My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्ठ ब्लाॅग के पुरस्कार से सम्मानित
मंगलवार, 30 जून 2020
How traditional society save ecology
सोमवार, 29 जून 2020
dung can turn rural self dependency theory of country
शुक्रवार, 26 जून 2020
Mental health must be on priority of health policy of India
मानसिक इलाज की सुधरे दशा
अभी तीन साल पहले ही विश्व स्वास्थ्य संगठन और अखिल भारतीय आयुíवज्ञान संस्थान के एक शोध से पता चला था कि देश में चौथी सबसे बड़ी बीमारी अवसाद या डिप्रेशन है। इनमें से आधे से ज्यादा लोगों को यह ही पता नहीं है कि उन्हें किसी इलाज की जरूरत है। बढ़ती जरूरतें, जिंदगी में बढ़ती भागदौड़, रिश्तों के बंधन ढीले होना, इस दौर की कुछ ऐसी त्रसदियां हैं जो इंसान को भीतर ही भीतर खाए जा रही है। ये सब ऐसे विकारों को आमंत्रित कर रहा है, जिनके प्रारंभिक लक्षण नजर आते नहीं हैं, जब मर्ज बढ़ जाता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। विडंबना है कि सरकार में बैठे नीति-निर्धारक मानसिक बीमारियों को अभी भी गंभीरता से नहीं ले रहे हैं।
इसे हास्यास्पद कहें या शर्म कि विज्ञान के इस युग में मनोविकारों को एक रोग के बजाय ऊपर वाले की नियति समझने वालों की संख्या बहुत अधिक है। तभी ऐसे रोगों के इलाज के लिए बहुत से लोग डॉक्टर के पास जाने के बजाय पीर-फकीरों, मजारों-मंदिरों में जाते हैं। सामान्य डॉक्टर मानसिक रोगों को पहचानने और रोगियों को मनोचिकित्सक के पास भेजने में असमर्थ रहते हैं। इसके चलते ओझा, पुरोहित, मौलवी, तथाकथित यौन विशेषज्ञ अवैध रूप से मनोचिकित्सक का काम कर रहे हैं।
विश्व स्वास्थ संगठन ने स्वास्थ्य की परिभाषा में स्पष्ट किया है कि यह शारीरिक, मानसिक और सामाजिक रूप से स्वास्थ्य की अनुकूल चेतना है, ना कि केवल बीमारी की गैर मौजूदगी। इस प्रकार मानसिक स्वास्थ्य, एक स्वस्थ शरीर का जरूरी हिस्सा है। यह हमारे देश की कागजी राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में भी दर्ज है। वैसे 1982 में मानसिक स्वास्थ कार्यक्रम शुरू हुआ था। आम डॉक्टर के पास आने वाले आधे मरीज उदासी, भूख, नींद और सेक्स इच्छा में कमी आना जैसी शिकायतें लेकर आते हैं। वास्तव में वे किसी ना किसी मानसिक रोग के शिकार होते हैं। देश भर में मानसिक रोगियों के इलाज के लिए कोई 32 हजार मनोचिकित्सकों की जरूरत है, जबकि इनकी संख्या मुश्किल से नौ हजार है। इनमें भी तीन हजार तो चार महानगरों तक ही सिमटे हैं। यह रोग भयावह है और इसका इलाज लंबे समय तक चलता है, जो खर्चीला भी है। इसके बावजूद किसी भी स्वास्थ्य बीमा योजना में इसे शामिल नहीं किया गया। सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में बीमा नियामक संस्था से यह पूछा भी है कि मानसिक रोग को बीमा सुविधा के दायरे में क्यों नहीं लाया गया है।
