My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

मंगलवार, 30 जनवरी 2018

conservation of traditional water system is only way to face drought

परंपरागत तरीकों से ही निदान जल प्रणाली 
पंकज चतुर्वेदी 

राष्ट्रीय सहारा ३१ जनवरी १८ 
इस बार बारिश फिर रूठ गई थी और बुंदेलखंड, तेलंगाना, मराठवाड़ा, बस्तर जैसे इलाके जनवरी शुरू होते-होते पानी के लिए हांफने लगे हैं। अभी अगली बरसात बहुत-बहुत दूर है और कोई आस की किरण दिखाई नहीं देती। पिछले अनुभवों से यह तो स्पष्ट है कि भारी-भरकम बजट, राहत, नलकूप जैसे शब्द जल संकट का निदान नहीं है। यदि भारत का ग्रामीण जीवन और खेती बचाना है तो बारिश की हर बूंद को सहेजने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। बुंदेलखंड अभी तीन साल पहले ही कई करोड़ रुपये का विशेष पैकेज उदरस्थ कर चुका था, लेकिन जाड़े के दिनों में न तो नल-जल योजनाएं काम आ रही हैं और ना ही नलकूप। देश के बहुत बड़े हिस्से के लिए अल्प वष्ा नई बात है और न ही वहां के समाज के लिए कम पानी में गुजारा करना। लेकिन बीते पांच दशक में आधुनिकता की आंधी में दफन हो गई पारंपरिक जल पण्रालियों के चलते आज वहां निराशा, पलायन व बेबसी का आलम है। मप्र के बुरहानपुर शहर की आबादी तीन लाख के आसपास है। निमाड़ का यह इलाका पानी की कमी के कारण कुख्यात है, लेकिन आज भी शहर में कोई अठारह लाख लीटर पानी प्रतिदिन एक ऐसी पण्राली के माध्यम से वितरित होता है, जिसका निर्माण सन 1615 में किया गया था। यह पण्राली जल संरक्षण और वितरण की दुनिया की अजूबी मिसाल है, जिसे ‘‘भंडारा’ कहा जाता है। सतपुड़ा पहाड़ियों से एक-एक बूंद जल जमा करना और उसे नहरों के माध्यम से लोगों के घरों तक पहुंचाने की यह व्यवस्था मुगल काल में फारसी जल-वैज्ञानिक तबकुतुल अर्ज ने तैयार की थी। समय की मार के चलते दो भंडारे पूरी तरह नष्ट हो गए हैं। सनद रहे कि हमारे पूर्वजों ने देश-काल-परिस्थिति के अनुसार बारिश को समेट कर रखने की कई पण्रालियां विकसित व संरक्षित की थीं, जिसमें तालाब सबसे लोकप्रिय थे। घरों की जरूरत यानी पेयजल व खाना बनाने के लिए मीठे पानी का साधन कुआं कभी घर-आंगन में हुआ करता था। धनवान लोग सार्वजनिक कुएं बनवाते थे। हरियाणा से मालवा तक जोहड़ या खाल जमीन की नमी बरकरार रखने की प्राकृतिक संरचना हैं। ये आमतौर पर वष्ा-जल के बहाव क्षेत्र में पानी रोकने के प्राकृतिक या कृत्रिम बांध के साथ छोटा तालाब की मानिंद होता है। तेज ढलान पर तेज गति से पानी के बह जाने वाले भूस्थल में पानी की धारा को काटकर रोकने की पद्धति ‘‘पाट’ पहाड़ी क्षेत्रों में बहुत लोकप्रिय रही है। एक नहर या नाली के जरिये किसी पक्के बांध तक पानी ले जाने की पण्राली ‘‘नाड़ा या बंधा’ अब देखने को नहीं मिल रही है। कुंड और बावड़िया महज जल संरक्षण के साधन नहीं, बल्कि हमारी स्थापत्य कला का बेहतरीन नमूना रहे हैं। आज जरूरत है कि ऐसी ही पारंपरिक पण्रालियों को पुनर्जीवित करने के लिए खास योजना बनाई जाए। कागजों पर आंकड़ों में देखें तो हर जगह पानी दिखता है लेकिन हकीकत में पानी की एक-एक बूंद के लिए लोग पानी-पानी हो रहे हैं। जहां पानी है, वह इस्तेमाल के काबिल नहीं है। आज जलनिधि को बढ़ता खतरा बढ़ती आबादी से कतई नहीं है। खतरा है आबादी में बढ़ोतरी के साथ बढ़ रहे औद्योगिक प्रदूषण, दैनिक जीवन में बढ़ रहे रसायनों के प्रयोग और मौजूद जल संसाधनों के अनियोजित उपयोग से। यह दुखद है कि जिस जल के बगैर एक दिन भी रहना मुश्किल है, उसे गंदा करने में हम बड़े बेरहम हैं। यह जान लेना जरूरी है कि पानी को बचाए रखने के लिए बारिश का संरक्षण ही एकमात्र उपाय है। यदि देश की महज पांच प्रतिशत जमीन पर पांच मीटर औसत गहराई में बारिश का पानी जमा किया जाए तो पांच सौ लाख हेक्टेयर पानी की खेती की जा सकती है। इस तरह औसतन प्रति व्यक्ति 100 लीटर पानी प्रति व्यक्ति पूरे देश में दिया जा सकता है। और इस तरह पानी जुटाने के लिए जरूरी है कि स्थानीय स्तर पर सदियों से समाज की सेवा करने वाली पारंपरिक जल पण्रालियों को खेजा जाए, उन्हें सहेजने वाले, संचालित करने वाले समाज को सम्मान दिया जाए और एक बार फिर समाज को ‘‘पानीदार’ बनाया जाए। यहां ध्यान रखना जरूरी है कि आंचलिक क्षेत्र की पारंपरिक पण्रालियों को आज के इंजीनियर शायद स्वीकार ही नहीं पाएं सो जरूरी है कि इसके लिए समाज को ही आगे किया जाए। जल संचयन के स्थानीय व छोटे प्रयोगों से जल संरक्षण में स्थानीय लोगों की भूमिका व जागरूकता दोनों बढ़ेगी, साथ ही इससे भूजल का रिचार्ज तो होगा ही, जो खेत व कारखानों में पानी की आपूत्तर्ि को सुनिष्चित करेगा।


