My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

शुक्रवार, 29 दिसंबर 2023

Experiments like Kashi-Tamil Sangam across the country are necessary for cultural awareness.

 

सांस्कृतिक संचेतना के लिए जरुरी है देशभर में काशी-तमिल संगमम जैसे प्रयोग

पंकज चतुर्वेदी



 

‘‘तमिलनाडु से काशी आने का मतलब है महादेव के एक घर से उनके दूसरे घर तक आना। तमिलनाडु से काशी आने का मतलब है मदुरै मीनाक्षी के स्थान से काशी विशालाक्षी के स्थान तक आना।'' प्रधानमंत्री मोदी ने कहा, ‘‘तमिलनाडु और काशी के लोगों के दिलों में जो प्यार और बंधन है, वह अलग और अनोखा है। मुझे यकीन है, काशी के लोग आप सभी की मेहमान नवाजी में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। जब आप जाएंगे तो अपने साथ बाबा विश्वनाथ का आशीर्वाद, काशी का स्वाद, संस्कृति और यादें भी लेकर जायेंगे।'' काशी तमिल संगम के दूसरे संस्करण का शुभारम्भ करते हुए प्रधानमंत्री श्री नरेन्‍द्र मोदी ने जो कहा वह  , वास्तव में हमारे देश के विभिन्न  अंचलों के साझा ज्ञान, साझा परम्पराओं को सशक्त करने का सूत्र है . यह सच है कि भारत में राज्यों का विभाजन पहले भाषा और उसके बाद स्थानीय संस्कृति के आधार पर हुआ लेकिन  दुखद है कि बहुत से राज्य , देश के ही अन्य हिस्सों को भलीभांति समझा नहीं पाए .हालांकि हमारे देश में ढेर सारी विविधता के बावजूद अतीत- सूत्र सभी को साथ बांधते हैं .  बनारस में  तमिलनाडु का 15 दिन का उत्सव उस समय  को उत्खनित करता है , जिसकी जानकारी के अभाव में कभी तमिलनाडू में हिंदी या उत्तर भारतीय विरोधी स्वर देखा जाता था . जैसे जैसे बैंगलुरु और हैदराबाद में बहुराष्ट्रीय कंपनियां आईं और वहाँ देशभर के लोग नौकरी के लिए पहुँचने लगे , अकेले भाषा ही नहीं, संस्कृति , पर्व-त्योहार, मान्यताओं के कई अनछुए पहलू सामने आने लगे ।



विदित हो इस बार काशी संगमम में भाग लेने के लिए छह तरह के समूह बनाए गए हैं . शिक्षकों के दल को यमुना नदी का नाम दिया गया है तो पेशेवर लोग गोदावरी के नाम से बने दल में शामिल हैं . अध्यात्म से जुड़े लोग  सरस्वती समूह में हैं और  किसान और कारीगर के समूह का नाम नर्मदा है . सिन्धु  नदी के दल में लेखक शामिल हैं और  व्यापारी गन के लिए कावेरी दल बनाया गया है . इस तरह दक्षिण और उत्तर की जल-निध्यों- नदियों को  एकसाथ प्रस्तुत कर जल की तरह सांस्कृतिक  प्रवाह की संकल्पना की गई है .

 

सदियों से बनारस शिक्षा, धर्म और व्यापार के लिए देश ही नहीं दुनियाभर के लोगों की आगमन का केंद्र रहा है . यहाँ आज भी तमिलनाडु से कोई 200 साल पहले आ कर  बसे कई सौ परिवार हैं जो अब  काशी के कण-कण में रच पग गए हैं . सुब्रमण्यम भारती जैसे दिग्गज काशी में रहे, उन्होंने संस्कृत और हिंदी सीखी और स्थानीय संस्कृति को समृद्ध किया और तमिल में व्याख्यान दिए। काशी संगमम  जैसे आयोजन भारत की वैविध्यपूर्ण संस्कृतियों का उत्सव है। यह विभिन्न राज्यों के समान सांस्कृतिक संबंधों  की खोज  और एक भारत, श्रेष्ठ भारत के संदेश को बढ़ाने के लिए दिशा प्रदान करता है। इन दो धाराओं के सम्बन्ध पांड्यों के प्राचीन काल से लेकर काशी के प्रमुख शैक्षणिक संस्थानों में से एक बीएचयू की नींव तक रहे है . और वर्तमान में दोनों के बीच संबंध,  शिक्षा की आदरणीय पीठ के रूप में सजीव हैं .


