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गुरुवार, 31 दिसंबर 2015

Drought needs along term permanent policy not relief schemes

सूखा : राहत नहीं दूरगामी स्‍थायी योजना की

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने स्वराज अभियान की एक जनहित याचिका पर 11 राज्यों को नोटिस जारी कर पूछा है कि सूखे से बेहाल लोगों को मरहम लगाने के लिये अभी तक माकूल कदम क्यों नहीं उठाए गए। अदालत ने किसान को 20 हजार प्रति हेक्टेयर मुआवजा व प्रत्येक व्यक्ति को पाँच किलो अनाज, हर माह देने के खाद्य सुरक्षा कानून का पालन ना करने पर भी जवाब माँगा है। यह कोई सोच ही नहीं रहा है कि क्या कम बारिश से अकेले खेती ही प्रभावित होगी? या पीने के पानी का संकट होगा या फिर अर्थव्यवस्था में जीडीपी का आँकड़ा गड़बड़ाएगा।
हालांकि यह चार महीने पहले ही तय हो गया था कि देश का बड़ा हिस्सा अल्प बारिश के कारण बड़े संकट की ओर अग्रसर है, लेकिन भारतीय राजनीति की यह विडम्बना है कि हम किसी भी समस्या पर तब तक गम्भीर नहीं होते, जब तक वह लाईलाज नहीं हो जाये।

ठीक यही सूखे के मामले में हुआ, हालांकि सूखा एक ऐसी प्राकृतिक आपदा है जिसकी पूर्व सूचना हमें मिल जाती है, यह सवाल हमारे देश में लगभग हर तीसरे साल खड़ा हो जाता है कि औसत से कम पानी बरसा या बरसेगा, अब क्या होगा? देश के 13 राज्यों के 135 जिलों की कोई दो करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि प्रत्येक दस साल में चार बार पानी के लिये त्राहि-त्राहि करती है।

इसके बावजूद हम दूरगामी या स्थायी योजना बनाने के बनिस्पत राहत बाँटने में ज्यादा भरोसा करते हैं। कहने में कोई शक नहीं है कि राज-काज सम्भाल रहा बड़ा वर्ग हर समय किसी आपदा व उसके लिये राहत राशि का ही इन्तजार करता रहता है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट को भी सूखे से राहत के मामले में दखल देना पड़ा। जाहिर है कि पूरा तंत्र ना तो सूखे से जूझने की तैयारी ठीक प्रकार कर पाया और ना ही राहत कार्य को समय रहते चालू कर पाया।

सवाल उठता है कि हमारा विज्ञान मंगल पर तो पानी खोज रहा है लेकिन जब कायनात छप्पर फाड़ कर पानी देती है उसे पूरे साल सहेजकर रखने की तकनीक नहीं। हालांकि हम अभागे हैं कि हमने अपने पुरखों से मिली ऐसे सभी ज्ञान को खुद ही बिसरा दिया।

जरा गौर करें कि यदि पानी की कमी से लोग पलायन करते तो हमारे राजस्थान के रेगिस्तानी इलाके तो कभी के वीरान हो जाने चाहिए थे, लेकिन वहाँ रंग, लोक, स्वाद, मस्ती, पर्व सभी कुछ है। क्योंकि वहाँ के पुश्तैनी बाशिन्दे कम पानी से बेहतर जीवन जीना जानते थे।

यह आम आदमी भी देख सकता है कि जब एक महीने की बारिश में हमारे भण्डार पूरे भर कर छलकने लगे तो यदि इससे ज्यादा पानी बरसा तो वह बर्बाद ही होगा। फिर भी वर्षा के दिनों में पानी ना बरसे तो लोक व सरकार दोनों ही चिन्तित हो जाते हैं।

केन्द्र सरकार मौसम विभाग के आँकड़े भले ही देश के 300 से अधिक जिलों को सूखे की चपेट में बताते हों, लेकिन राज्य सरकारों की नजर में केवल 200 जिले ही सूखाग्रस्त हैं। अब तक सात राज्यों ने अपने यहाँ सूखे की सूचना दी है, जिसके लिये केन्द्र सरकार सूखा राहत देने की तैयारी में जुटी है।

कुछ राज्यों ने तो केन्द्र सरकार के आग्रह पर अपने यहाँ सूखे का एलान किया है। इनमें उत्तर प्रदेश और ओडिशा प्रमुख हैं। सूखे के प्रभाव की समीक्षा के लिये राज्यों के कृषि विभाग के प्रमुख सचिवों की बैठक बुलाई गई। कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह ने खुद प्रत्येक राज्य में सूखे के प्रभाव और उससे पैदा होने वाली मुश्किलों के बारे में विस्तार से जानकारी ली।

भूमि में नमी की कमी की समस्या की वजह से फ़सलों की बुवाई में होने वाले विलम्ब पर चिन्ता जताई गई। केन्द्र से राहत पाने के लिये पहले राज्यों को अपने यहाँ के हालात पर एक रपट भेजनी होती है, फिर केन्द्र की टीम मौके पर जाकर मुआयना करती है और उसके बाद राज्यों को केन्द्र की तरफ से राहत राशि जारी की जाती है।

यह हास्यास्पद है कि जहाँ देश के 11 से ज्यादा राज्य कम बरसात के कारण पलायन, खेती की बर्बादी व पेयजल संकट से दो-चार हो रहे हैं, अधिकांश राज्य सरकारों ने समय रहते इसकी सूचना भी केन्द्र को नहीं भेजी।

