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बुधवार, 22 नवंबर 2023

For Fresh air need control on source not technology

  

             तकनीकी से नहीं आत्म नियंत्रण से थमेगा साँसों का जहर
 

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पंकज चतुर्वेदी

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जब दिल्ली और उसके आसपास दो सौ किलोमीटर की साँसों पर संकट  छाया और सुप्रीम कोर्ट ने सख्त नजरिया अपनाया  तो सरकार का एक नया शिगूफा  सामने आ गया - कृत्रिम बरसात . वैसे भी दिल्ली  के आसपास जिस तरह  सी एन जी वाहन अधिक है , वहां बरसात नए तरीके का संकट ला सकती हैं . विदित हो सी एन जी दहन से  नायट्रोजन ऑक्साइड और  नाइट्रोजन की ऑक्सीजन के साथ गैसें जिन्हें “आक्साईड आफ नाइट्रोजन “ का उत्सर्जन होता है . चिंता की बात यह है कि “आक्साईड आफ नाइट्रोजन “ गैस वातावरण में मौजूद पानी और ऑक्सीजन के साथ मिल कर तेजाबी बारिश कर सकती है

जिस कृत्रिम बरसात का झांसा दिया जा रहा है , उसकी तकनीक को समझना जरुरी है . इसके लिए हवाई जहाज से सिल्वर-आयोडाइड और कई अन्य रासायनिक  पदार्थो का छिडकाव किया जाता है, जिससे सूखी बर्फ के कण तैयार होते हैं . असल में सूखी बर्फ ठोस कार्बन डाइऑक्साइड ही होती है . सूखी बर्फ की खासियत होती है कि इसके पिघलने से पानी नहीं बनता और यह गैस के रूप में ही लुप्त ओ जाती है . यदि परिवेश के बादलों में थोड़ी भी नमी होती है तो यह  सूखी बर्फ के कानों पर चिपक जाते हैं और इस तरह बादल का वजन बढ़ जाता है , जिससे बरसात हो जाती है .


एक तो इस तरह की बरसात के लिए जरुरी है कि वायुमंडल में  कम से कम 40 फ़ीसदी नमी हो , फिर यह थोड़ी सी देर की बरसात ही होती है . इसके साथ यह ख़तरा बना रहता है कि वायुमंडल में कुछ उंचाई  तक जमा स्मोग और अन्य छोटे कण  फिर धरती पर  आजायें . साथ ही सिल्वर आयोडाइड, सूखी बर्फ के धरती पर गिरने से उसके संपर्क में आने वाले पेड़-पौधे , पक्षी और जीव ही नहीं, नदी-तालाब पर भी रासायनिक ख़तरा संभावित है .

हमारे नीति निर्धारक आखिर यह क्यों नहीं समझ रहे कि  बढ़ते प्रदुषण का इलाज तकनीक में तलाशने से ज्यादा जरुरी है प्रदूषण को ही कम करना . एक बात समझना होगा  यह मसला केवल दिल्ली टीके ही सीमित नहीं हैं – मुंबई, बंगलुरु  के हालात इससे बेहतर नहीं हैं .  ईर हर राजी की राजधानी भी इसी तरह  हाँफ रही है  और हर जगह  ऐसे ही किसी जादुई  तकनीक के सब्जबाग दिखाये जाते हैं ।


दिल्ली में अभी तक जितने भी तकनीकी  प्रयोग किये गये, वे विज्ञापनों में भले ही उपलब्धी  के रूप में  दर्ज हों लेकिन हकीकत में वे बे असर ही रहे हैं  . यह तो भला हो सुप्रीम कोर्ट का जिसकी एक टिपण्णी के चलते इस बार दिल्ली में  वाहनों का सम-विषम संचालन थम गया . याद दिलाना चाहेंगे कि तीन साल पहले एम्स के तत्कालीन निदेशक डा. रणदीप गुलेरिया ने कह दिया था दूषित हवा से सेहत पर पड़ रहे कुप्रभाव का सम विषम स्थायी समाधान नहीं है। क्योंकि ये उपाय उस समय अपनाये जाते हैं जब हालात पहले से ही आपात स्थिति में पहुंच गये हैं। यही नहीं सुप्रीम कोर्ट भी कह चुकी है कि जिन देशों में ऑड ईवन लागू है वहां पब्लिक ट्रांसपोर्ट काफ़ी मजबूत और फ्री है. सेंट्रल पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड अदालत को बता चुकी है कि ऑड ईवन से वायु-गुणवत्ता में कोई ख़ास  फायदा नहीं हुआ। प्रदूषण सिर्फ 4 प्रतिशत कम हुआ है ।


याद करें इससे पहले हम  “स्मोग टावर “ के हसीन सपनों  को तबाह होते देख चुके हैं . दिवाली के पहले जब दिल्ली में  वायु गुणवत्ता दुनिया में सबसे खराब थी तब राजधानी में लगे स्मोग टावर  धूल खा रहे थे .  सनद रहे 15 नवम्बर 2019 को जब दिल्ली हांफ रही थी तब सुप्रीम कोर्ट ने तात्कालिक  राहत के लिए प्रस्तुत किये गये विकल्पों में से  “ स्मोग टॉवर” के निर्देश दिए थे . एक साल बाद दिल्ली-यूपी सीमा पर 20 करोड़ लगा कर आनंद विहार में स्मॉग टावर लगाया . इससे पहले  23 अगस्त को कनॉट प्लेस में पहला स्मॉग टॉवर 23 करोड खर्च कर लगाया गया था । इनके विज्ञापन पर व्यय हुआ उसका फ़िलहाल हिसाब नहीं हैं . इसके संचालन और रखरखाव पर शायद इतना अधिक खर्चा था कि वे बंदकर दिए गये . इसी हफ्ते जब फिर सुप्रीम कोर्ट  दिल्ली की हवा के जहर होने पर चिंतित दिखा तो  टावर शुरू कर दिए गये . वैसे यह सरकारी रिपोर्ट में दर्ज है कि इस तरह के टावर  से समग्र रूप  से कोई लाभ हुआ नहीं. महज कुछ वर्ग मीटर में थोड़ी सी हवा साफ़ हुई । असल में स्मॉग टावर बड़े आकार का एयर प्यूरीफायर होता है , जिसमें  हवा में मौजूद सूक्ष्म कणों को छानने के लिए कार्बन नैनोफाइबर फिल्टर की कई परतें होती हैं।  इसमें बड़े एक्जास्ट पंखे होते हैं जो आसपास की दूषित हवा को खींचते है, उसके सूक्ष्म कणों को कर  साफ हवा फिर से परिवेश  में  भेज देते हैं।


सन 2020 में एमडीपीआई (मल्टिडिसप्लेनरी डिजिटल पब्लिशिंग इन्स्टीट्यूट) के लिए किए गए शोध- “कैन वी वैक्यूम अवर एयर पॉल्यूशन प्रॉब्लम यूजिंग स्माग टॉवर”  में सरथ गुट्टीकुंडा और पूजा जवाहर ने बताया दिया था कि चूंकि वायु प्रदूषण की न तो कोई सीमा होती है और न ही दिशा, सो दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र- गाजियाबाद, नोएडा, ग्रेटर नोएडा, फरीदाबाद, गुरुग्राम और रोहतक के सात हजार वर्ग किलोमीटर इलाके में कुछ स्मॉग टावर  बेअसर ही रहेंगे।


वैसे, दिल्ली में वायु प्रदूषण के एक अन्य उपाय भी काम चल रहा है। जापान सरकार  अपने एक विश्वविद्यालय के जरिये दिल्ली-एनसीआर में एक शोध-सर्वे करवा चुका है जिसमें उसने आकलन किया है कि आने वाले दस साल में सार्वजनिक परिवहन और निजी वाहनों में हाईड्रोजन और फ्यूल सेल-आधारित तकनीक के इस्तेमाल से उसे कितना व्यापार मिलेगा। हाईड्रोजन का इंर्धन के रूप में प्रयोग करने पर बीते पांच साल के दौरान कई प्रयोग हुए हैं। बताया गया है कि इसमें शून्य कार्बन का उत्सर्जन होता है और केवल पानी निकलता है। इस तरह के वाहन महंगे होंगे ही . फिर टायर घिसने और बेटरी के धुएं से  स्मोग बनाने  की संभावना तो बरकरार ही रहेगी ..


