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शनिवार, 27 सितंबर 2014

SCEVENGERS NEEDS SOCIAL REFORM

ऐसे कैसे होगी भंगी-मुक्ति

THE SEA EXPRESS AGRA,28-9-14    http://theseaexpress.com/epapermain.asp
                        पंकज चतुर्वेदी
एक तरफ अंतरिक्ष को अपने कदमों से नापने के बुलंद हौसलें हैं, तो दूसरी तरफ  दूसरों का मल सिर पर ढोते नरक कुंड की सफाई करती मानव जाति। संवेदनहीन मानसिकता और नृशंस अत्याचार की यह मौन मिसाल सरकारी कागजों में दंडनीय अपराध है। यह बात दीगर है कि सरकार के ही महकमे इस घृणित कृत्य को बाकायदा जायज रूप देते हैं। नृशंसता यहां से भी कही आगे तक है, समाज के सर्वाधिक उपेक्षित व कमजोर तबके के उत्थान के लिए बनाए गए महकमे खुद ही सरकारी उपेक्षा से आहत रहे हैं।
शुष्क शौचालयों की सफाई या सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा को सरकार संज्ञेय अपराध घोषित कर चुकी है। इस व्यवस्था को जड़ से खत्म करने के लिए केंद्र व विभिन्न राज्य सरकारें कई वित्तपोषित योजनाऐं चलाती रही हैं। लेकिन यह सामाजिक नासूर यथावत है। इसके निदान हेतु अब तक कम से कम 10 अरब रूपये खर्च हो चुके हैं। इसमें वह धन शामिल नहीं है, जो इन योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए पले ‘‘सफेद हाथियों’’ के मासिक वेतन व सुख-सुविधाओं पर खर्च होता रहा है। लेकिन हाथ में झाडू-पंजा व सिर पर टोकरी बरकरार है। देश की आजादी के साठ से अधिक वसंत बीत चुके हैं। लेकिन जिन लोगों का मल ढोया जा रहा है उनकी संवेदनशून्यता अभी भी परतंत्र है। उनमें न तो इस कुकर्म का अपराध बोध है, और न ही ग्लानि। मैला ढ़ोने वालों की आर्थिक या सामाजिक हैसियत में भी कहीं कोई बदलाव नहीं आया । सरकारी नौकरी में आरक्षण की तपन महज उन अनुसूचित जातियों तक ही पहुंची है, जिनके पुश्तैनी धंधों में नोटों की बौछार देख कर अगड़ी जातियों ने उन पर कब्जे किए। भंगी महंगा हुआ नहीं, इस धंधे में किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी को मुनाफा लगा नहीं, सो इसका औजार भी नहीं बदला।
देश का सबसे अधिक सांसद और सर्वाधिक प्रधानमंत्री देने वाले प्रदेश उत्तरप्रदेश में पैंतालिस लाख रिहाईशी मकान हैं । इनमें से एक तिहाई में या तो शौचालय है ही नहीं या फिर सीवर व्यवस्था नहीं है । तभी यहां ढ़ाई लाख लोग मैला ढ़ोने  के अमानवीय कृत्य में लगे हैं । इनमें से अधिकांश राजधानी लखनऊ या शाहजहांपुर में हैं। वह भी तब जबकि केंद्र सरकार इस मद में राज्य सरकार को 175 करोड़ रुपए दे चुकी है । यह किसी स्वयंसेवी संस्था की सनसनीखेज रिर्पोट या सियासती शोशेबाजी नहीं , बल्कि एक सरकारी सर्वेक्षण की ही नतीजे हैं ।यहां याद करना होगा कि लखनऊ के सौंदर्यीकरण के नाम पर करोड़ो रुपए का ‘अंबेडकर पार्क’ बनाना तो सरकार की प्राथमिकता रहा, लेकिन मानवता के नाम पर कलंक सिर पर मैला ढ़ोने को रोकने की सुध किसी ने भी नहीं ली ।
घरेलू शौचालयों को फ्लश लैट्रिनों में बदलने के लिए 1981 से कुछ कोशिशें हुई, पर युनाईटेड नेशनल डेवलपमेंट प्रोग्राम के सहयोग से। अगर संयुक्त राष्ट्र से आर्थिक सहायता नहीं मिलती तो भारत सरकार के लिए मुहिम चलाना संभव नहीं था। तथाकथित सभ्य समाज को तो सिर पर मैला ढ़ोने वालों को देखना भी गवारा नहीं है, तभी यह मार्मिक स्थिति उनकी चेतना को झकझोर नहीं पाती है। सिर पर गंदगी लादने या शुष्क शौचालयों को दंडनीय अपराध बनाने में ‘‘हरिजन प्रेमी’’ सरकारों को पूरे 45 साल लगे। तब से सरकार सामान्य स्वच्छ प्रसाधन योजना के तहत 50 फीसदी कर्जा देती है। बकाया 50 फीसदी राज्य सरकार बतौर अनुदान देती हैं। स्वच्छकार विमुक्ति योजना में भी ऐसे ही वित्तीय प्रावधान है। लेकिन अनुदान और कर्जे, अफसर व बिचैलिए खा जाते हैं।
सरकार ने सफाई कर्मचारियों के लिए एक आयोग बनाया। राष्ट्रीय अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग और राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग जैसे अन्य सांविधिक आयोगों के कार्यकाल की तो कोई सीमा निर्धारित की नहीं गई, लेकिन सफाई कर्मचारी आयोग को अपना काम समेटने के लिए महज ढ़ाई साल की अवधि तय कर दी गई थी। इस प्रकार मांगीलाल आर्य की अध्यक्षता वाला पहला आयोग 31 मार्च, 1997 को रोते-झींकते खत्म हो गया । तब से लगातार सरकार बदलने के साथ आयोग में बदलाव होते रहे हैं, लेकिन नहीं बदली तो सफाईकर्मियों की तकदीर और अयोग के काम करने का तरीका। सफाई कर्मचारी आयोग के प्रति सरकारी भेदभाव महज समय-सीमा निर्धारण तक ही नहीं है, बल्कि अधिकार, सुविधाओं व संसाधन के मामले में भी इसे दोयम दर्जा दिया गया। समाज कल्याण मंत्रालय के प्रशासनिक नियंत्रण में गठित अन्य तीनों आयोगों को अपने काम-काज के लिए सिविल कोर्ट के अधिकार दिए गए हैं जबकि सफाई कर्मी आयोग के पास सामान्य प्रशासनिक अधिकार भी नहीं है। इसके सदस्य राज्य सरकारों से सूचनाएं प्राप्त करने का अनुरोध मात्र कर सकते हैं। तभी राज्य सरकारों सफाई कर्मचारी आयोग के पत्रों का जबाव तक नहीं देती।
वैसे इस आयोग के गठन का मुख्य उद्देश्य ऐसे प्रशिक्षण आयोजित करना था, ताकि गंदगी के संपर्क में आए बगैर सफाई काम को अंजाम दिया जा सके। सिर पर मैला ढ़ोने से छुटकारा दिलवाना, सफाई कर्मचारियों को अन्य रोजगार मुहैया कराना भी इसका मकसद था। आयोग जब शुरू हुआ तो एक अरब 11 करोड़ की बहुआयामी योजनाएं बनाई गई थीं। इसमें 300 करोड़ पुर्नवास और 125 करोड़ कल्याण कार्यक्रमों पर खर्च करने का प्रावधान था। पर नतीजा वही ‘‘ढाक के तीन पात’’ रहा। दीगर महकमों की तरह घपले, घूसखोरी और घोटालों से यह ‘‘अछूतों’’ का विभाग भी अछूता नहीं रहा। कुछ साल पहले आयोग के उत्तर प्रदेश कार्यालय में दो अरब की गड़बड़ का खुलासा हुआ था।
आयोग व समितियों के जरिए भंगी मुक्ति के सरकारी स्वांग आजादी के बाद से जारी रहे हैं। संयुक्त प्रांत (वर्तमान उ.प्र.) ने भंगी मुक्ति बाबत एक समिति का गठन किया था। आजादी के चार दिन बाद 19 अगस्त 1947 को सरकार ने इस समिति की सिफारिशों पर अमल के निर्देश दिए थे। पर वह एक रद्दी का टुकड़ा ही साबित हुआ।  1963 में मलकानी समिति ने निष्कर्ष दिया था कि जो सफाई कामगार अन्य कोई रोजगार अपनाना चाहें, उन्हें लंबरदार, चैकीदार, चपरासी जैसे पदों पर नियुक्त दिया जाए। परंतु आज भी सफाई कर्मचारी के ग्रेजुएट बच्चों को सबसे पहले ‘‘झाडू-पंजे’’ की नौकरी के लिए ही बुलाया जाता है। नगर पालिका हो या फौज, सफाई कर्मचारियों के पद भंगियों के लिए ही आरक्षित हैं।
सन 1964 और 1967 में भी दो राष्ट्रीय आयोग गठित हुए थे। उनकी सिफारिशों या क्रियाकलाप की फाईलें तक उपलब्ध नहीं हैं। हालांकि उन दोनों आयोगों की सोच दिल्ली से बाहर विस्तार नहीं पा सकी थीं। 1968  में बीएस बंटी की अध्यक्षता में गठित न्यूनतम मजदूरी समिति की सिफारिशें 21 वीं सदी के मुहाने पर पहुंचते हुए भी लागू नहीं हो पाई हैं। पता नहीं किस तरह के विकास और सुदृढ़ता का दावा हमारे देश के कर्णधार करते हैं। मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि हरियाणा के 40.3 फीसदी ग्रामीण परिवारों के पास टेलीविजन हैं, पर शौचालय महज आठ फीसदी हैं। करीबी समृद्ध राज्य पंजाब में टीवी 38.6 प्रतिशत लोगों के पास है परंतु शौचालय मात्र 19.8 की पहुंच में हैं। 1990 में बिहार की आबादी 1.11 करोड़ थी। उनमें से सिर्फ 30 लाख लोग ही किसी न किसी प्रकार के शौचालय की सेवा पाते हैं। यह आंकड़े इंगित करते हैं कि सफाई या उस कार्य से जुड़े लोग सरकार की नजर में निहायत उपेक्षित हैं।
आजाद भारत में सफाई कर्मचारियों के लिए गठित आयोग, समितियों, इस सबके थोथे प्रचार व तथाकथित क्रियान्वयन में लगे अमले के वेतन, कल्याण योजनाओं के नाम पर खर्च व्यय का यदि जोड़ करें तो यह राशि अरबों-खरबों में होगी। काश, इस धन को सीधे ही सफाई कर्मचारियों में बांट दिया जाता तो हर एक परिवार  करोड़पति होता। यदि आधी सदी के अनुभवों को सीख माने तो यह तय है कि जब तक भंगी महंगा नहीं होगा, उसकी मुक्ति संभव नहीं है।
यदि सरकार या सामाजिक संस्थाएं वास्तव में सफाई कर्मचारियों को अपमान, लाचारी और गुलामी से उपजी कुंठा से मुक्ति दिलवाना चाहते हैं तो आई आई टी सरीखे तकनीकी शोध संस्थानों में ‘‘सार्वजनिक सफाई’’ जैसे विषयों को अनिवार्य करना होगा। जिस रफ्तार से शहरों का विस्तार हो रहा है, उसके मद्देनजर आने वाले दशक में स्वच्छता एक गंभीर समस्या होगी।
                                       
