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बुधवार, 1 अगस्त 2018

It is not only death due to hunger

यह अकेले भूख से मौत नहीं है। 

पंकज चतुर्वेदी


मुजफ्फरपुर, फिर एनआरसी और कांवड़िये--- ऐसे ही नए मुद्दे क्या खड़े हुए कि समाज भूल गया कि दिल्ली में संसद से बामुश्किल 12 किलोमीटर दूर गगनचुंबी इमारातों के बीच बसे मंडावली गांव में तीन मासूम बच्चियों की मौत भूख से हुई थी। तभी ,खबर आई कि दिल्ली से सटे साहिबाबाद में एक बच्ची भूख ना सहन कर पाने के कारण मर गई। जिला अस्पताल मानता है कि मरने वाली बच्ची व उसकी तीन बहनें कुपोषण की शिकार हैं। शायद मरने वाली बच्ची का बगैर पोस्टमार्टम के आनन फानन में अंतिम संस्कार भी इस लिए कर दिया गया कि कहीं इस पर सियासत ना हो। हालांकि दिल्ली की घटना बानगी है कि उस परिवार मरने पर सियासत से ज्यादा कुछ होता नहीं है। कोई इसमें राज्य सरकार की कमी खोज रहा है तो कहीं मानवीय संवेदना के शून्य होने की बात है। सभी गेंद को दूसरे के पाले में फैंक कर खुद को कर्मठ, ईमानदार बता रहे हैं। मसला दिल्ली का हो या साहिबाबाद या फिर झारखंड या छत्तीसगढ़ का ,असल में पेट की आंच में झुलस कर असामयिक काल के गाल में समाने वाले महज भूख से ही नहीं मरते, उनकी मौत के कई कारण होते हैं- जिसमें अज्ञानता, स्वास्थ्य सेवा, परिवार नियोजन, रोजगार जैसे मसले शामिल हैं।

जब कभी भूख से मौत की खबर आती है तो कोई समाज की निष्ठुरता को कोसता है तो कोई सरकार की कार्यप्रणाली को आड़े हाथों लेता है, असलियत यह है कि हमारे यहां भोज्य पदार्थों का प्रबंधन नाम की कोई व्यवस्था नहीं है। भोजन में असमानता ही भूख से मौतों के मूल में है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य व कृषि संगठन की एक रपट के मुताबिक भारत में 19.4 करोड़ लोग भूखे सोते हैं , हालांकि सरकार के प्रयासों से पहले से ऐसे लोगों की संख्या कम हुई है। भूख, गरीबी, कुपोषण व उससे उपजने वाली स्वास्थ्य, शिक्षा, मानव संसाधन प्रबंधन की दिक्क्तें देश के विकास में सबसे बड़ी बाधक हैं। हमारे यहां ना तो अन्न की कमी है और ना ही रोजगार के लिए श्रम की। कागजों पर योजनाएं भी हैं, नहीं हैं तो उन योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए जिम्म्ेदार स्थानीय स्तर की मशीनरी में जिम्मेदारी व संवेदना की।
मंडावली और साहिबाबाद में मरीं बच्चियों की यदि पोस्टमार्टम रिपोर्ट पर गौर करें तो पता चलेगा कि उनके शरीर में वसा तो था ही नहीं, यानि वे लंबे समय से कुपोषण की शिकार थीं। यह मौत केवल दो या तीन दिन की भूख की  नहीं थी। वे लगभग जन्म से ही प्रोटिन, वसा, कार्बोहाईड्रट जैसे भोजन से वंचित थीं। उनके शरीर में खून की मात्रा भी बेहद कम थी। दिल्ली में मरी तीनों बच्चों की मां मानसिक रूप से कमजोर है। वहीं साहिबाबाद वाली महिला का पति किसी ढाबे पर तंदूर की रोटी बनाता है लेकिन अपनी सारी कमई शराब में उड़ा देता है। मांत्र शाहदरा में भीख मांग कर गुजारा कतर है। सोचने वाली बात है कि  एक मानसिक बीमार औरत और दूसरी भीख मांगने वाली महिला ; को दो-दो साल के अंतर में मां बनने पर मजबूर करने वाले पति के पास जागरूकता, परिवार नियोजन जैसे बड़े-बड़े दावे पहुंचे ही नहीं।

