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बुधवार, 12 नवंबर 2014

Drought is result of forgetting Traditional water tanks

तालाबों को बिसराने से रीता कर्नाटक 



सदानीरा कहे जाने वाले दक्षिणी राज्य कर्नाटक में सूखे की आहट सुनाई देने लगी है। कई गांवों में अभी से ठेला गाड़ी या टैंकर से पानी की सप्लाई हो रही है। कोई 7500 गांवों के साथ-साथ बंगलूरू, मगलौर, मैसूर जैसे श हरों में पानी की राश निंग शु रू हो गई है। इसके पिछले साल उत्तरी कर्नाटक में भीषण सूख पड़ा था। तब बागलकोट, बीाजापुर आदि जिलों में अभी तक का सबसे बड़ा जल-संकट समने आया था। अलमत्ती बांध में जहां 45.691 टीएमसी पानी होता है, सूखे के समय महज 22.737 टीएमसी रह गया था। असल में इस तरह के जल संकट बीते एक दशक में राज्य की स्थाई समस्या बन गए हैं।

DAINIK JAGRAN 13-11-14 http://epaper.jagran.com/epaper/13-nov-2014-262-delhi-edition-national.html

यदि नक़्शे  पर देखें तो कर्नाटक में झील-तालाबों की इतनी बड़ी संख्या है कि यदि वे लबा-लब हों तो पूरे देश को पानी पिला सकते हैं। यहां के 27481 गांव-कस्बों में 36,672 तालाब हैं जिनकी जल-क्षमता 6,85,000 हजार हैक्टर है। बरसात की एक-एक बूद को अपने में  सहेजने वाले इन पारंपरिक जल संरक्षण संसाधनों को पहले तो समाज ने उजाड़ दिया, लेकिन जब सभी आधुनिक तकनीक  नाकामयाब हुईं तो उन्हीं झीलों की सलामती के लिए जमीन-आसमान एक किया जा रहा है।  जरा देखें , किस तरह तालाब उजड़ने से कर्नाटक का नूर  फीका हो गया, साथ ही जागरूक समाज ने अपनी परंपराओं को संवारने का जब बीड़ा उठाया तो कैसे तेजी से तस्वीर बदली। सेंटर फार लेक कंजरवेशन, इनवायरमेंट एंड पाॅलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट(ईएमपीआरआई) के एक षोध के मुताबिक बंगलूरू शहर की मौजूदा 81 झीलों में से नौ बुरी तरह दूषित  हो गई हैं, 22 के प्रदुषण  को अभी ठीक किया जा सकता है और 50 अभी ज्यादा खराब नहीं हुई हैं।
सरकारी रिकार्ड के मुताबिक नब्बे साल पहले बंगलूरू शहर में 2789 केरे यानी झील हुआ करती थीं। सन साठ आते-आते इनकी संख्या घट कर 230 रह गई। सन 1985 में षहर में केवल 34 तालाब बचे और अब इनकी संख्या तीस तक सिमट गई हे। जल निधियों की बेरहम उपेक्षा का ही परिणाम है कि ना केवल श हर का मौसम बदल गया है, बल्कि लोग बूंद-बूंद पानी को भी तरस रहे हैं। वहीं ईएमपीआरइाई यानी सेंटर फार कन्सर्वेसन, इनवारमेंटल मेनेजमेंट एंड पाॅलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट ने दिसंबर-2012 में जारी अपनी रपट में कहा है कि बंगलूरू में फिलहाल 81 जल-निधियों का अस्तित्व बचा है, जिनमें से नौ बुरी तरह  और 22 बहतु कुछ दूशित हो चुकी हैं। षोधकर्ता पी जयप्रकाष, पीपी दास,डीजेमायथेरंड और व श्रीनिवास  ने ‘‘एसेसमेंट एंड कन्सर्वेसन स्ट्रेजेडीज फार वाटर बाडीज आफ बंगलूरू’’ नाम से एक षोध पत्र तैयार किया , जिसमें चेताया गया है कि षहर के अधिकांष तलाबों के पानी की पीएच कीमत बहुत ज्यादा है।
बंगलूरू के तालाब सदियों पुराने तालाब-षिल्प का बेहतरीन उदाहरण हुआ करते थे । बारिष चाहे जितनी कम हो या फिर बादल फट जाएं, एक-एक बूंद नगर में ही रखने की व्यवस्था थी । ऊंचाई का तालाब भरेगा तो उसके कोड़वे(निकासी) से पानी दूसरे तालाब को भरता था । बीते दो दषकों के दौरान बंगलूरू के तालाबों में मिट्टी भर कर कालेानी बनाने के साथ-साथ तालाबों की आवक व निकासी को भी पक्के निर्माणों से रोक दिया गया । पुट्टन हल्ली झील की जल क्षमता 13.25 एकड़ है ,जबकि आज इसमें महज पांच एकड़ में पानी