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शनिवार, 14 जुलाई 2018

how can we get rid off bangladeshi



कैसे बाहर हों बगैर बुलाए बांग्लादेशी 

पंकज चतुर्वेदी


इन दिनों देश की सुरक्षा एजंसियों के निशाने पर बांग्लादेशी हैं। उनकी भाषा, रहन-सहन और नकली दस्तावेज इस कदर हमारी जमीन से घुलमिल गए हैं कि उन्हें विदेशी सिद्ध करना लगभग नामुमकिन हो चुका है। जब - जब हमारेे पड़ोसी देशों में अशांति हुई, अंदरूनी मतभेद हुए या कोई प्राकृतिक विपदा आई ; वहां के लोग षरण लेने के लिए भारत में घुस आए । ये लोग आते तो दीन हीन याचक बन कर हैं, फिर अपने देशों को लौटने को राजी नहीं होते हैं । आजादी मिलने के बाद से ही हमारा देश ऐसे बिन बुलाए मेहमानों को झेल रहा है । ऐसे लोगो को बाहर खदेड़ने के लिए जब कोई बात हुई, सियासत व वोटों की छीना-झपटी में उलझ कर रह गई । आधार , राष्ट्रीय पहचान पंजी जैसे प्रयोगों में ये घुसपैठिये सेंध लगा चुके हैं। गौरतलब है कि राजस्थान में ऐसे कई हिन्दु हैं जो कि पाकिस्तान से हमारे यहां आ कर अवैध रूप से रह रहे हैं और उनको ध्यान में रख कर सरकार अवैध प्रवासियों के बारे में किसी दौहरी नीति पर विचार कर रही है । असम में भी विदेशियों को बाहर करने की प्रक्रिया में धर्मगत भेदभाव विवाद का कारण बना हुआ है।

आज जनसंख्या विस्फोट से देश की व्यवस्था लडखड़ा गई है । मूल नागरिकों के सामने भोजन, निवास, सफाई, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं का अभाव दिनों -दिन गंभीर  होता जा रहा है । तब लगता है कि षरणार्थी बन कर आए या घुसपैठिये  करोड़ों विदेशियों को बाहर निकालना ही श्रैयस्कर होगा । हमारे देश में बसे विदेशियों का महज 10 फीसदी ही वैध है । षेश लोग कानून को धता बता कर भारतीयों के हक नाजायज तौर पर बांट रहे हैं । ये लोग यहां के बाशिंदों की रोटी तो छीन ही रहे हैं, देश के सामाजिक व आर्थिक समीकरण भी इनके कारण गड़बड़ा रहे हैं  । और अब तो देश के कई गंभीर अपराधों में विदेशियों के दिमाग होने से आंतरिक सुरक्षा को खतरा पैदा हो गया है ।
अनुमान है कि आज कोई दस करोड़ के करीब बांग्लादेशी हमारे देश में जबरिया रह रहे हैं। 1971 की लड़ाई के समय लगभग 70 लाख बांग्लादेशी(उस समय का पूर्वी पाकिस्तान) इधर आए थे । अलग देश बनने के बाद कुछ लाख लौटे भी । पर उसके बाद भुखमरी, बेरोजगारी के शिकार बांग्लादेशियों का हमारे यहां घुस आना अनवरत जारी रहा । पश्चिम बंगाल, असम, बिहार, त्रिपुरा  के सीमावर्ती  जिलों की आबादी हर साल बैतहाशा बढ़ रही है । नादिया जिला (प बंगाल) की आबादी 1981 में 29 लाख थी । 1986 में यह 45 लाख, 1995 में 60 लाख और आज 65 लाख को पार कर चुकी है । बिहार में पूर्णिया, किशनगंज, कटिहार, सहरसा आदि जिलों की जनसंख्या में अचानक वृद्धि का कारण वहां बांग्लादेशियों की अचानक आमद ही है ।
raj express bhopal 16-7-18