शहरों  में भीड़ कम हो, निजी वाहन कम हों , जाम न लगे , हरियाली बनी रहे – इसी से जहरीला धुंआ कम होगा . मशीने मानवीय भूल का निदान होती नहीं . हमें जरूरत है आत्म नियंत्रित ऐसी प्रक्रिया की जिससे  वायु को जहर बनाने वाले कारक ही जन्म न लें .

 

शुक्रवार, 17 नवंबर 2023

Why not celebrate Chhat as an environmental festival

 क्यों ना छट को पर्यावरण पर्व के रूप में मनाएं



दीपावली के ठीक बाद में बिहार व पूर्वी राज्यों में मनाया जाने वाला छठ पर्व अब प्रवासी बिहारियों के साथ-साथ सारे देश  में फैल गया है। गोवा से लेकर मुंबई और भोपाल से ले कर बंगलूरू तक, जहां भी पूर्वांचल के लोग बसे हैं, कठिन तप के पर्व छठ को हरसंभव उपलब्ध जल-निधि के तट पर मनाना नहीं भूलते है। वास्तविकता यह भी है कि छट को भले ही प्रकृति पूजा और पर्यावरण का पर्व बताया जा रहा हो, लेकिन इसकी हकीकत से दो चार होना तब पड़ता है जब उगते सूर्य को अर्ध्य दे कर पर्व का समापन होता है और श्रद्धालु घर लौट जाते हैं। पटना की गंगा हो या दिल्ली की यमुना या भोपाल का शाहपुरा तालाब या दूरस्थ अंचल की कोई भी जल-निधि, सभी जगह एक जैसा दृष्य होता है- पूरे तट पर गंदगी, बिखरी पॉलीथीन , उपेक्षित-गंदला रह जाता है वह तट जिसका एक किनारा पाने के लिए अभी कुछ देर पहले तक मारा-मार मची थी।


छट पर्व लोक आस्था का प्रमुख सोपान है- प्रकृति ने अन्न दिया, जल दिया, दिवाकर का ताप दिया, सभी को धन्यवाद और ‘तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा’ का भाव। असल में यह दो ऋतुओं के संक्रमण-काल में श रीर को पित्त-कफ और वात की व्याधियों से निरापद रखने के लिए गढ़ा गया अवसर था। कार्तिक मास के प्रवेश के साथ छठ की तैयारियां शुरू हो जाती हैं। भोजन में प्याज-लहसुन का प्रयोग पूरी तरह बंद हो जाता है। छठ के दौरान छह दिनों तक दिनचर्या पूरी तरह बदल जाती है। दीवाली के सुबह से ही छठ व्रतियों के घर में खान-पान में बहुत सारी चीजें वर्जित हो जाती है, यहां तक कि सेंधा नमक का प्रयोग होने लगता है।

सनातन धर्म में छट एक ऐसा पर्व है जिसमें किसी मूर्ति-प्रतिमा या मंदिर की नहीं, बल्कि प्रकृति यानि सूर्य, धरती और जल की पूजा होती है।  धरती पर जीवन के लिए, पृथ्वीवासियों के स्वास्थ्य की कामना और भास्कर के प्रताप से धरतीवासियों की समृद्धि के लिए भक्तगण सूर्य के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। बदलते मौसम में जल्दी सुबह उठना और सूर्य की पहली किरण को जलाश य से टकरा कर अपने श रीर पर लेना, वास्तव में एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। वृत करने वाली महिलाओं के भेाजन में कैल्ष्यिम की प्रचुर मात्रा होती है, जोकि महिलाओं की हड्डियों की सुदृढता के लिए अनिवाय भी है। वहीं सूर्य की किरणों से महिलओं को साल भर के लिए जरूरी विटामिन डी मिल जाता है। यह विटामिन डी कैल्ष्यिम को पचाने में भी मदद करता है। तप-वृत से रक्तचाप नियंत्रित होता है और सतत ध्यान से नकारात्मक विचार मन-मस्तिश्क से दूर रहते हैं।


वास्तव में यह बरसात के बाद नदी-तालाब व अन्य जल निधियों के तटों ंपर बह कर आए कूड़े को साफ करने, अपने प्रयोग में आने वाले पानी को इतना स्वच्छ करने कि घर की महिलाएं भी उसमें घंटों खड़ी हो सके, दीपावली पर मनमाफिक खाने के बाद पेट को नैसर्गिक उत्पादों से पोशित करने और विटामिन के स्त्रोत सूर्य के समक्ष खड़े होने का वैज्ञानिक पर्व है।  पर्व में इस्तेमाल प्रत्येक वस्तु पर्यावरण को पपित्र रखने का उपक्रम होती है- बांस का बना सूप, दौरा, टोकरी, मउनी व सूपती तथा मिट्टी से बना दीप, चौमुख व पंचमुखी दीया, हाथी और कंद-मूल व फल जैसे ईख, सेव, केला, संतरा, नींबू, नारियल, अदरक, हल्दी, सूथनी, पानी फल सिंघाड़ा, चना, चावल (अक्षत), ठेकुआ, खाजा इत्यादि।


इसकी जगह ले ली- आधुनिक और कहीं-कहीं अपसंसकृति वाले गीतों ने , आतिश बाजी,घाटों की दिखावटी सफाई, नेातागिरी, गंदगी, प्लास्टिक-पॉलीथीन जैसी प्रकृति-हंता वस्तुओं और बाजारवाद ने। अस्थाई जल-कुंड या सोसायटी के स्वीमिग पुल में छट पूजा की औपचारिकता पूरा करना असल में इस पर्व का मर्म नहीं है। लोग नैसर्गिक जल-संसाधनों तक जाएं, वहां घाट व तटों की सफाई करें और फिर पूजा करें , इसके बनिस्पत अपने घर के पास एक गड्ढे में पानी भर कर पूजा के बाद उसके गंदा, बदबूदार छोड़ देना तो इसकी आत्मा को मारना ही है। यही नहीं जिस जल में वृत करने वाली महिलाएं खड़ी रहती हैं, वह भी इतना दूशित होता है कि उनके पैरों और यहां तक कि गुप्तांगों में संक्रमण की संभावना बनी रहती है। गंदी-जहरीली पोलीथीन में खाद्य  सामग्री ले जाने से उसकी पवित्रता प्रभावित होती है। यही नहीं जो काल शांत तप-आत्ममंथन और ध्यान का होता है, उसमें भौंडे गीत और फिल्मी पैरोडी पर भजनों का सांस्कृतिक व ध्वनि प्रदूषण अलग से होता है। जबकि पारंपरिक रूप से ढोलक या मंजीरा बजा कर गीत गाने से महिलाओं के संपूर्ण शरीर का व्यायाम , अपने पारंपरिक गीतों या मौखिक ज्ञान को अगली पीढ़ी तक पहुंचाने का उपक्रम होता था। उसका स्थान बाजार ने ले लिया । पर्व समाप्त होते ही चारों तरफ फैली पूजा सामग्री में मुंह मारते मवेशी और उसमें से कुछ अपने लिए कीमती तलाश ते गरीब बच्चे, आस्था की औपचारिकता को उजागर करते हैं।


