My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

शुक्रवार, 30 नवंबर 2018

Medical expenditure increasing BPL


गरीबी बढ़ा रही हैं बीमारियां 

पंकज चतुर्वेदी

हमारे देश की जनसंख्या सवा सौ करोड़ से ज्यादा है। इसमें करीब 27 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे (बीपीएल) जीवन यापन करते हैं। इनमें से शेड्यूल ट्राइब (एसटी) के 45.3 प्रतिशत और शेड्यूल कास्ट (एससी) 31.5 फीसदी के लोग इस रेखा के नीचे आते हैं। इसकी जानकारी केंद्र सरकार के मंत्री राव इंद्रजीत सिंह कुछ महीनों पहले लोकसभा में दी थी। सरकार ने लोगों की जिंदगी में सुधार और गरीबी खत्म करने के लिए कई कदम उठाए हैं लेकिन फिर भी भूख से मौत और गरीबों की संख्या थमना बंद नहीं हो रहा है। असलियत यह है कि जितने प्रयास लोगों को रोजगार या भेजन उपलब्ध करवाने के हो रहे हैं उससे अधिक उनका व्यय दवा-अस्पताल और पैथालाजिकल जांच में हो रहा है। हर दिन सैंकड़ों लोग अपनी जमीन, गहने या जरूरी सामान बेच कर अपने प्रियजनों का इलाज करवाते हैं और अच्छा खाता-पीता परिवार देखते ही देखते गरीब हो जाता है।
अभी बरसात विदा हुई है और यह  मच्छरों के प्रकोप का काल है- दूरदराज के गांव-कस्बों से ले कर महानगरों तक अस्पतालों में डेंगू-मलेरिया के मरीज पटे पड़े हैं। प्लेटलेट्स कम होने ,तेज बुखार या जोड़ों के दर्द का ऐसा खौफ है कि लेराग अपने घर के बर्तन बेच कर भी पचास हजार रूप्ए तक खर्च कर रहे हैं। कुछ सौ रूप्ए व्यय कर मच्छर नियंत्रण से जिन बीमारियों को रोका जा सकता था , औसतन सालाना बीस लाख लोग इसकी चपेट में आ कर इसके इलाज पर अपनी गाढ़ी मेहनत की कमाई के अरबों रूपए लुटा रहे हैं ।

 स्वास्थ्य के मामले में भारत की स्थिति दुनिया में षर्मनाक है। यहां तक कि चिकित्सा सेवा के मामले में भारत के हालात श्रीलंका, भूटान व बांग्लादेश से भी बदतर हैं। अंतरराश्ट्रीय स्वास्थ्य पत्रिका ‘ लांसेट’ की ताजातरीन रिपोर्ट ‘ ग्लोबल बर्डन आफ डिसीज’ में बताया गया है कि स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में हमारा देश दुनिया के कुल 195 देशों की सूची में  145वें स्थान पर है। रिपोर्ट कहती है कि भारत ने सन 1990 के बाद अस्पतालों की सेहत में सुधार तो किया है। उस साल भारत को 24.7 अंक मिले थे, जबकि 2016 में ये बढ़ कर 41.2 हो गए हैं।
देश के आंचलिक कस्बें की बात तो दूर राजधानी दिल्ली के एम्स या सफदरजंग जैसे अस्पतालों की भीड़ और आम मरीजों की दुर्गति किसी से छुपी नहीं है। एक तो हम जरूरत के मुताबिक डाक्टर तैयार नहीं कर पा रहे, दूसरा देश की बड़ी आबादी ना तो स्वास्थ्य के बारे में पर्याप्त जागरूक है और ना ही उनके पास आकस्मिक चिकित्सा के हालात में  केाई बीमा या अर्थ की व्यवस्था है।  हालांकि सरकार गरीबों के लिए मुफ्त इलाज की कई योजनाएं चलाती है लेकिन व्यापक अशिक्षा और गैरजागरूकता के कारण ऐसी योजनाएं माकूल नहीं हैं। पिछले सत्र में ही  सरकार ने संसद में स्वीकार किया कि देश में कोई 8.18 लाख डॉक्टर मौजूद हैं , यदि आबादी को 1.33 अरब मान लिया जाए तो औसतन प्रति हजार व्यक्ति पर एक डाक्टर का आंकडा भी बहुत दूर लगता है। तिस पर मेडिकल की पढ़ाई इतनी महंगी कर दी है कि जो भी बच्चा डाक्टर बनेगा, उसकी मजबूरी होगी कि वह दोनेा हाथों से केवल नोट कमाए।

पब्लिक हैल्थ फाउंडेशन आफ इंडिया(पीएचएफआई) की एक रिपोर्ट बताती है कि सन 2017 में देश के साढ़े पांच करोड़ लोग के लिए स्वास्थ्य पर किया गया व्यय ओओपी यानी आउट आफ पाकेट या औकात से अधिक व्यय की सीमा से पार रहा। यह संख्या दक्षिण कोरिया या स्पेन या कैन्य की आबादी से अधिक है। इनमें से 60 फीसदी यानि तीन करोड़ अस्सी लाख लोग अस्पताल के खर्चों के चलते बीपीएल यानी गरीबी रेखा से नीचे आ गए। बानगी के तौर पर ‘इंडिया स्पेंड’ संस्था द्वारा छत्तीसगढ़ राज्य के 15 जिलों के 100 सरकारी अस्पतालों से केवल एक दिन में लिए गए 1290 पर्चों को लें तो उनमें से 58 प्रतिशत दवांए सरकारी अस्पताल में उपलब्ध नहीं थी। जाहिर है कि ये मरीजों को बाजार से अपनी जेब से खरीदनी पड़ी।

भारत में  लेागों की जान और जेब पर सबसे भारी पड़ने वाली बीमारियों में ‘दिल और दिमागी दौरे’ सबसे आगे हैं। भारत के पंजीयक और जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि सन 2015 में दर्ज 53 लाख 74 हजार आठ सौ चौबीस मौतों में से 32.8 प्रतिशत इस तरह के दौरों के कारण हुई।। एक अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन का अनुमान है कि भारत में उच्च रक्तचाप से ग्रस्त लोगों की संख्या सन 2025 तक 21.3 करोड़ हो जाएगी, जो कि सन 2002 में 11.82 करोड़ थी। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद्  (भा आ अ प) के सर्वेक्षण के अनुसार पूरी संभावना है कि यह वृद्धि असल में ग्रामीण इलाकों में होगी।  भारत में हर साल करीब 17,000 लोग उच्च रक्तचाप की वजह से मर रहे हैं। यह बीमारी मुख्यतया बिगड़ती जीवन शैली, शारीरिक गतिविधियों का कम होते जाना और खानपान में नमक की मात्रा की वजह से होती है। इसका असर अधेड़़ अवस्था में जाकर दिखता रहा है, पर हाल के कुछ सर्वेक्षण बता रहें है कि 19-20 साल के युवा भी इसका शिकार हो रहे हैं। इलाज में सबसे अधिक खर्चा दवा पर होता है। भारत में इस बीमारी के इलाज में एक व्यक्ति को दवा पर अच्छा खासा खर्च करना पड़ता है और यह एक आम आदमी के लिए तनाव का विषय है। इस तरह के रोग पर करीब डेढ हजार रुपये हर महीना दवा पर खर्च होता ही हैं। उच्च रक्तचाप और उससे व्यव की चिंता इसांन को मधुमेह यानि डायबीटिज और हाइपर  थायरायड का भी शिकार बना देती है। पहले ही गरीबी, विशमता और आर्थिक बोझ से दबा हुआ ग्रामीण समाज, उच्च रक्तचाप जैसी नई बीमारी की चपेट में और लुट-पिट रहा है।  पैसा तो ठीक इससे उनका षारीरिक श्रम भी प्रभावित हो रहा है।

डायबीटिज देश में महामारी की तरह फैल रही है। इस समय कोई 7.4 करोड़ लेाग मधुमेह के विभिन्न् सत्र पर शिकार हैं और इनमें बड़ी संख्या में सरकारी कर्मचारी हैं। सरकार का अनुमान है कि इस पर हर साल मरीज  सवा दो लाख करोड़ की दवांए खा रहे हैं जो देश के कुल स्वास्थ्य बजट का दसी फीसदी से ज्यादा है। बीते 25 सालों में भारत में डायबीटिज के मरीजों की संख्या में 65 प्रतिशत की वृद्धि हुई। एक तो अमेरिकी मानक संस्थाओं ने भारत में रक्त में चीनी की मात्रा को कुछ अधिक दर्ज करवाया है जिससे प्री-डायबीटिज वाले भी इसकी दवाओं के फेर में आ जाते हैं और औसतन प्रति व्यक्ति साढ़े सात हजार रूपए साल इसकी दवा पर व्यय होता हे। अब डायबीटिज खुद में तो कोई रोग है नहीं, यह अपने साथ किडनी, त्वचा, उच्च रक्तचाप और दिल की बीमारियां साथ ले कर आता है। और फिर एक बार दवा षुरू कर दे ंतो इसकी मात्रा बढ़ती ही जाती है।
स्वास्थ्य सेवाओं की जर्जरता की बानगी सरकार की सबसे प्रीमियम स्वास्थ्य योजना सीजीएचएस यानि केंद्रीय कर्मचारी स्वास्थ्य सेवा है जिसके तहत पत्रकार, पूर्व सांसद आदि आते हैं। इस योजना के तहत पंजीकृत लोगों में चालीस फीसदी डायबीटिज के मरीज हैं और वे हर महीने केवल नियमित दवा लेने जाते हैं। एक मरीज की औसतन हर दिन की पचास रूपए की दवा। वहीं स्टेम सेल से डायबीटिज के स्थाई इलाज का व्यय महज सवा से दो लाख है लेकिन सीजीएचएस में यह इलाज षामिल नहीं है। ऐसे ही कई अन्य रोग है जिनकी आधुनिक चिकित्सा उपलब्ध है लेकिन सीजीएचएस में उसे षामिल ही नहीं किया गया।विभिन्न राज्यों मे गरीबों को कार्ड दे कर निजी अस्पताल में मुफ्त इलाज की अधिकांश योजनाएं निजी अस्पतालों का खजाना भरने का जरिया बनी हैं, इसके विपरीत गरीब  कंगाल हो रहा है। महज पान मसाला-गुटखे या शराब के कारण देश में हजारें परिवार फटेहाल होते है। लेकिन सरकार राजस्व के लालच में इस पर पाबंदी लगाने से डरती है। गंभीरता से देखें तो इन व्यसनों से उपजी बीमारियों के इलाज में लगा धन व संसाधन राजस्व् से हुई कमाई से ज्यादा ही होते हैं।





गुरुवार, 29 नवंबर 2018

rise in paper price can be hurdle in knowledge extension in India

कागज  : चीन का बढ़ता एकाधिकार 


पंकज चतुर्वेदी 

पिछले कुछ महीनों के दौरान कागज के दाम अचानक ही आसमान को छू रहे हैं, किताबों छापने में काम आने वाले मेपलीथों के 70 जीएसएम कागज के रिम की कीमत हर सप्ताह बढ़ रही है। इसका सीधा असर पुस्तकों पर पड़ रहा है। भारत में मुदण्रउद्योग दुनिया की सबसे तेज बढ़ रहे व्यापार में गिना जाता है। हो भी क्यों न-हमारे यहां साक्षरता दर बढ़ रही है, उच्च शिक्षा के लिए नामांकन आंचलिक क्षेत्र तक उत्साहजनक हैं। फिर दैनिक उपभोग के उत्पादों के बाजार में भी प्रगति है। इसलिए पैकेजिंग इंडस्ट्री में भी कागज की मांग बढ़ रही है। गंभीरता से देखें तो पाएंगे कि चीन एक सुनियोजित चाल के तहत दुनिया के कागज के कारोबार पर एकाधिकार करने की फिराक में है। जाहिर है कि इसका असर भारत में ज्ञान-दुनिया पर भी पड़ रहा है। 
भारत में 20.37 मिलियन टन कागज की मांग है, जो 2020 तक 25 मिलियन टन होने की संभावना है। मुदण्रमें कागज की मांग की वृद्धि दर 4.2 प्रतिशत सालाना है, तो पैकेजिंग में 8.9 फीसद। लगभग 4500 करोड़ सालाना के कागज बाजार की मांग पूरी करने के लिए कहने को तो 600 कागज कारखाने हैं, लेकिन असल में मांग पूरी करने के काबिल बड़े कारखाने महज 12 ही हैं। वे भी एनसीईआरटी जैसे बड़े पेपर खपतकर्ता की मांग पूरी नहीं कर पाते। अनुमान है कि पाठ्यपुस्तकें छापने वाले एनसीईआरटी को हर साल 20 हजार मीट्रिक टन कागज की जरूरत होती है। कोई भी कारखाना यह जरूरत एकमुश्त पूरी नहीं कर पाता। असम में संचालित एकमात्र सरकारी कारखाने हिंदुस्तान पेपर लिमिटेड को सरकार ने पिछले साल ही बंद कर दिया। अब सारा दारोमदार निजी उत्पादकों पर है। जान लें कि दुनिया में सर्वाधिक कागज बनाने वाले तीन देश हैं-चीन, अमेरिका और जापान। तीनों दुनिया की सालाना मांग 400 मिलियन टन का लगभग आधा कागज उत्पादन करते हैं। चूंकि हमारे कारखाने छोटे हैं, और उनकी उत्पादन कीमत ज्यादा आती है, इसलिए गत एक दशक के दौरान चीन के कागज ने वैसे ही हमारे बाजार पर कब्जा कर रखा है। सभी जानते हैं कि भारत के कागज कारखाने पेड़ के तने और बांस से निर्मित पल्प या लुगदी की कच्ची सामग्री से कागज बनाते रहे हैं। जंगल कम होते जाने से पल्प का संकट खड़ा हुआ तो रिसाइकिल पेपर की बात सामने आई। विडंबना है कि हमारे कई कारखाने अपनी तकनीक को पुराने रद्दी पेपर से तैयार लुगदी से कागज बनाने में परिवर्तित नहीं कर पा रहे हैं। वहीं पल्प की कमी के चलते स्थानीय उत्पाद के कागज के दाम ज्यादा आ रहे हैं। यहां जानना जरूरी है कि क्रॉफ्ट पेपर, बोर्ड, पोस्टर जैसे उत्पाद पैकेजिंग उद्योग में काम आते हैं। चूंकि पैकेजिंग में प्लास्टिक के इस्तेमाल पर अब सख्ती हो रही है, इसलिए कागज की पैकेजिंग इंडस्ट्री दिन-दुगनी, रात चैगुनी प्रगति कर रही है। चूंकि इस तरह की पैकेजिंग में महंगे, खाने आदि के सामान पैक होते हैं, इसलिए इसमें कागज की क्वालिटी का ध्यान रखा जाता है। वहीं पुस्तक या अखबार छापने में अधिकांश इस्तेमाल मैपलिथो या पेपर प्रिंट के लिए रिसाइकिल से काम चल जाता है। क्रीम वाव, कॉपियर और आर्ट पेपर के लिए बेहतर कच्चे माल की जरूरत होती है। अब जंगल कटाई पर रोक और पेपर मिलों के लिए बांस की सीमित सप्लाई के चलते बेहतर कागज का पूरा बाजार चीन के हाथों में जा रहा है। पहले तो चीन पेपर पल्प के लिए पेड़ों और रद्दी कागज के रिसाइकिल का उत्पादन स्वयं कर रहा था, लेकिन अब उनके यहां भी जंगल कम होने का पर्यावरणीय संकट और कागज रिसाइकिल करने की बढ़ती मांग और उससे उपजे जल प्रदूषण का संकट गंभीर हो रहा है, इसलिए चीन ने सारी दुनिया से पल्प मनमाने दाम पर खरीदना शुरू कर दिया। भारत से भी बेकार कागज, उसका पल्प पर चीन की नजर है। इसी के चलते हमारे यहां कागज का संकट गहरा रहा है। भारत में भी महंगाई, अवमूल्यन और प्रतिकूल सांस्कृतिक-सामाजिक-बौद्धिक परिस्थितियों के बावजूद पुस्तक प्रकाशन क्रांतिकारी दौर से गुजर रहा है। पिछले पांच वर्षो से कागज की खपत लगभग 6 प्रतिशत वार्षिक की दर से बढ़ रही है। लेकिन बढ़ते पर्यावरणीय संकट के चलते इसके विकास में विराम की प्रबल संभावना है। जरूरत है कि पल्प के आयात पर पूरी तरह रोक लगे, रद्दी कागज के आयात पर शुल्क समाप्त हो और कागज के प्रत्येक कारखाने को अपने स्तर पर रिसाइकिल पल्प बनाने की आधुनिकतम मशीनें लगाने के लिए सहयोग मिले। चीन ने कागज उद्योग के माध्यम से हमारी पठन-अभिरुचि पर नियंतण्रकिया तो हमारी बौद्धिक संपदा के विस्तार पा रहे अभियान को नुकसान होगा। 

