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गुरुवार, 31 अक्तूबर 2019

Chhath- The festival of ecology and to thanks nature

क्यों ना छट को पर्यावरण पर्व के रूप में मनाएं
पंकज चतुर्वेदी
दीपावली के ठीक बाद में बिहार व पूर्वी राज्यों में मनाया जाने वाला छठ पर्व अब प्रवासी बिहारियों के साथ-साथ सारे देष में फैल गया है। गोवा से लेकर मुंबई और भोपाल से ले कर बंगलूरू तक, जहां भी पूर्वांचल के लोग बसे हैं, कठिन तप के पर्व छठ को हरसंभव उपलब्ध जल-निधि के तट पर मनाना नहीं भूलते है। वास्तविकता यह भी है कि छट को भले ही प्रकृति पूजा और पर्यावरण का पर्व बताया जा रहा हो, लेकिन इसकी हकीकत से दो चार होना तब पड़ता है जब उगते सूर्य को अर्ध्य दे कर पर्व का समापन होता है और श्रद्धालु घर लौट जाते हैं। पटना की गंगा हो या दिल्ली की यमुना या भोपाल का षाहपुरा तालाब या दूरस्थ अंचल की कोई भी जल-निधि, सभी जगह एक जैसा दृष्य होता है- पूरे तट पर गंदगी, बिखरी पॉलीथीन , उपेक्षित-गंदला रह जाता है वह तट जिसका एक किनारा पाने के लिए अभी कुछ देर पहले तक मारा-मार मची थी।

देष के सबसे आधुनिक नगर का दावा करने वाले दिल्ली से सटे ग्रेटर नोएडा की तरफ सरपट दौड़ती चौड़ी सडक के किनारे बसे कुलेसरा व लखरावनी गांव पूरी तरह हिंडन नदी के तट पर हैं। हिंडन यमूुना की सहायक नदी है लेकिन अपने उद्गम के तत्काल बाद ही सहारनपुर जिले से इसका जल जहरीला होना जो षुरू होता है तो अपने यमुना में मिलन स्थल, ग्रेटर नोएडा तक हर कदम पर दूशित होता जाता है। ऐसी ही मटमैली हिंडन के किनारे बसे इन दो गांवों की आबादी दो लाख पहुंच गई है। अधिकांश वाषिंदे सुदूर इलाकों से आए मेहनत-मजदूरी करने वाले हैं। उनको हिंडन घाट की याद केवल दीपावली के बाद छट पूजा के समय आती है। वैसे तो घाट  के आसपास का इलाका एक तरह से सार्वजनिक षौचालय बना रहता है, लेकिन दीपावली के बाद अचानक ही गांव वाले घाटों की सफाई, रंगाई-पुताई करने लगते हैं।
 राजनीतिक वजन लगाया जाता है तो इस नाबदान बनी नदी का गंदा बहाव रोक कर इसमें गंगा जल भर दिया जाता है। छठ के छत्तीस घंटे बड़ी रौनक होती है यहां और उसके बाद षेश 361 दिन वहीं गंदगी, बीड़ी-षराब पीने वालों का जमावड़ा । पर्व समाप्ति के अगले ही दिन उसी घाट पर लोग षौच जाते हैं जहां अभी भी प्रसाद के अंष पड़े होते हैं। जिस नदी में भक्त खड़े थे, वह देखते ही देखते काला-बदबूदार नाला बन जाती है, पूरे गांव का गंदा पानी का निस्तार भी इसी में होता है।
छट पर्व लोक आस्था का प्रमुख सोपान है- प्रकृति ने अन्न दिया, जल दिया, दिवाकर का ताप दिया, सभी को धन्यवाद और ‘तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा’ का भाव। असल में यह दो ऋतुओं के संक्रमण-काल में षरीर को पित्त-कफ और वात की व्याधियों से निरापद रखने के लिए गढ़ा गया अवसर था। कार्तिक मास के प्रवेश के साथ छठ की तैयारियां शुरू हो जाती हैं। भोजन में प्याज-लहसुन का प्रयोग पूरी तरह बंद हो जाता है। छठ के दौरान छह दिनों तक दिनचर्या पूरी तरह बदल जाती है। दीवाली के सुबह से ही छठ व्रतियों के घर में खान-पान में बहुत सारी चीजें वर्जित हो जाती है, यहां तक कि सेंधा नमक का प्रयोग होने लगता है।
सनातन धर्म में छट एक ऐसा पर्व है जिसमें किसी मूर्ति-प्रतिमा या मंदिर की नहीं, बल्कि प्रकृति यानि सूर्य, धरती और जल की पूजा होती है।  धरती पर जीवन के लिए, पृथ्वीवासियों के स्वास्थ्य की कामना और भास्कर के प्रताप से धरतीवासियों की समृद्धि के लिए भक्तगण सूर्य के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। बदलते मौसम में जल्दी सुबह उठना और सूर्य की पहली किरण को जलाषय से टकरा कर अपने षरीर पर लेना, वास्तव में एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। वृत करने वाली महिलाओं के भेाजन में कैल्ष्यिम की प्रचुर मात्रा होती है, जोकि महिलाओं की हड्डियों की सुदृढता के लिए अनिवाय भी है। वहीं सूर्य की किरणों से महिलओं को साल भर के लिए जरूरी विटामिन डी मिल जाता है। यह विटामिन डी कैल्ष्यिम को पचाने में भी मदद करता है। तप-वृत से रक्तचाप नियंत्रित होता है और सतत ध्यान से नकारात्मक विचार मन-मस्तिश्क से दूर रहते हैं।

वास्तव में यह बरसात के बाद नदी-तालाब व अन्य जल निधियों के तटों ंपर बह कर आए कूड़े को साफ करने, अपने प्रयोग में आने वाले पानी को इतना स्वच्छ करने कि घर की महिलाएं भी उसमें घंटों खड़ी हो सकें , दीपावली पर मनमाफिक खाने के बाद पेट को नैसर्गिक उत्पादों से पोषित  करने और विटामिन के स्त्रोत सूर्य के समक्ष खड़े होने का वैज्ञानिक पर्व है।  पर्व में इस्तेमाल प्रत्येक वस्तु पर्यावरण को पपित्र रखने का उपक्रम होती है- बांस का बना सूप, दौरा, टोकरी, मउनी व सूपती तथा मिट्टी से बना दीप, चौमुख व पंचमुखी दीया, हाथी और कंद-मूल व फल जैसे ईख, सेव, केला, संतरा, नींबू, नारियल, अदरक, हल्दी, सूथनी, पानी फल सिंघाड़ा, चना, चावल (अक्षत), ठेकुआ, खाजा इत्यादि।
इसकी जगह ले ली- आधुनिक और कहीं-कहीं अपसंसकृति वाले गीतों ने , आतिषबाजी,घाटों की दिखावटी सफाई, नेातागिरी, गंदगी, प्लास्टिक-पॉलीथीन जैसी प्रकृति-हंता वस्तुओं और बाजारवाद ने। अस्थाई जल-कुंड या सोसायटी के स्वीमिग पुल में छट पूजा की औपचारिकता पूरा करना असल में इस पर्व का मर्म नहीं है। लोग नैसर्गिक जल-संसाधनों तक जाएं, वहां घाट व तटों की सफाई करें और फिर पूजा करें , इसके बनिस्पत अपने घर के पास एक गड्ढे में पानी भर कर पूजा के बाद उसके गंदा, बदबूदार छोड़ देना तो इसकी आत्मा को मारना ही है। यही नहीं जिस जल में वृत करने वाली महिलाएं खड़ी रहती हैं, वह भी इतना दूशित होता है कि उनके पैरों और यहां तक कि गुप्तांगों में संक्रमण की संभावना बनी रहती है।
काष, छठ पर्व की वैज्ञानिकता, मूल-मंत्र और आस्था के पीछे तर्क को भलीभांति समाज तक प्रचारित-प्रसारित किया जाए। जल-निधियों की पवित्रता, स्वच्छता के संदेष को आस्था के साथ व्यावहारिक पक्षों के साथ लोक-रंग में पिरोया जाए, लोक को अपनी जड़ों की ओर लौटने को प्रेरित किया जाए तो यह पर्व अपने आधुनिक रंग में धरती का जीवन कुछ और साल बढ़ाने का कारगर उपाय हो सकता है। हर साल छट पर्व पर यदि देष भर में हजार तालाब खोदने और उन्हें संरक्षित करने का संकल्प  हो, दस हजार पुराने तालाबों में गंदगी जाने से रोकने का उपक्रम हो , नदियों के घाट पर साबुन, प्लास्टिक  और अन्य गंदगी ना ले जाने की षपथ हो तो छट के असली प्रताप और प्रभाव को देखा जा सकेगा।
यदि छट के तीन दिनों को जल-संरक्षण दिवस, स्वच्छता दिवस जैसे नए रंग के साथ प्रस्तुत किया जाए और आस्था के नाम पर एकत्र हुई विषाल भीड़ को भौंडे गीतों के बनिस्पत इन्हीं संदेषों से जुड़े सांस्कृतिक आयोजनों से षिक्षित किया जाए, छट के संकल्प को साल में दो या तीन बार उन्ही जल-घाटों पर आ कर दुहराने का प्रकल्प किया जाए तो वास्तव में सूर्य का ताप, जल की पवित्रता और खेतों से आई नई फसल की पौश्टिकता समाज को निरापद कर सकेगी।