रविवार, 21 जनवरी 2018

urbanization is threat to Eco system

पर्यावरण को लील रहा शहर का दायरा

संयुक्त राष्ट्र संघ का मानना है कि 2050 तक भारत की 60 फीसद आबादी शहरों में रहने लगेगी। वैसे भी 2011 की जनगणना के मुताबिक कुल 31 फीसद आबादी अभी शहर में निवास कर रही है। साल दर साल बढ़ती गरमी, गांव-गांव तक फैल रहा जल-संकट का साया, बीमारियों के कारण पट रहे अस्पताल, ऐसे कई मसले हैं जो आम लोगों को पर्यावरण के प्रति जागरूक बना रहे हैं। कहीं कोई नदी, तालाब के संरक्षण की बात कर रहा है तो कहीं कोई पेड़ लगा कर धरती को बचाने का संकल्प ले रहा है तो वहीं जंगल व वहां के बाशिंदे जानवरों को बचाने के लिए प्रयास कर रहे हैं, लेकिन भारत जैसे विकासशील देश में पर्यावरण का सबसे बड़ा संकट ‘शहरीकरण’ एक समग्र विषय के तौर लगभग उपेक्षित है। 1असल में, संकट जंगल का हो या फिर स्वच्छ वायु का या फिर पानी का; सभी के मूल में विकास की वह अवधारणा है जिससे शहर रूपी सुरसा सतत विस्तार कर रही है और उसकी चपेट में आ रही है प्रकृति और नैसर्गिकता। अपने देश में संस्कृति, मानवता और बसावट का विकास नदियों के किनारे ही हुआ है। सदियों से नदियों की अविरल धारा और उसके तट पर मानव-जीवन फलता-फूलता रहा है। बीते कुछ दशकों में विकास की ऐसी धारा बही कि नदी की धारा आबादी के बीच आ गई और आबादी की धारा को जहां जगह मिली वह बस गई। यही कारण है कि हर साल कस्बे नगर बन रहे हैं और नगर महानगर। बेहतर रोजगार, आधुनिक जनसुविधाएं और उज्जवल भविष्य की लालसा में अपने पुश्तैनी घर-बार छोड़ कर शहर की ओर पलायन करने की प्रवृत्ति का नतीजा है कि देश में एक लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की संख्या 302 हो गई है, जबकि 1971 में ऐसे शहर मात्र 151 थे। यही हाल दस लाख से अधिक आबादी वाले शहरों का है। इसकी संख्या गत दो दशकों में दुगुनी होकर 16 हो गई है। पांच से 10 लाख आबादी वाले शहर 1971 में मात्र नौ थे जो आज बढ़कर आधा सैंकड़ा हो गए हैं। विशेषज्ञों का अनुमान है कि आज देश की कुल आबादी का 8.50 प्रतिशत हिस्सा देश के 26 महानगरों में रह रहा है। विश्व बैंक की ताजा रिपोर्ट बताती है कि आने वाले 20-25 सालों में 10 लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की संख्या 60 से अधिक हो जाएगी जिनका देश के सकल घरेलू उत्पाद में योगदान 70 प्रतिशत होगा। एक बात और बेहद चौंकाने वाली है कि भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या शहरों में रहने वाले गरीबों के बराबर ही है। यह संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है, यानी यह डर गलत नहीं होगा कि कहीं भारत आने वाली सदी में ‘अरबन स्लम’ या शहरी मलिन बस्तियों में तब्दील न हो जाए।1शहर के लिए सड़क चाहिए, बिजली चाहिए, मकान चाहिए, दफ्तर चाहिए। इन सबके लिए या तो खेत होम हो रहे हैं या फिर जंगल। जंगल को हजम करने की चाल में पेड़, जंगली जानवर, पारंपरिक जल स्नोत, सभी कुछ नष्ट हो रहा है। यह वह नुकसान है, जिसका हर्जाना संभव नहीं है। शहरीकरण यानी रफ्तार, रफ्तार का मतलब है वाहन और वाहन हैं कि विदेशी मुद्रा भंडार से खरीदे गए ईंधन को पी रहे हैं और बदले में दे रहे हैं दूषित वायु। शहर को ज्यादा बिजली चाहिए, यानी ज्यादा कोयला जलेगा, ज्यादा परमाणु संयंत्र लगेंगे। दिल्ली, कोलकाता,पटना जैसे महानगरों में जल निकासी की माकूल व्यवस्था न होना शहर में जल भराव का स्थाई कारण कहा जाता है। मुंबई में मीठी नदी के उथले होने और 50 साल पुरानी सीवर व्यवस्था के जर्जर होने के कारण बाढ़ के हालात बनना सरकारें स्वीकार करती रही हैं। बेंगलुरु में पारंपरिक तालाबों के मूल स्वरूप में अवांछित छेड़छाड़ को बाढ़ का कारक माना जाता है। शहरों में बाढ़ रोकने के लिए सबसे पहला काम तो वहां के पारंपरिक जल स्नोतों में पानी की आवक और निकासी के पुराने रास्तों में बन गए स्थाई निर्माणों को हटाने का करना होगा। यदि किसी पहाड़ी से पानी नीचे बह कर आ रहा है तो उसका संकलन किसी तालाब में ही होगा।1ऐसे जोहड़-तालाब कंक्रीट की नदियों में खो गए हैं। परिणामत: थोड़ी ही बारिश में पानी कहीं बहने को बहकने लगता है। महानगरों में भूमिगत सीवर जल भराव का सबसे बड़ा कारण है। जब हम भूमिगत सीवर के लायक संस्कार नहीं सीख पा रहे हैं तो फिर खुले नालों से अपना काम क्यों नहीं चला पा रहे हैं? पोलीथीन, घर से निकलने वाले रसायन और नष्ट न होने वाले कचरे की बढ़ती मात्र, कुछ ऐसे कारण हैं, जोकि गहरे सीवरों के दुश्मन हैं। शहर का मतलब है औद्योगिकीकरण और अनियोजित कारखानों की स्थापना का ही दुखद परिणाम है कि तकरीबन सभी नदियां अब जहरीली हो चुकी हैं। नदी थी खेती के लिए, मछली के लिए, दैनिक कार्यो के लिए न कि उसमें गंदगी बहाने के लिए। गांवों के कस्बे, कस्बों के शहर और शहरों के महानगर में बदलने की होड़, एक ऐसी मृग मरिचिका की लिप्सा में लगी है, जिसकी असलियत कुछ देर से खुलती है। दूर से जो जगह रोजगार, सफाई, सुरक्षा, बिजली, सड़क के सुख के केंद्र होते हैं, असल में वहां सांस लेना भी गुनाह लगता है। शहरों की घनी आबादी संक्रामक रोगों के प्रसार का आसान जरिया होते हैं, यहां दूषित पानी या हवा भीतर ही भीतर इंसान को खाती रहती है और यहां बीमारों की संख्या ज्यादा होती है। देश के सभी बड़े शहर इन दिनों कूड़े को निबटाने की समस्या से जूझ रहे हैं। कूड़े को एकत्र करना और फिर उसका शमन करना, एक बड़ी चुनौती बनता जा रहा है। एक बार फिर शहरीकरण से उपज रहे कचरे की मार पर्यावरण पर ही पड़ रही है। 1असल में, शहरीकरण के कारण पर्यावरण को हो रहा नुकसान का मूल कारण अनियोजित शहरीकरण है। बीते दो दशकों के दौरान यह परिपाटी पूरे देश में बढ़ी कि लोगों ने जिला मुख्यालय या कस्बों की सीमा से सटे खेतों पर अवैध कालोनियां काट लीं। इसके बाद जहां कहीं सड़क बनी, उसके आसपास के खेत, जंगल, तालाब को वैध या अवैध तरीके से कंक्रीट के जंगल में बदल दिया गया। देश के अधिकांश शहर अब सड़कों के दोनों ओर बेतरतीब बढ़ते जा रहे हैं। न तो वहां सार्वजनिक परिवहन है, न ही सुरक्षा, न ही बिजली-पानी की न्यूनतम आपूर्ति।1(लेखक पर्यावरण कार्यकर्ता हैं)