पंकज चतुर्वेदी
                                       

In the memory of Shahid Bhagat Singh Birth 27 Sepember

आज है भगत सिंह का जन्मदिन

सांप्रदायिकता और उसके इलाज पर क्या कहते थे शहीद भगत सिंह

एक बात जान लें के भगत सिंह बंदूक या बम नहीं था, भगत सिंह हत्‍यारा या आतंकवादी नहीं था, भंगत सिंह दूसरों को मारने पर नहीं खुद को मिटा देने पर भरोसा करता था ा बडे उत्‍साह से लोग भगत सिंह को उनके जन्‍म दिन पर याद कर रहे हैं, लेकिन खबरदार, यदि आपने उनके विचार नहीं पढें हैं तो उन्‍हें श्रदधंजली जैसे शब्‍द इस्‍तेमाल मत करना क्‍योंकि भगत सिंह कोई इंसान नहीं था, वह एक विचार था, है और रहेगा,
'मेरी महबूबा तो आजादी है', लड़कपन की उम्र में यह कहने का साहस और संवेदनशीलता रखते थे शहीद भगत सिंह. आज उनका जन्मदिन है. उन्हें सलाम करते हुए हम सांप्रदायिकता की समस्या पर उनके विचार पेश कर रहे हैं. जून, 1928 के ‘किरती’ में छपा यह लेख सांप्रदायिकता पर भगत सिंह और उनके साथियों के विचारों का सार है. मुजफ्फरनगर के ताजा जख्मों के बीच ये विचार और भी प्रासंगिक हो गए हैं. आप भी पढ़ें और सोचें कि क्या सांप्रदायिकता का इससे ज्यादा तार्किक और मजबूत उत्तर और कुछ हो सकता है?
'भारत वर्ष की दशा इस समय बड़ी दयनीय है. एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों के जानी दुश्मन हैं. अब तो एक धर्म का होना ही दूसरे धर्म का कट्टर शत्रु होना है. यदि इस बात का अभी यकीन न हो तो लाहौर के ताजा दंगे ही देख लें. किस प्रकार मुसलमानों ने निर्दोष सिखों, हिन्दुओं को मारा है और किस प्रकार सिखों ने भी वश चलते कोई कसर नहीं छोड़ी है. यह मार-काट इसलिए नहीं की गयी कि फलां आदमी दोषी है, वरन इसलिए कि फलाँ आदमी हिन्दू है या सिख है या मुसलमान है. बस किसी व्यक्ति का सिख या हिन्दू होना मुसलमानों द्वारा मारे जाने के लिए काफी था और इसी तरह किसी व्यक्ति का मुसलमान होना ही उसकी जान लेने के लिए पर्याप्त तर्क था. जब स्थिति ऐसी हो तो हिन्दुस्तान का ईश्वर ही मालिक है.
धर्मों ने कर दिया है देश का बेड़ा गर्क
ऐसी स्थिति में हिन्दुस्तान का भविष्य बहुत अन्धकारमय नजर आता है. इन ‘धर्मों’ ने हिन्दुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है. और अभी पता नहीं कि यह धार्मिक दंगे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे. इन दंगों ने संसार की नजरों में भारत को बदनाम कर दिया है. और हमने देखा है कि इस अन्धविश्वास के बहाव में सभी बह जाते हैं. कोई बिरला ही हिन्दू, मुसलमान या सिख होता है, जो अपना दिमाग ठण्डा रखता है, बाकी सब के सब धर्म के यह नामलेवा अपने नामलेवा धर्म के रौब को कायम रखने के लिए डण्डे लाठियां, तलवारें-छुरें हाथ में पकड़ लेते हैं और आपस में सर-फोड़-फोड़कर मर जाते हैं. बाकी कुछ तो फाँसी चढ़ जाते हैं और कुछ जेलों में फेंक दिये जाते हैं. इतना रक्तपात होने पर इन ‘धर्मजनों’ पर अंग्रेजी सरकार का डण्डा बरसता है और फिर इनके दिमाग का कीड़ा ठिकाने आ जाता है.
सबका भला चाहने वाले नेता कम
यहां तक देखा गया है, इन दंगों के पीछे साम्प्रदायिक नेताओं और अखबारों का हाथ है. इस समय हिन्दुस्तान के नेताओं ने ऐसी लीद की है कि चुप ही भली. वही नेता जिन्होंने भारत को स्वतन्त्रा कराने का बीड़ा अपने सिरों पर उठाया हुआ था और जो ‘समान राष्ट्रीयता’ और ‘स्वराज्य-स्वराज्य’ के दमगजे मारते नहीं थकते थे, वही या तो अपने सिर छिपाये चुपचाप बैठे हैं या इसी धर्मान्धता के बहाव में बह चले हैं. सिर छिपाकर बैठने वालों की संख्या भी क्या कम है? लेकिन ऐसे नेता जो साम्प्रदायिक आन्दोलन में जा मिले हैं, जमीन खोदने से सैकड़ों निकल आते हैं. जो नेता हृदय से सबका भला चाहते हैं, ऐसे बहुत ही कम हैं. और साम्प्रदायिकता की ऐसी प्रबल बाढ़ आयी हुई है कि वे भी इसे रोक नहीं पा रहे. ऐसा लग रहा है कि भारत में नेतृत्व का दिवाला पिट गया है.
स्थानीय अखबारों की भूमिका पर भी सवाल
दूसरे सज्जन जो साम्प्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं, अखबार वाले हैं. पत्रकारिता का व्यवसाय, किसी समय बहुत ऊंचा समझा जाता था. आज बहुत ही गन्दा हो गया है. यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएँ भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौव्वल करवाते हैं. एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं. ऐसे लेखक बहुत कम है जिनका दिल व दिमाग ऐसे दिनों में भी शान्त रहा हो.
अखबारों का असली कर्त्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, साम्प्रदायिक भावनाएं हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्त्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, साम्प्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है. यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से रक्त के आँसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि ‘भारत का बनेगा क्या?’
स्वराज्य सपना मात्र बन गया है
जो लोग असहयोग के दिनों के जोश व उभार को जानते हैं, उन्हें यह स्थिति देख रोना आता है. कहाँ थे वे दिन कि स्वतन्त्राता की झलक सामने दिखाई देती थी और कहाँ आज यह दिन कि स्वराज्य एक सपना मात्र बन गया है. बस यही तीसरा लाभ है, जो इन दंगों से अत्याचारियों को मिला है. जिसके अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया था, कि आज गयी, कल गयी वही नौकरशाही आज अपनी जड़ें इतनी मजबूत कर चुकी हैं कि उसे हिलाना कोई मामूली काम नहीं है.
अर्थशास्त्र में हैं दंगों की जड़ें
यदि इन साम्प्रदायिक दंगों की जड़ खोजें तो हमें इसका कारण आर्थिक ही जान पड़ता है. असहयोग के दिनों में नेताओं व पत्राकारों ने ढेरों कुर्बानियां दीं. उनकी आर्थिक दशा बिगड़ गयी थी. असहयोग आन्दोलन के धीमा पड़ने पर नेताओं पर अविश्वास-सा हो गया जिससे आजकल के बहुत से साम्प्रदायिक नेताओं के धन्धे चौपट हो गये. विश्व में जो भी काम होता है, उसकी तह में पेट का सवाल जरूर होता है. कार्ल मार्क्स के तीन बड़े सिद्धान्तों में से यह एक मुख्य सिद्धान्त है. इसी सिद्धान्त के कारण ही तबलीग, तनकीम, शुद्धि आदि संगठन शुरू हुए और इसी कारण से आज हमारी ऐसी दुर्दशा हुई, जो अवर्णनीय है.
चवन्नी देकर कोई किसी को करवा सकता है अपमानित
बस, सभी दंगों का इलाज यदि कोई हो सकता है तो वह भारत की आर्थिक दशा में सुधार से ही हो सकता है. दरअसल भारत के आम लोगों की आर्थिक दशा इतनी खराब है कि एक व्यक्ति दूसरे को चवन्नी देकर किसी और को अपमानित करवा सकता है. भूख और दुख से आतुर होकर मनुष्य सभी सिद्धान्त ताक पर रख देता है. सच है, मरता क्या न करता. लेकिन वर्तमान स्थिति में आर्थिक सुधार होेना अत्यन्त कठिन है क्योंकि सरकार विदेशी है और लोगों की स्थिति को सुधरने नहीं देती. इसीलिए लोगों को हाथ धोकर इसके पीछे पड़ जाना चाहिये और जब तक सरकार बदल न जाये, चैन की सांस न लेना चाहिए.
गरीब, मेहनतकशों और किसानों के एक होने की जरूरत
लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की जरूरत है. गरीब, मेहनतकशों व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूंजीपति हैं. इसलिए तुम्हें इनके हथकंडों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ न करना चाहिए. संसार के सभी गरीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं. तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताकत अपने हाथों में लेने का प्रयत्न करो. इन यत्नों से तुम्हारा नुकसान कुछ नहीं होगा, इससे किसी दिन तुम्हारी जंजीरें कट जायेंगी और तुम्हें आर्थिक स्वतन्त्रता मिलेगी.
रूस में आ गई है वर्ग चेतना
जो लोग रूस का इतिहास जानते हैं, उन्हें मालूम है कि जार के समय वहां भी ऐसी ही स्थितियां थीं वहां भी कितने ही समुदाय थे जो परस्पर जूत-पतांग करते रहते थे. लेकिन जिस दिन से वहां श्रमिक-शासन हुआ है, वहां नक्शा ही बदल गया है. अब वहां कभी दंगे नहीं हुए. अब वहाँ सभी को ‘इन्सान’ समझा जाता है, ‘धर्मजन’ नहीं. जार के समय लोगों की आर्थिक दशा बहुत ही खराब थी. इसलिए सब दंगे-फसाद होते थे. लेकिन अब रूसियों की आर्थिक दशा सुधर गयी है और उनमें वर्ग-चेतना आ गयी है इसलिए अब वहां से कभी किसी दंगे की खबर नहीं आयी.
इन दंगों में वैसे तो बड़े निराशाजनक समाचार सुनने में आते हैं, लेकिन कलकत्ते के दंगों में एक बात बहुत खुशी की सुनने में आयी. वह यह कि वहां दंगों में ट्रेड यूनियन के मजदूरों ने हिस्सा नहीं लिया और न ही वे परस्पर गुत्थमगुत्था ही हुए, वरन् सभी हिन्दू-मुसलमान बड़े प्रेम से कारखानों आदि में उठते-बैठते और दंगे रोकने के भी यत्न करते रहे. यह इसलिए कि उनमें वर्ग-चेतना थी और वे अपने वर्गहित को अच्छी तरह पहचानते थे. वर्गचेतना का यही सुन्दर रास्ता है, जो साम्प्रदायिक दंगे रोक सकता है.
युवाओं के विचारों में है खुलापन
यह खुशी का समाचार हमारे कानों को मिला है कि भारत के नवयुवक अब वैसे धर्मों से जो परस्पर लड़ाना व घृणा करना सिखाते हैं, तंग आकर हाथ धो रहे हैं. उनमें इतना खुलापन आ गया है कि वे भारत के लोगों को धर्म की नजर से-हिन्दू, मुसलमान या सिख रूप में नहीं, वरन् सभी को पहले इन्सान समझते हैं, फिर भारतवासी. भारत के युवकों में इन विचारों के पैदा होने से पता चलता है कि भारत का भविष्य सुनहला है. भारतवासियों को इन दंगों आदि को देखकर घबराना नहीं चाहिए. उन्हें यत्न करना चाहिए कि ऐसा वातावरण ही न बने, और दंगे हों ही नहीं.
धर्म और राजनीति का घालमेल न हो
1914-15 के शहीदों ने धर्म को राजनीति से अलग कर दिया था. वे समझते थे कि धर्म व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है इसमें दूसरे का कोई दखल नहीं. न ही इसे राजनीति में घुसाना चाहिए क्योंकि यह सरबत को मिलकर एक जगह काम नहीं करने देता. इसलिए गदर पार्टी जैसे आन्दोलन एकजुट व एकजान रहे, जिसमें सिख बढ़-चढ़कर फाँसियों पर चढ़े और हिन्दू मुसलमान भी पीछे नहीं रहे.
इस समय कुछ भारतीय नेता भी मैदान में उतरे हैं जो धर्म को राजनीति से अलग करना चाहते हैं. झगड़ा मिटाने का यह भी एक सुन्दर इलाज है और हम इसका समर्थन करते हैं.
यदि धर्म को अलग कर दिया जाये तो राजनीति पर हम सभी इकट्ठे हो सकते है. धर्मों में हम चाहे अलग-अलग ही रहें.
हमारा ख्याल है कि भारत के सच्चे हमदर्द हमारे बताये इलाज पर जरूर विचार करेंगे और भारत का इस समय जो आत्मघात हो रहा है, उससे हमे बचा लेंगे.'
कौम के नाम भगत सिंह का सन्देश
‘कौम के नाम सन्देश’ के रूप में प्रसिद्द और ‘नवयुवक राजनीतिक कार्यकर्ताओं के नाम पत्र ‘ शीर्षक के साथ मिले इस दस्तावेज के कई प्रारूप और हिन्दी अनुवाद उपलब्ध हैं, यह एक संक्षिप्त रूप है। लाहौर के पीपुल्ज़ में 29 जुलाई, 1931 और इलाहाबाद के अभ्युदय में 8 मई, 1931 के अंक में इसके कुछ अंश प्रकाशित हुए थे। यह दस्तावेज अंग्रेज सरकार की एक गुप्त पुस्तक ‘बंगाल में संयुक्त मोर्चा आंदोलन की प्रगति पर नोट’ से प्राप्त हुआ, जिसका लेखक सी आई डी अधिकारी सी ई एस फेयरवेदर था और जो उसने 1936 में लिखी थी, । उसके अनुसार यह लेख भगतसिंह ने लिखा था और 3 अक्तूबर, 1931को श्रीमती विमला प्रभादेवी के घर से तलाशी में हासिल हुआ था। सम्भवत: 2 फरवरी, 1931 को यह दस्तावेज लिखा गया।
नवयुवक राजनीतिक कार्यकर्ताओं के नाम पत्र
प्रिय साथियो
इस समय हमारा आन्दोलन अत्यन्त महत्वपूर्ण परिस्थितियों में से गुज़र रहा है। एक साल के कठोर संग्राम के बाद गोलमेज़ कान्फ्रेन्स ने हमारे सामने शासन-विधान में परिवर्तन के सम्बन्ध में कुछ निश्चित बातें पेश की हैं और कांग्रेस के नेताओं को निमन्त्रण दिया है कि वे आकर शासन-विधान तैयार करने के कामों में मदद दें। कांग्रेस के नेता इस हालत में आन्दोलन को स्थगित कर देने के लिए तैयार दिखायी देते हैं। वे लोग आन्दोलन स्थगित करने के हक़ में फैसला करेंगे या खि़लाफ़, यह बात हमारे लिये बहुत महत्व नहीं रखती। यह बात निश्चित है कि वर्तमान आन्दोलन का अन्त किसी न किसी प्रकार के समझौते के रूप में होना लाज़िमी है। यह दूसरी बात है कि समझौता ज़ल्दी हो जाये या देरी हो।
वस्तुतः समझौता कोई हेय और निन्दा-योग्य वस्तु नहीं, जैसा कि साधारणतः हम लोग समझते हैं, बल्कि समझौता राजनैतिक संग्रामों का एक अत्यावश्यक अंग है। कोई भी कौम, जो किसी अत्याचारी शासन के विरुद्ध खड़ी होती है, ज़रूरी है कि वह प्रारम्भ में असफल हो और अपनी लम्बी ज़द्दोज़हद के मध्यकाल में इस प्रकार के समझौते के ज़रिये कुछ राजनैतिक सुधार हासिल करती जाये, परन्तु वह अपनी लड़ाई की आख़िरी मंज़िल तक पहुँचते-पहुँचते अपनी ताक़तों को इतना दृढ़ और संगठित कर लेती है और उसका दुश्मन पर आख़िरी हमला ऐसा ज़ोरदार होता है कि शासक लोगों की ताक़तें उस वक्त तक भी यह चाहती हैं कि उसे दुश्मन के साथ कोई समझौता कर लेना पड़े। यह बात रूस के उदाहरण से भली-भाँति स्पष्ट की जा सकती है।
1905 में रूस में क्रान्ति की लहर उठी। क्रान्तिकारी नेताओं को बड़ी भारी आशाएँ थीं, लेनिन उसी समय विदेश से लौट कर आये थे, जहाँ वह पहले चले गये थे। वे सारे आन्दोलन को चला रहे थे। लोगों ने कोई दर्ज़न भर भूस्वामियों को मार डाला और कुछ मकानों को जला डाला, परन्तु वह क्रान्ति सफल न हुई। उसका इतना परिणाम अवश्य हुआ कि सरकार कुछ सुधार करने के लिये बाध्य हुई और द्यूमा (पार्लियामेन्ट) की रचना की गयी। उस समय लेनिन ने द्यूमा में जाने का समर्थन किया, मगर 1906 में उसी का उन्होंने विरोध शुरू कर दिया और 1907 में उन्होंने दूसरी द्यूमा में जाने का समर्थन किया, जिसके अधिकार बहुत कम कर दिये गये थे। इसका कारण था कि वह द्यूमा को अपने आन्दोलन का एक मंच (प्लेटफ़ार्म) बनाना चाहते थे।
इसी प्रकार 1917 के बाद जब जर्मनी के साथ रूस की सन्धि का प्रश्न चला, तो लेनिन के सिवाय बाकी सभी लोग उस सन्धि के ख़िलाफ़ थे। परन्तु लेनिन ने कहा, ‘'शान्ति, शान्ति और फिर शान्ति – किसी भी कीमत पर हो, शान्ति। यहाँ तक कि यदि हमें रूस के कुछ प्रान्त भी जर्मनी के ‘वारलार्ड’ को सौंप देने पड़ें, तो भी शान्ति प्राप्त कर लेनी चाहिए।'’ जब कुछ बोल्शेविक नेताओं ने भी उनकी इस नीति का विरोध किया, तो उन्होंने साफ़ कहा कि ‘'इस समय बोल्शेविक सरकार को मज़बूत करना है।'’
जिस बात को मैं बताना चाहता हूँ वह यह है कि समझौता भी एक ऐसा हथियार है, जिसे राजनैतिक ज़द्दोज़हद के बीच में पग-पग पर इस्तेमाल करना आवश्यक हो जाता है, जिससे एक कठिन लड़ाई से थकी हुई कौम को थोड़ी देर के लिये आराम मिल सके और वह आगे युद्ध के लिये अधिक ताक़त के साथ तैयार हो सके। परन्तु इन सारे समझौतों के बावज़ूद जिस चीज़ को हमें भूलना नहीं चाहिए, वह हमारा आदर्श है जो हमेशा हमारे सामने रहना चाहिए। जिस लक्ष्य के लिये हम लड़ रहे हैं, उसके सम्बन्ध में हमारे विचार बिलकुल स्पष्ट और दृढ़ होने चाहिए। यदि आप सोलह आने के लिये लड़ रहे हैं और एक आना मिल जाता है, तो वह एक आना ज़ेब में डाल कर बाकी पन्द्रह आने के लिये फिर जंग छेड़ दीजिए। हिन्दुस्तान के माडरेटों की जिस बात से हमें नफ़रत है वह यही है कि उनका आदर्श कुछ नहीं है। वे एक आने के लिये ही लड़ते हैं और उन्हें मिलता कुछ भी नहीं।
भारत की वर्तमान लड़ाई ज़्यादातर मध्य वर्ग के लोगों के बलबूते पर लड़ी जा रही है, जिसका लक्ष्य बहुत सीमित है। कांग्रेस दूकानदारों और पूँजीपतियों के ज़रिये इंग्लैण्ड पर आर्थिक दबाव डाल कर कुछ अधिकार ले लेना चाहती है। परन्तु जहाँ तक देश की करोड़ों मज़दूर और किसान जनता का ताल्लुक है, उनका उद्धार इतने से नहीं हो सकता। यदि देश की लड़ाई लड़नी हो, तो मज़दूरों, किसानों और सामान्य जनता को आगे लाना होगा, उन्हें लड़ाई के लिये संगठित करना होगा। नेता उन्हें आगे लाने के लिये अभी तक कुछ नहीं करते, न कर ही सकते हैं। इन किसानों को विदेशी हुकूमत के साथ-साथ भूमिपतियों और पूँजीपतियों के जुए से भी उद्धार पाना है, परन्तु कांग्रेस का उद्देश्य यह नहीं है।
इसलिये मैं कहता हूँ कि कांग्रेस के लोग सम्पूर्ण क्रान्ति नहीं चाहते। सरकार पर आर्थिक दबाव डाल कर वे कुछ सुधार और लेना चाहते हैं। भारत के धनी वर्ग के लिये कुछ रियायतें और चाहते हैं और इसलिये मैं यह भी कहता हूँ कि कांग्रेस का आन्दोलन किसी न किसी समझौते या असफलता में ख़त्म हो जायेगा। इस हालत में नौजवानों को समझ लेना चाहिए कि उनके लिये वक्त और भी सख़्त आ रहा है। उन्हें सतर्क हो जाना चाहिए कि कहीं उनकी बुद्धि चकरा न जाये या वे हताश न हो बैठें। महात्मा गाँधी की दो लड़ाइयों का अनुभव प्राप्त कर लेने के बाद वर्तमान परिस्थितियों और अपने भविष्य के प्रोग्राम के सम्बन्ध में साफ़-साफ़ नीति निर्धारित करना हमारे लिये अब ज़्यादा ज़रूरी हो गया है।
इतना विचार कर चुकने के बाद मैं अपनी बात अत्यन्त सादे शब्दों में कहना चाहता हूँ। आप लोग इंकलाब-ज़िन्दाबाद (long live revolution) का नारा लगाते हैं। यह नारा हमारे लिये बहुत पवित्र है और इसका इस्तेमाल हमें बहुत ही सोच-समझ कर करना चाहिए। जब आप नारे लगाते हैं, तो मैं समझता हूँ कि आप लोग वस्तुतः जो पुकारते हैं वही करना भी चाहते हैं। असेम्बली बम केस के समय हमने क्रान्ति शब्द की यह व्याख्या की थी – क्रान्ति से हमारा अभिप्राय समाज की वर्तमान प्रणाली और वर्तमान संगठन को पूरी तरह उखाड़ फेंकना है। इस उद्देश्य के लिये हम पहले सरकार की ताक़त को अपने हाथ में लेना चाहते हैं। इस समय शासन की मशीन अमीरों के हाथ में है। सामान्य जनता के हितों की रक्षा के लिये तथा अपने आदर्शों को क्रियात्मक रूप देने के लिये – अर्थात् समाज का नये सिरे से संगठन कार्ल माक्र्स के सिद्धान्तों के अनुसार करने के लिये – हम सरकार की मशीन को अपने हाथ में लेना चाहते हैं। हम इस उद्देश्य के लिये लड़ रहे हैं। परन्तु इसके लिये साधारण जनता को शिक्षित करना चाहिए।
जिन लोगों के सामने इस महान क्रान्ति का लक्ष्य है, उनके लिये नये शासन-सुधारों की कसौटी क्या होनी चाहिए? हमारे लिये निम्नलिखित तीन बातों पर ध्यान रखना किसी भी शासन-विधान की परख के लिये ज़रूरी है -
शासन की ज़िम्मेदारी कहाँ तक भारतीयों को सौंपी जाती है?
शासन-विधान को चलाने के लिये किस प्रकार की सरकार बनायी जाती है और उसमें हिस्सा लेने का आम जनता को कहाँ तक मौका मिलता है?
भविष्य में उससे क्या आशाएँ की जा सकती हैं? उस पर कहाँ तक प्रतिबन्ध लगाये जाते हैं? सर्व-साधारण को वोट देने का हक़ दिया जाता है या नहीं?
भारत की पार्लियामेन्ट का क्या स्वरूप हो, यह प्रश्न भी महत्वपूर्ण है। भारत सरकार की कौंसिल आफ़ स्टेट सिर्फ अमीरों का जमघट है और लोगों को फाँसने का एक पिंजरा है, इसलिये उसे हटा कर एक ही सभा, जिसमें जनता के प्रतिनिधि हों, रखनी चाहिए। प्रान्तीय स्वराज्य का जो निश्चय गोलमेज़ कान्फ्रेन्स में हुआ, उसके सम्बन्ध में मेरी राय है कि जिस प्रकार के लोगों को सारी ताकतें दी जा रही हैं, उससे तो यह ‘प्रान्तीय स्वराज्य’ न होकर ‘प्रान्तीय जु़ल्म’ हो जायेगा।
इन सब अवस्थाओं पर विचार करके हम इस परिणाम पर पहुँचते हैं कि सबसे पहले हमें सारी अवस्थाओं का चित्र साफ़ तौर पर अपने सामने अंकित कर लेना चाहिए। यद्यपि हम यह मानते हैं कि समझौते का अर्थ कभी भी आत्मसमर्पण या पराजय स्वीकार करना नहीं, किन्तु एक कदम आगे और फिर कुछ आराम है, परन्तु हमें साथ ही यह भी समझ लेना कि समझौता इससे अधिक भी और कुछ नहीं। वह अन्तिम लक्ष्य और हमारे लिये अन्तिम विश्राम का स्थान नहीं।
हमारे दल का अन्तिम लक्ष्य क्या है और उसके साधन क्या हैं – यह भी विचारणीय है। दल का नाम ‘सोशलिस्ट रिपब्लिकन पार्टी’ है और इसलिए इसका लक्ष्य एक सोशलिस्ट समाज की स्थापना है। कांग्रेस और इस दल के लक्ष्य में यही भेद है कि राजनैतिक क्रान्ति से शासन-शक्ति अंग्रेज़ों के हाथ से निकल हिन्दुस्तानियों के हाथों में आ जायेगी। हमारा लक्ष्य शासन-शक्ति को उन हाथों के सुपुर्द करना है, जिनका लक्ष्य समाजवाद हो। इसके लिये मज़दूरों और किसानों केा संगठित करना आवश्यक होगा, क्योंकि उन लोगों के लिये लार्ड रीडिंग या इरविन की जगह तेजबहादुर या पुरुषोत्तम दास ठाकुर दास के आ जाने से कोई भारी फ़र्क न पड़ सकेगा।
पूर्ण स्वाधीनता से भी इस दल का यही अभिप्राय है। जब लाहौर कांग्रेस ने पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव पास किया, तो हम लोग पूरे दिल से इसे चाहते थे, परन्तु कांग्रेस के उसी अधिवेशन में महात्मा जी ने कहा कि ‘'समझौते का दरवाज़ा अभी खुला है।'’ इसका अर्थ यह था कि वह पहले ही जानते थे कि उनकी लड़ाई का अन्त इसी प्रकार के किसी समझौते में होगा और वे पूरे दिल से स्वाधीनता की घोषणा न कर रहे थे। हम लोग इस बेदिली से घृणा करते हैं।
इस उद्देश्य के लिये नौजवानों को कार्यकर्ता बन कर मैदान में निकलना चाहिए, नेता बनने वाले तो पहले ही बहुत हैं। हमारे दल को नेताओं की आवश्यकता नहीं। अगर आप दुनियादार हैं, बाल-बच्चों और गृहस्थी में फँसे हैं, तो हमारे मार्ग पर मत आइए। आप हमारे उद्देश्य से सहानुभूति रखते हैं, तो और तरीकों से हमें सहायता दीजिए। सख़्त नियन्त्रण में रह सकने वाले कार्यकर्ता ही इस आन्दोलन को आगे ले जा सकते हैं। ज़रूरी नहीं कि दल इस उद्देश्य के लिये छिप कर ही काम करे। हमें युवकों के लिये स्वाध्याय-मण्डल (study circle) खोलने चाहिए। पैम्फ़लेटों और लीफ़लेटों, छोटी पुस्तकों, छोटे-छोटे पुस्तकालयों और लेक्चरों, बातचीत आदि से हमें अपने विचारों का सर्वत्र प्रचार करना चाहिए।
हमारे दल का सैनिक विभाग भी संगठित होना चाहिए। कभी-कभी उसकी बड़ी ज़रूरत पड़ जाती है। इस सम्बन्ध में मैं अपनी स्थिति बिलकुल साफ़ कर देना चाहता हूँ। मैं जो कुछ कहना चाहता हूँ, उसमें गलतफ़हमी की सम्भावना है, पर आप लोग मेरे शब्दों और वाक्यों का कोई गूढ़ अभिप्राय न गढ़ें।
यह बात प्रसिद्ध ही है कि मैं आतंकवादी (terrorist) रहा हूँ, परन्तु मैं आतंकवादी नहीं हूँ। मैं एक क्रान्तिकारी हूँ, जिसके कुछ निश्चित विचार और निश्चित आदर्श हैं और जिसके सामने एक लम्बा कार्यक्रम है। मुझे यह दोष दिया जायेगा, जैसा कि लोग राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ को भी देते थे कि फाँसी की काल-कोठरी में पड़े रहने से मेरे विचारों में भी कोई परिवर्तन आ गया है। परन्तु ऐसी बात नहीं है। मेरे विचार अब भी वही हैं। मेरे हृदय में अब भी उतना ही और वैसा ही उत्साह है और वही लक्ष्य है जो जेल के बाहर था। पर मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि हम बम से कोई लाभ प्राप्त नहीं कर सकते। यह बात हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन पार्टी के इतिहास से बहुत आसानी से मालूम हो जाती है। केवल बम फेंकना न सिर्फ़ व्यर्थ है, अपितु बहुत बार हानिकारक भी है। उसकी आवश्यकता किन्हीं ख़ास अवस्थाओं में ही पड़ा करती है। हमारा मुख्य लक्ष्य मज़दूरों और किसानों का संगठन होना चाहिए। सैनिक विभाग युद्ध-सामग्री को किसी ख़ास मौके के लिये केवल संग्रह करता रहे।
यदि हमारे नौजवान इसी प्रकार प्रयत्न करते जायेंगे, तब जाकर एक साल में स्वराज्य तो नहीं, किन्तु भारी कुर्बानी और त्याग की कठिन परीक्षा में से गुज़रने के बाद वे अवश्य ही विजयी होंगे।
इंकलाब-ज़िन्दाबाद!
(2 फरवरी,1931)