 

अतीत में झांकें तो  स्पष्ट होता है कि देह में मानव सभ्यता की विकास यात्रा में काशी और तमिलनाडु दोनों ही शिक्षा और शोध ,सजीव भाषाई परंपरा के विकास और अध्यात्म के प्रसार में समान सहभागी रहे हैं । 15वीं शताब्दी में, शिवकाशी की स्थापना करने वाले राजवंश के वंशज राजा अधिवीर पांडियन ने दक्षिण-पश्चिमी तमिलनाडु के तेनकासी में उन भक्तों के लिए शिव मंदिर बनवाया, जो काशी की यात्रा नहीं कर सकते थे। उसके बाद , 17 वीं शताब्दी में तिरुनेलवेली में पैदा हुए श्रद्धेय संत कुमारगुरुपारा ने काशी पर कविताओं की व्याकरणिक रचना “काशी कलमबकम” लिखी और कुमारस्वामी मठ की स्थापना की। इस आदान-प्रदान ने न केवल दो क्षेत्रों के लोगों को अलग-अलग रीति-रिवाजों से परिचित कराया, बल्कि इसने परंपराओं के बीच की सीमाओं को इतना सहज  और गतिशील बना दिया, जिससे वे  एक - दूसरे में समाहित होते थे। काशी और तमिलनाडु दोनों महत्वपूर्ण मंदिरों के  शहरों के रूप में उभरे हैं, जिनमे  काशी का  विश्वनाथ मंदिर और रामनाथस्वामी मंदिर जैसे सबसे शानदार मंदिर शामिल हैं।

कैसा सुखद संयोग है कि बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के शिलान्यास समारोह में दक्षिण से महान वैज्ञानिक सीवी रमन उपस्थित थे और भारत के पूर्व राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन इसके कुलपति थे। काशी और चेन्नई दोनों को यूनेस्को द्वारा “संगीत के सृजनात्मक शहरों” के रूप में मान्यता दी गई है और इस शानदार संबंध को इस रूप में देखा जा सकता है कि महान गायक, अभिनेत्री और भारत रत्न से सम्मानित एम.एस. सुब्बुलक्ष्मी ने  काशी की प्रसिद्ध हिंदुस्तानी गायिका सिद्धेश्वरी देवी से संगीत सीखा था।

तमिलनाडु के कोने –कोने से आये  विभिन्न वर्ग के लोग जब काशी की भव्यता . अपनी संस्कृति से समानता  और स्थानीय लोगों का प्रेम पाते हैं तो उनके मन में घर किये कई पूर्वाग्रह भी स्वतः  मिट जाते हैं .

इस समय अनिवार्य है कि काशी की ही तरह कश्मीर या  अरुणाचल प्रदेश या फिर मणिपुर  और नासिक में इस तरह की  आयोजन हों, जिनमें किन्ही दो ऐतिहासिक शहरों -नदियों- सांस्कृतिक धरोहरों के बीच सामंजस्य के बात हो. इस तरह के आयोजन कम से कम 15 दिन होने से यह फायदा होता है कि आगंतुक , अतिथि भाव से मुक्त हो कर स्थानीयता को अपने नज़रिए से आंकता-देखता है . ऐसे आयोजन देश के दो सिरों, उत्तर और दक्षिण या पूर्व-उत्तर के मिलन का प्रतीक होंगे . दो हफ्ते तक छात्र, शिक्षक, किसान , लेखक सभी क्षेत्रों के पेशेवर, और संस्कृति और विरासत के विशेषज्ञ एक साथ आयें  और इस साझा विरासत के सार को जीवित रखने का प्रयास करते हुए उसे प्रासंगिक बनाने के लिए प्रयास करें। जब हमें विरासत में इस तरह का जीवंत इतिहास और जुड़ाव मिला हो तो इसका संरक्षण सर्वोपरि हो जाता है। यह अनिवार्य है कि इस साझा विरासत का ज्ञान युवा पीढ़ी को दिया जाए और उन्हें भारत की सांस्कृतिक और सभ्यतागत लोकाचार के बारे में एक दृष्टिकोण प्रदान किया जाए। आज भी मध्यप्रदेश या  उत्तर प्रदेश के बड़े हिस्से में पूर्वोत्तर भारत के लोग अजनबी से हैं । महाराष्ट्र में  कश्मीर अजनाना सा है , काश हर राज्य हर साल किसी एक अन्य राज्य का ऐसा ही संगमम अलग अलग शहरों, खासकर राजधानी से दूर के शहरों में आयोजित करे । लोग स्थानीयता से परिचित हों, अपने राज्य से साम्य  और विविधता को देखें – समझने के बाद उसे शास्वत तरीके से स्वीकार करें और “एक भारत-श्रेष्ठ  भारत “ की संकल्पना को साकार करें ।

