दूसरा इसे तैयार करनेे में काटे गए पेड़ों का हिसाब लगाएं तों स्पश्ट होगा कि भारत की कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका की कार्य व्यवसथा में मामूली से सुधार कर दिया जाए तो हर साल हजारों पेड़ों को कटने से रोक जा सकता है, वहीं कई लाख टन कचरे में कमी की जा सकती है।

उल्लेखनीय है कि दो साल हिमाचल प्रदेश विधानसभा ने कागज-रहित सदन के प्रयोग के तहत सभी तरह के प्रश्नों के जवाब टेब्लेट पर प्रदान करने का सफल प्रयोग किया है। इसमें कोई साढ़े छह हजार करोड़ का व्यय हुआ और सालाना पंद्रह करोड़ की बचत हुई।  पिछले साल केरल विधानसभा ने भी विधायकों के प्रश्न ऑनलाईन भेजने और उसका जवाब भी डिजिटल उपलब्ध करवाने का सफल प्रयोग किया है। दिल्ली विधानसभा में विधायकों द्वारा पूछे गए प्रश्नों के जवाब अब सरकारी महकमें ईमेल या पेन ड्राईव पर दे रहे हैं। केरल और मध्य प्रदेश विधानसभओं में भी विधायकों द्वार प्रश्न पूछने के लिए ऑनलाईन पद्धति का इस्तेमाल किया जा रही है। हरियाणा विधानसभा को भी ई- सिस्टम के लिए तैयार किया जा रही है। इतने प्रयोगों के बावजूद यदि छोटे-बड़े सरकारी महकमों में जा कर देखें तो कागजों की बेवजय आफिस कॉपी सहेजने या फोटो प्रतियां रखने की गैरजरूरी कवायदें चल रही हैं। ये कागज की बर्बादी के साथ-साथ ऐसे रिकार्ड को रखने के लिए स्थान की बर्बादी भी होता है।

पिछले दिनों एक केंद्रीय कार्यालय में स्वयंसेवी संस्थाओं को वित्तीय सहायता देने के प्रस्तावों पर बैठक का अयोजन हुआ, जिसमें कुल 18 सरकारी व गैर सरकारी सदस्य व कुछ विभागीय कर्मचारी षामिल थे। इसके लिए आवेदन करने वाली संस्थाओं का विवरण और पिछली बैठक का कार्यवृत आदि सभी सदस्यों को दिए गए। हर एक सदस्य के पास कोई आठ सौ पन्ने थे। पांच बाईंडिंग में सामग्री दी गई थी। सतर्कता और रिकार्ड के लिए कुछ अतिरिक्त बाईंडिंग भी बनाई गईं। यानि कुछ घंटे की मीटिंग के लिए लगभग बीस हजार फोटोकॉपी वाले चिकने कागज होम हो गए। ना तो कोई सदस्य उन पुलिंदे को अपने घर ले गया और ना ही उसका इस्तेमाल उस बैठक के बाद कुछ रह गया। ऐसी सैंकड़ों बैठकें पूरे देश में हर दिन होती हैं। हजारों संस्थाअेंा की वार्शिक रपट छपती हैं, लाखों फोटोकापी कहीं प्रवेश तो कहीं नौकरी की अर्जी के नाम पर होती है। हास्यास्पद यह है कि जिन दस्तावेजों का रिकार्ड स्वयं सरकारी महकमों में होता है, उसे अपने रिकार्ड में चैक करने के बनिस्पत उनकी फोटोकॉपी मंगवा कर फिर उससे मूल के मिलान का कार्य किया जाता है। इस तरह होने वाले कागज का व्यय हर दिन में करोड़ों पन्ने।
यह तो सभी जानते हैं कि कागज पेड़ों की लुगदी (पल्प) से बनता है। पिछले चार दशकों में कागज का उपयोग 400 फीसदी बढ़ गया है। एक टन अच्छी गुणवत्ता वाले पेपर बनाने के लिए 12 से 17 पेड़ लगते हैं। सारी दुनिया में हर रोज  कागज बनाने के लिए 80 हजार से 150 हजार पेड काटे जाते हैं । साक्षरता दर में वृद्धि और औधोगिक विकास में वृद्धि के कारण साल-दर-साल कागज की माँग बढ रही है। भारत में कागज और गत्तों की मौजूदा खपत लगभग 100 लाख टन होने का अनुमान है। देश में लगभग सभी प्रकार के कागज मिलों की उत्पादन क्षमता बढ़ रही है और कारखानों को पुनिर्मित किया जा रहा है। यह अनुमान लगाया गया है कि 2025 तक देश में कागज की मांग करीब 2.5 करोड़ मेट्रिक टन होगी, जो वास्तव में भारतीय कागज उद्योग से मिलना आसान नहीं है। एक तो हमारे यहां वन और कृशि भूमि का रकवा घट रहा है, दूसरा हरियाली के लिए पारंपरिक पेड़ों को रोपने की प्रवृति भी कम हो रही है। पेड़ कम होने से सांस लेने के लिए अनिर्वाय आक्सीजन की कमी, ग्लोबल वार्मिंग, जलवायु परिवर्तन जैसी दिक्कतें बढ़ रही हैं। एक तरह पढ़े-लिखों की संख्या में इजाफे और कार्यालयीन कार्य बढ़ने से कागज की बढती मांग है तो दूसरी ओर कागज उपजाने के मूल तत्व पेड़ों का संकट।
देश में सामाजिक-आर्थिक विकास की दृष्टि से कागज उद्योग देश का सबसे पुराना और बेहद महत्वपूर्ण उद्योग है। अनुमान है कि इस व्यवसाय में कोई 25000 करोड़ रूपये  की पूंजी लगी है। दुनिया के कागज उत्पाद में इसका हिस्सा लगभग 1.6 प्रतिशत है।  इस उद्योग में लगभग सवा लाख लोग सीधे और कोई साढ़े तीन लाख लोग अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार पा रहे हैं। पिछले पाँच वर्षों से कागज की खपत लगभग 6 प्रतिशत वार्षिक दर से बढ़ रही है।  लेकिन ब़ढते पर्यावरणीय संकट के चलते इसके विकास में विराम की प्रबल संभावना है।
अजब संकट है, एक तरह ज्ञान की वर्शा तो दूसरी तरह पेड़ की कटाई से प्रकृति के अस्तित्व को संकट। कहा जाता है कि एक परिवार सालभर में छह पेड़ों से बने कागज चट कर जाता है। हमारे देा की शिक्षा व्यवस्था में हर साल नौ लाख टन कागज लगता हे। अब इस व्यय पर तो नियंत्रण किया नहीं जा सकता। ऐसे में उन संस्थाओं को अपने कागज के व्यय पर नियंत्रण करना होगा जहां इनका इस्तेमाल महज औपचारिकता या कुछ घंटे के लिए हो रहा है।
इसके अलावा सरकारी कार्यालयों में कागज के दोनों तरफ लिखने का अनिवार्यता, प्रत्येक कागज की आफिस कॉपी रखने, वहां से निकले कागज को पुनर्चक्रण के लिए भेजने की व्यवस्था जैसे कदम उठाए जाने चहिए। बार-बार पाठ्य पुस्तकें बदलने से रोकने और बच्चों को अपने पुराने साथियों की पुस्तकों से पढ़ने के लिए प्रेरित करना भी कागज की बर्बादी रोकने का एक सशक्त कदम हो सकता है। विभिन्न सदनों, अदालतों, कार्यालयों में पांच पेज से ज्यादा के ऐजेंडे, रिपोर्ट आदि को केवल डिजिटल कर दिया जाए तोकागज की खपत कम कर, पेड़ों का संरक्षण और शिक्षा के अत्यावश्यक कागज की आपूर्ति के बीच बेहतरीन सामंजस्य बनाया जा सकता है। इससे पेड़ के साथ-साथ कूड़ा व श्रम बच सकता है।

मंगलवार, 20 मार्च 2018

ground water turning poison

राजनीति: जहरीला होता जमीन का पानी

देश के तीन सौ साठ जिलों को भूजल स्तर में गिरावट के लिए खतरनाक स्तर पर चिह्नित किया गया है। भूजल स्तर बढ़ाने के लिए प्रयास तो किए जा रहे हैं लेकिन खेती, औद्योगीकरण और शहरीकरण के कारण जहर होते भूजल को लेकर कोई चिंता नहीं की जा रही। बारिश, झील व तालाब, नदियों और भूजल के बीच यांत्रिकी अंतर्संबंध है। जंगल और पेड़ भूजल स्तर बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।