सोमवार, 28 अक्तूबर 2019

Indian printing industry in threat due to paper crisis

कागज
यहां भी गड़ी चीन की नजर

पिछले कुछ महीनों के दौरान कागज के दाम अचानक ही आसमान को छू रहे हैं, किताबों छापने में काम आने वाले मेपलीथों के 70 जीएसएम कागज के रिम की कीमत हर सप्ताह बढ़ रही है। इसका सीधा असर पुस्तकों पर पड़ रहा है। भारत में मुदण्रउद्योग दुनिया की सबसे तेज बढ़ रहे व्यापार में गिना जाता है। हमारे यहां साक्षरता दर बढ़ रही है, उच्च शिक्षा के लिए नामांकन आंचलिक क्षेत्र तक उत्साहजनक हैं। फिर दैनिक उपभोग के उत्पादों के बाजार में भी प्रगति है सो पैकेजिंग इंडस्ट्री में भी कागज की मांग बढ़ रही है। गंभीरता से देखें तो पाएंगे कि चीन एक सुनियोजित चाल के तहत दुनिया के कागज के कारोबार पर एकाधिकार करने की फिराक में है। इसका असर भारत में ज्ञान-दुनिया पर भी पड़ रहा है। भारत में आज 20.37 मिलियन टन कागज की मांग है जो कि सन 2020 तक 25 मिलियन टन होने की संभावना है। हमारे यहां मुदण्रमें कागज की मांग की वृद्धि दर 4.2 प्रतिशत सालाना है तो पैकेजिंग में 8.9 फीसद। लगभग 4500 करोड़ सालाना के कागज बाजार की मांग पूरी करने के लिए कहने को तो हमारे यहां 600 कागज कारखाने हैं, लेकिन असल में मांग पूरी करने के काबिल बड़े कारखाने महज 12 ही हैं। वे भी एनसीईआरटी जैसे बड़े पेपर खपतकर्ता की मांग पूरी नहीं कर पाते। पाठ्य पुस्तकें छापने वाले एनसीईआरटी को हर साल 20 हजार मीट्रिक टन कागज की जरूरत होती है और कोई भी कारखाना इसकी जरूरत एकमुश्त पूरी नहीं कर पाता। असम में संचालित एकमात्र सरकारी कारखाना हिंदुस्तान पेपर लिमिटेड को सरकार ने पिछले साल ही बंद कर दिया। अब सारा दारोमदार निजी उत्पादकों पर है। बीते तीन सालों में असम की ही अन्य चार निजी पेपर मिल भी बंद हो गईं। दुनिया में सर्वाधिक कागज बनाने वाले तीन देश हैं - चीन, अमेरिका और जापान। जो दुनिया की सालाना मांग 400 मिलियन टन का लगभग आधा कागज उत्पादन करते हैं। चूंकि हमारे कारखाने बहुत छोटे हैं और उनकी उत्पादन कीमत ज्यादा आती है सो गत एक दशक के दौरान चीन के कागज ने वैसे ही हमारे बाजार पर कब्जा कर रखा है। यह सभी जानते हैं कि भारत में कागज पेड़ के तने और बांस से निर्मित पल्प या लुगदी की कच्ची सामग्री से बनते रहे हैं। जंगल कम होने के बाद पल्प का संकट खड़ा हुआ तो रिसाईकिल पेपर की बात सामने आई। विडंबना है कि हमारे कई कारखाने अपनी तकनीक को पुराने रद्दी पेपर से तैयार लुगदी से कागज बनाने में परिवर्तित नहीं कर पा रहे हैं। वहीं पल्प की कमी के चलतें स्थानीय उत्पाद के कागज के दाम ज्यादा आ रहे हैं। पहले तो चीन पेपर पल्प के लिए पेड़ों और रद्दी कागज के रिसाईकिल का उत्पादन स्वयं कर रहा था लेकिन अब उनके यहां भी जंगल कम होने का पर्यावरणीय संकट और कागज रिसाईकिल करने की बढ़ती मांग व उससे उपजे जल प्रदूषण का संकट गंभीर हो रहा है सो चीन ने सारी दुनिया से पल्प मनमाने दाम पर खरीदना शुरू कर दिया। भारत से भी बेकार कागज, उसका पल्प पर चीन की नजर है। इसी के चलते हमारे यहां कागज का संकट गहरा रहा है। विश्व में संभवत: भारत ही एक मात्र ऐसा देश है, जहां 37 से अधिक भाषाओं में पुस्तकें प्रकाशित की जाती हैं। अमेरिका और ब्रिटेन के बाद अंग्रेजी पुस्तकों के प्रकाशन में भारत का तीसरा स्थान है। देश में हर साल लगभग 85 हजार पुस्तकें छप रही हैं, इनमें 25 प्रतिशत हिंदी, 20 प्रतिशत अंग्रेजी और शेष 55 प्रतिशत अन्य भारतीय भाषाओं में हैं। कागज उद्योग में लगभग सवा लाख लोग सीधे और साढ़े तीन लाख लोग अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार पा रहे हैं। पिछले पांच वषों से कागज की खपत लगभग 6 प्रतिशत वार्षिक दर से बढ़ रही है। भारत सरकार को पल्प के आयात पर पूरी तरह रोक लगाना चाहिए। रद्दी कागज के आयात पर शुल्क समाप्त कर देना चाहिए और कागज के प्रत्येक कारखाने को अपने स्तर पर रिसाईकिल पल्प बनाने की आधुनिकतम मशीनें लगाना चाहिए। हमें कागज की खपत को किफायती बनाने के लिए कुछ कदम उठाने होंगे। सरकारी कार्यालयों में कागज के दोनों तरफ लिखने का अनिवार्यता, प्रत्येक कागज की आफिस कॉपी रखने, वहां से निकले कागज को पुनर्चकण्रके लिए भेजने की व्यवस्था जैसे कदम उठाए जाने चहिए। बार-बार पाठ्य पुस्तकें बदलने से रोकने और बच्चों को अपने पुराने साथियों की पुस्तकों से पढ़ने के लिए प्रेरित करना चाहिए। विभिन्न सदनों, अदालतों, कार्यालयों में पांच पेज से ज्यादा के एजेंडे, रिपोर्ट आदि को डिजिटल करना भी कारगर उपाय हो सकता है।

