My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

रविवार, 30 मई 2021

negligence in dispose of medical waste enhancing covid infection

 नियमों की अनेदखी से होता है मेडिकल उपकरणों का दुरूपयोग

पंकज चतुर्वेदी




 

कोविड की दूसरी लहर में एक तरफ इलाज के तरीकों को ले कर अनिष्चितता का माहौल है तो यह खतरा भी मंडरा रहा है कि कोरोना वायरस से बचाव  के लिए जो सुरक्षा उपकरण इस्तेमाल किए जा रहे हैं कहीं वे ही तो संक्रमण बढ़ाने का काम नहीं कर रहे हैं ? पिछले दिनों मध्यप्रदेष के सतना में पीपीई किट गर्म पानी से धोकर दोबारा सप्लाई करने का मामला सामने आया। सबसे दुखद यह है कि यह कुकर्म वह कारखाना कर रहा था जिसके जिम्मे इस्तेमालषुदा पीपीई किट को विधि सम्मत तरीके से निबटान करने की जिम्मेदारी थी। हालांकि इससे पहले गाजियाबाद के लोनी और प्रयागराज से  इस्तेमाल किए गए हैंड ग्लब्स को साफ कर नए की तरह पैक कर बेचने के ाममले भी सामने आए थे, लेकिन यह काम कबाड़ी कर रहे थे। 

कोरोना गाइडलाइन के अनुसार पीपीई किट ग्लब्स और मास्क को वैज्ञानिक तरीके से नष्ट करने के लिए सतना जिले के बड़खेरा में इंडो वाटर बायोवेस्ट डिस्पोजल प्लांट में भेजा जाता था। एक स्थानीय युवक ने जब देखा कि वहां तो नश्ट करने के लिए लाए गए पीपीई किट व ग्लब्स को गरम पानी से धो कर अलग-अलग बंडल बनाए जा रहे हैं व यह सामग्री कई जिलों में कबाड़ी के जरिये औने-पौने दाम पर बेची जा रही है तो उसने इसका वीडियो बना कर वायरह कर दिया। उसके बाद वहां पुलिस पहुंची।  दिल्ली व उप्र के कई ठिकानों पर जब्त किए गए ग्लब्स का वजन 848 किलो था जिनका सौदा कोई 15 लाख रूपए में किया गया था। 

यह देष के लिए बड़ा खतरा है कि कोरोना इलाज के दौरान इस्तेमाल सामग्री के निबटान की  बाकायदा  प्रक्रिया निर्धारित है, इसका कानून भी है इसके बावजद ना तो अस्पतालों में और ना ही मरीजों के घर वालों द्वारा इसे गंभीरता से लिया जा रहा है। केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की गाइडलाइन के अनुसार पीपीई किट ग्लब्स और मास्क को एक बार ही इस्तेमाल करना है। इनको सार्वजनिक जगह पर ना फैंक कर बल्कि वैज्ञानिक तरीके से बायोवेस्ट डिस्पोजल प्लांट में नष्ट करना अनिवार्य है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने कोविड-19 कचरे की गंभीरता को समझते हुए कड़े निर्देष दिए थे कि इस्तेमालषुदा मास्क और दस्तानों को काट कर कम से कम 72 घंटे तक कागज के थैलों में रखा जाए । जरूरी नहीं है कि ये मास्क और दस्ताने संक्रमित व्यक्ति द्वारा इस्तेमाल में लाये गये हों। सीपीसीबी ने शॉपिंग मॉल जैसे वाणिज्यिक प्रतिष्ठानों और कार्यालयों को भी व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण (पीपीई) के निपटारे के लिये इसी कार्यप्रणाली का पालन करने का निर्देश दिया है। आम आदमी द्वारा प्रयोग की गई बेकार पीपीई को अलग कूड़े दान में तीन दिन तक रखना चाहिए, उनका निपटारा उन्हें काट कर ठोस कचरा की तरह करना चाहिए। ’’  लेकिन देषभर के ष्मसान घाट हों या अस्पताल के मुर्दाघर , इस तरह की सामग्री का अंबार साफ दिखाता है कि ना तो अस्पताल और ना ही आम लोग सरकारी दिषा निर्देंषों के प्रति गंभीर हैं या  हो सकता है कि उन्हें इसकी जानकारी ही ना हो। यदि सभी संस्थान व व्यक्ति निर्देंषों का पालन करते होते तो ना ही सतान में और ना ही प्रयागराज या और कहीं इतनी बड़ी संख्या में मेडिकल कूडज्ञत्र कबाडियों या इसका दुरूपयोग करने वालों तक पहुंचता । 

सीपीसीबी के निर्देष में कहा गया है कि संक्रमित रोगियों द्वारा छोड़े गये भोजन या पानी की खाली बोतलों आदि को बायो-मेडिकल कचरा के साथ एकत्र नहीं किया चाहिए। पीले रंग के थैले का इस्तेमाल सामान्य ठोस कचरा एकत्र करने के लिये नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि यह कोविड-19 से जुड़े बायो-मेडिकल कचरा के लिये हैं। सीपीसीबी ने कहा कि कोविड-19 पृथक वार्ड से एकत्र किये गये इस्तेमाल हो चुके चश्मा, चेहरा का कवच, एप्रन, प्लास्टिक कवर, हजमत सूट, दस्ताने आदि पीपीई को अवश्य ही लाल थैले में एकत्र करना चाहिए। दिशानिर्देश में कहा गया है कि इस्तेमाल किये जा चुके मास्क (तीन परत वाले मास्क, एन 95 मास्क आदि) , हेड कवर/कैप आदि को पीले रंग के थैले में एकत्र करना चाहिए। 

बायोमेडिकल वेस्ट अधिनियम-2016 के अनुसार तो इस तरह का सामान अस्पताल से बगैर दिषा निर्देष का पालन किए बाहर ही नहीं आना चाहिए। वैसे तो सभी बड़े अस्पतालों में इस तरह के मेडिकल कचरे को जला कर नश्ट करने की व्यवस्था के भी निर्देष है लेकिन ऐसी व्यवस्था देष के बहुत ही गिनेचुने अस्पतालों में है।

जरा सोचें कि कोई डाक्टर इस्तेमालषुदा ग्लब्स को नया मान कर आपरेषन करने लगे और इसका संक्रमण मरीज के षरीर में पहुंच जाए।  डाक्टर को लगेगा कि मरीज को दी जा रही दवा-इंजेक्षन या एंटी बायोटिक बेअसर है, जबकि असलिसत है कि चिकित्सक को खुद नहीं पता कि किसी अंजान संक्रमण का माध्यम उनके हाथ ही रहे हैं। लगातार दो साल से संक्रामक रोग झेल रहे भारत को अब मेडिकल कचरे का निबटान  नियमानुसार कड़ाई से करना सुष्निचित करना ही होगा  वरना सकंमएा के कारण उनके हाथ में होंगे व उसका  सूत्र और कहीं तलाषा जाता रहेगा। 

 


शुक्रवार, 28 मई 2021

Differentiate between faith and superstition

 आस्था और अंधविश्वास में फर्क करें

पंकज चतुर्वेदी 

 