जमीन में पानी का अकूत भंडार है। यह पानी का सर्वसुलभ और स्वच्छ स्रोत है। लेकिन यदि एक बार दूषित हो जाए तो इसका परिष्करण लगभग असंभव होता है। भारत में जनसंख्या बढ़ने के साथ घरेलू इस्तेमाल, खेती और औद्योगिक उपयोग के लिए भूगर्भ जल पर निर्भरता बढ़ती जा रही है। जमीन से पानी निकालने की प्रक्रिया ने भूजल को खतरनाक स्तर तक जहरीला बना दिया है। इसके लिए समाज और सरकार दोनों जिम्मेदार हैं। भारत कृषि प्रधान देश है। दुनिया में सबसे ज्यादा खेती भारत में ही होती है। यहां पांच करोड़ हेक्टेयर से ज्यादा जमीन पर जुताई होती है। खेतों की जरूरत का इकतालीस फीसद पानी सतही स्रोतों से व इक्यावन फीसद जमीन से मिलता है। पिछले पचास सालों के दौरान भूजल के इस्तेमाल में एक सौ पंद्रह गुना का इजाफा हुआ है। भूजल के बेतहाशा दोहन से एक तो जल स्तर बेहद नीचे चला गया है, साथ ही जहरीला भी होता जा रहा है। देश के लगभग एक-तिहाई जिलों का भूगर्भ जल पीने लायक नहीं है। दो सौ चौवन जिलों में पानी में लौह तत्त्व की मात्रा अधिक है, तो दो सौ चौबीस जिलों के जल में फ्लोराइड तय सीमा से बहुत ज्यादा है। एक सौ बासठ जिलों में खारापन और चौंतीस जिलों में आर्सेनिक पानी को जहर बनाए हुए है। सनद रहे कि देश के तीन सौ साठ जिलों को भूजल स्तर में गिरावट के लिए खतरनाक स्तर पर चिह्नित किया गया है। भूजल स्तर बढ़ाने के लिए प्रयास तो किए जा रहे हैं, लेकिन खेती, औद्योगीकरण और शहरीकरण के कारण जहर होते भूजल को लेकर कोई चिंता नहीं की जा रही। बारिश, झील व तालाब, नदियों और भूजल के बीच यांत्रिकी अंतर्संबंध है। जंगल और पेड़ भूजल स्तर बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसी प्रक्रिया में कई जहरीले रसायन जमीन के भीतर रिस जाते हैं। ऐसा ही दूषित पानी पीने के कारण देश के कई इलाकों में अपंगता, बहरापन, दांतों का खराब होना, त्वचा के रोग, पेट खराब होना जैसी बीमारियां फैली हुई हैं। ऐसे ज्यादातर इलाके आदिवासी बहुल हैं और वहां पीने के पानी के लिए भूजल के अलावा कोई विकल्प नहीं है।
दुनिया में चमड़े के काम का तेरह फीसद भारत में और भारत के कुल चमड़ा उद्योग का साठ फीसद तमिलनाडु में है। चेन्नई के आसपास पलार और कुंडावानुर नदियों के किनारे चमड़े के परिष्करण की हजारों इकाइयां हैं। चमड़े को साफ करने की प्रक्रिया से निकले रसायनों के कारण राज्य के आठ जिलों के भूजल में नाइट्रेट की मात्रा का आधिक्य पाया गया है। दांतों और हड्डियों का दुश्मन फ्लोराइड सात जिलों में निर्धारित सीमा से कहीं अधिक है। दो जिलों में आर्सेनिक की मात्रा भूजल में बेतहाशा पाई गई है। आंध्रप्रदेश के दस जिलों के भूजल में नाइट्रेट की मात्रा पैंतालीस मिलीग्राम से भी ज्यादा पाई गई है। जबकि फ्लोराइड की डेढ़ मिलीग्राम के खतरनाक स्तर से अधिक मात्रा वाला भूजल ग्यारह जिलों में पाया गया। भारी धातुओं व आर्सेनिक के आधिक्य वाले आठ जिले हैं। राज्य के प्रकाशम, अनंतपुर और नलगोंडा जिलों में भूगर्भ जल का प्रदूषण स्तर इस सीमा तक है कि वह मवेशियों के लिए भी अनुपयोगी करार दिया गया है। कर्नाटक की राजधानी बंगलुरु और झीलों की नगरी कहलाने वाले धारवाड़ सहित बारह जिलों के भूजल में नाइट्रेट का स्तर पैंतालीस मिलीग्राम से अधिक है। फ्लोराइड के आधिक्य वाले तीन जिले व भारी धातुओं के प्रभाव वाला एक जिला भद्रावती है। सर्वाधिक साक्षर व जागरूक कहलाने वाले केरल का भूजल भी जहर होने से बच नहीं पाया है। यहां के पालघाट, मल्लापुरम, कोट्टायम सहित पांच जिले नाइट्रेट की अधिक मात्रा के शिकार हैं। पालघाट व अल्लेजी जिलों के भूजल में फ्लोराइड की अधिकता होना सरकार द्वारा स्वीकारा जा रहा है। पश्चिम बंगाल में भी पाताल का पानी बेहद खतरनाक स्तर तक जहरीला हो चुका है। यहां के नौ जिलों में नाइट्रेट और तीन जिलों में फ्लोराइड की अधिकता है। बर्धवान, चौबीस परगना, हावड़ा, हुगली सहित आठ जिलों में जहरीला आर्सेनिक पानी में बुरी तरह घुल चुका है। राज्य के दस जिलों का भूजल भारी धातुओं के कारण बदरंग, बेस्वाद हो चुका है। ओडिशा के चौदह जिलों में नाइट्रेट के आधिक्य के कारण पेट के रोगियों की संख्या लाखों में पहुंच चुकी है। जबकि बोलांगीर, खुर्दा और कालाहांडी जिलों फ्लोराइड के आधिक्य के कारण गांव-गांव में पैर टेढ़े होने का रोग फैल चुका है।
अहमदनगर से वर्धा तक लगभग आधे महाराष्ट्र के तेईस जिलों के जमीन के भीतर के पानी में नाइट्रेट की मात्रा पैंतालीस मिलीग्राम के स्तर से ज्यादा हो चुकी है। इनमें मराठवाड़ा क्षेत्र के लगभग सभी तालुके शमिल हैं। भंडारा, चंद्रपुर, औरंगाबाद और नांदेड़ जिले के गांवों में हैंडपंप का पानी पीने वालों में दांत के रोगी बढ़ रहे हैं, क्योंकि इस पानी में फ्लोराइड की मात्रा काफी ज्यादा है। तेजी से हुए औद्योगीकरण और शहरीकरण का खमियाजा गुजरात के भूजल को चुकाना पड़ रहा है। यहां के आठ जिलों में नाइट्रेट और फ्लोराइड का स्तर जल को जहर बना रहा है। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के बड़े हिस्से के भूजल में यूनियन कारबाइड कारखाने के जहरीले रसायन घुल जाने का मुद्दा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित रहा है। इसके बावजूद लोग हैंडपंपों का पानी पीने को मजबूर हैं और बीमार हो रहे हैं। राज्य के ग्वालियर सहित तेरह जिलों के भूजल में नाइट्रेट का असर निर्धारित मात्रा से कई गुना ज्यादा मिला है। फ्लोराइड के आधिक्य की मार झेल रहे जिलों की संख्या हर साल बढ़ रही है। इस समय ऐसे जिलों की संख्या नौ है। नागदा, रतलाम, रायसेन, शहडोल आदि जिलों में विभिन्न कारखानों से निकले अपशिष्टों के रसायन जमीन में कई-कई किलोमीटर गहराई तक घर कर चुके हैं और इससे पानी अछूता नहीं है। उत्तर प्रदेश का भूजल परिदृश्य तो बेहद डरावना बन गया है। लखनऊ, इलाहाबाद, बनारस सहित इक्कीस जिलों में फ्लोराइड का आधिक्य दर्ज किया गया है। बलिया का पानी आर्सेनिक की अधिकता से जहर हो चुका है। गाजियाबाद, कानपुर आदि औद्योगिक जिलों में नाइट्रेट और भारी धातुओं की मात्रा निर्धारित मापदंड से काफी ज्यादा है।
देश की राजधानी दिल्ली और उससे सटे हरियाणा और पंजाब में भूजल खेतों में अंधाधुंध रासायनिक खादों के इस्तेमाल और कारखानों के अपशिष्टों के जमीन में रिसने से दूषित हुआ है। दिल्ली में नजफगढ़ के आसपास के इलाके के भूजल को तो इंसानों के इस्तेमाल के लायक नहीं करार दिया गया है। खेती में रासायनिक खादों व दवाइयों के बढ़ते प्रचलन ने जमीन की नैसर्गिक क्षमता और उसकी परतों के नीचे मौजूद पानी को भारी नुकसान पहुंचाया है। राजस्थान के कोई बीस हजार गांवों में जल की आपूर्ति का एकमात्र जरिया भूजल ही है और उसमें नाइट्रेट व फ्लोराइड की मात्रा खतरनाक स्तर पर पाई गई है। यहां के सत्ताईस जिलों में खारापन, तीस में फ्लोराइड का आधिक्य और अट्ठाईस में लौह तत्त्व अधिक हैं। दिल्ली सहित कुछ राज्यों में भूजल के अंधाधुंध इस्तेमाल को रोकने के लिए कानून बन गए हैं। लेकिन ये कानून किताबों से बाहर नहीं आ पाए हैं। यह अंदेशा सभी को है कि आने वाले दशकों में पानी को लेकर सरकार और समाज को बेहद मशक्कत करनी होगी। ऐसे में प्रकृतिजन्य भूजल का जहर होना मानव जाति के अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न लगा सकता है।

