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सोमवार, 24 दिसंबर 2018

rape can not be controlled without changing mentality of society

दरिंदगी का तलाशें अंतिम समाधान


पंकज चतुर्वेदी
बीते एक सप्ताह में आगरा और उत्तराखंड में दो लड़कियों को सरेराह आग लगाकर जिंदा जलाया गया। दिल्ली में निर्भया कांड के बाद उभरा जनाक्रोश अब वोट व सत्ता की सियासत का दाना बन चुका है। जाहिर है कि उसके बाद बने कानून, जनाक्रोश या स्वयं की अनैतिकता पर न तो अपराधियों को डर रह गया है, न ही आम समाज में संवेदना और न ही पुलिस की मुस्तैदी।
इन दिनों दो कांड संवेदनशील लोगों के बीच विमर्श में हैं। कुछ जगह विरोध प्रदर्शन भी हो रहे हैं। आगरा से कोई बीस किलोमीटर दूर नौमील गांव की 15 साल की बच्ची को 18 दिसंबर को स्कूल से घर लौटते समय दो लड़कों ने पेट्रोल डाल कर माचिस दिखा दी। लड़कों ने पहचान छुपाने के लिए हेलमेट पहन रखा था। बच्ची के पिता एक कारखाने में काम करते हैं। उन्होंने बताया कि जलाने के बाद उसे हाईवे के किनारे खाई में फेंक दिया गया। दिल्ली के एक अस्पताल में बच्ची की मौत हो गई।
ठीक उसी दौरान उत्तराखंड के पौड़ी जिले के कफोलस्यूं पट्टी के एक गांव की 18 वर्षीय लड़की परीक्षा देकर स्कूटी से घर लौट रही थी। रास्ते में गहड़ गांव के मनोज सिंह उर्फ बंटी ने एक सुनसान जगह में कच्चे रास्ते पर लड़की को रोक लिया और जबरदस्ती करने की कोशिश करने लगा। छात्रा के विरोध से गुस्साए युवक ने छात्रा पर पेट्रोल छिड़क कर आग लगा दी और वहां से फरार हो गया। कुछ देर बाद जब वहां से गुजर रहे एक ग्रामीण ने जली हुई छात्रा को देखा तो इसकी सूचना पुलिस को दी। इससे पहले अपराधी लड़की की मां को फोन पर बता देता है कि उसने लड़की को आग लगा दी है, दम हो तो बचा लो। विडंबना है कि रौंगटे खड़े करने वाली इन घटनाओं पर दिल्ली मौन है।

देश में भूचाल ला देने वाले दिसंबर-2012 के दामिनी कांड में एक आरोपी ने तो जेल में आत्महत्या कर ली और बाकी मुजरिम अभी भी अदालतों की प्रक्रिया में अपनी फांसी से दूर हैं। उस कांड के बाद बने पास्को कानून में जम कर मुकदमे दायर हो रहे हैं। दामिनी कांड के दौरान हुए आंदोलन की ऊष्मा में सरकारें बदल गईं। उस कांड के बाद भी इस तरह की घटनाएं होना यह इंगित करता है कि बगैर सोच बदले केवल कानून से कुछ होने से रहा। तभी देश के कई हिस्सों में ऐसा कुछ घटित होता रहा जो इंगित करता है कि महिलाओं के साथ अत्याचार के विरोध में यदा-कदा प्रज्वलित होने वाली मोमबत्तियां केवल उन्हीं लोगों का झकझोर पा रही हैं जो पहले से काफी कुछ संवदेनशील हैं। समाज का वह वर्ग, जिसे इस समस्या को समझना चाहिए, अपने पुराने रंग में ही है। इसमें आम लोग हैं, पुलिस भी है और समूचा तंत्र भी।