शुक्रवार, 22 दिसंबर 2023

Hindon River spreading poison to Delhi

 

दिल्ली को बीमारी बांट रही है हिंडन

पंकज चतुर्वेदी



इस बार राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण अर्थात एन जी टी इतना गुस्सा हुआ कि हिंडन नदी में प्रदूषण को रोकने में विफलता के लिए उत्तर प्रदेश के सात जिलों में नगर निकायों के प्रभारी अधिकारियों के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही शुरू करने का आदेश दे डाला । शायद न्यायिक अधिकारी भी जान ते होंगे कि उनके इस आदेश पर अमल होना संभव होगा नहीं लेकिन देश के पर्यावरण को निरापद रखने के लिए गठित इस अदालत के आधिकारी हिंडन की बिगड़ती हालत और सरकारी कोताही से इतने व्यथित हुए कि इस आदेश से गुस्सा निकाल दिया । दिल्ली से सटे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बहने वाली हिंडन व उनकी सखा-सहेली कृष्ण  और काली नदियों के हालात अब इतने खराब हो गए है कि उससे देष की राजधानी दिल्ली के लोगों की सेहत भी खराब हो रही है। सहारनपुर, बागपत, मेरठ, शामली, मुजफ्फरनगर और गाजियाबाद के ग्रामीण अंचलों में नदियों ने भूजल भी गहरे तक जहर बना दिया है। अक्तूबर 2016 में ही एनजीटी ने नदी के किनारे के हजारों हैंडपंप बंद कर गांवों में पानी की वैकल्पिक व्यवस्था का आदेष दिया था। हैंडपंप तो कुछ बंद भी हुए लेकिन विकल्प ना मिलने से मजबूर ग्रामीण वही जहर पी रहे हैं। एनजीटी ने यह भी यह मान ही लिया है कि पानी को प्रदूषण  से बचाने के लिए धरातल पर कुछ काम हुआ ही नहीं।




हिंडन नदी भले ही उत्तर प्रदेश में बहती हो और उसके जहरीले जल ने तट परबसे  गांव-गांव में तबाही तो मचा ही रखी है , लेकिन अब दिल्ली भी इसके प्रकोप से अछूती नहीं है। जानना अगस्त 2018 में एनजीटी के सामने बागपत जिले के गांगनोली गांव के बारे में एक अध्ययन प्रस्तुत किया गया जिसमें बताया गया कि गांव में अभी तक 71 लोग कैंसर के कारण मर चुके हैं और 47 अन्य अभी भी इसकी चपेट में हैं। गांव में हजार से अधिक लोग पेट के गंभीर रोगों से ग्रस्त हैं और इसका मुख्य कारण हिंडन  का जहर ही है। 


इस पर एनजीटी ने एक विषेशज्ञ समिति का गठन किया जिसकी रिपोर्ट  फरवरी
2019 पेश  की गई। इस रिपोर्ट में बताया गया कि हिंडन व उसकी सहायक नदियों के प्रदूषण के लिए मुजफ्फरनगर, शामली, मेरठ, बागपत, गाजियाबाद और गौतमबुद्ध नगर जिलों में अनुपचारित सीवेज और औद्योगिक अपशिष्ट जिम्मेदार हैं। एनजीटी ने तब आदेष दिया कि यह सुनिश्चित  किया जाए कि हिंडन का जल कम से कम नहाने काबिल तो हो। मार्च 2019 में कहा गया कि इसके लिए एक ठोस कार्ययोजना छह महीने में प्रस्तुत हो । समय सीमा निकले तीन साल बीत गए ,बात कागजी घोड़ो ंसे आगे बढ़ी ही नहीं।