शनिवार, 26 अक्तूबर 2019

Story for children on Diwali


हर घर हो दीवाली

पंकज चतुर्वेदी


मां का सुबह से फोन आ गया , ‘‘देखो बेटा, आज धन तेरस है, आज भी शाम  को रोशनी कर लेना। और देखो मिट्टी के दीये जरूर जलाना।’’ अचानक लाईन कट गई।
बड़ी दीदी के बेटा हुआ है। दशहरे के अगले दिन खबर आई और मां को अचानक ही अमेरिका जाना पड़ा। घर पर पीछे रह गए थे कन्हैया , दुलारी और उनके पापा।  अब पापा को तो अपने कामकाज से फुरसत नहीं मिल पाती। दीवाली के पहले तो जैसे सारी दुनिया का काम उनके सिर हो ! देर रात आते-- अल्ल सुबह हाथ में सेंडविच चबाते हुए कार की ओर भागते।
रास्ते से सेलफोन पर बात करते, ‘‘दुलारी, देखो घर पर वह सभी कुछ करना जो तुम्हारी मां करती रही हैं। साफ-सफाई, परदे बदल लेना..... और हां, काम वाली, चौकीदार, ड्रायवर के लिए कपड़े वगैरह खरीद लेना...... अच्छा फिर बात करता हूं... लाईन पर और कोई है--’’
इधर मां से आधी-अधूरी बात हुई और दुलारी के मन में सवाल घर कर गया, ‘‘ये मां मिट्टी के दीये के लिए क्यों कह रही थीं?’’
‘‘अरे छोड़ यार, हम ऐसी रोशनी करेंगे कि मां भी देखती रह जाएंगी, कंप्यूटर पर लाईव दिखाएंगे। मां.... ये हमारे जमाने की दीवाली है, कहां लुप-लुप करते दीए...।’’ कन्हैया ने मां की बात को मजाक में उड़ा दिया।
पापा घर के बाहर भागते दिखे। फिर भाई-बहन भी तैयार होने चले गए। नाश्ता किया और दोनो बाजार निकल गए।
‘‘उफ्फ ! ये बाजार को क्या हो गया है? सड़क तो जैसे गायब ही हो गई?’’ फुटपाथ के नीचे तक लग गईं दुकानों और भारी भीड़ को देख कर दुलारी बोली।
यह बात फुटपाथ पर मिट्टी के खिलौने बेचने वाले ने सुन ली, ‘‘बेटा इस त्योहर से सबको उम्मीदें होती हैंं आपका घर रोशन होगा तो रोशनी हम तक भी पहुंचेगी।’’ भीड़ के शोर में भाई-बहनों के कान तक बात आई और चली गई। चमकीले बंदनवार खरीदे गए, मोमबत्ती के बने रंगबिरंगे दीये, रंग बदलने वाली बिजली के बल्बों की ढेर सारी लड़ियां,। खील-बतासे, चांदी  के लक्ष्मी-गणेश, कपड़े़़़़........। लो चार बज गए। भूखे-प्यासे भाई-बहन घर की ओर भागे। काम वाली आंटी ने कुछ तो बना कर रखा होगा!
लगता है आज सूरज पश्चिम में निकला था !! पापा घर पर बैठे हुए थे। दोनो के मुंह से निकल गया, ‘‘ये क्या? कमाल हो गया!!’’ पापा समझ गए थे कि बच्चे क्या कहना चाह रहे हैं । वे मंद-मंद मुस्कुराए और अपने हाथ का एक कागज का पैकेटे खालने लगे।
‘‘ क्या , क्या लाए हो पापा?’’ कन्हैया ने पूछा।
पापा केवल मुस्कुराए। पैेकेट खोला, उसके मुंह से जो झांक रहा था, उसे देख दोनो बच्चों के मुंह पर मुस्कान दौड़ गई.... जैसे  मखौल उड़ा रहे हों। पापा के चैहरे पर अभी भी अपने तरह की मुस्कान थी, बच्चों की बेरूखी से बेखबर। पापा के हाथ का पैकेट दुलारी ने लिया और रसोईघर की ऊपरी अलमारी पर खिसका दिया।
तभी दरवाजे पर घंटी बजी, बिजली वाला आया था। दोनो बच्चे उसके साथ लग गए और पूरे घर को लाल, पीली बत्तियों से सजा दिया। अंधेरा घिर आया था। बटन दबाया तो घर की खूबसूरती देख कर दोनों की थकान कहीं गायब हो गई। बाल्कनी की रैलिंग पर लगी लाईट लगता था कि कोई गिलहरी अपनी पूंछ में बहुरंगी बत्तियां लगा कर दौड़ रही हो। दरवाजे की लाईटें पलक झपकते रंग बदल रही थीं।
नए बरतन के साथ पूजा हुई और दुलारी ने चट से  मोम वाले दीये जला कर रख दिए। फिर कंप्यूटर खोला गया, कैमरे को सैट किया  गया। हालांकि वहां दिन का उजाला था लेकिन जैसे मां ंइंतजार ही कर रही थीं, घर की सजावट देख कर वह बहुत खुश हुईं।  बड़ी दीदी , अमन जीजाजी सभी भारत के इस रोशनी के त्योहार को देख कर अभिभूत थे। शायद मां की आंखें कंप्यूटर की छोटी सी स्क्रीन पर कुछ तलाश रही थीं। उन्होंने पूछ ही लिया, ‘‘दुलारी बेटा दीये नहीं दिख रहे हैं ?’’  सुनते ही कन्हैया ने सिर पर हाथ रख लिया, ‘‘हे भगवान, इतना सजाया और ये हैं कि अभी भी मिट्टी के आउट डेटेड दीये के पीछे पड़ी हैं।’’
‘‘ नहीं मां, वह देखो दरवाजे के पास, दीया रखा तो है !’’ दुलारी ने इशारा किया।
‘‘लेकिन वह तो मोम वाला लगता है ?’’ मां ने पूछा।
‘‘ मां... आप भी ! अरे दीया तेल से जले या मोम से ,उजाला तो हो रहा है ना!’’  दुलारी ने कहा। आगे की बात पापा ने संभाल ली। वे दोनों नवजात बच्चे, वहां के माहौल और घर-गृहस्थी की बातें करने लगे।
अगले दिन दीवाली की धूम थी। लोगों का घर पर आना-जाना। शाम को जैसे ही पूरा घर पूजा करने बैठा दरवाजे की बिजली-सीरिज में एक-दो रंग ने काम करना बंद कर दिया। सभी ने सोचा चलो ठीक हो जाएगा।  अभी गणेश-लक्ष्मी की मूर्तियां उठाई ही थीं कि सारे घर की बत्ती गोल हो गई। यह क्या ? इनवर्टर भी काम नहीं कर रहा है।  पापा ने मीटर के पास फ्यूज को खटपट किया लेकिन अंधेरा दूर नहीं हुआ।
कन्हैया ने तत्काल मोबाईल से बिजली वाले को फोन लगा दिया। ये क्या ! उसने फोन उठाया नहीं। कन्हैया को गुस्सा आ रहा था। पापा बोले, ‘‘ इसमें गुस्सा करने की क्या बात है ? बिजली वाला भी तो त्योहार मना रहा होगा !’’
दुलारी ने झट से मोम के दीये उठाए और जगमग कर दिए। इस बीच पापा ने कालोनी के दूसरे बिजली वाले को फोन किया, उसने कहा कि आज बहुत सारे फोन आ रहे हैं आने में देर हो जाएगी लेकिन आएगा जरूर।
मोम के दीयों में पूजा हो गई।  लेकिन पचास दीयों का मोम घंटे भर में चुकने लगा। बच्चों को याद आया मां ने कहा था कि पूजा के बाद एक दीया सुबह तक जलना चाहिए। एक तरफ घर पर अंधेरा छाने की खतरा, दूसरी तरफ पूजा की परंपरा की चिंता। दोनो बच्चांे की यह हालत देख कर भी पापा मुस्कुरा रहे थे और इससे कन्हैया को खीज आ रहा थी। लेकिन दुलारी कुछ-कुछ समझ गई।
वह दौड कर रसोई में गई, दिन में पापा द्वारा लाए गए जिस पैकेट को ऊपर अल्मारी में रख दिया गया था, उसे निकाला गया। उसमें से निकले गेरू से पुते लाल दीये और बड़ा सा बंडल रूई का । एक बड़े भगोने में पानी भरा । दीयों को पानी में जैसे से डाला उनमें से बुलबुले उठे, जैसे कह रहे हों, ‘क्यों चिंता करते हो, अंधेरा दूर करने का हम हैं ना।’
बड़े से दीये में घी भरा गया रूई से बत्ती बनाई और  पूजा वाली जगह का अंधेरा दूर हो गया। दुलारी जब बड़े से थाल में दीये सजा रही थी, कन्हैया भी पहंुंच गया। ‘‘ये .. ये कहां से आए ?  हम तो लाए नहीं थे ?’’
दुलारी ने पापा की ओर पलकें उठा दीं। अब कन्हैया की आंखें झुकी हुई थीं। भाई-बहन ने रूई से जल्दी से लंबी वाली बत्तियां कातीं। कुछ मिनट में ही घर का हर कोना जगमग कर रहा था। जहां लगता तेल कम है, दोनो में से कोई आ कर दीये में तेल भर देता। चारों तरफ बिजली की चकाचौंध और उसके बीच हवा की लय के साथ नाचते दीयों की रोशनी।
पटाखे चलाना तोे तीन साल पहले ही छोड़ चुके हैं। सो बालकनी में खड़े हो कर दीयों की लो के साथ बातें करना बेहद सुहावना लगा रहा था। मां को कंप्यूटर पर यह दृश्य दिखाया , लेकिन यह नहीं बताया कि बिजली खराब है। वह बहुत खुश थीं कि उनकी गैरमौजूदगी में बच्चों ने परंपराओं का पालन भली प्रकार किया।
पापा ने बच्चों को खील-बतासे, मिठाई खाने को बुलाया। पापा बोले, ‘‘ दीवाली के मायने हैं अपने चारों ओर का अंधेरा मिटाना।  मिट्टी का काम करने वाले कुम्हार के घर पर, तेल निकालने वाले के मकान पर, कपास बोने वाले किसान के खेत पर, तभी दीये जल पाएंगे जब हम पारंपरिक रूप से दीयों से प्रकाश करेंगे।’’
‘‘ और पापा हम हर साल एक दिन एक घंटे रात में बिजली बंद कर उर्जा बचत और पृथ्वी बचाने का जो संकल्प लेते हैं वह क्यों नहीं दीवाली की रात को ही हो! हजारों दीये, उससे हजारों लोगों को रोजगार और साथ में लक्ष्मी-गणेश-सरस्वती का स्वागत भी। ’’
तभी दरवाजे पर दस्तक हुई। बिजली ठीक करने वाला आ चुका था। कुछ मिनट में उसने लाईन ठीक भी कर दी। इनवर्टर का फ्यूज चला गया था। कन्हैया ने धीरे से बिजली के सभी बटन ऑफ कर दिए। उसे दीयों के साथ दीवाली मनाना रास आ गया था।