दिल्ली में दामिनी की घटना के बाद हुए देशभर के धरना-प्रदर्शनों में शायद करोड़ों मोमबत्तियां जलकर धुआं हो गई हों लेकिन समाज के बड़े वर्ग के दिलोदिमाग पर औरत के साथ हुए दुर्व्यवहार को लेकर जमी भ्रांतियों की कालिख दूर नहीं हो पा रही है। ग्रामीण समाज में आज भी औरत पर काबू रखना, उसे अपने इशारे पर नचाना, बदला लेने और अपना आतंक बरकरार रखने के तरीके आदि में औरत के शरीर को रोंदना एक अपराध नहीं बल्कि मर्दानगी से जोड़ कर ही देखा जाता है। यह भाव अभी भी हम लोगों में पैदा नहीं कर पा रहे हैं कि बलात्कार करने वाला मर्द भी अपनी इज्जत ही गंवा रहा है।
जानकर आश्चर्य होगा कि चाहे दिल्ली की 45 हजार कैदियों वाली तिहाड़ जेल हो या फिर दूरस्थ अंचल की 200 बंदियों वाली जेल; बलात्कार के आरोप में आए कैदी को, पहले से बंद कैदियों द्वारा दोयम दर्जे का माना जाता है और उसकी पिटाई या टॉयलेट सफाई या जमीन पर सोने को विवश करने जैसे स्वघोषित नियम लागू हैं। जब जेल में बलात्कारी को दोयम दर्जे का माना जाता है तो बिरादरी, पंचायतें, पुलिस इस तरह की धारणा क्यों विकसित नहीं कर पा रही हैं।
ऐसा कुछ तो है ही जिसके चलते लोग इन आंदालनो, विमर्शों, तात्कालिक सरकारी सक्रिताओं को भुला कर गुनाह करने में हिचकिचाते नहीं हैं। आंकडे गवाह हैं कि आजादी के बाद से बलात्कार के दर्ज मामलों में से छह फीसदी में भी सजा नहीं हुई। जो मामले दर्ज नहीं नहीं हुए वे ना जाने कितने होंगे। 

खाप, जाति बिरादरियां, पंचायतें जिनका गठन कभी समाज के सुचारू संचालन के इरादे से किया गया था अब समानांतर सत्ता या न्याय का अड्डा बन रही है तो इसके पीछे वोट बैंक की सियासत होना सर्वमान्य तथ्य है। षायद हम भूल गए होंगे कि हरियाणा में जिन बच्चियों को उनके साहस के लिए (बस में छेड़छाउ़ करने वालों की बैल्ट से पिटाई करने वाली बहनें)सम्मानित करने की घोशणा स्वयं मुख्यमंत्री कर चुके थे, बाद में खाप के दवाब में उन्ही लडकियों के खिलाफ जांच के आदेश दे दिए गए। 
ऐसा नहीं है कि समय-समय पर बलात्कार या शोषण के मामले चर्चा में नहीं आते और समाजसेवी संस्थाएं इस पर काम नहीं करतीं। तीन दशक पहले भटेरी गांव की साथिन भंवरी देवी को बाल विवाह के खिलाफ माहौल बनाने की सजा सवर्णों द्वारा बलात्कार के रूप में दी गई थी। उस मामले को कई जन संगठन सुप्रीमकोर्ट तक ले गए थे और उसे न्याय दिलवाया था। लेकिन जानकर आश्चर्य होगा कि वह न्याय अभी भी अधूरा है। हाईकोर्ट से उस पर अंतिम फैसला नहीं आ पाया है। इस बीच भंवरी देवी भी साठ साल की हो रही हैं व दो मुजरिमों की मौत हो चुकी है।
आंकड़े गवाह हैं कि आजादी के बाद से बलात्कार के दर्ज मामलों में से छह फीसदी में भी सजा नहीं हुई। जो मामले दर्ज नहीं हुए, वे न जाने कितने होंगे। फांसी की मांग, नपुंसक बनाने का षोर, सरकार को झुकाने का जोर ; सबकुछ अपने- अपने जगह लाजिमी हैं लेकिन जब तक बलात्कार को केवल औरतों की समस्या समझ कर उसपर विचार किया जाएगा, जब तक औररत को समाज की समूची ईकाई ना मान कर उसके विमर्श पर नीतियां बनाई जाएंगी; परिणा अधूरे ही रहें्रे। फिर जब तक सार्वजनिक रूप से मां-बहन की गाली बकना , धूम्रपान की ही तरह प्रतिबंधित करने जैसे आघारभूत कदम नहीं उठाए जाते  , अपने अहमं की तुश्टि के लिए औरत के षरीर का विमर्श सहज मानने की मानवीय वत्त्ृिा पर अंकुश नहीं लगाया जा सकेगा। भले ही जस्टिस वर्मा कमेटी सुझाव दे दे, महिला हेल्प लाईन षुरू हो जाए- एक तरफ से कानून और दूसरी ओर से समाज के नजरिये में बदलाव की कोशिश एकसाथ किए बगैर असामनता, कुंठा, असंतुश्टि वाले समाज से ‘‘रंगा-बिल्ला’’ या ‘‘राम सिंह-मुकेश’’ या शिवकुमार यादव की पैदाईश को रोका नहीं जा सकेगा।  मोमबत्तियों की ऊष्मा असल में उन लोगों के जमीर को पिघलाने के लिए होनी चाहिए, जिनके लिए औरत उपभोग की वस्तु है, ना कि सियासी उठापटक के लिए।

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