असम में 50 लाख से अधिक विदेशियों के होने पर सालों खूनी राजनीति हुई । सुप्रीम कोर्ट के एक महत्वपूर्ण निर्णय के बाद विदेशी नागरिक पहचान कानून को लागू करने में राज्य सरकार का ढुलमुल रवैया राज्य में नए तनाव पैदा कर सकता है । अरूणाचल प्रदेश में मुस्लिम आबादी में बढ़ौतरी सालाना 135.01 प्रतिशत है, जबकि यहां की औसत वृद्धि 38.63 है । इसी तरह पश्चिम बंगाल की जनसंख्या बढ़ौतरी की दर औसतन 24 फीसदी के आसपास है, लेकिन मुस्लिम आबादी का विस्तार 37 प्रतिशत से अधिक है । यही हाल मणिपुर व त्रिपुरा का भी है । जाहिर है कि इसका मूल कारण बांग्लादेशियों का निर्बाध रूप से आना, यहां बसना और निवासी होने के कागजात हांसिल करना है । कोलकता में तो अवैध बांग्लादेशी बड़े स्मगलर और बदमाश बन कर व्यवस्था के सामने चुनौति बने हुए हैं ।
राजधानी दिल्ली में सीमापुरी हो या यमुना पुश्ते की कई किलोमीटर में फेैली हुई झुग्गियां, लाखेंा बांग्लादेशी डटे हुए हैं । ये भाशा, खनपान, वेशभूशा के कारण स्थानीय बंगालियों से घुलमिल जाते हैं । इनकी बड़ी संख्या इलाके में गंदगी, बिजली, पानी की चोरी ही नहीं, बल्कि डकैती, चोरी, जासूसी व हथियारों की तस्करी बैखौफ करते हैं । सीमावर्ती नोएडा व गाजियाबाद में भी इनका आतंक है । इन्हें खदेड़ने के कई अभियान चले । कुछ सौ लोग गाहे-बगाहे सीमा से दूसरी ओर ढकेले भी गए । लेकिन बांग्लादेश अपने ही लोगों को अपनाता नहीं है । फिर वे बगैर किसी दिक्कत के कुछ ही दिन बाद यहां लौट आते हैं । जान कर अचरज होगा कि बांग्लादेशी बदमाशों का नेटवर्क इतना सशक्त है कि वे चोरी के माल को हवाला के जरिए उस पार भेज देते हैं । दिल्ली व करीबी नगरों में इनकी आबादी 10 लाख से अधिक हैं । सभी नाजायज बाशिंदों के आका सभी सियासती पार्टियों में हैं । इसी लिए इन्हें खदेड़ने के हर बार के अभियानों की हफ्ते-दो हफ्ते में हवा निकल जाती है ।
सीमा सुरक्षा बल यानी बीएसएफ की मानें तो भारत-बांग्लादेश सीमा पर स्थित आठ चेक पोस्टों से हर रोज कोई 6400 लोग वैध कागजों के साथ सीमा पार करते हैं और इनमें से 4480 कभी वापिस नहीं जाते। औसतन हर साल 16 लाख बांग्लादेशी भारत की सीमा में आ कर यहीं के हो कर रह जाते हैं।सरकारी आंकड़ा है कि सन 2000 से 2009 के बीच कोई एक करोड़ 29 लाख बांग्लादेशी बाकायदा पासपोर्ट-वीजा ले कर भारत आए व वापिस नहीं गए। असम तो अवैध बांग्लादेशियों की  पसंदीदा जगह है। सन 1985 से अभी तक महज 3000 अवैध आप्रवासियों को ही वापिस भेजा जा सका है।  राज्य की अदालतों में अवैध निवासियों की पहचान और उन्हें वापिस भेजने के कोई 40 हजार मामले लंबित हैं। अवैध रूप से घुसने व रहने वाले स्थानीय लोगों में षादी करके यहां अपना समाज बना-बढ़ा रहे हैं।