उधर सरकारी स्तर पर स्वास्थ्य सेवाएं बिल्कुल उपेक्षित हैं। वर्ष 2018-19 में केंद्र सरकार का इस मद में सालाना बजट 50 करोड़ था, जिसे 2019-20 में घटा कर 40 करोड़ कर दिया गया। दिनों-दिन बढ़ रही भौतिक लिप्सा और उससे उपजे तनावों व भागमभाग की जिंदगी के चलते भारत में मानसिक रोगियों की संख्या पश्चिमी देशों से भी ऊपर जा रही है। विशेष रूप से महानगरों में ऐसे रोग कुछ अधिक ही गहराई से पैठ कर चुके हैं। बात-बात पर बिगड़ना और फिर जल्द से लाल-पीला हो जाना ऐसे रोगियों की आदत बन जाती है। काम से जी चुराना, बहस करना और खुद को सच्चा साबित करना इनके प्रारंभिक लक्षण हैं। भय की कल्पनाएं इन लोगों को इतना जकड़ लेती हैं कि उनका व्यवहार बदल जाता है। जल्द ही दिमाग प्रभावित होता है और पनप उठते हैं मानसिक रोग।
जहां एक ओर मर्ज बढ़ता जा रहा है, वहीं हमारे देश के मानसिक रोग अस्पताल सौ साल पुराने पागलखाने के रूप में ही जाने जाते हैं। ये इमारतें मानसिक रोगियों की यंत्रणाओं, उनके प्रति समाज के उपेक्षित रवैये और सरकारी उदासीनता की गवाह हैं। तभी 2017 में 10,246 और 2018 में 10,134 मानसिक रोगियों ने आत्महत्या कर ली थी। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग मानता रहा है कि देश भर के पागलखानों की हालत बदतर है। इसे सुधारने के लिए कुछ साल पहले बेंगलुरु के राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ और चेतना विज्ञान संस्थान (निमहान्स) में एक परियोजना शुरू की गई थी। पर उसके किसी सकारात्मक परिणाम की जानकारी नहीं है। यह भी संसाधनों का रोना रोते हुए फाइलों में ठंडी हो गई।
हमारे देश में केवल 43 सरकारी मानसिक रोग अस्पताल हैं। इनमें से मनोवैज्ञानिक इलाज की व्यवस्था तीन जगह ही है। इन अस्पतालों में 21,000 बिस्तर हैं जो जरूरत से बहुत कम है। राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ कार्यक्रम की एक रिपोर्ट में भी इस बात का प्रमाण है कि ऐसे रोगियों की बड़ी संख्या इलाज का खर्च उठाने में असमर्थ है। सरकारी अस्पतालों के नारकीय माहौल में जाना उनकी मजबूरी होता है। आज भी अधिकांश मानसिक रोगी बगैर इलाज के अमानवीय हालात में जीने को मजबूर हैं। इन तमाम पहलुओं को समझते हुए हमें इस बारे में निर्णय लेना होगा।
देश-समाज में मानसिक रोग, रोगियों और उनके इलाज को लेकर व्यापक भ्रांतियां हैं, जिन्हें समङो बिना इस समस्या को समाप्त नहीं किया जा सकता
Heavy lightning is effect of climate change
- धरती
के बढ़ते तापमान का कुप्रभाव है आकाशीय बिजली का गिरना
पंकज चतुर्वेदी
इसकी
शुरुआत बादलों के एक तूफ़ान के रूप में एकत्र होने से होती है । इस तरह बढ़ते तूफान
के केंद्र में,
बर्फ के छोटे-छोटे टुकड़े और बहुत ठंडी पानी की बूंदें आपस
में टकराते हैं और इनके बीच विपरीत ध्रुवों के विद्युत कणों का प्रवाह होता है ।
वैसे तो धन
और ऋण एक-दूसरे को चुम्बक की तरह अपनी ओर आकर्षित करते हैं, किंतु