तबियत के चलते में भर्ती हो सकतें है लालू प्रसाद यादव
 

रविवार, 18 मार्च 2018

India an open market for banned medicines

प्रतिबंधित दवाओं की खुली मंडी बनता भारत

पंकज चतुर्वेदी


इन दिनों बड़ा हल्ला है कि आक्सीटोसीन नामक इंजेक्शन से सब्जियां और दूध को जहरीला बना कर बेचा जा रहा है। संसद में भी इस पर चर्चा भी हुई। लेकिन यह कोई नहीं बता रहा है कि इस कथित जहरीले इंजेक्शन का उत्पादन करने, बेचने की मंजूरी इसी सरकार में बैठे लोग दे रहे हैं। क्या इंजेक्शन के कारखाने अवैध चल रहे हैं ? हकीकत तो यह है कि बाजार में बेची जा रही दवाओं के विपरीत प्रभावों के अध्ययन के लिए किसी संगठित व्यवस्था के अभाव में भारत का बाजार प्रतिबंधित दवाओं की मंडी बनता जा रहा है । यह दुर्भाग्य है कि कौन सी दवा उपयोगी है और कौन सी षरीर पर गलत असर डालती है, यह जानने के लिए भारत पूरी तरह पश्चिमी देशों पर निर्भर है । इसके बावजूद हम ऐसी कई दवाओं की धड़ल्ले से बिक्री कर रहे हैं, जिनके इस्तेमाल पर पश्चिमी देशों ने कड़ी पाबंदी लगा रखी है ।

नोवाल्जीन के नाम से बिकने वाले दर्दनिवारक का मूल तत्व एनाल्जीन है । इसकेा खाने से ‘‘अस्थि-मज्जा अवसाद ’’ की बीमारी होने की संभावना होती है । इस खतरे के कारण इसकी बिक्री पश्चिमी देशों में प्रतिबंधित है , लेकिन हमारे देश में तो इसे खरीदने के लिए डाक्टर के पर्चे की भी जरूरत नहीं है । इसी तरह एसीडीटी और कब्ज के लिए बाजार में बिक रही दवा सीजा व सिस्प्राईड(साईजाप्राईड), अवसाद-निरोधी दवा ड्रोपेराल(ड्रोपेराइडाल), भी प्रतिबंधित श्रेणी की दवाए हैं , जिनसे दिल की धड़कन अनियमित होने की संभावना होती है । पश्चिमी देशों के वैज्ञानिकों के षोध बताते हैं कि दस्त के लिए दी जाने वाली दवाएं फ्यूरोक्सन व लोमोफेन ; वेक्टेरिया से बचने के लिए लगाई जाने वाली क्रीम फ्यूरासीन(नाईट्रोफ्यूरोजोन) ; शिथिलता की बीमारी से बचने की दवाई एगारोल(फेनोल्फ्थेलीन) के इसत्ेमाल से कैंसर होने की संभावना प्रबल हो जाती है । इसी कारण समूचे विकसित देशों ने इन दवाओं की खरीद-बिक्री पर रोक लगा रखी है । लेकिन भारत में यह सभी दवाएं खुलेआम बेखौफ बिक रही है ।
nivan times ghaziabad 