कर्नाटक राज्य ने सबसे पहले सूखे की अधिसूचना जारी की थी, जिसकी वजह से उसे 1540 करोड़ रुपए की राहत राशि मिल भी गई। मंजूर करके जारी कर दी गई। यहाँ के कुल 27 जिले सूखाग्रस्त हैं। छत्तीसगढ़ ने 25 जिलों को हाल ही में सूखा प्रभावित बताया है, जिसकी तस्दीक के लिये केन्द्रीय टीम भी दौरा पूरी कर चुकी है।

मध्य प्रदेश के 22 जिले सूखे की चपेट में हैं, जिसके लिये केन्द्रीय टीम ने दौरा पूरा कर अपनी रिपोर्ट सौंप दी है। महाराष्ट्र के 21 सूखाग्रस्त जिलों का मौका मुआयना हो चुका है। उत्तर प्रदेश में 50 जिलों को सूखग्रस्त घोषित किया गया है। झारखण्ड व तेलंगाना का अधिकांश हिस्सा सूखाग्रस्त है।

मध्य प्रदेश में भी 123 तहसीलें सूखग्रस्त अधिसूचित की गई हैं। जरा गौर करें तो मध्य प्रदेश व उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड, तेलंगाना का बड़ा हिस्सा, छत्तीसगढ़ व झारखण्ड के सूखाग्रस्त क्षेत्र हर तीन साल में एक बार इस विपदा का सामना करते ही हैं। जाहिर है हक राज्य सरकारों को इसके लिये हर समय तैयार रहना चाहिए।

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने स्वराज अभियान की एक जनहित याचिका पर 11 राज्यों को नोटिस जारी कर पूछा है कि सूखे से बेहाल लोगों को मरहम लगाने के लिये अभी तक माकूल कदम क्यों नहीं उठाए गए। अदालत ने किसान को 20 हजार प्रति हेक्टेयर मुआवजा व प्रत्येक व्यक्ति को पाँच किलो अनाज, हर माह देने के खाद्य सुरक्षा कानून का पालन ना करने पर भी जवाब माँगा है।

यह कोई सोच ही नहीं रहा है कि क्या कम बारिश से अकेले खेती ही प्रभावित होगी? या पीने के पानी का संकट होगा या फिर अर्थव्यवस्था में जीडीपी का आँकड़ा गड़बड़ाएगा। केन्द्र से लेकर राज्य व जिला से लेकर पंचायत तक इस बात का हिसाब-किताब बनानेे में लग गए हैं कि कम बारिश से उपजे हालात पर राहत कार्य के लिये कितना व कैसे बजट मिल सकता है।

असल में इस बात को लोग नजरअन्दाज कर रहे हैं कि यदि सामान्य से कुछ कम बारिश भी हो और प्रबन्धन ठीक हो तो समाज पर इसके असर को गौण किया जा सकता है।

जरा मौसम महकमे की घोषणा के बाद उपजे आतंक की हकीक़त जानने के लिये देश की जल-कुंडली भी बाँच ली जाये। भारत में दुनिया की कुल ज़मीन या धरातल का 2.45 क्षेत्रफल है।

दुनिया के कुल संसाधनों में से चार फीसदी हमारे पास हैं व जनसंख्या की भागीदारी 16 प्रतिशत है। हमें हर साल बारिश से कुल 4000 घन मीटर पानी प्राप्त होता है, जबकि धरातल या उपयोग लायक भूजल 1869 घन किलोमीटर है। इसमें से महज 1122 घनमीटर पानी ही काम आता है।

जाहिर है कि बारिश का जितना हल्ला होता है, उतना उसका असर पड़ना चाहिए नहीं। हाँ, एक बात सही है कि कम बारिश में भी उग आने वाले मोटे अनाज जैसे ज्वार, बाजरा, कुटकी आदि की खेती व इस्तेमाल सालों-साल कम हुआ है, वहीं ज्यादा पानी माँगने वाले सोयाबीन व अन्य कैश क्रॉप ने खेतों में अपना स्थान बढ़ाया है।

इसके चलते बारिश पर निर्भर खेती बढ़ी है। तभी थोड़ा भी कम पानी बरसने पर किसान रोता दिखता है। देश के उत्तरी हिस्से में नदियों में पानी का अस्सी फीसदी जून-से-सितम्बर के बीच रहता है, दक्षिणी राज्यों में यह आँकड़ा 90 प्रतिशत का है। जाहिर है कि शेष आठ महीनों में पानी की जुगाड़ ना तो बारिश से होती है और ना ही नदियों से।

भारत की अर्थ-व्यवस्था का आधार खेती-किसानी है। हमारी लगभग तीन-चौथाई खेती बारिश के भरोसे है। जिस साल बादल कम बरसे, आम-आदमी के जीवन का पहिया जैसे पटरी से नीचे उतर जाता है। एक बार गाड़ी नीचे उतरी तो उसे अपनी पुरानी गति पाने में कई-कई साल लग जाते हैं।

मौसम विज्ञान के मुताबिक किसी इलाके की औसत बारिश से यदि 19 फीसदी से भी कम हो तो इसे ‘अनावृष्टि’ कहते हैं। लेकिन जब बारिश इतनी कम हो कि उसकी माप औसत बारिश से 19 फीसदी से भी नीचे रह जाये तो इसको ‘सूखे’ के हालात कहते हैं। एक बात जानना जरूरी है कि खाद्यान्नों के उत्पादन में कमी और देश में खाद्यान्न की कमी में भारी अन्तर है।