सोमवार, 26 नवंबर 2018

unplanned development causes ecological hazards

अनियोजित विकास से बिगड़ा संतुलन


दीपावली के बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया कि विश्व के सर्वाधिक प्रदूषित 20 महानगरों में से 14 भारत के हैं और उनमें दिल्ली शीर्ष पर है। यदि गंभीरता से इस बात का आकलन करें तो स्पष्ट होता है कि जिन शहरों में विभिन्न कारणों से पलायन कर आने वालों की संख्या बढ़ी और इसके चलते उनका अनियोजित विकास हुआ, वहां के हवा-पानी में ज्यादा जहर पाया जा रहा है। असल में पर्यावरण को हो रहे नुकसान का मूल कारण अनियोजित शहरीकरण है। बीते दो दशकों के दौरान यह प्रवृत्ति पूरे देश में बढ़ी कि लोगों ने जिला मुख्यालय या कस्बों की सीमा से सटे खेतों पर अवैध कालोनियां काट लीं। इसके बाद जहां कहीं सड़कें बनीं, उसके आसपास के खेत, जंगल, तालाब को वैध या अवैध तरीके से कंक्रीट के जंगल में बदल दिया गया।
यह दुखद है कि आज विकास का अर्थ विस्तार हो गया है। विस्तार-शहर के आकार का, सड़क का, भवन का आदि-आदि, लेकिन बारीकी से देखें तो यह विस्तार या विकास प्राकृतिक संरचनाओं जैसे कि धरती, नदी या तालाब, पहाड़ और पेड़, जीव-जंतु आदि के नैसर्गिक स्थान को घटा कर किया जाता है। नदी के पाट को घटाकर बने रिवर फ्रंट हों या तालाब को मिट्टी से भरकर बनाई गई कालोनियां, तात्कालिक रूप से तो सुख देती हैं, लेकिन प्रकृति के विपरीत जाना इंसान के लिए संभव नहीं है और उसके दुष्परिणाम कुछ ही दिनों में सामने आ जाते हैं। जैसे कि पीने के जल का संकट, बरसात में जलभराव, आबादी और यातायात बढ़ने से उपजने वाले प्राण वायु का जहरीला होना आदि। देश के अधिकांश उभरते शहर अब सड़कों के दोनों ओर बेतरतीब बढ़ते जा रहे हैं। न तो वहां सार्वजनिक परिवहन है, ना ही सुरक्षा, ना ही बिजली-पानी की न्यूनतम मांग। असल में देश में बढ़े कालेधन को जब बैंक या घर में रखना जटिल होने लगा तो जमीन में निवेश का सहारा लिया जाने लगा। इससे खेत की कीमतें बढ़ीं, खेती की लागत भी बढ़ी और किसानी लाभ का काम नहीं रहा गया। पारंपरिक शिल्प और रोजगार को त्यागने वालों का सहारा शहर बने और उससे वहां का अनियोजित और बगैर दूरगामी सोच के विस्तार का आत्मघाती कदम उभरा।
साल दर साल बढ़ता जलवायु परिवर्तन का प्रभाव और उसके कारण मौसम की अनियमितता, गांव-गांव तक फैल रहा जल-संकट का साया, बीमारियों के कारण पट रहे अस्पताल ऐसे कई मसले हैं जो आम लोगों को पर्यावरण के प्रति जागरूक बना रहे हैं। कहीं कोई नदी, तालाब के संरक्षण की बात कर रहा है तो कहीं पेड़ लगाकर धरती को बचाने का संकल्प, जंगल और वहां के बाशिंदे जानवरों को बचाने के लिए भी सरकार तथा समाज प्रयास कर रहे हैं, लेकिन भारत जैसे विकासशील व्यवस्था वाले देश में पर्यावरण का सबसे बड़ा संकट तेजी से विस्तारित होता ‘शहरीकरण’ एक समग्र विषय के तौर लगभग उपेक्षित है। असल में देखें तो संकट जंगल का हो या फिर स्वच्छ वायु का या फिर पानी का, सभी के मूल में विकास की वह अवधारणा है जिससे शहररूपी सुरसा सतत विस्तार कर रही है और उसकी चपेट में आ रही है प्रकृति और नैसर्गिकता।
हमारे देश में संस्कृति, मानवता और बसावट का विकास नदियों के किनारे ही हुआ है। सदियों से नदियों की अविरल धारा और उसके तट पर मानव जीवन फलता-फूलता रहा है। बीते कुछ दशकों में विकास की ऐसी धारा बही कि नदी की धारा आबादी के बीच आ गई और आबादी की धारा को जहां जगह मिली वहां बस गई। और यही कारण है कि हर साल कस्बे नगर बन रहे हैं और नगर महानगर। बेहतर रोजगार, आधुनिक जनसुविधाएं और उज्ज्वल भविष्य की लालसा में अपने पुश्तैनी घर-बार छोड़ कर शहर की चकाचौंध की ओर पलायन करने की बढ़ती प्रवृत्ति का परिणाम है कि देश में एक लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की संख्या 302 हो गई है, जबकि 1971 में ऐसे शहर मात्र 151 थे। यही हाल दस लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की है। इसकी संख्या गत दो दशकों में दोगुनी होकर 16 हो गई है। पांच से 10 लाख आबादी वाले शहर 1971 में मात्र नौ थे, जो आज बढ़कर 50 हो गए हैं। विशेषज्ञों का अनुमान है कि आज देश की कुल आबादी का 8.50 प्रतिशत हिस्सा देश के 26 महानगरों में रह रहा है।
विश्व बैंक की ताजा रिपोर्ट बताती है कि आने वाले 20-25 सालों में 10 लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की संख्या 60 से अधिक हो जाएगी जिनका देश के सकल घरेलू उत्पाद में योगदान 70 प्रतिशत होगा। एक बात और बेहद चौंकाने वाली है कि भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी की रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या शहरों में रहने वाले गरीबों के बराबर ही है। यह संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है, यानी यह डर गलत नहीं होगा कि कहीं भारत आने वाली सदी में ‘अरबन स्लम’ या शहरी मलिन बस्तियों में तब्दील ना हो जाए।
शहर के लिए सड़क चाहिए, बिजली चाहिए, मकान चाहिए, दफ्तर चाहिए, इन सबके लिए या तो खेत होम हो रहे हैं या फिर जंगल। निर्माण कार्य के लिए नदियों के प्रवाह में व्यवधान डालकर रेत निकाली जाती है तो चूने के पहाड़ खोदकर सीमेंट बनाने की सामग्री। इसके कारण प्रकृति को हो रहे नुकसान की भरपाई संभव ही नहीं है। जंगल को हजम करने की चाल में पेड़, जंगली जानवर, पारंपरिक जल स्नोत सभी कुछ नष्ट हो रहे हैं। यह वह नुकसान है जिसका हर्जाना संभव नहीं है। शहरीकरण यानी रफ्तार, रफ्तार का मतलब है वाहन, और वाहन हैं कि विदेशी मुद्रा भंडार से खरीदे गए ईंधन को पी रहे हैं और बदले में दे रहे हैं दूषित वायु। शहर को ज्यादा बिजली चाहिए यानी ज्यादा कोयला जलेगा, ज्यादा परमाणु संयंत्र लगेंगे।
शहर का मतलब है औद्योगिकीकरण। और अनियोजित कारखानों की स्थापना का परिणाम है कि हमारी लगभग सभी नदियां अब जहरीली हो चुकी हैं। नदी थी खेती के लिए, मछली के लिए, दैनिक कार्यो के लिए, ना कि उसमें गंदगी बहाने के लिए। गांवों के कस्बे, कस्बों के शहर और शहरों के महानगर में बदलने की होड़ एक ऐसी मृग मरीचिका की लिप्सा में लगी है, जिसकी असलियत कुछ देर से खुलती है। दूर से जो जगह रोजगार, सफाई, सुरक्षा, बिजली, सड़क के सुख का केंद्र होते हैं, असल में वहां सांस लेना भी गुनाह लगता है।
शहरों की घनी आबादी संक्रामक रोगों के प्रसार का आसान जरिया होती है, यहां दूषित पानी या हवा भीतर ही भीतर इंसान को खाती रहती है। देश के सभी बड़े शहर इन दिनों कूड़े को निबटाने की समस्या से जूझ रहे हैं। कूड़े को एकत्र करना और फिर उसका शमन करना, एक बड़ी चुनौती बनता जा रहा है। एक बार फिर अनियोजित शहरीकरण से उपज रहे कचरे की मार पर्यावरण पर ही पड़ रही है।
शहर केवल पर्यावरण प्रदूषण ही नहीं, सामाजिक और सांस्कृतिक प्रदूषण की भी गंभीर समस्या उपजा रहे हैं। लोग अपनों से, मानवीय संवेदनाओं से, अपनी लोक परंपराओं और मान्यताओं से कट रहे हैं। इसकी जगह उनका झुकाव आधुनिक किस्म के बाबाओं-फकीरों, देवताओं और पंथों में बढ़ रहा है, जो अलग किस्म के अंधविश्वास और रूढ़ियों के कारक हैं।
तो क्या लोग गांव में ही रहें? क्या विकास की उम्मीद न करें? ऐसे कई सवाल अंधाधुंध शहरीकरण में अपनी पूंजी को हर दिन कई गुना होते देखने वाले कर सकते हैं। असल में हमें अपने विकास की अवधारणा को ही बदलना होगा-पक्की सड़क, अंग्रेजी दवाई, स्थानीय भाषा को छोड़कर अंग्रेजी का प्रयोग, भोजन और कपड़े का पाश्चात्यीकरण असल में विकास नहीं है। यदि कोई चमड़े का काम करने वाला है, वह अपने काम को वैज्ञानिक तरीके से करना सीखता है, अपने श्रम की वास्तविक कीमत वसूलने के प्रति जागरूक होता है, अपने समान सामाजिक अधिकार के प्रति सचेत हो जाता है तो जरूरी नहीं है कि वह गांव में अपने हाथ के काम को छोड़कर शहर में चपरासी या दैनिक मजदूर की नौकरी कर संकरी गलियों की गंदी झुग्गियों में रहे। इंसान की क्षमता, जरूरत और योग्यता के अनुरूप उसे अपने मूल स्थान पर अपने सामाजिक सरोकारों के साथ जीवनयापन का हक मिले, यदि विकास के प्रतिमान ऐसे होंगे तो शहर की ओर लोगों का पलायन रुकेगा। इससे हमारी धरती को कुछ राहत मिलेगी।

बुधवार, 21 नवंबर 2018

Rise in paper cost is spoiling test of book lovers

कागज का दाम बिगाड़ रहा है पुस्तकों का मजा
पंकज चतुर्वेदी

पिछले कुछ महीनों के दौरान कागज के दाम अचानक ही आसमान को छू रहे हैं, किताबों छापने में काम आने वाले मेपलीथों के 70 जीएसएम कागज के रिम की कीमत हर सप्ताह बढ़ रही है। इसका सीधा असर पुस्तकों पर पढ़ रहा है। भारत में मुद्रण उद्योग दुनिया की सबसे तेज बढ़ रहे व्यापार में गिना जाता है। हो भी क्यों न- हमारे यहां साक्षरता दर बढ़ रही है, उच्च शिक्षा के लिए नामांकन आंचलिक क्षेत्र तक उत्साहजनक हैं। फिर दैनिक उपभोग के उत्पादों के बाजार में भी प्रगति है सो पैकेजिंग इंडस्ट्री में भी कागज की मांग बढ़ रही है। गंळभीरता से देखें तो पाएंगे कि चीन एक सुनियोजित चाल के तहत दुनिया के कागज के कारोबार पर एकाधिकार करने की फिराक में है। जाहिर है कि इसका असर भारत में ज्ञान-दुनिया पर भी पड़ रहा है।
भारत में आज 20.37 मिलियन टन कागज की मांग है जोकि सन 2020 तक 25 मिलियन टन होने की संभावना है। हमारे ययहां मुद्रण में कागज की मांग की वृद्धि दर 4.2 प्रतिशत सालाना है तो पैकेजिंग में 8.9 फीसदी। लगभग 4500 करोड़ सालाना के कागज बाजार की मांग पूरी करने के लिए कहने को तो हमारे यहां 600 कागज कारखाने हैं, लेकिन असल में मांग पूरी करने के काबिल बड़े कारखाने महज 12 ही हैं। वे भी एनसीईआरटी जैसे बड़े पेपर खपतकर्ता कीम ांग पूरी नहीं कर पाते। अनुमान है कि पाठ्य पुस्तकें छापने वाले एनसीईआरटी को हर साल 20 हजार मेट्रिक टन कागज की जरूरत होती है और कोई भी कारखाना इसकी जरूरत एकमुश्त पूरी नहीं कर पाता। असम में संचालित एकमात्र सरकारी कारखाना हिंदुस्तान पेपर लिमिटेड को सरकार ने पिछले साल ही बंद कर दिया। अब सारा दारोमदार निजी उत्पादकों पर है।  जान ले ंकि दुनिया में सर्वाधिक कागज बनाने वाले तीन देश हैं - चीन, अमेरिका और जापान। ये तीन देश दुनिया की सालाना मांग 400 मिलियन टन का लगभग आधा कागज उत्पादन करते हैं। चूंकि हमारे कारखाने बहुत छोटे हैं और उनकी उत्पादन कीमत ज्यादा आती है सो गत एक दशक के दौरान चीन के कागज ने वैसे ही हमारे बाजार पर कब्जा कर रखा है। यह सभी जानते हैं कि भारत के कागज कारखाने पेड़ के तने और बांस से निर्मित पल्प या लुगदी की कच्ची सामग्री से कागज बनाते रहे हैं। जंगल कम होने के बाद पल्प का संकट खड़ा हुआ तो रिसाईकिल पेपर की बात सामने आई। विडंबना है कि हमारे कई कारखाने अपनी तकनीक को पुराने रद्दी पेपर से तैयार लुगदी से कागज बनाने में परिवर्तित नहीं कर पा रहे हैं। वहीं पल्प की कमी के चलतें स्थानीय उत्पाद के कागज के दाम ज्यादा आ रहे हैं।
यहां जानना जरूरी है कि क्राफ्ट पेपर, बोर्ड, पोस्टर जैसे उत्पाद पैकेजिंग उद्योग में काम आते हैं। चूंिक पैकेजिंग में प्लास्टिक के इस्तेमाल पर अब सख्ती हो रही है सो कागज की पैकेजिंग इंडस्ट्री दिन-दुगनी रात चैगुनी प्रगति कर रहा है। चूंकि इस तरह की पैकेजिंग में महंगा, खाने आदि के सामान पैक होते हैं सो इसमें कागज की क्वालिटी को ध्यान रखा जाता है। वहीं पुस्तक या अखबार छापने में अधिकांश इस्तेमाल मैपलिथो या पेपर प्रिंट के लिए रिसाईकिल से काम चल जाता है। वहीं क्रीम वाव, कॉपियर और आर्ट पेपर के लिए बेहतर कच्चे माल की जरूरत होती है।  अब जंगल कटाई पर रोक और पेपर मिल के लिए बांस की सीमित सप्लाई के चलते बेहतर कागज का पूरा बाजार चीन के हाथों में जा रहा है।
पहले तो चीन पेपर पल्प के लिए पेड़ों और रद्दी कागज के रिसाईकिल का उत्पादन स्वयं कर रहा था लेकिन अब उनके याहां भी जंगल कम होने का पर्यावरणीय संकट और कागज रिसाईकिल करने की बढ़ती मांग व उससे उपजे जल प्रदूशण का संकट गंभीर हो रहा है सो चीन ने सारी दुनिया से पल्प मनमाने दाम पर खरीदना षुरू कर दिया। भारत से भी बेकार कागज, उसका पल्प पर चीन की नजर है। इसी के चलते हमारे यहां कागज का संकट गहरा रहा है।
भारत में भी महंगाई, अवमूल्यन और प्रतिकूल सांस्कृतिक, सामाजिक-बौद्धिक परिस्थितियों के बावजूद पुस्तक प्रकाशन एक क्रांतिकारी दौर से गुजर रहा है । छपाई की गुणवत्ता में परिवर्तन के साथ-साथ विशय विविधता यहां की विशेशता है । समसामयिक भारतीय प्रकाशन एक रोमांचक और भाशाई दृश्टि से विविधतापूर्ण कार्य है। विश्व में संभवतः भारत ही एक मात्र ऐसा देश हैं जहां 37 से अधिक भाशाओं में पुस्तकें प्रकाशित की जाती हैं। संयुक्त राज्य अमरीका और ब्रिटेन के बाद अंग्रेजी पुस्तकों के प्रकाशन में भारत का तीसरा स्थान है । पुस्तकों की महत्ता का प्रमाण यह आंकड़ा है कि हमारे देश में हर साल लगभग 85 हजार पुस्तकें छप रही हैं, इनमें 25 प्रतिशत हिंदी, 20 प्रतिशत अंग्रेजी और षेश 55 प्रतिशत अन्य भारतीय भाशाओं में हैं। लगभग 16 हजार प्रकाशक सक्रिय रूप से इस कार्य में लगे हैं। प्रकाशक के साथ, टाईप सेटर , संपादक , प्रूफ रीडर, बाईंडिग, कटिंग, विपणन जैसे कई अन्य कार्य भी जुडे़ हैं। जाहिर है कि यह समाज के बड़े वर्ग के रोजगार का भी साधन है। विश्व बाजार में भारतीय पुस्तकों का बेहद अहम स्थान है। एक तो हमारी पुस्तकों की गुणवत्ता बेहतरीन है, दूसरा इसकी कीमतें कम हैं।  भारतीय पुस्तकें विश्व के 130 से अधिक देशों को निर्यात की जाती हैं।
देश में सामाजिक-आर्थिक विकास की दृष्टि से कागज उद्योग देश का सबसे पुराना और बेहद महत्वपूर्ण उद्योग है। हमारे देश में पहला कागज उत्पादन कारखाना सन 1812 में श्रीरामपुर(बंगाल) में स्थापित हुआ था। अनुमान है कि इस व्यवसाय में कोई 25000 करोड़ रूपये  की पूंजी लगी है। दुनिया के कागज उत्पाद में इसका हिस्सा लगभग 1.6 प्रतिशत है।  इस उद्योग में लगभग सवा लाख लोग सीधे और कोई साढ़े तीन लाख लोग अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार पा रहे हैं। पिछले पाँच वर्षों से कागज की खपत लगभग 6 प्रतिशत वार्षिक दर से बढ़ रही है।  लेकिन ब़ढते पर्यावरणीय संकट के चलते इसके विकास में विराम की प्रबल संभावना है।