निम्यूलीड व नाईस के नाम से बिकने वाली दर्दनिवारक व बुखार की दवा हमारे देश की सबसे अधिक बिकने वाली औशधियों में से एक है । इसमें मौजूद निमेस्यूलाईड लीवर खराब कर सकता है ।  पेट में कीड़े होने पर बच्चों को दी जाने वाली दवा पिपराजीन स्नायु-तंत्र को छिन्न-भिन्न कर देती है । इसके बावजूद हमारे देश में यह दूरस्थ अंचलों तक सुलभ है । दिमागी कमजोरी के इलाज में प्रयुक्त एरलाईडिन, क्लेंडल, कप्लेमाईना, साईक्लोपेस मोल, फ्लेक्साईटल, फ्लोपेंट, काईनेटाल 400, आर.बी.फ्लेक्स, सुपरोक्स, ट्रेंटल जैसी दवाओं के दिमागी इलाज में उपयोगी होने को आज तक किसी भी अधिकृत संस्था ने प्रमाणित नहीं किया है । इसी तरह सेरेसेटम, सेरेलोईंड, इनसेफेबाल, हाईडरजीन, गिंकोसर, नुट्रोपील 800, पाईरेटम, वेसोटोप आदि में कोई ऐसा तत्व नहीं हैं जो मानसिक रोगों में कुछ फायदा दे ।
बाजार में इन दिनों भूख बढ़ाने वाली दवाओं का बोलबाला है, जिनमें विशेष रूप से साईप्रोहेप्डीन तथा ब्यूसीजीन मुरव्य अवयव होता है । ऐसी 30 से अधिक दवाएं प्रचलित है, जो नवजात शिशुओं या समय से पूर्व पैदा बच्चों के लिए जानलेवा हो सकती हैं । इन दवाओं के इस्तेमाल से मतिभ्रम, ऐंठन और मौत तक संभव है । इससे मानसिक सक्रियता में कमी आने के भी असंख्य उदाहरण उपलब्ध हैं ।
अमेरिकी सरकार ने मोटापा घटाने वाली दो सर्वाधिक लोकप्रिय दवाओं पर पाबंदी लगा दी है । ‘रीडक्स’ एक ऐसी दवा है जिसका सेवन दुनिया भर में 50 लाख से अधिक लोग अपनी काया सुडोल बनाने के लिए करते हैं । इस दवा के कारगर होने की प्रक्रिया शरीर के ‘मूल आचार व्यवहार में परिवर्तन’ के माध्यम से संचालित होती है ।  मोटापा घटाने की एक और प्रचलित दवा ‘पांडीमीन’ के कारण जानलेवा ह्नदय रोग हो सकते हैं । इन दवाओं के कुप्रभावों पर जब हल्ला मचा तो ‘रीडक्स’ और ‘पांडीमीन’ को बाजार से हटा लिया गया । गौरतलब है कि ये दोनों दवाएं एफडीए (फूड एंड ड्रग्स एडमिनिस्ट्रेशन) से मंजूरी प्राप्त हैं । वास्तव में इन दवाओं को एफडीए की मंजूरी केवल ‘अतिस्थूल मरीजों’ के इलाज के लिए थी , जबकि डाक्टरों और सुडौल बनाने की दुकान चलाने वालों ने इसका इस्तेमाल थोड़ी सी चर्बी बढ़ने पर ही करना शुरू कर दिया था । यही नहीं इस ‘मेजिक मेडीसीन’ की अंधाधुंध खुराकें भी दी गईं, जिसके चलते फायदे के बनिस्पत नुकसान अधिक हुआ । सनद रहे पांडीमीन के दुष्प्रभाव की जानकारी उसकी खोज के 24 साल बाद हो पाई थी ।
1995 में ‘रीडक्स’ को मंजूरी के लिए एफडीए के पास भेजते समय ही पता चल गया था कि इस दवा के परीक्षण के दौरान जानवरों के दिमाग पर विपरित प्रभाव डाला था । पैसा कमाने की हवस में कंपनी ने इस तथ्य को छुपाए रखा । आज अकेले अमेरिका में सौ से अधिक ऐसे मामले प्रकाश में आए हैं, जिसमें इस दवा का सेवन करने वालों के ह्नदय वाल्व क्षतिग्रस्त हो गए हैं । साथ ही दवा खाने वाले 30 फीसदी लोगों में बगैर किसी पूर्व लक्षण के दिल का वाल्व खराब होने की संभावना देखी गई ।
सजीव इंद्रियों में क्रोमोजोस की संरचना में परिवर्तन कर खेती, औषधि आदि क्षेत्रों में क्रांतिकारी शोध करना आनुवांशिकी इंजीनियरिंग का उद्देश्य रहा हैं । लेकिन अमेरिका में ही पांच हजार से अधिक ऐसे लोग, जो ईएमएस (इस्नोफीलिया मायलजिया सिंड्राम) से पीड़ित हैं , आनुवांशिकी इंजीनियरिंग से लोक कल्याणकारी इरादों के सामने सवालिया निशान बने हुए हैं । इस बीमारी का मुरव्य कारण वैकल्पिक आहार के रूप में प्रयुक्त ‘एल ट्रायप्टफेन’ नामक दवा का इस्तेमाल बताया जा रहा है । आनुवांशिकी इंजीनियरिंग के तहत पुन संयोजित डी.एन.ए. तकनीकी से इंटरफेरोन, इंसुलिन, हार्मांेंस आदि चिकित्सीय प्रोटिनों का उत्पाद होता है । इंटरफेरोन का निर्माण मानव शरीर के ऊतकों और रक्त कोशिकाओं से किया जाता है । इसका प्रयोग शक्तिशाली प्रति-विषाणु कारक एजेंट के रूप में होता है । चूंकि इसे मानव शरीर से प्रप्त करने की प्रक्रिया खासी जटिल और महंगी है, सो इसके उत्पादन के लिए वेक्टेरिया प्रणाली अपनाने के प्रयोग हो रहे हैं । यहां जानना जरूरी है कि जिस मानव शरीर से इंटरफेरोन का संश्लेषण किया जाता है, उसके आनुवांशिकी जटिल रोगों का उससे निर्मित दवा खाने वाले पर गंभीर असर होता है । इसी प्रकार इंसुलिन का निष्कर्षण गाय और सुअर के अग्नाशय से किया जाता है । कई मामलों में पशु-इंसुलिन से एलर्जी हो जाने की शिकायत सामने आई है ।
अमेरिका ओर यूरोपीय देशों में जब ऐसी घातक दवाओं के उपयोग पर पाबंदी लगी तो पेंटेंटधारी बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भारत जैसे विकासशील देशों को अपना बाजार बना लिया है । आज भारत के बाजार में सैंकड़ो ऐसे दवाएं धड़ल्ले से बिक रही हैं, जिनकी रोग निरोधक क्षमता संदिग्ध है । कई दवाओं पर सरकार ने पाबंदी लगा रखी है, और कई एक के घातक असर को देखते हुए उन पर रोक लगाना जरूरी है । कुछ ऐसी दवाएं भी बाजार में बिक रही हैं, जिनके माकूल होने की जांच आज तक किसी अधिकृत संस्था से नहीं हुई है ।
पंकज चतुर्वेदी
यू जी-1, 3/186, सेक्टर-2 राजेन््रदनगर
 साहिबाबाद
गाजियाबाद 201005