आंध््रा प्रदेश में नैल्लोर जिले का समुद्र से सटा गुमनाम से एक गांव कृष्णा  पट्नम एक महीने से पूरे इलाके में मशहूर है। यहां दिन हो या रात कई किलोमीटर लंबी लाईनें लगी रहती हैं। कहा गया कि यहां के एक पारंपरिक वैद्य बोनिगी आदंदैया ने कोई दवाई बनाई है जिससे कोरोना ठीक हो जाता है।  शहद, काली मिर्च, काला जीरा, दाल चीनी आदि आदि से निर्मित चार दवाओं में एक आंख में डालने की दवा है जिसको ले कर दावा है कि उससे दिमाग सक्रिय हो जाता है व उससे आक्सीजन की जरूरत कम हो जाती है। यहां अफसर, नेता सभी लाईन में लगे हैं। ना कोई मास्क ना ही सामाजिक दूरी। तमिलनाडु के कोयंबटूर के इरुगुर में कामत्चिपुरी अधीनम नामक मठ ने में तो बाकायदा कोरोना देवी का मंदिर बन गया है। कहानियां बहुत सी हैं लेकिन प्रशासन व स्थानीय चिकित्सा विभाग के पास इसकी सफलता की कोई जानकारी नहीं, ना ही भीड़ जुड़ने से फैल रही बीमारी की परवाह या आंकड़े। 

एक सांसद ने सार्वजनिक कह दिया कि वे गौ मूत्र पीती हैं अतः उन्हें  वैक्सीन की जरूरत नहीं। वे जब बोल रही थीं तो हाथ में दस्ताने व मुंह पर मास्क था। एक मई को ही उन्होंने ट्वीट कर बताया था कि उनका पूरा स्टाफ कोरोना पॉजीटिव है। एक जिम्मेदार मंत्री पापड़ खा कर प्रतिरोध क्षमता विकसित करने का दावा कर देते हैं। कोई ‘गो करोना’ के श्लोक  बोलता हैं। राजस्थान के बड़ी सादड़ी के ग्राम सरथला में भोपों(स्थानीय तांत्रिक) के कहने पर सारा गांव खाली किया गया और फिर गाय के पेशाब में नीम की पत्ती डाल कर शुद्ध  करने के बाद घोशित कर दिया कि अब यहां कोरोना नहीं आएगा।  राजस्थान के ही पानी के गांव-गांव में अफवाह फैला दी गई कि वैक्सिन से विकलांग हो जाते हैं। 

उप्र के गोरखपुर जिले के हर गांव में कोविड के मामले हैं । यहां सहजनवा, कौडीराम, चौरीचोरा, गोला आदि इलाकें के हर गांव में काली माता व डीह बाबा की पूजा हो रही है। औरतें घर से बाहर निकल कर चूल्हा जला कर कढाई चढ़ा रही हैं जिसमें हलुआ-पूड़ी बनता है व प्रसाद के रूप में बंटता हैं। नीम की पत्ती देवी को चढ़ाई जाती है। यहीं प्रतापगढ़ में 11 बार हनुमान चालीसा का पाठ करने के लिए भीड़ जोड़ी जा रही है। अमेठी के पिंडोरिया गांव में सारा गांव मंदिर में जमा हुआ और घंटे बजाना व नाच-गाना हुआ। काशी के जैन घाट के किनारे और कुशीनगर में हर दिन सैंकड़ों औरतें कोरोना माई कीपूजा के लिए एकत्र हो रही हैं। यही हाल बगल के बिहार के गांवांे में हैं। मप्र का राजगढ़ हो या उप्र का मेरठ, हर जगह एक हाथ ठैली में गोबर के उपलो पर  लोभान कपूर, हवन सामग्री जला कर शहर के शुद्धिकरण के जुलूस निकल रहे हैं। ऐसे ही घटनांए सारे देश में हर जिले में हो रही हैं और समाज और प्रशासन जाने-अनजाने  ना केवल अंधविश्वास की जड़े मजबूत कर रहा है, बल्कि कोविड के विस्तार को हवा दे रहा है। 


हकीकत यही है कि कोविड से जूझने के कोई माकूल तरीके दुनिया के पास हैं नहीं, हमारे डॉक्टर, वैज्ञानिक संभावना और उपलब्ध दवाओं के जरिये इस वायरस के कारण षरीर में उपजे विकारों को ठीक करने का प्रयास कर रहे हैं। विपदा बड़ी है और साधन सीमित, ऐसे में हर चिकित्सक अपने सारे प्रयासों के बावजूद भगवान या किसी अदृश्य शक्ति  पर भरोसा रखने की ताकीद देता है। जाहिर है कि वह यह सब अपने सभी प्रयासों के बाद मरीज या उनके तीमारदारों की तसल्ली के लिए कहता है लेकिन  आस्था को अंधविश्वास बना देना  और ऐसा अवसर बना देना जो कि कोविड के मूलभूत दिशा-निर्देशों का ही उल्लंधन हो, एक आपराधिक कृत्य माना जाना चाहिए। डाक्टर जानते हैं कि बगैर सकारात्मक कर्म के आस्था का प्रभाव होने से रहा।


गौमूत्र का पान करना निश्चित ही किसी की आस्था का विशय हो सकता है लेकिन इससे कोविड में रेाकथाम करने की बात किसी भी स्तर पर प्रामाणिक नहीं हैं। हवन सामग्री से वायु कितनी शुध्ध  होती है, यह एक अलग मसल है लेकिन कड़वी सच्चाई तो यही है कि जब कोविडग्रस्त लोगों के फैंफडे हांफ रहे हैं, हवा में अधिक आक्सीजन अनिवार्य है तब किसी भी तरह का धुआं, कोविड या सांस के रोगियों के लिए जानलेवा है। नैल्लोर कीदवा हो या बाबाजी की जब तक सरकार ऐसे गैरवैज्ञानिक प्रयोगों पर कड़ाई से प्रतिवाद नहीं करेगी, अकेले कोविड ही नहीं भविश्य में ऐसी किसी भी परिस्थितिमें आम लोगों को सरकार की वैज्ञानिक कोशिशें पर विश्वास बनेगा नहीं। 

जान लें उप्र के गांवों में जिस तरह संक्रमण फैल रहा है उसमें सामूहिक पूजा के लिए जुट रही भीड़ व उसकी कोताही की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता। एक बात और लोगों के आस्थ को अंधविश्वास में बदलने से रोकने के लिए विज्ञान व प्रशासन को भी सतर्क रहना होगा । कभी रेमडेसिवर इंजेक्शन , फिर प्लाज्मा थैरेपी का हल्ला होता है और फिर उसके नकार दिया जाता है। वैक्सिीन से बचाव का जम कर प्रचार होता है और फिर वैक्सीन उपलब्ध ना होने पर लोग परेशान होते हैं। आम लोगो की  आर्थिक स्थिति और अन्य कारणों से इलाज पहुंच में नहीं होता। तब ऐसे लोग हताश हो कर स्थानीय मंदिर, पंडत, गुनिया, ओझा के फेर में फंसते है।ं  जाहिर है कि वैज्ञानिक सोच विकसित करने के लिए सरकार को भी ग्रामीण अंचल तक अपनी उपस्थिति को मजबूत करना होगा। 