यदि देश के पूरे हालात को गम्भीरता से देखा जाये तो हमारे बफर स्टाक में आने वाले तीन सालों का अन्न भरा हुआ है। यह बात दीगर है कि लापरवाह भण्डारण, भ्रष्टाचारी के श्राप से ग्रस्त वितरण और गैर व्यावसायिक प्रबन्धन के चलते भले ही खेतों में अनाज पर्याप्त हो, हमारे यहाँ कुपोषण व भूख से मौत होती ही रहती हैं। जाहिर है कि इन समस्याओं के लिये इन्द्र की कम कृपा की बात करने वाले असल में अपनी नाकामियों का ठीकरा ऊपर वाले पर फोड़ देते हैं।

सूखे के दौरान संयम और प्रबन्धन, शिक्षा और जागरुकता के माध्यम से ही सम्भव है। सूखा तात्कालिक मुसीबत नहीं है, समय के साथ इसकी विकरालता भी बढ़ती जाती है। इसके दुष्प्रभाव दूरगामी होते हैं। इन हालातों में आपसी तालमेल, सुनियोजित व्यवस्था और प्रबन्धन से तकलीफों को कम किया जा सकता है।

सूखे के कारण ज़मीन के कड़े होने, या बंजर होने, खेती में सिंचाई की कमी, रोज़गार घटने व पलायन, मवेशियों के लिये चारे या पानी की कमी जैसे संकट उभरते हैं। यहाँ जानना जरूरी है कि भारत में औसतन 110 सेंटीमीटर बारिश होती है जो कि दुनिया के अधिकांश देशों से बहुत ज्यादा है।

यह बात दीगर है कि हम हमारे यहाँ बरसने वाले कुल पानी का महज 15 प्रतिशत ही संचित कर पाते हैं। शेष पानी नालियों, नदियों से होते हुए समुद्र में जाकर मिल जाता है और बेकार हो जाता है।

आज यह आवश्यक हो गया है कि किसी इलाके को सूखाग्रस्त घोषित करने, वहाँ राहत के लिये पैसा भेजने जैसी पारम्परिक व छिद्रयुक्त योजनाओं को रोका जाये, इसके स्थान पर पूरे देश के सम्भावित अल्प वर्षा वाले क्षेत्रों में जल संचयन, खेती, रोज़गार, पशुपालन की नई परियोजनाएँ स्थायी रूप से लागू की जाएँ ताकि इस आपदा को आतंक के रूप में नहीं, प्रकृतिजन्य अनियमितता मानकर सहजता से जूझा जा सके।

कम पानी के साथ बेहतर समाज का विकास कतई कठिन नहीं है, बस एक तो हर साल, हर महीने इस बात के लिये तैयारी करना होगा कि पानी की कमी है। दूसरा ग्रामीण अंचलों की अल्प वर्षा से जुड़ी परेशानियों के निराकरण के लिये सूखे का इन्तजार करने के बनिस्पत इसे नियमित कार्य मानना होगा।

कम पानी में उगने वाली फसलें, कम-से-कम रसायन का इस्तेमाल, पारम्परिक जल संरक्षण प्रणालियों को जिलाना, ग्राम स्तर पर विकास व खेती की योजना तैयार करना आदि ऐसे प्रयास है जो सूखे पर भारी पड़ेंगे।