शुक्रवार, 19 जनवरी 2018

Alarming situation for rivers of India

बिगड़ रही है नदियों की सेहत

                                                                                                                                           पंकज चतुर्वेदी

हाल ही में भारत के नियंत्रक-महालेखा परीक्षक (कैग) की संसद में पेश रिपोर्ट से पता चला है कि गंगा सफाई की बड़ी परियोजना ‘नमामि गंगे’ के तहत बजट राशि खर्च ही नहीं हो पाई। एनएमसीजी के बीते तीन वर्षों के लेखा-जोखा का अध्य्यन करने के बाद कैग इस नतीजे पर पहुंचा है कि गंगा स्वच्छता के लिए आवंटित धनराशि में से महज 8 से 63 प्रतिशत ही खर्च हो सकी है। इसके अलावा कैग ने आवंटित राशि के सही ढंग से खर्च न हो पाने और उसका लेखा परीक्षा न करा पाने को लेकर भी सवाल खड़े किए हैं। है।  एक अनुमान है कि आजादी के बाद से अभी तक गंगा की सफाई के नाम पर कोई 20 हजार करोड़ रूप्ए खर्च हो चुके हैं। अप्रेल-2011 में गंगा सफाई की एक योजना सात हजार करोड़ की बनाई गई। विष्व बैंक से इसके लिए कोई एक अरब डालर का कर्जा भी लिया गया, लेकिन ना तो गंगा में पानी की मात्रा बढ़ी और ना ही उसका प्रदूशण घटा। सनद रहे यह हाल केवल गंगा का ही नहीं है। देश की अधिकश्ंा नदियों को स्वच्छ करने के अभियान कागज, नारों व बजट को ठिकोन लगोन से ज्यादा नहीं रहे हैं। लखनउ में गोमती पर छह सौ करोड़ फूंके गए लेकिन हालत जस के तस तो यमुना  कई सौ करोड़ लगाने के बाद भी दिल्ली से आगे और मथुरा-आगरा तक नाले के मानिंद ही रहती है।


यह सभी जानते हैं कि मानवता का अस्तित्व जल पर निर्भर है और आम इंसान के पीने-खेती-मवेशी के लिए अनिवार्य मीठे जल का सबसे बड़ा जरिया नदियां ही हैं। जहां-जहां से नदियां निकलीं, वहां-वहां बस्तियां बसती गईं और इस तरह विविध संस्कृतियों, भाशाओं, जाति-धर्मो का भारत बसता चला गया। तभी नदियां पवित्र मानी जाने लगीं-केवल इसलिए नहीं कि इनसे जीवनदायी जल मिल रहा था, इस लिए भी कि इन्हीं की छत्र-छाया में मानव सभ्यता पुश्पित-पल्लवित होती रही। गंगा और यमुना को भारत की अस्मिता का प्रतीक माना जाता रहा है। लेकिन विडंबना है कि विकास की बुलंदियों की ओर उछलते देष में अमृत बांटने वाली नदियां आज खुद जहर पीने को अभिषप्त है। इसके बावजूद देश की नदियों को प्रदूषण-मुक्त करने  की नीतियां महज नारों से आगे नहीं बढ़ पा रही है । सरकार में बैठे लेाग खुद ही नदियों मंे गिरने वाले औद्योगिक प्रदूषण की सीमा में जब विस्तार करेंगे तो यह उम्मीद रखना बेमानी है कि देश की नदियों जल्द ही निर्मल होंगी। असल में हमारी नदियां इन दिनों कई दिशाअेंा से हमले झेल रही हैं, - उनमें पानी कम हो रहा है, वे उथली हो रही हैं, उनसे रेत निकाल कर उनका मार्ग बदला जा रहा है, नदियों के किनारे पर हो रही खेती से बह कर आ रहे रासायनिक पदार्थ, कल-कारखानों और घरेलू गंदगी का नदी में सीधा मिलाना। सनद रहे नदी केवल एक जल‘मार्ग नहीं होती, जल के साथ उसमें रहने वाले जीव-जंतु, वनस्पति, उसके किनारे की नमी, उसमें पलने वाले सूक्ष्म जीव , उसका इस्तेमाल करने वाले इंसान व पशु; सभी मिल कर एक नही का चक्र संपूर्ण करते है। यदि इसमें एक भी कड़ी कमजोर या नैसर्गिक नियम के विरूद्ध जाती है तो नदी की तबियत खराब हो जाती है।

हमारे देष में 13 बड़े, 45 मध्यम और 55 लघु जलग्रहण क्षेत्र हैं। जलग्रहण क्षेत्र उस संपूर्ण इलाके को कहा जाता है, जहां से पानी बह कर नदियों में आता है। इसमें हिंमखंड, सहायक नदियां, नाले आदि षामिल होते हैं। जिन नदियों का जलग्रहण क्षेत्र 20 हजार वर्ग किलोमीटर से बड़ा होता है , उन्हें बड़ा-नदी जलग्रहण क्षेत्र कहते हैं। 20 हजार से दो हजार वर्ग किजरेमीटर वाले को मध्यम, दो हजार से  कम वाले को लघु जल ग्रहण क्षेत्र कहा जाता है। इस मापदंड के अनुसार गंगा, सिंधु, गोदावरी, कृश्णा, ब्रह्मपुत्र, नर्मदा, तापी, कावेरी, पेन्नार, माही, ब्रह्मणी, महानदी, और साबरमति बड़े जल ग्रहण क्षेत्र वाली नदियां हैं। इनमें से तीन नदियां - गंगा, सिंधु और ब्रह्मपुत्र हिमालय के हिमखंडों के पिघलने से अवतरित होती हैं। इन सदानीरा नदियों को ‘हिमालयी नदी’ कहा जाता है। षेश दस को पठारी नदी कहते हैं, जो मूलतः वर्शा पर निर्भर होती हैं।