शुक्रवार, 21 मई 2021

How cyclones are named

 कहीं ‘छिपकली’ ना मचा दे तटीय क्षेत्रों में तबाही 

पंकज चतुर्वेदी 


सोमवार को मुंबई में 11 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से जो हवांए चलीं तो सारा शहर  कांप गया, तिस पर भयंकर बरसात हुई। यह तबाही जब गुजरात की तरफ बढ़ी तो 14 लोगों के मारे जाने, कई के घायल होने, सड़कों पर जलभराव, भवनों के गिरने की अनगिनत शिकायतों ने पूरे महानगर को तहस-नहस कर दिया। इससे एक दिन पहले इस समुद्री तूफान ने गोवा में भी दो लोगों की जान ली थी। कर्नाटक में भी पांच लोग मोर गए। केरल में भी खूब नुकसान हुआ। इतना नुकसान करने वाले समुद्री तूफान का नाम हरे रंग की छिपकली पर है। भारत में यह इस साल का पहला समुद्री तूफान है - ‘ताऊकते’ । यह बर्मी भाशा का षब्द है जिसका अर्थ होता है ‘गेको’ प्रजाति की दुर्लभ छिपकली जो बहुत तीखी आवाज में बोलती है। ध्यान रहे समुद्री चक्रवात महज  एक  प्राकृतिक आपदा नहीं है , असल में तेजी से बदल रहे दुनिया के प्राकृतिक मिजाज ने इस तरह के तूफानों की संख्या में इजाफ किया है और इंसान ने प्रकृति के साथ छेड़छाड़ को नियंत्रित नहीं किया तो साईक्लोंन या बवंडर के चलते भारत के सागर किनारे वालें शहरों में आम लोगों का जीना दूभर हो जाएगा ।

इस तरह के बवंडर संपत्ति और इंसान को तात्कालिक नुकसान तो पहुंचाते ही हैं, इनका दीर्घकालीक प्रभाव पर्यावरण पर पड़ता हेै। भीषण बरसात के कारण बन गए दलदली क्षेत्र, तेज आंधी से उजड़ गए प्राकृतिक वन और हरियाली, जानवरों का नैसर्गिक पर्यावास समूची प्रकृति के संतुलन को उजाड़ देता है। जिन वनों या पेड़ों को संपूर्ण स्वरूप पाने में दशकों लगे वे पलक झपकते नेस्तनाबूद हो जाते हैं। तेज हवा के कारण तटीय क्षेत्रों में मीठे पानी मे खारे पानी और खेती वाली जमीन पर मिट्टी व दलदल बनने से हुए क्षति को पूरा करना मुश्किल होता है।  


दरअसल तूफानों के नाम एक समझौते के तहत रखे जाते हैं। इस पहल की शुरुआत अटलांटिक क्षेत्र में 1953 में एक संधि के माध्यम से हुई थी। अटलांटिक क्षेत्र में हेरिकेन और चक्रवात का नाम देने की परंपरा 1953 से ही जारी है जो मियामी स्थित नेशनल हरिकेन सेंटर की पहल पर शुरू हुई थी। 1953 से अमेरिका केवल महिलाओं के नाम पर तो ऑस्ट्रेलिया केवल भ्रष्ट नेताओं के नाम पर तूफानों का नाम रखते थे। लेकिन 1979 के बाद से एक नर व फिर एक नारी नाम रखा जाता है। अटलांटिक क्षेत्र में हेरिकेन और चक्रवात का नाम देने की परंपरा 1953 से ही जारी है जिसकी पहल मियामी स्थित नैशनल हरिकेन सेंटर ने की थी। 1953 से अमेरिका केवल महिलाओं के नाम पर तो ऑस्ट्रेलिया केवल भ्रष्ट नेताओं के नाम पर तूफानों का नाम रखते थे। 


कोई सौ साल पहले समुद्री बवडंरों के नाम आमतौर पर रोमन कैथोलिक संतों के नाम पर होते थे। जैसे कि सन 1834 के पड्रे-रुइज़ तूफान का नाम डोमिनिकन गणराज्य में एक कैथोलिक संत के नाम पर रखा गया था, जबकि 1876 में सैन फेलिप तूफान का नाम कैथोलिक पादरी के नाम पर रखा गया था।


भारतीय मौसम विभाग के तहत गठित देशों का क्रम अंग्रेजी वर्णमाला के अनुसार सदस्य देशों के नाम के पहले अक्षर से तय होते हैं। भारतीय मौसम विभाग द्वारा पिछले साल जारी सूची में ‘ताऊकते’ नाम चौथे स्थान पर था। पिछले साल नवंबर में आए  तूफान को ‘निवार’ नाम ईरान ने दिया हैं। ईरान में निवार नाम से दो ऐसे गांव हैं जिनकी आबादी 50 से भी कम है। उससे पहले आए तूफान का नाम था -फणी, यह सांप के फन का बांग्ला अनुवाद है। इस तूफान का यह नाम भी बांग्लादेश ने ही दिया था। जान लें कि प्राकृतिक आपदा केवल एक तबाही मात्र नहीं होती, उसमें भविष्य के कई राज छुपे होते हैं। तूफान की गति, चाल, बरसात की मात्रा जैसे कई आकलन मौसम वैज्ञानिकों के लिए एक पाठशाला होते हैं। तभी हर तूफान को नाम देने की प्िरक्रया प्रारंभ हुई। विकसित देशो में नाम रखने की प्रणाली 50 के दशक से विकसित है । दुनियाभर में छह क्षेत्रीय मौसम  केंद्र है। जिन्हे आरएसएमसी कहा जाता है, इनमें से एक भारत है।  जबकि पांच ट्रापीकल सायक्लोन वार्निंग सेंटर अर्थात टीसीडब्लूसी हैं। 


भारतीय मौसम विभाग की जिम्मेदारी उत्तर भारतीय सागर, जिसमें बंगाल की खाड़ी व अरब सागर षामिल है, से उठने वाले तूफानों का पूर्वानुमान व सूचना देना है। भारतीय जिम्म्ेदारी में आए 13 देशों के संगठन को डब्लूएमओ/ईएससीए कहते हैं। सन 2004 में भारत की पहल पर आठ देशों द्वारा बनाए संगठन में अब 13 देश हो गए हैं जो चक्रवातों की सूचना एकदूसरे से साझा करते हैं। ये देश हैं - ं भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान, म्यांमार, मालदीव, श्रीलंका, ओमान और थाईलैंड ं,ईरान, कतर, सऊदी अरब, यूएई और यमन । ये देश अपनी तरफ से नाम सुझाते है। जिनकी एक सूची तैयार की जाती है। नाम रखते समय ध्यान रखा जाता है कि वह छोटा सा हो और प्रसारित करने में सहूलियत हो। इस सूची में अगले कुछ नाम है। - यास, गुलाब, षाहीन, जवाद आदि। 

भारतीय मौसम विभाग के तहत गठित देशों का क्रम अंग्रेजी वर्णमाला के अनुसार सदस्य देशों के नाम के पहले अक्षर से तय होते हैं। जैसे ही चक्रवात इन 13 देशों के किसी हिस्से में पहुंचता है, सूची में मौजूद अलग सुलभ नाम इस चक्रवात का रख दिया जाता है। इससे तूफान की न केवल आसानी से पहचान हो जाती है बल्कि बचाव अभियानों में भी इससे मदद मिलती है। भारत सरकार इस शर्त पर लोगों की सलाह मांगती है कि नाम छोटे, समझ आने लायक, सांस्कृतिक रूप से संवेदनशील और भड़काऊ न हों । किसी भी नाम को दोहराया नहीं जाता है। अब तक चक्रवात के करीब 163 नामों को सूचीबद्ध किया जा चुका है। कुछ समय पहले जब क्रम के अनुसार भारत की बारी थी तब ऐसे ही एक चक्रवात का नाम भारत की ओर से सुझाये गए नामों में से एक ‘लहर’ रखा गया था। .इस सूची में शामिल भारतीय नाम काफ़ी आम नाम हैं, जैसे मेघ, सागर, और वायु। चक्रवात विशेषज्ञों का पैनल हर साल मिलता है और ज़रूरत पड़ने पर सूची फिर से नए नामों से संपन्न करते  हैं।