भारत में बस गए करोडों़ से अधिक विदेशियों के खाने -पीने, रहने, सार्वजनिक सेवाओं के उपयोग का खर्च न्यूनतम पच्चीस रूपए रोज भी लगाया जाए तो यह राशि सालाना किसी राज्य के कुल बजट के बराबर हो जाएगी । जाहिर है कि देश में उपलब्ध रोजगार के अवसर, सरकारी सबसिडी वाली सुविधाओं पर से इन बिन बुलाए मेहमानों का नाजायज कब्जा हटा दिया जाए तो भारत की मौजूदा गरीबी रेखा में खासा गिराव आएगा ।
इन घुसपैठियों की जहां भी बस्तियां होती हैं, वहां गंदगी और अनाचार का बोलबाला होता है । ये कुंठित लोग पलायन से उपजी अस्थिरता के कारण जीवन से निराश होते हैं । इन सबका विकृत असर हमारे सामाजिक परिवेश पर भी बड़ी गहराई से पड़ रहा है । हमारे पड़ोसी देशों से हमारे ताल्लुकात इन्हीं घुसपैठियों के कारण तनावपूर्ण भी हैं । इस तरह ये विदेशी हमारे सामाजिक, आर्थिक और अंतरराश्ट्रीय पहलुओं को आहत कर रहे हैं ।
दिनों -दिन गंभीर हो रही इस समस्या से निबटने के लिए सरकार तत्काल ही कोई अलग से महकमा बना ले तो बेहतर होगा, जिसमें प्रशासन, पुलिस के अलावा मानवाधिकार व स्वयंसेवी संस्थाओं के लेाग भी हों ं। साथ ही सीमा को चोरी -छिपे पार करने के रैक्ेट को तोड़ना होगा । वैसे तो हमारी सीमाएं बहुत बड़ी हैं, लेकिन यह अब किसी से छिपा नहीं हैं कि बांग्लादेश व पाकिस्तान सीमा पर मानव तस्करी का बाकायदा धंधा चल रहा है, जो कि सरकारी कारिंदों की मिलीभगत के बगैर संभव ही नहीं हैं ।
आमतौर पर विदेशियों को खदेड़ने की बातें सांप्रदायिक रंग ले लेती हैं । सबसे पहले तो इस समस्या को किसी जाति या संप्रदाय के विरूद्ध नहीं अपितु देश के लिए खतरे के रूप में लेने की सशक्त राजनैतिक इच्छा षक्ति का प्रदर्शन करना होगा । इस देश में देश का मुसलमान गर्व से और समान अधिकार से रहे, यह सुनिश्चित करने के बाद इस तथ्य पर आम सहमति बनाना जरूरी है कि ये बाहरी लोग हमारे संसाधनों पर डाका डाल रहे हैं और इनका किसी जातिविशेश से कोई लेना देना नहीं है ।
यहां बसे विदेशियों की पहचान और फिर उन्हें वापिस भेजना एक जटिल प्रक्रिया है । बांग्ला देश अपने लोगों की वापिसी सहजता से नहीं करेगा । इस मामले में सियासती पार्टियों का संयम भी महति है । वर्ग विशेश के वोटों के लालच में इस सामाजिक समस्या को धर्म आधारित बना दिया जाता है ।