आ पाता है । झील विकास प्राधिकरण को देर से ही सही, लेकिन समझ में आ गया है कि ऐसा पानी की आवक के राज कोड़वे को सड़क निर्माण में नश्ट हो जाने के कारण हुआ है । जरगनहल्ली और मडीवाला तालाब के बीच की संपर्क नहर 20 फीट से घट कर महज तीन फीट की रह गई । ‘नंदन तिलुुकोंडू बिट्टिदे’ यानि ‘स्वर्ग का एक हिस्सा यहां है’ । साधनकेरे तालाब की मौजूदा दुर्दशा देख कर कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है कि यह वही स्थान है जिसे देख कर पचास साल पहले महान कन्नड़ कवि डा रा बेंद्रे ने उक्त रचना लिखी थी ।
‘मिनी महाबलेश्वर’ के रूप में मशहूर धारवाड़ की खूबसूरती की तुलना कभी रोम से की जाती थी । बड़े-बड़े 33 जलाशय,जिसके तटों पर घनी हरियाली और प्राचीन मंदिर । माहौल इतना शांत और सुरम्य कि मुंबई उपनिवेश काल में मध्यम वर्ग के लोग यहां छुिट्टयां बिताने आते थे । कवि बेंद्रे के प्रेरणा स्थल रहे यहां के तालाब पिछले कुछ दशकों से मैदान बनते जा रहे हैं । आज यहां कुल शेष रह गए  11 ताालाब  गंदगी और उपेक्षा के चलते आखिरी सांसें गिन रहे हैं । यहां जानना जरूरी है   कि धारवाड़ और हुबली शहरों में महज 20 फीसदी आबादी ही भूमिगत ड्रेनेज से जुड़ी है । शेष गंदगी सीधे ही इन तालाबों में मिलाई जाती है । आज बकाया रह गए तालाब है- नवलूर, येतिना गुड्डा, मालापुर, सप्तपुर,रायापुर ,सत्तुर,तड़ीगनकोप्पा, केलगेरी, दोड्डा नायकन कोप्पा(इसे साधनकेरी भी कहते हैं), लक्ष्मण हल्लीऔर हीरेकेरी । स्थानीय निकाय व सरकारी महकमे इन तालाबों के रखरखाव में खुद को असमर्थ पाते हैं । तभी इन तालाबों का संरक्षण करना तो दूर रहा, अब इन्हें पाट कर दूकानें बनवाने में सरकारी मशीनरी जी-जान से लगी हुई है ।
दषहरा उत्सव के लिए मषहूर मैसूर षहर में पांच झीलें हैं - कुकरे हल्ली, लिंगंगुडी, कारंजी, देवानूर और दलवय झील। मैसूर-उटी रोड पर चामुंडी पर्वत के नीचे स्थित प्राकृतिक झील  दलवय बेहद बुरी हालत में है। कोई 40 हैक्टर में फैली इस झील पर कभी लाखें की तादात में प्रवासी पंछी आते थे। इस पूरी झील को वनस्पतियों ने ढक लिया है। इसके कारण पानी में भीतर ना तो सूर्य की किरणें जा पाती हैं और ना ही आक्सीजन, परिणामतः इसका पानी सड़ रहा है।  इसके पास से लोग गुजरने पर कांप जाते हैं, पक्षियों का आना तो अब किंवदंती बन कर रह गया हे।  कुकरे हल्ली के हालात तो और भी बदतर हैं। वहां अब एक भी मछली नहीं होती। कुछ साल पहले वहां की बदबू और प्रदूशण के चलते कई पक्षी मर गए थे। कुछ साल पहले आईडीबीआई ने यहां की पांचों झीलों के संरक्षण के लिए पांच करोड दिए थे जिनसे केवल कागजों पर विकास की इबारत लिखी जा की।
तुमकुर जिले के अमणीकेरे झील की भी लगभग यही कहानी है - अतिक्रमण, कूड़े व सीवर का निस्तार और उसकी मौत। देवरायना दुर्गा की हरी-भरी पहाडि़यों की गोद में स्थित इस  झील का जल विस्तार कभी 35 वर्ग किलोमीटर हुआ करता था। 508 एकड़ में बने इस तालाब का निर्माण सन 1130 में चोल राजा राजेन्द्र चोला ने करवाया था। यह बात टी बेगूर के करीब स्थित चंद्रमोलेष्वरी मंदिर के एक षिलालेख से पता चलती है। इसमें देवरायपटन और हनुमंतपुरा नालों से पानी आता था। आज तालाब के चारों ओर ईंट बनाने वालों और खेती करने वालों का कब्जा हे। अनुमान है कि कोई 15 एकड झाील पर अब मैदान बना कर असरदार लोगों ने अपना मालिकाना हक लिखवा लिया है।  कुछ साल पहले तक यहां 121 प्रकार के प्रवासी पक्षी डेरा डालते थे। अब बास और बदबू के कारण स्थानीय पंछी भी इधर नहीं फटकते हैं।

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