गौर करने वाली बात है कि हिंडन का जहर अब दिल्ली के लिए भी काल बन रहा है। गंगा-यमुना की  दोआब की उपजाउ भूमि से ही दिल्ली की सुरसामुख आबादी की फल-सब्जी, अनाज की जरूरतें पूरी होती हैं । सिंचाई में इस्तेमाल हिंडन के जहरीले पानी से खाद्य पदाथों के जरिये दिल्ली वालों तक कई बीमारियाँ  पहुँच रही हैं ।



ऐसी कई रिपोर्ट सरकारी बस्तों में जज्ब है जिसमें कहा गया है कि अगर हिंडन नदी के पानी को पानी नहीं बल्कि जहरीले रसायनों का मिश्रण कहना बेहतर होगा। पानी में आक्सीजन शून्य  है। पानी में किसी भी तरह का कोई जीव-जंतु बचा नहीं है। यदि पानी में अपना हाथ डुबो दें तो इससे त्वचा रोग हो सकता है और यदि आप इसे पीते हैं तो हेपेटाइटिस या कैंसर जैसी कई समस्याएं हो सकती हैं। हिंडन को सीवर से रिवर बनाने के लिए भले ही एनजीटी खूब आदेश  दे लेकिन नीति-निर्माताओं को हिंडन की मूल समस्याओं को समझना होगा। एक तो इसके नैसर्गिक मार्ग को बदलना,दूसरा इसमें शहरी व औद्योगिक नालों का मिलना, तीसरा इसके जलग्रहण क्षेत्र में अतिक्रमण- इन तीनों पर एकसाथ काम किए बगैर नदी का बचना मुश्किल  है।


दिक्कत यह भी है कि कतिपय कारखानों का बचाव कर रही सरकार मानने को तैयार नहीं है कि हिंडन का पानी जहर से बदतर है।  कुछ साल पहले  देश की नदियों में प्रदूषण की जांच में जुटे केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने उत्तर प्रदेश की हिंडन नदी के पानी को नहाने लायक भी नहीं पाया है। बोर्ड ने यह जानकारी राष्ट्रीय हरित पंचाट (एनजीटी) के तत्कालीन प्रमुख स्वतंत्र कुमार की अध्यक्षता वाली पीठ को सौंपे हलफनामे में दी थी। सीपीसीबी ने प्रदेश के सहारनपुर, मेरठ और गाजियाबाद में नदी के पानी की जांच की। हलफनामे में बताया कि नदी का पानी पर्यावरण अधिनियम, 1986 के तहत तय नहाने के पानी के मानकों के अनुरूप नहीं है। इसके समाधान के लिए बोर्ड ने ठोस अवशिष्ट को नदी किनारे और नदी में न फेंकने की हिदायत दी है। इसके अलावा बोर्ड ने कहा है कि अशोधित कचरा नदी में न फेंका जाए बल्कि नगर पालिका अवशिष्ट प्रबंधन अधिनियम, 2000 के तहत इसकी सही व्यवस्था की जाए। इसके विपरीत उत्तर प्रदेश सरकार ने हिंडन नदी के पानी को जहरीला बताए जाने के केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण समिति के दावे को झुठला दिया था ।  


हिंडन नदी जहां भी शहरी क्षेत्रों से गुजर रही है, इसके जल-ग्रहण क्षेत्र में बहुमंजिला आवास बना दिए गए और इन कालोनियों के अपषिश्ट भी इसी में जाने लगे हैं। नए पुल, मेट्रो आदि के निर्माण में हिंडन को सुखा कर वहां कंक्रीट उगाने में हर कानून को निर्ममता से कुचला जाता रहा । आज भी गाजियाबाद जिले में हिंडन के तट पर कूड़ा फैंकने, मलवा या गंदा पानी डालने से किसी को ना तो भय है ना ही संकोच। अब नदी के जहर का दायरा विस्तारित होता जा रहा है और उसकी जद में वे सभी भी आएंगे जो नदी को जहर बनाने के पाप में लिप्त हैं।

 

 

 

बुधवार, 20 दिसंबर 2023

Ground water: Even if the situation improves, the danger is still great.