बुधवार, 30 दिसंबर 2015

To fight with water crisis, high power authority for lakes is only solution

तालाबों को बचाने के लिए सशक्त निकाय की जरूरत


आज जिस तरह जल संकट गहराता जा रहा है, जिस तरह सिंचाई व पेयजल की अरबों रुपए वाली योजनाएं पूरी तरह सफल नहीं रही हैं, तालाबों का सही इस्तेमाल कम लागत में बड़े परिणाम दे सकता है। इस बार बारिश बहुत कम हाने की चेतावनी से देष के अधिकांश शहरी इलाकों के लोगों की चिंता की लकीरें इसलिए भी गहरी हैं कि यहां रहने वाली सोलह करोड़ से ज्यादा आबादी के आधे से ज्यादा हिस्सा पानी के लिए भूजल पर निर्भर है। वैसे भी भूजल पाताल में जा रहा है और इस बार जब बारिश हुई नहीं तो रिचार्ज भी हुआ नहीं, अब सारा साल कैसे कटेगा। जमीन की नमी बरकरार रखनी हो या फिर भूजल का स्तर या फिर धरती के बढ़ते तापमान पर नियंत्रण, तालाब या झील ही ऐसी पारंपरिक संरचनाएं हैं, जो बगैर किसी खास खर्च के यह सब काम करती हैं। यह दुखद है कि आधुकिनता की आंधी में तालाब को सरकारी भाषा में ‘‘जल संसाधन’’ माना नहीं जाता है , वहीं समाज और सरकार ने उसे जमीन का संसाधन मान लिया। देशभर के तालाब अलग-अलग महकमोें में बंटे हुए हैं। जब जिसे सड़क, कालोनी, मॉल, जिसके लिए भी जमीन की जरूरत हुई, तालाब को पूरा व समतल बना लिया। आज शहरों में आ रही बाढ़ हो या फिर पानी का संकट सभी के पीछे तालाबों की बेपरवाही ही मूल कारण है। इसके बावजूद पारंपरिक तालाबों को सहेजने की कोई साझी योजना नहीं है।
एक आंकड़े के अनुसार, मुल्क में आजादी के समय लगभग 24 लाख तालाब थे। बरसात का पानी इन तालाबों में इकट्ठा हो जाता था, जो भूजल स्तर को बनाए रखने के लिए बहुत जरूरी होता था। देश भर में फैले तालाबों ,बावड़ियों और पोखरों की 2000-2001 में गिनती की गई थी। देश में इस तरह के जलाशयों की संख्या साढे पांच लाख से ज्यादा है, इसमें से करीब 4 लाख 70 हजार जलाशय किसी न किसी रूप में इस्तेमाल हो रहे हैं, जबकि करीब 15 प्रतिशत बेकार पड़े हैं। यानी आजादी के बाद के 53 सालों में हमारा समाज कोई 20 लाख तालाब चट कर गया। बीस लाख तालाब बनवाने का खर्च आज बीस लाख करोड़ से कम नहीं होगा। सालभर प्यास से कराहने वाले बुंदेलखंड के छतरपुर शहर के किशोर सागर का मसला बानगी है कि तालाबों के प्रति सरकार का रूख कितना कोताहीभरा है। कोई डेढ़ साल पहले एनजीटी की भोपाल बेंच ने सख्त आदेश दिया कि इस तालाब पर कब्जा कर बनाए गए सभी निर्माण हटाए जाएं। अभी तक प्रशासन मापजोख नहीं कर पाया है कि कहां से कहां तक व कितने अतिक्रमण को तोड़ा जाए। दसवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान 2005 में केंद्र सरकार ने जलाशयों की मरम्मत, नवीकरण और जीर्णोद्धार (आर आर आर) के लिए योजना बनाई। ग्यारहवीं योजना में काम शुरू भी हो गया, योजना के अनुसार राज्य सरकारों को योजना को अमली जामा पहनाना था। समाज को एक बार फिर बीती बात बन चुके जल-स्रोतों की ओर जाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है - तालाब, कुएं, बावड़ी। यही नहीं सरकार का भी कोई एक महकमा मुकम्मल नहीं है जो सिमटते तालाबों के दर्द का इलाज कर सके। तालाब कहीं कब्जे से तो कहीं गंदगी से तो कहीं तकनीकी ज्ञान के अभाव से सूख रहे है। तालाब केवल इस लिए जरूरी नहीं हैं कि वे पारंपरिक जल स्रोत हैं, तालाब पानी सहेजते हैं, भूजल का स्तर बनाए रखते हैं, धरती के बढ़ रहे तापमान को नियंत्रित करने में मदद करते हैं और उससे बहुत से लोगों को रोजगार मिलता है। असल में तालाबों पर कब्जा करना इसलिए सरल है कि पूरे देश के तालाब अलग-अलग महकमों के पास हैं - राजस्व, विभाग, वन विभाग, पंचायत, मछली पालन, सिंचाई, स्थानीय निकाय, पर्यटन ...शायद और भी बहुत कुछ हों। अभी तालाबों के कई सौ मामले राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण के पास हैं और चूंकि तालाबों के बारे में जानकारी देने का जिम्मा उसी विभाग के पास होता है, जिसकी मिली-भगत से उस की दुर्गति होती है, सो हर जगह लीपापोती होती रहती हैं। आज जिस तरह जल संकट गहराता जा रहा है, जिस तरह सिंचाई व पेयजल की अरबों रुपए वाली योजनाएं पूरी तरह सफल नहीं रही हैं, तालाबों का सही इस्तेमाल कम लागत में बड़े परिणाम दे सकता है। इसके लिए जरूरी है कि केंद्र में एक सशक्त तालाब प्राधिकरण गठित हो। सिर्फ आपसी तालमेल, समझदारी और अपनी परंपरा तालाबों के संरक्षण की दिली भावना हो तो ना तो तालाबों में गाद बचेगी ना ही सरकारी अमलों में घूसखोरी होगी। इसके लिए सबसे ज्यादा जरूरी है कि तालाबों को जल संसाधन मान कर इनका जिम्मा अलग से एक महकमे को दिया जाए।
                              

मंगलवार, 29 दिसंबर 2015

Warning of increasing desert

आबादी का दबाव बढ़ा रहा है रेगिस्तान

पंकज चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार 
Hindustan 30-12-15
अब राजस्थान से बाहर निकलकर कई राज्यों में अपनी जड़ें जमा रहा है। हमारे 32 प्रतिशत भूभाग की उर्वर क्षमता कम हो रही है, जिसमें से 24 फीसदी ही थार के ईद-गिर्द के इलाके हैं। सन 1996 में थार का क्षेत्रफल एक लाख, 96 हजार,150 वर्ग किलोमीटर था, जो कि आज दो लाख, आठ हजार, 110 वर्ग किलोमीटर हो गया है।

भारत की कुल 32 करोड़, 87 लाख वर्ग किलोमीटर जमीन में से 10 करोड़, 51 लाख वर्ग किलोमीटर भूमि पर बंजर ने डेरा जमा लिया है, जबकि आठ करोड़, 21 लाख वर्ग किलोमीटर भूमि रेगिस्तान में बदल रही है। यह चिंताजनक है कि देश के एक-चौथाई हिस्से के आगे अगलेे सौ वर्ष में मरुस्थल बनने का खतरा पैदा हो गया है।

हम वैश्विक प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के शिकार तो हो ही रहे हैं, जमीन की अधिक जुताई, जंगलों के विनाश और सिंचाई की दोषपूर्ण परियोजनाओं ने इस संकट को और बढ़ा दिया है। बेशक, इन कारकों का मूल कारण बढ़ती आबादी है। देश आबादी नियंत्रण में तो सफल हो रहा है, लेकिन मौजूदा आबादी का ही पेट भरने के लिए हमारे खेत और मवेशी कम पड़ रहे हैं।

