My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

बुधवार, 30 मई 2018

we are wasting water

पानी की बर्बादी क्यों?


पंकज चतुर्वेदी 


राष्ट्रीय सहारा 
गरमी कुछ समय से पहले आई और भयंकर आई। बीती बरसात कमजोर रही थी देश के कोई 360 जिलों में पानी की मारामारी थी। यह देश के लिए अब हर तीन साल में एक बार के नियमित हालात हो गए हैं। तपती गर्मी के बाद जब आसमान पर बादल छाते हैं तो क्या इंसान और क्या पशु-पक्षी, सभी सुकून की सांस लेते हैं। पेड़-पौधों को भी उम्मीद बंधती है। हालांकि बरसते बादल कहीं रौद्र रूप दिखाते हैं तो कहीं रूठ जाते हैं। बाढ़ और सूखा प्रकृति के दो पहलू हैं, बिल्कुल धूप और छांव की तरह। लेकिन बारिश बीतते ही देशभर में पानी की त्राहि-त्राहि की खबरें आने लगती हैं। कहीं पीने को पानी नहीं है तो कहीं खेत को। लेकिन क्या हमने कभी यह जानने की कोशिश की है कि बारिश का इतना सारा पानी आखिर जाता कहां है? इसका कुछ हिस्सा तो भाप बनकर उड़ जाता है और कुछ समुद्र में चला जाता है। कभी सोचा आपने कि यदि इस पानी को अभी सहेजकर न रखा गया तो भविष्य में क्या होगा और कैसे पूरी होगी हमारी पानी की आवश्यकता? दुनिया के 1.4 अरब लोगाों को पीने का शुद्ध पानी नहीं मिल पा रहा है। 

प्रकृति के खजाने से हम जितना पानी लेते हैं उसे वापस भी हमें ही लौटाना होता है। पानी के बारे में एक नहीं, कई चौंकाने वाले तय हैं, जिसे जानकर लगेगा कि सचमुच अब हममें थोड़ा सा भी पानी नहीं बचा है। कुछ तय इस प्रकार हैं-मुंबई में रोज गाड़ियां धोने में ही 50 लाख लीटर पानी खर्च हो जाता है। दिल्ली, मुंबई और चेन्नई जैसे महानगरों में पाइपलाइनों के वॉल्व की खराबी के कारण 17 से 44 प्रतिशत पानी प्रतिदिन बेकार बह जाता है। ब्रrापुत्र नदी का प्रतिदिन 2.16 घन मीटर पानी बंगाल की खाड़ी में चला जाता है। भारत में हर वर्ष बाढ़ के कारण करीब हजारों मौतें व अरबों का नुकसान होता है। इस्रइल में औसत बारिश 10 सेंटीमीटर है, इसके बावजूद वह अनाज निर्यात करता है। दूसरी ओर भारत में औसतन 50 सेंटीमीटर से भी अधिक वष्ा होने के बावजूद सिंचाई के लिए जरूरी जल की कमी बनी रहती है। यह भी कड़वा सच है कि हमारे देश में औरत पीने के पानी की जुगाड़ के लिए हर रोज ही औसतन चार मील पैदल चलती हैं। हमारे समाज में पानी बरबाद करने की राजसी प्रवृत्ति है, जिस पर अभी तक अंकुश लगाने की कोई कोशिश नहीं हुई है। हकीकत में जब से देश आजाद हुआ है, तब से आज तक इस दिशा में कोई भी काम गंभीरता से नहीं हुआ है। पृवी का विस्तार 51 करोड़ वर्ग किलोमीटर है। उसमें से 36 करोड़ वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र पानी से घिरा हुआ है। दुर्भाग्य यह है कि इसमें से पीने लायक पानी का क्षेत्र बहुत कम है। 97 प्रतिशत भाग तो समुद्र है। बाकी के तीन प्रतिशत हिस्से में मौजूद पानी में से 2 प्रतिशत पर्वत और ध्रुवों पर बर्फ के रूप में जमा हुआ है, जिसका कोई उपयोग नहीं होता है। यदि इसमें से करीब 6 करोड़ घन किलोमीटर बर्फ पिघल जाए तो हमारे महासागारों का तल 80 मीटर बढ़ जाएगा, किंतु फिलहाल यह संभव नहीं। 1991 में भारतीय अर्थव्यवस्था में खुलापन आने के बाद निजीकरण का जोर बढ़ा है। एक के बाद एक कई क्षेत्र निजीकरण की भेंट चढ़ते गए। सबसे बड़ा झटका जल क्षेत्र के निजीकरण का है। जब भारत में बिजली के क्षेत्र को निजीकरण के लिए खोला गया तब कोई बहस नहीं हुई। बड़े पैमाने पर बिजली गुल होने का डर दिखाकर निजीकरण को आगे बढ़ाया गया, जिसका नतीजा आज सबके सामने है। सरकारी तौर पर भी यह स्वीकार किया जा चुका है कि सुधार औंधे मुंह गिरे हैं और राष्ट्र को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी है। अब पानी के क्षेत्र में ऐसी ही निजीकरण की बात हो रही है। कई जगह नदियों को निजी हाथों में सौंपा जा रहा है। विकास के नाम पर तालाब व नदियों को उजाड़ने में कोई परहेज नहीं हो रहा है। यदि अभी पानी नहीं सहेजा गया तो संभव है पानी केवल हमारी आंखों में ही बच पाए। हमारा देश वह है, जिसकी गोदी में हजारों नदियां खेलती थीं, आज वे नदियां हजारों में से केवल सैकड़ों में रह गई हैं। आखिर कहां गई ये नदियां कोई नहीं बता सकता। नदियों की बात छोड़ दें, हमारे गांव-मोहल्लों तक से तालाब, कुएं, बावड़ी आदि लुप्त हो रहे हैं। जान लें, पानी की कमी, मांग में वृद्धि तो साल-दर-साल ऐसी ही रहेगी। अब मानव को ही बरसात की हर बूंद को सहेजने और उसे किफायत से खर्च करने पर विचार करना होगा। इसमें अन्न की बर्बादी सबसे बड़ा मसला है-जितना अन्न बर्बाद होता है, उतना ही पानी जाया होता है। 


सोमवार, 28 मई 2018

My story for children


दूर की दोस्ती



बादल भी नहीं थे, आकाश साफ था । वह बिल्कुल सही समय से उडना शुरू  हुआ था । रफ्तार भी बिल्कुल ठीक थी ।  कुल सवा घंट का सफर था। सही समय दिल्ली भी पहुँच  गया ।
उसने अंगड़ाई ली, ‘‘ चलों अब कुछ देर आराम करूंगा । सुबह पांच बजे से उड़  रहा हूं । उड़ने से पहलेे तैयारी के लिए तीन बजे ही नींद से उठा दिया था ।  अंग-अंग दुख रहा है। समुद्र के ऊपर से उड़ो तो नमकीन हवा श्रीर को खंरोचती है। ’’
वह अभी नीचे देख कर आराम करने की कल्पना ही कर रहा था कि विजय की आवाज ने उसे जैसे सपने से उठा दिया । विजय घोशणा कर रहे थे, ‘‘ फिलहाल नीचे हवाई अड़्डे पर जगह की कमी है । हमें लगभग आधा घंटे आसमान में ही रहना होगा । इस देरी के लिए हमें खेद  है । ’’
जल्दी-जल्दी उतर कर अपने घरों की तरफ भागने को आतुर यात्रियों के चेहरे से खुशी गायब हो गई। वे तो अपना सामान समेटने में लगे थे, अब उन्हें फिर से सीट पर बैठ कर सीट बैल्ट बांधने को मजबूर होना पड़ा। हर एक के मुंह से आवाज निकली ‘‘ उफ्फ, फिर देर हो गई। ’’
यात्री तो आपस में शिकायत कर रहे थे। विजय भी अपने ग्राउंड  स्टाफ को उलाहना दे रहा था। लेकिन वह  किससे कहे ? एक लंबा गोता हवा में भरा और नीचे झांका । हवाई अड्डे की सभी पट्टियां भरी हुई थीे ।
बेवजह बाएं, फिर दाएं । कहां तो वह कंक्रीट के ंजगल के बीच टहल रहा था और उसे फिर से हरे जंगलों की ओर जाना पड़ा। सुंदर दृश्य भी अब मन को नहीं भा रहे थे। उसे आराम की सख्त जरूरत थी- डर रहा था कि यूं ही भटकते -भटकते कहीं नींद न आ जाए ।
तभी आवाज आई , ‘‘ यार, तुम मुझसे दूर-दूर क्यों रहते हो ? मेरा भी कोई दोस्त नहीं है । और तुम तो अकेले ही भटकते हो । हमसे हाथ मिला लो ना !’’
‘‘ऐ-ऐ दूर , बिल्कुल दूर । पास नहीं आना । मुझसे दूर ही रहो। जो भी बात करना है दूर से दृ और दूर से ! ’’

