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मंगलवार, 30 जून 2020

How traditional society save ecology

लोक समाज में प्रकृति का आदर
                                                                                                                             पंकज चतुर्वेदी






हमारे पूर्वजों ने चंद्रमा हो या सूर्य, धरती हो या सर्प, हाथी हो या बैल , वृक्ष हो या पुष्प , नदी हो या समुद्र ; जिससे उन्होंने कुछ भी पाया, सभी को आदर दिया, सम्मान दिया, पूजा। भले  ही कथित आधुनिक समाज उनकी इस आस्था का मखौल उड़ाए लेकिन उनकी मूल भावना थी कि प्रकृति के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना व उसके हर रूप को अक्षुण्ण बना रखने के लिए समाज में जागरूकता फैलाना। इसमें पूजा, पर्व, गीत, मान्यताएं, मिथक आदि सभी कुछ का सहारा लिया गया।  यदि अतीत को खंगालें तो अठारहवीं सदी के अंत तक दुनिया मंे ना तो पानी की कमी थी और ना ही सांस लेने को साफ हवा की किल्लत। यूरोप व इंग्लैंड की औद्योगिक क्रांति ने भारत में सबसे पहले हथकरघे व हाथ से बने कपड़े को अपनी आसुरी आगोश में लिया और उसे बाद मशीनी दानवों ने उर्जा की मांग बढाई साल के अधिकतर महीने ठंड व बरफ में बिताने वाले कथित विकसित देशों ने मशीनों की उर्जा की आपूर्ति की पूर्ति के लिए भारत के जंगलों की लकड़ी और  कोयला खदानों व अरब के तेल के कुओं का रूख किया। । तेल की तकनीकी उतनी विकसित नहीं थी लेकिन लकड़ी व कोयला को सीधे जला कर ही इंजन को चलया जा सकता था।  और तभी से प्रकृति का संतुलन ऐसा बिगड़ा कि  पहले जिस विकास पर लोग सफलता के गीत गाते थे, आज उसी से उपजे पर्यावरणीय संकट पर षोक-गान बज रहे हैं। तो क्या विकास को थाम देना चाहिए?  क्या हमारे पूर्वजों ने पहिये से ले कर अग्नि और खेती से ले कर वस्त्र तक के विकास के आयाम नहीं लिखे थे? महात्मा गांधी ने कहा था कि प्रकृति इंसान की जरूरतें तो पूरी कर सकती है लेकिन लालच को नहीं। 
भारत का आदि समाज और पर्यावरण
भारतीय जनजातियों का दर्शन पर्यावरण के मूल तत्वों - जल, अग्नि, आकाश, जंगल, पहाड़, नदी, मैदान, जीव-जंतु पर आधारित है। ये मूल रूप से प्रकृति के उपासक होते हैं। इनके असंख्य देवता है और सभी प्रकृति के अंग होते हैं। आदिवासी समुदाय  धरती , जंगल , नदी नाला झरने आदि के निकट अपनी वेदी बना कर प्रकृति का सम्मान करते रहे हैं। यदि सन 2011 की जनगणना को आधार मानें तो हमारे देश की कुल आबादी के दसवें हिस्से से अधिक यानि 10. 45 प्रतिशत लोग अनुसूचित जनजाति के हैं। कोई 600 जनजातियां भारत की वैविध्य संस्कृति की सहभागी हैं। भले ही इनके रूप-रंग, गीत-संगीत, मान्यताएं अलग-अलग हों लेकिन सभी में एक ही बात समान है कि वे प्रकृति का संरक्षण व उपासना करते हैं। इनमें से अधिकांश अभी भी आधुनिकता की आंधी से बेखबर नैसर्गिक वातावरण में रहते हैं, प्रकृति को सहेजते है और जल-जंगल-जमीन-जानवर-जन के नियोजित विकास व सहअस्तित्व के सिद्धांत का पालन करते हैं। 
बस्तर: जहां वृक्षों से मित्रता और पूजा होती है
जिस आदिवासी समाज के जीवकोपार्जन , सामाजिक जीवन और अस्तित्व का आधार ही पेड़ हो, वह तो उसे हानि पहुंचाने से रहा। छत्तीसगढ़ का बस्तर संभाग आदिवासी परम्पराओं और मान्यताओं से सराबोर है। बस्तर में नीम, महुआ, बरगद, आम, पीपल, नींबू, अमरूद, कुल्लू, मुनगा, केला, ताड़ी, सल्फी, गुलरबेल एवं कुल 16 प्रकार के पेड़ों को आराध्य माना जाता है व इनकी विधि-विधान से पूजा की जाती है। इसके अलावा सौ प्रकार से ज्यादा वृक्ष, 28 प्रकार की लताएं, 47 प्रकार की झाडिय़ां, 9 प्रकार के बंास तथा फर्न को भी पूजा जाता है।
भले ही लोग भगवान की कसम खा कर खूब झूठ बोलें लेकिन जनजाति के लोग अपने आराध्य या कुल के पेड़ की कभी झूठी कसम नहीं खाते। आदिवासी समाज में गोत्रों के नाम, पेड़ पौधे व वन्य प्राणियों के आधार पर रखे गए हैं। इसका प्रमुख कारण यह है कि वनों के बीच रहने के चलते पेड़ों एवं वन्य प्राणियों से इनका गहरा जुडा़व रहा है। आदिवासी समाज में सबसे अधिक महत्व साज के वृक्ष का होता है, अपने आराध्य बूढ़ादेव की या साज के पत्तों की कसम खिलाई जाए तो वह झूठ बोल नहीं सकता है, भले ही सच बोचने पर उसकी जान ही चली जाए।
वन पुत्रों के आदि देव पेड़, जंगल के जीव आदि ही हैं।  आदिवासी मान्यता में धरती की उत्पत्ति करने वाले बूढ़ादेव और लिंगोपेन देव का वास साजा, अमलतास एवं कंरजी के पेड़ों में हैं। वनों को देवता तुल्य मानने वाला आदिवासी समुदाय वनों में निवास करना, वन प्रांतों में खेती, वनोपज संग्रहण को अपना गौरव मानते हैं। बीजा पंडुम एवं तीज ‘ त्यौहारों में वन देवताओं की विधि-विधान से पूजा की जाती है। बस्तर के गांव गांव में गुनिया-ओझा और बुजूर्ग अपनी अगली पीढ़ी को बताते हैं कि रती माता- बरगद, शीतला माता-पीपल, गुलर में मावली माता, आम व महुआ में साल, साज में भैरमदेव, साल साज, महुआ, आम में मांदुर्गा सम्मक्का, मां सरक्का एवं मां दंतेश्वरी का वास महुआ एवं बरगद में होता है। नीम पेड़ को श्रेष्ठतम माना जाता है । नीम व बरगद के पेड़ों में आदिवासी समुदाय द्वारा विवाह की रस्में सम्पन्न कराने की परम्परा आज भी कायम है। आदिवासियों का मानना है कि पेड़ों के शरण स्थल के पांच एकड़ तक परिधि में देवों का वास होता है।
असल में आदिवासी ना तो संचय करते हैं और ना ही आवश्यकता से अधिक की उम्म्ीद रखते हैं। तभी वे अपनी जरूरत का सारा सामान प्रकृति से तत्काल लेते हैं। तेंदू पत्ता या जड़ी बूटी उनके जीवन का आधार है। घने जंगलों में मिलने वाले इमली, महुआ, टोरा, आमचूर, चिरौंजी, तिखूर, शहद, चिरायता, मालकांगनी, सर्पगंधा, सतावर, गौरखमुंडी, बैचांदी, वनतुलसी, शिकाकाई, अमलबास, गूंज, मुंड़ी, बेल छिलका, कांटाबहारी, फूलबहारी, शहद, मोम, आंवला, हर्रा, बेहड़ा, सियाड़ी पत्ता, सियाडी रस्सी, कोसासाबुत, कोसा पोला, बाईबिरिंग, थवईफूल, पलास बीज, भेलवाबीज, सागौन बीज, करंजी बीज, अरण्डी बीज, गोंद, कुल्ले गोंद, निर्मली, कोचला, खोटला बीज, कुंभी फूल, इमली फूल सहित दर्जनों जड़ी-बूटियां आदिवासियों के जीवन की धारा है। 
महुआ अकेले बस्तर ही नहीं मध्य भारत के सभी अािदवासियों का ईश्ट देव है। उनकी संस्कृति में महुए के वृक्ष की महत्त्व सबसे बढ़कर है। आदिवासी परम्परा में जन्म से लेकर मरण तक महुआ का उपयोग किया जाता है। जन्मोत्सव से मृत्योत्सव तक अतिथियों को महुआ रसपान कराया जाता है। अतिथि सत्कार में महुआ की अधिक आदिवासी समुदाय में प्रधानता रहती है। महुआ की  मदिरा पितरों एवं आदिवासी देवताओं को भी अर्पित करने की परम्परा है, इसके लिए महुआ पान से पूर्व धरती पर छींटे मार कर पितरों को अर्पित किया जाता है। ये महुआ फूलों को भोजन, औशघि और षराब बनाने के लिए प्रयोग में लाते हैं। इसके पत्ते, फूल, फल, बीज, एवं लकड़ी सभी चीजों का उपयोग में आती है। इसकी लकड़ी खिड़की-दरवाजे बनवाने में ग्रामीण उपयोग करते हैं। साथ ही जंगलों में ग्रामीण इसकी लकड़ी को भी हाट बाजारों में बेचकर आय का अच्छा स्त्रोत मानते हैं। वहीं इसके फूल से व्यंजन एवं देशी शराब तो महुए का फल (टोरा) से सब्जी एवं तेल निकालने के उपयोग में आता है, जिसे खाने में इस्तेमाल किया जाता है। पेड़ के पत्तों से दोना-पतरी बनाई जाती है जो शादी विवाह के रस्मों-रिवाज में काम आती है।
बस्तर के आदिवासियों का दूसरा सबसे लोकप्रिय वृक्ष है - ताड़ प्रजाति के कारयोटा यूरेंस  यानि सल्फी। इससे निकलने वाला सफेद पेय ‘‘बस्तर-बियर’ के नाम से मशहूर है।  आदिवासी इसे ‘‘ पैसे का पेड़’’ कहते हैं बस्तर के आदिवासी सल्फी का पेड़, अपनी बेटियों को दहेज में देते रहे हैं। आदिवासी आम तौर पर आंगन और खेत की मेड़ों पर सल्फी के पेड़ लगाते हैं। 40 फीट ऊंचा यह पेड़ नौ-दस साल का होने के बाद रस देना शुरू करता है। स्थानीय बाज़ार में सल्फी का रस 40 से 50 रुपए लीटर बिकता है। यदि भौर में सल्फी पी जाए तो उससके पेट भर जाता है और इसके कई औशधीय गुण होते हैं। लेकिन जैसे-जैसे दिन चढ़ता है, सल्फी के रस का फरमंटेशन शुरू होता है तो इसे पीने से भयंकर नशा आता है। कुछ आदिवासी सल्फी के रस से गुड़ भी बनाते हैं। सल्फी का पेड़ उनके लिए भगवान है। 
धराड़ी यानि वृक्ष आराधना
पीपल काट हल घड़े, बेटी बेच खाये
सींव फोड़ खेती करे, वह जड़मूल सुन जाये।
राजस्थान के मीणा आदिवासियों में पेड़ को लेकर यह लोकोक्ति हर एक की जुबान पर होती है और वे इसका कड़ाई से पालन भी करते हैं। मीणाओं के कबीलों के अपने एक आराध्य वृक्ष को ध्राड़ी मान लेते हैं और वे उसके न तो कभी काटते हैं और न ही उसको किसी तरह का नुकसान पहुंचाते हैं। धराड़ी यानि धरा  और आड़ी षब्दों का संगम। धरा यानि धरती और आड़ी का अर्थ रक्षा करना।  हर कबीले की कुल देवी या धराड़ी होती है। कहा जाता है कि मीणा आदिवासियों के पहले 5248 गौत्र हुआ करते थे और आज भी कोई 1200 गौत्र हैं। प्रत्येक गौत्र की एक धराड़ी। कई कुलों की एक धराड़ी भी हो सकती है। किसी की धराड़ी नीम तो किसी की आम। जैसे घुंिसंगा गौत्र की धराड़ी गिरीजाड तो गुणावत की नीम। मंडावत लोग बेल को पूजते हैं किसी का पील तो किसी का खेजड़ी। 
 बच्चों के जन्म के समय धरड़ी का पत्ता बच्चे के सिरहाने रखा जाता। विवाह भी धराड़ी वाले पेड़ के फेरे ले कर ही होता। हां, मृत्यू के समय अपनी धराड़ी की ही लकड़ी से दाह संस्कार की रिवाज इनमें होती है। हालांकि वे इसके लिए पेड़ नहीं काटते है। सूखे, गिर गई डाल को ये लेाग ऐसे ही अवसर के लिए एकत्र कर रखते हैं। 
मीणा जनजाति स्वयं को सिंधु घाटी की सभ्यता की समकालीन मानती है। हालंकि बदलते वक्त साथ मीणा आदिवासी भी धराड़ी को एक मिट्टी या पतरि की प्रतिमा मानने लगे हैं और अब उनके संस्कार में धराड़ी का काश्ट प्रतीकस्वरूप ही षामिल होता जा रहा है।  इसका बड़ा कारण है कि मीणा जनजाति के बहुत से लोग बड़ी सरकारी नौकरियों में आए। फिर वे षहरी परिवेश में ढल गए और उनके गांव-कबीले कहीं पीछे छूट गए। 
प्रकृति प्रेम का पर्व: सरहुल