वायु के एक अच्छा संवाहक न होने के कारण विद्युत आवेश में बाधाएँ आती हैं। अतः
बादल की ऋणावेशित निचली सतह को छूने का प्रयास करती धनावेशित तरंगे भूमि पर गिर
जाती हैं। चुनी धरती विद्युत की सुचालक है। यह बादलों की बीच की परत की तुलना में
अपेक्षाकृत धनात्मक रूप से चार्ज होती है। तभी इस तरह पैदा हुई बिजली का अनुमानित 20-25 प्रतिशत
प्रवाह धरती की ओर हो जाता है। भारत में
हर साल कोई दो हज़ार लोग इस तरह बिजली गिरने से मारे जाते हैं, मवेशी और मकान आदि
का भी नुक्सान होता है
जिस
तरह दिनांक 25 जून को बिहार और उत्तर प्रदेश के बड़े हिस्से में बिजली गिरी और कोई
सवा सौ लोग मारे गये , यह एक असामान्य घटना है . जहाँ अमेरिका में हर साल बिजली
गिरने से तीस, ब्रिटेन में औसतन तीन लोगों की मृत्यु होती है , भारत में यह आंकडा
बहुत अधिक है- औसतन दो हज़ार . इसका मूल कारण है कि हमारे यहाँ आकाशीय बिजली के
पूर्वानुमान और चेतावनी देने की व्यवस्था विकसित नहीं हो पाई है . आंकड़े गवाह हैं
कि हमारे यहाँ बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखण्ड और छत्तीसगढ़ में बिजली गिरने की
घटनाएँ ज्यादा होती हैं , सैंड रहे बिजली के शिकार आमतौर पर दिन में ही होते हैं ,
यदि तेज बरसात हो रही हो और बजली कडक रही हो तो ऐसे में पानी भरे खेत के बीच में,
किसी पेड़ के नीचे , पहाड़ी स्थान पर जाने से बचना चाहिए . मोबाईल का इस्तेमाल भी
खतरनाक होता है . पहले लोग अपनी इमारतों में ऊपर एक त्रिशूल जैसी आकृति लगाते थे-
जिसे तड़ित-चालक कहा जाता था , उससे बिजली गिरने से काफी बचत होती थी , असल में उस
त्रिशूल आकृति से एक धातु का मोटा तार या पट्टी जोड़ी जाती थी और उसे जमीन में गहरे
गाडा जाता था ताकि आकाशीय बिजली उसके माध्यम से नीचे उतर जाए और इमारत को नुक्सान
न हो .
यह
समझना होगा कि इस तरह बहुत बड़े इलाके में एक साथ घातक बिजली गिरने का के पीछे का
असल कारण धरती का लगातार बदल रहा तापमान है . यह बात सभी के सामने है कि आषाढ़ में
पहले कभी बहुत भारी बरसात नहीं होती थी लेकिन अब ऐसा होने लगा है, बहुत थोड़े से
समय में अचानक भारी बारिश हो जाना और फिर सावन-भादों सूखा जाना- यही जलवायु
परिवर्तन की त्रासदी है और इसी के मूल में
बेरहम बिजली गिरने के कारक भी हैं । जैसे-जैसे जलवायु बदल रही है, बिजली
गिरने की घटनाएँ ज्यादा हो रही हैं ।
एक
बात और बिजली गिरना जलवायु परिवर्तन का दुष्परिणाम तो है लेकिन अधिक बिजली गिरने
से जलवायु परिवर्तन की प्रक्रिया को भी गति मिलती है । सनद रहे बजली गिरने के
दौरान नाइट्रोजन ऑक्साइड का उत्सर्जन होता है और यह एक घातक ग्रीनहाउस गैस है।हालांकि
अभी दुनिया में बिजली गिरने और उसके जलवायु परिवर्तन पर प्रभाव के शोध बहुत सीमित
हुए हैं लेकिन कई महत्वपूर्ण शोध इस बात को स्थापित करते हैं कि जलवायु परिवर्तन
ने बजली गिरने के खतरे को बढ़ाया है इस दिशा में और गहराई से कम करने के लिए ग्लोबल क्लाइमेट