हमारे देश में अभी भी पाठ्य पुस्तकों, संचार-संवाद और ज्ञान-प्रसार में मुद्रित सामग्री का बोलबाला व विश्वसनीयता कायम है सो कागज के दाम बढ़ते ही सबसे बड़ा संकट पुस्तकों पर पड़ रहा है। हमारे बाजार में गैरपाठ्यपुस्तकों या मनोरंजन या ज्ञान-साहित्य की अधिकांश पुस्तकों की मुद्रण संख्या कम ही होती है और किसी पुस्तक का लगभग चालीस फीसदी व्यय कागज पर ही होता है, इसी लिए पुस्तकों के दाम बढ़ रहे हैं। इसका सीधा असर हमारे साहित्य, संस्कृति और शिक्षा बाजार पर पड़ रही है।
आज जस्रत है कि भारत सरकार को पल्प के आयात परपूरी तरह रोक लगाना चाहिए, रद्दी कागज के आयात पर षुल्क समाप्त कर देना चाहिए और कागज के प्रत्येक कारचााने को अपने स्तर पर रिसाईकिल पल्प बनाने की आधुनिकतम मशीने लगाने के लिए सहयोग देना चाहिए। यह चेतावनी है कि यदि चीन ने कागज उद्योग के माध्यम से यदि हमारी पठन-अभिरूचि पर नियंत्रण किय तो हमारी बौद्धिक संपदा के विस्तार पर रहे अभियान को वैश्विक रूप से नुकसान उठाना होगा।
इस अंतरराश्ट्रीय साजिश से जूझने के लिए हमें भी कागज की खपत को किफायती बनाने के लिए कुछ कदम उठाने होंगे। सरकारी कार्यालयों में कागज के दोनों तरफ लिखने का अनिवार्यता, प्रत्येक कागज की आफिस कॉपी रखने, वहां से निकले कागज को पुनर्चक्रण के लिए भेजने की व्यवस्था जैसे कदम उठाए जाने चहिए। बार-बार पाठ्य पुस्तकें बदलने से रोकने और बच्चों को अपने पुराने साथियों की पुस्तकों से पढ़ने के लिए प्रेरित करना भी कागज की बर्बादी रोकने का एक सशक्त कदम हो सकता है। विभिन्न सदनों, अदालतों, कार्यालयों में पांच पेज से ज्यादा के एजेंडे, रिपोर्ट आदि को केवल डिजिटल कर दिया जाए तोकागज की खपत कम कर, पेड़ों का संरक्षण और शिक्षा के अत्यावश्यक कागज की आपूर्ति के बीच बेहतरीन सामंजस्य बनाया जा सकता है। इससे पेड़ के साथ-साथ कूड़ा व श्रम बच सकता है।


ISI is trying to burn Punjab again

अनदेखी भारी पड़ेगी पंजाब में आतंकवाद की 
पंकज चतुर्वेदी

पूरा इलाका हाई अलर्ट पर था, पंजाब में पेास्टर लगाए गए थे कि जाकिर मूसा यहीं-कहीं छुपा है, उसके बावजूद अमृतसर में हवाई अड्डे के करीबी राजासांसी गांव में दिन में बारह बजे दो लड़के मोटरसाईकिल से निरंकारी प्रवचनस्थल पहुंचे, पिस्तौल दिखा कर दरवाजा खुलावाया, बम फैंका और फरार हो गए। तीन लोगों के मरने की खबर है। आतंकवादी कौन थे? यह तो खोजना जांच एजेंसी का काम है लेकिन यह तो तय है कि ऐसे पाशविक हरकत करने वालों के पंजाब में स्थानीय संपर्क है।, सूचना हैं और संसाधन हैं, वरना जगह-जगह लगे सुरक्षा नाकों से बच कर लंबी दूरी से आ कर घटना को अंजाम देना संभव नहीं है। बीते कुछ सालों से पंजाब में अलगाववादियों को मजबूत बनाने में सीमापार के आतंकी लगातार सक्रिय हैं। एक तो इस समय कश्मीर में बरफ गिरने से घुसपैठ में दिक्कत है , दूसरा कश्मीरी आतंकियों के स्थानीय कैडर को सुरक्षा बलों ने बुरी तरह कुचल दिया है , सो जाहिर है कि भारत में अस्थिरता फैलाने के मंसूबे रखने वालों के लिए पंजाब मुफीद जगह है। यह किसी से छुपा नहीं है कि कनाड़ा व कई अन्य देशों में खालिस्तान की मांग वाले सक्रिय हैं।

कोई तीन साल पहले ही पहले देश की सबसे सुरक्षित माने जाने वाली बुढैल जेल में कई साल से समानांतर चल रही दुनिया का खुलासा हुआ था, जहां अपराधी फेसबुक पर पोस्ट लगा कर धमकियां दे रहे थे, खालिस्तान लिबरेशन फोर्स का मुखिया स्काईप पर पाकिस्तान बात करता था। यह अकेले एक जेल के हालात नहीं थे, राज्य में वे सभी जेल जहां जमींदोज हो चुके खालिस्तान अंादोलन से जुड़़े लेाग बंद थे, वहां हालात ऐसे ही थे। राज्य में सरकार बदलने के बाद हालात भी बदले और धीरे-धीरे सामने आने लगा कि किस तरह अकाली अपनी तयशुदा हर से बचने के लिए खाड़कुओं को षह दे रहे थे। यही नहीं सतलुज-यमुना लिंक विवाद के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद छोटे-छोटे गांव में इसे सिखों के साथ अन्याय व अलग देश की मांग एकमात्र हल जैसी सभाएं हुई, जिसे सरकार नजरअंदाज करती रही। जनवरी 2016 में पंजाब के पठानकोट के अकालगढ में वायु सेना के शिविर पर हुए आतंकंी हमले को ले कर कई बातें हवा में उड़ती रही और वहां मारे गए आतंकियों की पहचान अभी तक उजागर नहीं की गई।
 पूरे मामले में एक वरिश्ठ पुलिस अफसर की संदिग्ध भूमिका पर अभी भी षंकाओं के बादल छाए है, जिसकी गाड़ी ले कर आतंकी वायु सेना अड्डे तक पहुंचे थे। इस घटना के बाद मई में पंजाब की खुफिया एजेंसी ने एक रपट केंद्र को भेजी थी, जिसमें बताया गया था कि कनाड़ा में ब्रिटिश कोलंबिया के ‘‘मिशन सिटी’’ में पंजाब से भगोड़ा घोशित आतंकी हरदीप निज्जर खालिस्तान टेरर फोर्स के नाम से संगठन चला रहा है। जहां भारत के खिलाफ जहर उगलने व हथियारों की ट्रैनिंग भी दी जा रही है। रिपोर्ट में पाकसितान के रास्ते हथियार आने की भी चेतावनी थी। उधर खालिस्तान जिंदाबाद फोर्स के रंजीत सिंह नीता द्वारा पाकिस्तान में हिजबुल आतंकियों को सिख धर्म, परंपरा, गुरूमुखी, पंजाब के रास्तों, जंगलों का प्रशिक्षण देने के भी  प्रमाण सरकार के पास हैं।
यह जीवट, लगन और कर्मठता पंजाब की ही हो सकती है, जहां के लोगों ने खून-खराबे के दौर से बाहर निकल कर राज्य के विकास के मार्ग को चुना व उसे ताकतवर बनाया । बीते एक दशक के दौरान पंजाब के गांवों-गांवों तक विकास की धारा बही है । संचार तकनीक के सभी अत्याधुनिक साधन वहां जन-जन तक पहुंचे हैं, पिछले कुछ सालों में यही माध्यम वहां के अफवाहों का वाहक बना है । फेसबुक या गूगल पर खोज करें तो खालिस्तान, बब्बर खालसा, भिंडरावाले जैसे नामों पर कई सौ पेज वबेसाईट उपलब्ध हैं। इनमें से अधिकांश विदेशों से संचालित हैं व कई एक पर टिप्पणी करने व समर्थन करने वाले पाकिस्तान के हैं। यह बात चुनावी मुद्दा बन कर कुछ हलकी कर दी गई थी कि पंजाब में बड़ी मात्रा में मादक दवाओं  की तस्करी की जा रही है व युवा पीढ़ी को बड़ी चालाकी से नशे के संजाल में फंसाया जा रहा है। सारी दुनिया में आतंकवाद अफीम व ऐसे ही नशीले पदार्थों की अर्थ व्यवस्था पर सवार हो कर परवान चढा हे। पंजाब में बीते दो सालें में कई सौ करोड़ की हेरोईन जब्त की गई है व उसमें से अधिकांश की आवक पाकिस्तान से ही हुई। स्थानीय प्रशासन ने इसे षायद महज तस्करी का मामला मान कर कुछ गिरफ्तारियों के साथ अपनी जांच की इतिश्री समझ ली, हकीकत में ये सभी मामले राज्य की फिजा को खराब करने का प्रयास रहे हैं।
31 मई 2017 को बठिंडा पुलिस ने एक महिला सहित चार ऐसे खालिस्तानी आतंकियो को हथियार सहित पकड़ा था जो कि दिल्ली में सज्जन कुमार और टाईटलर की हत्या करना चाहते थे। उनके भी तार कनाड़ा से जुड़े मिले हैं। जरा कुछ पीछे ही जाएं, सितंबर- 2014 में बब्बर खालसा का सन 2013 तक अध्यक्ष रहा व बीते कई दशकों से पाकिस्तान में अपना घर बनाएं रतनदीप सिंह की गिरफ्तारी पंजाब पुलिस ने की। उसके बाद  जनवंबर- 14 में ही दिल्ली हवाई अड्डे से खलिस्तान लिबरेशन फोर्स के प्रमुख हरमिंदर सिंह उर्फ मिंटू को एक साथी के साथ गिरफ्तार किया गया। ये लेाग थाईलैंड से आ रहे थे। यही मिंटू नाभा जेल से भागा व दिल्ली में 27 नवंबर को ही पकड़ लिया गया। पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या के मामले में सजायाफ्ता व  सन 2004 में अतिसुरक्षित कहे जाने वाली चंडीगढ की बुढैल जेल से सुरंग बना कर फरार हुए जगतार सिंह तारा को जनवरी-2015 में थाईलैंड से पकड़ा गया। एक साथ विदेशों में रह कर खालिस्तानी आंदोलन को जिंदा रखने वाले षीर्श आतंकवादियों के भारत आने व गिरफ्तार होने पर भले ही सुरक्षा एजेंसिंयां अपनी पीठ ठोक रही हों, हकीकत तो यह है कि यह उन लोगों का भारत में आ कर अपने नेटवर्क विस्तार देने की येाजना का अंग था। भारत में जेल अपराधियों के लिए सुरक्षित अरामगाह व साजिशों के लिए निरापद स्थल रही है।
बीच में रावी नदी है। इस तरफ है गुरदासपुर का गुरूद्वारा डेरा बाबा नानक और नदी के दूसरे तट पर है पाकिस्तान के नारोवाल जिले का गुरूद्वारा करतारपुर। यहां बाबा नानक के अंतिम सांस ली थी। भले ही ये दो अलग मुल्क दिखते हैं, लेकिन रावी पार कर इधर से उधर जाना कोई कठिन नहीं है। देानों देश के सिख सुबह-सुबह अपने गुरूद्वारे से दूसरे को सीस नवांते हैं। यहीं सक्रिय है चार संगठन - खालिस्तान जिंदाबाद फोर्स (रणजीत ंिसह), खलिस्तान टाईगर फोर्स(जगतार सिंह तारा), बब्बर खालसा इंटरनेशनल(वधवा सिंह) और खालिस्तान लिबरेशन फोर्स(हरमिंदर सिंह मिंटू)। कहने की जरूरत नहीं है कि भारत द्वारा वांछित सूची के कई आतंकवादी यदि उस पार सुकून की जिंदगी बिता रहे हैं तो यह उस सरकार की रजामंदी के बगैर हो नहीं सकता।  बीते एक दशक के दौरान पंजाब में युवाओं का खेती से मोह भंग हुआ, कनाड़ा व दीगर देशों में जाने का लालच बढ़ा और अचानक ही सीमापार से अफीम व अन्य मादक पदार्थों की आवक बढ़ी। अफगानिस्तान हो या पूर्वी अफ्रीका या फिर पंजाब, हर जगह आतंकवाद हर समय नशाखोरी पर सवार हो कर ही आया है। पंजाब में नशे की तिजारत को ले कर खूब सियासत भी हुई, कई बड़े-बड़े नामों तक इसकी आंच भी गई। गौर करें कि सन 1993 में पंजाब से लगी पाकिस्तान की 466 किलोमीटर की सीमा पर कंटीली बाढ़बंदी व फ्लड लाईटें लगाने का काम पूरा हो गया था, और उसके बाद वहां कभी भी घुसपैठ की कोई शिकायत आई नहीं। बेअंत सिंह की हत्या के बाद राज्य में यही बड़ी आतंकवादी घटना हुई है।
याद करें कश्मीरी आतंकी जाकिर मूसा की खोज के सबसे ज्यादा पोस्टर दीनानगर के आसपास लगाए गए। दीनानगर महज सीमा के करीब ही नहीं है है, असल में यह कस्बा कभी महाराज रणजीत सिंह की राजधानी रहा है। इसके आसपास गुरू नानकदेव व अन्य सिख गुरूओं से जुड़ी कई यादें हैं व सीमा से सटे पाकिसतान के गांवों में खासी सिख आबादी भी है। यह भी संभव है कि इस घटना में खालिस्तानियों का हाथ ना हो लेकिन इसने उनके लिए उत्प्रेरक का काम तो किया ही है। पंजाब में सत्ताधारी दल  जिस तरह से भुल्लर की आवभगत कर रहा है, राज्य से चार सांसद लोने वाले आम आदमी पार्टी के कुछ नेता सरेआम खालिस्तान के पक्ष में नारेबाजी करते रहे हैं, इससे साफ जाहिर है कि राज्य में कुछ अपराधियों, कुछ विघ्नसंतोशियों व कुछ देशद्रोहियों को एकजुट कर जहर घाोलना कतई कठिन नहीं है। अभी समय है और साधन भी वरना पंजाब जैसे तरक्कीपसंद, जीवट वाले राज्य को फिर से आतंकवादियों का अड्डा बनने से रोका जाना आसान भी है और जरूरी भी।