यह आंकड़ा वैसे बड़ा लुभावना लगता है कि देष का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 32.80 लाख वर्ग किलोमीटर है, जबकि सभी नदियों को सम्मिलत जलग्रहण क्षेत्र 30.50 लाख वर्ग किलोमीटर है। भारतीय नदियों के माग से हर साल 1645 घन किलोलीटर पानी बहता है जो सारी दुनिया की कुल नदियों का 4.445 प्रतिषत है।  आंकडों के आधार पर हम पानी के मामले में पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा समृद्ध हैं, लेकिन चिंता का विशय यह है कि पूरे पानी का कोई 85 फीसदी बारिष के तीन महीनों में समुद्र की ओर बह जाता है और नदियां सूखी रह जाती हैं।
सन 2009 में  केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने देश में कुल दूषित नदियों की संख्या  121 पाई थी जो अब 275 हो चुकी है। यही नहीं आठ साल पहले नदियों के कुल 150 हिस्सों में प्रदूषण पाया गया था जो अब 302 हो गया है।  बोर्ड ने 29 राज्यों व छह केंद्र शासित प्रदेशों की कुल 445 नदियें पर अध्ययन किया, जिनमें से 225 का जल  बेहद खराब हालत में मिला। इन नदियों के किनारे बसे शहरों 650 के 302 स्थानों पर सन 2009 में 38 हाजर एमएलडी सीवर का गंदा पानी नदियों में गिरता था जो कि आज बढ़ कर 62 हजार एमएलडी  हो गया। चिंत की बात है कि हीं भी सीवर ट्रीटमेंट प्लांट की क्षमता नहीं बढ़ाई गई है। सरकारी अध्ययन में 34 नदियों में बायो केमिकल आक्सीजन डिमांड यानि बीओडी की मात्रा 30 मिलग्राम प्रति लीटर से अधिक पाई गई और यह उन नदियों के अस्तित्व के लिए बड़े संकट की ओर इशारा करता है।

भारत में प्रदूषित नदियों के बहाव का इलाका 12,363 किलोमीटर मापा गया है इनमें से 1,145 किलोमीटर का क्षेत्र पहले स्तर यानि बेहद दूषित श्रेणी का है।  दिल्ली में यमुना इस पर शीर्ष पर है, इसके बाद महाराष्ट्र का नंबर आता है जहां 43 नदियां मरने की कगार पर हैं।  असम में 28, मध्यप्रदेश में 21, गुजरात में 17, कर्नाटक में 15, केरल में 13, बंगाल में 17, उप्र में 13, मणिपुर और उडिसा में 12-12, मेंघालय में दस और कश्मीर में नौ नदियां अपने अस्तित्व के लिए तड़प रही हैं। ऐसी नदियों के कोई 50 किलोमीटर इलाके के खेतों की उत्पादन क्षमता लगभग पूरी तरह समाप्त हो गई है। इलाके की अधिकांष आबादी चर्मरोग, सांस की बीमारी और पेट के रोगों से बेहाल है। भूजल विभाग का एक सर्वे गवाह है कि नदी के किनारे हैंडपंपों से निकल रेह पानी में क्षारीयता इतनी अधिक है कि यह ना तो इंसान के लायक है,ना ही खेती के। सरकार के ही पर्यावरण और प्रदूशण विभाग बीते 20 सालों से चेताते रहते हैं लेकिन आधुनिकता का लोभ पूरे सिस्टम को लापरवाह बना रहा है।
नदियों के सामने खड़े हो रहे संकट ने मानवता के लिए भी चेतावनी का बिगुल बजा दिया है, जाहिर है कि बगैर जल के जीवन की कल्पना संभव नहीं है। हमारी नदियों के सामने मूलरूप से तीन तरह के संकट हैं - पानी की कमी, मिट्टी का आधिक्य और प्रदूशण।
असल में इन नदियों को मरने की कगार पर पहुंचाने वाला यही समाज और सरकार की नीतियां हैं। सभी जाने हैं कि इस दौर में विकास का पैमाना निर्माण कार्य है -भवन, सड़क, पुल आदि-आदि। निर्माण में सीमेंट, लोहे के साथ दूसरी अनिवार्य वस्तु है रेत या बालू। यह एक ऐसा उत्पाद है जिसे किसी कारखाने में नहीं बनाया जा सकता। यह नदियोंके बहाव के साथ आती है और तट पर एकत्र होती है। प्रकृति का नियम यही है कि किनारे पर स्वतः आई इस रेत को  समाज अपने काम में लाए, लेकिन गत एक दशक के दौरान हर छोटी-बड़ी नदी का सीना छेद कर मशीनों द्वारा रेत निकाली जा रही है। इसके लिए नदी के नैसर्गिक मार्ग को बदला जाता है, उसे बेतरतीब खोदा या गहरा किया जाता है।  जान लें कि नदी के जल बहाव क्षेत्र में रेत की परत ना केवल बहते जल को शुद्ध रखती है, बल्कि वह उसमें मिट्टी के मिलान से दूषित होने और जल को भूगर्भ में जज्ब होने से भी बचाती है। जब नदी के बहाव पर पॉकलैंड व जेसीबी मशीनों से प्रहार होता है तो उसका पूरा पर्यावरण ही बदल जाता है। याद करं दिल्ली में यमुना के तट पर श्री श्री रविशंकर ने महोत्सव कर उसके पूरे इको-सिस्टम को नुकसान पहुंचाया था। नदी के जल ग्रहण क्षेत्र में लगातार भारी मशीनें व ट्रक आने से मिट्टी  खराब होती है और उस पर पलने वाले पर्यावरण मित्र सूक्ष्म जीवाणु सदा के लिए मर जाते हैं। नदियों के उथले होने का कारण भी यही है।
आधुनिक युग में नदियों को सबसे बड़ा खतरा प्रदूशण से है। कल-कारखानों की निकासी, घरों की गंदगी, खेतों में मिलाए जा रहे रायायनिक दवा व खादों का हिस्सा, भूमि कटाव, और भी कई ऐसे कारक हैं जो नदी के जल को जहर बना रहे हैं। अनुमान है कि जितने जल का उपयोग किया जाता है, उसके मात्र 20 प्रतिषत की ही खपत होती है, षेश 80 फीसदी सारा कचरा समेटे बाहर आ जाता है। यही अपषिश्ट या माल-जल कहा जाता है, जो नदियों का दुष्मन है। भले ही हम कारखानों को दोशी बताएं, लेकिन नदियों की गंदगी का तीन चौथाई  हिस्सा घरेलू मल-जल ही है।  हर घर में शौचालय, घरों मे स्वच्छता के नाम पर बहुत से साबुन और केमिकल का इस्तेमाल, शहरो में मल-जल के शुद्धिकरण की लचर व्यवस्था और नदियों के किनारे हुए बेतरतीब अतिक्रमण नदियो के बड़े दुश्मन बन कर उभरे है। गौर से देखें तो ये सभी कारक हमने ही उपजाए हैं।