 

भूजल : हालत सुधरे तो लेकिन खतरा बड़ा है

पंकज चतुर्वेदी



पिछले दिनों भारत सरकार द्वारा जारी एक रिपोर्ट ने यह सुखद समाचार दिया है कि पिछले साल की तुलना में इस बार , भारत के कई हिस्सों में भूजल के हालात सुधरे हैं . वर्ष 2023 के लिए पूरे देश के सक्रिय भूजल संसाधन मूल्यांकन रिपोर्ट से पता चलता है कि पूरे देश के लिए कुल वार्षिक भूजल पुनर्भरण 449.08 अरब घन मीटर (बीसीएम) हैजो पिछले वर्ष 2022 की तुलना में 11.48 बीसीएम अधिक है . यह मूल्यांकन केन्द्रीय भूजल बोर्ड  और राज्यों व् केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा संयुक्त रूप से किया गया है .  यह सुधार एक आशा तो है लेकिन जान लें हमारे देश में भूजल के हालात बहुत खतरनाक की हद तक हैं.



विदित हो अभी दो महीने  पहले ही संयुक्त राष्ट्र विश्वविद्यालय - पर्यावरण और मानव सुरक्षा संस्थान (यूएनयू-ईएचएस) के शोध में चेताया गया था कि भारत में भूजल की कमी के चरम बिंदु तक पहुंचने के करीब है। रिपोर्ट के अनुसार, पंजाब में 78% भूजल स्रोत  अतिदोहित हैं  और पूरे उत्तर-पश्चिमी भारत में खतरा मंडरा रहा है कि 2025 तक भूजल कहीं  पाताल में न पहुँच जाए . समझना होगा कि भारत दुनिया में भूजल का सबसे बड़ा उपयोगकर्ता है, जो संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन के संयुक्त उपयोग से अधिक है। भारत का उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र देश की बढ़ती  एक अरब 40 करोड़ आबादी के लिए पेट भरने का खजाना कहलाता है . पंजाब और हरियाणा राज्य देश की 50% चावल आपूर्ति और 85% गेहूं का उत्पादन करते हैं।


देश का बड़ा हिस्सा  पेय जल और खेती के लिए भू जल पर निर्भर है . जिस देश  में भूजल ने हरित क्रांति को संवारा और जिसके चलते भारत एक खाद्य-सुरक्षित राष्ट्र बन गया, वहीं बहुमूल्य संसाधन अतिदोहन के चलते अब खतरे में हैं . एक तरफ हर घर नल योजना है तो दूसरी तरफ अधिक अन्न उगाने का दवाब और साथ ही सतह के जल के भण्डार जैसे – नदी, तालाब, झील आदि  सिकुड़ रहे हैं या उथले हो रहे हैं.  जलवायु परिवर्तन के कुप्रभाव के चलते बरसात का अनियमित और असमय होना तो है ही . ऐसे में पानी का सारा दारोमदार भूजल पर है, जो कि अनंत काल तक चलने वाला स्रोत कतई नहीं हैं .


पाताल से  पानी निचोड़ने की प्रक्रिया में सामाजिक व सरकारी कोताही के चलते भूजल खतरनाक स्तर तक जा रहा है । भारत में दुनिया की सर्वाधिक खेती होती है । यहां 50 मिलियन हेक्टर से अधिक जमीन पर जुताई होती है, इस पर 460 बी.सी.एम(बिलियन क्यूबिक मीटर). पानी खर्च होता है । खेतों की कुल जरूरत का 41 फीसदी पानी सतही स्त्रोतों से व 51 प्रतिशत  भूगर्भ से मिलता है । गत् 50 सालों के दौरान भूजल के इस्तेमाल में 115 गुणा का इजाफा हुआ है ।