शनिवार, 17 नवंबर 2018

Climate change challenge is on head of India

अब तो सिर पर खड़ा है जलवायु परिवर्तन का खतरा
पंकज चतुर्वेदी


भारत की समुद्री सीमा तय करने वाले केरल राज्य में बीते दिनों आया भयंकर जल-प्लावन का ज्वार भले ही धीरे-धरीे छंट रहा हो, लेकिन उसके बाद वहां जो कुछ हो रहा है, वह पूरे देश के लिए चेतावनी है। अपनी जैव विविधता के लिए जग जाहिर वायनाड जिले में अचानक ही केंचूए और कई प्रकृति’प्रेमी कीट गायब हो गए। अभी एक महीेन तक उफन रहीं पंपा, पेरियार, कबानी जैसी कई सदानीरा नदियों का जल-स्तर आश्चर्यजनक ढंग से बहुत कम हो गया। इदुकी, वायनाड जिलों में कई सौ मीटर लंबी दरारें जमीन में आ गईं। हम भूल गए कि पिछले साल चैन्ने और उससे पहले कश्मीर और उससे पहले केदारनाथ मची प्राकृतिक विपदा भी बेहद अस्वाभाविक मौसम और प्राकृतिक घटना की उपज था। यह बानगी है कि धरती के तापनाम में लगातार हो रही बढ़ौतरी और उसके गर्भ से उपजे जलवायु परिवर्तन का भीषण खतरा अब दुनिया के साथ-साथ भारत के सिर पर मंडरा रहा है। यह केवल असामयिक मौसम बदलाव या ऐसी ही प्राकृतिक आपदाओं तक सीमित नहीं रहने वाला, यह इंसान के भाजन, जलाशयों में पानी की शुद्धता, खाद्य पदार्थों की पौष्टिकता, प्रजनन क्षमता से ले कर जीवन के उन सभी पहलुओं पर विषम प्रभाव डालने लगा है जिसके चलते प्रकृति का अस्तित्व और मानव का जीवन  सांसत में है।
अमेरिका के आरेजोन राज्य की सालाना जलवायु परिवर्तन रिपोर्ट 2017 में बताया गया है कि मौसम में बदलाव के कारण पानी को सुरक्षित रखने वाले जलाशयों में ऐसे शैवाल विकासित हो रहे हैं जो पानी की गुणवत्ता को प्रभावित कर रहे हैं।  पिछले दिनो अमेरिका के कोई 60 हजार जलाशयों के जल का परीक्षण  वहां की नेशनल लेक असेसमेंट विभाग ने किया और पाया कि जब जलाशयों में मात्रा से कम पानी होता है तो उसका तापमान ज्यादा होता है और साथ ही उसकी अम्लीयता भी बढ़ जाती हे। जब बांध या जलाशय सूखते हैं तो उनकी तलहटी में कई किस्म के खनिज और अवांछित रसायन भी एकत्र हो जात हैं और जैसे ही उसमें पानी आता है तो वह उसकी गुणवत्ता पर विपरीत असर डालते हैं। सनद रहे ये दोनों ही हालात जल में जीवन यानी- मछली, वनस्पति आदि के लिए घातक हैं। भारत में तो यह हालात हर साल उभर रहे हैंा कभी भयंकर सूख तो जलाशय रीते और कभी अचानक बरसात तो लबालब।
यह तो सभी जानते हैं कि जलवायु परिवर्तन या तापमान बढ़ने का बड़ा कारण विकास की आधुनिक अवधारणा के चलते वातावरण में बढ़ रही कार्बन डाईआक्साइड की मात्रा है। हार्वर्ड टी.एच. चान स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ की ताजा रिपोर्ट में बताती है कि इससे हमारे भोजन में पोषक तत्वों की भी कमी हो रही है। रिपेर्ट चेतावनी देती है कि धरती के तापमान में बढ़ौतरी खाद्य सुरक्षा के लिए दोहरा खतरा है। आईपीसीसी समेत कई अंतरराष्ट्रीय अध्ययनों में इससे कृषि उत्पादन घटने की आशंका जाहिर की गई है। इससे लोगों के समक्ष खाद्य संकट पैदा हो सकता है। लेकिन नई रिपोर्ट और बड़े खतरे की ओर आगाह कर रही है। दरअसल, कार्बन उत्सर्जन से भोजन में पोषक तत्वों की कमी हो रही है। रिपोर्ट के अनुसार कार्बन उत्सर्जन में बढ़ोतरी के कारण चावल समेत तमाम फसलों में पोषक तत्व घट रहे हैं। इससे 2050 तक दुनिया में 17.5 करोड़ लोगों में जिंक की कमी होगी, 12.2 करोड़ लोग प्रोटीन की कमी से ग्रस्त होंगे।.दरअसल, 63 फीसदी प्रोटीन, 81 फीसदी लौह तत्व तथा 68 फीसदी जिंक की आपूर्ति पेड़-पौंधों से होती है। जबकि 1.4 अरब लोग लौह तत्व की कमी से जूझ रहे हैं जिनके लिए यह खतरा और बढ़ सकता है। .
शोध में पाया गया कि जहां अधिक कार्बन डाईऑक्साइड की मौजूदगी में उगाई गई फसलों में तीन तत्वों जिंक, आयरन एवं प्रोटीन की कमी पाई गई है। वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में प्रयोग के जरिए इस बात की पुष्टि भी की है। .रिपोर्ट में कहा गया है कि कार्बन डाई आक्साइड पौंधों को बढ़ने में तो मदद करता है। लेकिन पौंधों में पोषक तत्वों की मात्रा को कम कर देता है।.यह रिपोर्ट भारत जैसे देशों के लिए अधिक डराती है क्योंकि हमारे यहा पहले से कुपोषण एक बड़ी समस्या है।
एक तरफ परिवेश में कार्बन की मात्रा बढ़ रही है तो दूरी ओर ओजोन परत में हुए छेद में दिनों-दिन विस्तार हो रहा है। इससे उपजे पर्यावरणीय संकट का कुप्रभाव है कि मरूस्थलीयकरण दुनिया के सामने बेहद चुपचाप , लेकिन खतरनाक तरीके से बढ़ रहा है। इसकी चपेट में आए इलाकों में लगभग आधे अफ्रीका व एक-तिहाई एशिया के देश हैं। यहां बढ़ती आबादी के लिए भेाजन, आवास, विकास आदि के लिए बेतहाशा जंगल उजाड़े गए । फिर यहां नवधनाढ्य वर्ग ने वातानुकूलन जैसी ऐसी सुविधआों का बेपरवाही से इस्तेमाल किया, सिससे ओजोन परत का छेद और बढ़ गया। याद करें कि सत्तर के दशक में अफी्रका के साहेल इलाके में भयानक अकाल पड़ा था, तब भी संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियों ने चेताया था कि लगातार सूखी या बंजर हो रही जमीन के प्रति बेपरवाही रेत के अंबार को न्यौता दे रही है। उसी समय कुछ ऐसी सिंचाई प्रणालियां शुरू हुई, जिससे एक बारगी तो हरियाली आती लगी, लेकिन तीन दशक बाद वे परियोजनाएं बंजर, दलदली जमीन उपजाने लगीं। ऐसी ही जमीन, जिसकी ‘‘टॉप सॉईल’’ मर जाती है, देखते ही देखते मरूस्थल का बसेरा होती है। जाहिर है कि रेगिसतान बनने का खतरा उन जगहों पर ज्यादा है, जहां पहले उपजाउ जमीन थी और अंधाधुंध खेती या भूजल दोहन या सिंचाई के कारण उसकी उपजाउ क्ष्मता खतम हो गई। ऐसी जमीन पहले उपेक्षित होती है और फिर वहां लाइलाज रेगिस्तान का कब्जा हो जाता है। यहरां जानना जरूरी है कि धरती के महज सात फीसदी इलाके में ही मरूसथल है, लेकिन खेती में काम आने वाली लगभग 35 प्रतिशत जमीन ऐसी भी है जो शुष्क कहलाती है और यही खतरे का केंद्र है।
बेहद हौले से और ना तत्काल दिखने वाली गति से विस्तार पा रहे रेगिस्तान का सबसे ज्यादा असर एशिया में ही है। इसरो का एक शोध बताता है कि थार रेगिस्तान अब राजस्थान से बाहर निकल कर कई राजयों में जड़ जमा रहा है। हमारे 32 प्रतिशत भूभाग की उर्वर क्षमता कम हो रही है, जिसमें से महज 24 फीसदी ही थार के इर्द गिर्द के हैं। सन 1996 में थार का क्षेत्रफल एक लाख 96 हजार 150 वर्ग किलोमीटर था जो कि आज दो लाख आठ हजार 110 वर्ग किलोमीटर हो गया है। भारत की कुल 328.73 मिलियन जमीन में से 105.19 मिलियन जमीन पर बंजर ने अपना डेरा जमा लिया है, जबकि 82.18 मिलियन हैक्टर जमीन रेगिसतान में बदल रही है। यह हमारे लिए चिंता की बात है कि देश के एक-चौथाई हिस्से पर आने वाले सौ साल में मरूस्थल बनने का खतरा आसन्न है। हमारे यहां सबसे ज्यादा रेगितान राजस्थान में है, कोई 23 मिलियन हैक्टर। गुजरात, महाराष्ट्र, मप्र, और जम्मू-कश्मीर की 13 मिलियन भूमि पर रेगिस्तान है तो अब उड़ीसा व आंध््राप्रदेश में रेतीली जमीन का विस्तार देखा जा रहा है। अंधाधुंध सिंचाई व जम कर फसल लेने के दुष्परिणाम की बानगी पंजाब है, जहां दो लाख हैक्टर जमीन देखते ही देखते बंजर हो गई। बंिटंडा, मानसा, मोगा, फिरोजपुर, मुक्तसर, फरीदकोट आदि में जमीन में रेडियो एक्टिव तत्व की मात्रा सीमा तोड़ चुकी है और यही रेगिस्तान की आमद का संकेत है।
भारत के संदर्भ में यह तो स्पष्ट है कि हम वैश्विक प्रदूषण व जलवायु परिवर्तन के शिकार तो हो ही रहे हैं, जमीन की बेतहाशा जुताई, मवेशियों द्वारा हरियाली की अति चराई, जंगलों का विनाश और सिंचई की दोषपूर्ण परियोजनाएं हैं। बारिकी से देखेें तो इन कारकों का मूल बढ़ती आबादी है। हमारा देश आबादी नियंत्रण में तो सतत सफल हो रहा है, लेकिन मौजूदा आबादी का ही पेट भरने के लिए हमारे खेत व मवेशी कम पड़ रहे हैं। ऐसे में एक बार फिर मोटे अनाज को अपने आहार में शामिल करने, ज्यादा पानी  वाली फसलों को अपने भोजन से कम करने जैसे प्रयास किया जाना जरूरी हैं। सिंचाई के लिए भी छोटी, स्थानीय तालाब , कुओं पर आधारित रहने की अपनी जड़ों की ओर लौटना होगा। यह स्पष्ट है कि बड़े बांध जितने महंगे व अधिक समय में बनते हैं, उनसे उतना पानी तो मिलता नहीं है, वे नई-नई दिक्कतों को उपजाते हैं, सो छोटे तटबंध, कम लंबाई की नहरों के साथ-साथ रासायनिक खाद व दवाओं का इस्तेमाल कम करना रेगिसतान के बढ़ते कदमों पर लगाम लगा सकता है। भोजन व दूध के लिए मवेशी पालन तो बढ़ा लेकिन उनकी चराई की जगह कम हो गई। परिणामतः मवेशी अब बहुत छोटी-छोटी घास को भी चर जाते हैं और इससे जमीन नंगी हो जाती है। जमीन खुद की तेज हवा और पानी से रक्षा नहीं कर पाती है. मिट्टी कमजोर पड़ जाती है और सूखे की स्थिति में मरुस्थलीकरण का शिकार हो जाती है। मरुस्थलों के विस्तार के साथ कई  वनस्पति और पशु प्रजातियों की विलुप्ति हो सकती है. गरीबी, भुखमरी और पानी की कमी इससे जुड़ी अन्य समस्याएं हैं।
जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के कारण कृषि पर मंडराते खतरों के प्रति सचेत करते हुए इंटरनेशनल सेंटर फॉर रिसर्च इन एग्रोफारेस्ट्री के निदेशक डॉ. कुलूस टोपर ने भी अपनी रिपोर्ट में बताया है कि आने वाले दिन जलवायु परिवर्तन के भीषणतम उदाहरण होंगे जो कृषि उत्पादकता पर चोट, जल दबाव, बाढ़, चक्रवात व सूखे जैसी गंभीर दशाओं को जन्म देंगें। हकीकत यह है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के कारण कृषि व्यवस्था पर प्रतिकूल असर पड़ने से पूरी दुनिया में ‘खाद्यान्न संकट’ की विकरालता बढ़ जायेगी जो कि चिन्ता का विषय है। यह सर्वविदित है कि भारत की अर्थ व्यवस्था का आधार आज भी खेती-किसानी ही है। साथ ही हमारे यहां की विशाल आबादी का पेट भरते के लिए उन्नत खेती अनिवार्य है।
जलवायु परिवर्तन की मार भारत में जल की उपलब्धता पर भी पड़ रही है। देश में बीते 40 सालों के दौरान बरसात के आंकड़े देखें तो पता चलता है कि इसमें निरंतर गिरावट आ रही है। बीसवीं सदी के प्रारम्भ में औसत वर्षा 141 सेंटीमीटर थी जो नब्बे के दशक में कम होकर 119 सेंटीमीटर रह गई है। उत्तरी भारत में पेयजल का संकट साल-दर-साल भयावह रूप लेता जा रहा है। तीन साल में एक बार अल्प वर्षा यहां की नियति बन गया है। तिस पर देश की सदानीरा गंगा-यमुना जैसी नदियों के उद!गम ग्लैशियर बए़ते तापमान से बैचेन हैं।
विभिन्न अध्ययनों के आधार पर यह तथ्य उभरकर सामने आया है कि यदि तापमान में 2 डिग्री सेटीग्रेड के लगभग वृद्धि होती है तो गेहूँ की उत्पादकता में कमी आयेगी। जिन क्षेत्रों में गेहूँ की उत्पादकता अधिक है, वहाँ पर यह प्रभाव कम परिलक्षित होगा तथा जहाँ उत्पादकता कम है उन क्षेत्रों में उत्पादकता में कमी अधिक होगी। ऐसा अनुमान व्यक्त किया गया है कि तापमान के 1 डिग्री सेटीग्रेड बढ़ने पर गेहूँ के उत्पादन में 4-5 करोड़ टन की कमी होगी। यही नहीं, वर्ष 2100 तक फसलों की उत्पादकता में 10 से 40 प्रतिशत तक कमी आने से देश की खाद्य-सुरक्षा के खतरे में पड़ जाने की प्रबल संभावना है। ऐसा अनुमान है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से रबी की फसलों को अधिक नुकसान होगा। इसके अतिरिक्त वर्षा आधारित फसलां को अधिक नुकसान होगा क्योंकि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के कारण वर्षा की मात्रा कम होगी जिसके कारण किसानों को सिंचाई हेतु जल उपलब्ध नहीं हो पायेगा।
इसी प्रकार जलवायु पविर्तन का कुप्रभाव खेती की मिट्टी पर पड़ने के कारण उसकी उर्वरा क्षमता घटने, मवेशियो  की दुग्ध क्षमता कम होने  आदि पर भी दिख रहा है। एक अनुमान है कि जलवायु पविर्तन की मार के कारण वर्ष 2020 तक हमारे यहां की दूध की उपलब्धता 1.6 करोड़ टन तथा 2050 तक 15 करोड़ टन तक कम हो सकती है। खाद्य सुरक्षा रिपोर्ट पर गौर करें तो वर्ष 2030 तक देश में जलवायु में हो रहे परिवर्तन से कई तरह की फसलों को उगाना मुश्किल हो जाएगा। कृषि उत्पादन कम होगा और भूखे लोगों की संख्या बढ़ेगी।
भारत में जलवायु परिवर्तन के कुप्रभाव से खेती-किसानी का ध्वंस्त होने की बात भारत के 2018 आर्थिक सर्वेक्षण में भी दर्ज है। हमारी अधिकांश खेती असिंचित होने के कारण कृषि विकास दर पर मौसम का असर पड़ रहा है।  यदि तापमान एक डिग्री-सेल्सियस बढ़ता है तो खरीफ (सर्दियों) मौसम के दौरान किसानों की आय 6.2 फीसदी कम कर देता है और असिंचित जिलों में रबी मौसम के दौरान 6 फीसदी की कमी करता है। इसी तरह यदि बरसात में औसतन 100 मिमी की कमी होने पर किसानों की आय में 15 फीसदी और रबी के मौसम में 7 फीसदी की गिरावट होती है, जैसा कि सर्वेक्षण में कहा गया है।
यही नहीं ज्यादा बरसात होने पर उफनती नदियों की चपेट में आने वाली आबादी भी छह गुणा तक हो सकती है। अभी हर साल कोई 25 करोड़ लेाग बाढ़ से प्रभावित होते हैं। असल में किसी भी नदी के बीते सौ साल में टहलने वाले रास्ते को ‘‘रीवर बेड़’’ कहा जाता है। यानी इस पर लौट कर कभी भी नदी आ सकी है। हमोर जनसंख्श्या विस्फोट और पलायन के कारण उभरी आवासीय कमी ने ऐसे ही नदी के सूखे रास्तों पर बस्तियां बसा दीं और अब बरसात होने पर नदी जब अपने   किसी भूले बिसरे रास्ते पर लौट आती है तो तबाही होती है। ठीक इसी तरह तापमान बढ़ने से ध्रुवीय क्षेत्र में तेजी से बरफ गलने के कारण समुद्र के जल-स्तर में अचानक बए़ौतरी का असर भी हमारे देश मे तटीय इलाकों पर पउ़ रहा है।
क्या है ग्लोबल वॉर्मिंग ?
हमारी धरती को प्राकृतिक तौर पर सूर्य की किरणों से गरमी मिलती है। ये किरणें वायुमंडल से गुजरते हुए पृथ्वी की सतह से टकराती हैं और फिर वहीं से परावर्तित होकर लौट जाती हैं। धरती का वायुमंडल कई गैसों से मिलकर बना है जिनमें कुछ ग्रीनहाउस गैसें भी शामिल हैं। इनमें से ज्यादातर धरती के ऊपर एक प्राकृतिक आवरण बना लेती हैं। यह आवरण लौटती किरणों के एक हिस्से को रोक लेता है और इस तरह धरती को गरम बनाए रखता है। इंसानों, दूसरे प्राणियों और पौधों के जीवित रहने के लिए कम से कम 16 डिग्री सेल्सियस तापमान की जरूरत होती है। वैज्ञानिकों का मानना है कि ग्रीनहाउस गैसों में बढ़ोतरी होने पर यह आवरण और भी मोटा होता जाता है। ऐसे में यह आवरण सूर्य की ज्यादा किरणों को रोकने लगता है और फिर यहीं से शुरू होते हैं ग्लोबल वॉर्मिंग के दुष्प्रभाव मसलन समद्र स्तर ऊपर आना, मौसम में एकाएक बदलाव और गर्मी बढ़ना, फसलों की उपज पर असर पड़ना और ग्लेशियरों का पिघलना। यहां तक कि ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से प्राणियों की कई प्रजातियां भी लुप्त हो चुकी हैं।
यह वैज्ञानिक तथ्य है कि बीते सौ सालों के दौरान सन 1900 से 2000 तक पृथ्वी का औसत तापमान एक डिग्री फैरेनहाइट बढ़ गया है। सन 1970 के मुकाबले आज धरती का तापमान तीन गुणा तेजी से बढ़ रहा है। इस बढ़ती वैश्विक गर्मी का असल कारण इंसान व उसकी भौतिक सुविधाओं की जरूरतें ही हैं। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन, गाड़ियों से निकलने वाला घुँआ और जंगलों में लगने वाली आग इसकी मुख्य वजह हैं। इसके अलावा घरों में लक्जरी वस्तुएँ मसलन एयरकंडीशनर, रेफ्रिजरेटर, ओवन आदि भी इस गर्मी को बढ़ाने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं।
ग्रीन हाउस गैस पृथ्वी के वातावरण में प्रवेश तो कर लेती हैं लेकिन यहाँ से वापस ‘अंतरिक्ष’ में नहीं जातीं और यहाँ का तापमान बढ़ाने में कारक बनती हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार इन गैसों का उत्सर्जन अगर इसी प्रकार चलता रहा तो 21वीं शताब्दी में पृथ्वी का तापमान 3 से 8 डिग्री तक बढ़ सकता है। अगर ऐसा हुआ तो इसके परिणाम बहुत घातक होंगे। विश्व के कई हिस्सों में बिछी बर्फ गल जाएगी, इससे जल का आगमन बढ़ेगा व समुद्र का जल स्तर कई फीट ऊपर तक बढ़ जाएगा। समुद्र के इस बर्ताव से विश्व के कई हिस्से जलमग्न हो जाएँगे। भारी तबाही मचेगी।
धर्म ग्रंथों में पहले से ही है चेतावनी
आखिर ऐसा क्यों हो रहा है और इस बदलाव के कारण धरती किस दिशा में जा रही है, इसके लिए जरा भारत के आदिग्रंथ महाभारत के एक हिस्से को बांचते हैं। करीब पांच हजार वर्ष पूर्व के ग्रंथ महाभारत में ‘‘वनपर्व’’ में महाराजा युधिष्ठिर का मार्कण्डेय ऋषि से मार्मिक संवाद दर्ज है। युधिष्ठिर मार्कण्डेय ऋषि से विनम्रता पूर्वक पूछते हैं- ‘‘महामुने, आपने युगों के अन्त में होने वाले अनेक महाप्रलय के दृश्य देखे हैं, मैं आपके श्रीमुख से प्रलयकाल का निरूपण करने वाली कथा सुनना चाहता हूं।’’ (महाभारत, गीता प्रेस-गोरखपुर, द्वितीय खंड-वनपर्व, मारकण्डेय-युधिष्ठिर संवाद, पृ. 1481-1494) इसमें ऋषि जवाब देते हैं- ‘‘हे राजन, प्रलय काल में सुगंधित पदार्थ नासिका को उतने गंधयुक्त प्रतीत नहीं होंगे। रसीले पदार्थ स्वादिष्ट नहीं रह जाएंगे। वृक्षों पर फल और फूल बहुत कम हो जाएंगे और उन पर बैठने वाले पक्षियों की विविधता भी कम हो जाएगी। वर्षाऋतु में जल की वर्षा नहीं होगी। ऋतुएं अपने-अपने समय का परिपालन त्याग देंगी। वन्य जीव, पशु-पक्षी अपने प्राकृतिक निवास की बजाए नागरिकों के बनाए बगीचों और विहारों में भ्रमण करने लगेंगे। संपूर्ण दिशाओं में हानिकारक जन्तुओं और सर्पों का बाहुल्य हो जाएगा। वन-बाग और वृक्षों को लोग निर्दयतापूर्वक काट देंगे।’’ कृषि और व्यापार पर टिप्पणी करते हुए मार्कण्डेय ऋषि कहते हैं- ‘‘भूमि में बोये हुए बीज ठीक प्रकार से नहीं उगेंगे। खेतों की उपजाऊ शक्ति समाप्त हो जाएगी। लोग तालाब-चारागाह, नदियों के तट की भूमि पर भी अतिक्रमण करेंगे। समाज खाद्यान्न के लिए दूसरों पर निर्भर हो जाएगा।’’
वे आगे कहते हैं -‘‘हे राजन, एक स्थिति ऐसी भी आएगी कि जनपद जन-शून्य होने लगेंगे। गरीब लोग और अधिकांश प्राणी भूख से बिलबिलाकर मरने लगेंगे। चारों ओर प्रचण्ड तापमान संपूर्ण तालाबों, सरिताओं और नदियों के जल को सुखा देगा। लंबे काल तक पृथ्वी पर वर्षा होनी बंद हो जाएगी। प्रचण्ड तेज वाले सात सूर्य उदित होंगे और जो कुछ भी धरती पर शेष रहेगा, उसे वे भस्मीभूत कर देंगे।’’ 
यह तो सभी जानते हैंकि  सनातन धर्म का प्रारंभ सतयुग से है, सतयुग जब सभी कुछ सत्य था। । फिर आया त्रेता युग। ‘त्रे’ अर्थात तीन - इस युग में तीन हिस्सा सच बचा और एक चैथाई असत्य। उसके बाद आया द्वापर युग। ‘‘द्वा’’ यानि दो आर्थात जहां दो हिस्से यानि आधा सच था और आधा झूठ। फिर कल युग में तो सच के अंश बचे ही नहीं।
ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार कलयुग में लोगों के बाल 16 घर की आयु में ही सफ़ेद हो जाएंगे और वह 20 वर्ष की आयु में ही बूढ़े हो जाएंगे। युवा अवस्था समाप्त हो जाएगी। आज यह बात सच होती दिख रही है। कम उम्र में बच्चे व युवा ऐसी बीमारियों से ग्रस्त हो रहे हैं जिनसे उनकी षारीरिक क्षमता बूढ़ों से बदतर हो जाती है। इस दौर में बेहतरीन स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध होने के बावजूद 100 साल की उम्र तक जीने वालों की संख्या लगभग नही ंके बराबर रह गई हे। इंसान की औसत उम्र कोई 67 साल है। जिस तरह पृथ्वी के नैसर्गिक स्वरूप को  विद्रूप किया जा रहा है, आम लेागों की दिनचर्या, खानपान बदल रहा है ; स्पश्ट है कि आने वाले दिनों में इंसान का षरीर कई तरह की व्याधियां झेलेगा।
ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार कलयुग के 5000 साल बाद गंगा नदी सुख जाएगी। और देवी गंगा पुनः बैकुंठ धाम लौट जाएगी। गंगा नदी की आज क्या हालात है? किससे छुपी नहीं है, हजारों करोउ़ व्यय होने के बावजूद गंगा में प्रदूशण, जल के बहाव की मात्रा और गहराई में कमी आना जस का तस बना है। पुराण यह भी कहता है कि कलयुग में एक समय ऐसा भी आएगा जब जमीन से अन्न उपजना भी बंद हो जाएगा। पेड़ों पर फल नहीं लगेंगे।और धीरे धीरे यह सभी चीजें विलुप्त हो जाएगी। कहने की जरूरत नहीं जब नदियों नहीं होंगी, जब बरसात कम होगी, जब आबादी बढेगी तो हरियाली लुप्त होना लाजिमी है। ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार कलयुग के अंत समय में पृथ्वी पर बहुत मोटी धारा से लगातार वर्षा होगी। जिससे सम्पूर्ण पृथ्वी पर चारों ओर पानी ही पानी हो जाएगा,और समस्त प्राणियों का अंत हो जाएगा।