शुक्रवार, 5 जनवरी 2018

negligence towards live stock have negative effect on rural development

आफत बनते आवारा मवेशी

पंकज चतुर्वेदी


भारत जैसा खेती प्रधान देश जहां, पशु को लाईव-स्टॉक कहा जाता है और जो कि देश की अर्थ व्यवस्था का बड़ा आधार है, वहां दूध देने वाले मवेशियों का करोड़ों की तादात में आवारा हो जाना असल में देश की बड़ी हानि है। गाय सियासत के फरे में गलियों में घुम रही है और उसके गोबर, दूध या अन्य लाभ के आकांक्षी उन भक्तों से भयभीत हैं जो कि ना तो खुद गाय पालते हें और ना ही गौ पालकों की व्याहवारिक दिक्कतों को समझते हैं। इलाहबाद, प्रतापगढ़ से ले कर जौनपुर तक के गांवों में देर रात लेागों के टार्च  चमकते दिखते हैं। इनकी असल चिंता वे लावरिस गोवंश होता है जो झुंड में खेतों में आते हैं व कुछ घंटे में किसान की महीनों की मेहनत उजाड़ देते हैं। जब से बूढे पशुओं को बेचने को ले कर उग्र राजनीति हो रही है, किसान अपने बेकार हो गए मवेश्यिों को नदी के किनारे ले जाता है, वहां उसकी पूजा की जाती है फिर उसके पीछे कुछ तीखा पदार्थ लगाया जाता है , जिसे मवेशी बेकाबू हो कर बेतहाश भागता है। यहां तक कि वह अपने घर का रासता भी भूल जाता हे। ऐसे सैंकड़ों मवेशी जब बड़े झंुड में आ जाते हें तो तबाही मचा देते हैं। भूखे, बेसहारा गौ वंश  के बेकाबू होने के चलते बुंदेलखंड में तो आए रोज झगड़े हो रहे हैं। ऐसी गायों का आतंक राजसथान, हरियाणा,मप्र, उप्र में इन दिनों चरम पर हे। कुछ गौशालाएं तो हैं लेकिन उनकी संख्या आवारा पशुओं की तुलना में नगण्य हैं और जो हें भी तो भयानक अव्यवस्था की शिकार , जिसे गायों का कब्रगाह कहा जा सकता हे।

देश के जिन इलाकांे मे सूखे ने दस्तक दे दी है और खेत सूखने के बाद किसानों व खेत-मजदूरों के परिवार पलायन कर गए हैं , वहां छुट्टा मवेशियों की तादात सबसे ज्यादा है। इनके लिए पीने के पानी की व्यवस्था का गणित अलग ही है। आए रोज गांव-गांव में कई-कई दिन से चारा ना मिलने या पानी ना मिलने या फिर इसके कारण भड़क कर हाईवे पर आने से होनें वाली दुर्घटनाओं के चलते मवेषी मर रहे हैं। आने वाले गर्मी के दिन और भी बदतर होंगे क्योंकि तापमान भी बढ़ेगा।
बुंदेलखंड की मषहूर ‘‘अन्ना प्रथा’’ यानी लोगों ने अपने मवेषियों को खुला छोड़ दिया हैं क्योंकि चारे व पानी की व्यवस्था वह नहीं कर सकते । सैकड़ों गायों ने अपना बसेरा सड़कों पर बना लिया। पिछले दिनों कोई पांचह जार अन्ना गायों का रेला हमीरपुर से महोबा जिले की सीमा में घुसा तो किसानों ने रास्ता जाम कर दिया। इन जानवरों को हमीरपुर जिले के राठ के बीएनबी कालेज के परिसर में घेरा गया था और योजना अनुसार पुलिस की अभिरक्षा में इन्हें रात में चुपके से महोबा जिले में खदेड़ना था। एक तरफ पुलिस, दूसरी तरफ सशस्त्र गांव वाले और बीच में हजारों गायें।  कई घंटे तनाव के बाद जब जिला प्रशसन ने इन गायों को जंगल में भेजने की बात मानी , तब तनाव कम हुआ। उधर बांदा जिले के कई गांवों में अन्ना पशुओं को ले कर हो रहे तनाव से निबटने के लिए प्रशासन ने  बेआसरा पशुओं को स्कूलों के परिसर में घेरना शुरू कर दिया हे। इससे वहां पढ़ाई चौपट हो गई ।  वहीं प्रशासन के पास इतना बजट नहीं है कि हजारों गायों के लिए हर दिन चारे-पानी की व्यवस्था की जाए। एक मोटा अनुमान है कि हर दिन प्रत्येक गांव में लगभग 10 से 100 तक मवेषी खाना-पानी के अभाव में दम तोड़ रहे
भूखेे -प्यासे जानवर हाईवे पर बैठ जाते हैं और इनमें से कई सड़क दुर्घटना में मारे जाते हैं और कई चारे और पानी के अभाव में कमजोर होकर मर रहे हैं। किसानों के लिए यह परेषानी का सबब बनी हुई हैं क्योंकि उनकी फसलों को मवेषियों का झुंड चट कर जाता है।


पिछले दो दशकों से मध्य भारत का अधिकांश हिस्सा तीन साल में एक बार अल्प वर्शा का षिकार रहा है। यहां से रोजगार के लिए पलायन की परंपरा भी एक सदी से ज्यादा पुरानी है, लेकिन दुधारू मवेषियों को मजबूरी में छुट्टा छोड़े देने का रोग अभी कुछ दषक से ही है। ‘‘ अन्ना प्रथा’’ यानि दूध ना देने वाले मवेषी को आवारा छोड़ देने के चलते यहां खेत व इंसान दोनेां पर संकट है। उरई, झांसी आदि जिलों में कई ऐसे किसान है। जिनके पास अपने जल ससांधन हैं लेकिन वे अन्ना पषुओं के कारण बुवाई नहीं कर पाए। जब फसल कुछ हरी होती है तो अचानक ही हजारों अन्ना गायों का रेवड़ आता है व फसल चट कर जाता है। यदि गाय को मारो तो धर्म-रक्षक खड़े हो जाते हैं और खदेड़ों तो बगल के खेत वाला बंदूक निकाल लेता है। गाय को बेच दो तो उसके व्यापारी को रास्ते मंे कहीं भी बजरंगियों द्वारा पिटाई का डर। दोनों ही हालात में खून बहता है और कुछ पैसे के लिए खेत बोने वाले किसान को पुलिस-कोतवाली के चक्क्र लगाने पड़ते हैं। यह बानगी है कि हिंदी पट्टी में तीन करोड़ से ज्यादा चौपाये किस तरह मुसीबत बन रहे हैं और साथ ही उनका पेट भरना भी मुसीबत बन गया है।

यहां जानना जरूरी है कि अभी चार दषक पहले तक हर गांव में चारागाह की जमीन होती थी। षायद ही कोई ऐसा गांव या मजरा होगा जहां कम से कम एक तालाब और कई कुंए नहीं हों। जंगल का फैलाव पचास फीीसदी तक था। आधुनिकता की आंधी में बह कर लोगों ने चारागाह को अपना ‘चारागाह’ बना लिया व हड़प गए। तालाबों की जमीन समतल कर या फिर घर की नाली व गंदगी उसमें गिरा कर उनका अस्तित्व ख्षतम कर दिया। हैंड पंप या ट्यूबवेल की मृगमरिचिका में कुओं को बिसरा दिया।  जंगलों की ऐसी कटाई हुई कि अब बुंदेलखंड में अंतिम संस्कार के लिए लकड़ी नहीं बची है व वन विभाग के डिपो ती सौ किलोमीटर दूर से लकड़ी मंगवा रहे हैं। जो कुछ जंगल बचे हैं वहां मवेषी के चरने पर रोक है। एक बात जान लें जब चरने की जहग कम होती है और मवेशी ज्यादा तो बंतरतीब चराई, जमीन को बंजर भी बनाती है। ठीक इसी तरह मवेािशयों के बउ़े झुंड द्वारा खेतों को बुरी तरह कुचलने से भी जमीन की उत्पादक मिट्टी का नुकसान होता है।