ऑब्जर्विंग सिस्टम (GCOS) - के
वैज्ञानिकों ने विश्व मौसम विज्ञान संगठन
(WMO)
के साथ मिल कर एक
विशेष शोध दल (टीटीएलओसीए) का गठन किया है ।
धरती
के प्रतिदिन बदलते तापमान का सीधा असर वायुमंडल पर होता है और इसी से भयंकर तूफ़ान
भी बनते हैं । बिजली गिरने का सीधा सम्बन्ध धरती के तापमान से है जाहिर है कि
जैसे-जैसे धरती गर्म हो रही है , बिजली की लपक उस और ज्यादा हो रही है । यह भी जान
लें कि बिजली गिरने का सीधा सम्बन्ध बादलों के उपरी ट्रोपोस्फेरिक या क्षोभ-मंडल जल
वाष्प,
और ट्रोपोस्फेरिक ओजोन परतों से हैं और दोनों ही खतरनाक
ग्रीनहाउस गैस हैं। जलवायु परिवर्तन के अध्ययन से पता चलता है कि भविष्य में यदि जलवायु
में अधिक गर्माहट हुई तो गरजदार तूफ़ान कम लेकिन तेज आंधियां ज्यादा आएँगी और हर एक
डिग्री ग्लोबल वार्मिंग के चलते धरती तक बिजली की मार की मात्रा 10% तक बढ़ सकती है।
कैलिफोर्निया
विश्वविद्यालय, बर्कले के वैज्ञानिकों
ने वायुमंडल को प्रभावित करने वाले अवयव और बिजली गिरने के बीच सम्बन्ध पर एक शोध
मई २०१८ में प्रारंभ किया था । उनका आकलन था कि आकाशीय बिजली के लिए दो प्रमुख
अवयवों की आवश्यकता होती है: तीनो अवस्था (तरल, ठोस और गैस) में पानी और बर्फ बनाने से रोकने वाले घने बादल । वैज्ञानिकों
ने 11 अलग-अलग जलवायु मॉडल पर प्रयोग किये और पाया कि भविष्य में
ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में गिरावट आने से रही और इसका सीध अपरिणाम होगा कि आकाशीय
बिजली गिरने की घटनाएँ बढेंगी ।
एक
बात गौर करने की है कि हाल ही में जिन इलाकों में बिजली गिरी उमे से बड़ा हिस्सा धन
की खेती का है और जहां धान के लिए पानी को एकत्र किया जता है, वहां से ग्रीन हॉउस
गैस जैस मीथेन का उत्सर्जन अधक होता है । जितना मौसम अधिक गर्म होगा, जितनी ग्रीन
हॉउस गैस उत्सर्जित होंगी, उतनी ही अधिक बिजली, अधिक ताकत से धरती पर गिरेगी । उनके
निष्कर्ष समझ में आते हैं क्योंकि भारी वर्षा और तूफान ऊर्जा वायुमंडल में जल
वाष्प की उपलब्धता से संबंधित हैं, और गर्म वातावरण अधिक नमी धारण कर सकते हैं। हालांकि, यह काम भविष्यवाणी नहीं कर सकता है, जब या जहां बिजली के हमले हो सकते हैं।
"यह उन क्षेत्रों में हो सकता है जो आज बहुत अधिक बिजली की
हड़ताल प्राप्त करते हैं, भविष्य में
और भी अधिक हो जाएंगे, या यह हो
सकता है कि देश के कुछ हिस्सों को भविष्य में बहुत कम बिजली मिल सकती है," रोम्स ने कहा। "हम इस बिंदु पर नहीं जानते हैं।"
“जियोफिजिकल
रिसर्च लेटर्स” नामक ऑनलाइन जर्नल के मई अंक में प्रकाशित एक अध्ययन में अल
नीनो-ला नीना, हिंद महासागर डाय और दक्षिणी एन्यूलर मोड के जलवायु परिवर्तन पर
प्रभाव और उससे दक्षिणी गोलार्ध में बढ़ते तापमान के कुप्रभाव सवरूप अधिक आकाशीय
विद्धुत-पात की संभावना पर प्रकाश डाला गया है । एल नीनो-ला नीना, विषुवतीय पूर्वी और मध्य प्रशांत महासागर में गर्म और ठन्डे