‘‘ भई ऐेसी भी क्या नाराजी ? हम भी आकाश के राजा हैं और तुम भी । हम तो इतने छोटे से हैं और तुम इतने बड़े । हमसे डरो मत । अच्छा ,बताओ तो कहां-कहा धूम कर आ गए ।’’
‘‘ सही बात बताएं, मेरा भी बहुत मन करता है तुमसे बात करने का । देखो ना बगैर कारण यूंह ी आकाश में भटक रहा हूं। लेकिन मजबूरी है । ’’
‘‘ अरे, हमारे दोस्त बन जाओ। फिर दोस्ती में कैसी मजबूरी ?’’
‘‘ देखो तुम तो हो अपनी मर्जी के मालिक । जब जहां चाहो जा सकते हो । पर मेरी कोई मर्जी नहीं चलती मुझे विजय जहां चाहता है, वहीं मैं जा सकता हूं । वो जब चाहता है तभी मैं उड़ता हूं और उसकी मर्जी पर मुझे जमीन पर आना पड़ता है।’’
‘‘ अरे, बाप रे , तुम तो इतने बड़े  हो और किसी के गुलाम हो। अपने मन से आराम भी नहीं कर सकते? भरोसा नहीं होता। ’’
इन दोनों की बात चल ही रही थी कि तभी विजय ने माईक पर घोशणा कर दी । ‘‘ नई दिल्ली हवाई अड्डे पर अब स्थान खाली होने की सूचना मिल गई है। हम कुछ ही पलों में हवाई अड्डा पर उतर रहे है।। अपना जरूरी सामान, चश्मा, पुस्तकें आदि संभाल लें। विलंब के कारण आपको हुई असुविधा का हमें खेद है। ’’
‘‘ चलें भाई। आदेश आ गया। लो, अब मुझे जमीन पर उतरना होगा ।’’

‘‘अजीब है तुम्हारी भी कहानी। इतना बड़ा षरीर, मुझसे भी ऊंचा उड़ने की ताकत। फिर भी अपनी मर्जी से कुछ भी नहीं।
‘‘हां, ऐसा ही होता है। जो जितना अधिक बलशाली होता है, उसे उतने ही अधिक नियंत्रण में रहना पड़ता है।  ठीक चलता हूं। फिर कभी मिलेंगें।
‘‘ ठीक है, जरूर जल्दी फिर से मुलाकात होगी। अच्छा अलविद से पहले हाथ तो मिला लें ।’’
जहाज ने सिर नीचे किया , ‘‘ ना , बिल्कुल नहीं । मेरे पास कतई न आना ।’’
‘‘ये कैसी दोस्ती ! कह रहे हो पास न आना ।’’
विमान ने ठहाका मारा , ‘‘ यदि तुम मुझसे टकरा गए तो जो कुछ होगा उसकी तुम्हें कल्पना भी नहीं है। तुम्हारा जो कुछ होगा, वह तो होगा ही । मैं भी नहीं बचूंगा ।’’
‘‘लेकिन तुम तो इतने बड़े और मैं कहां ?’’
उसके पहिंए बाहर आ गए थे, ‘‘ यही तो डर बना रहता है । तभी तो कहता हूं कि तुमसे दूर की ही दोस्ती भली । ’’
हवाई जहाज सरपट रनवे पर दौड़ रहा था और पंछी आसमान में चक्कर लगाते हुए सोच रहा था कि यह कैसा पंछी है !


बुधवार, 23 मई 2018

Fire : A good friend but bad master

जलने का इलाज करने से बेहतर है कि उससे बचाव

पंकज चतुर्वेदी 

Daily News, Jaipur 

गरमी का मौसम आते ही पूरे देश से आग लगने और उससे लेागां के जलने की घटनाएं सामने आने लगती हैं।  आग लगने से जान-माल का नुकसान तो होता ही है, जो लोग इस हादसे में घायल हो जाते हैं उनका इलाज भी बेहद महंगा होता है। चूंकि आग एक अच्छी दोस्त है लेकिन बहुत बुरी मालिक, यानि यदि आग आप पर बलवती हो गई तो उसे दूरगामी दुष्प्रभावों से जूझना बहुत कठिन होता है। हर एक अग्निकांड के कारणों को देखें तो उसमें मानवजन्य लापरवाही ही मुख्य कारण होती है, ऐसी लापरवाही जिससे बगैर किसी खास प्रयुक्ति के भी बचा जा सकता है। अपने दैनिक जीवन में हम यदि कुछ मामूली सावघानियां बरतें तो ऐसी घटनाओं को होने से रोका जा सकता है । इससे कई लेागों का जीवन बचाया जा सकता है ।
दिल्ली या अन्य नगरों की बात करें या खलिहान में रखी सूखी फसल में आग लगने की, अधिकांश मामलों में बिजली के उपकरणों क्रे प्रति थोड़ी सी लापरवाही ही बड़े अग्निकांड में बदलती दिखती हैं। उसके बाद तबाही के अलावा कुछ नहीं बचता।

विश्व में जलने के मामलों में सबसे अधिक संख्या संभवतया भारत की है । यह चिंता का विषय है कि दुनिया के कुल जलने के मामलों में भारत का हिस्सा एक तिहाई है । जहां विकसित देशों में जलने के मामले लगातार कम होते जा रहे हैं, वहीं भारत जैसे विकासशील देशों में इनकी संख्या लगातार बढ़ रही है । यह गहरी चिंता का विषय है । एक अनुमान है भारत में हर साल लगभग 30 लाख लोग जलने की घटनाओं के शिकार होते हैं । । इनमें से कोई पांचवा हिस्सा ही अस्पताल तक पहंुचता है और विडंबना है कि इनके एक तिहाई मौत की चपेट में आ जाते हैं । जबकि इतने ही लोग विकलांग हो जाते हैं । ऐसी घटनाओं के शिकार 80 प्रतिशत लोग अपने जीवन के सबसे सक्रिय काल यानि 15 से 35 साल आयु के होते हैं। इनमें बच्चे या महिलाओं की बड़ी संख्या होती है । जलने की आठ फीसदी दुर्घटनाएं घर पर ही घटित होती हैं ।

जले हुए लोगों का इलाज बेहद खर्चीला और लंबे समय तक चलता है । यही नहीं देश में सभी जगह इसके उचित इलाज की व्यवस्था भी नहीं हैं । अपने दैनिक जीवन में हम यदि कुछ मामूली सावघानियां बरतें तो ऐसी घटनाओं को होने से रोका जा सकता है । इससे कई लेागों का जीवन बचाया जा सकता है ।
चिकित्सा विज्ञान में अधिकांश बीमारियों के इलाज के लिए दवाईयां या शल्य का प्रावधान है । आग से हुई चोटों का भी इलाज होता है, लेकिन दुर्भाग्य है कि कोई भी इलाज शरीर को असली आकार या रंग लौटाने में सक्षम नहीं है ।  कई बार जब शरीर का बड़ा हिस्सा जल जाता है तो रेागी की मृत्यु हो जाती है । जले हुए रोगियों की बड़ी संख्या चेहरे या शरीर के अन्य हिस्सों में विकृति का शिकार बन जाती है ।  कई बार शरीर का कोई हिस्सा बकाया जीवन के लिए बेकार हो जाता है ।
national duniya delhi 

जलने के कारण  पीड़ित मरीज पर कई मनोवैज्ञानिक व सामाजिक प्रभाव भी होते हैं ।  करीबी रिश्तेदार कई बार अलग तरीके से प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं और मरीज को बोझ मानते हैं । कई बार माता-पिता भारी आर्थिक बोझ के तले दब जाते हैं ।  कुछ लोग खुलेआम विकलांग बच्चों को  अस्वीकार कर देते हैं । कई बार जले हुए पीड़ित को विकृति और कुरूपता के कारण अपने भाई-बहन और हमउम्र दोस्तों से उपेक्षा झेलनी पड़ती है । जाहिर है कि जिस बात से आसानी से बचाव किया जा सकता है, कई बार उसकी भारी कीमत चुकानी पड़ती है ।
आग से बचने का सबसे सटीक उपाय है सतर्कता और जागरूकता। कुछ बातें सभी को गांठ बांध कर रखना चाहिए, जैसे कि आग तेजी से फैलती है । एक छोटी सी चिंगारी महज 30 सेकंड में काबू से बाहर हो जाती है तथा विकराल आग का रूप ले सकती है । कुछ मिनटों में ही घर में गहरा काला धुंआ भर सकता है । आग की लपटें थोड़ी ही देर में किसी घर को निगल लेती है । दूसरा. आग गरम होती है और गरमी अकेले ही जानलेवा होती है । आग लगने की दशा में कमरे का तापमान पैरों के पास 100 डिगरी और आंखों तक आते-आते 600 डिगरी हो जाता है । इतनी गरम हवा में सांस लेने से फैंफड़े झुलस सकते हैं ।  कुछ ही मिनटों में कमरा गरम भट्टी बन जाता है।, जिसमें प्रत्येक वस्तु सुलग उठती है । आग की शुरूआत तो रोशनी से होती है, लेकिन जल्दी ही इससे निकलने वाले काले घने धुएं के कारण अंधेरा छा जाता है । आग की लपटों से कहीं अधिक उसके धुएं और जहरीली गैसों से जान-माल का नुकसान होता है । प्राणदायक आक्सीजन गैस के कारण आग का फैलाव होता है और इससे धुआं व घातक गैसे निकलती हैं । धुंए या जहरीली गैस की यदि थोड़ी सी मात्रा भी सांस के साथ भीतर चली जाए तो आप निढ़ाल, बैचेन हो सकते हैं च सांस लेने में परेशानी हो सकती है । कई बार तो आग की लपटें आप तक पहुंचे उससे पहले ही रंगहीन, गंधहीन धुआं आपको गहरी नींद में ढकेल सकता है।

