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रविवार, 17 जून 2018

Nation can not survive without rivers


देखो नदियां ‘‘डूब’’ रही हैं


दिल्ली और हरियाणा सरकार सुप्रीम कोर्ट में सन 1994 के समझौते को लेकर ज्यादा पानी के लिए झगड़ रहे हैं, जबकि हकीकत यह है कि यमुना में ही पानी सामान्य से पांच फुट नीचे रह गया है। यमुना में पानी कम होने का सीधा असर उसके किनारे बसे गांवों की खेती ही नहीं, पशु पालन और भूजल पर भी पड़ा है। सनद रहे कि दिल्ली- हरियाणा के बीच हुए अनुबंध के अनुसार हरियाणा को हर दिन 450 क्यूसेक पानी दिल्ली के लिए छोड़ना चाहिए, लेकिन वह अभी महज 330 क्यूसेक पानी ही दे पा रहा है। अब अदालत समझौते तो लागू कर सकती है लेकिन नदी में घटते जल स्तर पर तो समाज को ही सोचना होगा। बिहार राज्य में ही उन्नीसवीं सदी तक हिमालय से चल कर कोई छह हजार नदियां यहां तक आती थीं जो संख्या आज घट कर बामुश्किल 600 रह गई है। मधुबनी-सुपौल में बहने वाली नदी तिलयुगाअ भी कुछ दशक पहले तक कोसी से भी बड़ी कहलाती थी, आज यह कोसी की सहायक नदी बन गई है। मध्यप्रदेश में नर्मदा, बेतवा, काली सिंध आदि में लगातार पानी की गहराई घट रही है। दुखद है कि जब खेती, उद्योग और पेयजल की बढ़ती मांग के कारण जल संकट भयावह हो रहा है वहीं जल को सहेज कर शुद्ध रखने वाली नदियां उथली, गंदी और जल-हीन हो रही हैं। 
हमारे देश में 13 बड़े, 45 मध्यम और 55 लघु जलग्रहण क्षेत्र हैं। जलग्रहण क्षेत्र उस संपूर्ण इलाके को कहा जाता है, जहां से पानी बह कर नदियों में आता है। इसमें हिंमखंड, सहायक नदियां, नाले आदि शामिल होते हैं। जिन नदियों का जलग्रहण क्षेत्र 20 हजार वर्ग किलोमीटर से बड़ा होता है, उन्हें बड़ा-नदी जलग्रहण क्षेत्र कहते हैं। 20 हजार से दो हजार वर्ग किलोमीटर वाले को मध्यम, दो हजार से कम वाले को लघु जल ग्रहण क्षेत्र कहा जाता है। इस मापदंड के अनुसार गंगा, सिंधु, गोदावरी, कृष्णा, ब्रह्मपुत्र, नर्मदा, तापी, कावेरी, पेन्नार, माही, ब्रह्मणी, महानदी, और साबरमति बड़े जल ग्रहण क्षेत्र वाली नदियां हैं। इनमें से तीन नदियां - गंगा, सिंधु और ब्रह्मपुत्र हिमालय के हिमखंडों के पिघलने से अवतरित होती हैं। इन सदानीरा नदियों को ‘हिमालयी नदी’ कहा जाता है। शेष दस को पठारी नदी कहते हैं, जो मूलतः वर्षा पर निर्भर होती हैं।
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यह आंकड़ा वैसे बड़ा लुभावना लगता है कि देश का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 32.80 लाख वर्ग किलोमीटर है, जबकि सभी नदियों को सम्मिलत जलग्रहण क्षेत्र 30.50 लाख वर्ग किलोमीटर है। भारतीय नदियों के मार्ग से हर साल 1645 घन किलोलीटर पानी बहता है जो सारी दुनिया की कुल नदियों का 4.445 प्रतिशत है।  आंकडों के आधार पर हम पानी के मामले में पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा समृद्ध हैं, लेकिन चिंता का विषय यह है कि पूरे पानी का कोई 85 फीसदी बारिश के तीन महीनों में समुद्र की ओर बह जाता है और नदियां सूखी रह जाती हैं। 
सन 2009 में  केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने देश में कुल दूषित नदियों की संख्या  121 पाई थी जो अब 275 हो चुकी है। यही नहीं आठ साल पहले नदियों के कुल 150 हिस्सों में प्रदूषण पाया गया था जो अब 302 हो गया है।  बोर्ड ने 29 राज्यों व छह केंद्र शासित प्रदेशों की कुल 445 नदियें पर अध्ययन किया, जिनमें से 225 का जल  बेहद खराब हालत में मिला। इन नदियों के किनारे बसे शहरों 650 के 302 स्थानों पर सन 2009 में 38 हाजर एमएलडी सीवर का गंदा पानी नदियों में गिरता था जो कि आज बढ़ कर 62 हजार एमएलडी  हो गया। चिंता की बात है कि कहीं भी सीवर ट्रीटमेंट प्लांट की क्षमता नहीं बढ़ाई गई है। सरकारी अध्ययन में 34 नदियों में बायो केमिकल आक्सीजन डिमांड यानि बीओडी की मात्रा 30 मिलीग्राम प्रति लीटर से अधिक पाई गई और यह उन नदियों के अस्तित्व के लिए बड़े संकट की ओर इशारा करता है। 