शहादत से पहले सरदार भगत सिंह का साथियों को अन्तिम पत्र

22 मार्च, 1931
साथियो,
स्वाभाविक है कि जीने की इच्छा मुझमें भी होनी चाहिए, मैं इसे छिपाना नहीं चाहता। लेकिन एक शर्त पर जिंदा रह सकता हूँ,कि मैं कैद होकर या पाबन्द होकर जीना नहीं चाहता।
मेरा नाम हिन्दुस्तानी क्रांति का प्रतीक बन चुका है और क्रांतिकारी दल के आदर्शों और कुर्बानियों ने मुझे बहुत ऊँचा उठा दिया है- इतना ऊँचा कि जीवित रहने की स्थिति में इससे ऊँचा मैं हर्गिज नहीं हो सकता।
आज मेरी कमजोरियाँ जनता के सामने नहीं हैं। अगर मैं फाँसी से बच गया तो वे जाहिर हो जाएँगी और क्रांति का प्रतीक चिन्ह मद्धिम पड़ जाएगा या संभवतः मिट ही जाए। लेकिन दिलेराना ढंग से हँसते-हँसते मेरे फाँसी चढ़ने की सूरत में हिन्दुस्तानी माताएँ अपने बच्चों के भगतसिंह बनने की आरजू किया करेंगी और देश की आजादी के लिए कुर्बानी देने वालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी कि क्रांति को रोकना साम्राज्यवाद या तमाम शैतानी शक्तियों के बूते की बात नहीं रहेगी।
हाँ, एक विचार आज भी मेरे मन में आता है कि देश और मानवता के लिए जो कुछ करने की हसरतें मेरे दिल में थीं, उनका हजारवाँ भाग भी पूरा नहीं कर सका। अगर स्वतन्त्र, जिंदा रह सकता तब शायद उन्हें पूरा करने का अवसर मिलता और मैं अपनी हसरतें पूरी कर सकता। इसके सिवाय मेरे मन में कभी कोई लालच फाँसी से बचे रहने का नहीं आया। मुझसे अधिक भाग्यशाली कौन होगा? आजकल मुझे स्वयं पर बहुत गर्व है। अब तो बड़ी बेताबी से अंतिम परीक्षा का इन्तजार है। कामना है कि यह और नजदीक हो जाए।
आपका साथी – भगतसिंह

छोटे भाई कुलतार के नाम भगत सिंह का अन्तिम पत्र

सेंट्रल जेल, लाहौर,
3 मार्च, 1931
अजीज कुलतार,
आज तुम्हारी आँखों में आँसू देखकर बहुत दुख हुआ। आज तुम्हारी बातों में बहुत दर्द था, तुम्हारे आँसू मुझसे सहन नहीं होते।
बरखुर्दार, हिम्मत से शिक्षा प्राप्त करना और सेहत का ख्याल रखना। हौसला रखना और क्या कहूँ!
उसे यह फ़िक्र है हरदम नया तर्ज़े-ज़फा क्या है,
हमे यह शौक़ है देखें सितम की इन्तहा क्या है।
दहर से क्यों खफ़ा रहें, चर्ख़ का क्यों गिला करें,
सारा जहाँ अदू सही, आओ मुकाबला करें।
कोई दम का मेहमाँ हूँ ऐ अहले-महफ़िल,
चराग़े-सहर हूँ बुझा चाहता हूँ।
हवा में रहेगी मेरे ख्याल की बिजली,
ये मुश्ते-ख़ाक है फानी, रहे रहे न रहे।
अच्छा रुख़सत। खुश रहो अहले-वतन; हम तो सफ़र करते हैं। हिम्मत से रहना। नमस्ते।
तुम्हारा भाई,
भगतसिंह