ऐसे हादसे आमतौर पर भीड़ भरे संकरे स्थानों पर घटित होते हैं , जैसे कि स्कूल, कालेज, बाजार, सिनेमा हॉल , शादी के मंडप, अस्पताल, होटल, रेलवे स्टेशन, कारखाने, सामुदायिक भवन, धार्मिक समागम आदि ।
आग लगने की 60 प्रतिशत घटनाओं के मूल में बिजली के साथ बरती जाने वाली लापरवाही होती हैं , इनमें शार्ट र्सिर्कट, ओवर हीटिंग, ओवर लोडिंग, घटिया उपकरणों का इस्तेमाल, बिजली की चोरी, गलत तरीके से की गई वायरिंग, लापरवाही, आदि आम हैं। यदि दिशा-निर्देशों का सही तरीके से पालन ना किया जाए तो भयानक आग व बड़ी दुर्घटना घटित हो सकती है । थोड़ी सी सावधानी बरतने पर ऐसी घटनाओं से बचा जा सकता है । बिजली से लगने वाली आग ,विशेषरूप से बड़े भवनों में बहुत तेजी से फैलती है , जिसके कारण जान-माल की बड़ी हानि हो सकती है। अतः यह जरूरी है कि आग लगने पर त्वरित कार्यवाही की जाए ।
अग्निशमन विशेषज्ञ यह बात स्वीकारते हैं कि हमारे देश में होने वाली असामयिक मृत्यु के कारणों में आग सबसे बड़ा कारक है । जले हुए लोगों का उपचार करना बेहद खर्चीला व बहुत समय खपाने वाला कार्य है । आग से बचाव के उपायों का क्रियान्वयन, जले हुए लोगों के इलाज के लिए अस्पताल बनाने से कम खर्चीला व सरल होता है । थोड़ी सी सावधानी, लोगों की जागरूकता और सामान्य सा प्रशिक्षण हमारे देश को आग की घटनाओं से मुक्त देश बना सकता है । यही नहीं अग्निशमन जैसे विभाग आग लगने पर जिस तत्परता से काम करते हैं और कई बार आग से जूझने में अपने साथियों को भी गंवा देते हैं, उससे बेहतर हो कि कोई हादसा होने से पूर्व ही सार्वजनिक स्थानों पर आग की संभावनओं को शून्य करने पर अधिक ध्यान दें। यह भी अनिवार्य है कि आग के कारणो के प्रति  लापरवाहियांे को ले कर समाज में भी नियमित विमर्श और सतर्कता हो।

सोमवार, 21 मई 2018

Fishermen in the trap of boundaries drawn on water

मछली की जगह मछुआरे फंस रहे हैं जल सीमा विवादों में 

पंकज चतुर्वेदी

गुजरात के सोमनाथ जिले के पालड़ी कस्बे की 32 वर्षीय रूदीबने ने केंद्रीय विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज को पत्र लिख कर एक साल से ज्यादा से पाकिस्तान की जेल में बंद अपने कैंसरग्रस्त मछुआरा पति दाना भाई चौहान की रिहाई के मदद मांगी है। शक नहीं कि श्रीमती स्वराज अपने स्तर पर प्रयास भी करेंगी, लेकिन यह महज एक व्यक्ति का ही मामला नहीं है, अकेले पाकिस्तान की जेल में ही  नहीं भारत की जेलों में भी सैंकड़ो मछुआरे केवल इस लिए बंद हैं कि समुद्र के पानी पर देश की सीमाओं की कोई रेखा नहीं होती और जो कोई भूले-भटके दूसरी तरफ पहंुच गया, उसके ना जाने कितनें सालों जेल का नारकीय जीवन जीना होता है। सनद रहे  दानाभाई को 03 मई 2017 को कच्छ की खाड़ी में जखउ बंदरगाह के पास पकड़ा था। एक साल से उसकी कोई खोज-खबर नहीं थी। पिछले सप्ताह ही पाकिस्तान के एक अस्पताल से भारत फोन आया था जिससे पता चला कि दानाभाई कैंसर से ग्रस्त जिंदगी-मौत की लड़ाई लड़ रहा है।

कुछ महीने पहले ही गुजरात का एक मछुआरा दरिया में तो गया था मछली पकड़ने, लेकिन लौटा तो उसके षरीर पर गोलियां छिदी हुई थीं। उसे पाकिस्तान की समुद्री पुलिस ने गोलियां मारी थीं। ‘‘इब्राहीम हैदरी(कराची)का हनीफ जब पकड़ा गया था तो महज 16 साल का था, आज जब वह 23 साल बाद घर लौटा तो पीढ़ियां बदल गईं, उसकी भी उमर ढल गई। इसी गांव का हैदर अपने घर तो लौट आया, लेकिन वह अपने पिंड की जुबान ‘‘सिंधी’’ लगभग भूल चुका है, उसकी जगह वह हिंदी या गुजराती बोलता है। उसके अपने साथ के कई लोगों का इंतकाल हो गया और उसके आसपास अब नाती-पोते घूम रहे हैं जो पूछते हैं कि यह इंसान कौन है।’’
दोनों तरफ लगभग एक से किस्से हैं, दर्द हैं- गलती से नाव उस तरफ चली गई, उन्हें घुसपैठिया या जासूस बता दिया गया, सजा पूरी होने के बाद भी रिहाई नहीं, जेल का नारकीय जीवन, साथ के कैदियों द्वारा षक से देखना, अधूरा पेट भोजन, मछली पकड़ने से तौबा....। पानी पर लकीरें खींचना नामुमकिन है, लेकिन कुछ लोग चाहते हैं कि हवा, पानी, भावनाएं सबकुछ बांट दिया जाए। एक दूसरे देष के मछुआरों को पकड़ कर वाहवाही लूटने का यह सिलसिला ना जाने कैसे सन 1987 में षुरू हुआ और तब से तुमने मेरे इतने पकड़े तो मैं भी तुम्हारे उससे ज्यादा पकडूंगा की तर्ज पर समुद्र में इंसानों का षिकार होने लगा। कराची जेल के अधीक्षक मोहम्मद हसन सेहतो के मुताबिक उनकी जेल में 660 भारतीय हैं जिनमें से ज्यादातर मछुआरे हैं और इन्हें अरब सागर में जलसीमा का उल्लंघन करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया है। कहने की जरूरत नहीं कि वहां उनका पेट, धर्म, भाषा सबकुछ संकट में है।

भारत,श्रीलंका, बांग्लादेश और पाकिस्तान में साझा सागर के किनारे रहने वाले कोई डेढ करोड परिवार सदियों से समु्रद से निकलने वाली मछलियों से अपना पेट पालते आए हैं। जैसे कि मछली को पता नहीं कि वह किस मुल्क की सीमा में घुस रही है, वैसे ही विभिन्न देशों की सरकारें भी तय नहीं कर पा रही हैं कि आखिर समु्रद के असीम जल पर कैसे सीमा खींची जाए।  कच्छ के रन के पास सर क्रीक विवाद सुलझने का नाम नहीं ले रहा है। असल में वहां पानी से हुए कटाव की जमीन को नापना लगभग असंभव है क्योंकि पानी से आए रोज जमीन कट रही है और वहां का भूगोल बदल रहा है।  देानेां मुल्कों के बीच की कथित सीमा कोई 60 मील यानि लगभग 100 किलोमीटर में विस्तारित है। कई बार तूफान आ जाते हैं तो कई बार मछुआरों को अंदाज नहीं रहता कि वे किस दिषा में जा रहे हैं, परिणामस्वरूप वे एक दूसरे के सीमाई बलों द्वारा पकड़े जाते हैं। कई बार तो इनकी मौत भी हो जाती है व घर तक उसकी खबर नहीं पहुंचती। जिस तरह भारत में तटरक्षाक दल और बीएसएफ रक्रिय है, ठीक उसी तरह पाकिस्तान में समुद्र पर एमएसए यानि मेरीटाईम सिक्यूरिटी एजेंसी  की निगाहें रहती हैं। मछली पकड़ते समय एक दूसरे देशों के जाल में फसे लेागेां में भारत के गुजरात के और पाकिस्तान के सिंध प्रांत के लोग ही अधिकांश होते हैं।
सालों-दषकों बीत जाते हैं और जब दोनों देषेां की सरकारें एक-दूसरे के प्रति कुछ सदेच्छा दिखाना चाहती हैं तो कुछ मछुआरों को रिहा कर दिया जाता है। पदो महीने पहले रिहा हुए पाकिस्तान के मछुआरों के एक समूह में एक आठ साल का बच्चा अपने बाप के साथ रिहा नहीं हो पाया क्योंकि उसके कागज पूरे नहीं थे। वह बच्चा आज भी जामनगर की बच्चा जेल में है। ऐसे ही हाल ही में पाकिस्तान द्वारा रिहा किए गए 163 भारतीय मछुआरों के दल में एक दस साल का बच्चा भी है जिसने सौंगध खा ली कि वह भूखा मर जाएगा, लेकिन मछली पकड़ने को अपना व्यवसाय नहीं बनाएगा।
जब से षहरी बंदरगाहों पर जहाजों की आवाजाही बढ़ी है तब से गोदी के कई-कई किलोमीटर तक तेल रिसने ,षहरी सीवर डालने व अन्य प्रदूशणों के कारण समु्रदी जीवों का जीवन खतरे में पड़ गया है। अब मछुआरों को मछली पकड़ने के लिए बस्तियों, आबादियों और बंदरगाहों से काफी दूर निकलना पड़ता है। जो खुले समु्रद में आए तो वहां सीमाओं को तलाषना लगभग असंभव होता है और वहीं देानेां देषों के बीच के कटु संबंध, षक और साजिषों की संभावनाओं के षिकार मछुआरे हो जाते है।। जब उन्हें पकड़ा जाता है तो सबसे पहले सीमा की पहरेदारी करने वाला तटरक्षक बल अपने तरीके से पूछताछ व जामा तलाषी करता है। चूंकि इस तरह पकड़ लिए  गए लोगों को वापिस भेजना सरल नहीं है, सो इन्हें स्थानीय पुलिस को सौंप दिया जाता है। इन गरीब मछुआरों के पास पैसा-कौडी तो होता नहीं, सो ये ‘‘गुड वर्क’’ के निवाले बन जाते हैं। घुसपैठिये, जासूस, खबरी जैसे मुकदमें उन पर होते है।। वे दूसरे तरफ की बोली-भाशा भी नहीं जानते, सयो अदालत में क्या हो रहा है, उससे बेखबर होते है।। कई बार इसी का फायदा उठा कर प्रोसिक्यूषन उनसे जज के सामने हां कहलवा देता है और वे अनजाने में ही देषद्रोह जैसे अरोप में पदोश बन जाते हैं। कई-कई सालों बाद उनके खत  अपनों के पास पहुंचते है।। फिर लिखा-पढ़ी का दौर चलता है। सालों-दषकों बीत जाते हैं और जब दोनों देषेां की सरकारें एक-दूसरे के प्रति कुछ सदेच्छा दिखाना चाहती हैं तो कुछ मछुआरों को रिहा कर दिया जाता है।
वैसे भारत ने अपने सीमावर्ती इलाकें के मछुआरों के सुरक्षा पहचान पत्र, उनकी नावों को चिन्हित करने और नावों पर ट्रैकिंग डिवाईस लगाने का काम शुरू किया है। श्रीलंका और पाकिस्तान में भी ऐसे प्रयास हो रहे हैं, लेकिन जब तक देानेां देश अपने डाटाबेस को एकदूसरे से साझा नहीं करते, तब तक बात बनने वाली नहीं हैं। सनद रहे कि बीते दो दशकों के आंकड़ों का फौरी तौर पर देख्ेां तो पाएंगे कि देानेा तरफ पकड़े गए अघिकांश मछुआरे अशिक्षित हैं, चालीस फीसदी बेहद कम उम्र के हैु, कुछ तो 10 से 16 साल के। ऐसे में तकनीक से ज्यादा मानवीय दृष्टिकोण इस समरूा के निदान में सार्थक होगा।
यहां जानना जरूरी है कि दोनेां देषों के बीच सर क्रीक वाला सीमा विवाद भले ही ना सुलझे, लेकिन मछुआरों को इस जिल्ल्त से छुटकारा दिलाना कठिन नहीं है। एमआरडीसी यानि मेरीटाईम रिस्क रिडक्षन सेंटर की स्थापना कर इस प्रक्रिया को सरल किया जा सकता है। यदि दूसरे देष का कोई व्यक्ति किसी आपत्तिजनक वस्तुओं जैसे- हथियार, संचार उपकरण या अन्य खुफिया यंत्रों के बगैर मिलता है तो उसे तत्काल रिहा किया जाए। पकड़े गए लोगों की सूचना 24 घंटे में ही दूसरे देष को देना, दोनों तरफ माकूल कानूनी सहायत मुहैया करवा कर इस तनाव को दूर किया जा सकता है। वैसे संयुक्त राश्ट्र के समु्रदी सीमाई विवाद के कानूनों यूएनसीएलओ में वे सभी प्रावधान मौजूद हैं जिनसे मछुआरों के जीवन को नारकीय होने से बचाया जा सकता है। जरूरत तो बस उनके दिल से पालन करने की है।