काश , छठ पर्व की वैज्ञानिकता, मूल-मंत्र और आस्था के पीछे तर्क को भलीभांति समाज तक प्रचारित-प्रसारित किया जाए। जल-निधियों की पवित्रता, स्वच्छता के संदेश  को आस्था के साथ व्यावहारिक पक्षों के साथ लोक-रंग में पिरोया जाए, लोक को अपनी जड़ो की ओर लौटने को प्रेरित किया जाए तो यह पर्व अपने आधुनिक रंग में धरती का जीवन कुछ और साल बढ़ाने का कारगर उपाय हो सकता है। हर साल छट पर्व पर यदि देश  भर में हजार तालाब खोदने और उन्हें संरक्षित करने का संकल्प  हो, दस हजार पुराने तालाबों में गंदगी जाने से रोकने का उपक्रम हो , नदियों के घाट पर साबुन, प्लास्टिक  और अन्य गंदगी ना ले जाने की शपथ हो तो छट के असली प्रताप और प्रभाव को देखा जा सकेगा।

यदि छट के तीन दिनों को जल-संरक्षण दिवस, स्वच्छता दिवस जैसे नए रंग के साथ प्रस्तुत किया जाए और आस्था के नाम पर एकत्र हुई विषाल भीड़ को भौंडे गीतों के बनिस्बत इन्हीं सदेषों से जुड़े सांस्कृतिक आयोजनों  से शिशित किया जाए, छट के संकल्प को साल में दो या तीन बार उन्ही जल-घाटों पर आ कर दुहराने का प्रकल्प किया जाए तो वास्तव में सूर्य का ताप, जल की पवित्रता और खेतों से आई नई फसल की पौष्टिकता समाज को निरापद कर सकेगी।

छठ पूजा के दौरान जो भी प्रसाद होता है उससे सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है और फिर सबकुछ लेकर व्रत करने वाले वापस आ जाते हैं। सामान अगर नदीं में छूटता है तो वह फूल-पत्ती होती है, जो पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचाती। इस तरह देखा जाए तो प्रकृति की पूजा का ये महापर्व पूरी तरह से प्रकृति-पूजा है।

छठ पूजा के अनुष्ठान के दौरान गाए जाने वाले- ‘केरवा जे फरले घवध से ओह पर सुग्गा मंडराय, सुगवा जे मरवो धनुश  से सुगा जइहे मुरझाए। सुगनी जे रोवेली वियोग से आदित होख ना सहाय.., जैसे गीत इस बात को दर्शाता हैं कि लोग पशु पक्षियों के संरक्षण की याचना कर उनके अस्तित्व को कायम रखना चाहते हैं। इसी तरह इस अनुष्ठान के क्रम में कोसी भरने के समय मिट्टी के वर्तन पर हाथी की आकृति बनाने की परंपरा भी जैव संरक्षण की प्रेरणा प्रदान करता है।

 

गुरुवार, 16 नवंबर 2023

Chhath festival: water resources should conserved throughout the year


                              छठ पर्व : काश सालभर जल-निधियों को सहेजा होता

पंकज चतुर्वेदी


दिल्ली है ही इसी लिए क्योंकि इसके बीच से यमुना बहती है  लेकिन  इस बार छठ का स्नान या पूजा यमुना में नहीं हो पाएगी . सारी दिल्ली में  अस्थाई तालाब बनाए जा रहे हैं . इसके लिए राज्य सरकार पैसा बाँट रही है .  पिछले साल 9 अक्टूबर, 2021 को  दिल्ली सरकार ने एक अधिसूचना जारी कर   यमुना में छठ पर्व पर रोक लगी थी . कुछ संगठनों ने इस अधिसूचना को दिल्ली हाई कोर्ट में चुनौती देते हुए तर्क दिया गया कि इस   अधिसूचना से  दिल्ली के लोगों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता हैं . अभी 9 नवम्बर 23 को अदालत ने याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिया। न्यायमूर्ति सुब्रमण्यम प्रसाद ने टिप्पणी की कि प्रतिबंध यमुना में प्रदूषण को रोकने के लिए लगाया गया है। दिल्ली से सटे गाज़ियाबाद की हिंडन नदी नाम की ही बची है , इसे नाबदान कहना बेहतर होगा. चूँकि यहाँ कई लाख पूर्वांचलवासी हैं सो इसे गंग- नहर से  थोडा सा पानी डाल कर तीन दिन को जिलाया जाएगा .

 यह विचार करना होगा कि जिस नदी के लिए सारे साल समाज बेपरवाह रहता है ,उसके घाटों पर झाड़ू- बुहारू होने लगी है . कहने को वहां  स्थाई पूजा के चबूतरे हैं लेकिन साल के 360 दिन यह  सार्वजनिक शौचालय अधिक होता है . जैसे ही पर्व का समापन ओता है . जिस नदी में भक्त खड़े थे, वह देखते ही देखते काला-बदबूदार नाला बन जाती है.  बस नाम बदलते जाएँ  देश के अधिकाँश नदी  और तालाबों की यहो गाथा है . सामाज कोशिश करता है कि  घर से दूर अपनी परम्परा का जैसे तैसे पालन हो जाये- चाहे सोसायटी के स्विमिंग पूल में या फिर  अस्थाई बनाए गए कुंड में, लेकिन वह बेपरवाह रहता है कि असली छठ  मैया  तो उस  जल-निधि की पवित्रता में बसती है जहाँ  उसे सारे साल सहेज कर रखने की आदत हो .

यह ऋतू के संक्रमण काल का पर्व है ताकि कफ-वात और पित्त दोष को नैसर्गिक रूप से नियंत्रित किया जा सके  और इसका मूल तत्व है जल- स्वच्छ जल . जीवनदायी कहलाने वाला यदि जल यदि स्वच्छ नहीं है तो जहर है .