सोमवार, 21 अक्तूबर 2019

only burning of parali can not be blame for pollution of Delhi

पांच दिन की चांदनी, फिर जहरीले दिन 

पंकज चतुर्वेदी


बरसात प्रकृति के साथ इंसान द्वारा किए गए सारे कुकृत्यों को धो देती है। अभ्ीा मानसून विदा हुआ नहीं था और दिल्ली के सारे अखबारों में कई-कई दिन पूरे पेज के विज्ञापन दे कर जता दिया गया कि राजधानी का प्रदूषण 25 फीसदी कम हो गया। हालांकि न तो इसका कोई मापदंड था, ना ही आकलन लेकिन यह बात सरकार में बैठे सभी को पता थी कि अक्तूबर महीने के दूसरे सप्ताह से हवा जहरीली होगी, फिर भी सभी इंतजार करते रहे कि हालात काबू से बाहर हों। दिल्ली व उसके आसपास घना स्मॉग क्या छाने लगा, सारा दोष पंजाब-हरियाण के किसानों के पराली जलाने पर डाल दिया गया। हवा का जानलेवा जहर दिल्ली से ज्यादा तो उसके करीबी महानगरों- गाजियाबाद, नोएडा, गुरूग्राम, फरीदाबाद आदि में है। अब पंद्रह दिन के लिए सड़क पर वाहनों एक दिन छोड़ कर चलने पर पाबंदी, निर्माण कार्य रोकने जैसे कदम उठाए जा रहे हैं। जान लें कि ये तदर्थ उपायों से फिलहाल तो हवा की गुणवत्ता कुछ सुधारी जा सकती है लेकिन वास्तव में दिल्ली- राजधानी क्षेत्र को ‘मरता इलाका’ बनने से बचाना है तो अब‘ प्यास लगने पर कुआं खोदने’’ वाली प्रवृति से काम चलेगा नहीं। कुछ ही दिनों पहले ही ंविष्व स्वास्थ संगठन ने दिल्ली को दुनिया का सबसे ज्यादा दूशित वायु वाले षहर के तौर पर चिन्हित किया है। इसके बावजूद यहां का यातयात प्रबंधन, निर्माण कार्य आदि ना तो जन स्वास्थ्य की परवाह कर रहे हंे ना ही पर्यावरण कानूनों की।
यह जानना जरूरी है कि दिल्ली एनसीआर में पूरे साल , महज बरसात के पंद्रह से पच्चीस दिन छोड़ कर, वायु प्रदूषण के यही हालात रहते हैं। गरमी में  फैंफड़ों में जहर भरने का दोष तापमान व राजस्थान-पाकिस्तान से आने वाली धूल को दिया जाता है तो ठंड में इसका दोषी किसानों को पराली जलाने के कारण बताया जाता है।  दिल्ली से शून्य किलेाीमटर दूर स्थित गाजियाबाद की आवो हवा पूरे साल देश में सर्वाधिक दूषित रही। अभी तक को कोई यूक्ति बनी नहीं है जो कि वायू प्रदूषण को भौगोलिक ईकाई के अनुरूप रोक ले। यदि पडा़ेसी गाजियाबाद की हवा जहरीली है तो दिल्ली इससे अछूता रह नहीं सकता।
यदि राष्ट्रीय भौतिक विज्ञान प्रयोगशाला के आंकड़ों पर भरोसा करंे तो दिल्ली में हवा के साथ जहरीले कणों के घुलने में सबसे बड़ा योगदान 23 फीसदी धूल और मिट्टी के कणों का है।  17 प्रतिशत वाहनों का उत्सर्जन है। जनरेटर जैसे उपकरणों के चलते 16 प्रतिशत सात प्रतिशत औद्योगिक उत्सर्जन और  12 प्रतिशत पराली या अन्य जैव पदार्थों के जलाने से हवा जहरीली हो रही है। सबसे ज्यादा दोषी धूल और मिट्टी के कण नजर आ रहे हैं और इनका सबसे बड़ा हिस्सा दिल्ली एनसीआर में दो सौ से अधिक स्थानों पर चल रहे बड़े निर्माण कार्यांे, जैसे कि मेट्रो, फ्लाई ओवर आदि हैं।
दरअसल इस खतरे के मुख्य कारण 2.5 माइक्रो मीटर व्यास वाला धुएं में मौजूद एक पार्टिकल और वाहनों से निकलने वाली गैस नाइट्रोजन ऑक्साइड है, जिसके कारण वायु प्रदूषण से हुई मौतों का आंकड़ा लगातार बढ़ता जा रहा है। इस खतरे का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि वायु प्रदूषण करीब 25 फीसदी फेंफड़े के कैंसर की वजह है। यह स्पश्ट हो चुका है कि दिल्ली में वायु प्रदूशण का बड़ा कारण यहां बढ़ रहे वाहन, ट्राफिक जाम और राजधानी से सटे जिलों में पर्यावरण के प्रति बरती जा रही कोताही है। हर दिन बाहर से आने वाले कोई अस्सी हजार ट्रक या बसें यहां के हालात को और गंभीर बना रहे हैं। कहने को तो पार्टिकुलेट मैटर या पीएम के मानक तय हैं कि पीएम 2.5 की मात्रा हवा में 50पीपीएम और पीएम-10 की मात्रा 100 पीपीएम से ज्यादा नहीं होना चाहिए। लेकिन दिल्ली का कोई भी इलाका ऐसा नहीं है जहां यह मानक से कम से कम चार गुणा ज्यादा ना हो। पीएम ज्यादा होने का अर्थ है कि आंखों मंे जलन, फैंफडे खराब होना, अस्थमा, कैंसर व दिल के रोग।
पीएम ज्यादा होने का अर्थ है कि आंखों मंे जलन, फैंफडे खराब होना, अस्थमा, कैंसर व दिल के रोग। जाहिर है कि यदि दिल्ली की संास थमने से बचाना है तो यहां ना केवल सड़कों पर वाहन कम करने होंगे, इसे आसपास के कम से कम सौ किलोमीटर के सभी षहर कस्बों में भी वही मानक लागू करने होंने जो दिल्ली षहर के लिए हों। अब करीबी षहरों की बात कौन करे जब दिल्ली में ही जगह-जगह चल रही ग्रामीण सेवा के नाम पर ओवर लोडेड  वाहन, मेट्रो स्टेषनों तक लोगों को ढो ले जाने वाले दस-दस सवारी लादे तिपहिएं ,पुराने स्कूटरों को जुगाड के जरिये रिक्षे के तौर पर दौड़ाए जा रहे पूरी तरह गैरकानूनी वाहन हवा को जहरीला करने में बड़ी भूमिका निभा रहे हैं। सनद रहे कि वाहन सीएजी से चले या फिर डीजल या पेट्रोल से, यदि उसमें क्षमता से ज्यादा वजन होगा तो उससे निकलने वाला धुआं जानलेवा ही होगा। यदि दिल्ली को एक अरबन स्लम बनने से बचाना है तो इसमें कथित लोकप्रिय फैसलों से बचना होगा, जिसमें सबसे महत्वपूर्ण है यहां बढ़ रही आबादी को कम करना। इसे अलावा दिल्ली में कई स्थानों पर सरे राह कूड़ा जलाया जा रहा है जिसमें घरेलू ही नहीं मेडिकल व कारखानों का भयानक रासायनिक कूड़ा भी हे। ना तो इस महानगर व उसके विस्तारित शहरों के पास कूड़ा-प्रबंधन की कोई व्यवस्था है और ना ही उसके निस्तारण्ण का। सो सबसे सरल तरीको उसे जलाना ही माना जाता हे। इससे उपजा धुओं पराली से कई गुना ज्यादा है।
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में हर रोज कम से कम दो सौ जगहों पर जाम के चलते कोई 80 करोड़ रूपए का ईंधन जल रहा है लेागों के घंटे बरबाद हो रहे हैं। इसके चलते दिल्ली की हवा में कितना जहर घुल गया है, इसका अंदाजा खौफ पैदा करने वालो आंकड़ों कों बांचने से ज्यादा डाक्टरों के एक ंसंगठन के उस बयान से लगाया जा सकता है जिसमें बताया गया है कि देष की राजधानी में 12 साल से कम उम्र के 15 लाख बच्चे ऐसे है, जो अपने खेलने-दौड़ने की उम्र में पैदल चलने पर ही हांफ रहे हैं।
जाहिर है कि यदि दिल्ली की संास थमने से बचाना है तो यहां ना केवल सड़कों पर वाहन कम करने होंगे, इसे आसपास के कम से कम सौ किलोमीटर के सभी षहर कस्बों में भी वही मानक लागू करने होंने जो दिल्ली षहर के लिए हों। इससे उपजा धुओं पराली से कई गुना ज्यादा है।
सनद रहे कि इतनी बड़ी आबादी के लिए चाहे मेट्रो चलाना हो या पानी की व्यवस्था करना, हर काम में लग रही उर्जा का उत्पादन  दिल्ली की हवा को विषैला बनाने की ओर एक कदम होता है। दिल्लीवासी इतना प्रदूषण ख्ुाद फैला रहे हें और उसका दोष किसानों पर मढ़ कर महज खुद को ही धोखा दे रहे हैं। बेहतर कूड़ा प्रबंधन, सार्वजनिक वाहनों को एनसीआर के दूरस्थ अंचल तक पहुंचाने, राजधानी से भीड़ को कम करने के लिए यहां की गैरजरूरी गतिविधियों व प्रतिष्ठानों को कम से कम दो  सौ किलोमीटर दूर शिफ्ट करने , कार्यालयों व स्कूलों के समय और उनके बंदी के दिनों में बदलाव जैसे दूरगामी कदम ही दिल्ली को मरता शहर बनाने से बचा सकते हैं। इवन-ऑड महज एक नारेबाजी सरीका दिखावटी कदम है।

शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2019

India has to understand mansoon properly

मानसून प्रबंधन भी बने पाठ्यक्रम का हिस्सा


यह हम सभी जानते हैं कि भारत के लोक-जीवन, अर्थव्यवस्था, पर्व-त्योहार का मूल आधार मानसून का मिजाज है। कमजोर मानसून पूरे देश को सूना कर देता है। मानसून भारत के अस्तित्व की धुरी है। जो महानगर-शहर पूरे साल वायु प्रदूषण के कारण हल्कान रहते हैं, इसी मौसम में वहां के लोगों को सांस लेने को साफ हवा मिलती है। खेती-हरियाली और साल भर के जल का जुगाड़ इसी बरसात पर निर्भर है। इसके बावजूद जब प्रकृति अपना आशीर्वाद इन बूंदों के रूप में देती है तो समाज व सरकार इसे बड़े खलनायक के रूप में पेश करने लगते हैं। इसका कारण यह है कि हमारे देश में मानसून को सम्मान करने की परंपरा समाप्त होती जा रही है- कारण है शहरों की ओर पलायन व गांवों का शहरीकरण।
विडंबना यह है कि हम अपनी जरूरतों के कुछ लीटर पानी को घटाने को तो राजी हैं, लेकिन मानसून से मिले जल को संरक्षित करने के मार्ग में खुद ही रोड़ अटकाते हैं। हम यह भूल जाते हैं कि नदी की अपनी याददाश्त होती है, वह दो सौ वर्षो तक अपने इलाके को भूलती नहीं। गौर से देखें तो आज जिन इलाकों में नदी से तबाही पर विलाप हो रहा है, वे सभी किसी नदी के बीते दो सदी के रास्ते में यह सोच कर बसा लिए गए कि अब तो नदी दूसरे रास्ते बह रही है, खाली जगह पर बस्ती बसा ली जाए। दिल्ली के पुराने खादर बीते पांच दशक में ओखला-जामिया नगर से लेकर गीता कालोनी, बुराड़ी जैसी घनी कालोनियों में बस गए और अब सरकार यमुना का पानी अपने घर में रोकने के लिए खादर बनाने की बात कर रही है। यमुना बैंक मेट्रो स्टेशन व डिपो समेत अनेक नए निर्माण यमुना के क्षेत्र में बीते वर्षो के दौरान किए गए हैं।
बिहार में उन्नीसवीं सदी तक हिमालय से चल कर कोई छह हजार नदियां आती थीं जो संख्या आज घट कर बमुश्किल 600 रह गई है। मध्य प्रदेश में नर्मदा, बेतवा, काली सिंध आदि में लगातार पानी की गहराई घट रही है। दुखद है कि जब खेती, उद्योग और पेयजल की बढ़ती मांग के कारण जल संकट भयावह हो रहा है वहीं जल को सहेज कर रखने वाली नदियां उथली, गंदी और जल-हीन हो रही हैं।
देश में जहां-जहां नदियों की अविरल धारा को बांध बना कर रोका गया, उस क्षेत्र को इस वर्ष की बारिश ने जल-मग्न कर दिया। अभी तक बाढ़ के कारण संपत्ति के नुकसान का सटीक आंकड़ा नहीं आया है, लेकिन सार्वजनिक संपत्ति जैसे सड़क आदि, खेतों में खड़ी फसल, मवेशी, मकान आदि की तबाही करोड़ो में है। सरदार सरोवर को पूरी क्षमता से भरने की जिद में उसके दरवाजे खोले नहीं गए जिससे मध्य प्रदेश के बड़वानी और धार जिले के 45 गांव पानी में डूब गए। राजस्थान के 810 बांधों में से 388 लबालब हो गए और जैसे ही उनके दरवाजे खोले गए तो नगर-कस्बे जलमग्न हो गए। राज्य के पांच बड़े बांध कोटा बैराज, राणाप्रताप सागर, जवाहर सागर और माही बजाज के सभी गेट खोलने पड़े हैं। कोटा, बारां, बूंदी, चित्ताैड़गढ, झालावाड़ में बाढ़ के हालात बन गए। बारां, झालावाड़ में कई दिन स्कूल बंद रहे। कोटा में इससे व्यापक नुकसान हुआ। हर जगह पानी के प्रकोप का कारण बांध थे।
मध्य प्रदेश की जीवनदायिनी नर्मदा नदी का जल स्तर बढ़ते ही होशंगाबाद के तवा बांध के सभी 13 गेटों को 14-14 फुट खोल दिया गया और इसी के साथ कोई साढ़े तीन सौ किलोमीटर इलाके के खेत-बस्ती, सड़क सब पानी में डूब गए। आजाद भारत के पहले बड़े बांध भाखड़ा बांध के फ्लड गेट खोल कर जैसे ही करीब 63 हजार क्यूसेक पानी छोड़ा गया, पंजाब व हिमाचल के कई इलाकों में बाढ़ आ गई। दक्षिणी राज्यों, खासतौर पर केरल में लगातार दूसरे वर्ष बाढ़ के हालात के लिए पर्यावरणीय कारकों के अलावा बेतहाशा बांधों की भूमिका अब सामने आ रही है। उत्तर प्रदेश में गंगा व यमुना को जहां भी बांधने के प्रयास हुए, वहां इस बार जल-तबाही है।
हमारी नदियां उथली हैं और उनको अतिक्रमण के कारण संकरा किया गया। नदियों का अतिरिक्त पानी सहेजने वाले तालाब-बावली-कुएं नदारद हैं। फिर पानी सहेजने व उसके इस्तेमाल के लिए बनाए गए बांध, अरबों की लगात, दशकों के समय, विस्थापन के बाद भी थोड़ी सी बरसात को समेट नहीं पा रहे हैं।
असल में हम अपने मानसून के मिजाज, बदलते मौसम में बदलती बरसात, बरसात के जल को सहेज कर रखने के प्राकृतिक खजानों की रक्षा के प्रति न तो गंभीर हैं और न ही कुछ नया सीखना चाहते हैं। पूरा जल तंत्र महज भूजल पर टिका है, जबकि यह सर्वविदित तथ्य है कि भूजल पेयजल का सुरक्षित साधन नहीं है। मानसून अब केवल भूगोल या मौसम विज्ञान नहीं है, इससे बहुत कुछ जुड़ा है। मानसून-प्रबंधन का गहन अध्ययन हमारे स्कूलों से ले कर इंजीनियरिंग पाठ्यक्रमों में हो, जिसके तहत केवल मानसून से पानी ही नहीं, उससे जुड़ी फसलों, सड़कों, शहरों में बरसाती पानी के निकासी के माकूल प्रबंधों व संरक्षण जैसे अध्याय हों।
पंकज चतुर्वेदी

For better air control on vehicle is must

कार से बेकार होतीं व्यवस्थाएं
राजधानी
व्यक्तिगत समृद्धि की प्रतीक कारों का संसार आबाद करने की बड़ी कीमत उन लोगों को भी उठानी पड़ती है, जिनका कार से कोई वास्ता नहीं है। दुर्घटनाएं, असामयिक मौत और विकलांगता, प्रदूषण, पार्किंग और ट्रैफिक जाम और इसमें बहूमूल्य जमीनों का दुरुपयोग, ऐसी कुछ विकराल समस्याएं हैं, जोकि कार को आवश्यकता से परे विलासिता की श्रेणी में खड़ा कर रही हैं
पंकज चतुर्वेदी 
पर्यावरण मामलों के जानकार