The climate is paying for so called development

विकास की भेंट चढ़ती आबोहवा


पंकज चतुर्वेदी

पर्यावरण मामलों के जानकार


dainik jagran 19-5-18

हमारे देश में संस्कृति, मानवता तथा बसावट का विकास नदियों के किनारे ही हुआ है। सदियों से नदियों के तट पर मानव-जीवन फलता-फूलता रहा है। बीते कुछ दशकों में विकास की ऐसी धारा बही कि नदी की धारा आबादी के बीच आ गई तथा आबादी की धारा को जहां जगह मिली वहां बस गई। और यही वजह है कि हर साल कस्बे नगर बनते जा रहे हैं। ये केवल पर्यावरण प्रदूषण ही नहीं, सामाजिक और सांस्कृतिक प्रदूषण की भी गंभीर समस्या उपजा रहे हैं

पिछले दिनों विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जेनेवा में वर्ष 2016 के लिए दुनिया के सबसे 15 प्रदूषित शहरों की सूची जारी की जिनमें भारत के 14 शहर शामिल हैं। इसमें कानपुर सबसे ऊपर और दिल्ली छठे स्थान पर है। आंकड़ों से पता चला कि 2010 से 2014 के बीच में दिल्ली के प्रदूषण स्तर में मामूली बेहतरी हुई, लेकिन 2015 से फिर हालत बिगड़ने लगी है। 2010 की रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली दुनिया का सबसे प्रदूषित शहर था जिसके बाद पेशावर और रावलपिंडी का नंबर था। उस समय दुनिया के 10 सबसे प्रदूषित शहरों में भारत के अन्य शहरों में सिर्फ आगरा शामिल था। 2011 की रिपोर्ट में भी दिल्ली और आगरा प्रदूषित शहरों की सूची में शामिल थे और उलानबटार दुनिया का सबसे प्रदूषित शहर था। 2012 में स्थिति बदलनी शुरू हुई और दुनिया के 20 सबसे प्रदूषित शहरों में अकेले भारत के 14 शहर शामिल थे। 2013, 2014 और 2015 में भी दुनिया के 20 सबसे प्रदूषित शहरों में भारत के चार से सात शहर शामिल थे। यदि इन आंकड़ों को गंभीरता से देखें तो स्पष्ट होता है कि जिन शहरों में पलायन और रोजगार के लिए पलायन कर आने वालों की संख्या बढ़ी तथा इसके चलते उसका अनियोजित विकास हुआ, वहां की आबोहवा में ज्यादा जहर पाया जा रहा है।1प्रदूषण की मूल वजह1असल में पर्यावरण को हो रहे नुकसान का मूल कारण अनियोजित शहरीकरण है। बीते दो दशकों के दौरान यह प्रवृत्ति पूरे देश में बढ़ी कि लोगों ने जिला मुख्यालय या कस्बों की सीमा से सटे खेतों पर अवैध कॉलोनियां बना लीं। इसके बाद जहां कहीं सड़क बनी, उसके आसपास के खेत, जंगल, तालाब को वैध या अवैध तरीके से कंक्रीट के जंगल में बदल दिया गया। देश के अधिकांश उभरते शहर अब सड़कों के दोनों ओर बेतरतीब ढंग से बढ़ते जा रहे हैं। ना तो वहां सार्वजनिक परिवहन है, ना ही सुरक्षा, ना ही बिजली-पानी की न्यूनतम मांग। असल में देश में बढ़े काले धन को जब बैंक या घर में रखना जटिल होने लगा तो जमीन में निवेश के अंधे कुंए का सहरा लिया जाने लगा। इससे खेत की कीमतें बढ़ीं, खेती की लागत भी बढ़ी और किसानी लाभ का काम नहीं रहा गया। पारंपरिक शिल्प और रोजगार त्यागने वालों का सहारा शहर बने और उससे वहां का अनियोजित विस्तार और ज्यादा आत्मघाती होता गया।1