सावधान सुलग रहा है असम

पंकज चतुर्वेदी

बहुप्रतिक्षित राष्ट्रीय नागरिक पंजी यानि एनआरसी का पहला ड्राफ्ट आते ही सीमावर्ती राज्य असम में तनाव बढ़ गया है। सूची में घोषित आतंकी व लंबे समय से विदेश में रहे परेश बरूआ , अरूणोदय दहोटिया का नाम तो है लेकिन दो सांसद सहित कई विधायकों का नाम इसमें है ही नहीं। होजाई से भाजपा विधायक शिलादित्य देव, गोलकगंज विधायक अश्विनी राय सरकार रूपालीहाट से कांग्रस विधायक नूरूल हूदा, अंगूरलता डेका, बदरूद्दीन अजमल सहित कई ऐसे नामों को राज्य या देश की नागरिकता सूची में स्थान नहीं मिला है जोकि पीढ़ियों से राज्य में रह रहे हैं। अपना नाम देखने के लिए केंद्रों पर भीड़ है तो वेबसाईट ठप्प हो गई। इस बीच सिल्चर में एक व्यक्ति ने अपना नाम ना होने के कारण आत्महत्या कर ली। हजारों मामले ऐसे हैं जहां परिवार के आधे लेागों को तो नागरिक माना गया और आधों को नहीं। हालांकि प्रशासन कह रहा है कि यह पहला ड्राफ्ट है और उसके बाद भी सूचियों आएंगी। फिर भी कोई दिक्कत हो तो प्राधिकरण में अपील की जा  सकती है। यह सच है कि यह दुनिया का अपने आप में ऐसा पहला प्रयोग है जब साढ़े तीन करोड़ से अधिक लोगों की नागरिकता की जांच की जा रही है। लेकिन इसको ले कर बीते कई दिनों से राज्य के सभी कामकाज ठप्प हैं। पूरे राज्य में सेना लगा दी गई है।
असम समझौते के पूरे 38 साल बाद असम से अवैध बांग्लादेशियों को निकालने की जो कवायद शुरू हुई, उसमें राज्य सरकार ने सांप्रदायिक तउ़का दे दिया, जिससे आशंकाएं, भय और अविश्वास का महौल विकसित हो रहा है। असम के मूल निवासियों की बीते कई दशकों से मांग है कि बांग्लादेश से अवैध तरीके से घुसपैठ कर आए लोगों की पहचान कर उन्हें वहां से वापिस भेजा जाए। इस मांग को ले कर आल असम स्टुडंेट यूनियन(आसू) की अगुवाई में सन 1979 में एक अहिंसक आंदोलन शुरू हुआ था, जिसमें सत्याग्रह, बहिष्कार, धरना और गिरफ्तारियां दी गई थीं। आंदोलनकारियों पर पुलिसिया कार्यवाही के बाद हालात और बिगड़े। 1983 में हुए चुनावों का इस आंदोलन के नेताओं ने विरोध किया।  चुनाव के बाद जम कर हिंसा शुरू हो गई।  इस हिंसा का अंत केंद्र सरकार के साथ 15 अगस्त 1985 को हुए एक समझौते (जिसे असम समझौता कहा जाता है) के साथ हुआ। इस समझौते के अनुसार जनवरी-1966 से मार्च- 1971 के बीच प्रदेश में आए लोगों को यहां रहने की इजाजत तो थी, लेकिन उन्हें आगामी दस साल तक वोट देने का अधिकार नहीं था। समझौते में केंद्र सरकार ने यह भी स्वीकार किया था कि सन 1971 के बाद राज्य में घुसे बांग्लादेशियों को वापिस अपने देश जाना होगा। इसके बाद आसू की सरकार भी बनीं। लेकिन इस समझौते को पूरे 38 साल बीत गए हैं और विदेशियों- बांग्लादेशी व म्यांमार से अवैध घुसपैठ जारी है। यही नहीं ये विदेशी बाकायदा अपनी भारतीय नागरिकता के दस्तावेज भी बनवा रहे हैं।
सन 2009 में मामला सुप्रीम केार्ट पहुचा। जब सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर एनआरसी बनाने का काम शुरू हुआ तो जाहिर है कि अवैध घुसपैठियों में भय तो होगा ही। लेकिन असल तनाव शुरू होने जब राज्य शासन ने नागरिकता कानून संशोधन विधेयक को विधान सभा में पेश किया। इस कानून के तहत बांग्लादेश से अवैध तरीके से आए हिंदू शरर्णाथियों को नागरिकता दिए जाने का प्रावधान है। यही नहीं घुसपैठियों की पहचान का आधार वर्ष 1971 की जगह 2014 किया जा रहा है। जाहिर है कि इससे अवैध घुसपैठियों की पहचान करने का असल मकसद तो भटक ही जाएगा। हालांकि राज्य सरकार के सहयोगी दल असम गण परिषद ने इसे असम समर्झाते की मूल भावना के विपरीत बताते हुए सरकार से अलग होने की धमकी भी दे दी है। हिरेन गोहाईं, हरेकृष्ण डेका, इंदीबर देउरी, अखिल गोर्गो जैसे हजारों सामाजिक कार्यकर्ता भी इसके विरेध में सड़कों पर हैं, लेकिन राज्य सरकार अपने कदम पीदे खींचने को राजी नहीं है ।