 


गुरुवार, 20 मई 2021

Urban water bodies can be infected by corona virus

हैदराबाद: सिकुड़ती श् हरी झीलों पर वायरस के खतरे

पंकज चतुर्वेदी 

 


दुनियाभर में हुए कोरोना वायरस के श् हरी जलनिधियों पर असर से एक बेहद डरावना तथ्य सामने आया है कि हैदराबाद की झीलें ना केवल अपना आमाप खो रही हैं, बल्कि उनके जल में लगातार महानगरीय गंदगी जाने से कोरोना के लिए जिम्म्ेदार वायरस की जेनेटिक सामग्री भी मिली है। चूंकि ठीक वैसा ही अध्ययन ग्रामीण और अर्धशहरी इलाके के झीलों में भी किया गया और वाहं इस तरह का खतरा मिला नहीं, जाहिर है कि हैदराबाद श्हर की बगैर शोधित  की गई गंदगी के सीधे झीलों  में जाने का यह कुप्रभाव है। पानी में वायरस की मौजूदगी का पता लगाने के लिए किए जा रहे षोध में फिलहाल तो यही कहा गया है कि पानी में अभी तक जो जेनेटिक मैटेरियल मिला है, वो वास्तविक वायरस नहीं है। ऐसे में पानी के जरिए चेहरे या मुंह से इंफेक्शन फैलने की गुंजाइश कम है।

हैदराबाद वैसे तो हुसैन सागर झील के लिए मशहूर है लेकिन इस महानगर सीमा के भीतर 10 हैक्टेयर से अधिक क्षेत्रफल की 169 झीलों के अलावा कई सौ तालाब यहां हुआ करते थे, जो देखते ही देखते कालोनी, सडक, या बाजार के रूप में गुम हो गए। सनद रहे इन 169 झीलों का कुल क्षेत्राफल ही 90.56 वर्ग किलोमीटर होता है। जाहिर है कि यदि इनमें साफ पानी होता तो हैदराबाद में कई तरह के रोग फैलने से बच जाते। 

काउंसिल ऑफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च, इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ केमिकल टेक्नोलॉजी, सेंटर फॉर सेलुलर एंड मॉलीक्यूलर बायोलॉजी और एकेडमी ऑफ साइंटिफिक एंड इनोवेटिव रिसर्च ने मिलकर यह अध्ययन किया जिसमें सात महीने के दौरान भारत में कोविड की पहली और दूसरी लहर को कवर किया गया है। इसके लिए हैदराबाद की हुसैन सागर और कुछ अन्य झीलों को चुना गया। हुसैन सागर के अलावा नाचारम की पेद्दा चेरुवु और निजाम तालाब में भी वायरस के मैटेरियल मिले हैं। स्टडी में पता चला कि पानी में ये जेनेटिक मैटेरियल इसी साल फरवरी में बढ़ना शुरू हुए, जब देश में महामारी की दूसरी लहर की शुरुआत हुई। ठीक इसी समय घाटकेसर के पास इदुलाबाद के अर्धशहरी इलाके व ग्रामीणअंचल की पोतुराजू झील में भी अध्ययन किया गया और इन दोनो स्थान पर कोई संक्रमण की संभावना नहीं मिली।

‘मेडरक्सिव’ विज्ञान शोध  पत्रिका में 12 मई को ‘‘ काम्प्रहेन्सिव एंड टेंपोरल सरलिेंस आफ सार्स एंड कोविड इन अरबन वाटर बोॅडीज: अर्ली सिग्नल ऑफ सेकंड वेव आनसेट’’ शीर्षक  से प्रकाशित रिपोर्ट में  मनुपति हेमलता, अथमकुरी तारक, उदय किरण आदि वैज्ञानिकों के दल ने लिखा है कि कोरोना वायरस के मुंह से फैलने की संभावना पर दुनियाभर में हो रहे शोध  के दौरान जब हैदराबाद के महानगर की झीलों का अध्ययन किया गया तो पता चला कि कोविडग्रस्त लोगों के घरां व अस्पतालों के संभावित मल-जल के बगैर शोधित ही झीलों में डालने से यह  संकट खड़े होने की संभावना है।

यह बात अब किसी से छिपी नहीं है कि लगभग 778 वर्ग किलोमीटर क्षेत्राफल में फैले हैदराबाद महानगर का अनियोजित विस्तार, पर्यावरणीय कानूनों की अनदेखी, और घरेलू व औघेगिक कचरे की मूसी नदी व तालाबों में सतत गिरने से यहां भीषण जल-संकट खड़ा होता है। अब यह नया संकट है कि जीवनदायी जल की निधियों में  खतरनाक वायरस की संभावना भी खड़ी हो गई है। गया है और इसके निदान का कोई तात्कालिक उपाय सरकार व समाज के पास है नहीं। 

हैदराबाद का महत्वपूर्ण हिस्सा वहाँ की झीलें हैं। बेतहाशा शहरीकरण  के कारण यहां के पारंपरिक जल निकाय पूरी तरह नष्ट हो गए हैं। कुछ जल निकायों का आकार सिमट गया है तो कुछ औद्योगिक रसायनों और घरेलू कचरे से प्रदूषित हो गए हैं। झीलों और नहरों के उथला होने के चलते ही अगस्त 2000 में यहां बाढ़ आई थी। मुख्यधारा विकास के मॉडल पर पर्यावरण संबंधी संकट अब व्यापक स्तर पर वाद-विवाद को जन्म दे रहा है। औद्योगिकरण, शहरी विस्तार, सिंचाई, बड़े बांध, हरित क्रांति आज विकास के क्षेत्र में बातचीत और आलोचना के विषय बन गए हैं। कहना गलत न होगा कि हैदराबाद की प्राकृतिक विरासत का ध्वंस पिछले 50 वर्षों के विकास के कारण हुआ है। पिछले कुछ दशकों से सरकार और निजी संस्थाओं ने बड़े पैमाने पर अतिक्रमण कर झीलों को पक्के इलाकों में रूपांतरित कर दिया। इस क्षति को हम पर्यावरण संबंध या व्यापक राजनीतिक आर्थिक संबंध या व्यापक राजनीतिक आर्थिक संबंध में समझ सकते हैं। हैदराबाद मेें कई तालाब कुतुबशाही (1534-1724 ईसवी) और बाद में आसफ जाही (1724-1948) ने बनवाए थे। उस समय के कुछ बड़े तालाबोंमें हुसैनसागर, मीरआलम, अफजल सागर, जलपल्ली, मा-सेहाबा तालाब, तालाब तालाब, ओसमानसागर और हिमायतसागर इत्यादि शामिल हैं। बड़े तालाब पूर्व शासकों या मंत्रियों द्वारा बनवाए गए थे जबकि छोटे तालाब जमींदारों द्वारा बनवाए गए थे। संयुक्त राष्ट्र विश्व पर्यटन संगठन(यूएनटीओ) ने इस दिल के आकार की झील को विश्व की सबसे बड़ी  मानव निर्मित झील घोषित किया है। हैदराबाद के विकास और संस्कृति की सहयात्राी ‘‘हुसैन सागर’’ यहां की बढ़ती आबादी व आधुनिकीकरण का बोझ व दवाब नहीं सह पाई। इसका पानी जहरीला हो गया और सदियों की कोताही के चलते झील गाद से पट गई। सन 1966 में इसकी गहराई 12.2 मीटर थी जो आज घट कर बामुश्किल पांच मीटर रह गई है। 