साल दर साल बढ़ती गरमी, गांव-गांव तक फैल रहा जल-संकट का साया, बीमारियों के कारण पट रहे अस्पताल, ऐसे कई मसले हैं जो आम लोगों को पर्यावरण के प्रति जागरूक बना रहे हैं। कहीं कोई नदी, तालाब के संरक्षण की बात कर रहा है तो कहीं पेड़ लगा कर धरती को बचाने का संकल्प। जंगल व वहां के बाशिंदे-जानवरों को बचाने के लिए भी सरकार और समाज प्रयास कर रहे हैं। लेकिन भारत जैसे विकासशील देश में पर्यावरण का सबसे बड़ा संकट तेजी से विस्तारित होता ‘शहरीकरण’ एक समग्र विषय के तौर लगभग उपेक्षित है। असल में देखें तो संकट जंगल का हो या फिर स्वच्छ वायु का या फिर पानी का, सभी के मूल में विकास की वह अवधारणा है जिससे शहररूपी सुरसा सतत विस्तार कर रही है और उसकी चपेट में आ रही है प्रकृति।1अनियोजित शहरीकरण1हमारे देश में संस्कृति, मानवता और बसावट का विकास नदियों के किनारे ही हुआ है। सदियों से नदियों की अविरल धारा और उसके तट पर मानव-जीवन फलता-फूलता रहा है। बीते कुछ दशकों में विकास की ऐसी धारा बही कि नदी की धारा आबादी के बीच आ गई और आबादी की धारा को जहां जगह मिली वह बस गई। और यही कारण है कि हर साल कस्बे नगर बन रहे हैं और नगर महानगर। बेहतर रोजगार, आधुनिक जनसुविधाएं और उज्ज्वल भविष्य की लालसा में अपने पुश्तैनी घर-बार छोड़कर शहर की चकाचांैंध की ओर पलायन करने की बढ़ती प्रवृत्ति का परिणाम है कि देश में एक लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की संख्या 302 हो गई है। जबकि 1971 में ऐसे शहर मात्र 151 थे। यही हाल दस लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की है। इसकी संख्या गत दो दशकों में दोगुनी होकर 16 हो गई है। पांच से 10 लाख आबादी वाले शहर 1971 में मात्र नौ थे जो आज बढ़कर 50 हो गए हंैं। विशेषज्ञों का अनुमान है कि आज देश की कुल आबादी का 8.50 प्रतिशत हिस्सा देश के 26 महानगरों में रह रहा है।1विश्व बैंक की ताजा रिपोर्ट बताती है कि आने वाले 20-25 सालों में 10 लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की संख्या 60 से अधिक हो जाएगी जिनका देश के सकल घरेलू उत्पाद में योगदान 70 प्रतिशत होगा। एक बात और बेहद चौंकाने वाली है कि भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी की रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या शहरों में रहने वाले गरीबों के बराबर ही है। यह संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है। यानी यह डर गलत नहीं होगा कि कहीं भारत आने वाली सदी में ‘अरबन स्लम’ या शहरी मलिन बस्तियों में तब्दील ना हो जाए।1शहर के लिए सड़क चाहिए, बिजली चाहिए, मकान चाहिए, दफ्तर चाहिए, इन सबके लिए या तो खेत होम हो रहे हैं या फिर जंगल। जंगल को हजम करने की चाल में पेड़, जंगली जानवर, पारंपरिक जल स्नेत सभी कुछ नष्ट हो रहे हैं। यह वह नुकसान है जिसकी भरपाई संभव नहीं है। शहरीकरण यानी रफ्तार, रफ्तार का मतलब है वाहन और वाहन हैं कि विदेशी मुद्रा भंडार से खरीदे गए ईंधन को पी रहे हैं और बदले में दे रहे हैं दूषित वायु। शहर को ज्यादा बिजली चाहिए। यानी ज्यादा कोयला जलेगा, ज्यादा परमाणु संयंत्र लगेंगे।1पर्यावरण पर मार1शहर का मतलब है औद्योगिकीकरण और अनियोजित कारखानों की स्थापना का परिणाम है कि हमारी लगभग सभी नदियां अब जहरीली हो चुकी हैं। नदी थी खेती के लिए, मछली के लिए, दैनिक कार्यो के लिए, न कि उसमें गंदगी बहाने के लिए। गांवों के कस्बे, कस्बों के शहर और शहरों के महानगर में बदलने की होड़ एक ऐसी मृग मरिचिका की लिप्सा में लगी है, जिसकी असलियत कुछ देर से खुलती है। दूर से जो जगह रोजगार, सफाई, सुरक्षा, बिजली, सड़क के सुख का केंद्र होते हैं, असल में वहां सांस लेना भी गुनाह लगता है। शहरों की घनी आबादी संक्रामक रोगों के प्रसार का आसान जरिया होते हैं, यहां दूषित पानी और हवा भीतर ही भीतर इंसान को खाती रहती हैं और यहां बीमारों की संख्या ज्यादा होती है। देश के सभी बड़े शहर इन दिनों कूड़े को निबटाने की समस्या से जूझ रहे हैं। कूड़े को एकत्र करना और फिर उसका शमन करना एक बड़ी चुनौती बनता जा रहा है। एक बार फिर शहरीकरण से उपज रहे कचरे की मार पर्यावरण पर ही पड़ रही है। केवल पर्यावरण प्रदूषण ही नहीं, शहर सामाजिक और सांस्कृतिक प्रदूषण की भी गंभीर समस्या उपजा रहे हैं। लोग अपनों से, मानवीय संवेदनाओं से, अपनी लोक परंपराओं व मान्यताओं से कट रहे हैं। इसकी जगह उनका झुकाव आधुनिक किस्म के बाबाओं में बढ़ रहा है, जो अलग किस्म के अंधविश्वास और रूढ़ियों का कारक हैं।1आगे का रास्ता1तो क्या लोग गांव में ही रहें? क्या विकास की उम्मीद ना करें? ऐसे कई सवाल शहरीकरण में अपनी पूंजी को हर दिन कई गुणा होते देखने वाले कर सकते हैं। असल में हमें अपने विकास की अवधारणा को ही बदलना होगा-पक्की सड़क, अंग्रेजी दवाई, स्थानीय भाषा को छोड़कर अंग्रेजी का प्रयोग, भोजन व कपड़े का पाश्चात्यीकरण असल में विकास नहीं है। यदि कोई चमड़े का काम करने वाला है, वह अपने काम को वैज्ञानिक तरीके से करना सीखता है, अपने श्रम की वास्तविक कीमत वसूलने के प्रति जागरूक होता है, अपने सामाजिक अधिकार के प्रति सचेत हो जाता है तो जरूरी नहीं है कि वह गांव में अपने हाथ के काम को छोड़कर शहर में चपरासी या दैनिक मजदूर की नौकरी कर संकरी गलियों की गंदी झुग्गियों में रहे। इंसान की क्षमता, जरूरत और योग्यता के अनुरूप उसे अपने मूल स्थान पर अपने सामाजिक सरोकारों के साथ जीवनयापन का हक मिले, यदि विकास के प्रतिमान ऐसे होंगे तो शहर की ओर लोगों का पलायन रुकेगा। इससे हमारी धरती को कुछ राहत मिलेगी।

शुक्रवार, 11 मई 2018

Summer vacation can be used to develope reading skill in children with non text books

गैरपाठ््य पुस्तकों से सरल होगी पढ़ने-समझने की प्रक्रिया

पंकज चतुर्वेदी



इन दिनों दिल्ली के सभी रेडियो स्टेशन पर सरकार का एक विज्ञापन चल रहा था जिसमें कहा जा रहा था कि एक सर्वेक्षण के अनुसार देश की राजधानी में सरकारी स्कूल में पढने वाले 75 फीसदी बच्चे अपनी पाठ्य पुस्तक को ठीक से पढ नहीं पाते हैं और उनपके लिए विशेष कक्षाएं छुट्टियों में चलेंगी। जाहिर है कि पढ नहीं पाते हैं तो समझ भी नहीं पाते और समझ नहीं पाते तो उस पर अमल नहीं कर पाते। जब से कक्षा आठ तक फेल करने की नीति षुरू हुई है उसके बाद दिल्ली के पचास किलोमीटर दायरे के स्कूलों के आठवीं तक के बच्चे अपनी भाशा की पुस्तक ठीक से बांच नहीं पा रहे हैं।  षायद यही कारण है कि कक्षा 10 के आते-आते इनमें से 40 प्रतिशत शिक्षा छोड़ देते हैं। उनके लिए स्कूल, पुस्तक, परीक्षा, डिगरी महज एक उबाऊ या रटने वाली गैर उत्पादक प्रक्रिया होती है व उसमें वे अपनी रोटी या भविश्य नहीं देखते। मामला यही नहीं रूकता, यही अल्प शिक्षित या अशिक्षित लोग जब सरकार की योजनाओ को ठीक से पढ या समझ नहीं पाते हैं तो योजनाएं भ्रश्टाचार या कागजी आंकड़ों की शिकार हो जाती हैं। जान लें कि सारा दोश बच्चे या शिक्षक या उनके सामाजिक-आर्थिक परिेवश का नहीं है, बहुत कुछ तो हमारी पुस्तक में छपे षब्द, प्रस्तुति, चित्र और तय किए मानक भी जिम्मेदार हैं। गरमी की छुट्टी बच्चों को पुस्तकों से जोड़ने का अच्छा अवसर हो सकता है जिसके परिणाम दूरगामी होंगे।