दिल्ली वाले मामले में भूख, जागरूकता के अभाव और सरकारी योजनाओं की आंच उस इंसान तक नहीं पहुचने का सबसे बड़ा कारण है बच्चियों के पिता की बेराजगारी। वह पश्चिम बंगाल से दिल्ली काम की तलाश में आया और यहां रिक्शचलाता रहा। रिक्शा चेारी हो गया तो रेाजगार का संकट खउ़ा हो गया। बंगाल से दिल्ली हजारों किलोमीटर दूर कोई रिक्शा चलाने आ रहा है तो जाहिर है कि उसे अपने मूल निवास में पेट भरने के लाले पड़े हुए थे और मजबूरी में किया गया पलायन उसके परिवार के अस्तित्व पर संकट का आधार बना। एक बात और, डाक्टर का यह भी कहना है कि तीन बच्चियों की मां के मानसिक रूप से कमजोर होने का मूल कारण भी उसक कुपोषण ही है। जाहिर है कि कुपोषण से लड़ने के बड़े-बड़े इश्तेहार, गरीब लोगों को बीमारी के इलाज के रंगीन दावे और रोजगार मुहैया करवाने वाली खरबों की येाजनाएं उसके असली हितग्राहियों से बहुत दूर हैं। हर बच्चे को स्कूल और स्कूल में मिडडे मील के सुनहरे दावे जब दिल्ली में इस तरह औंधे मूंह गिरते दिख रहे हैं तो दूरस्थ अंचल में इनकी कितनी भयावह हालत होगी।
समूचा सिस्टम इस बात के लिए भी कटघरे में खड़ा है कि रिक्शा खींचने, ढाबे पर जूठे बरतन मांजने , निर्माण कार्य में मजदूरी करने जैसे कार्य, जिसमें रोज कुंआ खोद कर प्यास बुझाने की मजबूरी होती है ,उन्हें रोजगार या उनके परिवार के भरण-पोषण व स्वास्थ्य की सुनिश्चितता की कौनसी योजना जमीनी स्तर पर काम कर रही है। यदि नहीं तो क्या ऐसे लोगों को हम रोजगार प्राप्त की सूची में गिन सकते हैं?  जिस देष  में नए खरीदे गए अनाज को रख्,ाने के लिए गोदामों में जगह नहीं है, जहां सामाजिक जलसों में परोसा जाने वाला आधे से ज्यादा भोजन कूड़ा-घर का पेट भरता है, वहां ऐसे भी लोग हैं जो अन्न के एक दाने के अभाव में दम तोड़ देते है। महाराश्ट्र में अरबपति षिरडी मंदिर के पास ही मेलघाट में हर साल हजारों बच्चों की कुपोश्ण से मौत की खबर या फिर राजस्थान के बारां जिले में सहरिया आदिवासियों की बस्ती में पैदा होने वाले कुल बच्चें के अस्सी फीसदी के उचित खुराक ना मिल पाने के कारण छोटे में ही मर जाने के वाकिये.... यह इस देष में हर रोज हो रहा है, लेकिन विज्ञापन में मुस्कुराते चैहरों, दमकती सुविधाओं के फेर में वास्तविकता से परे उन्मादित भारतवासी तक ऐसी खबरें या तो पहुंच नहीं रही हैं या उनकी संवेदनाओं को झकझोर नहीं रही हैं। ये अकेले भाजन की कमी का मसला नहीं है, इसके पीछे कई-कई महकमों की कार्य प्रणाली सवालों के घेरे में है।
भूख से मौत वह भी उस देष में जहां खाद्य और पोशण सुरक्षा की कई योजनाएं अरबों रूपए की सबसिडी पर चल रही हैं, जहां मध्यान्य भोजन योजना के तहत हर दिन 12 करोड़ बच्चें को दिन का भरपेट भोजन देने का दावा हो, जहां हर हाथ को काम व हर पेट को भोजन के नाम पर हर दिन करोड़ों का सरकारी फंड खर्च होता हो; दर्षाता है कि योजनाओं व हितग्राहियों के बीच अभी भी पर्याप्त दूरी है। वैसे भारत में हर साल पांच साल से कम उम्र के 10 लाख बच्चों के भूख या कुपोशण से मरने के आंकड़े संयुक्त राश्ट्र संगठन ने जारी किए हैं। ऐसे में नवरात्रि पर गुजरात के गांधीनगर जिले के एक गांव में माता की पूजा के नाम पर 16 करोड़ रूपए दाम के साढ़े पांच लाख किलो षुद्ध घी को सड़क पर बहाने, मध्यप्रदेष में एक राजनीतिक दल के महासम्मेलन के बाद नगर निगम के सात ट्रकों में भर कर पूड़ी व सब्जी कूड़ेदान में फैंकने की घटनाएं बेहद दुभाग्यपूर्ण व षर्मनाक प्रतीत होती हैं।