बुधवार, 14 मार्च 2018

Without better coordination forces can not win over naxalism

अविश्वास  पर टिके पुलिस-तंत्र के बस का नहीं है नक्सलवाद से निबटना। 

पंकज चतुर्वेदी 

पिछले एक साल के दौरान अकेले सुकमा जिले में यह सातवां हमला है सुरक्षा बलों पर जिसमें नौ जवान वीरगति को प्राप्त हुए। एक राज्य के एक छोटे से हिस्से में(हालांकि यह हिस्सा केरल राज्य के क्षेत्रफल के बराबर है ) स्थानीय पुलिस, एसटीएफ, सीआरपीएफ और बीएसएफ की कई टुकड़ियां मय हेलीकॉप्टर के तैनात हैं और हर बार लगभग पिछले ही तरीके से सुरक्षा बलों पर हमला होता है। नक्सली खबर रखते हैं कि सुरक्षा बलों की पेट्रोलिंग पार्टी कब अपने मुकाम से निकली व उन्हें किस तरफ जाना है। वे खेत की मेंढ तथा ऊंची पहाड़ी वाले इलाके की घेराबंदी करते हैं और जैसे ही सुरक्षा बल उनके घेरे के बीच पहुंचते है।, हमला कर देते हैं। इस बार यह हमला किस्टाराम से कोई तीन किलोमीटर दूर हुआ। सीआरपीएफ की 212वीं बटालियन के 9 जवान शहीद हुए व दो गंभीर रूप से घायल हैं। असल में इस  शहादत का कारण सिस्टम की लापरवाही और जवानों के पास मौजूद घटिया सामग्री है।
विडंबना यह है कि पिछले सात सालों में ठीक इसी तरह नक्सली छुप कर सुरक्षा बलों को फंसाते रहे हैं और वे खुद को सुरक्षित स्थानों पर ऊंचाई में अपनी जगह बना कर सुरक्षा बलों पर हमला करते रहे हैं। हर बार पिछली घटनाओं से सबक लेने की बात आती है, लेकिन कुछ ही हफ्ते में सुरक्षाबल पुराने हमलों को भूल जाते हैं व फिर से नक्सलियों के फंदे में फंस जाते हैं। इस बार एक तो इंटेलीजेंस की मजबूत खबर थी कि बीते तीन महीनों से नक्सली किसी बड़ी वारदात की फिराक में हैं। दूसरा उसी दिन सुबह  सुबह सात बजे पेट्रोलिंग पार्टी की मुठभेड़ नक्सालियों  से घटनास्थल के पास ही हुई व जवान इस झांसे में रहे कि नक्सली डर कर भाग गए। पुरानी गलतियों से सबक लिए बगैर यह पार्टी फिर से 12 बजे निकल पड़ी और चालबाज नक्सलियों की बारूदी सुरंग की चपेट में आ गई। इस बार जवान एमपीवी यानि माईंस प्रोटेक्टेड व्हीकल में थे। सनद रहे कि जो वाहन खासतौर पर लेंड माईन्य से निबटने को बना  हो और वही ध्माके में उड़ जाए, जाहिर है कि इस वाहन की गुणवत्ता संदिग्ध है। एक बात और कुछ ऐसी ही सुगबुगाहट के चलतें सन 2013 में इस वाहन के इस्तेमाल पर सरकार ने ही पाबंदी लगा दी थी, लेकिन बस्तर के जंगलो में सीआरपीएफ अभी भी इसे इस्तेमाल कर रहा है। यही नहीं जवान जवानों ने अपने शस्त्र से चार यूबीबीएल फायर किए और इनमें से एक भी गोला फटा नहीं। यदि एक भी गोला फटता तो कम से कम दस नक्सली मारे जाते। यह बानगी है कि घनघोर जंगलों में नक्सलियों से निबटने में लगे जवानों को उपलब्ध अस्त्र-शस्त्र किस दोयम दर्जे के हैं।
यहां एक बात और गौर करने वाली है कि बस्तर इलाके में नक्सली हमले में अक्सर सीआरपीएफ के जवान ही शहीद होते हैं। स्थानीय पुलिस बल जंगल की रपिस्थितियों, भाषा आदि से वाक्फि होता है सो वह उनके जाल में कम फंसता है। दुखद यह है कि केंद्रीय बलों व स्थानीय ुपलिस के बीच भयंकर अविश्वस है। केंद्रीय बल स्थानीय पुलिस पर भरोसा नहीं करते और स्थानीय ुपलिस वर्चस्व या श्रेय लेने की होड़ में जानकारियों को साझा करने में परहेज करती है। अभी तीन महीने पहले ही किस्टाराम से तीन किलोमीटर दूर पलाड़ी में एक नया कैंप स्थापित किया गया था। पहले उसमें जिला आरक्षित पुलिस बल तैनात था। अचानक ही उन्हें हटा कर यहां सीआरपीएफ को भेज दिया गया और उसके पचास दिन में ही यह हमला हो गया।
बदले, प्रतिहिंसा और प्रतिषोध की भावना केे चलते ही देष के एक तिहाई इलाके में लाल सलाम‘ की आम लोगों पर पकड़ सुरक्षा बलों से ज्यादा  है। बदला लेने के लिए गठित सलवा जुडुम पर सुपी्रम कोर्ट की टिप्पणी भी याद करें। बस्तर केे जिस इलाके में सुरक्षा बलों का खून बहा है, वहां स्थानीय समाज दो पाटों के बीच पिस रहा है और उनके इस घुटनभरे पलायन की  ही परिणति है कि वहां की कई लोक बोलियां लुप्त हो रही हैं। धुरबी बोलने वाले हल्बी वालों के इलाकों में बस गए हैं तो उनके संस्कार, लोक-रंग, बोली सबकुछ उनके अनुरूप हो रही है। इंसान की जिंदगी के साथ-साथ जो कुछ भी अकल्पनीय नुकसान हो रहे हैं, इसके लिए स्थानीय प्रषासन की कोताही ही जिम्मेदार है। नक्सलियों का अपना खुफिया तंत्र सटीक है जबकि प्रषासन खबर पा कर भी कार्यवाही नहीं करता। खीजे-हताष सुरक्षा बल जो कार्यवाही करते हैं, उनमें स्थानीय निरीह आदिवासी ही षिकार बनते हैं और यही नक्सलियों के लिए मजबूती का आधार होता है।
बस्तर के संभागीय मुख्यालय जगदलपुर से सुकमा की ओर जाने वाले खूबसूरत रास्ते का विस्तार आंध्र प्रदेष के विजयवाड़ा तक है। इस पूरे रास्ते में बीच का कोई साठ किलोमीटर का रास्ता है ही नहीं और यहां चलने वाली बसें इस रास्ते को पार करने में कई घंटे ले लेती हैं। सड़क से सट कर उडिसा का मलकानगिरी जिला पड़ता है जहां बेहद घने जंगल हैं। कांगेर घाटी और उससे आगे झीरम घाटी की सड़कों पर कई-कई सौ मीटर गहराई की घाटियों हैं, जहां पारंपरिक षीषम, साल के पेड़ों की घनी छाया है। कुछ दिन पहले ही दस नक्सिलियों को मार कर पुलिस बल ने दावा किया था कि अब जंगल में विद्रोही आतंकी बचे नहीं हैं। उधर राज्य की पुलिस पिछले कुछ महीनों से कथित आत्मसमर्पण करवा कर यह माहौल बनाने में लगी थी कि अब नक्सलियों की ताकत खतम हो गई है। इसके बावजूद पुलिस का खुफिया तंत्र उनकी ठीक स्थिति जानने में असफल रहा।यही नहीं केंद्र सरकार के गृृह विभाग ने भी चेतावनी भेजी थी कि नक्सली कुछ हिंसा कर सकते हैं। इसमें सुरक्षा बलों पर हमला, जेल पर हमला आदि की संभावना जताई गई थी। फिर भी चेतावनियों से बेपरवाह सुरक्षा बल लापरवाही से जंगल में घुस तो गए, लेकिन गहरे चक्रव्यू में फंस गए।
अब भारत सरकार के गृहमंत्रालय की 12 साल पुरानी एक रपट की धूल हम ही झाड़ देते हैं - सन 2006 की ‘‘आंतरिक सुरक्षा की स्थिति’’ विषय पर रिपोर्ट में स्पष्ट बताया गया था कि देश का कोई भी हिस्सा नक्सल गतिविधियों से अछूता नहीं है। क्योंकि यह एक जटिल प्रक्रिया है - राजनीतिक गतिविधियां, आम लोगों को प्रेरित करना, शस्त्रों का प्रशिक्षण और कार्यवाहियां। सरकार ने उस रिपोर्ट में स्वीकारा था कि देश के दो-तिहाई हिस्से पर नक्सलियों की पकड़ है। गुजरात, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर में भी कुछ गतिविधियां दिखाई दी हैं। दो प्रमुख औद्योगिक बेल्टों - ‘भिलाई-रांची, धनबाद-कोलकाता’ और ‘मुंबई-पुणे-सूरत-अहमदाबाद’ में इन दिनों नक्सली लोगों को जागरूक करने का अभियान चलाए हुए हैं। इस रपट पर कार्यवाही, खुफिया सूचना, दूरगामी कार्ययाोजना का कहीं अता पता नहीं है। बस जब कोई हादसा होता है तो सषस्त्र बलों को खूनखराबे के लिए जंगल में उतार दिया जाता है, लेकिन इस बात पर कोई जिम्मेदारी नहीं तय की जाती है कि तीन सौ नक्सली हथियार ले कर घंटों तक गोलियां चलाते हैं, सड़कों पर साठ किलो तक की लैंड माईन्स लगाई जाती है और मुख्य मार्ग पर हुई इतनी बड़ी योजना की खबर किसी को नहीं लगती है।
एक तरफ सरकारी लूट व जंगल में घुस कर उस पर कब्जा करने की बेताबी है तो दूसरी ओर आदिवासी क्षेत्रों के संरक्षण का भरम पाले खून बहाने पर बेताब ‘दादा’ लोग। बीच में फंसी है सभ्यता, संस्कृति, लोकतंत्र की साख। नक्सल आंदोलन के जवाब में ‘सलवा जुड़ुम’ का स्वरूप कितना बदरंग हुआ था और उसकी परिणति दरभा घाटी में किस नृषंसता से हुई ; सबके सामने है। बंदूकों को अपनों पर ही दाग कर खून तो बहाया जा सकता है, नफरत तो उगाई जा सकती है, लेकिन देष नहीं बनाया जा सकता। तनिक बंदूकों को नीचे करें, बातचीत के रास्तें निकालें, समस्या की जड़ में जा कर उसके निरापद हल की कोषिष करें- वरना सुकमा की दरभा घाटी या बीजापुर के आर्सपेटा में खून के दरिया ऐसे ही बहते रहेंगे। लेकिन साथ ही उन खुफिया अफसरों, वरिश्ठ अधिकारियों की जिम्मेदारी भी तय की जाए जिनकी लापरवाही के चलते सात सुरक्षाकर्मी के गाल में बेवहज समा गया। सनद रहे उस इलाके में खुफिया तंत्र विकसित करने के लिए पुलिस को बगैर हिसाब-किताब के अफरात पैसा खर्च करने की छूट है और इसी के जरिये कई बार बेकार हो गए या फर्जी लोगों का आत्मसमर्पण दिखा कर पुलिस वाहवाही लूटती हैं। एक बात और, अभी तक बस्तर पुलिस कहती रही कि नक्सली स्थानीय नहीं हैं और वे सीमायी तेलंगाना के हैं, लेकिन इस बार उनकी गोंडी सुन कर साफ हो जाता है कि विद्रोह की यह नरभक्षाी ज्वाला बस्तर के अंचलों से ही हैं।  गौरतलब है कि चार सौ से ज्यादा नक्सली मय हथियार के जमा होते रहे व खुफिया तंत्र बेखबर रहा, जबकि उस इलाके में फोर्स के पास मानवरहित विमान द्रोण तक की सुविधा है।
यह हमला उन कारणों को आंकने का सही अवसर हो सकता है जिनके चलते आम लोगों का सरकार या पुलिस से ज्यादा नक्सलियों पर विष्वास है, यह नर संहार अपनी सुरक्षा व्यवस्था व लोकतांत्रिक प्रक्रिया में आए झोल को ठीक करने की चेतावनी दे रहा है, दंडकारण्य में फैलती बारूद की गंध नीतिनिर्धारकों के लिए विचारने का अवसर है कि नक्सलवाद को जड से उखाडने के लिए बंदूक का जवाब बंदूक से देना ही एकमात्र विकल्प है या फिर संवाद का रास्ता खोजना होगा या फिर एक तरफ से बल प्रयोग व दूसरे तरफ से संवाद की संभावनाएं खोजना समय की मांग है। आदिवासी इलाकांे की कई करोड अरब की प्राकृतिक संपदा पर अपना कब्जा जताने के लिए पूंुजीवादी घरानों को समर्थन करने वाली सरकार सन 1996 में संसद द्वारा पारित आदिवासी इलाकों के लिए विषेश पंचायत कानून(पेसा अधिनियम) को लागू करना तो दूर उसे भूल ही चुकी है। इसके तहत ग्राम पंचायत को अपने क्षेत्र की जमीन के प्रबंधन और रक्षा करने का पूरा अधिकार था। इसी तरह परंपरागत आदिवासी अधिनियम 2006 को संसद से तो पारित करवा दिया लेकिन उसका लाभ दंडकारण्य तक नहीं गया, कारण वह बड़े धरानों के हितों के विपरीत है। असल में यह समय है उन कानूनों -अधिनियमों के क्रियान्वयन पर विचार करने का, लेकिन हम बात कर रहे हैं कि जनजातिय इलाकों में सरकारी बजट कम किया जाए, क्यांेकि उसका बड़ा हिस्सा नक्सली लेव्ही के रूप में वसूल रहे हैं।