भगतसिंह (1929)
भगत सिंह का पत्र सुखदेव के नाम

भगत सिंह लाहौर के नेशनल कॉलेज के छात्र थे। एक सुंदर-सी लड़की आते जाते उन्हें देखकर मुस्कुरा देती थी और सिर्फ भगत सिंह की वजह से वह भी क्रांतिकारी दल के करीब आ गयी। जब असेंबली में बम फेंकने की योजना बन रही थी तो भगत सिंह को दल की जरूरत बताकर साथियों ने उन्हें यह जिम्मेदारी सौपने से इंकार कर दिया। भगत सिंह के अंतरंग मित्र सुखदेव ने उन्हें ताना मारा कि तुम मरने से डरते हो और ऐसा उस लड़की की वजह से है। इस आरोप से भगत सिंह का हृदय रो उठा और उन्होंने दोबारा दल की मीटिंग बुलाई और असेंबली में बम फेंकने का जिम्मा जोर देकर अपने नाम करवाया। आठ अप्रैल, 1929 को असेंबली में बम फेंकने से पहले सम्भवतः 5 अप्रैल को दिल्ली के सीताराम बाजार के घर में उन्होंने सुखदेव को यह पत्र लिखा था जिसे शिव वर्मा ने उन तक पहुँचाया। यह 13 अप्रैल को सुखदेव के गिरफ़्तारी के वक्त उनके पास से बरामद किया गया और लाहौर षड्यंत्र केस में सबूत के तौर पर पेश किया गया।
प्रिय भाई,
जैसे ही यह पत्र तुम्हे मिलेगा, मैं जा चुका होगा-दूर एक मंजिल की तरफ। मैं तुम्हें विश्वास दिलाना चाहता हूं कि आज बहुत खुश हूं। हमेशा से ज्यादा। मैं यात्रा के लिए तैयार हूं, अनेक-अनेक मधुर स्मृतियों के होते और अपने जीवन की सब खुशियों के होते भी, एक बात जो मेरे मन में चुभ रही थी कि मेरे भाई, मेरे अपने भाई ने मुझे गलत समझा और मुझ पर बहुत ही गंभीर आरोप लगाए- कमजोरी का। आज मैं पूरी तरह संतुष्ट हूं। पहले से कहीं अधिक। आज मैं महसूस करता हूं कि वह बात कुछ भी नहीं थी, एक गलतफहमी थी। मेरे खुले व्यवहार को मेरा बातूनीपन समझा गया और मेरी आत्मस्वीकृति को मेरी कमजोरी। मैं कमजोर नहीं हूं। अपनों में से किसी से भी कमजोर नहीं।
भाई! मैं साफ दिल से विदा होऊंगा। क्या तुम भी साफ होगे? यह तुम्हारी बड़ी दयालुता होगी, लेकिन ख्याल रखना कि तुम्हें जल्दबाजी में कोई कदम नहीं उठाना चाहिए। गंभीरता और शांति से तुम्हें काम को आगे बढ़ाना है, जल्दबाजी में मौका पा लेने का प्रयत्न न करना। जनता के प्रति तुम्हारा कुछ कर्तव्य है, उसे निभाते हुए काम को निरंतर सावधानी से करते रहना।
सलाह के तौर पर मैं कहना चाहूँगा की शास्त्री मुझे पहले से ज्यादा अच्छे लग रहे हैं। मैं उन्हें मैदान में लाने की कोशिश करूँगा,बशर्ते की वे स्वेच्छा से, और साफ़ साफ़ बात यह है की निश्चित रूप से, एक अँधेरे भविष्य के प्रति समर्पित होने को तैयार हों। उन्हें दूसरे लोगों के साथ मिलने दो और उनके हाव-भाव का अध्यन्न होने दो। यदि वे ठीक भावना से अपना काम करेंगे तो उपयोगी और बहुत मूल्यवान सिद्ध होंगे। लेकिन जल्दी न करना। तुम स्वयं अच्छे निर्णायक होगे। जैसी सुविधा हो, वैसी व्यवस्था करना। आओ भाई, अब हम बहुत खुश हो लें।
खुशी के वातावरण में मैं कह सकता हूं कि जिस प्रश्न पर हमारी बहस है, उसमें अपना पक्ष लिए बिना नहीं रह सकता। मैं पूरे जोर से कहता हूं कि मैं आशाओं और आकांक्षाओं से भरपूर हूं और जीवन की आनंदमयी रंगीनियों ओत-प्रोत हूं, पर आवश्यकता के वक्त सब कुछ कुर्बान कर सकता हूं और यही वास्तविक बलिदान है। ये चीजें कभी मनुष्य के रास्ते में रुकावट नहीं बन सकतीं, बशर्ते कि वह मनुष्य हो। निकट भविष्य में ही तुम्हें प्रत्यक्ष प्रमाण मिल जाएगा।
किसी व्यक्ति के चरित्र के बारे में बातचीत करते हुए एक बात सोचनी चाहिए कि क्या प्यार कभी किसी मनुष्य के लिए सहायक सिद्ध हुआ है? मैं आज इस प्रश्न का उत्तर देता हूँ – हाँ, यह मेजिनी था। तुमने अवश्य ही पढ़ा होगा की अपनी पहली विद्रोही असफलता, मन को कुचल डालने वाली हार, मरे हुए साथियों की याद वह बर्दाश्त नहीं कर सकता था। वह पागल हो जाता या आत्महत्या कर लेता, लेकिन अपनी प्रेमिका के एक ही पत्र से वह, यही नहीं कि किसी एक से मजबूत हो गया, बल्कि सबसे अधिक मजबूत हो गया।
जहां तक प्यार के नैतिक स्तर का संबंध है, मैं यह कह सकता हूं कि यह अपने में कुछ नहीं है, सिवाए एक आवेग के, लेकिन यह पाशविक वृत्ति नहीं, एक मानवीय अत्यंत मधुर भावना है। प्यार अपने आप में कभी भी पाशविक वृत्ति नहीं है। प्यार तो हमेशा मनुष्य के चरित्र को ऊपर उठाता है। सच्चा प्यार कभी भी गढ़ा नहीं जा सकता। वह अपने ही मार्ग से आता है, लेकिन कोई नहीं कह सकता कि कब?
हाँ, मैं यह कह सकता हूँ कि एक युवक और एक युवती आपस में प्यार कर सकते हैं और वे अपने प्यार के सहारे अपने आवेगों से ऊपर उठ सकते हैं, अपनी पवित्रता बनाये रख सकते हैं। मैं यहाँ एक बात साफ़ कर देना चाहता हूँ की जब मैंने कहा था की प्यार इंसानी कमजोरी है, तो यह एक साधारण आदमी के लिए नहीं कहा था, जिस स्तर पर कि आम आदमी होते हैं। वह एक अत्यंत आदर्श स्थिति है, जहाँ मनुष्य प्यार-घृणा आदि के आवेगों पर काबू पा लेगा, जब मनुष्य अपने कार्यों का आधार आत्मा के निर्देश को बना लेगा, लेकिन आधुनिक समय में यह कोई बुराई नहीं है, बल्कि मनुष्य के लिए अच्छा और लाभदायक है। मैंने एक आदमी के एक आदमी से प्यार की निंदा की है, पर वह भी एक आदर्श स्तर पर। इसके होते हुए भी मनुष्य में प्यार की गहरी भावना होनी चाहिए, जिसे की वह एक ही आदमी में सिमित न कर दे बल्कि विश्वमय रखे।
मैं सोचता हूँ,मैंने अपनी स्थिति अब स्पष्ट कर दी है.एक बात मैं तुम्हे बताना चाहता हूँ की क्रांतिकारी विचारों के होते हुए हम नैतिकता के सम्बन्ध में आर्यसमाजी ढंग की कट्टर धारणा नहीं अपना सकते। हम बढ़-चढ़ कर बात कर सकते हैं और इसे आसानी से छिपा सकते हैं, पर असल जिंदगी में हम झट थर-थर कांपना शुरू कर देते हैं।
मैं तुम्हे कहूँगा की यह छोड़ दो। क्या मैं अपने मन में बिना किसी गलत अंदाज के गहरी नम्रता के साथ निवेदन कर सकता हूँ की तुममे जो अति आदर्शवाद है, उसे जरा कम कर दो। और उनकी तरह से तीखे न रहो, जो पीछे रहेंगे और मेरे जैसी बिमारी का शिकार होंगे। उनकी भर्त्सना कर उनके दुखों-तकलीफों को न बढ़ाना। उन्हें तुम्हारी सहानभूति की आवशयकता है।
क्या मैं यह आशा कर सकता हूं कि किसी खास व्यक्ति से द्वेष रखे बिना तुम उनके साथ हमदर्दी करोगे, जिन्हें इसकी सबसे अधिक जरूरत है? लेकिन तुम तब तक इन बातों को नहीं समझ सकते जब तक तुम स्वयं उस चीज का शिकार न बनो। मैं यह सब क्यों लिख रहा हूं? मैं बिल्कुल स्पष्ट होना चाहता था। मैंने अपना दिल साफ कर दिया है।
तुम्हारी हर सफलता और प्रसन्न जीवन की कामना सहित,
तुम्हारा भाई
भगत सिंह

शुक्रवार, 26 सितंबर 2014

MY CHILDREN STORY IN NANDAN, OCTOBER-14 with review by shri Manohar Manu Chamoli जाम में फंसा जन्‍मदिन


NANDAN OCTOBER-14

पंकज चतुर्वेदी जी की कहानी 'जाम में फंसा जन्मदिन' यथार्थपरक,नए भाव,बोध की कहानी

मनोहर मनु 'चमोली'
आज जब भी बालसाहित्य पर बात होती है तो अमूमन यह सुनने-कहने को मिल जाता है कि इक्कीसवीं सदी के इस युग में भी अधिकतर बालसाहित्यकारों का साहित्य पशु-पक्षी आधारित केन्द्रित कथावस्तु एवं पात्रों से बाहर नहीं निकल पाया है। यह बात कुछ हद तक सही भी है। यह कहना समीचीन होगा कि कई बार यह जरूरी हो जाता है कि हम ऐसा करें, लेकिन हर कथा यदि पशु-पक्षी आधारित हो और हम पशु-पक्षियों को केंद्र में रखकर उनसे वैसा सब कुछ करवा लें जो उनके जगत में असंभव नहीं नामुमकीन हो,तब यह बच्चों के साथ घोर अन्याय है। इस पर भी बालसाहित्यकारों का तुर्रा यह कि काल्पनिकता,इमेजिनेशन और फंतासी भी तो कोई चीज़ है। इस पर व्यापक बहस होती रही है।

यहां चर्चा का विषय उपरोक्त नहीं है। चर्चा की जानी है आज के युग में नए भाव,बोध और यथार्थपरक कथावस्तु की। कारण? कारण साफ है। आज के डेढ़ साल के बच्चे की एक दिन की ही गतिविधि को करीब से देखते हैं तो पाते हैं कि उसे भले ही अबोध मान लिया जाता है, लेकिन वह बड़ों की देखा-देखी रिमोट,मोबाइल,गैस लाईटर, गरम स्त्री, आईसक्रीम,आचार,करेला आदि को उनके कार्यव्यवहार,स्वादानुसार भले से समझता है। संकेतों से अपनी खुशी-नाराज़गी जाहिर कर लेता है। तब भला क्यों न बालसाहित्य में बच्चों को यथार्थपरक और आज के बच्चों के जीवन से जुड़ी कहानियां पढ़ने को न मिलें? पढ़ने से पहले वह लिखी जानी चाहिए। वह लिखी तब जाएंगी, जब आज बालसाहित्यकार यह स्वीकार कर लें कि अब हमें पशु-पक्षी का सहारा जब तक बेहद जरूरी न हो, न लें और सीधे कहानी कहें। यह आज की मांग भी है।

आज के बच्चों के पास मनोरंजन के व सूचना-ज्ञान के दर्जनों साधन है। तब बालसाहित्य कोरा न हो। पत्रकार,अनुवादक,कथाकार,स्तंभकार और सामाजिक एक्टीविस्ट पंकज चतुर्वेदी जी की कहानी जाम में फंसा जन्मदिन ऐसी ही कहानी है। यह कहानी चैदह से सोलह साल के बच्चों के आप-पास घूमती है। कथावस्तु पर बात करना इसलिए निरर्थक होगा क्योंकि मेरे मन की बात के बाद कहानी साथ में दी जा रही है।देशकाल और वातावरण बच्चों को सहज,सरल और स्वाभाविक लगेगा। महानगरों के साथ-साथ सुदूर ग्रामीण हलकों के बच्चों को भी इसे पढ़ने में आनंद आएगा। वह बेहद सजगता के साथ और रोचकता के साथ अपनी कल्पना से महानगरों के आम दैनिक जीवन की कल्पना करते हुए रमन और उसके साथियों के दैनिक जीवन का अनुमान लगा सकंेगे।

यह कहना जरूरी है ही नहीं कि यह कहानी आज के समय की है। कहानी प्रारंभ से ही एक प्रवाह के साथ, गति के साथ आगे बढ़ती है। पात्र सहजता से आते रहते हैं। पात्रों का रेखाचित्र अनायास पाठक बना लेता है। संवाद सरल है। कहीं भी हड़बड़ाहट नहीं है। छोटे-छोटे वाक्यों के साथ कहानी कहन के साथ आगे बढ़ती है। पात्रों में रमन केंद्रीय भूमिका के साथ प्रारंभ से ही स्थापित हो जाता है। उसके भीतर भी लड़कपन साफ झलकता है लेकिन अंत में वह एक जिम्मेदारी केेेे तहत सब कुछ स्वीकार कर लेता है। यदि वह चाहता तो चुप रह सकता था। वह बीती शाम की घटना का उल्लेख भी न करता।

यहां बड़ी सरलता के साथ और ऐसा होता ही है बच्चे भी पूरी सच्चाई व ईमानदारी के साथ गलतियां स्वीकार करते है। रमन के पिता भी उसे समझते हैं और एक जिम्मेदार पिता की तरह उन्हें जो करना चाहिए था, वह करते हैं। अलबत्ता प्रारंभ से ही कहानी एक मकसद के साथ आगे बढ़ती है और बड़ी तीव्रता के साथ समाप्त हो जाती है। यूं तो यह भी कहा जा सकता है कि बेकार में ही विस्तार देने की आवश्यकता नहीं है। सब कुछ सही ढंग से निपट जाता है। लेकिन केवल रमन का व्यवहार चालक और परिचालक के साथ असामान्य नहीं था। कई बच्चे थे, जो बिना टिकट कई दिनों से बस का सफर कर रहे थे। हालांकि चाबी रमन ने निकाली थी और जन्मदिन उसका ही प्रभावित हुआ था। किंतु जाम में जैसा की कथा में आया भी है कईयों को परेशानी हुई भी। दो-तीन पंक्तियों में यह भी उल्लेख हो जाता कि रमन यह वाकया अपने सहपाठियों से जरूर बताता है। सभी इस बात को स्वीकार कर लेते हैं कि बहुत गलत हुआ और बहुत कुछ और गलत और भी हो सकता था।

पत्र-पत्रिकाओं में कहानी आजकल पेज के हिसाब से तय होती है,या यूं कहूं संपादित भी हो जाती है। या लिखी भी जाती है। लेकिन  यह जरूरी भी नहीं कि कहानी में आदर्श स्थिति में लाकर अंत किया जाए। पंकज जी ने अंत के पहरे में सब कुछ शामिल करते हुए कहानी को कमजोर होने से बचाया है। कैलाश भी पात्र के तौर पर आया तो लेकिन फिर उसकी जरूरत आगे नहीं बनती दिखाई दी। संवाद बनावटी कहीं भी नहीं बने हैं। पंकज जी की यह कहानी अक्तूबर माह 2014 के नंदन में भी पढ़ी जा सकती है।

कहानी परोक्ष रूप से पाठकों के मन में यह बात गहरे से बिठाती है कि कभी-कभी यूं ही या बगैर सोचे-विचारे हम ऐसा कुछ कर देते हैं कि उससे मामला बेहद बिगड़ जाता है। मैं आज भी उस दिन को याद करता हूं जिस दिन दिल्ली में ग्रिड फेल हो गया था। दिल्ली सुना है उस रात थम गई थी। दिल्ली का थमना किसी दिल का दौरा पड़ने से कम नहीं है। कुल मिलाकर मुझे यह कहानी बेहद पसंद आई। मैंने इसे दो बार पढ़ा है।

यदि बार-बार पढूंगा तो कई आयाम और दिखाई देंगे। कथाकार को अच्छी कहानी कहने के लिए क्या आप भी मेरी तरह बधाई नहीं देना चाहेंगे? चलिए पहले कहानी पढि़ए ओर फिर बधाई उन तक पहुंचेगी, यदि यहां कमेंट देंगे।   _____________________________________________________________________


   'जाम में फंसा जन्मदिन'

 *पंकज चतुर्वेदी 
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उस दिन पहली बार चस्का लगा, जब कैलाश ने बोला,‘‘अरे बस में चलते हैं, हम लोग स्कूल में पढ़ने वाले हैं। छात्रों के पैसे थोडे ही लगते हैं।’’

रमन का घर स्कूल से ज्यादा दूर नहीं था। बामुश्किल डेढ़ किलोमीटर। सुबह तो पापा आफिस जाते हुए स्कूटर से छोड़ देते, शाम को रमन पैदल आ जाता। रमन कक्षा नौ में है तो कैलाश ग्यारह में। रहते पास-पास में ही हैं, सो कई बार स्कूल की छुट्टी में साथ हो जाते। हालांकि कैलाश के अपने दोस्त बहुत से हैं , इस लिए बड़े बच्चों के बीच रमन को कुछ अटपटा लगता। उस दिन चार-पांच बच्चे स्कूल से निकले कि हल्की सी बूंदाबांदी होने लगी। तभी हरी वाली लो फ्लोर बस आती दिखी। कैलाश ने हाथ दिया और ड्रायवर को भी शायद भीगते बच्चों पर दया आ गई और उसने बस रोक दी।