जान लें हैदराबाद की झीलें तो प्रयोग के तौर पर ली गई, यदि बंगलुरु , या लोकटक या भोपाल या दरभंगा या फिर उदयपुर की झीलों में ही यदि अध्ययन होगा तो परिणाम इससे भिन्न न होंगे । कोविड का मूल कारण  जैव विविधता से छेड़छाड़ है। ऐसे में  झीलों के संरक्षण की प्राथमिकता को नए सिरे से विचार करने का वक्त आ गया है। अब स्पश्ट दिख रहा है कि उत्तर-करोना विश्व अलग तरीे का होगा और उसमें अनियंत्रित औद्योगिक गतिविधियो या पर्यावरणीय कोताही के परिणाम मानव जाति के लिए आत्महंता सिद्ध होंगे। 


रविवार, 16 मई 2021

/cyclone-tauktae-havoc-amidst-the-outbreak-of-corona-pandemic

फिर एक समुद्री तूफान, कोरोना महामारी के प्रकोप के बीच अब 'ताउते' का कहर




कोरोना महामारी के प्रकोप के बीच अब ताउते चक्रवाती तूफान ने कहर मचा रखा है। केरल के तटीय इलाके तिरुअनंतपुरम के कई गांवों में कई मकान नष्ट हो गए। कर्नाटक राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के मुताबिक, ‘ताउते’ चक्रवात के कारण पिछले 24 घंटों में राज्य के छह जिलों में भारी वर्षा हुई और कुछ लोगों की जान भी जा चुकी है। इस चक्रवात से राज्य के 73 गांव बुरी तरह प्रभावित हुए हैं।



देश के मौसम विज्ञान विभाग ने कहा कि अगले 12 घंटों के दौरान इसके और तेज होने की आशंका है। चक्रवाती तूफान के उत्तर-उत्तर-पश्चिम की ओर बढ़ने और 17 मई की शाम को गुजरात तट पर पहुंचने और 18 मई की सुबह के आसपास पोरबंदर और महुवा (भावनगर जिला) के बीच गुजरात तट को पार करने की संभावना है। एनडीआरएफ ने राहत एवं बचाव कार्य के लिए अपनी टीमों की संख्या 53 से बढ़ाकर 100 कर दी है। इस चक्रवाती तूफान से केरल, कर्नाटक, गोवा, दमन एवं दीव, गुजरात और महाराष्ट्र के तटीय इलाकों के प्रभावित होने की आशंका है।



संबंधित राज्य सरकारों ने अलर्ट जारी किया है। प्रधानमंत्री ने भी तूफान के मद्देनजर उच्चस्तरीय बैठक की है। ‘ताउते’ बर्मी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है ‘गेको’ प्रजाति की दुर्लभ छिपकली। ध्यान रहे कि यह महज प्राकृतिक आपदा नहीं है, असल में दुनिया के बदलते प्राकृतिक मिजाज ने ऐसे तूफानों की संख्या में इजाफ किया है। इंसान ने प्रकृति के साथ छेड़छाड़ को नियंत्रित नहीं किया, तो चक्रवात के चलते भारत के सागर किनारे वाले शहरों में लोगों का जीना दूभर हो जाएगा। ऐसे बवंडर संपत्ति और इंसान को तात्कालिक नुकसान तो पहुंचाते ही हैं, इनका दीर्घकालिक प्रभाव पर्यावरण पर भी पड़ता है। ऐसे तूफान समूची प्रकृति के संतुलन को बिगाड़ देते हैं। जिन वनों या पेड़ों को संपूर्ण स्वरूप पाने में दशकों लगे, वे पलक झपकते ही नेस्तनाबूद हो जाते हैं।


तेज हवा के कारण तटीय क्षेत्रों में मीठे पानी में खारे पानी और खेती वाली जमीन पर मिट्टी व दलदल बनने से हुई क्षति को पूरा करना मुश्किल होता है। जलवायु परिवर्तन पर 2019 में जारी इंटर गवर्मेंट समूह की विशेष रिपोर्ट ‘ओशन ऐंड क्रायोस्फीयर इन ए चेंजिंग क्लाइमेट’ के अनुसार, सारी दुनिया के महासागर 1970 से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन से उत्पन्न 90 फीसदी अतिरिक्त गर्मी को अवशोषित कर चुके हैं। इसके कारण महासागर गर्म हो रहे हैं और इसी से चक्रवात का खतरनाक चेहरा बार-बार सामने आ रहा है। जान लें कि समुद्र का 0.1 डिग्री तापमान बढ़ने का अर्थ है चक्रवात को अतिरिक्त ऊर्जा मिलना। धरती के अपने अक्ष पर घूमने से सीधा जुड़ा है चक्रवाती तूफानों का उठना। भूमध्य

रेखा के नजदीकी जिन समुद्रों में पानी का तापमान 26 डिग्री सेल्सियस या अधिक होता है, वहां ऐसे चक्रवातों की आशंका होती है।


भारतीय उपमहाद्वीप में बार-बार और हर बार पहले से घातक तूफान आने का असली कारण इंसान द्वारा किए जा रहे प्रकृति के अंधाधुंध शोषण से उपजी पर्यावरणीय त्रासदी ‘जलवायु परिवर्तन’ भी है। इस साल शुरू में ही अमेरिकी अंतरिक्ष शोध संस्था नासा ने चेता दिया था कि जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रकोप से चक्रवाती तूफान और भयानक होते जाएंगे। अमेरिका में नासा के ‘जेट प्रोपल्शन लेबोरेटरी’ के नेतृत्व में यह अध्ययन किया गया। इसमें औसत समुद्री सतह के तापमान और गंभीर तूफानों के बीच संबंधों को निर्धारित करने के लिए उष्णकटिबंधीय महासागरों के ऊपर वायुमंडलीय इन्फ्रारेड साउंडर उपकरणों द्वारा 15 वर्षों तक एकत्र आकंड़ों के आकलन से यह बात सामने आई।


‘जियोफिजिकल रिसर्च लेटर्स’ (फरवरी 2019) में प्रकाशित अध्ययन में बताया गया है कि समुद्र की सतह के तापमान में वृद्धि के कारण हर एक डिग्री सेल्सियस पर 21 प्रतिशत अधिक तूफान आते हैं। ‘जेपीएल’ के हार्टमुट औमन के मुताबिक, गर्म वातावरण में गंभीर तूफान बढ़ जाते हैं। भारी बारिश के साथ तूफान आमतौर पर साल के सबसे गर्म मौसम में ही आते हैं। लेकिन जिस तरह पिछले साल ठंड के दिनों में भारत में ऐसे तूफान के मामले बढ़े और कुल 124 चक्रवात में से अधिकांश ठंड में ही आए, यह हमारे लिए गंभीर चेतावनी है।