मंगलवार, 13 मार्च 2018

Traditional water tank can fight with drought

 तालाबों को सहेजने की दरकार


अगर जल संकट ग्रस्त इलाकों के सभी तालाबों को मौजूदा स्थिति में भी बचा लिया जाए तो वहां के हर खेत को सिंचाई, सभी को पेयजल और लाखों हाथों को रोजगार मिल सकता है

dainik jagran, national edition, 14-3-18

अब तो देश के 32 फीसद हिस्से को पानी की किल्लत के लिए गरमी के मौसम का इंतजार भी नहीं करना पड़ता है-बारहों महीने वहां जेठ ही रहता है। सरकार संसद में बता चुकी है कि देश की 11 फीसद आबादी साफ पीने के पानी से महरूम है। दूसरी तरफ यदि कुछ दशक पहले पलट कर देखें तो आज पानी के लिए हाय-हाय कर रहे इलाके अपने स्थानीय स्रोतों की मदद से ही खेत और गले दोनों के लिए अफरात पानी जुटाते थे। एक दौर आया कि अंधाधुंध नलकूप रोपे जाने लगे, जब तक संभलते जब तक भूगर्भ का कोटा साफ हो चुका था। समाज को एक बार फिर बीती बात बन चुके जल-स्रोतों जैसे-तालाब, कुंए, बावड़ी की ओर जाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। 1विशेषज्ञों का कहना है कि तालाबों से सिंचाई करना आर्थिक दृष्टि से लाभदायक और अधिक उत्पादक होता है। उनका सुझाव है कि पुराने तालाबों के संरक्षण और नए तालाब बनाने के लिए ‘भारतीय तालाब प्राधिकरण’ का गठन किया जाना चाहिए। पूर्व कृषि आयुक्त बीआर भंबूला का मानना है कि जिन इलाकों में सालाना बारिश का औसत 750 से 1150 मिलीमीटर है, वहां नहरों की अपेक्षा तालाब से सिंचाई अधिक लाभप्रद होती है।1अभी एक सदी पहले तक बुंदेलखंड के इन तालाबों की देखभाल का काम पारंपरिक रूप से ढीमर समाज के लोग करते थे। वे तालाब को साफ रखते थे। उसकी नहर, बांध, जल आवक को सहेजते थे। बदले में तालाब की मछली, सिंघाड़े और समाज से मिलने वाली दक्षिणा पर उनका हक होता था। इसी तरह प्रत्येक इलाके में तालाबों को सहेजने का जिम्मा समाज के एक वर्ग ने उठा रखा था। तालाब तो लोक की संस्कृति का अभिन्न अंग हैं। इन्हें सरकारी बाबुओं के जिम्मे नहीं छोड़ा जा सकता। हकीकत में तालाबों की सफाई और गहरीकरण अधिक खर्चीला काम नहीं है, न ही इसके लिए भारीभरकम मशीनों की जरूरत होती है। यह सर्वविदित है कि तालाबों में भरी गाद सालों साल से सड़ रही पत्तियों और अन्य अपशिष्ठ पदार्थो के कारण ही उपजी है, जो उम्दा दर्जे की खाद है। रासायनिक खादों ने किस कदर जमीन को चैपट किया है? यह किसान जान चुके हैं और उनका रुख अब कंपोस्ट व अन्य देसी खादों की ओर है। किसानों को यदि इस खादरूपी कीचड़ की खुदाई का जिम्मा सौंपा जाए तो वे सहर्ष राजी हो जाएंगे। उल्लेखनीय है कि राजस्थान के झालावाड़ जिले में यह प्रयोग अत्यधिक सफल व लोकप्रिय रहा है। कर्नाटक में समाज के सहयोग से ऐसे कोई 50 तालाबों का कायाकल्प हुआ है, जिसमें गाद की ढुलाई मुफ्त हुई। यानी ढुलाई करने वाले ने इस बेशकीमती खाद को बेचकर पैसा कमाया। इससे एक तो उनके खेतों को उर्वरक मिलता है, साथ ही साथ तालाबों के रखरखाव से उनकी सिंचाई सुविधा भी बढ़ती है। सिर्फ आपसी तालमेल, समझदारी और तालाबों के संरक्षण की दिली भावना हो तो न तो तालाबों में गाद बचेगी, न ही सरकारी अमलों में घूसखोरी की कीच होगी।11944 में गठित ‘फेमिन इनक्वायरी कमीशन’ ने साफ निर्देश दिए थे कि आने वाले सालों में संभावित पेयजल संकट से जूझने के लिए तालाब ही कारगर होंगे। कमीशन की र्पिाट तो लाल बस्ते में कहीं दब गई। आजादी केबाद तालाबों की देखरेख तो दूर, उनकी उपेक्षा शुरू हो गई। चाहे कालाहांडी हो या फिर बुंदेलखंड या फिर तेलंगाना, देश के जल संकट वाले सभी इलाकों की कहानी एक ही है। इन सभी इलाकों में एक सदी पहले तक कई-कई सौ बेहतरीन तालाब होते थे। वहां के तालाब केवल लोगों की प्यास ही नहीं बुझाते थे, बल्कि अर्थव्यवस्था का मूल आधार भी होते थे। तालाब मछली, सिंघाड़ा, कुम्हार के लिए चिकनी मिट्टी और हजारों-हजार घरों के लिए खाना उगाहते रहे हैं। तालाबों का पानी कुओं का जल स्तर बनाए रखने में सहायक होते थे। शहरीकरण की चपेट में लोग तालाबों को ही पी गए और अब उनके पास पीने के लिए कुछ नहीं बचा है।1गांव या शहर के रुतबेदार लोग जमीन पर कब्जा करने के लिए बाकायदा तालाबों को सुखाते हैं। पहले इनके बांध फोड़े जाते हैं। फिर इनमें पानी की आवक के रास्तों को रोका जाता है-न भरेगा पानी, न रह जाएगा तालाब। गांवों में तालाब से खाली हुई उपजाऊ जमीन लालच का कारण होती है तो शहरों में कालोनियां बनाने वाले भूमाफिया इसे सस्ता सौदा मानते हैं। यह राजस्थान में उदयपुर से लेकर जैसलमेर तक, हैदराबाद में हुसैनसागर, हरियाणा में दिल्ली से सटे सुल्तानपुर लेक या फिर यूपी के चरखारी व झांसी हो या फिर तमिलनाडु की पुलिकट झील, सभी जगह एक ही कहानी है। हां, पात्र अलग-अलग हो सकते हैं। सभी जगह पारंपरिक जल-प्रबंधन के नष्ट होने का खामियाजा भुगतने और अपने किए या फिर अपनी निष्क्रियता पर पछतावा करने वाले लोग एकसमान ही हैं। कनार्टक के बीजापुर जिले की कोई बीस लाख आबादी को पानी की त्रहि-त्रहि के लिए गरमी का इंतजार नहीं करना पड़ता है। कहने को इलाके में चप्पे-चप्पे पर जल भंडारण के अनगिनत संसाधन मौजूद हैं, लेकिन हकीकत में बारिश का पानी यहां टिकता ही नहीं है। लोग नलों को कोसते हैं, जबकि उनकी किस्मत को आदिलशाही जल प्रबंधन के बेमिसाल उपकरणों की उपेक्षा का दंश लगा हुआ है। समाज और सरकार पारंपरिक जल स्रोतों-कुओं, बावड़ियों और तालाबों में गाद होने की बात करते हैं, जबकि हकीकत में गाद तो उन्हीं के माथे पर है। सदा नीरा रहने वाली बावड़ियों-कुओं को बोरवेल और कचरे ने पाट दिया तो तालाबों को कंक्रीट का जंगल निगल गया। 1यदि जल संकट ग्रस्त इलाकों के सभी तालाबों को मौजूदा स्थिति में भी बचा लिया जाए तो वहां के प्रति इंच खेत को सिंचाई, हर कंठ को पानी और हजारों हाथों को रोजगार मिल सकता है। एक बार मरम्मत होने के बाद तालाबों के रखरखाव का काम समाज को सौंपा जाए। इसमें महिलाओं के स्वयं सहायता समूह, मछली पालन सहकारी समितियां, पंचायत, गांवों की जल बिरादरी को शामिल किया जाए।1(लेखक पर्यावरण मामलों के जानकार हैं)