कैलाश अपने सभी दोस्तों के साथ बस में चढ़ गया,उसमें रमन भी था। कंडटर ने टिकट की कही तो सब बच्चे एक हो गए, ‘‘अरे स्टुडेंट का कहीं टिकट लगता है? हम तो फ्री ही चलते हैं।’’ कंडक्टर भी बाहर बारिश देख रहा था, उसने बच्चों को चेतावनी दे कर छोड दिया,‘‘ देखों, बच्चों, हमारे पास ऐसा कोई आदेश नहीं है कि छात्रों से टिकट ना लिया जाए। किसी दिन फ्लाईंग स्क्वाड वाले मिल गए तो मेरी भी नौकरी खतरे में आ जाएगी।’’ अगले दिन तो बस में चढ़ने वाले बच्चो की संख्या भी बढ़ गई। आज 20 बच्चे बस में घुस गए। जब इतने बच्चे होंगे तो थोडी सी शैतानियां भी होंगी। उनकी हरकतों से ड्रायवर भी परेशान था, क्यों कि भी कोई बच्चा दरवाजे पर लटक जाता तो कोई खिडकी से झूलने लगता। भीतर बैठी सवारियों को भी चढ़ने-उतरने में दिक्कत हो रही थी।

ड्रायवर और कंडक्टर पहले प्रेम से समझाते रहे, फिर डांटा भी लेकिन उन सभी को तो बदमाशियों करने में मजा आ रहा था।  दो दिन से रमन कुछ जल्दी घर पहुंच रहा था। मां ने पूछ ही लिया, ‘‘ क्या स्कूल से जल्दी भाग कर आ रहे हो?’’ ‘‘नहीं मां, हम तो अब बस से आने लगे हैं ना। दो मिनट में  अगले दिन बस के ड्रायवर ने स्कूल की छुट्टी का समय आड़ लिया व वह हर दिन की तुलना में कुछ देर से निकला। लेकिन यह क्या बच्चों की मंडली सड़क पर ही खड़ी थी। बस स्टैंड पर दो सवारी को उतरना था और कुछ को चढ़ना भी था, बस रोकनी पड़ी। बच्चे फिर से भीतर घुस गए और हर रोज की तरह हंगामा होता रहा।  ड्रायवर के चिल्लाने या कंडक्टर के नाराज होने की उन्हें परवाह ही नहीं थी। वे तो उसका और मजा ले रहे थे। यह हर रोज का तमाशा हो गया था। उस दिन रमन का जन्मदिन था। शाम को घर पर एक पार्टी भी थी।  रमन आज स्कूल की वर्दी में नहीं था। नए कपड़े थे। उसने अपने सभी दोस्तो को भी टाॅफी बांटी। कुछ बच्चों को घर भी बुलाया।

स्कूल की छुट्टी हुई व बच्चा-पार्टी सड़क पर आ गई। आज तो उनका लीडर कैलाश आया नहीं था। बच्चों ने उत्साह में भरे रमन को ही आगे कर दिया। दूर से बस आती दिखी। आज इस स्टाप पर  कोई चढ़ने वाली सवारी थी नहीं, बस उतरने वाली ही थीं।  ड्रायवर ने कुछ आगे बस बढ़ा दी। लेकिन बच्चे तो दौड़ पड़े। जैसे ही दरवाजा खुला कुछ भीतर घुस गए। बस में भीड़ भी बहुत थी, सो कई बच्चे दरवाजे पर ही लटक गए। अब बस रफ्तार से चल ही नहीं पा रही थी। असल में इन नई बसों में जब तक दरवाजा बंद नहीं होता है, बस ठीक से काम नहीं करती है।  बस जैसे ही फ्लाई ओवर पर पहुंची, उसका रैंगना भी बंद हो गया। अब ड्रायवर और कंडक्टर को गुस्सा आ गया। वे बस से नीचे उतर गए। कुछ सवारियां भी उनके साथ थीं। जम कर झिक-झिक हो रही थी और बच्चे थे कि इस पर भी मजाक उड़ा रहे थे।  कंडक्टर और सवारियों  ने एक-एक बच्चें को हाथ पकड़ कर नीचे उतारना शुरू कर दिया।  बात बिगउ़ती देख रमन को एक खुराफात सूझी। वह दौड़ कर गया और बस के ड्रायवर की सीट के पास पहुंचा। उसने धीरे से बस की चाबी निकाली और बच्चों के पास आ कर बोला,  ‘‘ चलो-चलो हम पैदल ही चलते हैं। देखना थोड़ी देर मे ंयह हमारे हाथ-पैर जोडेंगे।’’

बच्चों की पार्टी भी रमन के पीछे हो ली। बच्चे दौड़ते हुए गायब हो गए और उधर जब ड्रायवर अपनी सीट के पास पहुंचा तो चाबी ना पा कर परेशान हो गया। पहले तो उसने अपनी ही जेब में देखी, फिर आगे-पीछे देखी। बड़ा परेशान कि बगैर चाबी के बस कैसे चले। बस जिस डिपों की थी वह यहां से 20 किलोमीटर दूर ।  वहां फोन तो कर दिया, लेकिन दूसरी चाबी आने में भी घंटों लगने थे।  वैसे भी इस हंगामें में एक घंटा हो गया था और फ्लाई ओवर के बीचों-बीच बस के खड़े हो जाने से सड़क पर जाम बढ़ता जा रहा था। शाम के पांच बज रहे थे और अब दफ्तरों की छुट्टी का भी समय हो गया था। देखते ही देखते जाम कई किलोमीटर का हो गया।

कुछ लोग विपरीत दिशा से अपने वाहन निकालना चाहते थे और इससे हालत और बिगड़ गए। यहां तक कि बस को खींच कर ले जाने के लिए क्रैन या डुप्लीकेट चाबी ले कर आपे वालों के लिए भी रास्ता नहीं बच रहा था। इस शहर का मिजाज ही कुछ ऐसा है कि यदि एक सड़क पर जाम लग जाए तो कुछ ही देर में आधे शहर की सड़कों पर वाहन ठिठक जाते हैं। इधर रमन ने अपने कमरे में स्टीरियो लगा दिया और बढि़या डांस वाले गाने बजने लगे। उसे इंतजार था अपने पापा का क्योंकि वह उसके लिए कैक ले कर आने वाले थे।

उसे इंतजार था अपनी बड़ी दीदी का जिन्होंने वादा किया था कि अपने आफिस की छुट्टी के बाद वे उसके लिए तोहफे में साईकिल ले कर आएंगी। दोस्तों का ंइतजार तो था ही। आसपास के दो तीन बच्चे तो आ गए, लेकिन दूर से आने वाले कोई भी नहीं आए।  रात के आठ बज गए ना तो दीदी आए ना ही पापा और ना ही दोस्त। ‘‘ पापा, कहां रह गए? मेरा कैक भी नहीं आया ?’’ रमन ने पापा को फोन किया। ‘‘अरे तुम्हे केक की पड़ी है, यहां मैं सड़क पर तीन घंट से अटका हूं। गाड़ी का पेट्रोल खतम हो रहा है। कार का एसी बंद करना पड़ा है। पता नहीं तुम्हारा केक घर पहुंचते-पहुंचते ठीक रह पाएगा या नहीं।’’

बेहद शोर के बीच पापा ने खीजते हुए कहा। दीदी को फोन किया तो वे तो रूआंसी थीं, ‘‘तीन घंटे हो गए हें आफिस से निकले हुए। दो किलोमीटर भी नहीं बढ़ पाई हूं। अब तो लगता नहीं कि साईकिल वाले की दुकान भी खुली होगी। ’’ केक था नहीं, दोस्त आए नहीं, दीदी-पापा भी नहीं। हताश रमन ने अपने नए कपड़े उतारे, घर के कपउ़े पहने और सुबकते हुए अपने बिस्तर पर लेट गया। ऐसे जन्मदिन की उसने कल्पना भी नहीं की थी- ना दोस्त,पार्टी, यहां तक कि रात में खाना भी नहीं खाया। पता नहीं पापा और दीदी कितनी बजे रात में घर आ पाए। अगले दिन  रविवार था। ना उसे स्कूल जाना था और नाही पापा को आफिस। जब वह सो कर उठा तो देखा पापा आंगन में बैठे अखबार पढ़ रहे हैं।

उन्होंनें बताया कि एक बस के फ्लाई ओवर पर बंद हो जाने के कारण इतना जाम हुआ था।  ‘‘ बताओं ड्राईवर ने बस की चाबी गुम दी। एक बस के कारण कितने लोग बेबस थे ? पता नहीं कोई अस्पताल जाने से रह गया हो तो किसी की ट्रेन-बस छूट गई होगी। ऐसे लापरवाह ड्राईवर को तो नौकरी से निकाल देना चाहिए। हम हमारे बच्चे का जन्मदिन भी नहीं मना पाए।’’ अब रमन को समझ में आ रहा था कि कल जो उसके जन्मदिन का मजा खराब हुआ, उसका दोषी वह खुद ही है। कल रात का दुख उभर कर सामने आ गया।

‘‘ नहीं पापा, लापरवाही ड्राईवर की नहीं थी.... मेरे साथ कल जो हुआ, उसका जिम्मेदार मैं ही हंू। शहर में भी जो अव्यवस्था हुई, वह भी मेरे कारण हुआ।’’  रमन फूट-फूट कर रोने लगा। पापा ने रमन को चुप करवाया तो रमन ने अपनी पूरी शैतानी बता दी।

पापा ने तकल रमन को अपने साथ लिया और उस बस डिपो में जा पहुंचे, जहां की बस थी। वहां पर उस ड्राईवर को सस्पेंड करने की बात चल रही थी।  रमन की बात सुन कर डिपो मेनेजर ने ड्राईवर को दंड देने का विचार छोड़ दिया।

  ‘‘ यदि बस में सवारी करना है तो टिकट जरूर लें। , कंडक्टर और ड्राईवर की बात मानें। वह आपके ही भले के लिए कहते है।’’ डिपों मेनेजर ने समझाया।

पापा ने भी साफ कह दिया कि यदि बस से घर आना है तो घर से पैसे ले कर जाना और घर आ कर टिकट दिखाना।

गुरुवार, 25 सितंबर 2014

CONNECT RIVERS WITH TRADITIONAL WATER TANKS IN BUNDELKHAND

INEXT INDORE 25-9-14
तो नदियों को जेाड़ो तालाबों से
दो खबरें- देश की पहली नदी जोड़ योजना बुंदेलखंड में ही होगी, यहां केन और बेतवा को जोड़ा जाएगा। इस पर 10 हजार करोड़ का खर्चा अनुमानित है। दूसरी खबर - बुंदेलखंड के टीकमगढ़ जिले में बराना के चंदेलकालीन तालाब को जामनी नदी से नहर द्वारा जोड़ा जाएगा। इस पर 15 करोड़ रूपए खर्च होंगे और 18 गांव के किसान इससे लाभान्वित होंगे।  यह किसी से छिपा नहीं हैं कि देश की सभी बड़ी परियोजनाएं कभी भी समय पर पूरी होती नहीं हैं, उनकी लागत बढती जाती है और जब तक वे पूरी होती है, उनका लाभ, व्यय की तुलना में गौण हो जाता है। यह भी तथ्य है कि तालाबों को बचाना, उनको पुनर्जीवित करना अब अनिवार्य हो गया है और यह कार्य बेहद कम लागत का है और इसके लाभ अफरात हैं।
देष की सूखी नदियों को सदानीरा नदियों से जोड़ने की बात लगभग आजादी के समय से ही षुरू हो गई थी । प्रख्यात वैज्ञानिक-इंजीनियर सर विश्‍वैसरैया ने इस पर बाकायदा शोध पत्र प्रस्तुत किया था । पर्यावरण को नुकसान, बेहद खर्चीली और अपेक्षित नतीजे ना मिलने के डर से ऐसी परियोजनाओं पर क्रियान्वयन नहीं हो पाया । जब देष में विकास के आंकड़ों का आकलन सीमेंट-लोहे की खपत और उत्पादन से आंकने का दौर आया तो अरबों-खरबों की परियोजनाओं के झिलमिलाते सपने दिखाने में सरकारें होड़ करने लगीं ।  केन-बेतवा नदी को जोड़ने की परियोजना को फौरी तौर पर देखें तो स्पश्ट हो जाता है कि इसकी लागत, समय और नुकसान की तुलना में इसके फायदे नगण्य ही हैं । विडंबना है कि उत्तर प्रदेष को इस योजना में बड़ी हानि उठानी पड़ेगी तो भी राजनैतिक शोशेबाजी के लिए वहां की सरकार इस आत्महत्या को अपनी उपलब्धि बताने से नहीं चूक रही है ।
‘‘नदियों का पानी समुद्र में ना जाए, बारिश  में लबालब होती नदियां गांवों -खेतों में घुसने के बनिस्पत ऐसे स्थानों की ओर मोड़ दी जाए जहां इसे बहाव मिले तथा समय- जरूरत पर इसके पानी को इस्तेमाल किया जा सके ’’ - इस मूल भावना को ले कर नदियों को जोड़ने के पक्ष में तर्क दिए जाते रहे हैं । लेकिन यह विडंबना है कि केन-बेतवा के मामले में तो ‘‘ नंगा नहाए निचोडै़ क्या’ की लोकोक्ति सटीक बैठती है । केन और बेतवा दोनों का ही उदगम स्थल मध्यप्रदेष में है । दोनो नदियां लगभग समानांतर एक ही इलाके से गुजरती हुई उत्तर प्रदेश में जा कर यमुना में मिल जाती हैं । जाहिर है कि जब केन के जल ग्रहण क्षेत्र में अल्प वर्शा या सूखे का प्रकोप होगा तो बेतवा की हालत भी ऐसी ही होगी । वैसे भी केन का इलाका पानी के भयंकर संकट से जूझ रहा है । सरकारी दस्तावजे दावा करते हैं कि केन में पानी का अफरात है । जबकि हकीकत इससे बेहद परे है ।
सन 1990 में केंद्र की एनडीए सरकार ने नदियों के जोड़ के लिए एक अध्ययन शुरू करवाया था और इसके लिए केन बेतवा को चुना गया था। सन 2007 में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने इस परियोजना में पन्ना नेशनल पार्क के हिस्से को षामिल करने पर आपत्ति जताई। हालांकि इसमें कई और पर्यावरणीय संकट हैं लेकिन सन 2010 जाते-जाते सरकार में बैठे लोगों ने प्यासे बुंदेलखंड को एक चुनौतीपूर्ण प्रयोग के लिए चुन ही लिया। अब देखा जा सकता है कि केन-बेतवा के जोड़ की येाजना को सिद्धांतया मंजूर होनें में ही 24 साल लग गए। उल्लेखनीय है कि राजघाट परियोजना का काम जापान सरकार से प्राप्त कर्जे से अभी भी चल रहा है,  इसके बांध की लागत 330 करेाड से अधिक तथा बिजली घर की लागत लगभग 140 करोड़ है  । राजघाट  से इस समय 953 लाख यूनिट बिजली भी मिल रही है । यह बात भारत सरकार स्वीकार कर रही है कि नदियों के जोड़ने पर यह पांच सौ करोड बेकार हो जाएगा ।
टीकमगढ़ जिले में अभी चार दशक पहले तक हजार तालाब हुआ करते थे। यहां का कोई गांव ऐसा नहीं था जहां कम से कम एक बड़ा सा सरोवर नहीं था, जो वहां की प्यास, सिंचाई सभी जरूरतें पूरी करता था। आधुनिकता की आंधी में एक चैाथाई तालाब चैारस हो गए और जो बचे तो वे रखरखाव के अभाव में बेकार हो गए। आज टीकमगढ़ जिले की 20 प्रतिषत से ज्यादा आबादी पानी के अभाव में गांवों से पलायन कर चुकी है।  वैसे तो जामनी नदी बेतवा की सहयक नदी है और यह सागर जिले से निकल कर कोई 201 किलोमीटर का सफर तय कर टीकमगढ जिले में ओरछा में बेतवा से मिलती हे। आमतौर पर इसमें सालभर पानी रहता है, लेकिन बारिष में यह ज्यादा उफनती है। बम्होरी बराना के चंदेलकालीन तालाब को नदी के हरपुरा बांध के पास से एक नहर द्वारा जोड़ने से तालाब में सालभर लबालब पानी रहेगा। इससे 18 गावों के 708 हैक्टर खेत सींचे जाएंगें। यही नहीं नहर के किनारे कोई 100 कुंए बनाने की भी बात है, जिससे इलाके का भूगर्भ स्तर बना रहेगा। अब इस येाजना पर व्यय है महज 15 करोड़ , इससे जंगल, जमीन को नुकसान कुछ नहीं है, विस्थापन एक व्यक्ति का भी नहीं है। इसको पूरा करने में एक साल से कम समय लगेगा। इसके विपरीत नदी जोड़ने में हजारों लोगों का विस्थापन, घने जंगलों व सिंचित खेतों का व्यापक नुकसान, साथ ही कम से कम से 10 साल का काल लग रहा है।
समूचे बंुदेलखंड में पारंपरिक तालाबों का जाल हैं। आमतौर पर ये तालाब एकदूसरे से जुड़े हुए भी थे, यानी एक के भरने पर उससे निकले पानी से दूसरा भरेगा, फिर तीसरा। इस तरह बारिष की हर बूंद सहेजी जाती थी। बुंदेलखंड में जामनी की ही तरह केल, जमडार, पहुज, षहजाद, टौंस, गरारा, बघैन,पाईसुमी,धसान, बघैन जैसी आधा सैंकडा नदियां है जो बारिष में तो उफनती है, लेकिन फिर यमुना, बेतवा आदि में मिल कर गुम हो जाती है। यदि छोटी-छोटी नहरों से इन तालाबों को जोड़ा जाए तो तालबा आबाद हो जाएगे। इससे पानी के अलावा मछली, सिंघाड़ा कमल गट्टा मिलेगा। इसकी गाद से बेहतरीन खाद मिलेगी। केन-बेतवा जोड़ का दस फीसदी यानी एक हजार करोड़ ही ऐसी योजनाओं पर ईमानदारी से खर्च हो जाए तो 20 हजार हैक्टर खेत की सिंचाई व भूजल का स्तर बनाए रखना बहुत ही सरल होगा।
सन 1944 के अकाल आयोग की रपट हो या उसके बाद के कई शाेध, यह बात सब जानते हैं कि जिन इलाकों में लगातार अल्प वर्शा होती है, वहां तालाब सबसे ज्यादा कारगर होते हैं। बंुदेलखंड पांच साल में दो बार सूखे के लिए अभिषप्त है, लेकिन इस पर पारंपरिक तालाबों की दुआ भी है। काष कोई नदी जोडने के बनिस्पत तालाबों को छोटी नदियों से जोड़ने की व्यापक योजना पर विचार करता।