झारखंड व बस्तर और बंगाल के कुछ हिस्सों में आदिवासियों का पर्व सरहुल एक ऐसा अवसर है जब वे सामूहिक रूप से धरती को संरक्षित करने का संकल्प करते हैं। जब सर्दी के मौसम की विदाई के बाद जंगलों में पलाश फूल की लालिमा, कोयल की कूक मन को मोहती है, सरई फूल की खुशबू से जंगल का कोना-कोना महक उठता है, ऐसे ही मादक मौसम में आदिवासी सरहुल महापर्व मनाते हैं। चैत्र के षुक्ल पक्ष की अमावस्या पर प्रकृति यानी सखुआ वृक्ष की पूजा कर नए साल का स्वागत किया जाता है। द्वितीया तिथि को सरहुल की पूजा की जाती है। इस पूजा में गांव को रोग से दूर रखने, जंगल व खेत में अच्छी पैदावार की कामना की जाती है। पाहन राजा इस मौसम में आए नये फल और सात प्रकार की तरकारी -जिसमें सहजन, कटहल, पुटकल, बड़हर, ककड़ी, कचनार, कोयनार,  की सब्जी और मीठी रोटी बनाते हैं। सबसे पहले धरती को मां के रूप में पूजा जाता है। उसके बाद मांदर की थाप पर नाच-गाना और जुलूस निकलता है। तीसरे दिन फूलखोंसी की जाती है। सरहुल साक्षात प्रकृति की पूजा है। 
सरहुल का पहला दिन मछली और केकड़े को अर्पित होता है। शाम को भोजन में उन्हें सम्मिलित कर लोगों के खाने के पहले घर के मुखिया थोड़ा सा अंश घर के पूर्वजों को अर्पित करते हैं। उसी दिन गांव के पाहन गांव के लोगों के साथ सरना स्थल जाते हैं । वहां की साफ-सफाई, गोबर से लिपाई-पुताई करते हैं और दो नये घड़ा में पानी भर का पानी की गहराई को साल की टहनी से नाप लेते हैं। 
पाहन क्रमशः सिगबोंगा, पृथ्वी और पहाड़ देवता (बुरु बोंगा), जल देवता (इकिर बोंगा), ग्राम देवता (हातु बोंगा) और  पूर्वजों को संबोधित कर उनसे प्रार्थना करते हैं। सभी अनुष्ठान में पृथ्वी को प्राथमिकता दी जाती है क्योंकि वही जीवन स्रोत है। बीज के माध्यम से सभी पुनः जीवन को प्राप्त करते हैं। प्रार्थना में चारों दिशाओं, पृथ्वी, आकाश, पाताल, सृष्टि, जीव-जंतु को संबोधित किया जाता है एवं समस्त मानव के लिए या विश्व के सभी जीवित जनों के भले की कामना की जाती है।  फिर नाच-गाना होता है और गीतों में भी प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का भाव ही होता है, नृत्य की मुद्राओं में भी जल-जंगल-जमीन के प्रति सम्मान होता है। 
माड़िया: धरती तो मां है 
माड़िया आदिवासी मध्य भारत में सर्वाधिक प्राचीन यानि पांच हजार साल से अधिक पुरानी जनजाति है।  उनके जीवन का मूल आधार खेती ही है। बाकी अपनी जरूरतों के लिए वे जंगल पर निर्भर होते हैं। इसमें औशधि, मांसाहार आदि षामिल है। चूंकि माड़िया धरती को अपनी मां मानते हैं अतः खेती करने के लिए वे हल नहीं चलाते। खेती की इस पद्धति को बेरवा पद्धती कहा जाता है। आदिवासी हर दो या तीन वर्षों मे नया जंगल साफ़ करते और उसमे आग लगा कर नये खेत बना लेते हैं । यह खेत की जुताई नही करते इनका मानना है कि धरती हमारी मां है, उसपर हल चलाना यानी कि मां के शरीर को घायल करना होगा ।  आधुनिक समाज सोच सकता है कि आदिवासी तो जंगल उजाड़ रहे हैं लेकिन ध्यान दें जिस स्थान को वे दो-तीन साल खेती कर छोड़ते हैं वहां अपने आप चारागाह विकसित हो जाता है जो उनके पालतु व जंगल के जानवरों के लिए जीवनदायी होता है। चूंकि आदिवासी किसी भी तरह की खाद या रसायन इस्तेमाल नहीं करते सो जल्द ही उस क्षेत्र में नए जंगल उग आते हैं। बगैर जुताई के खेती का प्रयोग जापान में बेहद सफल रहा है। भारत में बिना जुताई की खेती का चलन आदिवासी अंचलों में अभी भी देखा जा सकता है। परम्परागत देशी खेती किसानी में जिसमें गोसंवर्धन किया जाता था ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जिस में किसान जमीन को जोते बगेर खेती करते हैं. वे हलकी जुताई कर जमीन की ताकत और नमी को संरक्षित करते थे। जुताई के कारण कमजोर होती जमीन को चारागाह से बदल लेते थे। जिस से एक और जहाँ पशुधन संवर्धित रहता था और कमजोर होती जमीन सुधर जाती थी।
भले ही षहरी समाज के लिए सागौन ‘‘ग्रीन गोल्ड’ हो, लेकिन माड़िया इस पेड़ को पसंद नहीं करते। उनकी माान्यता है कि सागौन के पत्ते खेती के लिये अशुभ होते हैं । हाल ही मे हुये शोध मे यह बात साबित हुई है कि सगौन के पत्तो से मिट्टी की उर्वरता मे भारी कमी आती है ।
हिमालय के आदिवासियों की पर्यावरणीय संवेदनशीलता 
 लेपचा जनजाति हिमाच्छाादित हिमालय में निवास करती है। हिम-रेगिस्तान कहलाने वाले इस अंचल में प्रकृति के सहारे अपना जीवन जीना लेपचाओं की आइिदकालीन परंपरा है। यह एकमात्र ऐसी जनजाति है, जो पहाड़ों को अर्धमानव, येती के रूप में पूजते हैं। लेपचा की कहानियांे में पर्यावरणीय ज्ञान कूट-कूट कर भरा है। इनमें जटिल सामाजिक मुद्दों का समाधान भी प्रकृति के तत्वों का उपयोग करके किया जाता है। इसी इलाके की जनजाति है, किराति । किराती का संस्कृत में अर्थ है- पहाड़ों पर रहने वाले। ये लोग प्रकृति को ही अपना धर्म मानते हैं। इनके यहां हर साल अप्रैल-मई महीने में उभौली (जिसे सकेला या सकेवा भी कहा जाता है) नाम से 14 दिन का पर्व मनाया जाता है।  चूंकि यह समय पहाड़ की मछलियों के गर्भधारण या अंडे देने का होता है, अतः इस पर्व की अवधि में वे मछली का शिकार नहीं करते। उभौली पर्व में किरातियों का पुजारी  ‘पवित्र मुंडम’ का पाठ करते हैं। इसमें  किरातियों के उद्गम, समृद्ध परंपराओं, उनके पूर्वजों की कहानी और उनकी प्राकृतिक दुनिया के रीति रिवाजों आदि के बारे में बताया जाता है। इस दौरान नदियों, पहाड़ों, इंद्रधनुष, भूमि और जानवरों की प्रार्थना की जाती है।
मुंडम में एक पवित्र कथा के अनुसार समुदाय के  एक सदस्य को अनुमति दी जाती है कि वह घर बनाने के लिए एक पेड़ को काट सकता है । इसके बदले में धरती के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने हेतु उसे 10 पेड़ लगाने पड़ते हैं। उनका मानना है कि जब एक ओझा/पुजारी अपना शरीर त्याग करता है, तो उनका उच्च ज्ञान दिव्य ऊर्जा के रूप में पौधों के विभिन्न प्रजातियों में प्रवेश कर जाता है। इसी विश्वास के चलते आदिवासी फर्न, बांस और बेंत की कुछ किस्मों की मनमानी कटाई नहीं करते हैं।
देव वन परंपरा 
हिमाचल प्रदेश के कुल्लू अंचल में जंगलों के संरक्षण की अनूठी परंपरा सदियों से चली आ रही है। यहां कुछ जंगलों को देव-वन  कहा जाता है, वहां से लकड़ियों को कोटना तो दूर, समाज के लेाग वहां की पत्ती या गिरी हुई लकड़ी भी इस्तेमाल नहीं करते। इन जंगलो ंमें पवित्रता का खयाल रखा जाता है और लोग यहां षौच को भी नहीं जाते। फौजल सहित आठ जंगल इस तरह की मान्यता से संरक्षित हैं। इनके नाम भी देवताओं के नाम पर हैं। लगवैली फारेस्ट बीट में फलाणी नारायण जंगल हैं तो पास ही में माता फुंगणी और पंचाली नारायण वन। ग्रेट हिमालय नेशनल पार्क में  बंजार वैली का कुछ हिस्सा, षांगण के साथ लगा हुआ जंगल, मणिकर्ण घाटी में पुलगा जंगल को देच-जंगल के रूप में जाना जाता है। 
हिमाच्दित पहाड़ों के विपरीत भीशण गर्मी वाले राजस्थान के लोक समाज में भी देव-वनों की परंपरा मिलती है।  कोटा के करीब डाए़ देवी का वन तो राजस्थान के सबसे घने जंगलों में से एक है। बारां के छीपाबडज्ञेद के समीप देवनारायण की राड़,, गराड़िया महादेव के पास का जंगल सहित कई दर्जनों जंगलों को समाज देव-वन के रूप में पूजते और संरक्षित करता है। यहां मान्यता है कि 
‘‘लीलो रूंख नीं घावणो, अनि घावै द्यो प्राण
सिर साटै जे रूंख रहे, तो भी सस्तो जाण।।
अर्थात - हरा पेड़ यदि है तो उसे कटना नहीं चाहिए, भले ही इसके लिए प्राण चले जाएं।। पेड़ के बदले यदि सिर कलम हो जाए तो इसे सस्त मानना चाहिए। उल्लेखनीय है कि राजस्थानी में रूंख का अर्थ है पेड़। 
पेड़ व हिरण के लिए जान देने वाले विश्नोई
लंबी कानूनी लड़ाई और भारी दवाब के बावजूद नहीं झुकने और फिल्म अभिनेता सलमान खान को हिरण के शिकर के ममले में सजा दिलवाने के कारण दुनियाभर में चर्चित हुए विश्नोई समाज की स्थापना संत जम्भेश्वर ने प्रकृति की रक्षा के लिए ही की थी। विश्नोई सम्प्रदाय के संस्थापक जम्भोजी (1451-1536 ई०) ने अपने अनुयायियों के लिए 29 नियम स्थापित किए थे।  20 और नौ के कारण ही यह समाज विश्नोई कहलाया। संत जी के इन नियमों में अधिकांश पर्यावरण के साथ सहचारिता बनाये रखने पर बल देते हैं जैसे हरे-भरे वृक्षों को काटने तथा पशुवध की पाबंधी। उस समय राजस्थान के जो कल्पवृक्ष थे, वे खेजडी के पेड़ थे, जो रेगिस्तानी परिस्थितियों में भी पनप जाते थे। उनसे केवल पशुओं को चारा ही नहीं मिलता था, उनकी फलियों से मनुष्यों को खाना भी मिलता था। 
सन् 1730 में जोधपुर के महाराजा अजय सिंह ने एक विशाल महल बनाने की योजना बनाई। जब महल के लिए लकड़ी की बात आई तो यह सुझाव दिया गया कि राजस्थान में वृझों का अकाल है लेकिन केवल एक ही जगह है जहां बहुत मोटे-मोटे पेड़ हैं वह है विश्नोई समाज का खिजड़ी गांव। महाराजा के हुकूम पर महल के लोगों को कुल्हाडीयों के साथ उस गांव भेजा गया। वे लोग गए और कुल्हाडिय़ों से सीधे खेजड़ी के मोटे-मोटे पेड काटने लगे। उसी समय एक बहन अमृता देवी छाछ विलो रही थी। उसके कानों में अजीब सी आवाज आई, पेड काटने की आवाज, जो उसने कभी सुनी नहीं थी। वह बाहर आई। उसने कहा-क्या कर रहे हो? रूको। पेड काटने वालों ने कहा कि राजा का हुकूम है। इस पर अमृता देवी ने कहा राजा का हुकूम भले ही हो लेकिन यह हमारे पंथ के खिलाफ है। पेड़ काटने वालों के नहीं मानने पर अमृता देवी ने फैसला लिया कि यदि धर्म की रक्षा के लिए, पेड़ की रक्षा के लिए, प्राणों की आहुति भी देनी पड़े, तो वह कम है। वह पेड से लिपट गई और उसने अपना बलिदान दे दिया। उसकी तीनों बेटियां भी पास ही खड़ी थीं वे बारी-बारी से पेडों से लिपट गई और उन्होंने भी अपना बलिदान दे दिया। यह खबर सारे क्षेत्र में फैल गई और देखते की देखते 363 विश्नोईयों ने इस स्थान पर अपना बलिदान दे दिया।
बिश्नोई समुदाय वन्यजीवों को  अपने परिवार जैसा मानता है । इतना ही नहीं बिश्नोई समाज की महिलाएं तो हिरण के बच्चों को अपना बच्चा मानती हैं। यहां तक कि महिलाएं अपना दूध तक हिरण के बच्चों को पिलाती हैं। यहां के पुरुषों को जंगल के आसपास कोई लावारिस हिरण का बच्चा या हिरण दिखता है तो वह उसे घर पर लेकर आते हैं, बच्चों की तरह उनकी सेवा करते हैं। कहा जाता है कि पिछले 500 सालों से यह समुदाय इस परंपरा को निभाता आ रहा है। रेगिस्तान और अल्प वर्शा के लिए बदनाम राजस्थान में आज भी विश्नोई लेागों के रिहाईशी इलाकों में घने जंल देखने को मिल जाएंगे। 
इसी तरह उत्तरांचल के पहाड़ पर चिपको और कर्नाटक का अप्पिको आंदोलन हमारे लोक समाज के पर्यावरणीय संवेदनशीलता की बानगी हैं।