दिल्ली में शायद ही कोई ऐसा दिन जाता हो जब कोई वाहन खराब होने से यातायात के संचालन में बाधा न आती हो। रही-बची कसर जगह-जगह चल रहे मेट्रो यो ऐसे ही निर्माण कायरे ने पूरी कर दी है। भले ही अभी दीवाली के बाद जैसा स्मॉग न हो लेकिन हवा का जहर तो जानलेवा स्तर पर ही है। लोगों की सांस की मानिंद पूरा यातायात सिस्टम हांफ रहा है। एक अंतरराट्रीय शोध रिपोर्ट में बताया गया है कि प्रदूषण स्तर को काबू में नहीं किया गया तो साल 2025 तक दिल्ली में हर साल करीब 32,000 लोग जहरीली हवा के शिकार हो कर असामयिक मौत के मुंह में जाएंगे। सनद रहे कि आंकड़ोें के मुताबिक वायु प्रदूषण के कारण दिल्ली में हर घंटे एक मौत होती है। यही नहीं सड़कों में बेवहज घंटों फंसे लोग मानसिक रूप से भी बीमार हो रहे हैं, और उसकी परिणति के रूप में आए रोज सड़कों पर ‘‘रोड रेज’ के तौर पर बहता खून दिखता है। वाहनों की बढ़ती भीड़ के चलते सड़कों पर थमी रफ्तार से लोगों की जेब में होता छेद और विदेशी मुद्रा व्यय कर मंगवाए गए ईधन का अपव्यय होने से देश का नुकसान है, सो अलग। यह हाल केवल देश की राजधानी के ही नहीं हैं, देश के सभी छह महानगरों, सभी प्रदेशों की राजधानियों के साथ-साथ तीन लाख आबादी वाले 600 से ज्यादा शहर-कस्बों के हैं। दुखद है कि दिल्ली, कोलकता जैसे शहरों में हर पांचवा आदमी मानसिक रूप से अस्वस्थ है। यह तो सभी स्वीकार करते हैं कि बीते दो दशकों के दौरान देश में ऑटोमोबाइल्स उद्योग ने बेहद तरक्की की है, और साथ ही बेहतर सड़कों के जाल ने परिवहन को काफी बढ़ावा दिया है। यह किसी विकासशील देश की प्रगति के लिए अनिवार्य भी है कि वहां संचार और परिवहन की पहुंच आम लोगों तक हो। विडम्बना है कि हमारे यहां बीते इन्हीं सालों में सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था की उपेक्षा हुई और निजी वाहनों को बढ़ावा दिया गया। रही-सही कसर बैंकों के आसान कर्ज ने पूरी कर दी और अब इंसान दो कदम पैदल चलने के बनिस्बत दुपहिया ईधन वाहन लेने में संकोच नहीं करता है। असल में सड़कों पर वाहन दौड़ा रहे लोग इस खतरे से अंजान ही हैं कि उनके बढ़ते तनाव या चिकित्सा बिल के पीछे सड़क पर रफ्तार के मजे का उनका शौक भी जिम्मेदार है। कार पार्किग बड़ी समस्या ‘‘कार के मालिक हर साल अपने जीवन के 1600 घंटे कार में बिताते हैं, चाहे कार चल रही हो या खड़ी हो-कभी गाड़ी की पार्किंग के लिए जगह तलाशना होता है, तो कभी पार्किंग से बाहर निकालने की मशक्कत या ट्रैफिक सिग्नल पर खड़ा होना पड़ता है। पहले वह कार खरीदने के लिए पैसे खर्च करता है, फिर किस्तें भरता है। उसके बाद अपनी कमाई का बड़ा हिस्सा पेट्रोल, बीमा, टेक्स, पार्किंग, जुर्माने, टूटफूट पर खर्चता रहता है। इंसान की प्रति दिन जाग्रत अवस्था 16 घंटे की होती है, उसमें से वह चार घंटे सड़क पर कार में होता है। हर कार मालिक 1600 घंटे कार के भीतर बिताने के बाद भी सफर करता है मात्र 7500 मील यानी एक घंटे में पांच मील।’ प्रख्यात शिक्षा शास्त्री इवान इलीच कार को एक त्रासदी के रूप में कुछ इस तरह परिभाषित करते हैं। भारत के महानगर ही नहीं सुदूर कस्बे भी कारों की दीवानगी के शिकार हैं। भले ही कार कंपनियां आंकड़ें दें कि चीन या अन्य देशों की तुलना में भारत में प्रति व्यक्ति कार की संख्या बहुत कम है, लेकिन आए रोज लगने वाले जाम के कारण उपज रही अराजकता साक्षी है कि हमारी सड़कें फिलहाल और अधिक वाहनों का बोझ झेलने में सक्षम नहीं हैं। यह भी जानना जरूरी है कि बीते साल भारत सरकार ने पेट्रोल-डीजल और अन्य ईधन पर 1,03,000 करोड़ रुपये की सब्सिडी दी है। सरकार की छूट के पैसे से खरीदे गए ईधन को जाम में फंस कर उड़ना एक तरह का देश-विरोधी कृत्य भी है।व्यक्तिगत समृद्धि की प्रतीक कारों का संसार आबाद करने की बड़ी कीमत उन लोगों को भी उठानी पड़ती है, जिनका कार से कोई वास्ता नहीं है। दुर्घटनाएं, असामयिक मौत और विकलांगता, प्रदूषण, पार्किंग और ट्रैफिक जाम और इसमें बहूमूल्य जमीनों का दुरुपयोग, ऐसी कुछ विकराल समस्याएं हैं, जोकि कार को आवश्यकता से परे विलासिता की श्रेणी में खड़ा कर रही हैं। गौरतलब है कि दिनों दिन बढ़ रही कारों की संख्या से देश में पेट्रोल की मांग भी बढ़ी है। देश में पेट्रोलियम मांग का अधिकांश हिस्सा विदेशों से मंगाया जाता है। इस तरह हमारे देश का बेशकीमती विदेशी मुद्रा भंडार का बड़ा हिस्सा महज दिखावों के निहितार्थ दौड़ रहीं कारों पर खर्च करना पड़ रहा है।ग्रीन बेल्ट तक को उजाड़ दिया जाता हैराजधानी दिल्ली में कारों से सफर करने वाले बामुश्किल 15 फीसदी लोग होंगे लेकिन सड़क का 80 फीसदी हिस्सा घेरते हैं। यहां रिहाइशी इलाकों का लगभग आधा हिस्सा कारों के कारण बेकार हो गया है। कई सोसायटियों में कार पार्किंग की कमी पूरा करने के लिए ग्रीन बेल्ट को ही उजाड़ दिया गया है। घर के सामने कार खड़ी करने की जगह की कमी के कारण अब लोग दूर-दूर बस रहे हैं, और इससे महानगर का विस्तार हो रहा है। महानगर का विस्तार छोटे और मध्यम वर्ग के लिए नई त्रासदियों को जन्म देता है। यही नहीं शहरों के क्षेत्रफल में विस्तार का विषम प्रभाव सार्वजनिक विकास कायरे पर भी पड़ता है।कारों की बढ़ती संख्या सड़कों की उम्र घटा रही है। मशीनीकृत वाहनों की आवाजाही अधिक होने पर सड़कों की टूटफूट और घिसावट बढ़ती है। वाहनों के धुएं से हवा जहरीली होने और ध्वनि प्रदूषण बढ़ने तथा इसके कारण मानव जीवन पर जहरीला प्रभाव पड़ने से सभी वाकिफ हैं। इसके बावजूद सरकार की परिवहन नीतियां कहीं न कहीं सार्वजनिक वाहनों को हतोत्साहित कर कार खरीदी को बढ़ावा देने वाली हैं। आज जेब में एक रुपया न होने पर भी कार खरीदने के लिए कर्ज देने वाली संस्थाएं और बैंक कुकुरमुत्तों की तरह गली-गली, कस्बे-कस्बे तक पहुंच गए हैं, जबकि स्वास्य, शिक्षा, सफाई जैसे मूलभूत क्षेत्र धनाभाव में आम आदमी की पहुच से दूर होते जा रहे हैं। विदेशी निवेश के लालच में हम कार बनाने वालों को आमंत्रित तो कर रहे हैं, लेकिन दुर्भाग्य है कि बढ़ती कारों के खतरों को जानने के बावजूद उसका बाजार भी यहीं बढ़ा रहे हैं।कानून का पालन कराया जाना जरूरी एक घर में एक से अधिक कार रखने पर कड़े कानून, सड़क पर नियम तोड़ने पर सख्त सजा, कार खरीदने से पहले पार्किंग की समुचित व्यवस्था का भरोसा प्राप्त करने जैसे कदम कारों की भीड़ रोकने में सक्षम हो सकते हैं। सड़क पर कारों में सवारियों की संख्या तय करने का प्रयोग भी कारों की भीड़ कम कर सकता है। किसी कार की क्षमता पांच सवारी की है, यदि तय कर दिया जाए कि कार को सड़क पर लाना है तो उसमें कम से कम तीन लोगोें का बैठना जरूरी है, तो इससे कार-पूल की प्रवृति को बढ़ावा मिलेगा। यह पर्यावरण, धन और सामाजिक बंधनों को मजबूत करने का ताकतवर तरीका भी हो सकता है। सबसे जरूरी सार्वजनिक परिवहन को सुखद बनाना और पहुंच में लाना है। द
     

रविवार, 13 अक्तूबर 2019

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पराली बदल सकती है खेती की तस्वीर, यदि समझदारी दिखाएं तो बदल सकती है किसानों की भी तकदीर



इन दिनों दिल्ली और उसके आसपास ताकीद कर दी गई है कि जल्द ही पंजाब-हरियाणा के किसान खेतों में धान की फसल के अवशेष या पराली जलाएंगे जिससे राजधानी के दो सौ किलोमीटर में फैली आबादी के लिए सांस लेना दूभर हो जाएगा। दिल्ली सरकार ने तो हवा को शुद्ध रखने के लिए अगले महीने सड़क पर वाहनों को कम लाने के इरादे से ‘ऑड-इवेन’ की भी घोषणा कर दी है। हालांकि खेतों में पराली जलाना गैरकानूनी है, फिर भी धान उगाने वाला किसान इस कुरीति से खुद को मुक्त नहीं कर रहा है। यह सभी जानते हैं कि हरियाणा और पंजाब में ज्यादातर किसान पिछली फसल काटने के बाद खेतों के अवशेषों को उखाड़ने के बजाय खेत में ही जला देते हैं। इससे जमीन की उर्वरा शक्ति प्रभावित होती है, लेकिन किसान यदि थोड़ी समझदारी दिखाएं तो वे फसल अवशेषों से खाद बनाकर अपने खेत की उर्वरता को बढ़ा सकते हैं।
एक अनुमान है कि हर साल अकेले पंजाब और हरियाणा के खेतों में कुल तीन करोड़ 50 लाख टन पराली जलाई जाती है। एक टन पराली जलाने पर दो किलो सल्फर डाईऑक्साइड, तीन किलो ठोस कण, 60 किलो कार्बन मोनोऑक्साइड, 1460 किलो कार्बन डाईऑक्साइड और 199 किलो राख निकलती है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि जब कई करोड़ टन अवशेष जलते हैैं तो वायुमंडल की कितनी दुर्गति होती होगी। इन दिनों सीमांत एवं बड़े किसान मजदूरों की उपलब्धता की चिक-चिक से बचने के लिए खरीफ फसल खासतौर पर धान काटने के लिए हार्वेस्टर जैसी मशीनों का सहारा लेते हैं। इस तरह की कटाई से फसल के तने का अधिकांश हिस्सा खेत में ही रह जाता है। फसल से बचे अंश का इस्तेमाल मिट्टी में जीवांश पदार्थों की मात्रा बढ़ाने के लिए नहीं किया जाना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। खासतौर पर जब पूरी खेती ऐसे रसायनों द्वारा हो रही है जो कृषि-मित्र सूक्ष्म जीवाणुओं को ही चट कर जाते हैं। खेत की जैव-विविधता का संरक्षण बेहद जरूरी है।
आपराधिक कृत्य घोषित होने के बावजूद किसान मान नहीं रहे
सरकार ने पराली जलाने को आपराधिक कृत्य घोषित किया है और किसानों को इसके लिए प्रोत्साहन राशि आदि भी दी जा रही है, लेकिन इसके निपटान में बड़े व्यय के चलते किसान मान नहीं रहे हैैं। किसान चाहें तो गन्ने की पत्तियों, गेहूं के डंठलों जैसे अवशेषों से कंपोस्ट तैयार कर अपने खाद के खर्चे एवं दुष्प्रभाव से बच सकते हैं। इसी तरह जहां मवेशियों के लिए चारे की कमी नहीं है वहां धान की पुआल को खेत में ढेर बनाकर खुला छोड़ने के बजाय कम्पोस्ट बनाकर उपयोग कर सकते हैं। आलू, मूंगफली, मूंग एवं उड़द जैसी फसलों के अवशेषों को भूमि में जोतकर मिला सकते हैं। केले की फसल के बचे अवशेषों से यदि कंपोस्ट तैयार कर लें तो उससे 1.87 प्रतिशत नाइट्रोजन, 3.43 फीसद फॉस्फोरस तथा 0.45 फीसद पोटाश प्राप्त किए जा सकते हैं। यह बात किसानों तक पहुंचानी जरूरी है कि जिन इलाकों में जमीन की नमी कम हो रही है और भूजल घटता जा रहा है वहां रासायनिक खाद के मुकाबले कंपोस्ट ज्यादा कारगर है और पराली जैसे अवशेष बिना किसी व्यय के आसानी से कंपोस्ट में बदले जा सकते हैं।
पराली जलाने से भूमि की उर्वरा शक्ति घटती है
दरअसल यदि मिट्टी में नमी कम हो जाए तो जमीन के बंजर होने का खतरा बढ़ जाता है। यदि पराली को ऐसे ही खेत में कुछ दिनों तक पड़े रहने दिया जाए तो इससे मिट्टी की नमी बढ़ती है और कम सिंचाई से काम चल जाता है। फसल अवशेष को जलाने से खेत की छह इंच परत, जिसमें विभिन्न प्रकार के लाभदायक सूक्ष्मजीव और मित्र कीट के अंडे आदि होते हैं, आग में भस्म हो जाते हैं। साथ ही भूमि की उर्वरा शक्ति भी जर्जर हो जाती है। वहीं फसल अवशेषों का उचित प्रबंधन कर कंपोस्ट बनाया जा सकता है या फिर अवशेषों को खेत में ही सड़ने के लिए छोड़ा जा सकता है। खेत में पराली छोड़ने से वह नमी संरक्षण, खरपतवार नियंत्रण एवं बीज के सही अंकुरण के लिए मल्चिंग (आधी सड़ी घास) का कार्य करती है।
सरहद पार से पराली का धुआं रोकने का कोई उपाय नहीं
उधर किसानों का पक्ष है कि पराली को मशीन से निपटाने पर प्रति एकड़ कम से कम पांच हजार रुपये का खर्च आता है। फिर अगली फसल के लिए इतना समय नहीं होता कि वे गीली पराली को खेत में पड़े रहने दें। फिर भारत के किसान मान भी जाएं तो सरहद पार से पराली का धुआं रोकने का कोई उपाय नहीं है। जाहिर है कि पाकिस्तान के पंजाब में भी धान की खूब खेती होती है और वहां की सरकार इस मसले में बेहद लापरवाह है। चूंकि अक्टूबर के दूसरे सप्ताह से जो हवाएं चलती हैं, अक्सर उनका रुख उस तरफ से हमारी ओर ही होता है। ऐसे में वह भयंकर धुआं दिल्ली तक की आबोहवा को दूषित करता है।
पराली जलाने से सांस लेने में तकलीफ होती है
किसान तो वैसे भी समाज को जीवन देने के लिए अन्न उगाता है, लेकिन अनजाने में ही पराली जलाने से भी सांस लेने से जुड़ी गंभीर तकलीफें और कैंसर तक का वाहक बना हुआ है। इससे उनका अपना परिवार भी नहीं बचता है। हालांकि केंद्र सरकार को भरोसा है कि इस साल पराली की मार कम ही होगी। इसे रोकने के लिए राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने खेतों में फसलों के कटने के बाद बचे अवशेषों को जलाने पर पाबंदी लगाई है। पराली जलाने पर सजा का भी प्रावधान किया गया है। यदि कोई किसान अपने खेतों में फसल अवशेष जलाते हुए पाया जाता है तो दो एकड़ रकबे वाले कृषक से 2500 रुपये, दो से पांच एकड़ वाले कृषक से पांच हजार रुपये एवं पांच एकड़ से अधिक रकबे वाले कृषक से 15 हजार रुपये हर्जाना वसूलने का प्रावधान किया गया है।
पराली रोकने के लिए पंजाब एवं हरियाणा के किसानों पर निगरानी