छठ पर्व वास्तव में बरसात के बाद नदी-तालाब व अन्य जल निधियों के तटों पर बह कर आए कूड़े को साफ करने, अपने प्रयोग में आने वाले पानी को इतना स्वच्छ करने कि घर की महिलाएं भी उसमें घंटों खड़ी हो सकें, दीपावली पर मनमाफिक खाने के बाद पेट को नैसर्गिक उत्पादों से पोषित करने और विटामिन के स्त्रोत सूर्य के समक्ष खड़े होने का वैज्ञानिक पर्व है। दुर्भाग्य है कि अब इसकी जगह ले ली- आधुनिक और कहीं-कहीं अपसंसकृति वाले गीतों ने , आतिशबाजी,घाटों की दिखावटी सफाई, नेतागिरी, गंदगी, प्लास्टिक-पॉलीथीन जैसी प्रकृति-हंता वस्तुओं और बाजारवाद ने।

अस्थाई जल-कुंड या सोसायटी के स्वीमिग पुल में छट पूजा की औपचारिकता पूरा करना असल में इस पर्व का मर्म नहीं है। लोग नैसर्गिक जल-संसाधनों तक जाएं, वहां घाट व तटों की सफाई करें , संकल्प करें कि पूरे साल इस स्थान को देव-तुल्य सहेजेंगे और फिर पूजा करें । इसकी जगह अपने घर के पास एक गड्ढे में पानी भर कर पूजा के बाद उसके गंदा, बदबूदार छोड़ देना तो इसकी आत्मा को मारना ही है। यही नहीं जिस जल में व्रत करने वाली महिलाएं खड़ी रहती हैं, वह भी इतना दूषित होता है कि उनके पैरों और यहां तक कि गुप्तांगों में संक्रमण की संभावना बनी रहती है। पर्व समाप्त होते ही चारों तरफ फैली पूजा सामग्री में मुंह मारते मवेसही  और उसमें से कुछ अपने लिए कीमती तलाशते गरीब बच्चे, आस्था की औपचारिकता को उजागर करते हैं।

बिहार में सबसे बड़ा पर्व तो छठ ही है . वहां की नदियों के हालात भी यमुना- हिंडन से ही हैं . जलवायु परिवर्तन का सर इस राज्य पर भारी है सो, नदियों में अभी से पानी की मात्रा कम है .  लोगों को छोटी जल निधियों का सहारा है . जान लें बिहार में कोई एक लाख छः हज़ार तालाब, 34 सौ आहर और लगभग 20 हजार जगहों पर नहर का प्रवाह है।  लेकिन दिल्ली , जहां कोई एक तिहाई आबादी  पूर्वांचल की है . यमुना में छठ का अर्ग देने पर सियासत हो रही है, पिछले कुछ सालों झाग वाले दूषित यमुना- जल में  महिलाओं के सूर्योपासना के चित्रों ने दुनिया में किरकिरी करवाते हैं . इस बार दिल्ली में  कोई 400  अस्थाई तालाब बनाए जा रहे हैं  और इसके लिए हर वार्ड को चालीस हज़ार रूपये दिए जा रहे हैं , ताकि  लोग यमुना के बजाये  वहां छठ पर्व मनाएं – यहीं एक सवाल उठाता है कि इन तालाबों  या कुंड को नागरिक समाज को सौंप कर इन्हें स्थाई क्यों नहीं किया जा सकता  ?

हमारे पुरखों ने जब  छट जैसे पर्व की कल्पना की थी तब निश्चित ही उन्होंने  हमारी जल निधियों को एक उपभोग की वस्तु के बनिस्पत साल भर श्रद्धा व आस्था से सहेजने  के जतन के रूप में स्थापित किया होगा।

छट पर्व लोक आस्था का प्रमुख सोपान है- प्रकृति ने अन्न दिया, जल दिया, दिवाकर का ताप दिया, सभी को धन्यवाद और तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेराका भाव।

सनातन धर्म में छट एक ऐसा पर्व है जिसमें किसी मूर्ति-प्रतिमा या मंदिर की नहीं, बल्कि प्रकृति यानि सूर्य, धरती और जल की पूजा होती है।  धरती पर जीवन के लिए, पृथ्वीवासियों के स्वास्थ्य की कामना और भास्कर के प्रताप से धरतीवासियों की समृद्धि के लिए भक्तगण सूर्य के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। बदलते मौसम में जल्दी सुबह उठना और सूर्य की पहली किरण को जलाशय से टकरा कर अपने शरीर पर लेना, वास्तव में एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। व्रत करने वाली महिलाओं के भोजन  में कैल्शियम की प्रचुर मात्रा होती है, जोकि महिलाओं की हड्डियों की सुदृढता के लिए अनिवाय भी है। वहीं सूर्य की किरणों से महिलओं को साल भर के लिए जरूरी विटामिन डी मिल जाता है। यह विटामिन डी कैल्शियम को पचाने में भी मदद करता है। तप-व्रत  से रक्तचाप नियंत्रित होता है और सतत ध्यान से नकारात्मक विचार मन-मष्तिष्क से दूर रहते हैं।

काश , छट पर्व की वैज्ञानिकता, मूल-मंत्र और आस्था के पीछे तर्क को भलीभांति समाज तक प्रचारित-प्रसारित किया जाए। जल-निधियों की पवित्रता, सव्च्छता के संदेष को आस्था के साथ व्याहवारिक पक्षों के साथ लोक-रंग में पिरोया जाए, लोक को अपनी जड़ो की ओर लौटने को प्रेरित किया जाए तो यह पर्व अपने आधुनिक रंग में धरती का जीवन कुछ और साल बढ़ाने का कारगर उपाय हो सकता है। हर साल छट पर्व पर यदि देश  भर की जल निधियों को हर महीने  मिल-जुल कर स्वच्छ बनाने का, देशभर में हजार तालाब खोदने और उन्हें संरक्षित करने का संकल्प हो, दस हजार पुराने तालाबों में गंदगी जाने से रोकने का उपक्रम हो , नदियों के घाट पर साबुन, प्लास्टिक  और अन्य गंदगी ना ले जाने की शपथ हो तो छट के असली प्रताप और प्रभाव को देखा जा सकेगा।

 

 

सोमवार, 13 नवंबर 2023

The Supreme Court kept panting helplessly on the night of Diwali.

 दीपोत्सव की रात  बेबस सुप्रीम कोर्ट हांफता रहा

पंकज चतुर्वेदी



अमावस की गहरी अंधियारी रात में इंसान को बेहतर आवोहवा देने की सुप्रीम कोर्ट की उम्मीदों का दीप खुद ही इंसान ने बुझा दिया.  रात आठ बजे बाद जैसे-जैसे रात गहरी हो रही थी, केंद्र सरकार द्वारा संचालित सिस्टम- एयर क्वालिटी एंड वेदर फोरकास्टिंग  एंड रिसर्च अर्थात सफर के एप पर  दिल्ली एनसीआर के का एआईक्यू अर्थात एयर क्वालिटि इंडेक्स  खराब से सबसे खराब के हालात में आ रहा था।  गाजियाबाद में तो हालात गैस चैंबर के थे. यहाँ संजय नगर इलाके में शाम सात बजे एक्युआइ 68 था, फिर  10 बजे 160 यानी स्वास्थ्य के लिए चिंताजनक हो गया .रात 11. 40 बजे यह 669  था .  यहां कई पीएम 2.5 और 10 का स्तर 700 के पार था। नोयडा और गुरुग्रं की हालत भी लगभग इतने ही खराब थे . आधी रात तक  पूरी तरह पाबंद पटाखे, जैसे लड़ी वाले, आकाश  में जा कर धमाके से फटने वाले बेरियम के कारण बहुरंगी सभी धड़ल्ल्े से चलते रहे। फिर स्मोग का घना अँधेरा छा गया . दुर्भाग्य यह है कि शिक्षित और धनवान लोगों के इलाकों में धमाके सर्वाधिक रहे .  भले ही इस बार आतिशबाजी चला कर सुप्रीम केर्ट को नीचा दिखाने वालों की संख्या पहले से बहुत कम रही, लेकिन उनके पाप आवोहवा के जहरीला बनाने के लिए पर्याप्त था और उनकी इस हरकत से लाखो वे लोग भी घुटते रहे जो आतिशबाजी से तौबा कर चुके है। सोमवार सुबह मुहल्लों की सड़के-गलियां आतिशबाजी से बचे कचरे से पटी हुई थीं और यह बानगी था कि स्वच्छता अभियान में हमारी कितनी आस्था है ?