ऐसे में, एक बार फिर मोटे अनाज को अपने आहार में शामिल करने, ज्यादा पानी की खपत वाली फसलों को अपने भोजन से कम करने जैसे प्रयास जरूरी हैं। सिंचाई के लिए भी स्थानीय तालाबों, कुओं पर निर्भर रहने की अपनी जड़ों की ओर लौटना होगा। साथ ही रासायनिक खाद व दवाओं का इस्तेमाल कम करना रेगिस्तान के बढ़ते कदमों पर लगाम लगा सकता है। भोजन व दूध के लिए मवेशी पालन तो बढ़ा, मगर उनके चरने की जगह कम हो गई।

ऐसे में, मवेशी अब बहुत छोटी-छोटी घास को भी चर जाते हैं और इससे जमीन बिलकुल नंगी हो जाती है। तेज हवाओं  और पानी से जमीन खुद की रक्षा नहीं कर पाती। मिट्टी कमजोर पड़ जाती है और सूखे की स्थिति में मरुस्थलीकरण का शिकार बन जाती है। मरुस्थलों के विस्तार के साथ कई  वनस्पतियों और पशु प्रजातियों की भी विलुप्ति हो सकती है।

शनिवार, 26 दिसंबर 2015

Rape : Law can deliver justice but can not change mind set of society



मोमबत्ती की ऊष्‍मा  वहां तक क्यों नहीं पहुंचती ?