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शनिवार, 15 मई 2021

Prepare community for Third wave of Covid in advance

 कोरोना की तीसरी लहर की तैयारी में बढ़ना होगा जन सहयोग

पंकज चतुर्वेदी 


कोरोना की दूसरी लहर ने भारत के सारे तंत्र, दावों, तैयारियों को तहस-नहस कर दिया। अभी लोग अंतिम संस्कार, आक्सीजन और अस्पताल में जगह के लिए दर-दर घूम रहे हैं और यह चेतावनी आ गई कि कोविड की तीसरी लहर अभी और बाकी है। कोरोना वायरस महामारी की दूसरी लहर से जूझ रहे देश में स्थिति बेहद गंभीर हैं। इसी बीच केंद्र सरकार के प्रमुख वैज्ञानिक सलाहकार के विजयराघवन ने इस महामारी को लेकर एक और गंभीर चेतावनी दी और कहा कि जिस तरह तेजी से वायरस का प्रसार हो रहा है कोरोना महामारी की तीसरी लहर आनी तय है, लेकिन यह साफ नहीं है कि यह तीसरी लहर कब और किस स्तर की होगी। उन्होंने कहा कि हमें बीमारी की नई लहरों के लिए तैयारी करनी चाहिए। इस बार कम से कम लोगों को लेबल -3 के अस्पताल की जरूरत हो, यह प्रयास अभी से करना होगा और उसके लिए जरूरी है कि दूसरी लहर में बरती गई कोताही या कमियों का आकलन हो।

बीते एक महीने से देश के बउ़े हिस्से पर जैसे मौत नाच रही है, हर घर-परिवार के पास अपनों को खोने और माकूल इलाज ना मिलने के एक से किस्से हैं। पोस्टरों पर दमकते दावों की हकीकत ष्मसान घाट के बाहर लगी अंतिम संस्कार की लंबी कतारों दिख रही है। सरकार जैसे नदारद है और यह कड़वा सच है कि यदि समाज इतना जीवंत ना होता तो सउ़कों पर लाशें लावारिस दिखतीं। यह कड़वा सच है कि हमारे डाक्टर्स व मेडिकल स्टाफ बीते 14 महीनों से अथक काम कर रहे है। और हमारी जनसंख्या और बीमारों की संख्या की तुलना में मेडिकलकर्मी बहुत कम हैं। 

ऐसे में विजयराघवन ने चेता दिया है कि कोरोना वायरस के विभिन्न वेरिएंट मूल स्ट्रेन की तरह की फैलते हैं। ये किसी अन्य तरीके से फैल नहीं सकते। वायरस के मूल स्ट्रेन की तरह यह मनुष्यों को इस तरह संक्रमित करता है कि यह शरीर में प्रवेश करते समय और अधिक संक्रामक हो जाता है और अपने और अधिक प्रतिरूप बनाता है। एक तरफ तो देश को आज के संकट को झेलना है और दूसरी तरफ आगामी चुनौती की तैयारी भी करना है। यह जान लें कि भारत सरकार ने देश के एनजीओ सेक्टर पर जिस तरह पाबंदियां लगाई थीं, उसका खामियाजा आंचलिक भारत इस विपदा काल में भोग रहा है। भविश्य की तैयारी का सबसे पहला कदम तो स्वयंसेवी संगठनों को प्रशिक्षण, अधिकार और ताकत दे कर मैदान में उतारना होगा।


यदि हम अपनी पिछली गलतियों से ही सीख लें तो अगली लहर के झंझावतांे से बेहतर तरीके से जूझा जा सकेगा। दिल्ली के छतरपुर में बीते साल दस हजार बिस्तरों को कोविड सेंटर षुरू किया गया था। हालांकि  उसमें कभी भी क्षमता की तुलना में तीस फीसदी मरीज भी नहीं रहे, लेकिन इस साल जब देश के कुछ हिस्सों से कोरोना के फिर सक्रिय होने की खबर आ रही थीं, उस अस्थाई ढांचे को तोड़ा जा रहा था। दिल्ली में द्वारका में 1650 बिस्तर के अस्पताल सहित कम से कम ऐसी दस इमारतें खाली हैं जिनका इस्तेमाल तत्काल अस्पताल केरूप में किया जा सकता था लेकिन अब फिर दिल्ली में रामलीला मैदान से ले कर बुराड़ी मैदान तक अस्थाई अस्पताल खड़े किए जा रहे है। अस्थाई निर्माण का व्यय हर समय बेकार जाता है और यदि यही पैसा स्थाई भवनों में लगाया जाए तो इनके दूरगामी परिणाम होते हैं। आज जरूरत है कि  मेडिकल सुविधा को सेना की तैयारी की तरह प्राथमिकता दी जाए।


सबसे बड़ी कोताही तो अस्पतालों से सामने आ रही है, ना उनके पास आक्सीजन प्लांट हैं और ना ही आग से लड़ने के उपकरण। गत एक महीने में देशभर के अस्पतालों में आग लगने से 90 लोग मारे जा चुके है। जबकि आक्सीजन की आपूर्ति बाधित होने से मरने वालों की संख्या हजार के पार है। यही नहीं एक साल पहले कोरोना उन्मूलन के नाम पर खरीदे गए वैंटिलेटर अधिकांश जगह खिलौना बने है।  बहुत से वैंटिलेटर घटिया आए तो कई जिला अस्पतालों में उन्हें खोला तक नहीं गया।  कानपुर के सबसे बड़े हैलेट अस्पताल में 120 में से 34 वैंटिलेटर कबाड़ हैं तो 24 अधमरे। एक साल में उनकी मरम्मत की कागजी औपचारिकता पूरी नहीं हुई। मप्र के छतरपुर जिल में पांचं विधानसभा सीट है। लेकिन वैटिलेटर केवल एक है। बहुत से जिलों में वैंटिलेटर को चलाने वाले तकनीकी कर्मचारी नहीं हैं। आज जरूरत है कि सेवानिवृत और समाज के अन्य जिम्मेदार लोगों का एक समूह केवल इस तरह के आडिट करे व इसकी समयबद्ध रिपोर्ट व उनको दुरूस्त करने का अभियान चलाया जाए। यह भी समय की मांग है कि हर गांव कस्बे में प्राथमिक स्वास्थ का प्रशिक्षण जैसे - कोविड मरीज की पहचान, उसके इलाज में सतर्कता, आवश्यकता पड़ने पर इंजेक्शन लगाना, मरीज को आक्सीजन देना, दवाई खिलाना जैसी मूलभूत बातों का प्रशिक्षण दिया जाए। इसके लिए उनसीसी, स्काउट, एनएसएस के बच्चों को हर समय तैयार रखा जाए। हां, उनकी कड़ी सुरक्षा ख्ुाद को बचा कर रखने की सतर्कता के लिए अनुभवी लोगों को उनके साथ रखा जाए।