साफ हो गया कि बीते सालों की तुलना में इस बार दीपावली की रात का जहर कुछ कम नहीं हुआ, कानून के भय सामाजिक अपील सबकुछ पर सरकार ने खूब खर्चा किया लेकिन भारी-भरकम मेडिकल बिल देने को राजी समाज ने सुप्रीम कोर्ट के सख्त आदेश  के बाद भी समय, आवाज की कोई भी सीमा नहीं मानी । दुर्भाग्य यह है कि  जब देश  के प्रधानमंत्री  शून्य कार्बन उत्सर्जन जैसा वादा दुनिया के सामने कर रहे है,  तब  एक कुरीति के चलते देश की राजधानी सहित समूचे देश  में वह सबकुछ हुआ जिस पर पाबंदी है और उस पर रोक के लिए ना ही पुलिस और ना ही अन्य कोई निकाय मैदान में दिखा। यदि इतनी आतिशबाजी चली है तो जाहिर है कि यह बाज़ार में बिकी भी होगी . दिल्ली से सटे गाजियाबाद के स्थानीय निकाय का कहना है कि केवल एक रात में पटाखों के कारण दो सौ टन अतिरिक्त कचरा निकला। अगली सुबह लोग धड़ल्ले से कूड़ा जलाते दिखे । जाहिर है कि अभी सांसों के दमन का अंत नहीं हैं।


अकेले दिल्ली ही नहीं देश के बड़े हिस्से में जब रात ग्यारह बजे बाद हल्की ओस शुरू  हुई तो  स्मॉग ने दम घोंटना शुरू कर दिया। स्मॉग यानि फॉग यानि कोहरा और स्मोक यानि धुआं का मिश्रण। इसमें जहरीले कण शामिल होते हैं जो कि भारी होने के कारण उपर उठ नहीं पाते व इंसान की पहुंच वाले वायुमंडल में ही रह जाते हैं। जब इंसान सांस लेता है तो ये फैंफड़े में पहुच जाते हैं। किस तरह दमे और सांस की बीमारी के मरीज बेहाल रहे, कई हजार लोग ब्लड प्रेशर व हार्ट अटैक की चपेट में आए- इसके किस्से हर कस्बे, शहर में हैं।


इस बार एनसीआर में आतिशबाजी की दुकानों की अनुमति नहीं थी। यहां तक कि ग्रेप  पीरियेड होने के कारण  ग्रीन आतिशबाजी  की भी अनुमति नहीं थी, जहां थी वह भी केवल आठ बजे से दस बजे तक। परंतु ना प्रशासन  ने अपनी प्रशासनिक जिम्मेदारी निभाई और ना ही पटाखेबाजों ने अपनी सामाजिक जिम्मेदारी। केवल एक रात में पूरे देश  में हवा इतनी जहर हो गई कि 68 करोड़ लेगों की जिंदगी तीन साल कम हो गई। हम सभिय्ह जान कर भी अनदेखा अक्र्ते हैं कि पटाखें जलाने से निकले धुंए में सल्फर डाय आक्साईड, नाईट्रोजन डाय आक्साईड, कार्बन मोनो आक्साईड, शीशा , आर्सेनिक, बेंजीन, अमोनिया जैसे कई जहर सांसों के जरिये शरीर में घुलते हैं। इनका कुप्रभाव पशु – पक्षियों पर भी होता है। यही नहीं इससे उपजा करोड़ों टन कचरे का निबटान भी बड़ी समस्या है। यदि इसे जलाया जाए तो भयानक वायु प्रदुषण होता है। यदि इसके कागज वाले हिस्से को रिसाईकल किया जाए तो भी जहर घर, प्रकृति में आता है। और यदि इसे डंपिंग में यूं ही पड़ा रहने दिया जाए तो इसके विशैले  कण जमीन में जज्ब हो कर भूजल व जमीन को स्थाई व लाईलाज स्तर पर जहरीला कर देते हैं।

सवाल यह है कि क्या सुप्रीम कोर्ट को इस तरह ख़ुदकुशी कर रहे समाज की सांसे बचाने के लिए अब कुछ करना ही नहीं चाहिए ? क्या यह मसला केवल कानून या कड़ाई से ही सुलझेगा ?  क्या समाज को जागरूक बनाने के प्रयास बेमानी हैं हैं ? यह तय है कि आतिशाब्जी का उत्पादन, परिवहन,  भण्डारण और विपणन पर जब तक कड़ाई से नियंत्रण नहीं होगा, तब तक इस तरह लोग मरते रहेंगे और अदालतें चीखती रहेंगी . एक बात जान लें लोकतंत्र का सबसे भरोसेमंद स्तंभ “न्याय पालिका “ को यदि पर्व के नाम पर इस तरह बेबस किया गया तो इसका दुष्परिणाम जल्द ही समाज  को ही भोगना होगा .

बुधवार, 8 नवंबर 2023

We are careless about our own breathing

 हम खुद अपनी साँसों से बेपरवाह हैं 

पंकज चतुर्वेदी


दिल्ली के यूपी की सीमा से लगे  आनंद विहार में  वायु गुणवत्ता सूचकांक अर्थात  एक्यूयाई 900  पार हो गया । नोयडा भी 700 पार है । यदि किसी संवेदनशील देश में यह हालात होते तो  वहाँ तालाबन्दी जैसे हालात हो जाते । कहने को ग्रेप -4 लागू कर दिया है , लेकिन न सड़कों पर जाम का खात्मा है और न ही  स्मोग की घनी चादर केएम होने का नाम ले रही है । इस साल भी आतिशबाज़ी पर कड़ाई से पाबंदी लगाते हुये सुप्रीम कोर्ट ने संदेश दे दिया था कि दूसरों के जीवन की कीमत पर आतिशबाजी दागने की छूट नहीं दी जा सकती है। लेकिन अदालत तो निर्देश दे सकती है , हालात की गंभीरता को जब समाज  ही और दुष्कर बना दे तो किसकी दुहाई दी जाये ? अभी करवा चौथ की रात जब चंद्रमा निकला तो जिस तरह से पटाखे आकाश में उछले जा रहे थे , वे पूरी तरह देश में ही पाबंद हैं । जाहिर है कि उसका सर होना ही था ।  जिस पति की लंबी आयु की कामना के साथ उपवास व उत्सव सम्पन्न हुआ , उसकी आयु  इतने जहरीले धुएँ से  ना जाने इतने साल कम हो गई ।  सबसे बड़ी बात चंद्रमा निकालने पर  आतिशबाज़ी की न तुक थी न परंपरा ।  परिणाम सामने है दिल्ली ही नहीं पश्चिमी उत्तर प्रदेश  और  समूचे हरियाणा के अस्पताल सांस- अस्थमा के साथ –साथ दिल के रोगियों की अप्रत्याशित संख्या से बेहाल हैं ।  