सोमवार, 29 जून 2020

dung can turn rural self dependency theory of country

गोबर से सोने की चिड़िया बन सकता है देश



छत्तीसगढ़ सरकार ने फैसला लिया है कि वह गोबर की खरीद करेगी और उसे कोई तीन हजार गोठान, महिला स्वयं सहायता समूह के माध्यम से कंपोस्ट व वर्मी कल्चर में बदल कर बेचगी। साथ ही, गोबर गैस प्लांट, उपले-कंडे, दीपावली के दीये बनाने व अंतिम संस्कार में भी गोबर का इस्तेमाल होगा। यदि यह योजना सफल हुई, तो ऊर्जा संरक्षण और ग्राम स्वाबलंबन का बड़ा उदाहरण हो सकती है। 

रासायनिक खाद के इस्तेमाल से बांझ हो रही जमीन को राहत देने के लिए पुरानी परंपराओं को पलट कर देखना सुखद हो सकता है। जब हम कहते हैं कि भारत सोने की चिड़िया था, तब यह गलत अनुमान लगाते हैं कि देश में सोने का अंबार था। हमारे खेत और मवेशी हमारे लिए सोने से कीमती थे। सोना अब भी यहां चप्पे-चप्पे में बिखरा हुआ है। पर उसे चूल्हों में जलाया जा रहा है। दूसरी तरफ अन्नपूर्णा धरती नई खेती के प्रयोगों से कराह रही है।
विकसित देश न्यूजीलैंड में आबादी के बड़े हिस्से का जीवन-यापन पशुपालन से होता है। वहां के लोग दूध और दुग्ध उत्पादों का व्यापार करते हैं। वहां पीटर प्रॉक्टर पिछले 40 साल से जैविक खेती के विकास में लगे हैं। उन्होंने पाया कि जैविक खेती में गाय के सींग की भूमिका चमत्कारी होती है। वह सितंबर में एक गहरे गड्ढे में गाय का गोबर भरते हैं, जिसमें गाय के सींग का एक टुकड़ा दबा देते हैं। फरवरी या मार्च में वह कंपोस्ट को इस्तेमाल के लिए निकाल लेते हैं।
गाय के सींग से तैयार मिट्टी सामान्य मिट्टी से 15 गुना और केंचुए द्वारा उगली हुई मिट्टी से दोगुनी उर्वरा होती है। इस कंपोस्ट को पानी में घोलकर सूर्योदय से पहले खेतों में छिड़कने पर पैदावार अधिक पौष्टिक होती है, जमीन की उर्वरा शक्ति बढ़ती है और कीटनाशकों के उपयोग कीजरूरत नहीं पड़ती।

भारत में मवेशियों की संख्या करीब तीस करोड़ है। इनसे रोज करीब 30 लाख टन गोबर मिलता है। इसमें से तीस फीसदी को उपला बनाकर जला दिया जाता है। जबकि ब्रिटेन में गोबर गैस से हर साल सोलह लाख यूनिट बिजली का उत्पादन होता है, तो चीन में डेढ़ करोड़ परिवारों को घरेलू ऊर्जा के लिए गोबर गैस की आपूर्ति की जाती है। अपने यहां गोबर का सही इस्तेमाल हो, तो सालाना छह करोड़ टन लकड़ी व साढ़े तीन करोड़ टन कोयला बचाया जा सकता है।

हालांक देश में गोबर को लेकर कई नवाचार हो भी रहे हैं। लखनऊ के बायोवेद शोध ने गोबर से गमला, लक्ष्मी-गणेश, कलमदान, कूड़ादान, मच्छर भगाने वाली अगरबत्ती, जैव रसायन, मोमबत्ती एवं अगरबत्ती स्टैंड व ट्रॉफियां तैयार की हैं, तो उत्तराखंड के काशीपुर में गोबर से तैयार टाइल्स खूबसूरत होने के साथ कमरे के लिए एसी की तरह काम भी करते हैं। जयपुर के कुमारप्पा नेशनल हैंडमेड पेपर इंस्टीट्यूट में तैयार कागज इतने मजबूत हैं कि इनसे कैरी बैग बनाए जा रहे हैं। आईआईटी, दिल्ली ने तो अंतिम संस्कार के लिए गोबर से तैयार लट्ठों की मशीन बनाई है, जो कम कीमत की है और इसकी मात्रा भी लकड़ी से कम लगती है।

कुछ साल पहले हॉलैंड की एक कंपनी ने भारत को गोबर निर्यात करने की योजना बनाई थी, तो बवाल मचा था। पर इस बेशकीमती कार्बनिक पदार्थ की देश में कुल उपलब्धता आंकने के आज तक प्रयास ही नहीं हुए। वर्ष 1976 में राष्ट्रीय कृषि आयोग की रिपोर्ट में कहा गया था कि गोबर को चूल्हे में जलाया जाना अपराध है। पर इसके व्यावहारिक इस्तेमाल के तरीके 'गोबर गैस प्लांट' की दुर्गति यथावत है। निर्धारित लक्ष्य के 10 फीसदी प्लांट भी नहीं लगाए गए हैं और ऐसे प्लांट सरकारी सब्सिडी गटकने से ज्यादा काम में नहीं हैं।

जबकि विशेषज्ञ मानते हैं कि हमारे यहां गोबर के जरिये 2,000 मेगावाट ऊर्जा पैदा की जा सकती है। गोबर के उपलों पर खाना बनाने में बहुत समय लगता है। यदि इसका इस्तेमाल खेतों में किया जाए, तो अच्छा होगा। इससे महंगी रासायनिक खादों का खर्चा कम होगा, जमीन की ताकत बनी रहेगी और पैदा फसल शुद्ध होगी। गोबर गैस प्लांट का उपयोग रसोई में अच्छी तरह होगा और उससे निकला कचरा बेहतरीन खाद का काम करेगा। इस तरह गोबर फिर हमारे देश को सोने की चिड़िया बना सकता है।


शुक्रवार, 26 जून 2020

Mental health must be on priority of health policy of India

मानसिक इलाज की सुधरे दशा

एक उभरते हुए, सफल और लोकप्रिय अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या और कोविड-19 त्रसदी से उपजी बेरोजगारी और भय ने देश के सामने मानसिक रोग के संबंध में नया सवाल खड़ा कर दिया है। विडंबना है कि जिस गति से यह संकट हमारे समाज के सामने खड़ा हो रहा है, इससे निपटने की हमारी तैयारी बहतु ही मंथर है। चिकित्सा विज्ञान की प्रसिद्ध अंतरराष्ट्रीय पत्रिका द लांसेट की ताजा रिपोर्ट कहती है कि भारत में आबादी का कोई 15 फीसद हिस्सा या 20 करोड़ लोग किसी ना किसी तरह की मानसिक व्याधियों से जूझ रहे हैं। इनमें 4.57 करोड़ लोग डिप्रेशन या अवसाद तथा करीब इतने ही लोग एंजाइटी यानी घबराहट के शिकार हैं।

अभी तीन साल पहले ही विश्व स्वास्थ्य संगठन और अखिल भारतीय आयुíवज्ञान संस्थान के एक शोध से पता चला था कि देश में चौथी सबसे बड़ी बीमारी अवसाद या डिप्रेशन है। इनमें से आधे से ज्यादा लोगों को यह ही पता नहीं है कि उन्हें किसी इलाज की जरूरत है। बढ़ती जरूरतें, जिंदगी में बढ़ती भागदौड़, रिश्तों के बंधन ढीले होना, इस दौर की कुछ ऐसी त्रसदियां हैं जो इंसान को भीतर ही भीतर खाए जा रही है। ये सब ऐसे विकारों को आमंत्रित कर रहा है, जिनके प्रारंभिक लक्षण नजर आते नहीं हैं, जब मर्ज बढ़ जाता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। विडंबना है कि सरकार में बैठे नीति-निर्धारक मानसिक बीमारियों को अभी भी गंभीरता से नहीं ले रहे हैं।

इसे हास्यास्पद कहें या शर्म कि विज्ञान के इस युग में मनोविकारों को एक रोग के बजाय ऊपर वाले की नियति समझने वालों की संख्या बहुत अधिक है। तभी ऐसे रोगों के इलाज के लिए बहुत से लोग डॉक्टर के पास जाने के बजाय पीर-फकीरों, मजारों-मंदिरों में जाते हैं। सामान्य डॉक्टर मानसिक रोगों को पहचानने और रोगियों को मनोचिकित्सक के पास भेजने में असमर्थ रहते हैं। इसके चलते ओझा, पुरोहित, मौलवी, तथाकथित यौन विशेषज्ञ अवैध रूप से मनोचिकित्सक का काम कर रहे हैं।

विश्व स्वास्थ संगठन ने स्वास्थ्य की परिभाषा में स्पष्ट किया है कि यह शारीरिक, मानसिक और सामाजिक रूप से स्वास्थ्य की अनुकूल चेतना है, ना कि केवल बीमारी की गैर मौजूदगी। इस प्रकार मानसिक स्वास्थ्य, एक स्वस्थ शरीर का जरूरी हिस्सा है। यह हमारे देश की कागजी राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में भी दर्ज है। वैसे 1982 में मानसिक स्वास्थ कार्यक्रम शुरू हुआ था। आम डॉक्टर के पास आने वाले आधे मरीज उदासी, भूख, नींद और सेक्स इच्छा में कमी आना जैसी शिकायतें लेकर आते हैं। वास्तव में वे किसी ना किसी मानसिक रोग के शिकार होते हैं। देश भर में मानसिक रोगियों के इलाज के लिए कोई 32 हजार मनोचिकित्सकों की जरूरत है, जबकि इनकी संख्या मुश्किल से नौ हजार है। इनमें भी तीन हजार तो चार महानगरों तक ही सिमटे हैं। यह रोग भयावह है और इसका इलाज लंबे समय तक चलता है, जो खर्चीला भी है। इसके बावजूद किसी भी स्वास्थ्य बीमा योजना में इसे शामिल नहीं किया गया। सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में बीमा नियामक संस्था से यह पूछा भी है कि मानसिक रोग को बीमा सुविधा के दायरे में क्यों नहीं लाया गया है।