काल हैं और यह समूची दुनिया की जलवायु को सबसे अधिक प्रभावित करते है।
विदित हो मानसून में बिजली चमकना बहुत सामान्य बात है। बिजली तीन तरह की होती है- बादल के भीतर कड़कने वाली, बादल से बादल में कड़कने वाली और तीसरी बादल से
जमीन पर गिरने वाली। यही सबसे ज्यादा नुकसान करती है। बिजली
उत्पन्न करने वाले बादल आमतौर पर लगभग 10-12 किमी. की ऊँचाई पर होते
हैं, जिनका आधार पृथ्वी की सतह से लगभग 1-2 किमी. ऊपर होता है। शीर्ष पर तापमान -35 डिग्री
सेल्सियस से -45 डिग्री सेल्सियस तक होता है। स्पष्ट है कि
जितना तापमान बढेगा , बिजली भी उतनी ही बनेगी व् गिरेगी ।
यह
सारी दुनिया की चुनोती है कि कैसे ग्रीन हॉउस गैसों पर नियंत्रण हो और जलवायु में
अनियंत्रित परिवर्तन पर काबू किया जा सके , वरना, समुद्री तूफ़ान, बिजली गिरना,
बादल फटना जैसी भयावह त्रासदियाँ हर साल बढेंगी ।
why not fair inquiry of inquiry of Delhi riots
फिर क्यों ना हो दिल्ली दंगों के जांच की जांच
शनिवार, 20 जून 2020
Sun eclipse : A scientific event , do not believe in superstition
जब सुबह हो जाएगी रात !
गुरुवार, 11 जून 2020
Destroying cash crop in farm is threat to soil
शुक्रवार, 5 जून 2020
Atomic energy : Neither safe nor economic
Save the Middle class
ढह रही है उधार के सपनों की इमारतें
लॉक डाउन के उलटी गिनती के साथ ही उम्मीदें और अपेक्षाओं के बयार के बीच नयी चिंताएं भी अपने लिए स्थान बना रही हैं . कुछ करोड़ मजदूर घर लौट गए , कुछ लाख लघु-माध्यम उत्पादन इक्काई, व्यापार बंद हो गए -- आये रोज सफ़ेद कोलर कम्पनियाँ जैसे - उबर , ज़ोमेतो , आदि से लोगों की नौकरियां जाने की खबरें हैं , नोयडा, गुरुग्राम में कई सौ कम्पनियां ऐसी हैं जो दस से सौ लोगों के साथ सॉफ्ट वेयर , आउट सोर्स मेंटेनेंस जैसे काम करती हैं - टूरिज्म- होटल जैसे काम --- उनमें से लगभग पचास फीसदी लोगों की नौकरियां छूट चुकी हैं , अकेले दिल्ली एन सी आर में मिडिया से जुड़े दो हज़ार लोग घर बैठ चुके हैं . कार बेचने वाली कम्पनी हों या हाई एंड शो रूम -- बड़ी संख्या में लोग बेरोजगार हो रहे हैं .
कामगार घर लौटे तो वे मेहनत- मजदूरी कर सकते हैं लेकिन जीवन के पच्चीस साल किसी अखबार के सम्पादकीय विभाग में जुड़े रहे तो परचून की दूकान भी नहीं चला सकते . छोटे कस्बों में जाओ तो इस तरह का कोई रोजगार नहीं मिलेगा , गगन चुम्बी ईमारतों में ऐसी कई आवाज़े घुट रही हैं -- जिनमें अभी तीन महीने पहले तक पति-पत्नी दोनों काम करते थे लेकिन अब एक कि नौकरी गयी और दुसरे का वेतन आधा हो गया . कहने को घर में दो कार खड़ी हैं लेकिन किश्तें देने को पैसा नहीं -- मकान की किश्त तो दूर सोसायटी का मेंटेनेंस देने के भी लाले पड़े हैं -- इस समय न तो कार बिक रही है और न ही फ्लेट --- न किसी को बोल सकते हैं न बच्चों की जरूरतों में कटौती कर सकते हैं -- कई- कई घर ऐसी दुविधा में घुट रहे हैं .