दुर्भाग्य यह है कि इस  धीमी मौत को समाज खुद ही आमंत्रित कर रहा है । 
सुप्रीम कोर्ट ने बीजेपी सांसद मनोज तिवारी की अर्जी ठुकराते हुए कहा कि जश्न मनाने के दूसरे तरीके ढूंढ सकते हैं. जस्टिस ए एस बोपन्ना और जस्टिस एमएम सुंदरेश की पीठ ने तिवारी से कहा कि उन्हें अपने समर्थकों से भी कहना चाहिए कि रोशनी और आनंद के पर्व पर पटाखे न चलाएं. अदालत ने साफ कर दिया कि अकेले दीवाली ही नहीं, छट, गुरूपर्व और नये साल पर भी आतिशबाजी पर पूरी पाबंदी रहेगी, यहां तक कि  ग्रीन आतिशबाज़ी  भी नहीं। असल में कानून और अदालत के जरिये आतिशबाजी पर रोक की कोशिशें कई साल से चल रही हैं।  अदालतें कड़े आदेश  भी देती हैं, सरकारें इश्तेहार निकालती हैं। स्कूली बच्चे पोस्टर-रैली भी आकर देते हैं, लेकिन ऐसे लोगों की संख्या भी कम नहीं है जो कुतर्क और अवैज्ञानिक तरीके से अदालत की अवहेलना करते हैं।  यह कड़वा सच है कि पुलिस या प्रशासन के पास न तो इतनी मशीनरी है , और न ही इच्छाशक्ति कि हर जगह निगाह रख सके।  लेकिन समाज को तो अपने और अपने परिवार की सानशों की परवाह होनी चाहिए  ! 


सनातन धर्म के विभिन्न धार्मिक ग्रंथों से यह स्पष्ट हो चुका है कि बारूद के पटाखे चलाना कभी भी इस धर्म या आस्था की परंपरा का हिस्सा रहा नहीं है।   रमजान में इफ्तार की सूचना या ईद एके चाँद निकलने पर आम लोगों तक खबर पहुंचाने के लिए बारूद की तोप चलाने की रवायत तो रही है,  लेकिन करवा चौथ पर इसको अपनाना महज एक कुरीति और स्वास्थ्य-द्रोही ही है । इस साल दीवाली से पहले ही दिल्ली ही नहीं देश के बड़े हिस्से में ‘स्मॉग’  छा गया है । स्मॉग यानि फॉग यानि कोहरा और स्मोक यानि धुआं का मिश्रण। इसमें जहरीले कण शामिल होते हैं जो कि भारी होने के कारण उपर उठ नहीं पाते व इंसान की पहुंच वाले वायुमंडल में ही रह जाते हैं। जब इंसान सांस लेता है तो ये फैंफड़े में प्रवेश कर जाते हैं। इससे दमा और सांस ब्लड प्रेशर व हार्ट अटैक का खतरा मंडराने लगता है । 
सन 2017 में  सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली एनसीआर की हवा में जहर के हालात देखते हुए इलाके में आतिशबाजी की बिक्री पर रोक लगाई थी। उसके बाद हर साल दीवाली से पहले  कभी रोजगार तो कभी परंपरा के नाम पर इस पाबंदी को हटाने की मांग होती है और हर बार कोर्ट का रूख कड़ा होता है। 


यह किसी से छुपा नहीं है कि दीपावली की आतिशबाज़ी  राजधानी दिल्ली सहित देश  के 200 से अधिक महानगरों व शहरों की आवोहवा को जहरीला कर देती है । राजधानी दिल्ली में तो कई सालों से बाकायदा एक सरकारी सलाह जारी की जाती है -  यदि जरूरी ना हो तो घर से ना निकलें। फैंफडों को जहर से भर कर अस्थमा व कैंसर जैसी बीमारी देने वाले पीएम यानि पार्टिक्यूलर मैटर अर्थात हवा में मौजूद छोटे कणों की निर्धारित सीमा 60 से 100 माईक्रो ग्राम प्रति क्यूबिक मीटर है, जबकि दीपावली से पहले ही यह सीमा 900 के पार तक हो गई है। ठीक यही हाल ना केवल देश के अन्य महानगरों के बल्कि प्रदेशों  की राजधानी व मंझोले शहरों के भी हैं । चूंकि हरियाणा-पंजाब में खेत के अवशेष  यानि पराली जल ही रही है, साथ ही हर जगह विकास के नाम पर हो रहे अनियोजित निर्माण जाम, धूल के कारण हवा को दूषित कर रहे हैं, तिस पर मौसम का मिजाज। यदि ऐसे में आतिशबाज़ी  चलती है तो हालात बेकाबू हो सकते हैं। सनद रहे कि पटाखें जलाने से निकले धुंए में सल्फर डाय आक्साईड, नाईट्रोजन डाय आक्साईड, कार्बन मोनो आक्साईड, शीशा , आर्सेनिक, बेंजीन, अमोनिया जैसे कई जहर सांसों के जरिये शरीर में घुलते हैं। इनका कुप्रभाव परिवेश  में रहने वाले  पशु -पक्षियों पर भी होता है। यदि उस समय बारिसग7 हो जाये तो तेजाब बरसेगा आसमान से।
यही नहीं इससे उपजा करोड़ों टन कचरे का निबटान भी बड़ी समस्या है। यदि इसे जलाया जाए तो भयानक वायु प्रदूषण होता है। यदि इसके कागज वाले हिस्से को रिसाईकल किया जाए तो भी जहर घर, प्रकृति में आता है। और यदि इसे डंपिंग में यूं ही पड़ा रहने दिया जाए तो इसके रासायनिक विष- कण जमीन में जज्ब हो कर भूजल व जमीन को स्थाई व लाईलाज स्तर पर जहरीला कर देते हैं। आतिशबाज़ी  से उपजे शोर के घातक परिणाम तो हर साल बच्चे, बूढ़े व बीमार लोग भुगतते ही हैं। 


दीपावली समृद्धि , स्वास्थ्य और  शुभेच्छाओं का पर्व है । दीपावली के सात दिन,  लोगों के आपस में मिलने  से बढ्ने वाले सौहार्द , सुखद भविष्य की कामना और संपन्नता की आकांक्षा के दमकते दीप की  ज्योति होते हैं । इसे  जहरीले धुएँ से कलुषित कर हम अपना धन, स्वास्थ्य और संबंध तीनों को नुकसान ही पहुंचाते हैं । 
यह जान लें कि दीपावली पर परंपराओं के नाम पर कुछ घंटे जलाई गई बारूद कई-कई साल तक आपकी ही जेब में छेद करेगी, जिसमें दवाईयों व डाक्टर पर होने वाला व्यय प्रमुख है।  सबसे बड़ी बात यह दीपावली की मूल मंशा  भी नहीं हैं।   आतिशाब्जी की कुरीति  समाज ने खुद ही आमंत्रित की है और अब समय आ गया है कि उससे खुद ही मुक्त हो । दीपावली खुशियां बांटने का पर्व है, मौत या दवाई नहीं।