गुरुवार, 15 नवंबर 2018

your house is also in grip of air pollution

कहीं घर में ही तो नहीं घुटता हैं दम?
पंकज चतुर्वेदी


अक्तूबर महीने के आखिरी सप्ताह से ही मध्यभारत की  हवा जहरीली होने पर विमर्श होने लगा था। सुप्रीम कोर्ट ने आतिशबाजी चलाने पर सीमित रोक लगाई, इसके बावजूद हवा का जहर बरकरार है। सलाह दी जा रही है कि जरूरी न हो तो घर से न निकलें, लेकिन यह तथ्य है कि अब हमारे घर के भीतर भी प्रदूषण जानलेवा किस्म से घर कर रहा है। अब हालत इतने खराब हैं कि बामुश्किल एक महीने के बच्चे को जब निमोनिया हुआ तो पता चला कि उनके घर के भीतर ही उसके जीवाणु थे।, बच्चे का घर से बाहर जाने का सवाल नहीं उठता, घर भी एक पॉश कॉलोनी में है। फिर भी उसे निमोनिया हो गया।’’ पढ़े-लिखे माता-पिता पहले तो डाक्टरों की क्षमता पर ही प्रश्न चिन्ह खड़े करते रहे कि हम तो बच्चे को बहुत सहेज कर रखते हैं, हमारा  घर सभी सुख-सुविधाओं से संपन्न है, उसे निमोनिया कैसे हो सकता है? बड़े-बड़े नामीगिरामी डाक्टररों की पूरी फौज लगी बच्चे को बचाने में लेकिन मां का मन फंसा था कि आखिर यह हुआ कैसे?। घर में कोई बीड़ी-सिगरेट पीता नहीं है कि छोटे कण बच्चे की सांस तक पहुंचें। उन लोगां ने अपने यहां मच्छरमार कायॅल लगना कभी का बंद कर रखा था,। ।

 कई संभावनओं  और सवालों के बाद पता चला कि उनके घर के पिछले हिस्से में निर्माण कार्य चलरहा था। जिस तरफ रेत-सीमेंट का काम था, वहीं उस कमरे का एयरकंडीशनर लगा था और उसका एयर फिल्टर साफ नहीं था। यह तो महज बानगी है कि हम घर से बाहर जिस तरह प्रदूषण से जूझ रहे हैं, घर के भीतर भी जाने-अनजाने में हम ऐसी जीवन शैल अपनाएं हुए हैं जोकि ना केवल हमारे लिए, बल्कि समूचे वातावरण में प्रदूषण का कारक बने हुए हैं।

प्रदूषण का नाम लेते ही हम वाहनों या कारखानों से निकलने वाले काले धुएं की बात करने लगते हैं लेकिन सावधान होना जरूरी है कि घर के भीतर कां प्रदूषण यानी इनडोर पॉल्यूशन  बाहरी की तुलना में और भी घातक है। दिल्ली, मुम्बई, चेन्नई, कोलकाता और बेंगलुरू जैसे शहरों में तो इसकी स्थिति और खराब है। यहां जनसंख्या घनत्व ज्यादा है, आवास बेहद सटे हुए हैं, हरियाली कम है । खासतौर पर बच्चों के मामले में तो यह और खतरनाक होता जा रहा है। पिछले साल पटेल चेस्ट इंस्टिट्यूट के डिपार्टमेंट ऑफ रेस्पेरेटरी मेडिसिन के डॉक्टर राजकुमार द्वारा किए गए एक शोध में दावा किया गया है कि घर के अंदर बढ़ते प्रदूषण के कारण लगातार अस्थमा के मरीज बढ़ रहे हैं। सबसे ज्यादा बच्चे दमे की चपेट में आ रहे हैं।