कल ही इंदौर में मेरे एक परिचित से बात हो रही थी-- उनकी एक औद्योगिक ईकाई है -- जो माल बाज़ार में उधार दिया उसका पैसा लगभग डूब गया- नया काम शुरू करना हो तो पूंजी नहीं क्योंकि सारी बचत तीन महीने में खा गये -- कुछ माल बना लो तो बाज़ार में खपत नहीं ---- फिर मजदुर को नगद देना है -- ऐसे परिवार देश भर में लाखों में हैं -- उनकी कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं है लेकिन अपना जीवन स्तर बनाये रखने का दवाब जबर्दस्त हैं .
ऐसा ही एक और वर्ग है, सरकारी सेवा से रिटायर्ड, या जमापूंजी को बैंक या रियल एस्टेट या शेयर में लगा कर जीवकोपार्जन करने वाला। बैंक में जमा पर ब्याज दरें गिरने, प्रोपर्टी का किराया न मिलने और शेयर बाज़ार के लगातार नकारात्मक होने से इस वर्ग के करोड़ों लोग बेहद दुविधा और कुंठा में हैं। महंगाई बढ़ी लेकिन आय कम हो गयी ऊपर से महंगाई भत्ता बन्द।
कोरोना का हल्ला जैसे जैसे शांत होगा , इस मध्य वर्ग के दर्द गहरे होंगे-- ये पलायन नहीं कर सकते- यह कोई दूसरा काम नहीं कर सकते - जीवन स्तर में बदलाव के लिए इन्हें अपनी आत्मा को कुचलना होगा -- ऐसे लोग आत्मघाती हो जाते हैं .
हाल
ही में कई ऐसी घटनाएं देश बाहर से सामने भी आयीं जिनमें हताश लोगों ने अपनी जीवन
लीला को ही समाप्त कर लिया . बारीकी से देखें तो मध्य वर्ग के सपनों की दुनिया अलग
अलग कर्ज ओर उसकी ई एम् आई पर ही चमकती -दमकती
दिखती हैं . आय का बड़ा हिस्सा किश्तों में ही जाता है , आज जब आय के साधन
या तो बंद हो रहे हैं या कम हो रहे हैं लेकिन मासिक बेंक कर्जे की किश्त घट नहीं
रही , ऐसे में इंसान का अवसाद में जाना लाजिमी है . आखिर यह वर्ग अकेला भी तो हैं
. संयुक्त परिवार की परम्परा में यह तो था
कि यदि घर का कोई एक सदस्य कम कमाता है या कमजोर है तो घर की चाहार दीवारी में सब
एक साथ एक सामान दिख जाते थे . कुछ मजबूरियां ओर कुछ सहिष्णुता की कमी ने परिवार
को बिखेरा ओर आज उत्पन्न त्रासदी में मध्य वर्ग के पास कोई कंधा नहीं है जिसके आसरे
वह इस विषम परिस्थिति से भले ही ना उबर पाए, कम से कम सांत्वना तो मिले .हालात दुश्वार जरूर हैं पर मध्यम वर्ग के अधिकांश परिवारों की
ये दुश्वारियां उनकी अपनी ही देन हैं। सबसे बड़ा कारण संयुक्त परिवारों का एकल
परिवारों में विघटन है। सब साथ हों तो मिलजुल कर कोई न कोई रास्ता ढूँढ़ ही लेंगे।
लेकिन यहाँ तो सबकी अपनी ढफली अपना राग है। एक परिवार चार में बँटकर चार जगह
किराया देता है। आखिर क्यों? झूठे अहंकार की बुनियाद पर खड़े इस
वर्ग के लिए दो ही चीजें संभव हैं। या तो झूठा अहंकार छोड़ एकजुट हो जाओ, कम से कम अपने परिवारों के साथ। वरना एक बड़े हिस्से को
बर्बाद हो जाने दो। वक्त और परिस्थितियों से समझौता करके ही आगे बढ़ने का मार्ग