शुक्रवार, 3 नवंबर 2023

Poison In Delhi air is due to traffic jam

                                     पराली तो केवल बदनाम है

                जाम दम घोटता है दिल्ली का

                                        पंकज चतुर्वेदी



अभी मौसम की रंगत थोड़ी ही बदली थी कि दिल्ली में हवा मौत बांटने लगी। बयानबाजी, आरोप-प्रत्यारोप, सरकारी विज्ञापन, बंद हो गए स्माग टावर और सड़क पर पानी छिडकते वाहन; सभी कुछ  इस तरह हैं कि नल खुला छोड़ दो और फर्श  पर पोंछा लगाओ। हालांकि दिल्ली और  उसके आसपास सालभर ही  हवा जहरीली रहती है कि लेकिन इस मौसम में स्मॉग होता है तो  इसका ठीकरा किसानों पर फोड़ना सरल होता है।  हकीकत यह है कि दिल्ली अपने ही पाप का परिणाम भोगती है। एक अंतर्राष्ट्रीय  शोध रिपोर्ट में बताया गया है कि अगर प्रदूषण स्तर को काबू में नहीं किया गया तो साल 2025 तक दिल्ली में हर साल करीब 32,000 लोग जहरीली हवा के शिकार हो कर असामयिक मौत के मुंह में जाएंगे। भले ही पराली ना जले या कोई आतिशबाजी न चलाएतपती गर्मी के भी दिन हों फिर भी राजधानी की आवोहवा का विश दिन-दुगना, रात चौगुना बढ़ता ही है। यह कड़वा सच है कि दिल्ली एनसीआर की कोई तीन करोड़ आबादी में जिसके घर में कोई बीमार होता है वह तो संजीदा हो जाता है लेकिन बाकी  आबादी बेखबर रहती है।

असल में हम दिल्ली एनसीआर को समग्रता में लेते ही नहीं है। बानगी है कि दिल्ली की चर्चा तो पहले पन्ने पर है लेकिन दिल्ली से चिपके गाजियाबाद के बीते दो सालों ं से लगातार देश मे सबसे प्रदूषित  शहरों की सूची में पहले या दूसरे नंबर पर बने रहने की चर्चा होती नहीं। अब हवा तो भौगोलिक सीमा मानती नहीं, यदि गाजियाबाद की हवा जहरीली होगी तो उससे षून्य किलोमीटर की दूरी वाले दिलशाद गार्डन, विवेक विहार या शाहदरा निरापद तो रह नहीं सकते ! अभी वह विज्ञान समझ से परे ही है कि वायु को जहरीला करने वाला धुआं क्यों कर सीमा पार कर दिल्ली तक नहीं आता हे। हकीकत तो यह है कि दिल्ली एनसीआर में पूरे साल , महज बरसात के पंद्रह से पच्चीस दिन छोड़ कर, वायु प्रदूषण के यही हालात रहते हैं। हकीकत तो यह है कि दिल्ली व उससे सटे इलाकों के प्रषासन वायु प्रदूशण के असली कारण पर बात ही नहीं करना चाहते। कभी पराली तो कभी आतिशबाजी की बात करते हैं। अब तो दिल्ली के भीतर ट्रक आने रोकने के लिए ईर्स्टन पेरफिरल रोड़ भी चालू हो गया, इसके बावजूद एमसीडी के टोल बूथ गवाही देते हैं कि दिल्ली में घुसने वाले ट्रकों की संख्या कम नहीं हुई है। ट्रकों को क्या दोश दें, दिल्ली-एनसीआर  के बाषिंदों का वाहनों के प्रति मोह हर दिन बढ़ रही है और जीडीपी और विकास के आंकड़ों में उलझाी सरकार यह भी नहीं देख रही कि क्या सड़कें या फिर गाड़ी खरीदने वाले के घर में उसे रखने की जगह भी है कि नहीं ? बस कर्ज दे कर बैंक समृद्ध हैं और वाहन बेच कर कंपनियां, उसमें फुंक रहे ईंधन के चलते देष के विदेषी मुद्रा कें भंडार व लोगों की जिंदगी में घुल रही कालीख की परवाह किसी को नहीं।

दरअसल इस खतरे के मुख्य कारण 2.5 माइक्रो मीटर व्यास वाला धुएं में मौजूद एक पार्टिकल और वाहनों से निकलने वाली गैस नाइट्रोजन ऑक्साइड है, जिसके कारण वायु प्रदूषण से हुई मौतों का आंकड़ा लगातार बढ़ता जा रहा है। इस खतरे का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि वायु प्रदूषण करीब 25 फीसदी फेंफड़े के कैंसर की वजह है। इस खतरे पर काबू पा लेने से हर साल करीब 10 लाख लोगों की जिंदगी बचाई जा सकेंगी ।

यह स्पश्ट हो चुका है कि दिल्ली में वायु प्रदूशण का बड़ा कारण यहां बढ़ रहे वाहन, ट्राफिक जाम और राजधानी से सटे जिलों में पर्यावरण के प्रति बरती जा रही कोताही है। हर दिन बाहर से आने वाले कोई अस्सी हजार ट्रक या बसें यहां के हालात को और गंभीर बना रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि समस्या बेहद गंभीर है । सीआरआरआई की एक रपट के मुताबिक कनाट प्लेस के कस्तूरबागांधी मार्ग पर प्रत्येक दिन 81042 मोटर वाहन गुजरते हैं व रेंगते हुए चलने के कारण 2226 किग्रा इंधन जाया करते हैं।। इससे निकला 6442 किग्रा कार्बन वातावरण को काला करता है। और यह हाल दिल्ली के चप्पे-चप्पे का है। यानि यहां सडकों पर हर रोज कई चालीस हजार लीटर इंधन महज जाम में फंस कर बर्बाद होता है। रिंग रोड़ पर भीकाजी कामा प्लेस सेे मेडिकल तक हो या फिर बारापुला से नीचे उतर की सराय कालेखां   का रास्ता या फिर रोहिणी की सड़कें , पूरे दिन रेंगते वाहनों के चलते जहरीले रहते हैं। कहने को तो पार्टिकुलेट मैटर या पीएम के मानक तय हैं कि पीएम 2.5 की मात्रा हवा में 50 पीपीएम और पीएम-10 की मात्रा 100 पीपीएम से ज्यादा नहीं होना चाहिए। लेकिन दिल्ली का कोई भी इलाका ऐसा नहीं है जहां यह मानक से कम से कम चार गुणा ज्यादा ना हो। पीएम ज्यादा होने का अर्थ है कि आंखों मंे जलन, फैंफडे खराब होना, अस्थमा, कैंसर व दिल के रोग।

यदि राष्ट्रीय भौतिक विज्ञान प्रयोगशाला के आंकड़ों पर भरोसा करंे तो दिल्ली में हवा के साथ जहरीले कणों के घुलने में सबसे बड़ा योगदान 23 फीसदी धूल और मिट्टी के कणों का है।  17 प्रतिशत वाहनों का उत्सर्जन है। जनरेटर जैसे उपकरणों के चलते 16 प्रतिशत सात प्रतिशत औद्योगिक उत्सर्जन और  12 प्रतिशत पराली या अन्य जैव पदार्थों के जलाने से हवा जहरीली हो रही है। सबसे ज्यादा दोषी धूल और मिट्टी के कण नजर आ रहे हैं और इनका सबसे बड़ा हिस्सा दिल्ली एनसीआर में दो सौ से अधिक स्थानों प चल रहे बड़े निर्माण कार्यांे, जैसे कि मेट्रो, फ्लाई ओवर और इसमें भी सबसे ज्यादा एनएच-24 के चौड़ीकरण की उपज है। एक तो ये निर्माण बगैर वैकल्पिक मार्ग उपलब्ध करवाए व्यापक स्तर पर चल रहे हैं, दूसरा ये अपने निर्धारित समय-सीमा से कहीं बहुत बहुत दूर हैं। ये निर्माण कार्य धूल-मिट्टी तो उड़ा ही रहे हैं, इनके कारण हो रहे लंबे-लंबे जाम भी हवा को भयंकर जहरीला कर रहे हैं। राजधानी की विडंबना है कि तपती धूप हो तो भी प्रदूषण बढ़ता है, बरसात हो तो जाम होता है व उससे भी हवा जहरीली होती है। ठंड हो तो भी धुंध के साथ धुंआ के साथ मिल कर हवा जहरीली । याद रहे कि वाहन जब 40 किलोमीटर से कम की गति पर रैंगता है तो उससे उगलने वाला प्रदूषण कई गुना ज्यादा होता है।