इसके अलावा इसकी रोकथाम के लिए केंद्र ने पिछले साल पंजाब एवं हरियाणा के किसानों को 1150 करोड़ रुपये दिए और निगरानी शुरू की। 20,000 से अधिक मशीनें भी किसानों को दी गईं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2018 में पंजाब और हरियाणा के 4500 गांवों ने खुद को पराली जलाने से मुक्त घोषित कर दिया था। इन गांवों में अब तक पराली जलाने की एक भी घटना नहीं हुई है। केंद्रीय कृषि मंत्रालय की ओर से इस योजना से अलग भी किसानों को कई तरह की सुविधाएं मुहैया कराई गई हैं ताकि पराली जलाने पर रोक लगाई जा सके। इनका असर भी इस बार दिख रहा है। उम्मीद है कि देश पराली जलाने की समस्या से जल्द ही मुक्त हो जाएगा।

शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2019

Stray animal destroying farming

आफत बनते आवारा मवेशी
पंकज चतुर्वेदी

27 सितंबर को एक जनहित याचिका को गंभीरता से लेते हुए इलाहबाद हाई कोर्ट ने उप्र सरकार को कहा कि जिस तरह से छुट्टा पशु खेतों को नष्ट  कर रहे हैं, सड़कों पर दुर्घटनाएं हो रही हैं, इससे निबटने को राज्य शासन की क्या योजना है ? सरकार को जवाब देने के लिए आठ नवंबर 2019 तक का समय दिया गया है। अकेले उप्र ही नहीं लगभग सारे देश में बेसहारा गौवंश, भले ही राजनीति का अस्त्र बन गया हो, लेकिन यह भी सच है कि उनकी बेहद दुर्गति है। जिस पशु-धन से देश की समृद्धि का द्वार खुल सकता है वह भूखा- लावारिस सड़कों पर यहां-वहां घूम रहा है। सड़क पर वाहनों का शिकार हो रहा है, कूड़े में पड़ी पॉलीथीन खा कर निर्मम मौत की चपेट में आ रहा है।
अभी कुछ ही दिन पहले इलाहबाद जिले के राहटीकर गांव के  किसानों ने अपनी दलहन फसल बचाने के लिए आवारा पशुओं को गांव के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र के परिसर में घेर दिया। पुलिस आई तो गांव वालों से टकराव हुआ। पुलिस ने जब जानवरों को गांव से बाहर निकालने का भरोसा दिलाया तब टकराव टला। लेकिन जैसे ही पुलिस ने आवरा पश्ुाओं के रेवड़ को दूसरे गांव की ओर खदेड़ा, वहां की पुलिस को तनाव हो गया और देखते ही देखते दोनों गांव वालों में झगड़े की नौबत आ गई।

एक सरकारी अनुमान है कि आने वाले  आठ सालों में भारत की सड़कों पर कोई 27 करोड़ आवारा मवेशी होंगें। यदि उन्हें सलीके से रखना हो तो उसका व्यय पांच लाख 40 हजार करोड़ होगा, । यह राशि हमारे कुल सालाना बजट से कहीं ज्यादा है। हिंदी पट्टी के गांवों में देर रात लेागों के टार्च  चमकते दिखते हैं। इनकी असल चिंता वे लावरिस गोवंश होता है जो झुंड में खेतों में आते हैं व कुछ घंटे में किसान की महीनों की मेहनत उजाड़ देते हैं। जब से बूढे पशुओं को बेचने को ले कर उग्र राजनीति हो रही है, किसान अपने बेकार हो गए मवेशियों को नदी के किनारे ले जाता है, वहां उसकी पूजा की जाती है फिर उसके पीछे पर्दा लगाया जाता है , जिसे मवेशी बेकाबू हो कर बेतहाश भागता है। यहां तक कि वह अपने घर का रास्ता भी भूल जाता हे। ऐसे सैंकड़ों मवेशी जब बड़े झुंड में आ जाते हैं तो तबाही मचा देते हैं।
यह सभी जानते हैं कि एक तो देश में खेती का मशीनीकरण हो रहा है जिससे बैल की भूमिका नगण्य हो गई। गाय पालने पर होने वाले व्यय की तुलना में उसके दूध से इतनी कमाई नहीं होत, गाय के दूध में क्रमी जैसे उत्पाद कम निकलते हैं। अब गौवंश के बंध्याकरण का काम कागजों पर ही है, सो हर साल हजारों-हजार मवेशी लावारिस बनना ही है।

यहां जानना जरूरी है कि सन 1968 तक देश के हर गांव- मजरे में तीन करोड़ 32 लाख 50 हजार एकड़ गौचर की जमीन हुआ करती थी, जहां आवारा या छुट्टा पशु चर कर अपना पेट भर लेते थे। सनद रहे कि चरागाह की जमीन बेचने या उसका अन्य काम में इस्तेमाल पर हर तरह की रोक है। शायद ही कोई ऐसा गांव या मजरा होगा जहां पशुओं को चरने की जमीन के साथ कम से कम एक तालाब और कई कुंए नहीं हों। जंगल का फैलाव पचास फीसदी तक था। आधुनिकता की आंधी में बह कर लोगों ने चारागाह को अपना ‘चारागाह’ बना लिया व हड़प गए। तालाबों की जमीन समतल कर या फिर घर की नाली व गंदगी उसमें गिरा कर उनका अस्तित्व ख्षतम कर दिया। हैंड पंप या ट्यूबवेल की मृगमरिचिका में कुओं को बिसरा दिया।  चरने की जगह कम बची और आवारा पुश बढ़े तेा अधिक चराई व जानवरों के खुरों  से जमीन के ऊसर होने की गति भी बढ़ गई। खाना-पानी की तलाश में जानवर इधर-उधर बेहाल घूमने लगे। जो कुछ जंगल बचे हैं वहां मवेशी के चरने पर रोक है।