वास्तव में शिक्षा प्रणाली, जिसमें पाठ्य पुस्तक भी षामिल है, का मौजूदा स्वरूप आनंददायक शिक्षा के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा है । इसके स्थान पर सामूहिक गतिविधियों को प्रोत्साहित व पुरस्कृत किया जाना चाहिए । एमए पास बच्चे जब बैक में पैसा जमा करने की स्लीप नहीं भर पाते या बारहवीं पास बच्चा होल्डर में बल्ब लगाना या साईकिल की चैन चढ़ाने में असमर्थ रहता है तो पता चलता है कि हम जो कुछ पढ़ा रहे हैं वह कितना चलताऊ है। ग्रेजुएट बच्चें बैंक में पैसा जमा करने की पर्ची भरने में झिझकते हैं। कुल मिला कर स्कूल में पढे हुए के मूल्यांकन के तौर पर होने वाली परीक्षा व उसके परिणामों ने एक भयावह सपने, अनिश्चितता की जननी व बच्चों के नैसर्गिक विकास में बाधा का रूप  ले लिया है । लिखना, पढना, बोलना, सुनना - ये चारों क्रियाएं वैसे तो अलग-अलग हैं लेकिन वे एकदूसरे से जुड़ी हैं। एक दूसरे पर निर्भर हें, एकदूसरे को उभारती हैं। एक अकेले षब्द का अर्थ अलग होता है, कुछ षब्द जुड़ कर जब एक वाक्य बनते हैं तो उनका अर्थ व्यापक हो जाता है। सरल भाशा वही है जो उपरोक्त चारों क्रियाओं में सहज हो।  अब बच्चा घर में अपनी देशज भाशा- बुंदेली, मालवी, ब्रज या राजस्थानी इस्तेमाल कर रहा है और स्कूल में उसे खड़ी बोली में पढाया जा रहा है। उसके बोलने, समझने , सीखने व पढने की भाषा में जैसे ही भेद होता है , वह गड़बड़ा जाता है व पुस्तकों में अपनी ऊब को खड़ा पाता है। उदाहरण के तौर पर बच्चों को ई से ईख व ए से एैनक पढ़ाया जा रहा है जबकि वे ईख षब्द का इस्तेमाल करते नहीं, वे तो गन्ना कहते हंे या ऐनक नहीं चश्मा। अब बेहद गरीब परिवेश के ग्रामीण बच्चे, जिन्होंनंे कभी अनार देखा नहीं, उन्हें रटवाया जाता है कि  अ अनार का। यह तो प्रारंभिक पुस्तक के स्वर वाले हिस्सों का हाल है, जब व्यजंन में जाएंगे तो ठठेरे, क्षत्रिय जैसे अनगिनत षब्द मिलेंगे।
स्कूल में भाषा-शिक्षा सबसे महत्वपूर्ण व पढ़ाई का आधार होती है। प्रतिदिन के कार्य बगैर भाषा के सुचारू रूप से कर पाना संभव ही नहीं होता। व्यक्तित्व के विकास में भाषा एक कुंजी है , अपनी बात दूसरों तक पहुंचाना हो या फिर दूसरों की बात ग्रहण करना, भाषा के ज्ञान के बगैर संभव नहीं है।  भाषा का सीधा संबंध जीवन से है और मात्रभाषा ही बच्चे को परिवार, समाज से जोड़ती है। भाषा शिक्षण का मुख्य उद्देश्य बालक को सोचने-विचारने की क्षमता प्रदान करना, उस सोच को निरंतर आगे बढ़ाए रखना, सोच को सरल रूप में अभिव्यक्त करने का मार्ग तलाशना होता है।  अब जरा देखें कि मालवी व राजस्थानी की कई बोलियो में ‘स‘ का उच्चारण ‘ह‘ होता है और बच्चा अपने घर में वही सुनता है, लेकिन जब वह स्कूल में शिक्षक या अपनी पाठ्य पुस्तक पढ़ता है तो उससे संदेश मिलता है कि उसके माता-पिता ‘गलत‘ उच्चारण करते हैं।  बस्तर की ही नहीं, सभी जनजातिया बोलियों में हिंदी के स्वर-व्यंजन में से एक चौाथाई होते ही नहीं है। असल में आदिवासी कम में काम चलाना तथा संचयय ना करने के नैसर्गिक गुणों के साथ जीवनयापन करते हैं और यही उनकी बोली में भी होता है। लेकिन बच्चा जब स्कूल आता है तो उसके पास बेइंतिहां शब्दों का अंबार होता है जो उसे दो नाव पर एकसाथ सवारी करने की मानिंद अहसास करवाता है।
बच्चा ठीक से पढ सके, उसका आनंद उठाए और से समझ सके, इसके लिए सबसे पहले तो नीरस पुस्तकों को बदलना होगा, 12  या 16 पेज की रंगबिरंगी छोटी कहानी वाली, जिसमें साठ फीसदी चित्र हों, ऐसी पुस्तकें बच्चों के बीच डाली जाएं, इस उम्मीद के सथ कि इसकी कोई परीक्षा नहीं होगी। उसके बाद पाठ्य पुस्तक हो, जिसमें स्थानीय परिवेश, पाठक बच्चों की पृश्ठभूमि आ दि को ध्यान रख कर सकारात्मक सामग्री हो। चित्र की अपनी भाशा होती है और रंग का अपना आकर्शण, मनोरंजक कहानियांे व चित्रों की मदद से बच्चे बहुत से षब्द चिन्हने लगते हैं और वे उनक इस्तेमाल सहजता से अपनी पाठय पुस्तक में भी करने लगते हैं। इससे सीखने व समझने की प्रक्रिया साथ-साथ चलती है। भाशा की लिपि को पहचानना और अर्थ ग्रहण करना , फिर उन षब्दों को दूसरी जगह चीन्हना, इस प्रणाली में बच्चे तेजी से पढ़ने की दक्षता हांसिल करते है।  असल में पढ़ना, लिखना या षग्ब्द पहचानना बच्चे की समझ के विकास-चक्र का महत्वपूर्ण घुमाव है और उसे नीरस की पाठ्य पुस्तक के बदौलत छोड़ना महज एक शिक्षा की औपचारिकता पूरा करना है। अब समय की मांग है कि रटन्तू व्यवस्था को अलविदा कहा जाए। जैसे ही बच्चा सीखने, पहचानने और उसे डीकोड करने की पूरी प्रक्रिया को एक साथ अपना कर उसमें चुनौती व आनंद ढूंढने लगता है, शिक्षा उसके लिए एक रोमांच व कौतुहल बन जाती है।  हो सकता है कि यह मौजूदा पाठ्यक्रम को समाप्त करने की अवधि में एमएसएल यानि मिनिमम लेबल आफ लर्निग या सीखने का न्यूनतम स्तर पाने की गति से कुछ धीमी प्रक्रिया हो, लेकिन यदि गाड़ी एक बार गति पकड़ लेती है तो फिर फर्रअे से दौड़ती है। बुजुर्ग निरक्षरों को पढ़ाने की पद्धति ‘आईपीसीएल’(इम्प्रूव्ड पेस आफ कन्टेंट एंड लर्निंग )इसकी सफलता की बानगी है।
विभिन्न ध्वनियों के बीच भेद व उसे लिखने में अंतर सीखने के लिए सुनने की बेहतर दक्षता विकसित करना अनिवार्य है और इस राह की बाधाओं को दूर करने में कहानी कहना या गैरपाठ्य पुस्तकों स चित्र, या कठपुतली या अन्य माध्यम के साथ कहानी कहना बेहद कारगर हथियार है। स या ष का भेद, तीन तरह की र की मात्रा का अनुप्रयोग व लेखन जैसी जटिलताएं सीखने में इस तरह की पुस्तकें व कहानियां रामबाण रही हैं।  काश प्राथमिक स्तर पर पाठ्य पुस्तकों का  वजन कम कर , रटने की पारंपरिक प्रक्रिया से परे खुउ चित्र व षब्द का सम्मिलन कर अपनी कहानी गढने व समझने जैसी प्रक्रियाओं को अपनाया जाए तो पढने-समझने और सीखने की प्रक्रिया ना केवल आसान हो जाएगी, वरना बच्चों के लिए भी खेल -खेल में सीखने जैसी होगी। जान लें कि प्राथमिक कक्षाओं में सीखने की पहली कड़ी है सुनने व सहेजने की दक्षता का विकास। आमतौर पर इसे एकालाप मान लिया जाता है यानि शिक्षक कहेगा व बच्चा सुनेगा। जब सुनने की क्षमता के विकास के लिए संवाद  की पद्धति अपनाई जाती है तो बच्चे में खुद को अभिव्यक्त करने की क्षमता का विकास होता है और यही पढने का प्रारंभ है। तो फिर इस गरमी के अवकाश में बच्चें को कुछ रंगबिरंगी किताबें दे कर देखें व उनकी भाषा का विकास खुद ब खुद हो जाएगा।