सोमवार, 22 सितंबर 2014

DISASTER MANAGEMENT NEEDS TO TRAINING OF EVERY CITIZEN

आपदा प्रबंधन की खामियां


मुद्दा
RASHTRIY SAHARA 23-9-14 http://www.rashtriyasahara.com/epapermain.aspx?queryed=9
पंकज चतुव्रेदी
कश्मीर में आई अभूतपूर्व बाढ़ के दौरान तब तक अफरा-तफरी मची रही जब तक फौज व केंद्रीय अर्धसैनिक बलों ने राहत कार्य का जिम्मा नहीं ले लिया। आपदा प्रबंधन व स्थानीय शासन-प्रशासन तो असहाय से हो गए थे। देश में कही भी बाढ़, भूकंप, आगजनी या बोरवेल में बच्चा गिरने जैसी घटनाओं से राहत का आखिरी विकल्प फौज बुलाना रह जाता है। शासन- प्रशासन तो नुकसान के बाद बस बयान-बहादुर बन राहत बांटने में जुट जाता है। लेकिन यह सवाल कहीं से नहीं उठता कि आपदा प्रबंधन महकमा क्या कर रहा था। बिहार, असम व कुछ अन्य राज्यों के आधा दर्जन जिलों में हर साल बाढ़ और फिर सूखे की त्रासदी होती है। पानी में फंसे लोगों को निकालना शुरू किया जाता है तो भूख-प्यास सामने खड़ी दिखती है। पानी उतरता है तो बीमारियां चपेट में ले लेती हैं। बीमारियों से जैसे-तैसे जूझते हैं तो पुनर्वास का संकट होता है। कहने को देश में आपदा प्रबंधन महकमा है और भारत सरकार के गृह मंत्रालय के अधीन आपदा प्रबंधन पर एक पोर्टल भी है लेकिन सवा अरब की आबादी वाला देश, जिसका विज्ञान-तकनीक, स्वास्थ्य, शिक्षा और सेना के मामले में दुनिया में नाम है, एक क्षेत्रीय विपदा के सामने असहाय दिखता है। प्रधानमंत्री ने बेशक कश्मीर की आपदा को राष्ट्रीय आपदा घोषित कर दिया हो, लेकिन यहां राहत कार्य वैसे ही चलते दिख रहे हैं, जैसे 50 साल पहले होते थे। इस बार भी देशभर से चंदा और सामान जुटा, मदद के लिए असंख्य हाथ आगे आए, लेकिन उसे जरूरतमंदों तक तत्काल पहुंचाने की कोई सुनियोजित नीति नहीं थी। यह हर हादसे के बाद होता है। कहने को तो सेकेंडरी स्तर के स्कूल और कॉलेज में आपदा प्रबंधन बाकायदा पाठय़क्रम का विषय बना दिया गया है। गुजरात भूकंप के बाद सरकार की नींद खुली थी कि आम लोगों को ऐसी प्राकृतिक विपदाओं से जूझने के लिए प्रशिक्षण देना चाहिए लेकिन उन पुस्तकों का ज्ञान कहीं भी व्यावहारिक होता नहीं दिखता। देश में आपदा प्रबंधन के नाम पर गठित विभागों का मासिक खर्च कोई दो करोड़ है, लेकिन उनके पास वे नक्शे तत्काल उपलब्ध नहीं मिलते कि किस इलाके में पानी भरने पर किस तरह लोगों को जल्द से जल्द निकाला जाए। यहां तक कि नदी तट के किनारे की बस्तियों में बाढ़ की संभावनाओं के मद्देनजर जरूरी नावों तक की व्यवस्था नहीं होती। बिहार गवाह है कि वहां पानी से बच कर भाग रहे लोगों को मझधार में दबंग लूट लेते हैं। बाढ़ से घिरे गांवों के मकान बदमाश खाली कर जाते हैं। चलिए, बाढ़ या तूफान तो अचानक आ जाते हैं लेकिन बुंदेलखंड सहित देश के कई हिस्सों में सूखे की विपदा से हर साल करोड़ों लोग प्रभावित होते हैं। सूखा एक प्राकृतिक आपदा है और इसका अनुमान पहले से हो जाता है, इसके बावजूद आपदा प्रबंधन का महकमा कहीं तैयारी करता नहीं दिखता। भूख और प्यास से बेहाल लाखों लोग घर-गांव छोड़ भाग जाते हैं। जंगल में दुर्लभ जानवर और गांवों में दुधारू पशु बेमौत मरते हैं। इस मामले में हमने अपने अनुभवों से भी नहीं सीखा। कोई पांच साल पहले आंधप्रदेश के तटवर्ती जिलों में आए जल-विप्लव के दौरान वहां प्रशासन ने सबसे पहले और तत्काल जिस राहत सामग्री की व्यवस्था की थी, वह था बोतलबंद सुरक्षित पेयजल व ओरआरएस। कारण बाढ़ग्रस्त क्षेत्र में जल जनित बीमारियों का बहुत खतरा होता है। गुजरात भूकंप का उदाहरण भी सामने है। वहां पुराना मलबा हटाने में भारी मशीनों का उपयोग, बड़े स्तर पर सुरक्षित मकानों का निर्माण और रोजगार के साधन उपलब्ध कराने से जीवन को सामान्य बनाने में तेजी आई थी। लेकिन बिहार व बुंदेलखंड में इन अनुभवों के इस्तेमाल से परहेज किया जाता रहा है। यूनेस्को ने भारत में आपदा प्रबंधन से निबटने व जागरूकता के उद्देश्य से कई पुस्तकों का प्रकाशन किया। यूनेस्को ने दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया में एक कार्यशाला का आयोजन कर बाढ़, सूखे और भूकंप पर ऐसी सामग्री तैयार करवाई जो समाज व सरकार दोनों के लिए मार्गदर्शक हो। तीनों विपदाओं पर एक-एक फोल्डर, संदर्भ पुस्तिका और एक-एक कहानी का सेट रखा गया। यह प्रकाशन जामिया मिल्लिया इस्स्लामिया के स्टेट रिसोर्स सेंटर ने किया है और उम्मीद की जाती है कि इसका वितरण देशभर में हुआ होगा। जाहिर है, इस कवायद में भी लाखों- लाख रपए खर्च हुए होंगे। सवाल यह है कि ऐसे उपाय वास्तविकता के धरातल पर धराशायी क्यों हो जाते हैं!
यह बात पाठ्यक्रम और अन्य सभी पुस्तकों में दर्ज है कि बाढ़ प्रभावित इलाकों में पानी, मोमबत्ती, दियासलाई, पालीथीन शीट, टार्च, सूखा व जल्दी खराब न होने वाला खाने का पर्याप्त स्टाक होना चाहिए। इसके बावजूद विडंबना है कि पूरे देश का सरकारी अमला आपदा के बाद हालात बिगड़ने के बाद ही चेतता है और राहत बांटने को सबसे बड़ी उपलब्धि मानता है। राहत के कार्य सदैव से विवादों और भ्रष्टाचार की कहानी कहते रहे हैं। कई बार तो लगता है, इन आपदाओं में राहत के नाम पर जितने पैसे की घोषणा सरकार करती है, उसस पूरे इलाके का विकास हो सकता है, बशत्रे पैसा सीधे पीड़ित के पास पहुंचे। गौरतलब है कि देश में विभिन्न नदियों में बाढ़ की पूर्व सूचना देने हेतु 166 केंद्र काम कर रहे हैं। लेकिन हमे अब तक पता नहीं है कि वैज्ञानिक चेतावनी के बाद करना क्या चाहिए। इनमें से 134 केंद्रों का काम जल स्तर और 32 की जिम्मेदारी जल के तीव्र प्रवाह की सूचना देना है। यही नहीं, संयुक्त राष्ट्र सहायता कार्यक्रम व यूरोपीय सहायता संगठन की मदद से भारत सरकार 17 राज्यों के बाढ़ प्रभावित 169 जिलों में अक्टूबर 2007 से विशेष आपदा प्रबंधन कार्यक्रम भी चला रही है। समय-समय पर कोसी, गंगा और ब्रह्मपुत्र के रौद्र रूप ने बता दिया है कि सभी कार्यक्रम कितने कारगर रहे हैं। सरकारी रिकॉर्ड पर भरोसा करें तो देश के 3500 गांवों के 8000 जनप्रतिनिधियों को बाढ़ की आपदा से जूझने का प्रशिक्षण भी दिया जा चुका है। विडंबना है कि अब तक हम यह नहीं समझ पाए हैं कि बाढ़ या ऐसी ही विपदा के समय क्या राहत सामग्री भेजी जाए। अक्सर खबरों में रहता है कि अमुक जगह भेजी गई राहत सामग्री लावारिस पड़ी रही। असल में ऐसी सामग्री भेजना व संग्रहण करना इतना महंगा होता है कि उसे न भेजना ही तो बेहतर हो। बाढ़ग्रस्त इलाके में सेनेटरी नेपकिन, मोमबत्ती, फिनाइल, क्लोरीन की गोलियां, पेक्ड पानी आदि की सर्वाधिक जरूरत होती है। देशभर के इंजीनियरों, डाक्टरों, प्रशासनिक अधिकारियों, प्रबंधन गुरुओं और जनप्रतिनिधियों को ऐसी विषम परिस्थितियों से निबटने की हर साल बाकायदा ट्रैनिंग दी जाए। शांति काल में तो फौजी भगवान सिद्ध होते हैं लेकिन खुदा ना खास्ता, सीमा पर तनाव के चलते यदि अधिसंख्य फौज वहां तैनात हो तो क्या हो? ऐसे में होमगार्ड, एनसीसी, एनएसएस व स्वयंसेवी संस्थाओं को दूरगामी योजनाओं पर काम करने के लिए सक्षम बनाना समय की मांग है।
     