उधर सरकारी स्तर पर स्वास्थ्य सेवाएं बिल्कुल उपेक्षित हैं। वर्ष 2018-19 में केंद्र सरकार का इस मद में सालाना बजट 50 करोड़ था, जिसे 2019-20 में घटा कर 40 करोड़ कर दिया गया। दिनों-दिन बढ़ रही भौतिक लिप्सा और उससे उपजे तनावों व भागमभाग की जिंदगी के चलते भारत में मानसिक रोगियों की संख्या पश्चिमी देशों से भी ऊपर जा रही है। विशेष रूप से महानगरों में ऐसे रोग कुछ अधिक ही गहराई से पैठ कर चुके हैं। बात-बात पर बिगड़ना और फिर जल्द से लाल-पीला हो जाना ऐसे रोगियों की आदत बन जाती है। काम से जी चुराना, बहस करना और खुद को सच्चा साबित करना इनके प्रारंभिक लक्षण हैं। भय की कल्पनाएं इन लोगों को इतना जकड़ लेती हैं कि उनका व्यवहार बदल जाता है। जल्द ही दिमाग प्रभावित होता है और पनप उठते हैं मानसिक रोग।

जहां एक ओर मर्ज बढ़ता जा रहा है, वहीं हमारे देश के मानसिक रोग अस्पताल सौ साल पुराने पागलखाने के रूप में ही जाने जाते हैं। ये इमारतें मानसिक रोगियों की यंत्रणाओं, उनके प्रति समाज के उपेक्षित रवैये और सरकारी उदासीनता की गवाह हैं। तभी 2017 में 10,246 और 2018 में 10,134 मानसिक रोगियों ने आत्महत्या कर ली थी। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग मानता रहा है कि देश भर के पागलखानों की हालत बदतर है। इसे सुधारने के लिए कुछ साल पहले बेंगलुरु के राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ और चेतना विज्ञान संस्थान (निमहान्स) में एक परियोजना शुरू की गई थी। पर उसके किसी सकारात्मक परिणाम की जानकारी नहीं है। यह भी संसाधनों का रोना रोते हुए फाइलों में ठंडी हो गई।

हमारे देश में केवल 43 सरकारी मानसिक रोग अस्पताल हैं। इनमें से मनोवैज्ञानिक इलाज की व्यवस्था तीन जगह ही है। इन अस्पतालों में 21,000 बिस्तर हैं जो जरूरत से बहुत कम है। राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ कार्यक्रम की एक रिपोर्ट में भी इस बात का प्रमाण है कि ऐसे रोगियों की बड़ी संख्या इलाज का खर्च उठाने में असमर्थ है। सरकारी अस्पतालों के नारकीय माहौल में जाना उनकी मजबूरी होता है। आज भी अधिकांश मानसिक रोगी बगैर इलाज के अमानवीय हालात में जीने को मजबूर हैं। इन तमाम पहलुओं को समझते हुए हमें इस बारे में निर्णय लेना होगा।

देश-समाज में मानसिक रोग, रोगियों और उनके इलाज को लेकर व्यापक भ्रांतियां हैं, जिन्हें समङो बिना इस समस्या को समाप्त नहीं किया जा सकता

Heavy lightning is effect of climate change

  • धरती के बढ़ते तापमान का कुप्रभाव है आकाशीय बिजली का गिरना

पंकज चतुर्वेदी

 

इसकी शुरुआत बादलों के एक तूफ़ान के रूप में एकत्र होने से होती है । इस तरह बढ़ते तूफान के केंद्र में, बर्फ के छोटे-छोटे टुकड़े और बहुत ठंडी पानी की बूंदें आपस में टकराते हैं और इनके बीच विपरीत ध्रुवों के विद्युत कणों का प्रवाह होता है । वैसे तो धन और ऋण एक-दूसरे को चुम्बक की तरह अपनी ओर आकर्षित करते हैं, किंतु वायु के एक अच्छा संवाहक न होने के कारण विद्युत आवेश में बाधाएँ आती हैं। अतः बादल की ऋणावेशित निचली सतह को छूने का प्रयास करती धनावेशित तरंगे भूमि पर गिर जाती हैं। चुनी धरती विद्युत की सुचालक है। यह बादलों की बीच की परत की तुलना में अपेक्षाकृत धनात्मक रूप से चार्ज होती है। तभी इस तरह पैदा हुई  बिजली का अनुमानित 20-25 प्रतिशत प्रवाह धरती की ओर हो जाता है।  भारत में हर साल कोई दो हज़ार लोग इस तरह बिजली गिरने से मारे जाते हैं, मवेशी और मकान आदि का भी नुक्सान होता है

जिस तरह दिनांक 25 जून को बिहार और उत्तर प्रदेश के बड़े हिस्से में बिजली गिरी और कोई सवा सौ लोग मारे गये , यह एक असामान्य घटना है . जहाँ अमेरिका में हर साल बिजली गिरने से तीस, ब्रिटेन में औसतन तीन लोगों की मृत्यु होती है , भारत में यह आंकडा बहुत अधिक है- औसतन दो हज़ार . इसका मूल कारण है कि हमारे यहाँ आकाशीय बिजली के पूर्वानुमान और चेतावनी देने की व्यवस्था विकसित नहीं हो पाई है . आंकड़े गवाह हैं कि हमारे यहाँ बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखण्ड और छत्तीसगढ़ में बिजली गिरने की घटनाएँ ज्यादा होती हैं , सैंड रहे बिजली के शिकार आमतौर पर दिन में ही होते हैं , यदि तेज बरसात हो रही हो और बजली कडक रही हो तो ऐसे में पानी भरे खेत के बीच में, किसी पेड़ के नीचे , पहाड़ी स्थान पर जाने से बचना चाहिए . मोबाईल का इस्तेमाल भी खतरनाक होता है . पहले लोग अपनी इमारतों में ऊपर एक त्रिशूल जैसी आकृति लगाते थे- जिसे तड़ित-चालक कहा जाता था , उससे बिजली गिरने से काफी बचत होती थी , असल में उस त्रिशूल आकृति से एक धातु का मोटा तार या पट्टी जोड़ी जाती थी और उसे जमीन में गहरे गाडा जाता था ताकि आकाशीय बिजली उसके माध्यम से नीचे उतर जाए और इमारत को नुक्सान न हो .

यह समझना होगा कि इस तरह बहुत बड़े इलाके में एक साथ घातक बिजली गिरने का के पीछे का असल कारण धरती का लगातार बदल रहा तापमान है . यह बात सभी के सामने है कि आषाढ़ में पहले कभी बहुत भारी बरसात नहीं होती थी लेकिन अब ऐसा होने लगा है, बहुत थोड़े से समय में अचानक भारी बारिश हो जाना और फिर सावन-भादों सूखा जाना- यही जलवायु परिवर्तन की त्रासदी  है और इसी के मूल में बेरहम बिजली गिरने के कारक भी हैं । जैसे-जैसे जलवायु बदल रही है, बिजली गिरने की घटनाएँ ज्यादा हो रही हैं ।

एक बात और बिजली गिरना जलवायु परिवर्तन का दुष्परिणाम तो है लेकिन अधिक बिजली गिरने से जलवायु परिवर्तन की प्रक्रिया को भी गति मिलती है । सनद रहे बजली गिरने के दौरान नाइट्रोजन ऑक्साइड का उत्सर्जन होता है और यह एक घातक ग्रीनहाउस गैस है।हालांकि अभी दुनिया में बिजली गिरने और उसके जलवायु परिवर्तन पर प्रभाव के शोध बहुत सीमित हुए हैं लेकिन कई महत्वपूर्ण शोध इस बात को स्थापित करते हैं कि जलवायु परिवर्तन ने बजली गिरने के खतरे को बढ़ाया है इस दिशा  में और गहराई से कम करने के लिए ग्लोबल क्लाइमेट ऑब्जर्विंग सिस्टम (GCOS) - के वैज्ञानिकों ने  विश्व मौसम विज्ञान संगठन (WMO)  के साथ मिल कर एक विशेष शोध दल (टीटीएलओसीए) का गठन  किया है ।

धरती के प्रतिदिन बदलते तापमान का सीधा असर वायुमंडल पर होता है और इसी से भयंकर तूफ़ान भी बनते हैं । बिजली गिरने का सीधा सम्बन्ध धरती के तापमान से है जाहिर है कि जैसे-जैसे धरती गर्म हो रही है , बिजली की लपक उस और ज्यादा हो रही है । यह भी जान लें कि बिजली गिरने का सीधा सम्बन्ध बादलों के उपरी ट्रोपोस्फेरिक या क्षोभ-मंडल जल वाष्प, और ट्रोपोस्फेरिक ओजोन परतों से हैं और दोनों ही खतरनाक ग्रीनहाउस गैस हैं। जलवायु परिवर्तन के अध्ययन से पता चलता है कि भविष्य में यदि जलवायु में अधिक गर्माहट हुई तो गरजदार तूफ़ान कम लेकिन तेज आंधियां ज्यादा आएँगी और हर एक डिग्री ग्लोबल वार्मिंग के चलते धरती तक बिजली की मार की मात्रा 10% तक बढ़ सकती है।

कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, बर्कले के वैज्ञानिकों ने वायुमंडल को प्रभावित करने वाले अवयव और बिजली गिरने के बीच सम्बन्ध पर एक शोध मई २०१८ में प्रारंभ किया था । उनका आकलन था कि आकाशीय बिजली के लिए दो प्रमुख अवयवों की आवश्यकता होती है: तीनो अवस्था (तरल, ठोस और गैस) में  पानी और बर्फ बनाने से रोकने वाले घने बादल । वैज्ञानिकों ने 11 अलग-अलग जलवायु मॉडल पर प्रयोग किये और पाया कि भविष्य में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में गिरावट आने से रही और इसका सीध अपरिणाम होगा कि आकाशीय बिजली गिरने की घटनाएँ बढेंगी ।

एक बात गौर करने की है कि हाल ही में जिन इलाकों में बिजली गिरी उमे से बड़ा हिस्सा धन की खेती का है और जहां धान के लिए पानी को एकत्र किया जता है, वहां से ग्रीन हॉउस गैस जैस मीथेन का उत्सर्जन अधक होता है । जितना मौसम अधिक गर्म होगा, जितनी ग्रीन हॉउस गैस उत्सर्जित होंगी, उतनी ही अधिक बिजली, अधिक ताकत से धरती पर गिरेगी । उनके निष्कर्ष समझ में आते हैं क्योंकि भारी वर्षा और तूफान ऊर्जा वायुमंडल में जल वाष्प की उपलब्धता से संबंधित हैं, और गर्म वातावरण अधिक नमी धारण कर सकते हैं। हालांकि, यह काम भविष्यवाणी नहीं कर सकता है, जब या जहां बिजली के हमले हो सकते हैं।

"यह उन क्षेत्रों में हो सकता है जो आज बहुत अधिक बिजली की हड़ताल प्राप्त करते हैं, भविष्य में और भी अधिक हो जाएंगे, या यह हो सकता है कि देश के कुछ हिस्सों को भविष्य में बहुत कम बिजली मिल सकती है," रोम्स ने कहा। "हम इस बिंदु पर नहीं जानते हैं।"

“जियोफिजिकल रिसर्च लेटर्स” नामक ऑनलाइन जर्नल के मई अंक में प्रकाशित एक अध्ययन में अल नीनो-ला नीना, हिंद महासागर डाय  और दक्षिणी एन्यूलर मोड के जलवायु परिवर्तन पर प्रभाव और उससे दक्षिणी गोलार्ध में बढ़ते तापमान के कुप्रभाव सवरूप अधिक आकाशीय विद्धुत-पात की संभावना पर प्रकाश डाला गया है । एल नीनो-ला नीना, विषुवतीय पूर्वी और मध्य प्रशांत महासागर में गर्म और ठन्डे काल हैं और यह समूची दुनिया की जलवायु को सबसे अधिक प्रभावित करते  है।