यह एक विडंबना है कि बांग्लादेश को छूती हमारी 170 किलोमीटर की जमीनी और 92 किमी की जल-सीमा लगभग खुली पड़ी है। इसी का फायदा उठा कर बांग्लादेश के लोग बेखौफ यहां आ रहे हैं, बस रहे हैं और अपराध भी कर रहे हैं। हमारा कानून इतना लचर है कि अदालत किसी व्यक्ति को गैरकानूनी बांग्लादेशी घोशित कर देती है, लेकिन बांग्लादेश की सरकार यह कह कर उसे वापिस लेने से इंकार कर देती है कि भारत के साथ उसका इस तरह का कोई द्विपक्षीय समझौता नहीं हैं। असम में बाहरी घुसपैठ एक सदी से पुरानी समस्या है।  सन 1901 से 1941 के बीच भारत(संयुक्त) की आबादी में बृद्धि की दर जहां 33.67 प्रतिशत थी, वहीं असम में यह दर 103.51 फीसदी दर्ज की गई थी। सन 1921 में विदेशी सेना द्वारा गोलपाड़ा पर कब्जा करने के बाद ही असम के कामरूप, दरांग, सिबसागर जिलो में म्यांमार व अन्य देशों से लोगों की भीड़ आना षुरू हो गया था। सन 1931 की जनगणना में साफ लिखा था कि आगामी 30 सालों में असम में केवल सिवसागर ऐसा जिला होगा, जहां असम मूल के लोगों की बहुसंख्यक आबादी होगी।
असम में विदेशियों के षरणार्थी बन कर आने को दो हिस्सों में बांटा जा सकता है - 1971 की लड़ाई या बांग्लादेश बनने से पहले और उसके बाद। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि सन 1951 से 1971 के बीच 37 लाख सत्तावन हजार बांग्लादेशी , जिनमें अधिकांश मुसलमान हैं, अवैध रूप से अंसम में घुसे व यहीं बस गए। सन 70 के आसपास अवैध षरणार्थियों को भगाने के कुछ कदम उठाए गए तो राज्य के 33 मुस्लिम विधायाकें ने देवकांत बरूआ की अगवाई में मुख्यमंत्री विमल प्रसाद चालिहा के खिलाफ ही आवाज उठा दी। उसके बाद कभी किसी भी सरकार ने इतने बड़े वोट-बैंक पर टिप्पणी करने की हिम्मत नहीं जुटाई। षुरू में कहा गया कि असम में ऐसी जमीन बहुत सी है, जिस पर ख्ेाती नहीं होती है और ये घुसपैठिये इस पर हल चला कर हमारे ही देश का भला कर रहे हैं। लेकिन आज हालात इतने बदतर है कि कांजीरंगा नेशनल पार्क को छूती कई सौ किलोमीटर के नेशनल हाईवे पर दोनों ओर केवल झुग्गियां दिखती हैं, जनमें ये बिन बुलाए मेहमान डेरा डाले हुए हैं। इनके कारण राज्य में संसाधनों का टोटा तो पड़ ही रहा है, वहां की पारंपरिक संस्कृति, संगीत, लोकचार, सभी कुछ प्रभावित हो रहा है। हालात इतने बदतर हैं कि कोई आठ साल पहले राज्य के राज्यपाल व पूर्व सैन्य अधिकारी रहे ले.ज. एस.के. सिन्हा ने राश्ट्रपति को भेजी एक रिपोर्ट में साफ लिखा था कि राज्य में बांग्लादेशियों की इतनी बड़ी संख्या बसी है कि उसे तलाशना व फिर वापिस भेजने के लायक हमारे पास मशीनरी नहीं है।
एनआरसी के पहले मसौदे के करण लेागों में बैचेनी की बानगी केवल एक जिले नगांव के आंकड़ों से भांपी जा सकती है। यहां कुल 20,64,124 लेागों ने खुद को भारत का नागरिक बताने वाले दस्तावेज जमा किए थे। इसमें से पहली सूची में केवल 9,11,604 लेागों के नाम शामिल हैं। यानि कुल आवेदन के 55.84 प्रतिशत लोगों की नागरिकता फिलहाल संदिग्ध है। राज्य में केवल 1.9 करोड़ लेाग ही इस सूची में हैं जबकि नागरिकता का दावा करने वाले 1.39 करोड़ लेागों के नाम इसमें नदारत हैं। ऐसे ही हालत कई जिलों के हैं। इनमें कई सौ लेाग तो वे हैं जो सेना या पुलिस में तीस साल नौकरी कर रिटायर हुए, लेकिन उन्हें  इस सूची में नागरिकता के काबिल नहीं माना गया। भले ही राज्य सरकार संयम रखने व अगली सूची में नाम होने का वास्ता दे रही हो, लेकिन राज्य में बेहद तनाव, अनिश्तिता का माहौल है। ऐसे में कुछ लेाग अफवाहे फैला कर भी माहौल खराब कर रहे हैं।




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