शनिवार, 5 मई 2018

Jinnah is our Past not history

जिन्ना हमारा अतीत है , इतिहास नहीं 

पंकज चतुर्वेदी 

यह बात जान लें कि जिन्ना भी जानता था कि भारत का मुसलमान उसकी अलग पाकिस्तान निति से सहमत नहीं है , जो इतने खून खराबे और अविश्वास के बाद भी अपने "मादरे वतन" में जमें रहे , उन्होंने साफ़ बता दिया था की जिन्ना से उनका इतेफाक नहीं है .आज ७० साल से ज्यादा बीत गए और अचानक जिन्ना का जिन्न कब्र से निकाल कर सारी कौम को सवाल में खड़ा करने का गंदा खेल रचा गया . मैं ऐसे कई लोगों को जानता हूँ जो उन दिनों जवानी में थे और अपनी गली के बाहर डंडा लिए अपने बाप को खड़ा देखें है, वह बाप लोगों को धमका कर पलायन से रोक रहा था - ' खबरदार उस तरफ गए, यहीं हम पैदा हुए, यहीं सुपुर्दे ख़ाक होंगे, हमारा मुल्क यही है "
एक बात जान लें भले ही अब तीन मुल्क हो गए लेकिन भारत, पकिस्तान और बंगलादेश का इतिहास, प्रागेतिहासिक तथ्य, पौराणिक और धार्मिक मान्यताएं , आज़ादी की लडाई, रिश्ते, वस्त्र, संघर्ष---- और बहुत कुछ-- साझी विरासत है, आज़ादी के संघर्ष में , उस दौरान सामाजिक और शिक्षिक आन्दोलन में जो लोग भी शामिल थे, उन्हें किसी भोगौलिक सीमा में नहीं बांटा जा सकता, भले हे अल्लामा इकबाल उस तरफ चले गए, लेकिन सारे जहां से अच्छा -- गीत आज भी देशवासियों के दिल और दिमाग पर राज करता हैं , जिन्ना का आज़ादी की लडाई में योगदान रहा है, सन १९३९ तक वह एक साझा मुल्क की आज़ादी का लड़ाका था- फिर पाकिस्तान बनाने की मांग, अंग्रेजों द्वारा उन्हें उकसाना-- कांग्रेस के भीतर की सियासत -- बहुत कुछ --- भयानक रक्तपात-- विभाजन ---. 
करवाने के लिए संकल्पित व्यक्ति था . उसके बाद वह पकिस्तान की मांग उठाने वाला हो गया और उसका चेहरे का रंग बदल गया, जान लें पकिस्तान की मांग का प्रारम्भ जिन्ना से नहीं हुआ . पहले महा सभा ने हिंदू राष्ट्र की मांग की, फिर ढाका के नवाब ने जमीदारों को एकत्र कर डराया कि यदि देश आज़ाद हुआ तों तुम्हारी जमीदारी चली जायेगी और पाकिस्तान का झंडा उठाया , इधर कांग्रेस में प्रखर हिंदू नेताओं का प्रादुर्भाव हुआ और उधर आज़ादी का आंदोलन धार्मिक आधार पर बाँटने लगा- उसमें ब्रितानी हुकूमत की क्या साजिश थी और जिन्ना, गांधी कहाँ धोखा खा गए -- वे बहुत अलग मसले हैं .
बहरहाल सावरकार भी तों जिन्ना की ही तरह थे - एक सावरकर वह था- जिसने १८५७ के क्रांति को सबसे पहली बार भारतीय परिपेक्ष्य में लिखा- अंग्रेज तों उसे सिपाही विद्रोह कहते थे, लेकिन सावरकार की पुस्तक ने बताया कि वह किसान-मजदूर -आम लोगों का विद्रोह था . सावरकार कई क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल रहे , कालापानी की सजा हुई और फिर उनका रंग बदल गया , सावरकर शायद कालापानी की भीषण त्रासदियों को सह नहीं पाए, माफ़ीनामा लिख कर रिहा हुए और उसके बाद जीवनपर्यंत अंग्रेजो के वफादार रहे, इसके लिए उन्हें मासिक वजीफा भी मिलता था
एक व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का आकलन देश के परिपेक्ष्य में किया जाता है - जिस तरह सावरकार के कालापानी के पहले के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता उसी तरह जिन्ना के सन १९३५ के पहले के देश की आज़ादी की लड़ाई के लिए संघर्ष को नकारा नहीं जा सकता .
बाकी जिन्हें इतिहास को पढ़ना नहीं है वे केवल भडकाऊ , मूर्खतापूर्ण और टकराव की बातें ही करेंगे
, कभी वक़्त मिले तों भा ज पा के वरिष्ठ नेता, काबुल तक आतंकवादियों को छोड़ने गए जसवंत सिंह की लिखी जिन्ना पर पुस्तक पढ़ लेना, राजपाल एंड सोंस ने हिंदी में छापी है , यह सूचना भक्तों के लिए नहीं है क्योंकि एक तों वे किताब पर आठ सौ खर्च नहीं करेंगे, दूसरा वे इतनी मोती पुस्तक पढ़ने का संयम और समय नहीं निकाल पायेंगे
सं २००७ में मैं जब कराची गया था तो सिंध विधान सभा के स्पीकर ने कराची बुक फेयर के उदघाटन के समय भारत की आई टी में तरक्की का जिक्र करते हुए उससे सीखने की बात की थी, उन्होंने गांधी का भी उल्लेख किया था . बाद में अनौपचारिक विमर्श में मैंने उनसे पूछा की दोनों मुल्क एक साथ आज़ाद हुए-- दोनों की ब्यूरोक्रेसी, सेना , नेता एक ही ट्रेनिगं के थे, लेकिन आप संभल नहीं पाए . ऐसा क्यों हुआ ? उनका जवाब था- इंडिया में संस्थाएं यानि institutions मजबूत हैं और हमारे यहाँ सियासत और सेना के आगे कोई संस्था नहीं हैं, इंडिया में संस्थाओं का सम्मान है और वह किसी भी हुकुमत या ताकत के सामने झुकती नहीं है .
खेद है की अब हम उस दौर में आ रहे हैं जहां एक तो पुराणी संस्ताहों को ढहाने का कम शुरू हो गया है, संस्थाओं में दखल दे कर उनके मूल चरित्र को बदलने को देश भक्ति माना जा रहा है .
जान लें कि कोई संस्था अपना स्वरुप सालों में और सतत अनुभवों से विकसित करती है और उसे नकारना ठीक उसी तरह है जैसे की दिल्ली के हुमायुनपुर में आठ सौ साल पुराने बलवान के अकाल के मकबरे को रातों रात मंदिर बनाना . आप मूर्ति भले ही रख दो, लेकिन इतिहास कैसे बदलोगे ?
अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में जिन्ना की तस्वीर या सर सैयद की तस्वीर इस लिए नहीं है कि वह यहाँ के मुसलमानों की नायक हैं , असल में यह इतिहास है , ऐसा ही इतिहास लाहौर के म्यूजियम ने हैन्जहान भगत सिंह और सिख गुरुओं से जुड़ीं कई यादिएँ , चित्र रखे हैं, कराची के म्यूजियम ने गांधी और नेहरु के भी चित्र हैं , शायद ऐसा ही बंगलादेश में भी हो -- हम तारीख को झुटला नहीं सकते-- हमें जिसने जो किया उसे उतना योगदान का उल्लेख करना होगा , भले ही जिन्ना हो या सावरकर --- सभी ने एक वक़्त के बाद कुछ मजबूरियों या अपेक्षाओं के अपनी निष्ठाएं बदलीं .
एएमयू की मौलाना आज़ाद लाइब्रेरी में 13.50 लाख पुस्तकों के साथ तमाम दुर्लभ पांडुलिपियां मौजूद हैं।1877 में स्थापित इस लाइब्रेरी में अकबर के दरबारी फ़ैज़ी द्वारा फ़ारसी में अनुवादित गीता है। 400 साल पुरानी फ़ारसी में अनुवादित महाभारत की पांडुलिपि है। तमिल भाषा में लिखे भोजपत्र हैं। कई शानदार पेटिंग और भित्ती चित्र हैं जिनमें तमाम हिंदू देवी देवता शामिल हैं। एएमयू का संग्रहालय में अनेक ऐतिहासिक महत्वपूर्ण वस्तुएँ हैं। इनमें सर सैयद अहमद का 27 देव प्रतिभाओं का वह कलेक्शन भी है जिसे उन्होंने अलग-अलग स्थानों का भ्रमण कर जुटाया था। इनमें जैन तीर्थंकर भगवान महावीर का स्तूप और स्तूप के चारों ओर आदिनाथ की 23 प्रतिमाएं शामिल हैं। सुनहरे पत्थर से बने पिलर में कंकरीट की सात देव प्रतिमाएं हैं। एटा और फतेहपुर सीकरी से खोजे गए बर्तन, पत्थर और लोहे के हथियार हैं। शेष शैया पर लेटे भगवान विष्णु, कंकरीट के सूर्यदेव हैं। महाभारत काल की भी कई चीजें हैं। यहां तक कि डायनासोर के अवशेष भी हैं. जाहिर है की ए एम् यु ने धार्मिक तंगदिली नहीं दिखाई और वह एक सम्पूर्ण हिन्दुस्तानी संस्था बन कर उभरा . 
वरिष्ठ पत्रकार पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ, जो कि ए एम यू के छात्र रहे हैं, ने बड़ा भंडाफोड़ किया। ये जिन्ना विवाद वहां के कुलपति ने स्थानीय सांसद के साथ साजिश कर उपजाया है क्योंकि वीसी साहब बड़े भ्र्ष्टाचार में लिप्त हैं और उससे ध्यान भटकाने के लिए यह लम्प्टायी उछाली गयी।
जो जिन्ना के आज़ादी की लडाई या विश्विद्यालय या आधुनिक शिक्षा के योगदान को नकार रहे हैं वे खुद बता दें की उनके आदर्श उस दौर में क्या कर रहे थे ? उनका क्या योगदान या भूमिका थी ?? फर्जी, अफवाही नहीं दस्तावेज में ??
मुल्क के सामने अभी तक की सबसे बड़ी बेरोजगारी का संकट खड़ा है, देश मंदी से जूझ रहा है ऐसे में ऐसे विवाद संस्थाओं को कमजोर करते हैं, हमारी छबी विश्व में दूषित अक्र्ते है, इससे निवेश और व्यापार दोनों के लिए प्रतिकूल माहौल पैदा होता है,
काश कुछ लोग युवाओं के रोजगार के मसले पर, उच्च शिक्षा के व्यावसायिक नज़रिए पर स्वरोजगार के अनुरूप माहौल तैयार करने पर अपने झंडे ले कर आते--
जिन्ना हमारे अतीत का हिस्सा हैं इतिहास नहीं क्योंकि इतिहास केवल नायकों को याद रखता है

शुक्रवार, 4 मई 2018

dangerous school transport system

बहुत कठिन है स्कूल तक की राह !

पंकज चतुर्वेदी



अभी 26 अप्रैल को ही जब उ.प्र. के कुशीनगर के ग्रामीण अंचल में जब एक लापरवाह चालक जब बच्चों से भरे वाहन को जब ट्रेन से भिड़ा रहा था, लगभग उसी समय देश की राजधानी दिल्ली में एक वेन गलत दिशा से उछलती हुई यू टर्न पर पलटती है और गलत दिशा में अंधाधुंध चल रहे एक दूघ के टैंकर से टकरा जाती है। एक बच्ची की वहीं मौत हो जाती हे। इस घटना में 17 बच्चे घयल हुए। हां! 17 बच्चे। वह वैन जो कि महज पांच सवारी बैठने के लिए परिवहन विभाग से पास थी, वह वैन जो कि कामर्शियल नही,ं बल्कि निजी इस्तेमाल के लिए थी, उसमें 18 बच्चे भरे थे। यही नहीं जिस टैंकर से दुर्घटना हुई उसका नौ बार यातायात नियम तोड़ने पर चालान हो चुका था और वैन का भी तीन बार। यह बानगी है कि बच्चों के स्कूल पहुंचने का मार्ग कितना खतरनाक और आशंकाओं से भरा है।

 एक बात जान लें कि यह केवल एक ही ऐसी वैन नहीं थी जिसमें इतने बच्चे भरे होते हैं या लापरवाही से, बेतरतीब व अंधाधुध भागती हैं, अकेले दिल्ली एनसीआर में इनकी संख्या पांच हजार से अधिक हैं जिसमें हर दिन पांच लाख बच्चे अपनी जिंदगी दांव पर लगाते हैं। पूरे देश में इस तरह के वाहन लाखांे में है जिन्हें किसी कानून की परवाह नहीं होती और सरकारी महकमे जानबूझ कर भी उनसे बेपरवाह होते हैं।
देशभर में आए रोज ऐसे हादसे होते रहते हैं, जिसमें स्कूली बच्चे सड़क पर किसी अन्य की कोताही के चलते काल के गाल में समा जाते हैं । दो दिन उनकी चर्चा होती है और फिर उसको बिसरा कर सड़क पर बच्चें को स्कूल पहुंचाने का मौत का खेल यथावत जारी रहता है। कोई 15 साल पहले दिल्ली के एक संकरे वजीराबाद पुल से एक सकूली बस के लुढ़कने से कई बच्चों की मौत के बाद सरकार ने अदालत की फटकार के बाद कई दिशा-निर्देश जारी किए थे । इनमें से अधिकांश कागजों पर जीवंत है। ना तो उतने अनुभवी चालक है। ना ही बसों में स्पीड गवर्नर। जो कानून व्यावसायिक हितों में आड़े आते हैं, वे हर रोज चौराहों पर बिकते दिख जाएंगे । दिल्ल्ी तो बस बानगी है देश के हर षहर-कस्बे में हालात इतने ही भयावह हैं।