विदित हो मानसून में बिजली चमकना बहुत सामान्य बात है। बिजली तीन तरह की होती है- बादल के भीतर कड़कने वाली, बादल से बादल में कड़कने वाली और तीसरी बादल से जमीन पर गिरने वाली। यही सबसे ज्यादा नुकसान करती है। बिजली उत्पन्न करने वाले बादल आमतौर पर लगभग 10-12 किमी. की ऊँचाई पर होते हैं, जिनका आधार पृथ्वी की सतह से लगभग 1-2 किमी. ऊपर होता है। शीर्ष पर तापमान -35 डिग्री सेल्सियस से -45 डिग्री सेल्सियस तक होता है। स्पष्ट है कि जितना तापमान बढेगा , बिजली भी उतनी ही बनेगी व् गिरेगी

यह सारी दुनिया की चुनोती है कि कैसे ग्रीन हॉउस गैसों पर नियंत्रण हो और जलवायु में अनियंत्रित परिवर्तन पर काबू किया जा सके , वरना, समुद्री तूफ़ान, बिजली गिरना, बादल फटना जैसी भयावह त्रासदियाँ हर साल बढेंगी ।


why not fair inquiry of inquiry of Delhi riots

फिर क्यों ना हो दिल्ली दंगों के जांच की जांच

                                                                                                                                            पंकज चतुर्वेदी
इसे हमारे मित्र अमलेंदु उपाध्याय के न्यूज पोर्टल "हस्तक्षेप" पर भी देख सकते हैं https://www.hastakshep.com/delhi-riots-investigation/ 
दिनांक 20 जून, 2020: दिल्ली की एक अदालत में फ़ैसल को जमानत देने वाले जज विनोद यादव ने कहा कि इस मामले के गवाहों के बयानों में अंतर है और मामले में नियुक्त जांच अधिकारी ने ख़ामियों को पूरा करने के लिए पूरक बयान दर्ज कर दिया है। अदालत ने अपने आदेश में कहा, ‘जांच अधिकारी ने इन लोगों में से किसी से भी बात नहीं की और सिर्फ़ आरोपों के अलावा कोई भी ठोस सबूत नहीं है, जिसके दम पर यह साबित किया जा सके कि फ़ैसल ने इन लोगों से दिल्ली दंगों के बारे में बात की थी।’
विदित हो राजधानी पब्लिक स्कूल जो कि दिल्ली के दंगों में पूरी तरह आग के हवाले कर दिया गया था, लेकिन उसके संचालक फैसल फारूक को पुलिस ने दंगों का मुख्य सूत्रधार, षड्यंत्रकर्ता  और  आयोजक बना कर 8 मार्च को गिरफ्तार  कर जेल भेज दिया। पुलिस ने यह भी दावा किया था कि फ़ारूक़ के कहने पर ही दंगाइयों ने राजधानी स्कूल के बगल में स्थित डीआरपी कॉन्वेन्ट स्कूल, पार्किंग की दो जगहों और अनिल स्वीट्स में भी सोच-समझकर तोड़फोड़ की थी।
29 मई 2020: दिल्ली हाई कोर्ट ने फिराज खान नामक एक अभियुक्त को जमानत देते हुए पुलिस से पूछा कि आपकी प्रथम सूचना रिपोर्ट में तो 250 से 300 की गैरकानूनी भीड का उल्लेख है। अपने उसमें से केवल फिरोज व एक अन्य अभियुक्त को ही कैसे पहचाना? पुलिस के पास इसका जवाब नहीं था और फिरोज को जमानत दे दी गई।
27 मई 2020: दिल्ली पुलिस की स्पेषल ब्रांच ने साकेत कोर्ट में जज धर्मेन्द्र राणा के सामने जामिया के छात्र आसिफ इकबाल तनहा पेश किया गया था। इस ममले में भी आसिफ को न्यायिक हिरासत में भेजते हुए जज ने कहा कि दिल्ली दंगों की जांच दिशाहीन है । मामले की विवेचन एकतरफा है । कोर्ट ने पुलिस उपायुक्त को भी निर्देश दिया कि वे इस जांच का अवलोकन करें ।
25 मई 2020:  पिंजड़ा तोड़ संगठन की नताशा और देवांगना को जाफराबाद मेट्रो स्टेशन के सामने प्रदर्शन करने के आरोप में गिरफ्तार किया। अदालत ने कहा कि उन्होंने प्रदर्शन करने का कोई गुनाह नहीं किया इसलिए उन्हें जमानत दी जाती है । यही नहीं अदालत ने धारा धारा 353 लगाने को भी अनुचित माना। अदालत ने कहा कि अभियुक्त केवल प्रदर्शन कर रहे थे । उनका इरादा किसी सरकारी कर्मचारी को आपराधिक तरीके से उनका काम रोकने का नहीं था। इसलिए धारा 353 स्वीकार्य नहीं है ।

दिल्ली पुलिस की जांच तब और संदिग्घ हो गई जब केस नंबर 65/20 अंकित शर्मा हत्या और केस नंबर 101/20 खजूरी खास की चार्जशीट  में कहा गया कि 8 जनवरी को शाहीन बाग में ताहिर हुसैन की मुलाकात खालिद सैफी ने उमर खलिद से करवाई और तय किया गया कि अमेरिका के राष्ट्रपति  के आने पर दंगा करेंगे। हकीकत तो यह है कि 12 जनवरी 2020 तक किसी को पता ही नहीं था कि ट्रंप को भारत आना है और 12 जनवरी को भी एक संभावना व्यक्त की गई थी जिसमें तारीख या महीने का जिक्र था ही नहीं। यह यह तो कुछ ही मामले हैं । दिल्ली पुलिस ने दंगों से संबंधित जांच को एक उपन्यास बना दिया।  पुलिस स्थापित कर रही है कि दिल्ली में नागरिकता कानून के खिलाफ 100 दिन से चल रहे धरनों में ही दंगों की कहानी रची गई। गौरतलब है कि देश भर में मशहूर और सबसे भीड़भरे धरने शाहीन बाग में दो बार गोली चली और मुजरिम वही पकड़े गए, कोई आधा दर्जन बार दक्षिणपंथी समूह के लोग वहां नारेबाजी करते रहे, लेकिन कभी ना तो कोई तनाव हुआ, ना मारापीटी हुई और ना ही प्रतिकार हुआ। दिल्ली में चल रहे कोई 15 से अधिक स्थान के धरनों पर पर्याप्त पुलिस का पहरा रहता था। दिल्ली पुलिस का खुफिया विभाग, आईबी और अन्य कई खुफिया एजंेसियां इस धरने के इर्दगिर्द थीं। हर दिन की रिपोर्ट गृह मंत्रालय तक जा रही थी। यदि पुलिस की मानें तो दंगे की साजिश जनवरी से चल रही थी। यदि यह सच है तो हमारा पूरा खुफिया तंत्र एक स्थानीय स्तर की इतनी बड़ी साजिश का सूत्र भी नहीं निकाल पाया।

जब दंगे भड़क रहे थे तब 24 फरवरी 2020 को दिन में 3.00 बजे योगेन्द्र यादव, यूनाईटेड अगेंस्ट हेट्स के नदीम खान, सहित कई लोग तत्कालीन पुलिस कमिश्नर अमूल्य पटनायक से मिलते हैं और ज्ञापन देते हैं कि दिल्ली में दगों को रोका जाए। 25 फरवरी 2020 को षाम 4.30 बजे राहुल राय, अपूर्वानंद, योगेंद्र यादव सहित 25 लोग फिर प्रषासन से लिखित अपील करते हैं कि दिल्ली की प्रषासनिक मशीनरी ठीक से काम करे ताकि दंगों का फैलाव ना हो। अब पता चल रहा है कि पुलिस ने कई चार्ज शीट में योगेंद्र यादव, हर्षमंदर , राहुल राय आदि को दंगे की साजिश में घसीटने की कोशिश की है। यूनाईटेड अंगेस्ट हेट्स क खालिद सैफी पर तो नाा जाने कितने मुकदमें लाद दिए गए।
यह शर्मनाक है कि देश की राजधानी दिल्ली में, जब अमेरिका के राष्ट्रपति आ रहे हों और चार दिन तक नार्थ-ईस्ट दिल्ली के कुछ ही वर्ग किलोमीटर के इलाके में दंगा चलता रहे और देश के सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल को खुद सड़क पर आना पड़े। कई रिटायर्ड पुलिस व प्रशासनिक अधिकारी कह चुके हैं कि दिल्ली , जहां हर तरह की फोर्स, मशीनरी , इंटेलीजेंस उपलब्ध है और वहां इतने दिन दंगे होते हैं तो निश्चित ही यह पुलिस की नाकामी या मिलीभगत का नतीजा है।
दिल्ली दंगों की जांच की जांच इस लिए भी जरूरी है कि मुस्लिम पक्ष के लोगों का अधिक नुकसान हुआ, उस पक्ष से लोग ज्यादा मारे गए और गंभीर मामलों में गिरफ्तारियां भी उनकी हुईं। जहां कोई केस नहीं लग रहा था वहां यूएपीए लगा दिया गया। हालांकि आंकड़ों में पुलिस दोनो पक्ष की गिरफ्तारी को बराबर दिखती है लेकिन बारीकि से देखें तो हिंदू पक्ष के अधिकांश  मुकदमें ऐसे थे जिनमें उन्हें आसानी से जमानत मिल गई। यही नहीं जो लोग भी पकड़े गए उनमें एक गिरोह मिला जो 125 लोगों को व्हाट्सएप ग्रुप चलाता था और उन्होंने दो दिन में आठ मुसलमोनों को मार कर  नाले में फैंक दिया। यह बात पुलिस की चार्जशीट में हैं लेकिन ना तो इन पर मकोका लगा और ना ही यूएपीए। 

सबसे भयानक तो वे दस से अधिक एफआईआर हैं जिनमें लोनी के विधायक नन्द किशोर  गूजर, पूर्व विधायक जगदीश  प्रधान, मोहन नर्सिंग होम के सुनील, कपिल मिश्रा आदि को सरे आम दंगा करते, लोगों की हत्या करते, माल-असबाब जलाने के आरोप हैं। यमुना विहार के मोहम्मद इलीयास और  मोहम्मद जामी रिजवी ,चांदबाग की रुबीना बानो बानो, प्रेम विहार निवासी सलीम सहित कई लोगों की रिपोर्ट पर पुलिस थाने की पावती के ठप्पे तो लगे हैं लेकिन उनकी जांच का कोई कदम उठाया नहीं गया। इसी तारतम्य में हाई कोर्ट के जज श्री मुरलीधरन द्वारा कुछ वीडियो देख कर दिए गए जांच के आदेष और फिर जज साहब का तबादला हो जाना और उसके बाद उनके द्वारा दिए गए जांच के आदेष पर कार्यवाही ना होना वास्तव में न्याय होने पर षक खड़ा करता है। 
दंगे मानवता के नाम पर कलंक हैं। धर्म, भाषा, मान्यताओं, रंग जैसी विषमताओं के साथ मत-विभाजन होना स्वाभाविक है। लेकिन जब सरकार व पुलिस में बैठा एक वर्ग खुद सांप्रदायिक हो जाता है तो उसकी सीधी मार निरपराध, गरीब और अशिक्षित वर्ग पर पड़ती है। एक बारगी लगता हो कि दंगे महज किसी कौम या फिरके को नुकसान पहुंचाते हैं, असल में इससे नुकसान पूरे देश  के विकास, विश्वास  और व्यवसाय को होता है। आज जरूरत इस बात की है कि दंगों के असली कारण, साजिश  को सामने लाया जाए तथा मैदान में लड़ने वालों की जगह उन लेागों को कानून का कड़ा पाठ पढ़ाया जाए जो घर में बैठ कर अपने निजी स्वार्थ के चलते लोगों को भड़काते हैं व देष के विकास को पटरी से नीचे लुढकाते हैं। इसी लिए आज जरूरी हो गया है कि दिल्ली दंगों की जांच की जांच किसी निश्पक्ष  एजेंसी से करवाई जाए, यदि हाई कोर्ट के किसी वर्तमान जज इसकी अगंआई करें तो बहुत उम्मीदें बंधती हैं।

















शनिवार, 20 जून 2020

Sun eclipse : A scientific event , do not believe in superstition

जब सुबह हो जाएगी रात !