अभी बरसात बहुत दूर है।  जब सूखे का संकट चरम पर होगा तो लोगों को मुआवजा, राहत कार्य या ऐसे ही नाम पर राषि बांटी जाएगी, लेकिन देष व समाज के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले पषु-धन को सहेजने के प्रति षायद ही किसी का ध्यान जाए। अभी तो औसत या  अल्प बारिष के चलते जमीन पर थोड़ी हरियाली है और कहीं-कहीं पानी भी, लेकिन अगली बारिष होने में अभी कम से कम तीन महीना हैं और इतने लंबे समय तक आधे पेट व प्यासे रह कर मवेषियों का जी पाना संभव नहीं होगा। बुंदेलखंड में जीवकोपार्जन का एकमात्र जरिया खेती ही है और मवेषी पालन इसका सहायक व्यवसाय। यह जान लें कि एक करोड़ से ज्यादा संख्या का पषु धन तैयार करने में कई साल व कई अरब की रकम लगेगी, लेकिन उनके चारा-पानी की व्यवस्था के लिए कुछ करोड़ ही काफी होंगें। हो सकता है कि इस पर भी कुछ कागजी घोड़े दौड़े लेकिन जब तक ऐसी योजनाओं की क्रियान्वयन एजेंसी में संवेदनषील लोग नहीं होंगे, मवेषी का चारा इंसान के उदरस्थ ही होगा।

गुरुवार, 4 जनवरी 2018

Assam is on boiling point for NRC

राजनीतिः असम क्यों सुलग रहा है

बांग्लादेश को छूती हमारी जमीनी और जल-सीमा लगभग खुली पड़ी है। इसका फायदा उठाकर बांग्लादेश के लोग बेखौफ यहां आते रहे हैं। विडंबना यह है कि हमारी अदालत किसी व्यक्ति को गैरकानूनी बांग्लादेशी घोषित कर देती है, लेकिन बांग्लादेश की सरकार यह कहकर उसे वापस लेने से इनकार कर देती है कि भारत के साथ उसका इस तरह का कोई द्विपक्षीय समझौता नहीं है।