                                                                                  पंकज चतुर्वेदी

बीती नवरात्रि में एक ही रात में दिल्ली में दो बच्चियों के साथ कुकर्म हुआ- ढाई साल व चार साल की बच्चियां। नवरात्रि की अष्‍टमी की रात को रामलीला के दौरान दिल्ली में एक पांच साल की बच्ची के साथ यौन हिंसा करने का प्रयास हुआ। अभी पिछले सप्ताह ही एक चार साल की बच्ची के साथ दरिंदों ने ना केवल मुंह काला किया था बल्कि उसे कई जगह ब्लैड मार कर घायल कर दिया था। दिल्ली से सटे नाएडा के छिजारसी गांव में उसी शुक्रवार की रात 12वीं में पढने वाली एक बच्ची ने इस लिए आत्महत्या कर ली, क्योंकि उसे गांव के कुछ षोहदे लगातार छेड़ रहे थे और उनके परिवार द्वारा पुलिस में कई बार गुहार लगाने के बावजूद लफंगों के हौंसले बुलंद ही रहे। यह तब हो रहा है जब निर्भया की मौत के बाद हुए देश व्यापी आंदोलन व नाबालिक बच्चें से दुश्कर्म के लिए बनाए गए विषेश सख्त कानून में कई मुकदमें दर्ज हो च.ुके है।। पूरे देश में यह बात पुहंच चुकी है कि निर्भया कांड के एक को छोड़ कर सभी आरोपियों को फंासी की सजा सुनाई जा चुकी है। बहुत षोर कर रहे थे तो बीते मंगलवार को संसद ने किषोर अपराध कानून में भी माकूल बदलाव कर दिया।
हालांकि निभर्या वाले कांड में न्याय तो हो चुका है, अपराधियों को फंासी पर चढाने की विधिसम्मत प्रक्रिया यानि अपील आदि भी चल रही है। कथित नाबालिक आरोपी कानून के मुताबिक सजा काट कर अभी भी नजरबंदी में है। निर्भया या ज्योति के माता पिता का गुस्सा लाजिमी है। लेकिन यह बात तय है कि उस मामले में न्याय हो चुका है और अब जो मांग हो रही है वह बदले की हैं और इसकी कानून में कोई गुंजाईश नहीं है। दुखद तो यह है कि एक दुखी मां के दर्द पर सियासत हो रही है, एक राजनीतिक दल की छात्र शाखा दिल्ली में प्रदर्षन कर रही है और उनके हाथ में थामी गई तख्तियों में उनकी मांग तो दिखती नहीं है, दिखता है तो संगठन का नाम। इस बीच कुछ लंपटों ने प्रचारित किया व सोशल मीडिया पर मुंबई का एक फोटो प्रचारित कर दिया कि यही निर्भया कांड का नाबालिक आरोपी है। असल में इसका उद्देश्‍य  न्याय की मांग से ज्यादा किसी समाज विषेश के लिए नफरत पैदा करना है। यह कुछ बानगी है कि अभी भी समाज के जिम्म्ेदार हिस्से का ‘‘माईंड सेट’’ औरतो ंके प्रति बदला नहीं है व मांग, मोमबत्ती और नारे उछालने वाले असल में इस आड़ में अपने चने भुना रहे हैं। ये वही लेाग है जो छत्तीसगढ़ में सोनी सोरी या मीना खल्को या ऐसे ही सैंकडों मामलों में पुलिस द्वारा औरतों के साथ किए गए पाशविक व्यवहार पर केवल इस लिए चुप रहते हैं क्योंकि वहां उनकी विचारधारा का राज है।
तीन साल पहले दिल्ली व देश के कई हिस्सों में उस अनाम अंजान ‘‘दामिनीके लिए खड़ा हुआ आंदोलन, आक्रोश, नफरत सभी कुछ विस्मृत हो चुका है। अभी दिल्ली के ईद-गिर्द एक सप्तहा में ही जो कुछ हो गया, उस पर महज कुछ सियासी तीरबाजी या स्थानीय गरीब लोगों द्वारा गुस्से का इजहार कहीं ना कहीं इस बात पर तो सवाल खड़े करता ही है कि कहीं विरोध एक नियोजित एकांकी होता है जिसके मंचन के पात्र, संावद, मीडिया आदि सभी कुछ कहीं बुनी जाती है और उसके निर्देशक महज सत्ता तक पुहंचने के लिए बच्चियों के साथ वहषियाना व्यवहार को मौके की तरह इस्तेमाल करते हैं। या फिर जंतर मंतर पर प्रज्जवलित होने वाली मोमबत्तिया केवल उन्ही लोगों का झकझोर पा रही हैं जो पहले से काफी कुछ संवदेनशील है- समाज का वह वर्ग जिसे इस समस्या को समझना चाहिए -अपने पुराने रंग में ही है - इसमें आम लोग हैं, पुलिस भी है और समूचा तंत्र भी।
अभी हाल के ही दिनों में दिल्ली  कई-कई बार शर्मसार हुई। अगस्त में ओखला में एक सात साल की बच्ची के साथ षारीरिक षोशण कर उसके नाजुक अंगों को चाकू से गोद दिया गया। सितंबर में द्वारका में एक पांच साल की बच्ची के साथ कुछ ऐसा ही हुआ। अभी 11 अक्तूबर को केशवपुरम में एक झुग्गी बस्ती की बच्ची के साथ कुकर्म कर उसे रेल की पटरियों पर मरने को छोड़ दिया गया। यह तो बस फौरी घटनाएं हैं और वह भी महज दिल्ली की। दामिनी कांड में सजा होने के बाद व उससे पहले भी ऐसी दिल दहला देने वाली घटनाएं होती रहीं, उनमें से अधिकांश में पुलिस की लापरवाही चलती रही, वरिश्ठ नेता बलात्कारियों कों बचाने वाले बयान देते रहे । दिल्ली में दामिनी की घटना के बाद हुए देशभर के धरना-प्रदर्षनों में शायद करोड़ो मोमबत्तिया जल कर धुंआ हो गई हों, संसद ने नाबालिक बच्चियों के साथ छेडछाड़ पर कड़ा कानून भी पास कर दिया हो, निर्भया के नाम पर योजनाएं भी हैं लेकिन समाज के बड़े वर्ग पर दिलो-दिमाग पर औरत के साथ हुए दुव्र्यवहार को ले कर जमी भ्रांतियों