सोमवार, 5 मार्च 2018

consevation of traditional water KUNDI in Burhanpur needs to be immediate attention

खतरे में पड़ गया पारंपरिक ज्ञान का एक अनूठा स्रोत


सतपुड़ा की सघन जंगलों वाली पहाड़ियों के भूगर्भ में धीरे-धीरे पानी रिसता है, फिर यह पानी प्राकृतिक रूप से चूने से निर्मित नालियों के माध्यम से सुरंगनुमा नहरों से होते हुए आम उपयोग के लिए कुइयों में एकत्र हो जाता है। दो दशक पहले तक इस संरचना के माध्यम से लगभग चालीस हजार घरों तक बगैर किसी मोटर पंप के पाइप के जरिये पानी पहुंचता था। कुछ आधुनिकता की हवा, कुछ कोताही और कुछ पारंपरिक तकनीकी ज्ञान के बारे में अल्प सूचना, अपने तरीके की विश्व की एकमात्र ऐसी जल-प्रणली को अब अपने अस्तित्व के लिए जूझना पड़ रहा है। उस समाज से जूझना पड़ रहा है, जो खुद पानी की एक-एक बूंद के लिए प्रकृति से जूझ रहा है। मुगलकाल की बेहतरीन इंजीनिर्यंरग का यह नमूना मध्य प्रदेश में ताप्ती नदी के किनारे बसे बुरहानपुर शहर में है। पिछले साल इस संरचना का नाम विश्व विरासत के लिए भी यूनेस्को को भेजा गया था। ठीक इसी तरह की एक जल-प्रणाली कभी ईरान में हुआ करती थी, वहां भी यह प्रणाली लापरवाही के कारण बीते दिनों की बात हो गई है। 
बुरहानपुर उन दिनों मुगल सेना की एक बड़ी छावनी था। ताप्ती नदी के पानी पर पूरी तरह निर्भरता को तब के सूबेदार अब्दुल रहीम खान ने असुरक्षित माना और उनकी निगाह इस प्राकृतिक जल-स्रोत पर पड़ी। सन 1615 में फारसी भूतत्ववेत्ता तबकुतुल अर्ज ने ताप्ती के मैदानी इलाके, जो सतपुड़ा की पहाड़ियों के बीच स्थित है, के भूजल स्रोतों का अध्ययन किया और शहर में जलापूर्ति के लिए भूमिगत सुरंगें बिछाने का इंतजाम किया। कुल मिलाकर ऐसी आठ प्रणालियां बनाई गईं। आज इनमें से दो तो पूरी तरह समाप्त हो चुकी हैं। शेष रह गई प्रणालियों में से तीन से बुरहानपुर  शहर और बाकी तीन का पानी पास के बहादुरपुर गांव और राव रतन महल को जाता है, जहां वह लोगों की प्यास बुझाने के अलावा उनके दैनिक आवश्यकताओं को पूरा करता था।
जल प्रवाह और वितरण का यह पूरा सिस्टम गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत पर आधारित है। भूमिगत नालिकाओं को भी हल्की ढलान दी गई है। सुख भंडारा जमीन से तीस मीटर नीचे है और वहां से पानी इस सुरंग में आता है। गरमियों में भी यहां डेढ़ मीटर पानी होता है। चट्टानों वाली इस व्यवस्था को पक्का करने के लिए करीब एक मीटर मोटी दीवार भी डाली गई है। भूजल का रिसाव इसके अंदर होता रहे, इसके लिए दीवार में जहां-तहां जगह छोड़ी गई है। मूल भंडारा तो शहर से 10 किमी दूर एक सोते के पास स्थित है। यह खुले हौज की तरह है और इसकी गहराई 15 मीटर है। इसकी दीवारें पत्थर से बनी हैं। इसके चारों तरफ 10 मीटर ऊंची दीवार भी बनाई गई है। चिंताहरण मूल भंडारा के पास ही एक सोते के किनारे है और इसकी गहराई 20 मीटर है। खूनी भंडारा शहर से पांच किमी दूर लाल बाग के पास है। इसकी गहराई करीब 10 मीटर है। 
अपने निर्माण के तीन सौ पचास वर्ष बाद भी यह व्यवस्था बिना किसी लागत या खर्च के काम दिए जा रही है। बीते कुछ सालों से इसमें पानी कुछ कम आ रहा है। सन 1985 में जहां यहां का भूजल स्तर 120 फुट था, वह 2010 में 360 और आज 470 फुट लगभग हो गया है। असल में, जिन सुरंगों के जरिए पानी आता है, उनमें कैल्शियम व अन्य खनिजों की परतें जमने के कारण उनकी मोटाई कम हो गई और उससे पानी कम आने लगा। इसके अलावा सतपुड़ा पर जंगलों की अंधाधुंध कटाई, बरसात के दिन कम होना और इन नालियों व सुरंगों में कूड़ा आने के चलते यह संकट बढ़ता जा रहा है। सन 1992 में भूवैज्ञानिक डॉ यूके नेगी के नेतृत्व में इसकी सफाई हुई थी, उसके बाद इनको साफ करने पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। हालांकि डॉ नेगी ने उसी समय कह दिया था कि इस संवेदनशील संरचना की सफाई हर दस साल में होनी चाहिए। 
 
बुरहानपुर के जल-भंडार ऐतिहासिक ही नहीं, भूगर्भ और भौतिकी विज्ञान के हमारे पारंपरिक ज्ञान के अनूठे उदाहरण हैं। इनका संरक्षण महज जल प्रदाय व्यवस्था के लिए नहीं, बल्कि विश्व की अनूठी जल प्रणाली को सहेजने के लिए भी अनिवार्य है।

रविवार, 4 मार्च 2018

cow dunk can be gold for farmers

जमीन पर उतरे गोबरधन योजना

गोबर का इस्तेमाल ग्रामीण जीवन की तकदीर बदलने के साथ खेती को भी लाभकारी बना सकता है