                                                                                                                                         
पंकज चतुर्वेदी

इस साल का पहला सूर्य ग्रहण 21 जून को होगा और यह पूर्ण ग्रहण ‘‘रिंग ऑफ फॉयर’’ की तरह लगेगा। इसे ‘कंकण ग्रहण’ दृष्य भी कहते हैं। इसलिए दिन में रात लगने लगेगी। इसमें चंद्रमा सूरज को पूरी तरह ढंक लेगा। चमकते सूर्य का केवल बाहरी हिस्स दमकता दिखेगा, एक मुद्रिका के मानिंद । हालांकि रिंग ऑफ फायर का यह नजारा कुछ सेकेंड से लेकर 12 मिनट तक ही देखा जा सकेगा । यह ग्रहण भारतीय समय के अनुसार सुबह 9 बजे से शुरू होगा और दोपहर 3 बजे तक रहेगा। पूर्ण ग्रहण 10 बजकर 17 मिनट पर होगा। यह ग्रहण अफ्रीका, पाकिस्तान के दक्षिण भाग में, उत्तरी भारत और चीन में देखा जा सकेगा। भारत में यह खंडग्रास चंद्र ग्रहण होगा। जान लें 21 जून का दिन, सबसे बड़ा दिन होता है और उस दिन इतने लंबे समय तक सूर्य ग्रहण एक विलक्षण वैज्ञानिक घटना है। ऐसा अवसर कोई नौ सौ साल बाद आया है। 

भारत में सूर्य ग्रहण 
भारत में राजस्थान में दो जगहों पर सूर्यग्रहण के दौरान सूर्य का सिर्फ एक प्रतिशत भाग ही दिखाई देगा। इसकी आकृति कंगन जैसी दिखेगी। यह अद्भुद नजारा  राजस्थान के श्रीगंगानगर जिले के घडसाना और सूरतगढ़ में देखा जा सकेगां ं। उत्तरी राजस्थान में करीब 20 किमी की पट्टी में सूर्य का 99 प्रतिशत भाग ग्रहण में नजर आएगा। शेष राजस्थान के लोगों को आंशिक सूर्य ग्रहण दिखेगा। राजस्थान के लोग पहली बार वलयाकार सूर्य ग्रहण देख सकेंगे। भारत में देहरादून, कुरूक्षेत्र, चमोली, मसूरी, टोहाना अदि स्थान पर कंकण ग्रहण के दर्षन बहुत स्पश्ट होंगे। दिल्ली व उसके आसपास ग्रहण घना होगा लेकिन पूर्ण सूर्य ग्रहण नहीं होगा। यहां चंद्रमा सूरज को लगभग 95 फीसदी  घेर लेगा। इस इलाके में सुबह 10.19 बजे षुरू हो करतीन घंटे 28 मिनट और 36 सेकंड के लंबे काल में ग्रहण का प्रभाव होगा। वैसे यह सूर्य ग्रहण अफ्रीका से सुबह 9.16 मिनट पर षुरू होगा। भारत में सुबह 9.56 मिनट पर गुजरात के द्वारका इसका प्रतिपादन होगा। यहां यह दिन में 1बज कर 20 मिनट तक रहेगा। हमारे देष में इसका समापन कोहिमा में दिन में दो बज कर 28 मिनिट पर होगा। यहां इसका प्रारंभ दिन 11 बज कर चार मिनिट से होगा।
जानें ग्रहण के समय कितनी होगी सूर्य और पृथ्वी के बीच दूरी
21 जून रविवार के दिन सूर्य और पृथ्वी के बीच 15 करोड़ 2 लाख 35 हजार 882 किमी की दूरी होगी। इस समय पर चांद अपने पथ पर चलते हुए 3 लाख 91 हजार 482 किमी की दूरी बनाए रखेगा। 
अकेले भारत में ही नहीं , पूरी दुनिया में यह धारणा रही है कि पूर्ण ग्रहण कोई अनिश्टकारी घटना है। अंग्रेजी में ‘ग्रहण’ को ‘एक्लिप्स’ कहते हैं। वास्तव में यह एक ग्रीक षब्द है, जिसका अर्थ होता है-बुरा प्रभाव। आज जब मानव चांद पर झंडे गाड़ चुका है, ग्रह-नक्षत्रों की हकीकत सबके सामने आ चुकी है;ऐसे में पूर्ण सूर्यग्रहण की विरली घटना प्रकृति के अनछुए रहस्यों के खुलासे का सटीक मौका हैं। सूर्य या चंद्र ग्रहण महज परछाईयों का खेल है। जैसा कि हम जानते हैं कि पृथ्वी और चंद्रमा दोनों अलग-अलग कक्षाओं में अपनी ध्ुारी के चारों ओर घूमते हुए सूर्य के चक्कर लगा रहे हैं। सूर्य स्थिर है। पृथ्वी और चंद्रमा के भ्रमण की गति अलग-अलग है। सूर्य का आकार चंद्रमा से 400 गुणा अधिक बड़ा है। लेकिन पृथ्वी से सूर्य की दूरी, चंद्रमा की तुलना में अधिक है। इंस निरंतर परिक्रमाओं के दौर में  जब सूरज और धरती के बीच चंद्रमा आ जाता है तो धरती से ऐसा दिखता है, जैसे कि सूर्य का एक भाग ढंक गया हो। वास्तव में होता यह है कि पृथ्वी पर चंद्रमा की छाया पड़ती है। इस छाया में खड़े हो कर सूर्य को देखने पर ‘‘पूर्ण ग्रहण’ सरीखे दृष्य दिखते हैं। परछाईं वाला क्षेत्र सूर्य की रोषनी से वंचित रह जाता है, सो वहां दिन में भी अंधेरा हो जाता है।
वैसे तो हर महीने अमावस्या के दिन चंद्रमा, पृथ्वी और सूर्य के बीच आता है, लेकिन हर बार ग्रहण नहीं लगता है।  सनद रहे कि ग्रहण तभी दिखाई देगा, जब चंद्रमा की कक्षा पृथ्वी की कक्षा के तल की सीध में आती है। चूंकि चंद्रमा की कक्षा पृथ्वी की कक्षा के तल की ओर पांच अंष का झुकाव लिए हुए है अतः हर अमावस्या को इन तीनों का एक सीध में आना संभव नहीं होता है। एक षताब्दी में औसतन 238 सूर्य ग्रहण पड़ते हैं जिनमें से 28 प्रतिषत सूर्य ग्रहण, एक तिहाई वलयाकार और षेश आंषिक सूर्य ग्रहण होते हैं। वैसे पूर्ण सूर्य ग्रहण की अधिकतम अवधि 450 सेकंड होती है।
सूर्य ग्रहण कैसे
सूर्य प्रकाष का एक विषाल स्त्रोत है, अतः जब चंद्रमा इसके रास्ते में आता है तो इसकी दो छाया निर्मित होती हैं। पहली छाया को ‘अंब्रा’ या ‘प्रछाया’ कहते हैं।दूसरी छाया ‘पिनेंब्रा’ या ‘प्रतिछाया’ कहलाती है। इन छायाओं का स्वरूप कोन की तरह यानी षंक्वाकार होता है।  अंब्रा के कोन की नोक पृथ्वी की ओर और पिनेंब्रा की नोक चंद्रमा की ओर होती है। जब हमा अंब्रा के क्षेत्र में खड़े हो कर सूर्य की ओर देखते हैं तो  सूरज पूरी तरह ढंका दिखता है। यही स्थिति पूर्ण सूर्य ग्रहण होती है। वहीं यदि हम पिनेंब्रा के इलाके में खड़े हो कर सूर्य को देखते हैं तो हमें सूर्य का कुछ हिस्सा ढंका हुआ दिखेगा। यह स्थिति ‘आंषिक सूर्य ग्रहण’ कहलाती है। यहां जानना जरूरी है कि जब पूर्ण सूर्य ग्रहण होगा, धरती के किसी ना किसी हिस्से में आंषिक सूर्य ग्रहण भी होगा। सूर्य ग्रहण का एक प्रकार और है, जो सबसे अधिक रोमांचकारी होता है- इसमें सूर्य एक अंगूठी की तरह दिखता हैं ।  जब चंद्रमा और पृथ्वी के बीच की दूरी इतनी कम हो जताए कि  पृथ्वी तक पिनेंब्रा की छाया तो पहुंचे, लेकिन एंब्रा की नहीं। तब धरती पर पिनेंब्रा वाले इलाके के लोगों को ऐसा लगेगा कि काले चंद्रमा के चारों ओर सूर्य किरणें निकल रही है। इस प्रकार का सूर्य ग्रहण ‘एनुलर’ या वलयाकार कहलाता है। 
अब यह समझना मुष्किल नहीं है कि ग्रहण के समय सूर्य देवता राहू का ग्रास कतई नहीं बनते हैं। जैसे-जैसे चंद्रमा सूर्य को ढंकता है, वैसे-वैसे पृथ्वी पर पहुंचने वाली सूर्य-प्रकाष की किरणें कम होती जाती हैं। पूर्ण सूर्य ग्रहण होने पर सूर्य की वास्तविक रोषनी का पांच लाख गुणा कम प्रकाष धरती तक पहुंच पाता है। एक भ्रम की स्थिति बनने लगती हैकि कहीं षाम तो नहीें हो गई। तापमान भी कम हो जाता है। कभी-कभी ओस गिरने लगती है। अब पषु-पक्षियों के पास कोई घड़ी तो होती नहीं हैं, सो अचानक सूरज डूबता देख उनमें बैचेनी होने लगती है।
पृथ्वी, चंद्रमा और सूर्य के एक सीध में आने और हटने पर चार बिंदु दृश्टिगोचर होते हैं। इन्हें ‘संपर्क ंिबदु’ कहा जाता है। जब सूर्य खग्रास की स्थिति में पहुंचने वाला होता है, तब कुछ लहरदार पट्टियां दिखती हैं। यदि जमीन पर एक सफेद कागज बिछा कर देखा जाए तो इन पट्टियों को साफतौर पर देखा जा सकता है। जब चंद्रमा, सूरज को पूरी तरह ढंक लेता है तब सूर्य के चारों ओर हलकी वलयाकार धागेनुमा संरचनाएं दिखाई देती है। हम जानते ही हैं कि चंद्रमा के धरातल पर गहरी घाटियां हैं। इन घाटियों के उंचाई वाले हिस्से, सूरज की रोषनी को रोकते हैं, ऐसे में इसकी छाया कणिकाओं के रूप में दिखती है। यह स्थिति खग्रास के षुश्आत और समाप्त होते समय देखी जा सकती है। इस घटना की खोज सन 1836 में फ्रांसिस बैल नामक वैज्ञानिक ने की थी, तभी इन कणिकाओं को ‘‘बेजीज बीड्स’’ कहा जाता है।
पूर्ण सूर्य ग्रहण को यदि दूरबीन से देखा जाए तो चंद्रमा के चारों ओर लाल-नारंगी लपटें दिखेंगी। इन्हें ‘‘सौर ज्वाला’’ कहते हैं। सूर्य और चंद्रमा के ये रोचक दर्षन 22 जुलाई 2009 के सुबह किए जा सकते है। यह इस सदी का पहला पूर्ण सूर्य ग्रहण है।  अभी तक उपलब्ध जानकारी के अनुसार 18 अगस्त 1868 और 22 जनवरी 1898 को भारत में पूर्ण सूर्य ग्रहण देखा गया था। फिर 16 फरवरी 1980 और 24 अक्तूबर 1995 और 11 अगस्त 1999 को सौर मंडल का यह अद्भुत नजारा देखा गया था। 22 जुलाई 2009 का ेहुए सूर्य ग्रहण को अभी तक का सबसे लंबी अवधि का ‘पूर्ण ग्रहण’ माना जाता है। तब छह मिनिट और 39 सेकंड तक पूरी तरह ग्रहण का काल था। इतनी लंबी का ग्रहण अब 13 जून सन 2132 में ही होगा। पिछले साल 26 दिसंबर 2019 को भी पूर्ण सूर्य ग्रहण पड़ा था। 
वैसे तो दूरदर्षन सहित कई टीवी चैनल पूर्ण सूर्य ग्रहण का सीधा प्रसारण करेंगे ही, लेकिन अपने अंागन-छत से इसे निहारना जीवन की अविस्मरणीय स्मृति होगा। यह सही है कि नंगी आखों से ग्रहण देखने पर सूर्य की तीव्र किरणें आंखों को बुरी तरह नुकसान पहुंचा सकती है। इसके लिए ‘‘मायलर-फिल्म’’ से बने चष्मे सुरक्षित माने गए है। पूरी तरह एक्सपोज की गई ब्लेक-एंड व्हाईट कैमरा रील या आफसेट प्रिंटिंग में प्रयुक्त फिल्म को इस्तेमाल किया जा सकता है। इन फिल्मों को दुहरा-तिहरा करें। इससे 40 वाट के बल्ब को पांच फीट की दूरी से देखें, यदि बल्ब का फिलामेंट दिखने लगे तो समझ लें कि फिल्म की मोटाई अभी और बढ़ा होगा। वेल्डिंग में इस्तेमाल 14 नंबर का ग्लास या सोलर फिल्टर फिल्म भी सुरक्षित तरीके हैं। और हां, सूर्य ग्रहण को अधिक देर तक लगातार कतई ना देखें। कुछ सेकंड देख कर पलकों को झपकाएं जरूर। सूर्य ग्रहण के दौरान घर से बाहर निकलने में कोई खतरा नहीं है। अभी तक घटित पूर्ण सूर्य ग्रहणों में वैज्ञानिक यह भी जांच चुके हैं कि ग्रहण के दौरान गर्भवती महिलाओं का ना तो ब्लड प्रेष्सर बढ़ता है और ना ही गर्भस्थ षिषु में कोई विकृति होती है। यह पूर्ण सूर्य ग्रहण तो हमारे वैज्ञनिक ज्ञान के भंडार के कई अनुत्तरित सवालों को खोजने में मददगार होगा। तो आप भी तैयार हैं ना पूर्ण सूर्य प्रहण के दर्षन के लिए ?
बड़े काम के हैं पूर्ण सूर्य
 दिन में अंधेरा होने की प्राकृतिक घटना को भले ही कुछ लोग अनहोनी की आषंका मानते हों, लेकिन वैज्ञानिकों के लिए तो यह बहुत कुछ खोज लेने का अवसर होता है। सूर्य एक दहकता हुआ गोला है, ंजिसमे 90 प्रतिषत हाईड्रोजन, षेश हीलियम व कुछ अन्य गैस है। इसका प्रकाष और उश्मा 93 लाख मील का सफर तय कर धरती पहुंचती है। सूर्य का व्यास चंद्रमा से 400 गुणा अधिक है। सूर्य की गतिविधयों की जानकारी प्राप्त ,करने का संबसे सटीक सूय होता है पूर्ण ग्रहण ; क्योंकि इस दौरान सूर्य की तीव्रता सबसे कम होती है। 18 अगस्त 1868 को हुए पूर्ण सूर्य ग्रहण के दौरान पियरे जूल्स जान्सन नामक वैज्ञानिक बड़ी मुष्किलें झेल कर भारत आया और उसने ऐसी जानकारियां एकत्र कीं, जिसके आधार पर अं्रग्रेज खगोलविद् लाकियर ने सूर्य पर हीलियम की मौजूदगी की पुश्टि की। इसके तीस साल बाद धरती पर हीलियम मिलने की खोज हुई।
आईंस्टीन की थ्योरी आफ रिलेटिविटी की पुश्टि भी 29 मई 1919 को ब्राजील में लगे एक पूर्ण सूर्य ग्रहण का अध्ययन कर रहे वैज्ञानिकों के एक दल ने की थी। इसके अनुसार प्रकाष की किरणें गुरूत्वाकर्शण प्रभाव से अपने रास्ते से विक्षेपित हो जाती है। पराबैंगनी किरणों, अवमुक्त विकिरण , धूमकेतु जैसे कई षोध पूर्ण सूर्य ग्रहण के कारण ही स्थापित हो सके हैं। सूर्य के प्रभामंडल का सबसे पहला चित्र 28 जुलाई 1851 को पूर्ण सूर्य ग्रहण के दौरान ही लिया जा सका था।
कैसा अनांेखा है सूर्य
0 सूर्य एक तारा है। इसे गृह मानना हमारी भूल है।
0 सूर्य की सतह का तापमान 6000 डिग्री सेल्सियस है। इसके कंेद्रक की ओर बढ़ने पर तापमान बढ़ता जाता है जो डेढ़ करोड डिग्री तक हो जाता है।
0 सूर्य का वजन धरती से तीन लाख 33 हजार गुणा अधिक है। इसकी परिधि पर 109 पृथ्वी रखी जा सकती है। इसमें दस लाख से अधिक पृथ्वी समा सकती है।
0 यदि सूर्य ऐसे ही जलता रहा तो 500 करोड़ वर्शों तक यह धरती को प्रकाष व उश्मा देता रहेगा।
ऐसा भी होता है पूर्ण सूर्य ग्रहण में
कुमुदिनी धोखा खा गई !
फतेहपुर सीकरी और खानवा के बीच एक छोटा सा गांव है- आषा का नगला। यहां के तालाब में हजारों कुमुदिनियां खिलती है। 25 अक्तूबर 1995 को जब पूर्ण सूर्य ग्रहण पड़ा तो कुमुदनी के फूल प्रकृति की इस बाजीगरी में चकरा गए और उनका खिलना षुरू हो गया। कुछ मिनटों बाद जब फिर से सूर्य चमका तो फूलों का खिलना रूक गया।
पषु-पक्षियों की बैचेनी!
अभी तक घटित सभी पूर्ण सूर्य ग्रहणो के दौरान प्रकृति को अपनी धड़ी मानने वाले जीव-जंतु जरूर परेषा दिखे हैं। जब चिड़िया के नीड छोड़ने का वक्त होता है , या जब गाय अपने बछड़े को दूध पिलाना चाहती है ; अचानक अंधेरा होने पर वे हड़बड़ा जाते हैं। कु कीट पतंगे आवाज भी करने लगते हैं। आकाष में तारे दिखने की भी संभावना होती है।
आंखें गईं ग्रहण में !
भले ही वैज्ञानिक चेताते रहे, लेकिन कुछ अंध विष्वास के मारे थे तो कुछ जिद्दी- पिछले पूर्ण सूर्य ग्रहण के दौरान भारत में एक दर्जन लोगों की आंखों के सामने दिन में छाए अंधेरे के कारण सदा के लिए अंधेरा छा गया। सूर्य ग्रहण देखते समय वैज्ञानिकों के निर्देषों का कड़ाई से पालन करें।
पंकज चतुर्वेदी
सहायक संपादक
नेषनल बुक ट्रस्ट इंडिया
 नेहरू भवन, वसंत कुंज इंस्टीट्यूषनल एरिया फेज-2
 वसंत कुंज, नई दिल्ली-110070
 संपर्क- 9891928376