की कालिख दूर नहीं हो पा रही हे। ग्रामीण समाज में आज भी औरत पर काबू रखना, उसे अपने इषारे पर नचाना, बदला लेने - अपना आतंक बरकरार रखने के तरीके आदि में औरत के शरीर को रोंदना एक अपराध नहीं बल्कि मर्दानगी से जोड़ कर ही देखा जाता हे। केवल कंुठा दूर करने या दिमागी परेषानियों से ग्रस्त पुरूश का औरत के शरीर पर बलात हमला महज महिला की अस्मत या इज्जत से जोड़ कर देखा जाता हे। यह भाव अभी भी हम लोगों में पैदा नहीं कर पा रहे हैं कि बलात्कार करने वाला मर्द भी अपनी इज्जत ही गंवा रहा है। हालांकि जान कर आष्चर्य होगा कि चाहे दिल्ली की 45 हजार कैदियों वाली तिहाड़ जेल हो या फिर दूरस्थ अंचल की 200 बंदियों वाली जेल ; बलात्कार के आरोप में आए कैदी की , पहले से बंद कैदियों द्वारा दोयम दर्जें का माना जाता है और उसकी पिटाई या टाॅयलेट सफाई या जमीन पर सोने को विवश करने जैसे स्वघोशित नियम लागू हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जेल जिसे असामाजिक लोगों की बस्ती कहा जाता है, जब वहां बलात्कारी को दोयम माना जाता है तो बिरादरी-पंचायतें- पुलिस इस तरह की धारणा क्यों विकसित नहीं कर पा रही हैं। खाप, जाति बिरादरियां, पंचायतें जिनका गठन कभी समाज के सुचारू संचालन के इरादे से किया गया था अब समानांतर सत्ता या न्याय का अड्डा बन रही है तो इसके पीछे वोट बैंक की सियासत होना सर्वमान्य तथ्य है।
ऐसा नही है कि समय-समय पर  बलात्कार या शोषण के मामले चर्चा में नहीं आते हैं और समाजसेवी संस्थाएं इस पर काम नहीं करती हैं, । इक्कीस साल पहले भटेरी गांव की साथिन भंवरी देवी  को बाल विवाह के खिलाफ माहौल बनाने की सजा सवर्णों द्वारा बलात्कार के रूप में दी गई थीं उस ममाले को कई जन संगठन सुप्रीम कोर्ट तक ले गए थे और उसे न्याय दिलवाया था। लेकिन जान कर आष्चर्य होगा कि वह न्याय अभी भी अधूरा है । हाई कोर्ट से उस पर अंतिम फैसला नहीं आ पाया है । इस बीच भंवरी देवी भी साठ साल की हो रही हैं व दो मुजरिमों की मौत हो चुकी है। ऐसा कुछ तो है ही जिसके चलते लोग इन आंदालनो, विमर्षों, तात्कालिक सरकारी सक्रिताओं को भुला कर गुनाह करने में हिचकिचाते नहीं हैं। आंकडे गवाह हैं कि आजादी के बाद से बलात्कार के दर्ज मामलों में से छह फीसदी में भी सजा नहीं हुई। जो मामले दर्ज नहीं नहीं हुए वे ना जाने कितने होंगे।
फांसी की मांग, नपुंसक बनाने का षोर, सरकार को झुकाने का जोर ; सबकुछ अपने अपने जहग लाजिमी हैं लेकिन जब तक बलातकार को केवल औरतों की समस्या समझ कर उसपर विचार किया जाएगा, जब तक औररत को समाज की समूची ईकाई ना मान कर उसके विमर्ष पर नीतियां बनाई जाएंगी; परिणा अधूरे ही रहें्रे। आज भी हमारे देश में किसी को प्रताडित करने या किसी के प्रति अपना गुससा जताने का सबसे भदेस, लोकप्रिय, सर्वव्यापी , सहज, बेरोकटोक, बगैर किसी कानूनी अड़चन वाला तरीका है - विरोधी की मां और बहने के साथ अपने षारीरिक संबंध स्थापित करने वाली गाली देना। अब तो यह युवाओं का तकियाकलाम सा बनता जा रहा है। आज भी टीवी पर खबरिया चैनलों से ले कर सास-बहू वाले सीरियलों वाले चैनल तक ऐसे विज्ञापन चल रहे हैं जिसमें औरत के गुदाज शरीर को जितनी गहराई तक देखा जा सके, दिखा कर माल बेचा जा रहा है। आज भी देश में हर रोज करोड़ों चुटकुले, एमएएस क्लीप और वीडियों फुटेज बेचे, खरीदे, षेयर किए जा रहे हैं, जो औरत के शरीर को मसलने, मजा लेने के लिए उततेजित करते हैं। अकेले फेस बुक पर ही ‘‘भाभी’’ जैसे पवित्र रिष्ते के नाम पर कोई एक दर्जन पेज हैं जो केवल नंगापन और अष्लीलता परोस रहे हैं। अखबारों के क्लासीफाईड मसाज, एस्कार्ट के विज्ञापनों से भरे पड़े हैंजिनके बारे में सभी को पता है  िकवे क्या हैं। मामला पटियाला को या फिर ग्रेटर नोएडा का सभी जगह पुलिस का रवैया वैसा ही है मामले को दबाने, हल्का करने, कुछ छिपाने का प्रयास करने का। बीते दस दिनों के दौरान देशभर की अदालतों में ना जाने कितने बलात्कार के मामलों की सुनवाई भी हुई होगी लेकिन कहीं से कोई ऐसी खबर नहीं आई जिसने दामिनी’’ के साथ हुए दुश्कर्म के कारण कुछ बदलाव के संकेत दिए हों।
फिर जब तक सार्वजनिक रूप से मां-बहन की गाली बकना , धूम्रपान की ही तरह प्रतिबंधित करने जैसे आघारभूत कदम नहीं उठाए जाते  , अपने अहमं की तुश्टि के लिए औरत के शरीर का विमर्ष सहज मानने की मानवीय वृत्ति पर अंकुश नहीं लगाया जा सकेगा। भले ही जस्टिस वर्मा कमेटी सुझाव दे दे, महिला हेल्प लाईन षुरू हो जाए- एक तरफ से कानून और दूसरी ओर से समाज के नजरिये में बदलाव की कोशिश  एकसाथ किए बगैर असामनता, कुंठा, असंतुश्टि वाले समाज से ‘‘रंगा-बिल्ला’’ या ‘‘राम सिंह-मुकेश’’ की पैदाईश को रोका नहीं जा सकेगा।