भारत में प्रदूषित नदियों के बहाव का इलाका 12,363 किलोमीटर मापा गया है इनमें से 1,145 किलोमीटर का क्षेत्र पहले स्तर यानि बेहद दूषित श्रेणी का है।  दिल्ली में यमुना इस पर शीर्ष पर है, इसके बाद महाराष्ट्र का नंबर आता है जहां 43 नदियां मरने की कगार पर हैं।  असम में 28, मध्यप्रदेश में 21, गुजरात में 17, कर्नाटक में 15, केरल में 13, बंगाल में 17, उप्र में 13, मणिपुर और ओडिशा में 12-12, मेघालय में दस और कश्मीर में नौ नदियां अपने अस्तित्व के लिए तड़प रही हैं। ऐसी नदियों के कोई 50 किलोमीटर इलाके के खेतों की उत्पादन क्षमता लगभग पूरी तरह समाप्त हो गई है। इलाके की अधिकांश आबादी चर्मरोग, सांस की बीमारी और पेट के रोगों से बेहाल है। भूजल विभाग का एक सर्वे गवाह है कि नदी के किनारे हैंडपंपों से निकल रहे पानी में क्षारीयता इतनी अधिक है कि यह ना तो इंसान के लायक है, ना ही खेती के। सरकार के ही पर्यावरण और प्रदूषण विभाग बीते 20 सालों से चेताते रहते हैं लेकिन आधुनिकता का लोभ पूरे सिस्टम को लापरवाह बना रहा है। 
जानकर आश्चर्य होगा कि नदियों की मुक्ति का एक कानून गत 62 सालों से किसी लाल बस्ते में बंद है। संसद ने सन 1956 में रिवर बोर्ड एक्ट पारित किया था। इस एक्ट की धारा चार में प्रावधन है कि केंद्र सरकार एक से अधिक राज्यों में बहने वाली नदियों के लिए राज्यों से परामर्श कर बोर्ड बना सकती हे। इन बोर्ड के पास बेहद ताकतवर कानून का प्रावधान इस एक्ट में है, जैसे कि जलापूर्ति, प्रदूषण आदि के स्वयं दिशा निर्देश तैयार, नदियों के किनारे हरियाली, बेसिन निर्माण और योजनओं के क्रियान्वयन की निगरानी आदि करना। 
नदियों के संरक्षण का इतना बड़ा कानून उपलब्ध है लेकिन आज तक किसी भी नदी के लिए रिवर बोर्ड बनया ही नहीं गया। संविधान के कार्यों की समीक्षा के लिए गठित वैंकटचलैया आयोग ने तो अपनी रिपोर्ट में इसे एक ‘मृत कानून’ करार दिया था। द्वितीय प्रशासनिक  सुधार आयोग ने भी कई विकसित देशों का उदाहरण देते हुए इस अधिनियम को गंभीरता से लागू करने की सिफारिश की थी। यह बानगी है कि हमारा समाज  अपनी नदिंया के लिए अस्तित्व के प्रति कितना लापरवाह है ।
असल में इन नदियों को मरने की कगार पर पहुंचाने वाला यही समाज और सरकार की नीतियां हैं। सभी जानते हैं कि इस दौर में विकास का पैमाना निर्माण कार्य है -भवन, सड़क, पुल आदि-आदि। निर्माण में सीमेंट, लोहे के साथ दूसरी अनिवार्य वस्तु है रेत या बालू। यह एक ऐसा उत्पाद है जिसे किसी कारखाने में नहीं बनाया जा सकता। यह नदियों के बहाव के साथ आती है और तट पर एकत्र होती है। प्रकृति का नियम यही है कि किनारे पर स्वतः आई इस रेत को  समाज अपने काम में लाए, लेकिन गत एक दशक के दौरान हर छोटी-बड़ी नदी का सीना छेद कर मशीनों द्वारा रेत निकाली जा रही है। इसके लिए नदी के नैसर्गिक मार्ग को बदला जाता है, उसे बेतरतीब खोदा या गहरा किया जाता है। जान लें कि नदी के जल बहाव क्षेत्र में रेत की परत ना केवल बहते जल को शुद्ध रखती है, बल्कि वह उसमें मिट्टी के मिलान से दूषित होने और जल को भूगर्भ में जज्ब होने से भी बचाती है। जब नदी के बहाव पर पॉकलैंड व जेसीबी मशीनों से प्रहार होता है तो उसका पूरा पर्यावरण ही बदल जाता है। 
आज नदियों को जिस बढ़ते प्रदूषण से खतरा है उसे भी समाज की कथित आधुनिक जीवन शैली ने ही विस्तार दिया है। कल-कारखानों की निकासी, घरों की गंदगी, खेतों में मिलाए जा रहे रायायनिक दवा व खादों का हिस्सा, भूमि कटाव, और भी कई ऐसे कारक हैं जो नदी के जल को जहर बना रहे हैं। अनुमान है कि जितने जल का उपयोग किया जाता है, उसके मात्र 20 प्रतिषत की ही खपत होती है, षेश 80 फीसदी सारा कचरा समेटे बाहर आ जाता है। यही अपशिष्ट या मल-जल कहा जाता है, जो नदियों का दुश्मन  है। भले ही हम कारखानों को दोशी बताएं, लेकिन नदियों की गंदगी का तीन चौथाई  हिस्सा घरेलू मल-जल ही है।  हर घर में शौचालय, घरों मे स्वच्छता के नाम पर बहुत से साबुन और केमिकल का इस्तेमाल, शहरों में मल-जल के शुद्धिकरण की लचर व्यवस्था और नदियों के किनारे हुए बेतरतीब अतिक्रमण नदियो के बड़े दुश्मन बन कर उभरे हैं। 
                       (पंकज चतुर्वेदी पानी और पर्यावरण के जानकार हैं।)

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