बुंदेलखंड की मशहूर ‘‘अन्ना प्रथा’’ यानी लोगों ने अपने मवेशियों को खुला छोड़ दिया हैं क्योंकि चारे व पानी की व्यवस्था वह नहीं कर सकते । सैकड़ों गायों ने अपना बसेरा सड़कों पर बना लिया। दो पांच हजार गायों की रेवड़ जिस दिशा में निकलती है किसान लाठी ले कर उन्हें खदेड़ने में लग जाते हैं। कई जगह पुलिस लगानी पड़ती है। प्रशासन के पास इतना बजट नहीं है कि हजारों गायों के लिए हर दिन चारे-पानी की व्यवस्था की जाए। एक मोटा अनुमान है कि हर दिन प्रत्येक गांव में लगभग 10 से 100 तक मवेशी खाना-पानी के अभाव में दम तोड़ रहे हैं। भूखे -प्यासे जानवर हाईवे पर बैठ जाते हैं और इनमें से कई सड़क दुर्घटना में मारे जाते हैं और कई चारे और पानी के अभाव में कमजोर होकर मर रहे हैं।

पिछले दो दशकों से मध्य भारत का अधिकांश हिस्सा तीन साल में एक बार अल्प वर्शा का शिकार रहा है। यहां से रोजगार के लिए पलायन की परंपरा भी एक सदी से ज्यादा पुरानी है, लेकिन दुधारू मवेशियों को मजबूरी में छुट्टा छोड़े देने का रोग अभी कुछ दशक से ही है। ‘‘ अन्ना प्रथा’’ यानि दूध ना देने वाले मवेशी को आवारा छोड़ देने के चलते यहां खेत व इंसान दोनेां पर संकट है। उरई, झांसी आदि जिलों में कई ऐसे किसान है। जिनके पास अपने जल संसांधन हैं लेकिन वे अन्ना पशुओं के कारण बुवाई नहीं कर पाए। जब फसल कुछ हरी होती है तो अचानक ही हजारों अन्ना गायों का रेवड़ आता है व फसल चट कर जाता है। यदि गाय को मारो तो धर्म-रक्षक खड़े हो जाते हैं और खदेड़ों तो बगल के खेत वाला बंदूक निकाल लेता है। गाय को बेच दो तो उसके व्यापारी को रास्ते मंे कहीं भी पिटाई का डर। दोनों ही हालात में खून बहता है और कुछ पैसे के लिए खेत बोने वाले किसान को पुलिस-कोतवाली के चक्क्र लगाने पड़ते हैं। यह बानगी है कि हिंदी पट्टी में एक करोड़ से ज्यादा चौपाये किस तरह मुसीबत बन रहे हैं और साथ ही उनका पेट भरना भी मुसीबत बन गया है।
यह समझना जरूरी है कि गौशाला खोलना सामामजिक विग्रह का कारक बने बेसहारा पशुओं का इलाज नहीं है। वहां केवल बूढ़े या अपाहिज जानवरों को ही रखा जाना चाहिए।  गाय या बैल से उनकी क्षमता के अनुरूप कार्य लेना अनिवार्य है। इससे एक तो उर्जा की बचत होती है, दूसरा खेती-किसानी की लागत भी कम होती है। जान लें कि छोटी जोत में ट्रैक्टर या बिजली के पंप का खर्चा बेमानी है। इसके अलावा गोबर और गौमूत्र खेती में रासायनिक खाद व दवा की लागत कम करने में सहायक  हैं। यह काम थोड़े से चारे और देखभाल से चार बैलों से लिया जा सकता है।  आज आवार घूम कर आफत बने पशुओं की अस्स्ी फीसदी संख्या काम में लाए जाने वाले मवेशियों की है।
आज जरूरत है कि आवारा पशुओं के इस्तेमाल, उनके कमजोर होने पर गौशाला में रखने और मर जाने पर उनकी खाल, सींग आदि के पारंपरिक तरीके से इस्तेमाल की स्पश्ट नीति बने। आज जिंदा जानवर से ज्यादा खौफ मृत गौ-वंश का है, भले ही वह अपनी मौत मरा हो। तभी बड़ी संख्या में गौपालक गाय पालने से मुंह मोड़ रहे हैं।
देश व समाज के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले पशु-धन को सहेजने के प्रति दूरंदेशी नीति व कार्य योजना आज समय की मांग है। आज भी भारत की राश्ट्रीय आय में पशु पालकों का प्रत्यक्ष योगदन छह फीसदी है। यह जान लें कि एक करोड़ से ज्यादा संख्या का पशु धन तैयार करने में कई साल व कई अरब की रकम लगेगी, लेकिन उनके चारा-पानी की व्यवस्था के लिए कुछ करोड़ ही काफी होंगें। हो सकता है कि इस पर भी कुछ कागजी घोड़े दौड़े लेकिन जब तक ऐसी योजनाओं की क्रियान्वयन एजेंसी में संवेदनशील लोग नहीं होंगे, मवेशी का चारा इंसान के उदरस्थ ही होगा।

सोमवार, 7 अक्तूबर 2019

why Patna city drown in flood

बाढ़ में क्यों डूब गया पटना, आने वाले दिन और ज्यादा भयावह होने वाले हैं


कह सकते हैं कि इस बार बरसात ज्यादा हो गई, लेकिन यह कहना ठीक नहीं होगा कि इसी कारण पटना शहर का अधिकांश हिस्सा दस दिनों तक पानी में डूबा रहा। यह भी जान लें कि भले ही पंप लगाकर आवासीय क्षेत्रों से पानी निकाला गया, पर इस महानगर के आने वाले दिन बाढ़ के पानी की त्रासदी से भी ज्यादा भयावह होने वाले हैं।
जिस शहर ने गंगा जैसी नदी को हड़प लिया, जहां दशकों से कूड़े का माकूल निस्तारण न कर उसे शहर की सीवर लाइनों में दबाया जा रहा हो, जहां चार हजार करोड़ से ज्यादा के सालाना बजट वाला स्थानीय निकाय हो और उसके पास शहर के ड्रैनेज सिस्टम का नक्शा तक न हो, वहां ऐसे जल प्लावन पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए। हां, इस बात पर क्षोभ जरूर होना चाहिए कि शिक्षा, संस्कृति, धर्म और आध्यात्म, साहित्य और विज्ञान में कभी दुनिया को राह दिखाने वाले शहर के लोग इस खतरे से अनभिज्ञ या बहुत कुछ उसे न्यौता देने वाले कैसे बन गए।

स्मार्ट सिटी परियोजना में शामिल पटना शहर देश का ऐसा पांचवां शहर है, जो सबसे तेजी से बढ़ रहा है। वर्ष 2001 से 2011 के बीच शहर की आबादी 24 फीसदी बढ़ी और अनुमान है कि उसके बाद के आठ वर्षो में इसका विस्तार तीस फीसदी की दर से हुआ। पटना कई नदियों से घिरा हुआ है- गंगा के विशाल विस्तार के किनारे तो यह शहर बसा ही है, इसके एक ओर पुनपुन है, तो सोन नदी भी कुछ दूर गंगा में मिलती है। जाहिर है कि बढ़ती आबादी को समाने के लिए जगह भी चाहिए थी।

समाज यह भूल गया कि नदियां भले ही कुछ दिनों के लिए अपना रास्ता बदल दें, लेकिन वह एक जीवंत इकाई है, जो अपना रास्ता, स्वभाव नहीं भूलती। शायद सरकार को यह अंदेशा भी था कि बीते दो दशकों के दौरान जो गंगा आज शहर से चार किलोमीटर दूर चली गई है, किसी दिन अपने घर पधार जाएगी। गंगा फिर से पटना के किनारे बहेगी। इसी साल अगस्त में गंगा को पटना के किनारे लाने के लिए राज्य सरकार ने व्यापक कार्ययोजना बनाई थी, जिसके तहत 234 करोड़ रुपये खर्च कर नदी की गाद निकालने का काम शुरू किया गया था।

योजना को 15 जून 2020 तक पूरा करने का लक्ष्य रखा गया। इस बार गंगा के साथ-साथ सोन और पुनपुन के जल ग्रहण क्षेत्रों में अंधाधुध बरसात हुई, नदियों का जल स्तर भी बढ़ा और उस पर बंधे बांधों के दरवाजे भी खोले गए। अब पटना के लोग तो गंगा के सूखे रास्ते पर कॉलोनी, सड़क सभी कुछ बना चुके थे और तेज बहाव में बहुत-सी गाद बह भी गई और इस तरह से पानी शहर के उन इलाकों में घुसा जो नदी की जमीन या ‘लो लाईन’ पर थे।

पटना में हर दिन लगभग एक हजार मीट्रिक टन कूड़ा पैदा होता है और नगर निगम की अधिकतम हैसियत बामुश्किल 600 मीट्रिक टन कूड़ा उठाने या उसका निबटारा करने की है। यह भी दुखद है कि निबटारे के नाम पर नदी के किनारे या उसकी जलधारा में उसे प्रवाहित कर देने का अघोषित काम गंगा को उथला बना रहा था। शहर के अघोषित गंदे पानी के 33 नाले भी गंगा में गिरते हैं। जब शहर में पानी भरने लगा, तो तीन-चार दिन तो प्रशासन को समझ ही नहीं आया कि किया क्या जाए। विडंबना है कि नगर निगम के पास शहर की नालियों के नेटवर्क का नक्शा वर्ष 2017 में गुम हो गया था। नक्शा नहीं होने के चलते निगम को न तो नालियों की सही-सही जानकारी है और न कैचपिट-मैनहोल की। किसी को मालूम नहीं, पानी किधर से निकलेगा।

महानगर में जहां पानी उतरा है, वहां बहुत सारा कचरा जमा है। इससे बड़े स्तर पर संक्रमण फैलने की आशंका है। जिस स्तर पर नदियों के प्रति बेपरवाही बरती गई, उसे देखते हुए प्रकृति ने अभी छोटा ही दंड दिया है।

Why was the elephant not a companion?

    हाथी क्यों न रहा साथी ?                                                                    पंकज चतुर्वेदी   हाथियों और मानव के ब...