घर के भीतर के प्रदूषण में राजधानी दिल्ली के हालात बहुत ही गंभीर पाए गए। कुछ जगह तो घर के अंदर का प्रदूषण इस खतरनाक स्तर तक पहुंच गया है कि वहां के 14 प्रतिशत से भी अधिक बच्चे अस्थमा के रोगी बन चुके हैं। शोध के अनुसार सबसे खतरनाक स्थिति शाहदरा की पाई गई। यहां 394 बच्चों में से 14.2 प्रतिशत अस्थमा के शिकार पाए गए। खराब स्थिति के मामले में दूसरे नंबर पर शहजादाबाग रहा। यहां 437 में से 9.6 प्रतिशत बच्चों को अस्थमा का रोगी पाया गया। वहीं, अशोक विहार में कुल 441 बच्चे हैं, जिनमें से 7.5 प्रतिशत अस्थमा के रोगी हो गए हैं। जनकपुरी में कुल 400 बच्चे हैं, जिनमें से 8.3 प्रतिशत अस्थमा के रोगी हो गए हैं। निजामुद्दीन में कुल 350 बच्चे हैं, जिनमें से 8.3 प्रतिशत अस्थमा के रोगी हो गए हैं। इसी तरह सीरी फोर्ट में 387 बच्चों में से 6.2 प्रतिशत अस्थमा के रोगी हो गए हैं। लेकिन जैसे- जैसे गांव की ओर बढ़े तो ,मामले घटते गए। दौलतपुरा में 325 बच्चों में से 4.6 प्रतिशत तो जगतपुरी में 370 बच्चों में से मात्र 3.2 को अस्थमा की शिकायत पाई गई। शोध में यह चेतावनी भी सामने आई कि औद्योगिक क्षेत्र वाले घरों में तो 11.8 प्रतिशत बच्चे अस्थमा का शिकार हो चुके हैं। वहीं आवासीय क्षेत्रों के 7.5 प्रतिशत बच्चे अस्थमा के मरीज मिले। इस मामले गांवों की स्थिति बेहतर है। ग्रामीण क्षेत्रों में मात्र 3.9 प्रतिशत बच्चे इस रोग से पीड़ित मिले। सनद रहे कि छोटे बच्चे, महिलाएं और बुजुर्ग अपा अधिकांश समय घर पर ही बिताते हैं, अतः घर के भीतर का प्रदूषण उनके लिए ज्यादा जानलेवा है।
डॉक्टर राजकुमार ने शोध में 3104 बच्चों को शामिल किया जिनमें 60.3 प्रतिशत लड़के थे और 39.7 प्रतिशत लड़कियां थीं। बच्चों को अस्थमा की शिकायत तो नहीं, यह जांचने के लिए विशेष तौर पर केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, अमेरिकन थोरासिक काउंसिल और द इंटरनेशनल स्टडी ऑफ अस्थमा एंड एलर्जी इन चाइल्डहुड द्वारा तैयार किए सवाल पूछे गए।

असल में हमने भौतिक सुखों के लिए जो कुछ भी सामान जोड़ा है उसमें से बहुत सा समूचे परिवेश के लिए खतरा बना है। किसी ऐसे बुजुर्ग से मिले जिनकी आयु साठ साल के आसपास हो और उनसे जानें कि उनके जवानी के दिनों में हर दिन घर से कितना कूड़ा निकलता था । आपको जानकर आश्चर्य होगा कि जितना कूड़ा हम एक दिन में आज घर से बाहर फैंक रहे हैं उतना वे दस दिन ेमं भी नहीं करते थे। आज पैकिंग सामग्री, पेन से ले कर रेजर तक सबकुछ डिस्पोजबल है और जाने-अनजाने में हम इनका इस्तेमाल कर कूड़े को बढ़ाते हैं। माईक्रोवब जैसे विबजली उपकरण्ण अधिक इस्तेमाल करने पर बहुत गंभीर बीमारियों का कारक बनते हैं, वहीं नए किस्म के कारपेट, फर्नीचर, परदे सभी कुछ बारिक धूल कणों का संग्रह स्थल बन रहे हैं और यही कण इंसान की सांस की गति में व्यवधान पैदा करते हैं। सफाई, सुगंध, कीटनाशकों के इस्तेमाल भले ही तात्कालिक आनंद देते हों,े लेकिन इनका फैंफड़ों प बहुत गंभीर असर होता है।
वैसे घर को निरापद बनाना आपके ही हाथों में है। आमतौर पर सुबह आपको कई ऐसे लेाग मिल जाएंगे जो दूसरों की क्यारी से फूल तोड़ते होते हैं। उनसे पूछे तो कहेंगे कि भगवान को चढ़ाने का ले रहे हैं। जर सोचें कि यदि भगवान ने ही फूल बनाए हैं तो वे उनका क्या करेंगे। असल में इस परंपरा के पीछे कारण ही यही था कि लोग अपने घर में फूलदार पौधे लगाएं, जो सुदर भी दिखें व पर्यावरण को भी सहेजे। विडंबना है कि हम अपने घर-आंगन की जमीन पर तो सीमेंट लगा कि निरापद बना दते हैं जिससे उस पर कोई पौधा ना उगे, लेकिन दूसरे की क्यारी के फूल से भगवान को खुश करने का प्रयास करते है।
घर में कम से कम कीटनाशक का इस्तेमाल करें- ना तो पौधों में ना ही कमरों में। असल में ये कीटनाशक हानिकारक कीडों की क्षमता बढ़ा देते हें, वहीं इनकी फिराक में कई ऐसेसूक्ष्म जीवाणु मर जाते हैं जो कि प्रकृति के संरक्षक होते हैं। घर में पौघे जरूर लगाएं लेकिन उनको घर के भीतर लगाने से परहेज करें। क्योंकि रात में जब घर बंद होता है तो इन पौधों से निकलने वाली कार्बन डाइऑक्साइड गैस सेहत के लिए नुकसानदेह साबित होगा। घर के भीतर की धूल साफ करने का काम नियमित रूप से करना चाहिए। यदि घर में पालतू जानवर है तो उसकी सफाई का भी ध्यान रखें। घर में मच्छर-कॉकरोच मारने के लिए जहरीले कैमिकल न छिड़कें। घर के अंदर धूम्रपान न करें।


सोमवार, 12 नवंबर 2018

chhath : the festival of ecology conservation

क्यों ना छट को पर्यावरण पर्व के रूप में मनाएं


दीपावली के ठीक बाद में बिहार व पूर्वी राज्यों में मनाया जाने वाला छठ पर्व अब प्रवासी बिहारियों के साथ-साथ सारे देष में फैल गया है। गोवा से लेकर मुंबई और भोपाल से ले कर बंगलूरू तक, जहां भी पूर्वांचल के लोग बसे हैं, कठिन तप के पर्व छठ को हरसंभव उपलब्ध जल-निधि के तट पर मनाना नहीं भूलते है। वास्तविकता यह भी है कि छट को भले ही प्रकृति पूजा और पर्यावरण का पर्व बताया जा रहा हो, लेकिन इसकी हकीकत से दो चार होना तब पड़ता है जब उगते सूर्य को अर्ध्य दे कर पर्व का समापन होता है और श्रद्धालु घर लौट जाते हैं। पटना की गंगा हो या दिल्ली की यमुना या भोपाल का षाहपुरा तालाब या दूरस्थ अंचल की कोई भी जल-निधि, सभी जगह एक जैसा दृष्य होता है- पूरे तट पर गंदगी, बिखरी पॉलीथीन , उपेक्षित-गंदला रह जाता है वह तट जिसका एक किनारा पाने के लिए अभी कुछ देर पहले तक मारा-मार मची थी।
देष के सबसे आधुनिक नगर का दावा करने वाले दिल्ली से सटे ग्रेटर नोएडा की तरफ सरपट दौड़ती चौड़ी सडक के किनारे बसे कुलेसरा व लखरावनी गांव पूरी तरह हिंडन नदी के तट पर हैं। हिंडन यमूुना की सहायक नदी है लेकिन अपने उद्गम के तत्काल बाद ही सहारनपुर जिले से इसका जल जहरीला होना जो षुरू होता है तो अपने यमुना में मिलन स्थल, ग्रेटर नोएडा तक हर कदम पर दूशित होता जाता है। ऐसी ही मटमैली हिंडन के किनारे बसे इन दो गांवों की आबादी दो लाख पहुंच गई है। अधिकांश वाषिंदे सुदूर इलाकों से आए मेहनत-मजदूरी करने वाले हैं। उनको हिंडन घाट की याद केवल दीपावली के बाद छट पूजा के समय आती है। वैसे तो घाट  के आसपास का इलाका एक तरह से सार्वजनिक षौचालय बना रहता है, लेकिन दीपावली के बाद अचानक ही गांव वाले घाटों की सफाई, रंगाई-पुताई करने लगते हैं। राजनीतिक वजन लगाया जाता है तो इस नाबदान बनी नदी का गंदा बहाव रोक कर इसमें गंगा जल भर दिया जाता है। छठ के छत्तीस घंटे बड़ी रौनक होती है यहां और उसके बाद षेश 361 दिन वहीं गंदगी, बीड़ी-षराब पीने वालों का जमावड़ा । पर्व समाप्ति के अगले ही दिन उसी घाट पर लोग षौच जाते हैं जहां अभी भी प्रसाद के अंष पड़े होते हैं। जिस नदी में भक्त खड़े थे, वह देखते ही देखते काला-बदबूदार नाला बन जाती है, पूरे गांव का गंदा पानी का निस्तार भी इसी में होता है।
छट पर्व लोक आस्था का प्रमुख सोपान है- प्रकृति ने अन्न दिया, जल दिया, दिवाकर का ताप दिया, सभी को धन्यवाद और ‘तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा’ का भाव। असल में यह दो ऋतुओं के संक्रमण-काल में षरीर को पित्त-कफ और वात की व्याधियों से निरापद रखने के लिए गढ़ा गया अवसर था। कार्तिक मास के प्रवेश के साथ छठ की तैयारियां शुरू हो जाती हैं। भोजन में प्याज-लहसुन का प्रयोग पूरी तरह बंद हो जाता है। छठ के दौरान छह दिनों तक दिनचर्या पूरी तरह बदल जाती है। दीवाली के सुबह से ही छठ व्रतियों के घर में खान-पान में बहुत सारी चीजें वर्जित हो जाती है, यहां तक कि सेंधा नमक का प्रयोग होने लगता है।
सनातन धर्म में छट एक ऐसा पर्व है जिसमें किसी मूर्ति-प्रतिमा या मंदिर की नहीं, बल्कि प्रकृति यानि सूर्य, धरती और जल की पूजा होती है।  धरती पर जीवन के लिए, पृथ्वीवासियों के स्वास्थ्य की कामना और भास्कर के प्रताप से धरतीवासियों की समृद्धि के लिए भक्तगण सूर्य के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। बदलते मौसम में जल्दी सुबह उठना और सूर्य की पहली किरण को जलाषय से टकरा कर अपने षरीर पर लेना, वास्तव में एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। वृत करने वाली महिलाओं के भेाजन में कैल्ष्यिम की प्रचुर मात्रा होती है, जोकि महिलाओं की हड्डियों की सुदृढता के लिए अनिवाय भी है। वहीं सूर्य की किरणों से महिलओं को साल भर के लिए जरूरी विटामिन डी मिल जाता है। यह विटामिन डी कैल्ष्यिम को पचाने में भी मदद करता है। तप-वृत से रक्तचाप नियंत्रित होता है और सतत ध्यान से नकारात्मक विचार मन-मस्तिश्क से दूर रहते हैं।
वास्तव में यह बरसात के बाद नदी-तालाब व अन्य जल निधियों के तटों ंपर बह कर आए कूड़े को साफ करने, अपने प्रयोग में आने वाले पानी को इतना स्वच्छ करने कि घर की महिलाएं भी उसमें घंटों खड़ी हो सके, दीपावली पर मनमाफिक खाने के बाद पेट को नैसर्गिक उत्पादों से पोशित करने और विटामिन के स्त्रोत सूर्य के समक्ष खड़े होने का वैज्ञानिक पर्व है।  पर्व में इस्तेमाल प्रत्येक वस्तु पर्यावरण को पपित्र रखने का उपक्रम होती है- बांस का बना सूप, दौरा, टोकरी, मउनी व सूपती तथा मिट्टी से बना दीप, चौमुख व पंचमुखी दीया, हाथी और कंद-मूल व फल जैसे ईख, सेव, केला, संतरा, नींबू, नारियल, अदरक, हल्दी, सूथनी, पानी फल सिंघाड़ा, चना, चावल (अक्षत), ठेकुआ, खाजा इत्यादि।
इसकी जगह ले ली- आधुनिक और कहीं-कहीं अपसंसकृति वाले गीतों ने , आतिषबाजी,घाटों की दिखावटी सफाई, नेातागिरी, गंदगी, प्लास्टिक-पॉलीथीन जैसी प्रकृति-हंता वस्तुओं और बाजारवाद ने। अस्थाई जल-कुंड या सोसायटी के स्वीमिग पुल में छट पूजा की औपचारिकता पूरा करना असल में इस पर्व का मर्म नहीं है। लोग नैसर्गिक जल-संसाधनों तक जाएं, वहां घाट व तटों की सफाई करें और फिर पूजा करें , इसके बनिस्पत अपने घर के पास एक गड्ढे में पानी भर कर पूजा के बाद उसके गंदा, बदबूदार छोड़ देना तो इसकी आत्मा को मारना ही है। यही नहीं जिस जल में वृत करने वाली महिलाएं खड़ी रहती हैं, वह भी इतना दूशित होता है कि उनके पैरों और यहां तक कि गुप्तांगों में संक्रमण की संभावना बनी रहती है। गंदी-जहरीली पोलीथीन में खाद्य  सामग्री ले जाने से उसकी पवित्रता प्रभावित होती है। यही नहीं जो काल षांत तप-आत्ममंथन और ध्यान का होता है, उसमें भौंडे गीत और फिल्मी पैरोडी पर भजनों का सांस्कृतिक व ध्वनि प्रदूशण अलग से होता है। जबकि पारंपरिक रूप से ढोलक या मंजीरा बजा कर गीत गाने से महिलाओं के संपूर्ण षरीर का व्यायाम , अपने पारंपरिक गीतों या मौखिक ज्ञान को अगली पीढ़ी तक पहुंचाने का उपक्रम होता था। उसका स्थान बाजार ने ले लिया । पर्व समाप्त होते ही चारों तरफ फैली पूजा सामग्री में मुंह मारते मवेषी और उसमें से कुछ अपने लिए कीमती तलाषते गरीब बच्चे, आस्था की औपचारिकता को उजागर करते हैं।
काष, छठ पर्व की वैज्ञानिकता, मूल-मंत्र और आस्था के पीछे तर्क को भलीभांति समाज तक प्रचारित-प्रसारित किया जाए। जल-निधियों की पवित्रता, सव्च्छता के संदेष को आस्था के साथ व्याहवारिक पक्षों के साथ लोक-रंग में पिरोया जाए, लोक को अपनी जड़ो की ओर लौटने को प्रेरित किया जाए तो यह पर्व अपने आधुनिक रंग में धरती का जीवन कुछ और साल बढ़ाने का कारगर उपाय हो सकता है। हर साल छट पर्व पर यदि देष भर में हजार तालाब खोदने और उन्हें संरक्षित करने का संकल्प  हो, दस हजार पुराने तालाबों में गंदगी जाने से रोकने का उपक्रम हो , नदियों के घाट पर साबुन, प्लास्टिक  और अन्य गंदगी ना ले जाने की षपथ हो तो छट के असली प्रताप और प्रभाव को देखा जा सकेगा।
यदि छट के तीन दिनों को जल-संरक्षण दिवस, स्वच्छता दिवस जैसे नए रंग के साथ प्रस्तुत किया जाए और आस्था के नाम पर एकत्र हुई विषाल भीड़ को भौंडे गीतों के बनिस्पत इन्हीं सदेषों से जुड़े सांस्कृतिक अरयोजनों से षिशित किया जाए, छट के संकल्प को साल में दो या तीन बार उन्ही जल-घाटों पर आ कर दुहराने का प्रकल्प किया जाए तो वास्तव में सूर्य का ताप, जल की पवित्रता और खेतों से आई नई फसल की पौश्टिकता समाज को निरापद कर सकेगी।
यदि परंपरा और पद्धति को बारिकी से देखें तो छठ पर्व पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूकता फैलाने का सामुदायिक पर्व है। पूरी तरह से पर्यावरण मित्र लोकपर्व है। तमाम प्रसाद- चाहे ठेकुआ हो या कसार, घर में बनाया जाता है। यह आटा और चावल के आटे का बनता है और घी का इस्तेमाल होता है। ये सामान बाजार से नहीं खरीदा जाता। इसके अलावा, तमाम तरह की सब्जी और फलों का प्रसाद होता है। नींबू, हल्दी और अदरक का पौधा, अरबी, शरीफा, आरता का पत्ता, लौंग, इलायची, छुहारा और नारियल का इस्तेमाल होता है। साठी के चावल का भी इस्तेमाल होता है। साठी का चावल तैयार करने में 60 दिन का वक्त लगता है। लोग खुद ही यह चावल उगाते हैं या फिर गांव से मंगवाते हैं। ये तमाम चीजें दउरा (बांस से तैयार बड़ी टोकरी) में रखकर लोग खुद घाट पर ले जाते हैं। घाट पर पूजा के बाद अपने दउरा का एक भी सामान वहां नहीं छोड़ा जाता, क्योंकि यह अत्यंत पवित्र होता है। हर सामान घर लाया जाता है। छठ के लिए पूजा करने वाले लोग नदियों और घाटों की सफाई करते हैं। इस तरह साल में एक बार खुद ब खुद नदी और तालाब की सफाई हो जाती है। इस तरह प्रकृति की पूजा के इस पर्व में सफाई का विशेष ध्यान होता है।
छठ पूजा के दौरान जो भी प्रसाद होता है उससे सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है और फिर सबकुछ लेकर व्रत करने वाले वापस आ जाते हैं। सामान अगर नदीं में छूटता है तो वह फूल-पत्ती होती है, जो पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचाती। इस तरह देखा जाए तो प्रकृति की पूजा का ये महापर्व पूरी तरह से प्रकृति-पूजा है।
छठ पूजा के अनुष्ठान के दौरान गाए जाने वाले- ‘केरवा जे फरले घवध से ओह पर सुग्गा मंडराय, सुगवा जे मरवो धनुष से सुगा जइहे मुरझाए। सुगनी जे रोवेली वियोग से आदित होख ना सहाय.., जैसे गीत इस बात को दर्शाता हैं कि लोग पशु पक्षियों के संरक्षण की याचना कर उनके अस्तित्व को कायम रखना चाहते हैं। इसी तरह इस अनुष्ठान के क्रम में कोसी भरने के समय मिट्टी के वर्तन पर हाथी की आकृति बनाने की परंपरा भी जैव संरक्षण की प्रेरणा प्रदान करता है।