दिल्ली में ऐसे ही लगभग 300 स्थान हैं जहां जाम एक स्थाई समस्या है। जान कर आष्चर्य होगा कि इनमें से कई स्थान वे मेट्रो स्टेषन है। जिन्हें जाम खतम करने के लिए बनाया गया था। मेट्रो स्टेषन यानी बैटरी व साईकिल रिक्षा, आटो के बेतरतीब पार्कि्रग, गलत दिषा में चालन, ओवर लोडिंग और साथ में अपने लोगों को लेने व छोड़ने वालों का आधी सड़क पर कब्जा।  दिल्ली में जितने फ्लाई ओवर या अंडर पास बनते हैं, मेट्रो का जितना विस्तार होता है, जाम का झाम उतना ही बढ़ता जाता है।

 

जाहिर है कि यदि दिल्ली की संास थमने से बचाना है तो यहां ना केवल सड़कों पर वाहन कम करने होंगे, इसे आसपास के कम से कम सौ किलोमीटर के सभी षहर कस्बों में भी वही मानक लागू करने होंने जो दिल्ली षहर के लिए हों। सनद रहे कि इतनी बड़ी आबादी के लिए चाहे मेट्रो चलाना हो या पानी की व्यवस्था करना, हर काम में लग रही उर्जा का उत्पादन  दिल्ली की हवा को विषैला बनाने की ओर एक कदम होता है। यही नहीं आज भी दिल्ली में जितने विकास कार्यों कारण जाम , ध्ूाल उड़ रही है वह यहां की सेहत ही खबरा कर रही है, भले ही इसे भविश्य के लिए कहा जा रहा हो। लेकिन उस अंजान भविश्य के लिए वर्तमान बड़ी भारी कीमत चुका रहा है। निर्माण कार्य के लिए ईंट हो या बजरी, सभी कुछ भारी प्रदूशण उपजा कर  उपजाया जा रहा है।

दिल्लीवासी इतना प्रदूषण ख्ुाद फैला रहे हैं और उसका दोष किसानों पर मढ़ कर महज खुद को ही धोखा दे रहे हैं। बेहतर कूड़ा प्रबंधन, सार्वजनिक वाहनों को एनसीआर के दूरस्थ अंचल तक पहुंचाने, राजधानी से भीड़ को कम करने के लिए यहां की गैरजरूरी गतिविधियों व प्रतिष्ठानों को कम से कम दो  सौ किलोमीटर दूर शिफ्ट करने , कार्यालयों व स्कूलों के समय और उनके बंदी के दिनों में बदलाव जैसे दूरगामी कदम ही दिल्ली को मरता शहर बनाने से बचा सकते हैं।

 

राजधानी के वायु प्रदूशण  से जूझने के स्थाई कदम

1.यदि दिल्ली की संास थमने से बचाना है तो यहां ना केवल सड़कों पर वाहन कम करने होंगे, इसे आसपास के कम से कम सौ किलोमीटर के सभी षहर कस्बों में भी वही मानक लागू करने होंगे जो दिल्ली षहर के लिए हों। अब करीबी षहरों की बात कौन करे जब दिल्ली में ही जगह-जगह चल रही ग्रामीण सेवा के नाम पर ओवर लोडेड  वाहन, मेट्रो स्टेषनों तक लोगों को ढो ले जाने वाले दस-दस सवारी लादे तिपहिएं ,पुराने स्कूटरों को जुगाड के जरिये रिक्षे के तौर पर दौड़ाए जा रहे पूरी तरह गैरकानूनी वाहन हवा को जहरीला करने में बड़ी भूमिका निभा रहे हैं। सनद रहे कि वाहन सीएजी से चले या फिर डीजल या पेट्रोल से, यदि उसमें क्षमता से ज्यादा वजन होगा तो उससे निकलने वाला धुआं जानलेवाा ही होगा।

2. यदि दिल्ली को एक अरबन स्लम बनने से बचाना है तो इसमें कथित लोकप्रिय फैसलों से बचना होगा, जिसमें सबसे महत्वपूर्ण है यहां बढ़ रही आबादी को कम करना। सनद रहे कि इतनी बड़ी आबादी के लिए चाहे मेट्रो चलाना हो या पानी की व्यवस्था करना, हर काम में लग रही उर्जा का उत्पादन  दिल्ली की हवा को विषैला बनाने की ओर एक कदम होता है। यही नहीं आज भी दिल्ली में जितने विकास कार्यों कारण जाम , ध्ूाल उड़ रही है वह यहां की सेहत ही खबरा कर रही है, भले ही इसे भविश्य के लिए कहा जा रहा हो।

3. हवा को जहर बनाने वाले पैटकॉन पर रोक के लिए कोई ठोस कदम ना उठाना भी हालात को खराब कर रहा है। पेट्रो पदार्थों को रिफायनरी में षोधित करते समय सबसे अंतिम उत्पाद होता है - पैटकॉन। इसके दहन से कार्बन का सबसे ज्यादा उत्सर्जन होता है। इसके दाम डीजल-पेट्रोल या पीएनजी से बहुत कम होने के चलते दिल्ली व करीबी इलाकें के अधिकांष बड़े कारखाने भट्टियों में इसे ही इस्तेमाल करते हैं। अनुमान है कि जितना जहर लाखों वाहनों से हवा में मिलता है उससे दोगुना पैटॅकान इस्तेमाल करने वाले कारखाने उगल देते हैं।

4.यदि वास्तव में दिल्ली की हवा को साफ रखना है तो तो इसकी कार्य योजना का आधार सार्वजनिक वाहन बढ़ाना या सड़क की चौडाई नहीं , बल्कि महानगर की जनसंख्या कम करने के कड़े कदम होना चाहिए। दिल्ली में सरकारी स्तर के कई सौ ऐसे आफिस है जिनका संसद या मंत्रालय के करीब होना कोई जरूरी नहीं। इन्हें एक साल के भीतर दिल्ली से दूर ले जाने के कड़वे फैसले के लिए कोई भी तंत्र तैयार नहीं दिखता।

5. सरकारी कार्यालयों के समय और बंद होने के दिन अलग-अलग किए जा सकते हैं। स्कूली बच्चों को अपने घर के तीन किलोमीटर के दायरे में ही प्रवेष देने, एक ही कालेानी में विद्यालय खुलने-बंद होने के समय अलग-अलग कर सड़क पर यातायात प्रबंधन किया जा सकता है।

 

 

    

Do not burn dry leaves

  न जलाएं सूखी पत्तियां पंकज चतुर्वेदी जो समाज अभी कुछ महीनों पहले हवा की गुणवत्ता खराब होने के लिए हरियाणा-पंजाब के किसानों को पराली जल...