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रविवार, 21 सितंबर 2014

Tribute to Pro. Bipan Chandra

एक छात्र कि नज़र में विपिन चंद्र
आलोक वाजपेयी

प्रोफेसर बिपन चन्द्र (1928-2014) भारत के ऐसे इतिहासकार रहे, जिनके नाम से विश्व प्रसिद्ध
इतिहासकार, इतिहास के शोधार्थी, शिक्षित जनमानस एवं स्कूली छात्र तक सभी जानते हैं। सबक े उन्हें
जानने के कारण भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, लेकिन उन सब में एक बात जो काॅमन है, वह यह कि बिपन
चन्द्र आधुनिक भारत के सम्भवतः महानतम इतिहासकार थे, जिनके इतिहास लेखन के माध्यम से तमाम
पीढि़यां भारत के अतीत और वर्तमान के बारे में मुकम्मल तरीके से जान-समझ सकीं।
प्रो0 बिपन चन्द्र (जिन्हें हिन्दी भाषी प्रायः बिपिन चन्द्रा नाम से ज्यादा जानते हैं) म ें आधुनिक भारतीय
इतिहास के तमाम पहलुओं को अपने लेखन का विषय बनाया और एक विशिष्ट ’बिपिन चन्द्रा स्कूल’ के रूप
में स्थापित किया। वो असीमित ऊर्जा सम्पन्न थे, बौद्धिक अभिमान से कोसों दूर थे, अपने छात्रों के साथ
दोस्ताना रिश्ता रखते थे, वाद-विवाद संवाद की श्रेृष्ठतम परम्परा के वाहक थे, जो सच समझते थे, उसे
कहने लिखने से कभी हिचकते न थे, उनके पास उत्कृष्ट इतिहासकारों की फौज भले थी, लेकिन किसी
फौज को बनाने के चक्कर में समझौता परस्त कभी न रहे, इतिहासकारों की भीड़ में अकेला पड़ जाने के
लिए तैयार रहते थे और कभी भी किसी निजी फायदे-नुकसान को ध्यान में रखकर न कभी कुछ लिखा या
सोचा या बोला।
सत्तर के दशक में उनका स्थापित कम्युनिष्ट पार्टियों के साथ बौद्धिक मतभेद बढ़ने लगा। जैसा कि भारत
में कम्युनिष्ट पार्टियों का तौर-तरीका रहा है कि जो भी शख़्स उनकी थोड़ी भी आलोचना करने लगे, उसे
संशोधनवादी या प्रतिक्रांतिकारी साबित किया जाने लगता है। प्रो0 बिपन चन्द्र के साथ भी यही कोशिशें की
गईं। भारतीय कम्युनिष्ट पार्टियों के अग्रणी नेता अजय घोष, पी0 सी0 जोशी, ई0 एम0 एस0 नम्बूदरीपाद,
मोहित सेन, पी0 सुन्दरैय्या जैसों के साथ उनक े निजी रिश्त े थे। जब बिपन को एक भटका हुआ माक्र्सवादी
बताया जाने लगा और मौजूदा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के आदमी होने का इल्जाम तक थोपा गया, तब भी
बिपन हमेशा अपने को एक प्रतिबद्ध माक्र्सवादी इतिहासकार ही कहत े रहे। निजी बातचीत में उन्होंने हमेशा
हंसते हुए कहा कि सब मुझे अब कांग्रेसी बताने लगे हैं, सच तो ये है कि मैं किसी अदने से कांग्रेसी नेता
को व्यक्तिगत जानता तक नहीं, न ही मैंने कभी ऐसी कोशिश की। जात े-जाते मैं साबित कर जाऊंगा कि
मुझे माक्र्सवादी ही मान लिया जाए। आज देश भर में वामपंथी विचारधारा के लोगों में बिपन के न रहने से
जो शोक व्याप्त है और देश के कोने-कोने से शोक सभाएं और श्रृद्धांजलियां वामपंथी लोगा ें द्वारा की जा
रही हैं, उसके बाद शायद यह सवाल न उठाया जाए कि बिपन बाद में कांग्रेसी इतिहासकार हो गए थे।
एक नजर उनकी पथ-प्रदर्शक किताबों पर। साठ के दशक में उ में उनकी पहली किताब आई ’राईज़ एण्ड ग्रोथ
आॅफ इकाॅनाॅमिक नेशनलिज़्म इन माॅडर्न इण्डिया’। किताब की मूल स्थापना यह थी कि भारत में राष्ट्रवाद
का आधार जीवन की आवश्यकताओं से उद्भूत आर्थिक राष्ट्रवाद है और यह आर्थिक राष्ट्रवाद अंगे्रजी
शासन के विरूद्ध लड़ते हुए उपनिवेशवाद-साम्राज्यवाद विरोधी चेतना से बना और मजबूत हुआ है। उनकी
इस स्थापना ने भारतीय राष्ट्रवाद को एक गैर साम्प्रदायिक वैज्ञानिक आधार प्रदान किया, जिससे आज
लगभग सभी इतिहासकार (साम्प्रदायिक सोच रखन े वालों के अलावा) सहमत हैं।
बिपन ने भारत में साम्प्रदायिकता के मुद्दे की गहन विचारधारात्मक ऐतिहासिक पड़ताल की। यह करने वाले
वो पहले थे। ल ेखक त्रयी के साथ उनकी पुस्तिका आई ’कम्युनलिज़्म एण्ड राईटिंग आॅफ इण्डियन हिस्ट्री’।
यह किताब किसी भी पढ़े-लिखे व्यक्ति के लिए जरूरी किताब है। बाद में 1982 में उनकी इसी विषय पर
एक सघन विचारधारात्मक किताब आई- ’कम्युनलिज़्म इन माॅडर्न इण्डिया’। साम्प्रदायिकता जैसे जटिल
विषय पर इतनी वैज्ञानिक तरीके से लिखी गई दूसरी किताब शायद न हो।जजहां एक ओर बिपन ने दुनिया भर के साम्राज्यवादी इतिहासकारों से लोहा लिया और अपनी प्रखर मेघा व
शोध से उन्हें लगभग परास्त ही कर दिया, वहीं दूसरी ओर उनकी नजर भारत की भावी पीढ़ी पर भी थी।
उन्होंने स्कूली बच्चा ें के लिए किताब लिखी-’आधुनिक भारत’। देश का यह सौभाग्य है कि लाखों-करोड़ों
युवाओं ने इस किताब को आधुनिक भारत को समझने की गीता बना लिया। इस लेखक का यह दावा है
कि जिसने भी उनकी यह किताब और बाद के वर्षाें म ें आई ’भारत का स्वतंत्रा संघर्ष’ पढ़ ली, वह कभी भी
साम्प्रदायिक पूर्वाग्रहों व प्रपंचों के चंगुल में नहीं फंस सकता। इसी सन्दर्भ में यह जानना भी महत्वपूर्ण है
कि बिपन ने अपनी इतिहास की समझ केवल चुनिन्दा किताबें या पुस्तकालयों-अभिलेखागारों में बैठ कर ही
नहीं बनाई। अस्सी के दशक में अपने छात्रों-सहयोगियों के साथ टीम बनाकर पूरे देश में घ ूमे, छोटे शहर,
कस्बे और यहां तक की गांवों में भी गए। स्वतंत्रा संग्राम सेनानियों से साक्षात्कार लिए और उन सबकी
समझ को अपनी समझ से मिलाया। यह साक्षात्कार अभी छप नहीं सके हैं, लेकिन जिस दिन दुनिया के
परदे पर भारतीय जनमानस की यह आवाज सामने आएगी, तो लोग और बेहतर समझ सकेंगे कि बिपिन
चन्द्रा होने का क्या मतलब था और है।
देश आजाद होने के बाद जब एक नई पीढ़ी सामने आई, जिसने भारत की आजादी की लड़ाई नहीं देखी
थी और न सुनी थी, तो उसके मन में एक निराशा सी भर गई कि स्वतंत्रयोत्तर भारत की उपलब्धियां शून्य
हैं और देश रसातल में जा रहा है। एक फैशन सा बन गया कि इनसे अच्छे तो अंग्रेज ही थे। एक
जागरूक नागरिक इतिहासकार होने के नाते बिपन ने इस निराशावादी भावना को पहचाना और फिर उनकी
एक किताब आई-’इण्डिया सिन्स इन्डिपेंडेंस’। आजादी के बाद के भारत को जानने-समझने के लिए यह
किताब एक जरूरी पुस्तक है, जिसमें एक ऐतिहासिक नजरिए से आजादी के भारत की मुकम्मल तस्वीर
खींची गई है।
आजाद भारत की एक महत्वपूर्ण परिघटना है, सत्तर के दशक का जे0 पी0 मूवमेण्ट और इंदिरा गांधी द्वारा
इमर्जेंसी लगाया जाना। बिपन ने इस विषय पर एक किताब लिखी-’इन द नेम आॅफ डेमोक्रेसी जे0 पी0
मूवमेण्ट एण्ड इमर्जेंसी’। एक मिथ्या धारणा बिपन के खिलाफ फैलाई गई थी कि वो इंदिरा गांधी के खास
थे और वो इमर्जेंसी के समर्थक थे। शायद अपने खिलाफ इस प्रपंच को खत्म करने के लिए ही उन्होंने यह
पुस्तक लिखी, लेकिन उनका ध्येय ज्यादा बड़ा था। वो लोकतांत्रिक संस्थाओं के क्षरण से चिंतित थे और
जन आंदोलनों के नाम पर जो भीड़बाजी का दौर चल रहा था, उससे व्यथित भी। वो शायद भारत के पहले बुद्धिजीवी थे, जिन्होंने यह पहचान लिया कि जेन्यून जन आंदोलन और जन आंदोलन के नाम पर
हुड़दंग, भीड़बाजी को बढ़ावा देना दोनों अलग-अलग चीजें हैं। उन्हो ंने बहुत पहले ही कह दिया था कि
अगर इसी तरह हुल्लड़बाजी को राजनीति समझ लिया जाएगा तो देश विरोधी साम्प्रदायिक ताकतें मजबूत
होंगी, जिसका खामियाजा पूरे देश को उठाना पड़ेगा। उन्होंने इंदिरा गांधी क े द्वारा इमर्जेंसी लगाए जाने की
आलोचना की और जे0 पी0 के द्वारा अपने व्यक्तिगत प्रभाव को इस्तेमाल कर गलत व भ्रमपूर्ण राजनीति
फैलाने की भी जम कर निन्दा की। उनका मानना था कि दोनों-इंदिरा गांधी व जे0 पी0- के पास चुनाव
में उतरने का लोकतांत्रिक विकल्प मौजूद था और दोनों ने गलत राजनीतिक निर्णय लिए।
इस छोटे से श्रृद्धांजलि लेख में बिपन के रचना संसार को समेटना सम्भव नहीं। अंत में यही कहना चाहूंगा
कि यदि भारत का बुद्धिजीवी वर्ग (खासकर वामपंथी) प्रो0 बिपन चन्द्र के वृह्त लेखन से खुले दिल-दिमाग
से रूबरू हो सक े तो सम्भवतः वर्तमान भारतीय राजनीति और समाज की एक अधिक गम्भीर समझ सामने आएगी, जो हमें आज की समस्याओं से निपटने में मददगार ही साबित होगी।

शनिवार, 20 सितंबर 2014

NOT FESTIVAL BUT POLLUTION SEASON

RAJ EXPRESS BHOPAL 22-9-14http://epaper.rajexpress.in/epapermain.aspx?edcode=9&eddate=9%2f22%2f2014
आया मौसम प्रदूषण का
पंकज चतुर्वेदी
THE SEA EXPRESS, AGRA 21-9-14




बारिष के बादल अपने घरों को लौट रहे हैं, सुबह सूरज कुछ देर से दिखता है और जल्दी अंधेरा छाने लगा है, मौसम का यह बदलता मिजाज असल में उमंगों. खुशहाली के स्वागत की तैयारी है । सनातन मान्यताओं की तरह प्रत्येक शुभ कार्य के पहले गजानन गणपति की आराधना अनिवार्य है और इसी लिए उत्सवों का प्रारंभ गणेश चतुर्थी से ही होता है। अब दुर्गा पूजा या नवरात्रि, दीपावली से ले कर होली तक एक के बाद एक के आने वाले त्योहार असल में किसी जाति- पंथ के नहीं, बल्कि भारत की सम्द्ध सांस्कृतिक परंपराओं के प्रतीक हैं। विडंबना है कि जिन त्येाहरों के रीति रिवाज, खानपान कभी समाज और प्रकृति के अनुरूप हुआ करते थे, आज पर्व के मायने हैं पर्यावरण, समाज और संस्कृति सभी का क्षरण।
खूब हल्ला हुआ, निर्देश, आदेश का हवाला दिया गया, अदालतों के फरमान बताए गए, लेकिन गणपति का पर्व वही पुरानी गति से ही मनाया गया। महाराष्ट्र, उससे सटे गोवा, गुजरात व मप्र के मालवा-निमाड़ अंचल में पारंपरिक रूप से मनाया जाने वाला गणेशोत्सव अब देश में हर गांव-कस्बे तक फैल गया है। दिल्ली में ही हजार से ज्यादा छोटी-बड़ी मूर्तियां स्थापित है। यही नहीं मुंबई के प्रसिद्ध लाल बाग के राजा की ही तरह विशाल प्रतिमा, उसी नाम से यहां देखी जा सकती है। पारंपरिक तौर पर मूर्ति मिट्टी की बनती थी, जिसे प्राकृतिक रंगों, कपड़ों आदि से सजाया जाता था। आज प्रतिमाएं प्लास्टर आफ पेरिस से न रही हैॅ, जिन्हें रासायनिक रंगों से पोता जाता है। पंडालों को सजाने में बिजली, प्लास्टिक आदि का इस्तमेाल होता हे। सांस्कृतिक कार्यक्रमों में कला के नाम पर भौंडे प्रदर्शन प्रदर्शन व अश्लीलता का बोलबाला है। अभी गणेशात्सव का समापन हुआ ही है कि नवरात्रि में दूर्गा पूजा शुरू हो गई है। यह भी लगभग पूरे भारत में मनाया जाने लगा है। हर गांव-कस्बे में एक से अधिक स्थानों पर सार्वजनिक पूजा पंडाल बन रहे हैं। बीच में विश्वकर्मा पूजा भी आ आ गई और अब इसी की प्रतिमाएं बनाने की रिवाज शुरू हो गई है। कहना ना होगा कि प्रतिमा स्थापना कई हजार करोड़ की चंदा वसूली का जरिया है।
एक अनुमान है कि हर साल देश में इन तीन महीनों के दौरान 10 लाख से ज्यादा प्रतिमाएं बनती हैं और इनमें से 90 फीसदी प्लास्टर आफ पेरिस की होती है। इस तरह देश के ताल-तलैया, नदियों-समुद्र में नब्बे दिनों में कई सौ टन प्लास्टर आफ पेरिस, रासायनिक रंग, पूजा सामग्री मिल जाती है। पीओपी ऐसा पदार्थ है जो कभी समाप्त नहीं होता है। इससे वातावरण में प्रदूषण का मात्रा के बढ़ने की संभावना बहुत अधिक है। प्लास्टर आफ पेरिसए कैल्शियम सल्फेट हेमी हाइड्रेट होता है जो कि जिप्सम ;कैल्शियम सल्फेट डीहाइड्रेटद्ध से बनता है चूंकि ज्यादातर मूर्तियां पानी में न घुलने वाले प्लास्टर आफ पेरिस से बनी होती हैए उन्हें विषैले एवं पानीे में न घुलने वाले नॉन बायोडिग्रेडेबेल रंगों में रंगा जाता हैए इसलिए हर साल इन मूर्तियों के विसर्जन के बाद पानी की बॉयोलॉजिकल आक्सीजन डिमांड तेजी से घट जाती है जो जलजन्य जीवों के लिए कहर बनता है। चंद साल पहले मुम्बई से वह विचलित करने वाला समाचार मिला था जब मूर्तियों के धूमधाम से विसर्जन के बाद लाखों की तादाद में जुहू किनारे मरी मछलियां पाई गई थीं।
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा दिल्ली में यमुना नदी का अध्ययन इस संबंध में आंखें खोलने वाला रहा है कि किस तरह नदी का पानी प्रदूषित हो रहा है। बोर्ड के निष्कर्षों के मुताबिक नदी के पानी में पाराए निकलए जस्ताए लोहाए आर्सेनिक जैसी भारी धातुओं का अनुपात दिनोंदिन बढ़ रहा है।
इन आयोजनों में व्यय की गई बिजली से 500 से अधिक गांवों को सालभर निर्बाध बिजली दी जा सकती हे। प्रसाद के नाम पर व्यर्थ हुए फल, चने-पूड़ी से कई लाख लोगों का पेट भरा जा सकता है। इस अवधि में होने वाले ध्वनि प्रदूषण, चल समारोहों के कारण हुए जाम से फुंके ईंधन व उससे उपजे धुंऐ से होने वाले पर्यावरण के नुकसान का तो हिसाब लगाना ही मुश्किल है। दुर्गा पूजा से उत्पन्न प्रदूषण से प्रकृति संभल पाती नहीं है और दीपावली आ जाती है। आतिशबाजी का जहरीला धुआं, तेल के दीयों के बनिस्पत बिजली का बढ़ता इस्तेमाल, दीपावली में स्नेह भेट की जगह लेन-देन या घूस उपहार का बढ़ता प्रकोप, कुछ ऐसे कारक हैं जो सर्दी के मौसम की सेहत को ही खराब कर देते हैं। यह भी जानना जरूरी है कि अब मौसम धीरे -धीरे बदल रहा है और ऐसे में हवा में प्रदूषण के कण नीचे रह जाते हैं जो सांस लेने में भी दिक्कत पैदा करते हैं।
सबसे बड़ी बात धीरे-धीरे सभी पर्व व त्योहारों के सार्वजनिक प्रदर्षन का प्रचलन बढ़ रहा है और इस प्रक्रिया में ये पावन-वैज्ञानिक पर्व लंपटों व लुच्चों का साध्य बन गए हैं प्रतिमा लाना हो या विसर्जन, लफंगे किस्म के लडके मोटर साईकिल पर तीन-चार लदे-फदे, गाली गलौच , नषा, जबरिया चंदा वूसली, सडक पर जाम कर नाचना, लडकियों पर फब्तियों कसना, कानून तोड़ना अब जैसे त्योहारों का मूल अंग बनता जा रहा है। इस तरह का सामाजिक  व सांस्कृतिक प्रदूशण नैसर्गिक प्रदूशध से कहीं कम नहीं है।
सवाल खड़ा होता  है कि तो क्या पर्व-त्योहारों का विस्तार गलत है? इन्हें मनाना बंद कर देना चाहिए? एक तो हमें प्रत्येक त्योहर की मूल आत्मा को समझना होगा, जरूरी तो नहीं कि बड़ी प्रतिमा बनाने से ही भगवान ज्यादा खुश होंगे ! क्या छोठी प्रतिमा बना कर उसका विसर्जन जल-निधियों की जगह अन्य किसी तरीेके से करके, प्रमिाओं को बनाने में पर्यावरण मित्र सामग्री का इस्तेमाल करने  जैसे प्रयोग तो किए जा सकते हैं पूजा सामग्री में प्लास्टिक या पोलीथीन का प्रयोग वर्जित करना, फूल- ज्वारे आदि को स्थानीय बगीचे में जमीन में दबा कर उसका कंपोस्ट बनाना, चढ़ावे के फल , अन्य सामग्री को जरूरतमंदों को बांटना, बिजी कीज गह मिट्टी के दीयों का प्रयोग ज्यादा करना, तेज ध्वनि बजाने से बचना जैसे साघारण से प्रयोग हंैं ; जो पर्वो से उत्पन्न प्रदूषण व उससे उपजने वाली बीमारियांे पर काफी हद तक रोक लगा सकते हैं। पर्व आपसी सौहार्द बढ़ाने, स्नेह व उमंग का संचार करने के और बदलते मौसम में स्फूर्ति के संचार के वाहक होते हैं। इन्हें अपने मूल स्वरूप में अक्षुण्ण रखने की जिम्मेदारी भी  समाज की है।