इस बार कोरोना की लहर में क्वारंटीन सेंटर या एकांतवास लगभग गायब हो गए। छोटे घरों में , कम जागरूकता के साथ प्रारंभिक लक्षण वाले लोगों के प्रति तंत्र की बेपरवाही रही और इस कारण कई-कई घरों के सारे सदस्य गंभीर रूप से संक्रमित हुए। आज जरूरत है कि स्थानी जन प्रतिनिधि, जैसे पार्शद या सरपंच, अन्य गणमान्य लोग व स्वयंसेवी संस्था के साथ हर मुहल्ले में  पांच सौ आबादी पर कम से कम दस बिस्तरों के क्वारंटीन सेंटर, जहां प्राथमिक उपचार, मनोरंजन और स्वच्छ प्रसाधन सुविधा हो , की स्थापना की जाए। ऐसे हर सेंटर में  आक्सीजन का भी प्रावधान हो और कुछ मोबाईल डाक्टर यूनिट इनकी प्रभारी हो। दिल्ली, लखनऊ, इंदौर आदि बड़े षहरों में संक्रमण फैलने का सबसे बड़ा करण यह रहा कि लोग अपने मरीज को ले कर अस्पताल की तलाश में सारे षहर में घंटों घूमते रहे। यदि हर मरीज को उसके घर के दस किलोमीटर के दायरे में भर्ती करना तय किया जाए और हर कोविड मरीज के इलाज का पूरा व्यय सरकार उठाएं तो भविश्य की लहर के हालात में अफरातफरी व अस्पतालों की लूट से बचा जा सकता है। 

देश के हर व्यक्ति को वैक्सिन लगे, यह इस समय बहुत जरूरी है। जान लें कि वैक्सिन भले ही पूरी तरह निरापद नहीं है लेकिन यह बहुत बड़ी आबादी को गंभीर संक्रमण से बचाती है।  हर मुहल्ले को इकाई मान कर स्थानीय लोगों को आगे कर बगैर राजनीति के टीकाकरण अगली लहर में काफी कुछ  गंभीर नुकसान को बचा सकता है। एक बात और जब जक जिम्म्ेदारी तय कर कोताही करने वालों को दंडित नहीं किया जाता, जनता के पैसे पर चलने वाले तंत्र के वायरस का निराकरण होगा नहीं। 

चूँकि यह संघर्ष लम्बा है अतः  तदर्थ या एडोह्क से काम चलने वाला नहीं हैं - प्लानिंग अर्थात योजना , इम्प्लीमेंटेशन  अर्थात  क्रियान्वयन , मेनेजमेंट अर्थात प्रबंधन , लोजिस्टिक सपोर्ट अर्थात संसाधन की व्यवस्था , ग्राउंड वर्कर अर्थात जमीनी कार्यकर्ता - इनकी अलग अलग टीम , हर जिले स्तर पर तैयार करना होगा । कोई दल केवल भोजन और भूख से निबटे तो कोई केवल अस्पताल की उपलब्धता पर। कोई समूह दवाअें को व्यवस्था करे तो कोई एंबुलेंस या अंतिम संस्कार पर । केारोना की तीसरी लहर आने पर शासकीय तन्त्र का बेहतर इस्तेमाल  आम लोगों की भागीदारी के बगैर संभव नहीं होगा। 


बुधवार, 5 मई 2021

middle class turning BPL due to covid treatment

 गरीबी बढ़ाता कोरोना

पंकज चतुर्वेदी



भारत में कोई दो  करोड़ लेाग अभी तक नोबल कोरोना वायरस के शिकार हो चुके हैं और इसके चलते कोई दो लाख पंद्रह हजार लोग जान गंवा चुके हैं। जिस देश  की 27 करोड़ आबादी पहले से ही गरीबी रेखा के नीचे  जीवनयापन करती हो, वहां इस तरह की महामारी समाज में दूर तक गरीबी का कारक भी बन रही हैं। जब अंतिम संस्कार को 25 से 30  हजार लग रहे हों, एंबुलेंस वाले दो किलोमीटर के दस हजार मांग रहे हों, निजी अस्पतालों का बिल कम से कम पंाच लाख हो, सरकारी अस्पताल अव्यवस्था ग्रस्त हों, आक्सीजन व इंजेक्शन  के लिए लोग निर्धारित कीमत से कई सौ गुना ज्यादा चुका रहे हों -  तिस पर लगातार व्यापार-उद्योग बंद होने से लटकर रहे बेराजगारी व कम वेतन के खतरे से मध्य व निम्न मध्य वर्ग के तेजी से गरीबी रेखा से नीचे यानी बीपीएल बन रहा है। असंगठित क्षेत्र के लोग अपना घर-जमीन- जेवर बेच कर इलाज करवा रहे हैं और देखते ही देखते खाता-पीता परिवार गरीब हो रहा है। 

स्वास्थ्य के मामले में भारत की स्थिति दुनिया में शर्मनाक है। इस मामले में गुणवत्ता एवं उपलब्धता की रेंकिं्र में हम 180 देशों  में 145वें स्थान पर हैं। यहां तक कि चिकित्सा सेवा के मामले में भारत के हालात श्रीलंका, भूटान व बांग्लादेश  से भी बदतर हैं। अंतर्राष्ट्रीय  स्वास्थ्य पत्रिका ‘ लांसेट’ की एक रिपोर्ट ‘ ग्लोबल बर्डन आफ डिसीज’ में बताया गया है कि स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में भारत ने सन 1990 के बाद अस्पतालों की सेहत में सुधार तो किया है। उस साल भारत को 24.7 अंक मिले थे, जबकि 2016 में ये बढ़ कर 41.2 हो गए हैं। 

वर्श 2021 के वार्षिक  बजट के एक दिन पहले संसद में पेश  आर्थिक सर्वेक्षण में यह स्वीकार किया गया था कि इलाज करवाने में भारतीयों की सबसे ज्यादा जेब ढीली होती है क्योंकि स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकारी निवेश  बहुत कम हैं। इस सर्वे में बताया गया था कि देश  की चार फीसदी आबादी अपनी आय का एक चौथाई  धन डाक्टर-अस्पताल के चक्कर में गंवा देती है।  वहीं 17 प्रतिषत जनता अपनी कुल व्यय क्षमता का 10 फीसदी से ज्यादा इलाज-उपचार पर खर्च करते हैं। यह दुनिया में सर्वाधिक है। भारत में 65 प्रतिशत लोग यदि बीमार हो जाएं तो उसका व्यय वे खुद वहन करते हैं।


 स्वास्थ् क्षेत्र में कोताही की बानगी है कि मानक अनुसार  प्रति 10 हजार आबादी पर औसतन 46 स्वास्थ्यकर्मी होना चाहिए, लेकिन हमारे यहां यह संख्या 23 से कम हैं। तिस पर कोरोना महामारी के रूप में विस्फाट कर चुकी है। देष के आंचलिक कस्बों की बात तो दूर राजधानी दिल्ली के एम्स या सफदरजंग जैसे अस्पतालों की भीड़ और आम मरीजों की दुर्गति किसी से छुपी नहीं है। एक तो हम जरूरत के मुताबिक डाक्टर तैयार नहीं कर पा रहे, दूसरा देष की बड़ी आबादी ना तो स्वास्थ्य के बारे में पर्याप्त जागरूक है और ना ही उनके पास आकस्मिक चिकित्सा के हालात में  केाई बीमा या अर्थ की व्यवस्था है।  हालांकि सरकार गरीबों के लिए मुफ्त इलाज की कई योजनाएं चलाती है लेकिन व्यापक अशिक्षा  और गैरजागरूकता के कारण ऐसी योजनाएं माकूल नहीं हैं। पिछले सत्र में ही  सरकार ने संसद में स्वीकार किया कि देश  में कोई 8.18 लाख डाॅक्टर मौजूद हैं , यदि आबादी को 1.33 अरब मान लिया जाए तो औसतन प्रति हजार व्यक्ति पर एक डाक्टर का आंकडा भी बहुत दूर लगता है। तिस पर मेडिकल की पढ़ाई इतनी महंगी कर दी है कि जो भी बच्चा डाक्टर बनेगा, उसकी मजबूरी होगी कि वह दोनों हाथों से केवल नोट कमाए। 