बहुप्रतीक्षित राष्ट्रीय नागरिक पंजी यानी एनआरसी का पहला प्रारूप आते ही सीमावर्ती राज्य असम में तनाव बढ़ गया है। सूची में घोषित आतंकी व लंबे समय से विदेश में रहे परेश बरुआ, अरुणोदय दहोटिया के नाम तो हैं लेकिन दो सांसदों व कई विधायकों के नाम इसमें नहीं हैं। अपना नाम देखने के लिए केंद्रों पर भीड़ है, तो वेबसाइट ठप हो गई। इस बीच सिलचर में एक व्यक्ति ने अपना नाम न होने के कारण आत्महत्या कर ली। हजारों मामले ऐसे हैं जहां परिवार के आधे लोगों को तो नागरिक माना गया और आधों को नहीं।
हालांकि प्रशासन कह रहा है कि यह पहला प्रारूप है और उसके बाद भी सूचियां आएंगी। फिर भी कोई दिक्कत हो तो प्राधिकरण में अपील की जा सकती है। यह सच है कि यह दुनिया का अपने आप में ऐसा पहला प्रयोग है जब साढ़े तीन करोड़ से अधिक लोगों की नागरिकता की जांच की जा रही है। लेकिन इसको लेकर कई दिनों से राज्य के सभी कामकाज ठप हैं। पूरे राज्य में सेना लगा दी गई है।
असम समझौते के पूरे अड़तीस साल बाद वहां से अवैध बांग्लादेशियों को निकालने की जो कवायद शुरू हुई, उसमें राज्य सरकार ने सांप्रदायिक तड़का दे दिया, जिससे भय, आशंकाओं और अविश्वास का माहौल है। असम के मूल निवासियों की कई दशकों से मांग है कि बांग्लादेश से अवैध तरीके से घुसपैठ कर आए लोगों की पहचान कर उन्हें वापस भेजा जाए। इस मांग को लेकर आॅल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) की अगुआई में 1979 में एक अहिंसक आंदोलन शुरू हुआ था। आंदोलनकारियों पर पुलिसिया कार्रवाई के बाद हालात और बिगड़े। 1983 में हुए चुनावों का इस आंदोलन के नेताओं ने विरोध किया था।
चुनाव के बाद जमकर हिंसा शुरू हो गई। इस हिंसा का अंत तत्कालीन केंद्र सरकार के साथ 15 अगस्त 1985 को हुए एक समझौते (जिसे असम समझौता कहा जाता है) के साथ हुआ। इस समझौते के अनुसार, जनवरी 1966 से मार्च 1971 के बीच प्रदेश में आए लोगों को यहां रहने की इजाजत तो थी, लेकिन उन्हें आगामी दस साल तक वोट देने का अधिकार नहीं था। समझौते में केंद्र सरकार ने यह भी स्वीकार किया था कि 1971 के बाद राज्य में घुसे बांग्लादेशियों को वापस अपने देश जाना होगा। इसके बाद असम गण परिषद (जिसका गठन आसू के नेताओं ने किया था) की सरकार भी बनी। लेकिन इस समझौते को पूरे अड़तीस साल बीत गए हैं और बांग्लादेश व म्यांमा से अवैध घुसपैठ जारी है। यही नहीं, घुसपैठ करने वाले लोग बाकायदा भारतीय नागरिकता के दस्तावेज भी बनवा रहे हैं।
सन 2009 में मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था। जब सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर एनआरसी बनाने का काम शुरू हुआ तो जाहिर है कि अवैध घुसपैठियों में भय तो होगा ही। लेकिन असल तनाव तब शुरू हुआ जब राज्य-शासन ने नागरिकता कानून संशोधन विधेयक विधानसभा में पेश किया। इस कानून के तहत बांग्लादेश से अवैध तरीके से आए हिंदू शरणार्थियों को नागरिकता दिए जाने का प्रावधान है। यही नहीं, घुसपैठियों की पहचान का आधार वर्ष 1971 की जगह 2014 किया जा रहा है। जाहिर है, इससे अवैध घुसपैठियों की पहचान करने का असल मकसद तो भटक ही जाएगा। हालांकि राज्य सरकार के सहयोगी दल असम गण परिषद ने इसे असम समझौते की मूल भावना के विपरीत बताते हुए सरकार से अलग होने की धमकी भी दे दी है। हिरेन गोहार्इं, हरेकृष्ण डेका, इंदीबर देउरी, अखिल गोगोई जैसे हजारों सामाजिक कार्यकर्ता भी इसके विरोध में सड़कों पर हैं, लेकिन राज्य सरकार अपने कदम पीछे खींचने को राजी नहीं है।
बांग्लादेश को छूती हमारी 170 किलोमीटर की जमीनी और 92 किमी की जल-सीमा लगभग खुली पड़ी है। इसका फायदा उठाकर बांग्लादेश के लोग बेखौफ यहां आते रहे हैं, बस जाते रहे हैं। विडंबना यह है कि हमारी अदालत किसी व्यक्ति को गैरकानूनी बांग्लादेशी घोषित कर देती है, लेकिन बांग्लादेश की सरकार यह कहकर उसे वापस लेने से इनकार कर देती है कि भारत के साथ उसका इस तरह का कोई द्विपक्षीय समझौता नहीं है। असम में बाहरी घुसपैठ एक सदी से अधिक पुरानी समस्या है। सन 1901 से 1941 के बीच भारत (अविभाजित) की आबादी में वृद्धि की दर जहां 33.67 प्रतिशत थी, वहीं असम में यह दर 103.51 फीसद दर्ज की गई थी। सन 1921 में विदेशी सेना द्वारा गोलपाड़ा पर कब्जा करने के बाद ही असम के कामरूप, दरांग, शिवसागर जिलों में म्यांमा व अन्य देशों से लोगों का आना शुरू हो गया था। सन 1931 की जनगणना में साफ लिखा था कि आगामी तीस सालों में असम में केवल शिवसागर ऐसा जिला होगा, जहां बहुसंख्यक आबादी असम मूल की होगी।
असम में विदेशियों के शरणार्थी बन कर आने को दो हिस्सों में बांटा जा सकता है- 1971 की लड़ाई या बांग्लादेश बनने से पहले और उसके बाद। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 1951 से 1971 के बीच 37 लाख 57 हजार बांग्लादेशी, जिनमें अधिकतर मुसलमान थे, अवैध रूप से असम में घुसे व यहीं बस गए। सन 1970 के आसपास अवैध शरणार्थियों को भगाने के कुछ कदम उठाए गए तो राज्य के तैंतीत मुसलिम विधायकों ने देवकांत बरुआ की अगुआई में तत्कालीन मुख्यमंत्री विमल प्रसाद चालिहा के खिलाफ ही आवाज उठा दी। उसके बाद कभी किसी भी सरकार ने इतने बड़े वोट-बैंक पर टिप्पणी करने की हिम्मत नहीं जुटाई। शुरू में कहा गया कि असम में ऐसी जमीन बहुत-सी है जिस पर खेती नहीं होती है, और ये घुसपैठिये इस पर हल चला कर हमारे ही देश का भला कर रहे हैं।
लेकिन आज हालात इतने बदतर हैं कि काजीरंगा नेशनल पार्क को छूते कई सौ किलोमीटर के राष्ट्रीय राजमार्ग के दोनों ओर केवल झुग्गियां दिखती हैं, जिनमें ये बिन बुलाए मेहमान डेरा डाले हुए हैं। इनके कारण राज्य में संसाधनों का टोटा तो पड़ ही रहा है, वहां की पारंपरिक संस्कृति, संगीत, लोकाचार, सभी कुछ प्रभावित हो रहा है। हालात इतने खराब हैं कि कोई आठ साल पहले राज्य के राज्यपाल व पूर्व सैन्य अधिकारी रहे ले.ज. एसके सिन्हा ने राष्ट्रपति को भेजी एक रिपोर्ट में साफ लिखा था कि राज्य में बांग्लादेशियों की इतनी बड़ी संख्या बसी है कि उसकी छानबीन करने व फिर वापस भेजने के लायक हमारे पास मशीनरी नहीं है।
एनआरसी के पहले मसौदे के कारण लोगों में बैचेनी की बानगी केवल एक जिले नवगांव के आंकड़ों से भांपी जा सकती है। यहां कुल 20,64,124 लोगों ने खुद को भारत का नागरिक बताने वाले दस्तावेज जमा किए थे। लेकिन पहली सूची में केवल 9,11,604 लोगों के नाम शामिल हैं। यानी कुल आवेदन के 55.84 प्रतिशत लोगों की नागरिकता फिलहाल संदिग्ध है। राज्य में 1.9 करोड़ लोग ही पहली सूची में हैं जबकि नागरिकता का दावा करने वाले 1.39 करोड़ लोगों के नाम नदारद हैं। ऐसी हालत कई जिलों की है। इनमें सैकड़ों लोग तो ऐसे भी हैं जो सेना या पुलिस में तीस साल नौकरी कर सेवानिवृत्त हुए, लेकिन उन्हें इस सूची में नागरिकता के काबिल नहीं माना गया। भले ही राज्य सरकार संयम रखने व अगली सूची में नाम होने का वास्ता दे रही हो, लेकिन राज्य में बेहद तनाव और अनिश्चितता का माहौल है। ऐसे में कुछ लोग अफवाहें फैला कर भी माहौल खराब कर रहे हैं।