रविवार, 11 नवंबर 2018

खोदते-खोदते खो रहे हैं पहाड़
पंकज चतुर्वेदी

सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों जब सरकार से पूछा कि राजस्थान की कुल 128 पहाड़ियों में से 31 को क्या हनुमानजी उठा कर ले गए? तब सभी जागरूक लोग चौंके कि इतनी सारी पांबदी के बाद भी अरावली पर चल रहे अवैध खनन से किस तरह भारत पर खतरा है। असल में जब तक कोई पर्यावरणीय खतरा दिल्ली पर नहीं मंडराता, उसे गंभीरता से लिया नहीं जाता। जान लें कि गुजरात के खेड ब्रह्म से षुरू हो कर कोई 692 किलोमीटर तक फैली अरावली पर्वतमाला का विसर्जन देश के सबसे ताकतवर स्थान रायसीना हिल्स पर होता है जहां राश्ट्रपति भवन स्थित है। अरावली पर्वतमाला को कोई 65 करोड़ साल पुराना माना जाता है और इसे दुनिया के सबसे प्राचीन पहाड़ों में एक गिना गया है। ऐसी महत्वपूर्ण प्राकृतिक संरचना का बड़ा हिस्सा बीते चार दशक में पूरी तरह ना केवल नदारद हुआ, बल्कि कई जगह उतूंग शिखर की जगह डेढ सौ फुट गहरी खाई हो गई। असर में अरावली पहाड़ रेगिस्तान से चलने वाली आंधियों को रोकने का काम करते रहे हैं जिससे ऐक तो मरूभूमि का विस्तार नहीं हुआ दूसरा इसकी हरियाली साफ हवा और बरसात का कारण बनती रही। अरावली पर खनन से रोक का पहला आदेश 07 मई 1992 को जारी किया गया। फिर सन 2003 में एमाी मेहता की जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में आई। कई-कई ओदश आते रहे लेकिन दिल्ली में ही अरावली पहाड़ को उजाड़ कर एक सांस्थानिक क्षेत्र, होटल, रक्षा मंत्रालय की बड़ी आवासीय कोलेनी बना दी गई। अब जब दिल्ली में गरमी के दिनों में पाकिस्तान से आ रही रेत की मार व तपन ने तंग करना षुरू किया तब यहां के सत्तधारियों को पहाड़ी की चिंता हुई। देश में पर्यावरण संरक्षण के लिए जंगल, पानी बचाने की तो कई मुहीम चल रही है, लेकिन मानव जीवन के विकास की कहानी के आधार रहे पहाड़-पठारों के नैसर्गिक स्वरूप को उजाड़ने पर कम ही विमर्श है। समाज और सरकार के लिए पहाड़ अब जमीन या धनार्जन का माध्यम रह गए हैं और पहाड़ निराश-हताश से अपनी अंतिम सांस तक समाज को सहेजने के लिए संघर्श कर रहे हैं।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान सरकार को आदेश दिया है कि वह 48 घंटे में अरावली पहाड़ियों के 115.34 हेक्टेयर क्षेत्र में चल रहे अवैध खनन पर रोक लगाए। दरअसल राजस्थान के 1करीब 19 जिलों में अरावली पर्वतमाला निकलती है। यहां 45 हजार से ज्यादा वैध-अवैध खदाने है। इनमें से लाल बलुआ पत्थर का खनन बड़ी निर्ममता से होता है और उसका परिवहन दिल्ली की निर्माण जरूरतों के लिए अनिवार्य है। अभी तक अरावली को लेकर रिचर्ड मरफी का सिद्धांत लागू था. इसके मुताबिक सौ मीटर से ऊंची पहाड़ी को अरावली हिल माना गया और वहां खनन को निशिद्ध कर दिया गया था, लेकिन इस मामले में विवाद उपजने के बाद फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया ने अरावली की नए सिरे से व्याख्या की. फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया के मुताबिक, जिस पहाड़ का झुकाव तीन डिग्री तक है उसे अरावली माना गया. इससे ज्यादा झुकाव पर ही खनन की अनुमति है, जबकि राजस्थान सरकार का कहना था कि 29 डिग्री तक झुकाव को ही अरावली माना जाए. अब मामला सुप्रीम कोर्ट में है और सुप्रीम कोर्ट यदि फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया के तीन डिग्री के सिद्धांत को मानता है तो प्रदेश के 19 जिलों में खनन को तत्काल प्रभाव से बंद करना पड़ेगा।

हजारों-हजार साल में गांव-शहर बसने का मूल आधार वहां पानी की उपलब्धता होता था। पहले नदियों के किनारे सभ्यता आई, फिर ताल-तलैयों  के तट पर बस्तियां बसने लगीं। जरा गौर से किसी भी आंचलिक गांव को देखंे, जहां नदी का तट नहीं है- कुछ पहाड़, पहाड़े के निचले हिस्से में झील व उसके घेर कर बसी बस्तियों का ही भूगोल दिखेगा। बीते कुछ सालों से अपनी प्यास के लिए बदनामी झेल रहे बुंदेलखंड में सदियों से अल्प वर्शा का रिकार्ड रहा है, लेकिन वहां कभी पलायन नहीं हुआ, क्योंकि वहां के समाज ने पहाड़ के किनारे बारिश की हर बूंद को सहेजने तथा पहाड़ पर नमी को बचा कर रखने की तकनीक सीख लीथी। छतरपुर षहर बानगी है- अभी सौ साल पहले तक षहर के चारों सिरों पर पहाड़ थे, हरे-भरे पहाड़, खूब घने जंगल वाले पहाड़ जिन पर जड़ी बूटियां थी, पंक्षी थे, जानवर थे। जब कभी पानी बरसता तो पानी को अपने में समेटने का काम वहां की हरियाली करती, फिर बचा पानी नीचे तालाबों में जुट जाता। भरी गरमी में भी वहां की षाम ठंडी होती और कम बारिश होने पर भी तालाब लबालब। बीते चार दशकों में तालाबों की जो दुर्गति हुई सो हुई, पहाड़ों पर हरियाली उजाड़ कर झोपड़-झुग्गी उगा दी गईं। नंगे पहाड़ पर पानी गिरता है तो सारी पहाडी काट देता है, अब वहां पक्की सडक डाली जा रही हैं। इधर हनुमान टौरिया जैसे पहाड़ को नीचे से काट-काट कर  दफ्तर, कालोनी सब कुछ बना दिए गए हैं। वहां जो जितना रूतबेदार है, उसने उतना ही हाड़ काट लिया। यह कहानी देश के हर कस्बे या उभरते शहर की है, किसी को जमीन चाहिए थी तो किसी को पत्थर तो किसी को खनिज; पहाड़ को एक बेकार, बेजान संरचना समझ कर खोद दिया गया। अब समझ में आ रहा है कि नष्ट किए गए पहाड़ के साथ उससे जुड़ा पूरा पर्यावरणीय तंत्र ही नष्ट हो गया है।
खनिज के लिए, सड़क व पुल की जमीन के लिए या फिर निर्माण सामग्री के लिए, बस्ती के लिए, विस्तार के लिए , जब जमीन बची नहीं तो लोगों ने पहाड़ों को सबसे सस्ता, सुलभ व सहज जरिया मान लिया। उस पर किसी की दावेदारी भी नहीं थी।  सतपुडा, मेकल, पश्चिमी घाट, हिमालय, कोई भी पर्वतमालाएं लें, खनन ने पर्यावरण को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है। रेल मार्ग या हाई वे बनाने के लिए पहाड़ों को मनमाने तरीके से बारूद से उड़ाने वाले इंजीनियर इस तथ्य को षातिरता से नजरअंदाज कर देते हैं कि पहाड़ स्थानीय पर्यावास, समाज, अर्थ व्यवस्था, आस्था, विश्वास का प्रतीक होते हैं। पारंपरिक समाज भले ही इतनी तकनीक ना जानता हो, लेकिन इंजीनियर तो जानते हैं कि धरती के दो भाग जब एक-दूसरे की तरफ बढ़ते हैं या सिकुडते हैं तो उनके बीच का हिस्सा संकुचित हो कर ऊपर की ओर उठ कर पहाड़ की षक्ल लेता है। जाहिर है कि इस तरह की संरचना से छोड़छाड़ के भूगर्भीय दुश्परिणाम  उस इलाके के कई-कई किलोमीटर दूर तक हो सकते हैं। पुणे जिले के मालिण गांव से कुछ ही दूरी पर एक बांध है, उसको बनाने में वहां की पहाड़ियों पर खूब बारूद उड़ाया गया था। यह जांच का विशय है कि इलाके के पहाड़ों पर हुई तोड़-फोड़ का इस भूस्खलन से कहीं कुछ लेना-देना है या नहीं। किसी पहाड़ी की तोड़फोड़ से इलाके के भूजल स्तर पर असर पड़ने, कुछ झीलों का पानी पाताल में चले जाने की घटनाएं तो होती ही रहती हैं। यदि गंभीरता से देखें तो लालची मनुष्य के निए फिलहाल पहाड़ का छिन्न-भिन्न होता पारिस्थिति तंत्र चिंता का विषय ही नहीं है। इसका विमर्श कभी पाठ्य पुस्तकों में होता ही नहीं हैं।

यदि धरती पर जीवन के लिए वृक्ष अनिवार्य है तो वृक्ष के लिए पहाड़ का अस्तित्व बेहद जरूरी है। वृक्ष से पानी, पानी से अन्न तथा अन्न से जीवन मिलता है। ग्लोबल वार्मिंग व जलवायु परिवर्तन की विश्वव्यापी समस्या का जन्म भी जंगल उजाड़ दिए गए पहाड़ों से ही हुआ है। यह विडंबना है कि आम भारतीय के लिए ‘‘पहाड़’’ पर्यटन स्थल है या फिर उसके कस्बे का पहाड़ एक डरावनी सी उपेक्षित संरचना।  विकास के नाम पर पर्वतीय राज्यों में बेहिसाब पर्यटन ने प्रकृति का हिसाब गड़बउ़ाया तो गांव-कस्बों में विकास के नाम पर आए वाहनों, के लिए चौड़ी सड़कों ेक निर्माण के लिए जमीन जुटाने या कंक्रीट उगाहने के लिए पहाड़ को ही निशाना बनाया गया। यही नहीं जिन पहाड़ों पर  इमारती पत्थर या कीमती खनिज थे, उन्हें जम कर उजाड़ा गया और गहरी खाई, खुदाई से उपजी धूल को कोताही से छोड़ दिया गया। राजस्थान इस तरह से पहाड़ों के लापरवाह खनन की बड़ी कीमत चुका रहा है। यहां जमीन बंजर हुई, भूजल के स्त्रोत दूषित हुए व सूख गए, लोगों को बीमारियां लगीं व बारिश होने पर खईयों में भरे पानी में मवेशी व इंसान डूब कर मरे भी।

आज हिमालय के पर्यावरण, ग्लेशियर्स के गलने आदि पर तो सरकार सक्रिय हो गई है, लेकिन देश में हर साल बढ़ते बाढ़ व सुखाड़ के क्षेत्रफल वाले इलाकों में पहाड़ों से छेड़छाड़ पर कहीं गंभीरता नहीं दिखती। पहाड़ नदियों के उदगम स्थल हैं। पहाड़ नदियों का मार्ग हैं, पहाड़ पर हरियाली ना होने से वहां की मिट्टी तेजी से कटती है और नीचे आ कर नदी-तालाब में गाद के तौर पर जमा हो कर उसे उथला बना देती है। पहाड़ पर हरियाली बादलों को बरसने का न्यौता होती है, पहाड़ अपने करीब की बस्ती के तापमान को नियंत्रित करते हैं, इलाके के मवेशियेां का चरागाह होते हैं। ये पहाड़ गांव-कस्बे की पहचान हुआ करते थे। और भी बहुत कुछ कहा जा सकता है इन मौन खड़े छोटे-बड़े पहाड़ों के लिए, लेकिन अब आपको भी कुछ कहना होगा इनके प्राकृतिक स्वरूप को अक्षुण्ण रखने के लिए।