पब्लिक हैल्थ फाउंडेषन आफ इंडिया(पीएचएफआई) की एक रिपोर्ट बताती है कि सन 2017 में देष के साढ़े पांच करोड़ लोग के लिए स्वास्थ्य पर किया गया व्यय ओओपी यानी आउट आफ पाकेट या औकात से अधिक व्यय की सीमा से पार रहा। यह संख्या दक्षिण कोरिया या स्पेन या कैन्य की आबादी से अधिक है। इनमें से 60 फीसदी यानि तीन करोड़ अस्सी लाख लोग अस्पताल के खर्चों के चलते बीपीएल यानी गरीबी रेखा से नीचे आ गए। बानगी के तौर पर ‘इंडिया स्पेंड’ संस्था द्वारा छत्तीसगढ़ राज्य के 15 जिलों के 100 सरकारी अस्पतालों से केवल एक दिन में लिए गए 1290 पर्चों को लें तो उनमें से 58 प्रतिषत दवांए सरकारी अस्पताल में उपलब्ध नहीं थी। जाहिर है कि ये मरीजों को बाजार से अपनी जेब से खरीदनी पड़ी।


भारत में  लेागों की जान और जेब पर सबसे भारी पड़ने वाली बीमारियों में ‘दिल और दिमागी दौरे’ सबसे आगे हैं। भारत के पंजीयक और जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि सन 2015 में दर्ज 53 लाख 74 हजार आठ सौ चैबीस मौतों में से 32.8 प्रतिषत इस तरह के दौरों के कारण हुई।। एक अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन का अनुमान है कि भारत में उच्च रक्तचाप से ग्रस्त लोगों की संख्या सन 2025 तक 21.3 करोड़ हो जाएगी, जो कि सन 2002 में 11.82 करोड़ थी। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद्  (भा आ अ प) के सर्वेक्षण के अनुसार पूरी संभावना है कि यह वृद्धि असल में ग्रामीण इलाकों में होगी।  भारत में हर साल करीब 17,000 लोग उच्च रक्तचाप की वजह से मर रहे हैं। यह बीमारी मुख्यतया बिगड़ती जीवन शैली, शारीरिक गतिविधियों का कम होते जाना और खानपान में नमक की मात्रा की वजह से होती है। इसका असर अधेड़़ अवस्था में जाकर दिखता रहा है, पर हाल के कुछ सर्वेक्षण बता रहें है कि 19-20 साल के युवा भी इसका शिकार हो रहे हैं। इलाज में सबसे अधिक खर्चा दवा पर होता है। भारत में इस बीमारी के इलाज में एक व्यक्ति को दवा पर अच्छा खासा खर्च करना पड़ता है और यह एक आम आदमी के लिए तनाव का विषय है। इस तरह के रोग पर करीब डेढ हजार रुपये हर महीना दवा पर खर्च होता ही हैं। उच्च रक्तचाप और उससे व्यव की चिंता इसांन को मधुमेह यानि डायबीटिज और हाइपर  थायरायड का भी शिकार बना देती है। पहले ही गरीबी,विषमता  और आर्थिक बोझ से दबा हुआ ग्रामीण समाज, उच्च रक्तचाप जैसी नई बीमारी की चपेट में और लुट-पिट रहा है।  पैसा तो ठीक इससे उनका शारीरिक  श्रम भी प्रभावित हो रहा है। 


डायबीटिज देश  में महामारी की तरह फैल रही है। इस समय कोई 7.4 करोड़ लेाग मधुमेह के विभिन्न स्तर पर षिकार हैं और इनमें बड़ी संख्या में सरकारी कर्मचारी हैं। सरकार का अनुमान है कि इस पर हर साल मरीज  सवा दो लाख करोड़ की दवाएं खा रहे हैं जो देश  के कुल स्वास्थ्य बजट का दस फीसदी से ज्यादा है। बीते 25 सालों में भारत में डायबीटिज के मरीजों की संख्या में 65 प्रतिषत की वृद्धि हुई। एक तो अमेरिकी मानक संस्थाओं ने भारत में रक्त में चीनी की मात्रा को कुछ अधिक दर्ज करवाया है जिससे प्री-डायबीटिज वाले भी इसकी दवाओं के फेर में आ जाते हैं और औसतन प्रति व्यक्ति साढ़े सात हजार रूपए साल इसकी दवा पर व्यय होता हे। अब डायबीटिज खुद में तो कोई रोग है नहीं, यह अपने साथ किडनी, त्वचा, उच्च रक्तचाप और दिल की बीमारियां साथ ले कर आता है। और फिर एक बार दवा शुरू  कर दे ंतो इसकी मात्रा बढ़ती ही जाती है। 


स्वास्थ्य सेवाओं की जर्जरता की बानगी सरकार की सबसे प्रीमियम स्वास्थ्य योजना सीजीएचएस यानि केंद्रीय कर्मचारी स्वास्थ्य सेवा है जिसके तहत पत्रकार, पूर्व सांसद आदि आते हैं। इस योजना के तहत पंजीकृत लोगों में चालीस फीसदी डायबीटिज के मरीज हैं और वे हर महीने केवल नियमित दवा लेने जाते हैं। एक मरीज की औसतन हर दिन की पचास रूपए की दवा। वहीं स्टेम सेल से डायबीटिज के स्थाई इलाज का व्यय महज सवा से दो लाख है लेकिन सीजीएचएस में यह इलाज षामिल नहीं है। ऐसे ही कई अन्य रोग है जिनकी आधुनिक चिकित्सा उपलब्ध है लेकिन सीजीएचएस में उसे षामिल ही नहीं किया गया।


ऐसे जर्जर स्वास्थ्य ढांचे के बीच कोरोना ने  चैदह महीनेे से अधिक भारत के आंचलिक गांवांे तक अपना पाश  कस लिया है।  अज्ञानता है, जागरूकता की कमी है, दवा व मूलभूत सुविधाआंे का अकाल है, ऐसे में मजबूरी में लोग आक्सीजन या वैंटिलेटर बेड के लिए निजी अस्पतालों पर निर्भर हैं जहां प्रति दिन चादर- तकीया कवर के पच्चीस सौ रूपए, खाने के देा हज़ार  रूपए और दवओं के नाम पर मनमानी वसूली हो रही है। आम लोगों की प्राथमिकता उनके परिवारजन का निरेाग होना है और इसी लालसा में वे गरीबी के दलदल में धकेले जा रहे हैं। 





Do not burn dry leaves

  न जलाएं सूखी पत्तियां पंकज चतुर्वेदी जो समाज अभी कुछ महीनों पहले हवा की गुणवत्ता खराब होने के लिए हरियाणा-पंजाब के किसानों को पराली जल...