पंकज चतुर्वेदी




हाल में प्रधानमंत्री ने मन की बात रेडियो कार्यक्रम में गोबर के सदुपयोग की अपील की। उन्होंने गोबरधन (गल्वानाइजिंग आर्गेनिक बायो एग्रो र्सिोस फंड स्कीम)योजना की भी चर्चा करते हुए कहा कि मवेशियों के गोबर से बायो गैस और जैविक खाद बनाई जाए। उन्होंने लोगों से कचरे और गोबर को आय का स्नोत बनाने की अपील की। इस योजना की घोषणा इसी आम बजट में की गई है। इसके तहत गोबर और खेतों के ठोस अपशिष्ट पदाथोर्ं को कम्पोस्ट, बायो-गैस और बायो-सीएनजी में परिवर्तित किया जाएगा। असल में गोबर न केवल ग्रामीण जीवन की तकदीर बदल सकता है, बल्कि खेती को लाभ का व्यवसाय बनाने और ग्रामीण जीवन को प्रदूषण मुक्त बनाने में भी बड़ी भूमिका निभा सकता है। खेतों में गोबर डाला जाए और मिट्टी की उर्वरा शक्ति बढ़ाने के लिए केंचुओं का इस्तेमाल किया जाए तो हारी-थकी धरती को नया जीवन मिल सकता है। आधुनिक खेती के तहत रासायनिक खाद और दवाओं के इस्तेमाल से बांझ हो रही जमीन को राहत देने के लिए फिर से पलट कर देखना होगा। 1कुछ विदेशी किसानों ने भारत की सदियों पुरानी पारंपरिक कृषि प्रणाली को अपनाकर चमत्कारी नतीजे प्राप्त किए हैं। जब यह कहा जाता है कि भारत सोने की चिड़िया था तब हम यह अनुमान लगाते हैं कि हमारे देश में पीले रंग की धातु सोने का अंबार रहा होगा। वास्तव में हमारे खेत और हमारे मवेशी हमारे लिए सोने से अधिक कीमती थे। इसी रूप में सोना अभी भी यहां के चप्पे-चप्पे में बिखरा हुआ है। दुर्भाग्य है कि उसे या तो चूल्हों में जलाया जा रहा है या फिर उसकी अनदेखी हो रही है। एक ओर ऐसा हो रहा है तो दूसरी ओर अन्नपूर्णा जननी धरा तथाकथित नई खेती के प्रयोगों से कराह रही है। रासायनिक खाद से उपजे विकार अब तेजी से सामने आने लगे हैं। दक्षिणी राज्यों में सैंकड़ों किसानों की खुदकुशी करने के पीछे रासायनिक दवाओं की खलनायकी उजागर हो चुकी है। इस खेती से उपजा अनाज जहर हो रहा है। रासायनिक खाद डालने से एक दो साल तो खूब अच्छी फसल मिलती है, फिर जमीन बंजर होती जाती है। बेशकीमती मिट्टी की ऊपरी परत का एक इंच तैयार होने में दशकों लगते हैं जबकि खेती की आधुनिक प्रक्रिया के चलते यह परत 15-16 वर्ष में नष्ट हो जा रही है। रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल के कारण मिट्टी सूखी और बेजान हो जाती है। यही भूमि के क्षरण का मुख्य कारण है। 1वहीं गोबर से बनी कंपोस्ट या प्राकृतिक खाद से उपचारित भूमि की नमी की अवशोषण क्षमता पचास फीसद बढ़ जाती है। फलस्वरूप मिट्टी नम रहती है और उसका क्षरण भी रुकता है। कृत्रिम उर्वरक यानी रासायनिक खादें मिट्टी में मौजूद प्राकृतिक खनिज लवणों को नष्ट करती हैं। इसके कारण कुछ समय बाद जमीन में जरूरी खनिज लवणों की कमी आ जाती है। जैसे नाइट्रोजन के उपयोग से भूमि में प्राकृतिक रूप से उपलब्ध पोटेशियम का तेजी से क्षरण होता है। इसकी कमी पूरी करने के लिए जब पोटाश प्रयोग में लाते हैं तो फसल में एस्कोरलिक एसिड (विटामिन सी) और केरोटिन की काफी कमी आ जाती है। इसी प्रकार सुपर फास्फेट के कारण मिट्टी में तांबा और जस्ता चुक जाता है। जस्ते की कमी के कारण शरीर की वृद्धि और लैंगिक विकास में कमी, घावों के भरने में अड़चन आदि रोग फैलते हैं। नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश उर्वरकों से संचित भूमि में उगाए गेहूं और मक्का में प्रोटीन की मात्र 20 से 25 प्रतिशत कम होती है। रासायनिक दवाओं और खाद के कारण भूमिगत जल के दूषित होने की गंभीर समस्या भी खड़ी हो रही है। 1अभी तक ऐसी कोई तकनीक विकसित नहीं हुई है जिससे भूजल को रासायनिक जहर से मुक्त किया जा सके। ध्यान रहे कि अब धरती पर जल संकट का एक मात्र निदान भूमिगत जल ही बचा है। न्यूजीलैंड एक विकसित देश है। यहां आबादी के बड़े हिस्से का जीवनयापन पशु पालन से होता है। इस देश में कृषि वैज्ञानिक पीटर प्राक्टर पिछले 30 वर्षो से जैविक खेती के विकास में लगे हैं। पीटर का कहना है कि रासानयिक खादों का प्रयोग पर्यावरणीय संकट पैदा कर रहा है। जैसे एक टन यूरिया बनाने के लिए पांच टन कोयला फूंकना पड़ता है। 1कुछ साल पहले हालैंड की एक कंपनी ने भारत को गोबर निर्यात करने की योजना बनाई थी तो खासा बवाल मचा था, लेकिन यह दुर्भाग्य है कि इस बेशकीमती कार्बनिक पदार्थ की हमारे देश में कुल उपलब्धता आंकने के आज तक कोई प्रयास नहीं हुए। अनुमान है कि देश में कोई 13 करोड़ मवेशी हैं जिनसे हर साल 120 करोड़ टन गोबर मिलता है। इसमें से आधा उपलों के रूप में चूल्हों में जल जाता है। यह ग्रामीण उर्जा की कुल जरूरत का 10 फीसदी भी नहीं है। बहुत पहले राष्ट्रीय कृषि आयोग की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि गोबर को चूल्हे में जलाया जाना एक अपराध है। ऐसी और कई रिपोर्ट सरकारी बस्तों में बंधी होंगी, लेकिन इसके व्यावहारिक इस्तेमाल के तरीके गोबर गैस प्लांट की दुर्गति यथावत है। राष्ट्रीय कार्यक्रम के तहत निर्धारित लक्ष्य के 10 फीसदी प्लांट भी नहीं लगाए गए हैं। ऐसे कई प्लांट तो सरकारी सब्सिडी गटकने का माध्यम बन रहे हैं। ऊर्जा विशेषज्ञ मानते हैं कि हमारे देश में गोबर के जरिये 2000 मेगावाट ऊर्जा पैदा की जा सकती है। सनद रहे कि गोबर के उपले जलाने से बहुत कम गर्मी मिलती है। इस पर खाना बनाने में बहुत समय लगता है यानी गोबर को जलाने से बचना चाहिए। 1यदि इसका इस्तेमाल खेतों में किया जाए तो अच्छा होगा। इससे एक तो महंगी रासायनिक खादों और दवाओं का खर्चा कम होगा, साथ ही जमीन की ताकत भी बनी रहेगी। सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि फसल रसायनहीन होगी। यदि गांव के कई लोग मिल कर गोबर गैस प्लांट लगा लें तो उसका उपयोग रसोई में अच्छी तरह होगा। देश के कई हिस्सों में ऐसे प्लांट सफलता से चल रहे हैं। ये प्लांट रसोई गैस सिलेंडर के मुकाबले काफी कम कीमत में खाना पकाने की गैस उपलब्ध करा रहे हैं। गोबर गैस प्लांट से निकला कचरा बेहतरीन खाद का काम करता है। दरअसल यही है कि वेस्ट से वेल्थ की अवधारणा। गोबर का सदुपयोग एक बार फिर हमारे देश को सोने की चिड़िया बना सकता है। जरूरत तो बस इस बात की है कि इसका उपयोग ठीक तरीके से किया जाए। अच्छा होगा कि सरकार गोबरधन योजना को साकार करने के लिए ठोस कदम उठाए।1(लेखक पर्यावरण मामलों के विशेषज्ञ एवं स्तंभकार हैंैं)11ी2स्रल्ल2ीAं¬1ंल्ल.ङ्घे

Why was the elephant not a companion?

    हाथी क्यों न रहा साथी ?                                                                    पंकज चतुर्वेदी   हाथियों और मानव के ब...