ढूँढ़ा जा सकता है।
हमारी शिक्षा प्रणाली ने भले ही बहुत
ज्ञानवान लोगों को तैयार कर दिया लेकिन
स्कूल स्तर पर कोई पाठ, कोर्र्स ऐसा नहीं है जो युवाओं को अपनी भावनाओं पर
नियंत्रण करना, खासकर विपरीत परिस्थितियों में, सीखा सके , हमारे देश में पढ़े लिखे
लोगों से होने वाले अपराध का बड़ा हिस्सा तात्कालिक प्रतिक्रया या भावनाओं में बह
आकर गलत निर्णय लेने के कारण होते हैं , आज भी आर्थिक स्थिति पर आये संकट में मानसिक संतुलन बनाये रखना ,
झूठे दिखावे की परवाह न कर अपने खर्चों में कटौती करना ओर "पहले जैसा
जीवन" ना जी पाने को किसी पाप की तरह से देखने से यदि मुक्त हो लिया जाए तो
हम नए जोश के साथ नई तरह से जिंदगी जीनी की कल्पना कर
सकते हैं
आज के हालत में
समाज को थोड़ा सतर्क होना पड़ेगा -यदि आपके आस पास यदि ऐसे लोग हैं जिनकी नौकरी का
संकट है, जिनके वेतन कम हो गए हिं उनसे बातचीत करते रहें , उनका हौसला भी बढ़ाएं -- वे कहेंगे नहीं
लेकिन यदि महसूस हो तो उनका सहयोग भी करें -- ये लोग न सरकारी राशन ले सकते हैं और
न ही खाने की लाईन में लग पायेंगे
यह वर्ग बहुत
बेसहारा और उपेक्षित छोड़ दिया गया है और यह बेहद भावुक भी है -- इसे नए हालात में
ढलने की आदत नहीं -- इन्होने केवल प्रगति- विकास, जीडीपी देखी है और उस को ही लक्ष्य
माना है -- पराभव इनके लिए अकल्पनीय है . इनका साथ भी वैसे ही देना है जैसे विस्थापित
कामगारों के लिए हर-गाँव -शहर से मदद के
हाथ उठे थे . साथ ही मध्य वर्ग के लिए व्यापक स्तर पर मनोवैज्ञानिक सलाह , आपस में
मिलना संभव न हो तो फोन या वीडीयो काल करना समाज की जिम्मेदारी है , काश इतने बड़े
बीस लाख करोड के पैकेज में इस वर्ग के लिए कुछ महीने के लिए ब्याज से मुक्ति के
साथ मासिक कर्ज किश्त से मुक्ति का भी प्रावधान होता , यहाँ जानना जरुरी है कि
दैनिक उपभोग वस्तुओं की खरीद के साथ बाज़ार को संचालित करने वाला यह वर्ग यदि अवसाद
या कुंठा में रहेगा तो उत्पादन, सर्विस ओर निवेश हर मैदान में आर्थिक विकास की
संभावना नगण्य ही रहेगी .
23 March special on the martyrdom day of Bhagat Singh
23 मार्च भगत सिंह के शहादत दिवस पर ख़ास बम नहीं, विचार हैं भगत सिंह पंकज चतुर्वेदी अभी पांच मार्च को दिल्ली में संपन्न हुए...

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“गुलाम” के दौर में दिग्विजय उन दिनों अर्जुन सिंह पंजाब के गवर्नर पद से फिर सक्रीय राजनीती में आये थे दूर संचार मंत्री थे . उससे पहले जब ...
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कुओं से ही बुझेगी बुंदेलखंड की प्यास पंकज चतुर्वेदी अमर उजाला 5-2-2020 बुंदेलखंड की प्यास, पलायन, अल्प वर्षा अब किसी की संवेदन...