हर दिन कई लाख लोगों के भूखे पेट सोने के गैर सरकारी आंकड़ो वाले भारत देष के ये आंकड़े भी विचारणीय हैं। देष में हर साल उतना गेहूं बर्बाद होता है, जितना आस्ट्रेलिया की कुल पैदावार है। नश्ट हुए गेहूं की कीमत लगभग 50 हजार करोड़ होती है और इससे 30 करोड़ लोगों को सालभर भरपेट खाना दिया जा सकता है। हमारा 2.1 करोड़ टन अनाज केवल इस लिए बेकाम हो जात है, क्योंकि उसे रखने के लिए हमारे पास माकूल भंडारण की सुविधा नहीं है। देष के कुल उत्पादित सब्जी, फल, का 40 फीसदी प्रषीतक व समय पर मंडी तक नहीं पहुंच पाने के कारण सड़-गल जाता है। औसतन हर भारतीय एक साल में छह से 11 किलो अन्न बर्बाद करता है।  जितना अन्न हम एक साल में बर्बाद करते हैं उसकी कीमत से ही कई सौ कोल्ड स्टोरेज बनाए जा सकते हैं जो फल-सब्जी को सड़ने से बचा सके। एक साल में जितना सरकारी खरीदी का धान व गेहूं खुले में पड़े होने के कारण मिट्टी हो जाता है, उससे ग्रामीण अंचलों में पांच हजार वेयर हाउस बनाए जा सकते हैं। यह आंकड़ा किसी से दबा-छुपा नहीं है, बस जरूरत है तो एक प्रयास करने की। यदि पंचायत स्तर पर ही एक कुंटल अनाज का आकस्मिक भंडारण व उसे जरूरतमंद को देने की नीति का पालन हो तो कम से कम कोई भूखा तो नहीं मरेगा। बुंदेलखंड के पिछड़े जिले महोबा के कुछ लेागों ने ‘‘रोटी बैंक’’ बनाया है।  बैंक से जुड़े लेाग भेाजन के समय घरों से ताजा बनी रोटिया एकत्र करते हैं और उन्हें अच्छे तरीके से पैक कर भूखें तक पहुंचाते हैं। बगैर किसी सरकारी सहायता के चल रहे इस अनुकरणीयप्रयास से हर दिन 400 लेागों को भोजन मिल रहा है। बैंक वाले बासी या ठंडी रोटी लेते  नहीं है ताकि खाने वाले का आत्मसम्मान भी जिंदा रहे। यह बानगी है कि यदि इच्छा शक्ति हो तो छोटे से प्रयास भी भूख पर भाारी पड़ सकते हैं।
विकास,विज्ञान, संचार व तकनीक में हर दिन कामयाबी की नई छूने वाले मुल्क में इस तरह बेरोजगारी व खाना ना मिलने से होने वाली मौतें मानवता व हमारे ज्ञान के लिए भी कलंक हैं। हर जरूरतमंद को अन्न पहुंचे इसके लिए सरकारी योजनाओं को तो थोडा़ा चुस्त-दुरूस्त होना होगा, समाज को भी थोड़ा संवेदनषील बनना होगा। हो सकता है कि हम इसके लिए पाकिस्तन से कुछ सीख लें जहां षादी व सार्वजनिक समारोह में पकवान की संख्या, मेहमानों की संख्या तथा खाने की बर्बादी पर सीधे गिरफ्तारी का कानून है। जबकि हमारे यहां होने वाले षादी समारोह में आमतौर पर 30 प्रतिषत खाना बेकार जाता है। गांव स्तर पर अन्न बैंक, प्रत्येक गरीब, बेरोजगार के आंकड़े रखना जैसे कार्य में सरकार से ज्यादा समाज को अग्रणी भूमिका निभानी होगी। बहरहाल हमें एकमत से स्वीकार करना होगा कि दिल्ली में तीन बच्चों की ऐसी मौत हम सभी के लिए षर्म की बात है। यह विडंबना है कि मानवता पर इतना बड़ा धब्बा लगा और उस इलाके के एक कर्मचारी या अफसर को सरकार ने दोशी नहीं पाया, जबकि ये अफसरान इलाके की हर उपलब्धि को अपनी बताने से अघाते नहीं हैं।

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