 
 



गुरुवार, 11 जून 2020

Destroying cash crop in farm is threat to soil

जमीन की सेहत खराब कर रही है फसल की बर्बादी
पंकज चतुर्वेदी


इन दिनों पूरे देश में फल सब्जी के किसान तुडाई और परिवहन का व्यय भी ना निकाल पाने के कारण अगली फसल की तयारी के लिए खेत में ही  फसल पर रोटावेयर चलवा रहे हैं . इससे खेत की मिटटी को दूरगामी नुक्सान हो सकता है . यह लेख इस मसले पर है   



 हरियाणा के तोशाम में कोई तीन सौ एकड़ में टमाटर की बंपर फसल हुई। 70 हजार प्रति एकड़ का के खर्च से तैयार फसल के खरीदार हैं ही नहीं। भले ही बाजार में टमाटर के दाम पच्चीस रूपए  किलो हों, लेकिन मंडी में  बामुशिकल सात से दस पर बिक रहा है। इतनेमें तो किसान को टुडाई व ढुलाई का खर्चा भी नहीं निकलता। फलस्वरूप किसानों ने तय कर लिया कि यह घाटा सह लेंगे और अगली फसल के लिए पके टमाटर से लदे खेत पर ट्रेक्टर चला देंगे। इंदौर की चोईथराम मंडी को प्रदेश की सबसे बड़ी प्याज की आवक का दर्जा प्राप्त है। इन दिनों वहां सूना है। पिछले सालों तक इस समय यहां डेढ से दो लाख कट्टा हर दिन की आवक होती थी- एक कट्टे में कोई चालीस किलो प्याज। इन दिनों बाजार में प्याज की मांग है ही नहीं, सो मंडी में दाम पांस से छह रूपए किलो है।  प्याज को जमीन से निकालना, छांटना और उसे मंडी तक लाने का खर्च ही औसतन पांच रूपए किलो होता है। ऐसे में किसान मालवा के कई हजार हैक्टर में खड़ै प्याज पर रोटावेयर चलाया जा रहा है। लॉक डाउन के 31 मई तक बढ़ने से वे किसान लगभग बरबादी की कगार पर आ गए है जिन्होंने अधिक आय की उम्मीद में अपने खेतों में फल-सब्जी-फूल आदि की नगदी फसल लगाई थी। यह मसला केवल किसान के कंगाल होने तक ही सीमित नहीं है, हताश किसान जिस तरह खेत में फसल को मिट्टी में मिला रहा है, उससे खेती की जमीन की रासायनिक संरचना ही बदलने का अंदेशा है। यदि ऐसा होता है तो यह देश की खेती के लिए चेतावनी है। 

कर्नाटक में इस बार अंगूर की बंपर फसल हुई। अगूर को ना तो ज्यादा दिन बेलों पर रहने दिया जा सकता है और ना ही उसके वेयर हाउस की व्यवस्था है। राष्ट्रव्यापी तालाबंदी  के चलते परिवहन ठप्प है और थो मंडी व स्थानीय बाजार भी। इसके चलते बेंगलुरु ग्रामीण, चिक्काबल्लापुर और कोलार जिलों में 500-600 करोड़ रुपये की अंगूर बर्बाद हो गई। इस फसल का सबसे बड़ा संकट यह है कि यदि सूख कर अंगूर जमीन पर गिर गया तो मिट्टी की उर्वरता षक्ति समाप्त हो जाती है। कर्नाटक के ही श्रीरंगपट्टना के गंजम गाँव में दो टन चीकू हो या फिर राजस्थान में कई जगह खीरे ,या फिर मध्यप्रदेश के ंिछंदवाड़ा जिले का संतरों के लिए मशहूर गांव हर्लद, किसान इनकी तुडाई पर होने वाले व्यय से बचने के लिए उन पर वैसे ही ट्रैक्टर चलवा रहा है। यह जानना जरूरी है कि टमाटर , अंगूर या ऐसे ही फल-सब्जी के पौधेे प्रकृति ने न तो केवल एक फसल लेने के लिए बनाए थे और ना ही एकल फसल के लिए । पारंपरिक रूप से फल-सब्जी के पौधे ोत की मेढ या अतिरिक्त भूमि पर मिश्रित या अतिरिक्त फसल के लिए होते थे। यदि एक ही खेत से अधिक फसल लेने का लोभ ना हो तो खीरा या टमाटर या अंगूर को हर साल नश्ट करने की जरूरत नहीं होती।  साल में दो या तीन फसल लेने के लोभ ने वैसे ही खेत की मिट्टी का संतुलन बिगाड़ दिया। रही बची कसर गीली या हरी फसल वाले पौघों को खेत में ही मसल देने से मिट्टी की मूल संरचना में आ रहे परिवर्तन से पूरी हो रही है। 