शुक्रवार, 25 दिसंबर 2015

Need of strict rules to run parliament properly Raj Express 26.12.15



आप भी तो जनता की इज्जत का ख्याल करो !

                                                                            पंकज चतुर्वेदी


Rak Express 26.12.15
संसद का शीतकालीन सत्र में भी बेकाम के हंगामें और उसके चलते कामकाज ठप्प होने की पुरानी परंपरा जारी है। यह भी रिकार्ड में आया कि कई सांसद सुबह आकर हाजिरी तो लगा गए, लेकिन सारे दिन गायब रहे। इन दिनों हमारे भाग्यविधाताओं को अपनी इज्जत और सुविधाओं का बड़ा खयाल आ रहा है, और दिल्ल्ी विधान सभा से प्रेरित हो कर सांसदों के भी वेतन-भत्ते में भारी बढ़ोतरी की तैयारी है। अपनी यानी खुद की , खुद की अर्थात निहायत निजी- अपनी ....ना देश  की , ना जनता की , ना ही उस संसद की जिसके बदौलत वे ताजिंदगी जनता की करों से एकत्र गाढी कमाई खाने के हकदार बन जाते हैं। हकीकत में यदि ऐसा कृत्य कोई अन्य सरकारी महकमा करे तो सारे कर्मचारियों की नौकरी खतरे में आना तय है। संसद में जनता की सेवा के लिए आए माननीय काम ना करने के बावजूद वेतन या सुविधाएं लेने में हिचकते नहीं हैं। कई सांसद तो पूरे पांच साल एक लफ्ज नहीं बोलते तो कुछ केवल हंगामा, सभापति की कुर्सी की ओर आ कर नारेबाजी और भीड़ बढाने में ही लिप्त रहते हैं। सांसदों की विकास निधि खर्च नहीं होती है या फिर फिजूलखर्ची होती है। पैसे ले कर प्रशन  पूछना और वोट देना तो जाहिरा सिद्ध हो चुका है। तिस पर विषेशाधिकार का तुर्रा।
जरा सोचिए ग्यारहवीं लोकसभा के दौरान हंगामें या व्यवधान के कारण समय की बर्बादी कुल कार्य के घंटों की महज पांच फीसदी थी।  12वीं लोकसभा में यह आंकड़ा बढ कर दुगना यानी दस प्रतिश त हो गया। 13वीं लोकसभा के समय का 19 प्रतिश त और 14वीं लोकसभा के पांच सालों में 38 फीसदी समय उधम, हंगामें में गया। 26 नवंबर 2015 को प्रारंभ हुए व 23 दिसंबर को संपन्न  लगभग महीने भर के षीतकालीन सत्र में छुट्टी, श्रद्धांजली आदि के बाद यदि देखे तां कोई डेढ सौ घंटे काम होना चाहिए था। राज्य सभा में 47 घंटे से अधिक महज हंगामा होता रहा। लोकसभा में भी 17 घंटे 10 मिनट नारेबाजी, हंगामा आदि में जाया हुए। जीएसटी, रियल एस्टेट जैसे महत्वपूर्ण बिल तो लटके ही, देश  में सूखे के भयंकर हालात पर भी करीने से विमर्ष नहीं हो पाया। सनद रहे लोकसभा में काम हो या नहीं इसके संचालन का खर्च हर रोज कोई दो करोड रूपए है। संासद महोदय को हर महीने  कोई एक लाख चालीस हजार रूपए महीने वेतन मिलता है - बारह से चैदह घंटे काम करने वाले किसी आईएएस अफसर से कहीं ज्यादा। इसके अलावा महज संसद के रजिस्टर पर दस्तखत कर दो हजार रूपए रोज का भत्ता अलग से । क्या सांसद यह स्वीकार कर पाएंगे कि उनके इलाके का कलक्टर या चपरासी केवल दफ्तर आए और बगैर काम के वेतन ले जाए ?  क्या हम अपने जन प्रतिनिधि से इतनी नैतिकता की उम्मीद नहीं कर सकते कि जिस दिन उन्होंने काम ना किया हो या जितने दिन सदन का सत्र होने के बावजूद वे दिल्ली में ही ना हों , उतने दिन का वेतन या भत्ता वे खुद अस्वीकार कर दें।
अभी दो साल पहले तक आज का सत्ताधारी दल जब विपक्ष में था तो यही करती था और अब वह अपने विपक्ष पर सदन में व्यवधान का आरोप लगा रहे है। याद करें सन 2004 में वरिश्ठ वकील और सांसद फली एस नरीमन ने संसदीय कार्यवाही में रूकावट डालने वाले सांसदों को बैठक भत्ता का भुगतान ना करने संबंधी बिल पेश  किया था। उसके बाद सन 2009 में श्री राजगोपाल ने संसद की कार्यवाही में व्यवधान करने वाले सांसदों की सदस्यता समाप्त करने का बिल पेश  किया था। कहने की जरूरत नहीं है कि उनका वहीं अंत हो गया क्योंकि उन्हें समर्थक ही नहीं मिले।  हंगामा करने, काम रोकने की आदत अब केवल संसद तक सीमित नहीं रह गई है , विधानसभाएं तो ठीक ही हैं, स्थानीय नगरपालिकाएं भी अब प्रतिनिधियों के अमर्यादित व्यवहार से आहत महसूस कर रही हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं कि वर्तमान में शासन करने की लोकतंत्र के अलावा अन्य कोई कारगर व्यवस्था मौजूद नहीं है, लेकिन यह भी जरूरी हो गया है कि लोकतंत्र के पहरेदार कहे जाने वाले जन प्रतिनिधियों को उनके कर्तव्यों का  पाठ पढाने के लिए कड़े कानूनों की जरूरत है। षायद ‘‘राईट टू री काल’’ जैसा प्रावधान एक अराजक स्थिति बना दे, लेकिन सदन की कार्यवाही में व्यवधान को राश्ट्रीय संपत्ति के नुकसान की तरह अपराध मानना, लगातार उधम करने वाले जन प्रतिनिधियों को भविश्य के लिए प्रतिबंधित करना, प्रत्येक सत्र के न्यूनतम कार्य घंटे तय करना, प्रत्येक सांसद या जन प्रतिनिधि की अपने सदन में न्यूनतम हाजरी और समय तय करने जैसे कदम तो तत्काल उठाए जा सकते हैं। हां यह भी जरूरी है कि जनता अपने प्रतिनिधि से सवाल करे कि उन्हें जिस कार्य के लिए चुन कर भेजा था, उन्होंने उसमें से कितना ईमानदारी से निभाया। एक बात और सुविधाओं, अधिकारों और रूतबे ने जन प्रतिनिधि को जन से दूर कर दिया है, अब समय आ गया है कि जनता के सही नेता का दावा करने वालों को न्यूनतम वेतन और सुविधाओं के अनुरूप  काम करने के लिए कहा जाए - जो असली नेता होगा वह काम करेगा, जो पैसा कमाने आया है वह छोड कर चला जाएगा। ऐसे में संसद या अन्य सदनों में काम के  प्रति गंभीरता और निश्ठा दिखेगी, नाकि दस्तखत कर दो हजार लेने वाले वहां जा कर सोते-ऊंघते या केंटीन का लाजबाब भोजन उड़ाते दिखेंगे।
क्या अब आम आदमी को यह सवाल अपने क्षेत्र के प्रतिनिधि से नहीं करना चाहिए कियदि वे वास्तक में जन सेवा करना चाहते हैं तो विकास योजनाओं के मद में एकत्र टैक्स से निजी अय्याशी   को ठुकराने की हिम्मत क्यों नहीं करते हैं ? देश  में लोकसभा व विधान सभा के अलावा स्थानीय निकाय व पंचायत तक के जन प्रतिनिधि हैं । प्रत्येक को अपने-अपने स्तर पर कई सुविधाएं मिली हुई हैं । इनमें से जनता के प्रति जवाबदेही का पालन विरले ही कर रहे हैं । लगता है कि यह लोकतंत्र के नवाबों का नया संस्करण तैयार हो रहा है ।

पंकज चतुर्वेदी

Why was the elephant not a companion?

    हाथी क्यों न रहा साथी ?                                                                    पंकज चतुर्वेदी   हाथियों और मानव के ब...