बीते कुछ सालों के दौरान आम आदमी शिक्षा के प्रति जागरूक हुआ है, स्कलूों में बच्चों का पंजीकरण बढ़ा है। इसके साथ ही स्कूल में ब्लेक बोर्ड, षौचालय, बिजली, पुस्तकालय जैसे मसलों से लोगों के सरोकार बढ़े हैं।, लेकिन जो सबसे गंभीर मसला है कि बच्चे स्कूल तक सुरक्षित कैसे पहुंचें, इस पर ना तो सरकारी और ना ही सामाजिक स्तर पर कोई विचार हो पा रहा है। इसी की परिणति है कि आए रोज देशभर से स्कूल आ-जा रहे बच्चों की जान जोखिम में पड़ने के दर्दनाक वाकिए सुनाई देते रहते हैं। परिवहन को प्रायः पुलिस की ही तरह खाकी वर्दी पहनने वाले परिवहन विभाग का मसला मान कर उससे मुंह मोड़ लिया जाता है। असली सवाल तो यह है कि क्या दिल्ली ही नहीं देशभर के बच्चों को स्कूल आने-जाने के सुरक्षित साधन मिले हुए हैं । भोपाल, जयपुर जैसे राजधानी वाले शहर ही नहीं, मेरठ, भागलपुर या इंदौर जैसे हजारों शहरों से ले कर कस्बों तक स्कूलों में बच्चों की आमद जिस तरह से बढ़ी है, उसको देखते हुए बच्चों के सुरक्षित, सहज और सस्ते आवागमन पर जिस तरह की नीति की जरूरत है, वह नदारद है । विभिन्न विदेशी सहायता से संचालित हो रही ‘सर्व शिक्षा अभियान’ जैसी योजनाओं के कारण देशभर के स्कूलों में बच्चों की संख्या बढ़ी है, लेकिन बच्चे स्कूल तक पहुंचें कैसे ? इस पर सरकार ने सोचा तक नहीं हैं ।

दिल्ली के धुर पूर्व में उत्तर प्रदेश को छूती एक कालोनी है - दिलशाद गार्डन । दिलशाद गार्डन निम्न और मध्यम लोगों की बड़ी बस्ती हैं और उसके साथ ही सीमापुरी, ताहिरपुर जैसे लम भी हैं । इस कालोनी के दो किलोमीटर के क्षेत्रफल में 65 स्कूल हैं । अधिकांश प्राईवेट हैं तथा इनमें से कई 12वीं तक हैं । यहां लगभग 22 हजार बच्चे पढ़ते हैं । इन स्कूलों की अपनी बसों की संख्या बामुश्किल 20 हैं , यानी 1000-1500 बच्चे इनसे स्कूल आते हैं । शेष का क्या होता है ? यह देखना रोंगेटे खड़े कर देने वाला होता हैं । सभी स्कूलों का समय लगभग एक ही हैं , सुबह साढ़े सात से आठ बजे के बीच । यहां की सड़कें हर सुबह मारूती वेन, निजी दुपहिया वाहनों और रिक्शों से भरी होती हैं और महीने में तीन-चार बार  यहां घंटों जाम लगा होता हैं । पांच लोगों के बैठने के लिए परिवहन विभाग से लाईसेंस पाए वेन में 12 से 15 बच्चे ठुंसे होते हैं । अधिकतम तीन लोगों के बैठने लायक साईकिल रिक्शे पर लकड़ी की लंबी सी बैंच लगा कर दो दर्जन बच्चों को बैठाया हुआ होता हैं । बैटरी रिक्शे में दस बच्चे ‘‘आराम’’ से घुसते हैं। दुपहिया पर बगैर हैलमेट लगाए अभिभावक तीन-तीन बच्चों को बैठाए रफ्तार से सरपट होते दिख जाते हैं । आए रोज एक्सीडेंट होते हैं, क्योंकि ठीक यही समय कालोनी के लोगों का अपने काम पर जाने का होता हैं । ऐसा नहीं है कि स्कूल की बसें निरापद हैं , वे भी 52 सीटर बसों में 80 तक बच्चे बैठा लेते हैं । यहां यह भी गौर करना जरूरी है कि अधिकांश स्कूलों के लिए निजी बसों को किराए पर ले कर बच्चों की ढुलाई करवाना एक अच्छा मुनाफे का सौदा है। ऐसी बसें स्कूल करने के बाद किसी रूट पर चार्टेड की तरह चलती हैं। तभी बच्चों को उतारना और फिर जल्दी-जल्दी अपनी अगली ट्रिप करने की फिराक में ये बस वाले यह ध्यान रखते ही नहीं है कि बच्चों का परिवहन कितना संवेदनशील मसला होता है। और तो और ऐसे स्कूल कड़ाके की ठंड में भी अपना समय नहीं बदलते हैं, क्योंकि इसके लिए उनकी बसों को देर होगी और इन हालातों में वे अपने अगले अनुबंध पर नहीं पहुंच सकेंगे।
दिलशाद गार्डन तो महज एक उदाहरण है, देश के हर उस शहर में जिसकी आबादी एक लाख के आसपास है, ठीक यही दृश्य देखा जा सकता हैं । यह सवाल उन लोगों का है जो देश का भविष्य कहलाते है। और उम्र के इस दौर में वे जो कुछ देख-सुन रहे हैं, उसका प्रभाव उन पर जिंदगीभर रहेगा । जब वे देखते हैं कि सड़क सुरक्षा या ट्राफिक कानूनों की धज्जियां उनका स्कूल या अभिभावक कैसे उड़ाते हैं तो उन बच्चों से कतई उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे देश के कानूनों का सम्मान करेंगे । हां, जरूरत पड़ने पर कुछ नारे जरूर लगा लेंगे  ।
ग्रामीण अंचलों में स्कूलों की दूरी,  आर्थिक-सामाजिक असमानताएं बच्चों के स्कूल पहुंचने में बाधक कारक रहे हैं । शहरी संस्कृति में लाख बुराईयों के बावजूद यह तो अच्छाई रही है कि यहां बच्चों को स्कूल भेजना, अच्छे से अच्छे स्कूल में भेजना सम्मान की बात माना जता हैं ।  छोटे शहरों में भी आबादी के लिहाज से सड़कों का सिकुडना तथा वाहनों की बेतहाशा बढ़ौतरी हुई हैं । इसका सीधा असर स्कूल जाने वाले बच्चों की सुरक्षा पर पड़ रहा हैं । पहले बच्चों को अकेले या ‘‘माईं’’ के साथ एक-दो किलोमीटर दूर स्कूल पैदल भेजने में कहीं कोई दिक्कत नहीं होती थी । समय भी दिन में 10 बजे से चार बजे तक का होता था, सो तैयार होने, स्कूल तक पहुंचने के लिए बच्चों के पास पर्याप्त समय होता था । अब तो बच्चों को सुबह  छह या साढ़े छह बजे घर से निकलना होता है और घर लौटने में चार बजना मामूली बात हैं । सड़क, ट्राफिक, असुरक्षा के बीच बच्चों के इस तरह ज्ञानार्जन से उनमें एक तरह की कुंठा,  हताशा और जल्दबाजी के विकार उपज रहे हैं । शहरों के स्कूलों का परिवहन खर्चा तो स्कूली फीस के लगभग बराबर है और इसे चुकाना कई अभिभावकों को बेहद अखरता हैं ।

जब सरकार स्कूलों में पंजीयन, शिक्षा की गुणवत्ता, स्कूल परिसर को मनेारंजक और आधुनिक बनाने जैसे कार्य कर रही है तो बच्चों के स्कूल तक पहुंचने की प्रक्रिया को निरापद बनाना भी प्राथमिकता की सूची में होना चाहिए । विडंबना है कि केंद्रीय विद्यालयों के बच्चे भी निजी परिवहन के मनमाने रवैये का शिकार हैं । पब्लिक स्कूलों की परिवहन व्यवस्था भी बहुत कुछ निजी आपरेटरों के हाथ में हैं, जिन्हें बच्चों को स्कूल छोड़ कर तुरत-फुरत अपने अगले ट्रिप पर जाना होता है ।
इस दिशा में बच्चों के स्कूल का समय सुबह 10 बजे से करना, बच्चों के अचागमन के लिए सुरक्षित परिवहन की व्यवस्था करना, स्कूली बच्चों के लिए  प्रयुक्त वाहनों में ओवरलोडिंग या अधिक रफ्तार से चलाने पर कड़ी सजा का प्रावधान करना, साईकिल रिक्शा जैसे असुरक्षित साधनों पर या तो रोक लगाना या फिर उसके लिए कड़े मानदंड तय करना समय की मंाग हैं । आज दिल्ली में वैन के रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया का सीधा असर बच्चों के अभिभावकों पर पड़ना हैं । नए टैक्सों व कानूनों के कारण बढ़े खर्चे को उन्हें ही भोगता होगा । जाहिर है कि खर्चा कम करने के लिए वे हथकंडे अपनाए जाएंगे जिनसे कानून टूटता हैं ।
सरकार में बैठे लोगों को इस बात को आभास होना आवश्यक है कि बच्चे राष्ट्र की धरोहर हैं तथा उन्हें पलने-बढ़ने-पढ़ने और खेलने का अनुकूल वातावरण देना समाज और सरकार दोनों की  नैतिक व विधायी जिम्मेदारी हैं । नेता अपने आवागमन और सुरक्षा के लिए जितना धन व्यय करते हैं, उसके कुछ ही प्रतिशत धन से बच्चों को किलकारी के साथ स्कूल भेजने की व्यवस्था की जा सकती हैं ।

पंकज चतुर्वेदी


Why was the elephant not a companion?

    हाथी क्यों न रहा साथी ?                                                                    पंकज चतुर्वेदी   हाथियों और मानव के ब...