MC marry com

अभी सिनेमा देख कर लौटा हूं त़़प्‍त हो गया, एमसी मेरीकाॅम पर बनी फिल्‍म, सुंदर कहानी, बेहतरीन शूटिंग और कमाल का अभिनय, एक ऐसी कहानी जो हर पल प्रेरित करती है, बाक्सिंग गुरू डिंको सिंह का गुरू मंत्र तो हर बच्‍चे को देखना चाहिए, इसमें प्रियंका चोपडा के अलावा लगभग सभी कलाकर नार्थ ईस्‍ट से ही हैं, हालांकि इसी शूटिंग मणिपुर में नहीं हुई है, लेकिन सैट बेहतरीन बनाए हैं, हिंदी बोलने में उत्‍तर पूर्व का पुट बहतु सुंदर तरीके से शामिल है, सिनेमा देखकर कम से कम दस मणिपुरी शब्‍द और कई संस्‍कार सीखना स्‍वाभाविक ही हैा ऐ बात और आपको अपने पर गर्व होगा कि आप उस मुल्‍क में जन्‍में है जहां एम सी मैरी कॉम जैसी महिला रहती हैं
बगैर मांगी सलाह है अपने बच्‍चों व पत्‍नी को यह सिनेमा जरूर दिखाएं ] अपने सपनों के साथ जीवन जिओ, ना कि डर के साथ , सलाम मेरीकॉम, सलाम इस सिनेमा को बनाने वाली पूरी टीम
Photo: अभी सिनेमा देख कर लौटा हूं त़़प्‍त हो गया, एमसी मेरीकाॅम पर बनी फिल्‍म,  सुंदर कहानी, बेहतरीन शूटिंग और कमाल का अभिनय, एक ऐसी कहानी जो हर पल प्रेरित करती है, बाक्सिंग गुरू डिंको सिंह का गुरू मंत्र तो हर बच्‍चे को देखना चाहिए, इसमें प्रियंका चोपडा के अलावा लगभग सभी कलाकर नार्थ ईस्‍ट से ही हैं, हालांकि इसी शूटिंग मणिपुर में नहीं हुई है, लेकिन सैट बेहतरीन बनाए हैं, हिंदी बोलने में उत्‍तर पूर्व का पुट बहतु सुंदर तरीके से शामिल है, सिनेमा देखकर कम से कम दस मणिपुरी शब्‍द और कई संस्‍कार सीखना स्‍वाभाविक ही हैा ऐ बात और आपको अपने पर गर्व होगा कि आप उस मुल्‍क में जन्‍में है जहां एम सी मैरी कॉम जैसी महिला रहती हैं 
 बगैर मांगी सलाह है अपने बच्‍चों व पत्‍नी को यह सिनेमा जरूर दिखाएं ] अपने सपनों के साथ जीवन जिओ, ना कि डर के साथ , सलाम मेरीकॉम, सलाम इस सिनेमा को बनाने वाली पूरी टीम

शुक्रवार, 19 सितंबर 2014

Flip book for younger children

आज में आपके साथ सन 2006 में हिंदी में बाल साहित्‍य में मेरे द्वारा किए गए एक प्रयोग को साझा कर रहा हूंा यह था फ्लीप बुक का प्रयोग, हालांकि यह टीचर्स ट्रेनिंग व बडे लेागों में पहले सफल प्रयोग रहा हैा फ्लीप बुक की कहानी है गांव के एक ही सीन की जहां पहले तेज धूप है, फिर एक बादल का टुकडा आता है, फिर आंधी, फिर बारिश, फिर इंद्रधनुष, फिर बारि श का कम होना और एक बार फिर धूप निकलना, इस पूरी प्रकिया में समाज व प्रक़ति में क्‍या बदलाव आते हैं, फ्लीप बुक में सामने वाला हिस्‍सा बच्‍चों के सामने होता है, रंगीन और बगैर किसी शब्‍दों के, जबकि पीछे वही चित्र ब्‍लेक एंड व्‍हाईट में है और साथ्‍ा में सरल से कुछ शब्‍द ा अब बच्‍चों को पुस्‍तक पढाने वाले एक शब्‍द बोलेगा व बच्‍चे चित्र के साथ अपना संवाद करते हैं, यह पुस्‍तक पहली बार पांच हजार व उसके बाद दो बर इतनी ही छपी, व छोटे बच्‍चों व बच्‍चों के साथ काम करने वालों को बहुत पसंद भी आई , और हां मेरे शब्‍दों को संप्रेषणीय बनाने वाले हैं मेरे पसंदीदा चित्रकार पार्थ सेन गुप्‍ता Partha Sengupta इसे प्रकाशित किया था रूम टू रीड ने
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सोमवार, 15 सितंबर 2014

HUMAN MISUSE LAKES AND LAKES HAS GIVEN THEM LESSON :KASHMIR


झीलें बचाई होती तो जन्नत के यह हाल ना होते
पंकज चतुर्वेदी
कष्मीर  का अधिकांष भाग चिनाब, झेलम और सिंधु नदी की घाटियों में बसा हुआ है। जम्मू का
Daily News, Jaipu 16-9-14http://dailynewsnetwork.epapr.in/339332/Daily-news/16-09-2014#page/8/1

RAJ EXPRESS BHOPAL 16-9-14http://epaper.rajexpress.in/epapermain.aspx
पश्चिमी  भाग रावी नदी की घाटी में आता है।  इस खूबसूरत राज्य के चप्पे-चप्पे पर कई नदी-नाले, सरोवर-झरने हैं। विडंबना है कि प्रकृति के इतने करीब व जल-निधियों से संपन्न इस राज्य के लोगों ने कभी उनकी कदर नहीं की, । मनमाने तरीके से झीलों को पाट कर बस्तियां व बाजार बनाए, झीलों के रास्तों को रोक कर सड़क बना ली। यह साफ होता जा रहा है कि यदि जल निधियों का प्राकृतिक स्वरूप् बना रहता तो बारिष का पानी दरिया में होता ना कि बस्तियों में कष्मीर में आतंकवाद के हल्ले के बीच वहां की झीलों व जंगलों पर असरदार लोगों के नजायज कब्जे का मसला हर समय कहीं दब जाता है, जबकि यह कई हजार करोड़ रूप्ए की सरकारी जमीन पर कब्जा का ही नहीं, इस राज्य के पर्यावरण को खतरनाक स्तर पर पहंुचा देने का मामला है। कभी राज्य में छोटे-बड़े कुल मिला कर कोई 600 वेट लैंड थे जो अब बामुष्किल 12-15 बचे हैं।
कष्मीर का अधिकांष झीलें आपस में जुड़ी हुई थीं और अभी कुछ दषक पहले तक यहां आवागमन के लिए जल-मार्ग का इस्तेमाल बेहद लोकप्रिय था। झीलों की मौत के साथ ही परिवहन का पर्यावरण-मित्र माध्यम भी दम तोड़ गया। ग्लोबल वार्मिंग और प्रदूशण की मार, अतिक्रमण के चलते कई झीलें दलदली जमीन में बदलती जा रही हैं। खुषलसार, गिलसार, मानसबल, बरारी नंबल, जैना लेक, अंचर झील, वसकुरसर, मीरगुड, हैईगाम, नरानबाग,, नरकारा जैसी कई झीलों के नाम तो अब कष्मीरियों को भी याद नहीं हैं।
तीन दिशाओं से पहाडियों से घिरी डल झील जम्मू-कश्मीर की दूसरी सबसे बड़ी झील है। पाँच मील लम्बी और ढाई मील चैड़ी डल झील श्रीनगर की ही नहीं बल्कि पूरे भारत की सबसे खूबसूरत झीलों में से एक है। करीब दो दशक पहले डल झील का दायरा 27 वर्ग किलोमीटर होता था, जो अब धीरे-धीरे सिकुड़ कर करीब 12 वर्ग किलोमीटर ही रह गया है। इसका एक कारण, झील के किनारों और बीच में बड़े पैमाने पर अतिक्रमण भी है। दुख की बात यह है कि कुछ साल पहले हाईकोर्ट के निर्देशों के बावजूद अतिक्रमण को हटाने के लिए सरकार ने कोई गंभीर प्रयास नहीं किया। इसमें दोराय नहीं कि प्रकृति से खिलवाड़ और उस पर एकाधिपत्य जमाने के मनुष्य के प्रयासों के कारण पर्यावरण को संरक्षित रखना एक बड़ी समस्या बनती जा रही है। कोर्ट ने लेक्स एंड वाटर वाडिस डेवेलपमेंट अथॉरिटी (लावडा) को डल की 275 करनाल भूमि जिस पर गैरकानूनी कब्जा है, को हटाने के लिए उठाए जाने वाले कदमों पर शपथपत्र देने को भी कहा। लवाडा ने कोर्ट को जानकारी दी कि गैर कानूनी कब्जे वाली 315 कनाल भूमि में से चालीस कनाल खाली करवा ली गई ।डल झील की दयनीय स्थिति को देखते हुए उच्च न्यायालय ने तीन साल पहले डल झील के संरक्षण हेतु पर्याप्त प्रयास न किए जाने पर अधिकारियों को आड़े हाथों लिया था। पर्यावरणविदों के अनुसार, प्रदूषण के कारण पहाड़ों से घिरी डल झील अब कचरे का एक दलदल बनती जा रही है।
श्रीनगर से कोई पचास किलोमीटर दूर स्थित मीठे पानी की एषिया की सबसे बड़ी झील वुल्लर का सिकुड़ना साल-दर-साल जारी है। आज यहां 28 प्रतिषत हिस्से पर खेती हो रही है तो 17 फीदी पर पेड़-पौघे हैं। बांदीपुर और सोपोर षहरों के बीच स्थित इस झील की हालत सुधारने के लिए वेटलैंड इंटरनेषनल साउथ एषिया ने 300 करोड़ की लागत से एक परियोजना भी तैयार की थी, लेकिन उस पर काम कागजों से आगे नहीं बढ़ पाया। सन् 1991 में इसका फैलाव 273 वर्गकिलोमीटर था जो आज 58.71 वर्गकिलोमीटर रह गया है। वैये इसकी लंबाई 16 किलोमीटर व चैडाई 10 किलोमीटर हे। यह 14 मीटर तक गहरी है। इसके बीचों बीच कुछ भग्नावेष दिखते हैं जिन्हें ‘‘ जैना लंका’’ कहा जाता हे। लोगों का कहना है कि नाविकों को तूफान से बचाने के लिए सन 1443 में कष्मीर के राजा जेन-उल-आबदन ने वहां आसरे बनावाए थे। यहां नल सरोवर पक्षी अभ्यारण में कई सुदर व दुर्लभ पक्षी हुआ करते थे। झील में मिलने वाली मछलियों की कई प्रजातियां - रोसी बार्ब, मच्छर मछली, केट फिष, किल्ली फिष आदि अब लुप्त हो गई हैं। आज भी कोई दस हजार मछुआरे अपना जीवन यापन यहां की मछलियों पर करते हैं। वुल्लर झील श्रीनगर घाटी की जल प्रणाली का महत्वपूर्ण हिस्सा हुआ करत थी। यहां की पहाडियो ंसे गुजरने वाली तेज प्रवाह की नदियों में जब कभी पानी बढ़ता तो यह झील बस्ती में बाढ़ आने से रोकती थी। सदियों तक बाढ़ का बहाव रोकने के कारण इसमें गाद भी भरी, जिसे कभी साफ नहीं किया गया। या यों कहें कि इस पर कब्जे की गिद्ध दृश्टि जमाए लोगों के लिए तो यह ‘‘सोने में सुहागा’’ था। इस झील में झेलम के जरिए श्रीनगर सहित कई नगरों का नाबदान जोड़ दिया गया है, जिससे यहां के पानी की गुणवत्ता बेहद गिर गई है।
जैसे जैसे इसके तट पर खेती बढ़ी, साथ में रासायनिक खाद व दवाओं का पानी में घुलना और उथलापन बढ़ा और यही कारण है कि यहां रहने वाले कई पक्षी व मछलियों गुम होते जा रहे हैं। इसकी बेबसी के पीदे सरकारी लापरवाही बहुत बड़ी वजह रही है।  हुआ यूं कि सन 50 से 70 के बीच सरकारी महकमों ने झील के बड़े हिस्से पर विली(बेंत की तरह एक लचकदार डाली वाला वृक्ष) की खेती षुरू करवा दी। फिर कुछ रूतबेदार लोगों ने इसके जल ग्रहण क्षेत्र पर धान बोना षुरू कर दिया। कहने को सन 1986 में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने इस झील को राश्ट्रीय महत्व का वेट लैंड घोशित किया था, लेकिन उसके बाद इसके संरक्षण के कोई माकूल कदम नहीं उठाए गए। महकमें झील के सौंदर्यीकरण के  नाम पर बजट लुटाते रहे व झील सिकुड़ती रही।
डल और उसकी सहायक नगीन लेक कोई पचास हजार साल पुरानी कही जाती हैं। डल की ही एक और सखा बरारी नंबल का क्षेत्रफल बीते कुछ सालों में सात वर्ग किमी से घट कर एक किमी रह गया है। कष्मीर की मानसबल झील प्रवासी पक्षियों का मषहूर डेरा रही है। हालांकि यह अभी भी प्रदेष की सबसे गहरी झील(कोई 13 मीटर गहरी) है, लेकिन इसका 90 फीसदी इलाका मिट्टी से पाट कर इंसान का रिहाईष बना गया है। इसके तट पर जरोखबल, गंदरबल और विजबल आदि तीन बड़े गांव हैं । अब यहां परींदे नहीं आते हैं। वैसे यह श्रीनगर से षादीपुर, गंदरबल होते हुए महज 30 किलजोमीटर दूर ही है। लेकिन यहां तक पर्यटक भी नहीं पहुंचते हैं। डल की सहायक बरारी नंबल का क्षेत्रफल बीते दस सालों में ही सात वर्गकिमी से घट कर एक वर्गकिमी रह गया हे। अनुमान है कि सन 2020 तक इसका नामोनिषान मिट जाएगा।
सनद रहे कि कष्मीर की अधिकांष झीलें कुछ दषकों पहले तक एक-दूसरे से जुड़ी हुई थीं और लोगों का दूर-दूर तक आवागमन नावों से होता था। झीलें क्या टूटीं, लोगों के दिल ही टूट गए। खुषलसार, नरानबाग, जैनालेक, अंचर, नरकारा, मीरगुंड जैसी कोई 16 झीलें आधुनिकता के गर्द में दफन हो रही है।ं
कष्मीर में तालाबों के हालत सुधारने के लिए लेक्स एंड वाटर बाडीज डेवलपमेंट अथारिटी(लावडा) के पास उपलब्ध फंड महकमे के कारिंदों को वेतन देने में ही खर्च हो जाता है। वैसे भी महकमें के अफसरान एक तरफ सियासदाओं और दूसरी तरफ दहषदगर्दों के दवाब में कोई कठोर कदम उठाने से मुंह चुराते रहते हैं।


Why was the elephant not a companion?

    हाथी क्यों न रहा साथी ?                                                                    पंकज चतुर्वेदी   हाथियों और मानव के ब...