शुक्रवार, 9 नवंबर 2018

Aravali on threat

अरावली पर मंडराता संकट


सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों जब सरकार से पूछा कि राजस्थान की कुल 128 पहाड़ियों में से 31 को क्या हनुमानजी उठा कर ले गए? तब सभी जागरूक लोग चौंक उठे कि इतनी सारी पांबदी के बावजूद अरावली पर चल रहे अवैध खनन से किस तरह भारत पर खतरा है। असल में जब तक कोई पर्यावरणीय खतरा दिल्ली पर नहीं मंडराता उसे गंभीरता से लिया नहीं जाता। जान लें कि गुजरात के खेड़ ब्रह्मा से शुरू हो कर करीब 700 किमी तक फैली अरावली पर्वतमाला का विसर्जन देश के सबसे ताकतवर स्थान रायसीना हिल्स पर होता है जहां राष्ट्रपति भवन स्थित है। अरावली पर्वतमाला को कोई 65 करोड़ साल पुराना माना जाता है और इसे दुनिया के सबसे प्राचीन पहाड़ों में एक गिना गया है। ऐसी महत्वपूर्ण प्राकृतिक संरचना का बड़ा हिस्सा बीते चार दशक में पूरी तरह न केवल नदारद हो गया, बल्कि कई जगह 150 फुट गहरी खाई हो गई। अरावली पहाड़ रेगिस्तान से चलने वाली आंधियों को रोकने का काम करते रहे हैं जिससे एक तो रेगिस्तान का विस्तार नहीं हुआ दूसरा इसकी हरियाली साफ हवा और बरसात का कारण बनती रही। अरावली पर खनन से रोक का पहला आदेश सात मई 1992 को जारी किया गया। फिर सन 2003 में जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में आई। कई आदेश आते रहे, लेकिन अरावली पहाड़ को उजाड़ कर एक सांस्थानिक क्षेत्र, होटल, रक्षा मंत्रलय की बड़ी आवासीय कॉलोनी बना दी गई।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान सरकार को आदेश दिया है कि वह अरावली पहाड़ियों के 115.34 हेक्टेयर क्षेत्र में चल रहे अवैध खनन पर रोक लगाए। दरअसल राजस्थान के करीब 19 जिलों में अरावली पर्वतमाला निकलती है। यहां 45 हजार से ज्यादा वैध-अवैध खदाने है। इनमें से लाल बलुआ पत्थर का खनन बड़ी निर्ममता से होता है और उसका परिवहन दिल्ली की निर्माण जरूरतों के लिए अनिवार्य है। अभी तक अरावली को लेकर रिचर्ड मरफी का सिद्धांत लागू था जिसके मुताबिक सौ मीटर से ऊंची पहाड़ी को अरावली हिल माना गया और वहां खनन निषिद्ध कर दिया गया था, लेकिन इस मामले में विवाद उपजने के बाद फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया ने अरावली की नए सिरे से व्याख्या की। फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया के मुताबिक जिस पहाड़ का झुकाव तीन डिग्री तक है उसे अरावली माना गया। इससे ज्यादा झुकाव पर ही खनन की अनुमति है जबकि राजस्थान सरकार का कहना था कि 29 डिग्री तक झुकाव को ही अरावली माना जाए। अब मामला सुप्रीम कोर्ट में है और सुप्रीम कोर्ट यदि फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया के तीन डिग्री के सिद्धांत को मानता है तो प्रदेश के 19 जिलों में खनन को तत्काल प्रभाव से बंद करना पड़ेगा।
हजारों-हजार साल में गांव-शहर बसने का मूल आधार वहां पानी की उपलब्धता होती थी। किसी भी आंचलिक गांव को देखंे जहां नदी का तट नहीं है वहां कुछ पहाड़, पहाड़ के निचले हिस्से में झील व उसे घेर कर बसी बस्तियों का ही भूगोल दिखेगा। अब समझ में आ रहा है कि नष्ट किए गए पहाड़ के साथ उससे जुड़ा पूरा पर्यावरणीय तंत्र ही नष्ट हो गया है।
खनिज के लिए, सड़क व पुल की जमीन के लिए या फिर निर्माण सामग्री के लिए, बस्ती के लिए, विस्तार के लिए जब जमीन बची नहीं तो लोगों ने पहाड़ों को सबसे सस्ता, सुलभ व सहज जरिया मान लिया। उस पर किसी की दावेदारी भी नहीं थी। सतपुड़ा, पश्चिमी घाट, हिमालय, कोई भी पर्वतमाला लें, खनन ने पर्यावरण को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है। रेल मार्ग या हाइवे बनाने के लिए पहाड़ों को मनमाने तरीके से बारूद से उड़ाने वाले इंजीनियर इस तथ्य को नजरअंदाज कर देते हैं कि पहाड़ स्थानीय पर्यावास, समाज, अर्थव्यवस्था, आस्था, विश्वास का प्रतीक होते हैं। पारंपरिक समाज भले ही इतनी तकनीक न जानता हो, लेकिन इंजीनियर तो जानते हैं कि धरती के दो भाग जब एक-दूसरे की तरफ बढ़ते हैं या सिकुड़ते हैं तो उनके बीच का हिस्सा संकुचित हो कर ऊपर की ओर उठ कर पहाड़ की शक्ल लेता है। जाहिर है कि इस तरह की संरचना से छेड़छाड़ के भूगर्भीय दुष्परिणाम उस इलाके के कई-कई किलोमीटर दूर तक हो सकते हैं। पुणो जिले के मालिण गांव से कुछ ही दूरी पर एक बांध है, जिसे बनाने में वहां की पहाड़ियों पर खूब बारूद उड़ाया गया था। यह जांच का विषय है कि इलाके के पहाड़ों पर हुई तोड़-फोड़ का इस भूस्खलन से कहीं कुछ लेना-देना है या नहीं। किसी पहाड़ी की तोड़फोड़ से इलाके के भूजल स्तर पर असर पड़ने, कुछ झीलों का पानी पाताल में चले जाने की घटनाएं तो होती ही रहती हैं।
यदि धरती पर जीवन के लिए वृक्ष अनिवार्य है तो वृक्ष के लिए पहाड़ का अस्तित्व बेहद जरूरी है। वृक्ष से पानी, पानी से अन्न व जीवन मिलता है। ग्लोबल वार्मिग व जलवायु परिवर्तन की विश्वव्यापी समस्या का जन्म भी जंगल उजाड़ दिए गए पहाड़ों से ही हुआ है। यह विडंबना है कि आम भारतीय के लिए ‘पहाड़’ पर्यटन स्थल है या फिर उसके कस्बे का पहाड़ एक डरावनी सी उपेक्षित संरचना। विकास के नाम पर पर्वतीय राज्यों में बेहिसाब पर्यटन ने प्रकृति का हिसाब गड़बड़ाया तो गांवों-कस्बों में विकास के नाम पर आए वाहनों और उनके लिए सड़कों के निर्माण के लिए जमीन जुटाने या कंक्रीट उगाहने के लिए पहाड़ को ही निशाना बनाया गया। आज हिमालय के पर्यावरण, ग्लेशियर के गलने आदि पर तो सरकार सक्रिय हो गई है, लेकिन हर साल बढ़ते बाढ़ व सुखाड़ के क्षेत्रफल वाले इलाकों में पहाड़ों से छेड़छाड़ पर कहीं गंभीरता नहीं दिखती। पहाड़ नदियों के उद्गम स्थल हैं। पहाड़ नदियों का मार्ग हैं, पहाड़ पर हरियाली न होने से वहां की मिट्टी तेजी से कटती है और नीचे आ कर नदी-तालाब में गाद के तौर पर जमा हो कर उसे उथला बना देती है।
पहाड़ पर हरियाली बादलों को बरसने का न्यौता होती है, पहाड़ अपने करीब की बस्ती के तापमान को नियंत्रित करते हैं, इलाके के मवेशियों का चारागाह होते हैं। ये पहाड़ गांव-कस्बे की पहचान हुआ करते थे। और भी बहुत कुछ कहा जा सकता है इन मौन खड़े छोटे-बड़े पहाड़ों के लिए, लेकिन अब आपको भी कुछ करना होगा इनके प्राकृतिक स्वरूप को अक्षुण्ण रखने के लिए।

गुरुवार, 8 नवंबर 2018

Crackers ; Neither bother judiciary nor prime minister

   न कोर्ट की सुनी, न प्रधानमंत्री की


सुप्रीम कोर्ट ने आम लेागों की भावनाओं का खयाल रखकर केवल दो घंटे और कम नुकसान पहुंचाने वाली आतिशबाजी को चलाने की अनुमति प्रदान की थी, लेकिन दीपावली की रात राजधानी दिल्ली व उसके आसपास न तो समय की परवाह रही और न ही खतरनाक आतिशबाजी का खयाल। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश के कार्यान्यवन के लिए स्थानीय प्रशासन और पुलिस को जिम्मेदार बताया था। जाहिर है कि न तो कोई शिकायत करेगा और न ही गवाही देगा। साफ है कि देश के दूरस्थ अंचलों में तो कोई रोक रही ही नहीं होगी। बीते एक महीने से दिल्ली एनसीआर की आवोहवा जहरीली होने पर हर दिन अखबार लोगों को चेता रहे हैं। जिनके घर में कोई सांस का मरीज, दिल की बीमारी से ग्रस्त व्यक्ति या पालतू जानवर है, वे तो सुप्रीम कोर्ट के आदेश से उम्मीद लगाए बैठे थे, लेकिन ऐसी विचारधारा के लोग जो धर्म-आस्था को देश से ऊपर मानते हैं, उन्होंने बाकायदा अभियान चला कर अधिक से अधिक लोगों को आतिशबाजी चलाने के लिए प्रेरित किया।

चार साल पहले दीवाली के कोई सप्ताह पूर्व ही प्रधानमंत्री ने स्वच्छ भारत अभियान की पहल की थी, निहायत सामाजिक पहल, अनिवार्य पहल और देश की छवि दुनिया में सुधारने की ऐसी पहल जिसमें एक आम आदमी भी भारत-निर्माण में अपनी सहभागिता बगैर किसी जमा-पूंजी खर्च किए दे सकता था। तब पूरे देश में झाडू लेकर सड़कों पर आने की मुहिम सी छिड़ गई। नेता, अफसर, गैर-सरकारी संगठन, स्कूल, हर जगह सफाई अभियान की ऐसी धूम रही कि बाजार में झाड़ुओं के दाम आसमान पर पहुंच गए। उस अपील के कोई 14 सौ दिन बाद दीपावली आई, हर घर में साफ-सफाई का पर्व। कहते हैं कि जहां गंदगी होती है, वहां लक्ष्मी जी जाती नहीं हैं, सो घरों का कूड़ा सड़कों पर डालने का दौर चला। हद तो दीपावली की रात को हो गई, गैर-कानूनी होने के बावजूद सबसे ज्यादा आतिशबाजी इस रात चली। सुबह सारी सड़कें जिस तरह गंदगी, कूड़े से पटी थीं, उससे साफ हो गया कि हमारा सफाई अभियान अभी दिल-दिमाग से नहीं केवल मुंह जबानी खर्च पर ही चल रहा है।
'लैंसेट जर्नल' में प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया है कि साल 2015 में वायु, जल और दूसरे तरफ के प्रदूषणों की वजह से भारत में 25 लाख लोगों ने जान गंवाई। दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने पाबंदी वाली रात के बाद आंकड़े जारी कर बताया कि गुरुवार सुबह छह बजे अलग-अलग जगहों पर प्रदूषण का स्तर अपने सामान्य स्तर से कहीं ज्यादा ऊपर था। यहां तक कई जगहों पर यह 24 गुना से भी ज्यादा रिकॉर्ड किया गया है। पीएम 2.5 का स्तर पीएम 10 से कहीं ज्यादा बढ़ा हुआ था। पीएम 2.5 वे महीन कण हैं, जो हमारे फेफड़े के आखिरी सिरे तक पहुंच जाते हैं और कैंसर की वजह बन सकते हैं। चिंता की बात यह है कि पीएम 2.5 का स्तर दिल्ली के इंडिया गेट जैसे इलाकों में जहां हर रोज सुबह कई लोग आते हैं, वहां 15 गुने से भी ज्यादा ऊपर पाया गया।
यह अब सभी जानते हैं कि आतिशबाजी से लोगों के सुनने की क्षमता प्रभावित होती है, उससे निकले धुएं से हजारों लोग सांस लेने की दिक्कतों के स्थाई मरीज बन जाते हैं, पटाखों का धुआं कई महीनों का प्रदूषण बढ़ा जाता है। इसको लेकर स्कूली बच्चों की रैली, अखबारी विज्ञापन, अपील आदि का दौर चलता रहा है। दुखद बात यह है कि झाड़ू लेकर सफाई करने के फोटो अखबार में छपवाने वालों ने पटाखों पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को 'धर्म-विरोधी' बताया। हकीकत तो यह है कि कई साल भी पहले सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि रात 10 बजे के बाद आतिशबाजी न हो, क्योंकि इससे बीमार लोगों को असीम दिक्कतें होती हैं। धमाकों की आवाज को लेकर भी 80 से 100 डेसीमल की सीमा है, लेकिन दस हजार पटाखों की लड़ी या 10 सुतली बम एक साथ जलाकर अपनी आस्था या खुशी का इजहार करने वालों के लिए कानून-कायदे कोई मायने नहीं रखते।

चीन से आए गैर-कानूनी पटाखों को चलाने में न तो देश-प्रेम आड़े आया और न ही वैचारिक प्रतिबद्धता। गुरुवार सुबह कुछ लोग सफाई कर्मचारियों को कोसते रहे कि सड़कों पर आतिशबाजी का मलवा साफ करने वे सुबह जल्दी नहीं आए, यह सोचे बगैर कि वे भी इंसान हैं और उन्होंने भी दीवाली मनाई होगी। यह बात लोग समझते ही नहीं कि हमारे देश में सफाई से बड़ी समस्या अनियंत्रित कूड़ा है। पहले कूड़ा कम करने के प्रयास होने चाहिए, साथ में उसके निस्तारण के। दीवाली के धुएं व कूड़े ने यह बात तो सिद्ध कर दी है कि अभी हम मानसिक तौर पर प्रधानमंत्री की अपील के क्रियान्वयन व अमल के लिए तैयार नहीं हुए हैं। जिस घर में छोटे बच्चे, पालतू जानवर या बूढ़े व दिल के रोग के मरीज हैं, जरा उनसे जाकर पूछें कि परंपरा के नाम पर वातावरण में जहर घोलना कितना पौराणिक, अनिवार्य तथा धार्मिक है। एक बात और, भारत में दिवाली पर पटाखे चलाने की परंपरा भी डेढ़ सौ साल से ज्यादा पुरानी नहीं है और इस दौर में कुरीतियां भंग भी हुईं व नई बनी भीं, जिन्हें परंपरा तो नहीं कहा जा सकता।

शायद यह भारत की रीति ही है कि हम नारे तो जोर से लगाते हैं लेकिन उनके जमीनी धरातल पर लाने में 'किंतु-परंतु' करने लगते हैं। कहा गया कि भातर को आजादी अहिंसा से मिली, लेकिन जैसे ही आजादी मिली, दुनिया के सबसे बड़े नरसंहारों में से एक विभाजन के दौरान घटित हो गया और बाद में अहिंसा का पुजारी हिंसा के द्वारा ही गोलोक गया। यहां शराब नहीं बेची जाती या दूरदृष्टि-पक्का इरादा, अनुशासन ही देश को महान बनाता है या फिर छुआछूत, आतंकवाद, सांप्रदायिक सौहार्द या पर्यावरण या फिर बेटी बचाओ, इन सभी पर अच्छे सेमीनार होते हैं, नारे गढ़े जाते हैं, जलसे होते हैं, लेकिन उनकी असलियत दिवाली पर हुई हरकतों से उजागर होती है। हर इंसान चाहता है कि देश में बहुत से शहीद भगत सिंह पैदा हों, लेकिन उनके घर तो अंबानी या धोनी ही आएं, पड़ोस में ही भगत सिंह जन्म लें, जिसके घर हम कुछ आंसू बहाने, नारे लगाने या स्मारक बनाने जा सकें। जब तक खुद दीप बनकर जलने की क्षमता विकसित नहीं होगी, तब तक दीया-बाती के बल पर अंधेरा जाने से रहा। दिवाली की रात चले पटाखे बता रहे हैं कि अभी हमारे दिमाग में अंधेरा कायम है।

After all, why should there not be talks with Naxalites?

  आखिर क्यों ना हो नक्सलियों से बातचीत ? पंकज चतुर्वेदी गर्मी और चुनाव की तपन शुरू हुई   और   नक्सलियों ने धुंआधार हमले शुरू कर दिए , हा...