मिट्टी खेती का मूल आधार है। वैसे तो भारत में बीस से अधिक किस्म की मिट्टियां पाई जाती हैं लेकिन सभी जगह ‘टॉप सॉईल’ अर्थात मिट्टी की ऊपरी परत ही समस्त उत्पादकता का स्त्रोत है।इस सतह की डाई सेंटीमीटर पतली परत बनने में 100 से 2500 साल लगते हैं। मिट्टी अपने आप में एक पर्यावरणीय तंत्र और जीवंत संरचना है। महज एक चम्म्च मिट्टी में 10 लाख जीवाणु, 10 हजार यीस्ट सेल या खमीर कोशिकाएं, पचास हजार किस्म की फफूंद होते हैं। मिट्टी की अम्लीयत और क्षारीयता का असंतुलन उसके बंजर या बांझ भूमि बना सकता है।  मिट्टी का यह जीव तंत्र उसके स्वास्थ्य और उर्वतता के लिए अनिवार्य तत्व है। लगातार एक-फसलीय चक्र, बेशुमार रासायनिक खाद और कीटनाशकों के प्रयोग ने इन अदृश्य लेकिन मिट्टी-मित्र जीव संसार को जबरदस्त नुकसान किया है। मिट्टी का जन्म जैविक पदार्थों और चट्टानों के क्षरण से होता है । जीवित पदार्थों के समान, मिट्टी का भी धीरे-धीरे विकास होता है और इसकी परिपक्व अवस्था में कई प्रकार की परतों के रूप में विकसित होती है। मिट्टी में पौधे तथा जंतु निरंतर सक्रिय रहते हैं जिससे इसमें लगातार परिवर्तन होता रहता है। तभी मिट्टी को सतत सक्रिय कार्बिनक एवं खनिज पदार्थों का प्राकृतिक समुच्चय भी कहते है।
यदि अत्यधिक अम्लीय या क्षारीय फसल जीवति अवस्था में  मिट्टी में मिला दी जाए तो सबसे पहले तो उसकी पीएच कीमत पर असर पड़ता है, फिर फल-सब्जी की सड़न के साथ आए जीवणु मिट्टी के नैसर्गिक जीवाणुओं से भिड़ जाते हैं। इसका सबसे विपरीत असर होता है कि खेत में फंगल संक्रमण की संभावना बढ़ जाती है। यह अधिक खरपतवार का कारक भी है। इसे निबटने के लिए रासायनिक कीटनाशक का इस्तेमाल हुआ तो एक बार फिर मिट्टी की मूल संरचना प्रभावित होती है।  लगातार ऐसा करने से मिट्टी के मूल स्वरूप पर बेहद विपरीत असर पड़ता है। हालांकि फसल अवशेश जोकि पूरी तरह सूख होते हैं, को मिट्टी में पूरी तरह घोंट देने के अच्छै परिणाम आते हैं। लेकिन जिस तरह हरी पत्ती या अन्य अवशेश को कंपोस्अ बनाए बगैर खेत में डालना खतरे से खाली नहीं, ठीक उसी तरह पके फल-सब्जी मिट्टी के लिए दीर्घकालीन समस्या खड़ी कर सकते है।  

यह जानना जरूरी है कि सभी पेड़-पौधों की वृद्धि के लिए मुख्यतया 20 पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है। जैसे -कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटेशियम, कैल्सियम, मैग्नीशियम, सल्फर तथा अन्य सूक्ष्म तत्व आयरन, बोरोन, मैगनीज, कॉपर, जस्ता, मोलिबिडीनम, सोडियम, क्लोरीन, तथा सिलिकॉन आदि। पौधों की नाइट्रोजन की जरूरत हवा और मिट्टी दोनों से पूरी होती है।  हवा और पानी के जरिए कार्बन, हाइड्रोजन और ऑक्सीजन की आपूर्ति होती है । यदि केेला का हताश किसान सड़े हुए केले खेत में ही डाल देता है तो एक बड़ै स्तर पर संक्रमण का खतरा तो है ही जमीन में पोटेशियत की मात्रा बेवजह बढ़ने का खामियाजा भी अगली फसल में किसान को उठाना होगा। 
आज खेत में पड़ी फसल को उठवाने या तुड़वाना केवल किसान को घाटे से बचाने के लिए ही नहीं, बल्कि खेत और जमीन की सेहत को अक्षुण्ण रखने के लिए भी अनिवार्य है। एक बार टॉप सॉईल नश्ट होने का अर्थ है धरती के बीते कई सौ साल के विकास को नश्ट कर देना।

शुक्रवार, 5 जून 2020

Atomic energy : Neither safe nor economic


5 जून विश्व पर्यावरण दिवस

न निरापद न ही सस्ती है परमाणु-बिजली
पंकज चतुर्वेदी


दो बातों से कोई इंकार नहीं कर सकता- देश के समग्र विकास के लिए उर्जा की जरूरत है, दूसरा कोयला जैसे उत्पाद पर आधारित बिजली उत्पादन के दिन ज्यादा नहीं हैं, ना तो इतना कोयला उपलब्ध है और उससे बेइंतिहा पर्यावरणीय संकट खड़ा हो रह है, सो अलग। सालों साल बिजली की मांग बढ़ रही है, हालांकि अभी हम कुल 4780 मेगावाट बिजली ही परमाणु से उपजा रहे हैं जो कि हमारे कुल बिजली उत्पादन का महज तीन फीसदी ही है। भारत के पास एक अति महत्त्वाकांक्षी स्वदेशी परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम है, जिससे अपेक्षा है कि वर्ष 2024 तक यह 14.6 गीगावाट बिजली का उत्पादन करेगा, जबकि वर्ष 2032 तक बिजली उत्पादन की यह क्षमता 63 गीगावाट हो जाएगी। लेकिन अनुमान है कि हमारे परमाणु उर्जा घर सन 2020 तक 14600 मेगावाट बिजली बनाने लगेंगे और सन 2050 तक हमारे कुल उत्पादन का एक-चौथाई अणु-शक्ति से आएगा। 

एक तरफ उर्जा की चाह और दूसरी तरफ अब दुनियाभर के विकसित देश भी महसूस कर रहे हैं कि परमाणु उर्जा को बिजली में बदलना, उर्जा का निरापद विकल्प नहीं है। इसके साथ सबसे बड़ा खतरा तो परमाणु बम को रोकने के लिए हो रहे प्रयासों पर है। जब तक परमाणु उर्जा से बिजली बनेगी, तब तक दुनिया पर आज से 70 साल पहले जापान के हीरोशिमा में गिराए गए बम से उपजी त्रासदी की संभावनाएं बनी रहेंगी। भले ही आज का सभ्य समाज किसी दूसरे देश की आबादी को बम से प्रहार ना करे, लेकिन परमाणु रियेक्टरों में दुर्घटनाओं की संभावनाएं हर समय बम के असीम दर्द को बरकरार रखती हैं। 
अधिक बिजली की लालसा में लोग भूल जाते हैं कि 11 मार्च 2011 को  जापान में आई सुनामी के बाद फुकुशिमा के परमाणु बिजली संयंत्र का रिसाव अकेले जापान ही नहीं आधा दर्जन देशों के अस्तित्व पर संकट बन गया था। सनद रहे दुनिया में जापान ही वह देश है जिसने परमाणु त्रासदी को पीढ़ियों में भोगा है। उस समय सारी दुनिया में बहस चली थी कि परमाणु उर्जा कितनी उपयोगी और खतरनाक है। सभी ने माना था कि परमाणुु षक्ति को बिजली में बदलना षेर पर सवारी की तरह है- थोड़ा चूके तो काल का ग्रास बनना तय है। एटमी ताकत पाने के तीन प्रमुख पद हैं - यूरेनियम का खनन, उसका प्रसंस्करण और फिर विस्फोट या परीक्षण। लेकिन जिन लोगों की जान-माल की कीमत पर इस ताकत को  हासिल किया जा रहा है; वे नारकीय जीवन काट रहे हैं ? 
परमाणु उर्जा से बनने वाली बिजली का उपभोग करने वाले नेता व अफसर तो दिल्ली या किसी शहर में सुविधा संपन्न जीवन जी रहे हैं , परंतु हजारों लोग ऐसे भी हैं जो इस जुनून की कीमत अपना जीवन दे कर चुका रहे हैं । जिस जमीन पर परमाणु ताकत का परीक्षण किया जाता रहा है, वहां के लोग पेट के खातिर अपने ही बच्चों को अरब देशों में बेच रहे हैं । जिन इलाकों में एटमी ताकत के लिए रेडियो एक्टिव तत्व तैयार किए जा रहे हैं, वहां की अगली पीढ़ी तक का जीवन अंधकार में दिख रहा है । जिस जमीन से परमाणु बम का मुख्य मसाला खोदा जा रहा है, वहां के बाशिंदे तो जैसे मौत का हर पल इंतजार ही करते हैं ।
झारखंड के पूर्वी सिंहभूम जिले के जादुगोड़ा में भारत की पहली और एकमात्र यूरेनियम की खान को लें या रावतभाटा(राजस्थान) में परमाणु शक्ति से बिजली बनाने के संयत्र को , या फिर शौर्य भूमि पोकरण हर जगह स्थानीय आबादी परमाणु उर्जा की बड़ी कीमत अपने स्वास्थ्य और आनुवांशिकी परिवर्तन के रूप में चुका रही है। लगा है , लेकिन एटमी ताकत को बम में बदलने के लिए जरूरी तत्व जुटाने का भी यह मुख्य जरिया है । इन इलाकांे में षोध कर रहे कई जानकारों ने स्पष्ट चेतावनी दी है कि विकिरण की थोड़ी सी मात्रा भी शरीर में परिवर्तन के लिए काफी होती है । विकिरण जीव कोशिकाओं को क्षति ग्रस्त करता है । इससे आनुवांशिकी कोशिकाओं में भी टूट-फूट होती है । आने वाली कई पीढ़ियों तक अप्रत्याशित बीमारियों की संभावना बनी रहती है ।
यह भी अब खुल कर सामने आ गया है कि परमाणु बिजली ना तो सस्ती है और ना ही सुरक्षित और ना ही स्वच्छ।  हम परमाण्ुा रियेक्टर व कच्च्ेा माल के लिए दूसरे देशों पर निर्भर हैं, वहां से निकलने वाले कचरे के निबटारे में जब जर्मनी व अमेरिका को कोई विकल्प नहीं दिख रहा है तो हमारे यहां यह कचरा निरंकुश संकट बनेगा ही। अणु उर्जा को विद्धुत उर्जा में बदलने के लिए यूरेनियम नामक रेडियो एक्टिव को बतौर इंधन प्रयोग में लाया जाता है।  न्यूट्रान की बम वर्शा पर रेडियो एक्टिव तत्व में भयंकर विखंडन होता है। इस धमाके पर 10 लाख डिगरी सेल्सियस की गर्मी और लाखों वायुमंडलीय दवाब उत्पन्न होता है।  सो मंदक के रूप में साधारण जल, भारी जल, ग्रेफाईट और बैरेलियम आक्साईड का प्रयोग होता है। षीतलक के रूप में  हीलियम गैस संयत्र में प्रभावित की जाती है।  विखंडन प्रक्रिया को नियंत्रित करने के लिए केडमियम या बोरोन स्टील की छड़ें उसमें लगाई जाती है। बिजली पैदा करने लायक उर्जा मिलने के बाद यूरेनियम, प्यूटोनियम में बदल जाता है। जिसका उपयोग परमाणु बम बनाने में होता है। इसके नाभिकीय विखंडन पर उर्जा के साथ-साथ क्रिप्टान, जिनान, सीजियम, स्ट्रांशियम आदि तत्व बनते जाते हैं। एक बार विखंडन षुरू होने पर यह प्रक्रिया लगभग अनंत काल तक चलती रहती हैं। इस तरह यहां से निकला कचरा बहेद विध्वंसकारी होता है। इसका निबटान सारी दुनिया के लिए समस्या है। 
भारत मे हर साल भारी मात्रा में निकलने वाले ऐसे कचरे को हिमालय पर्वत, गंगा-सिंधु के कछार या रेगिस्तान में तो डाला नहीं जा सकता, क्योंकि कहीं भूकंप की आशंका है तो कही बाढ़ का खतरा। कहीं भूजल स्तर काफी ऊंचा है तो कहीं घनी आबादी। यह पुख्ता खबर है कि परमाणु उर्जा आयोग के वैज्ञानिकों को बुंदेलखंड, कर्नाटक व आंध्र प्रदेश का कुछ पथरीला इलाका इस कचरे को दफनाने के लिए सर्वाधिक मुफीद लगा और अभी तक कई बार यहां गहराई में स्टील के ड्रम दबाए जा चुके हैं। 
आने वाली पीढ़ी के लिए उर्जा के साधन जोड़ने के नाम पर एटमी ताकत की तारीफ करने वाले लोगों को यह जान लेना चाहिए कि क्षणिक भावनात्मक उत्तेजना से जनता को लंबे समय तक बरगलाया नहीं जा सकता है । यदि हमारे देश के बाशिंदे बीमार, कुपोषित और कमजोर होंगे तो लाख एटमी बिजली घर या बम भी हमें सर्वशक्तिमान नहीं बना सकते हैं ।

पंकज चतुर्वेदी


Why was the elephant not a companion?

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