मंगलवार, 2 जनवरी 2018

sea line can prevent fishermen from jail

समुद्री  सीमा निर्धारित हो तो मछुआरों की जिंदगी बचे
पंकज चतुर्वेदी


हाल ही में पाकिस्तान ने भारत के 145 मछुआरे रिहा किए, 08 जनवरी को 146 और को रिहा करेगा। उधर बीते एक महीने के दौरान पाकिस्तान ने हमारे 55 मछुआरों को समु्रद से सीमा पार करने के आरोप में पकड़ लिया। पूर्व सेना अधिकारी कुलभूषण  जाधव और उससे पहले सरबजीत की रिहाई, बेगुनाही पर तो सारी संसद, नेता, देश बोल रहा है, लेकिन सालों से दोनों तरफ के मुछआरों के गलती से सीमा पार करने पर पकड़े जाने और उन्नहे लंबे समय तक जेल में रहने पर कोई आवाज नहीं उठती। कुछ महीने पहले ही गुजरात का एक मछुआरा दरिया में तो गया था मछली पकड़ने, लेकिन लौटा तो उसके श्रीर पर गोलियां छिदी हुई थीं। उसे पाकिस्तान की समुद्री पुलिस ने गोलियां मारी थीं। ‘‘इब्राहीम हैदरी(कराची)का हनीफ जब पकड़ा गया था तो महज 16 साल का था, आज जब वह 23 साल बाद घर लौटा तो पीढ़ियां बदल गईं, उसकी भी उमर ढल गई। इसी गांव का हैदर अपने घर तो लौट आया, लेकिन वह अपने पिंड की जुबान ‘‘सिंधी’’ लगभग भूल चुका है, उसकी जगह वह हिंदी या गुजराती बोलता है। उसके अपने साथ के कई लोगों का इंतकाल हो गया और उसके आसपास अब नाती-पोते घूम रहे हैं जो पूछते हैं कि यह इंसान कौन है।’’
दोनों तरफ लगभग एक से किस्से हैं, दर्द हैं- गलती से नाव उस तरफ चली गई, उन्हें घुसपैठिया या जासूस बता दिया गया, सजा पूरी होने के बाद भी रिहाई नहीं, जेल का नारकीय जीवन, साथ के कैदियों द्वारा श्क से देखना, अधूरा पेट भोजन, मछली पकड़ने से तौबा....। पानी पर लकीरें खींचना नामुमकिन है, लेकिन कुछ लोग चाहते हैं कि हवा, पानी, भावनाएं सबकुछ बांट दिया जाए। एक दूसरे देश के मछुआरों को पकड़ कर वाहवाही लूटने का यह सिलसिला ना जाने कैसे सन 1987 में शुरू  हुआ और तब से तुमने मेरे इतने पकड़े तो मैं भी तुम्हारे उससे ज्यादा पकडूंगा की तर्ज पर समुद्र में इंसानों का शिकार होने लगा।
भारत और पाकिस्तान में साझा अरब सागर के किनारे रहने वाले कोई 70 लाख परिवार सदियों से समुद्र  से निकलने वाली मछलियों से अपना पेट पालते आए हैं। जैसे कि मछली को पता नहीं कि वह किस मुल्क की सीमा में घुस रही है, वैसे ही भारत और पाकिस्तान की सरकारें भी तय नहीं कर पा रही हैं कि आखिर समुद्र  के असीम जल पर कैसे सीमा खींची जाए।  कच्छ के रन के पास सर क्रीक विवाद सुलझने का नाम नहीं ले रहा है। असल में वहां पानी से हुए कटाव की जमीन को नापना लगभग असंभव है क्योंकि पानी से आए रोज जमीन कट रही है और वहां का भूगोल बदल रहा है।  देानेां मुल्कों के बीच की कथित सीमा कोई 60 मील यानि लगभग 100 किलोमीटर में विस्तारित है। कई बार तूफान आ जाते हैं तो कई बार मछुआरों को अंदाज नहीं रहता कि वे किस दिशा में जा रहे हैं, परिणामस्वरूप वे एक दूसरे के सीमाई बलों द्वारा पकड़े जाते हैं। कई बार तो इनकी मौत भी हो जाती है व घर तक उसकी खबर नहीं पहुंचती।
जब से षहरी बंदरगाहों पर जहाजों की आवाजाही बढ़ी है तब से गोदी के कई-कई किलोमीटर तक तेल रिसने ,षहरी सीवर डालने व अन्य प्रदूशणों के कारण समु्रदी जीवों का जीवन खतरे में पड़ गया है। अब मछुआरों को मछली पकड़ने के लिए बस्तियों, आबादियों और बंदरगाहों से काफी दूर निकलना पड़ता है। जो खुले समु्रद में आए तो वहां सीमाओं को तलाशना लगभग असंभव होता है और वहीं देानेां देशों के बीच के कटु संबंध, षक और साजिशों की संभावनाओं के शिकार मछुआरे हो जाते है।। जब उन्हें पकड़ा जाता है तो सबसे पहले सीमा की पहरेदारी करने वाला तटरक्षक बल अपने तरीके से पूछताछ व जामा तलाशी करता है। चूंकि इस तरह पकड़ लिए  गए लोगों को वापिस भेजना सरल नहीं है, सो इन्हें स्थानीय पुलिस को सौंप दिया जाता है। इन गरीब मछुआरों के पास पैसा-कौडी तो होता नहीं, सो ये ‘‘गुड वर्क’’ के निवाले बन जाते हैं। घुसपैठिये, जासूस, खबरी जैसे मुकदमें उन पर होते हैं। वे दूसरे तरफ की बोली-भाशा भी नहीं जानते, सो अदालत में क्या हो रहा है, उससे बेखबर होते हैं। कई बार इसी का फायदा उठा कर प्रोसिक्यूशन उनसे जज के सामने हां कहलवा देता है और वे अनजाने में ही देशद्रोह जैसे अरोप में पदोश बन जाते हैं। कई-कई सालों बाद उनके खत  अपनों के पास पहुंचते हैं। फिर लिखा-पढ़ी का दौर चलता है।
सालों-दशकों बीत जाते हैं और जब दोनों देशेां की सरकारें एक-दूसरे के प्रति कुछ सदेच्छा दिखाना चाहती हैं तो कुछ मछुआरों को रिहा कर दिया जाता है। पदो महीने पहले रिहा हुए पाकिस्तान के मछुआरों के एक समूह में एक आठ साल का बच्चा अपने बाप के साथ रिहा नहीं हो पाया क्योंकि उसके कागज पूरे नहीं थे। वह बच्चा आज भी जामनगर की बच्चा जेल में है। ऐसे ही हाल ही में पाकिस्तान द्वारा रिहा किए गए 163 भारतीय मछुआरों के दल में एक दस साल का बच्चा भी है जिसने सौंगध खा ली कि वह भूखा मर जाएगा, लेकिन मछली पकड़ने को अपना व्यवसाय नहीं बनाएगा।
एक बात और यह विवाद केवल पाकिस्तान सीमा पर ही नहीं है, तमिलनाडु के मछुआरे अक्सर श्रीलंका के जल और फिर  जेल में फंसते हैं, बांग्लादेश के साथ भी ऐसा ही होता है । तमिलनाउु में मछुआरों के लिए सभी राजनीतिक दल सक्रिय रहते हैं, बांग्लादेश सीमा पर ऐसा बहुत कम होता है, लेकिन पाकिस्तान-भारत के आपसी कटु रिश्तों का सबसे ज्यादा खामियाजा इन निरीह मछुआरों को ही झेलना पड़ता है।
यहां जानना जरूरी है कि दोनेां देशों के बीच सर क्रीक वाला सीमा विवाद भले ही ना सुलझे, लेकिन मछुआरों को इस जिल्ल्त से छुटकारा दिलाना कठिन नहीं है। एमआरडीसी यानि मेरीटाईम रिस्क रिडक्शन सेंटर की स्थापना कर इस प्रक्रिया को सरल किया जा सकता है। यदि दूसरे देश का कोई व्यक्ति किसी आपत्तिजनक वस्तुओं जैसे- हथियार, संचार उपकरण या अन्य खुफिया यंत्रों के बगैर मिलता है तो उसे तत्काल रिहा किया जाए। पकड़े गए लोगों की सूचना 24 घंटे में ही दूसरे देश को देना, दोनों तरफ माकूल कानूनी सहायत मुहैया करवा कर इस तनाव को दूर किया जा सकता है। वैसे संयुक्त राश्ट्र के समु्रदी सीमाई विवाद के कानूनों यूएनसीएलओ में वे सभी प्रावधान मौजूद हैं जिनसे मछुआरों के जीवन को नारकीय होने से बचाया जा सकता है। जरूरत तो बस उनके दिल से पालन करने की है। कसाब वाले मुंबई हमले व अन्य कुछ घटनाओं के बाद समुद्र के रास्तों पर संदेह होना लाजिमी है, लेकिन मछुआरों व घुसपैठियों में अंतर करना इतना भी कठिन नहीं है जितना जटिल एक दूसरे देश के जेल में समय काटना है।



Why was the elephant not a companion?

    हाथी क्यों न रहा साथी ?                                                                    पंकज चतुर्वेदी   हाथियों और मानव के ब...