भारत के 360 जिलों , यानी  63 प्रतिशत  जिले अर्थात लगभग दो-तिहाई जिलों में भूजल स्तर के गिरावट  गंभीर श्रेणी में पहुँच गई है . कई जगह भूजल दूषित हो रहा है। चिंताजनक बात यह है कि जिन जिलों में भूजल स्तर 8 मीटर से नीचे चला गया है, वहां गरीबी दर 9-10 प्रतिशत अधिक है, जिससे छोटे किसान विशेष रूप से कमजोर हो गए हैं। यदि मौजूदा रुझान जारी रहता है, तो भारत की कम से कम 25 प्रतिशत कृषि जोखिम में होगी। राष्ट्रीय स्तर पर 5723 ब्लॉकों में से 1820 ब्लॉक में जल स्तर खतरनाक हदें पार कर चुका है. जल संरक्षण न होने और लगातार दोहन के चलते 200 से अधिक ब्लॉक ऐसे भी हैं, जिनके बारे में केंद्रीय भूजल प्राधिकरण ने संबंधित राज्य सरकारों को तत्काल प्रभाव से जल दोहन पर पाबंदी लगाने के सख्त कदम उठाने का सुझाव दिया है ।


उत्तरी राज्यों में हरियाणा के 65 फीसदी और उत्तर प्रदेश के 30 फीसदी ब्लॉकों में भूजल का स्तर चिंताजनक स्तर पर पहुंच गया है । इन राज्यों को जल संसाधन मंत्रालय ने अंधाधुंध दोहन रोकने के उपाय भी सुझाए हैं. इनमें सामुदायिक भूजल प्रबन्धन पर ज्यादा जोर दिया गया है। राजस्थान जैसे राज्य में 94 प्रतिशत पेयजल योजनाएं भूजल पर निर्भर हैं। अब राज्य के तीस जिलों में जल स्तर का सब्र समाप्त हो गया है। भूजल विषेशज्ञों के मुताबिक आने वाले दो सालों में राज्य के 140 ब्लाकों में शायद ही जमीन से पानी उलेचा जा सके।


भूजल के बेतहाशा  दोहन की ही त्रासदी है कि उत्तर प्रदेश के कई जिले- कानपुर, लखनउ, आगरा आदि भूकंप संवेदनषील हो गए हैं व चेतावनी है कि यहां कभी भी बड़ा भूकंप  व्यापक जन हानि कर सकता है। पश्चिमी उप्र में तो भूजल में जहर इस कदर घुल गया है कि गांव के गांव कैंसर जैसी बीमारियों के गढ़ बन गए हैं। देश  की राजधानी दिल्ली का भूजल खेतों में अंधाधुंध रासायनिक खादों के इस्तेमाल और कारखानों की गंदी निकासी के जमीन में रिसने से दूशित हुआ है । दिल्ली में नजफगढ् के आसपास के इलाके के भूजल को तो इंसानों के इस्तेमाल के लायक नहीं करार दिया गया है । समूची दिल्ली में भूजल अब रेड जोन अर्थात लगभग समाप्त होने की कगार पर चिन्हित है।

वैसे केंद्र सरकार ने वर्ष 2020 में 6000 करोड़ रुपए की लागत  से अटल भू  जल संवर्धन योजना शुरू की थी शुरु की गई जिसमें सात राज्यों के 80 जिलों के कुल 229 ब्लॉक को चिन्हित किया गया था , जिनके 8220 गांवों में पीने के पानी का तक का गंभीर संकट पैदा हो गया है। इस साल के शुरुआत में अटल भूजल योजना की राष्ट्रीय संचालन समिति की समीक्षा बैठक में यह बात सामने  आई थी कि ऐसे चिंताजनक हालात के बावजूद राज्यों में योजना की अपेक्षित प्रगति संतोषजनक नहीं पाई गई। खासतौर पर जल संरक्षण की विभिन्न योजनाओं को इसमें समाहित करने में ज्यादातर राज्य रुचि नहीं दिखा रहे हैं। जाहिर है कि आज धरती के गर्भ में यदि जल का भण्डार बढ़ रहा है तो इसका सबसे बड़ा कारण धरती की सतह पर तालाबों में पानी जमा करने की योजना की प्रगति ही है . भूजल के हालात सुधरने के लिए तालाबों को संवारना सबसे सशक्त तरीका  है .

यह कड़वा सच है कि भूजल किसी को दीखता है नहीं, सो उसके बिगड़ते हालात पर आम लोगों को जागरूक करना कठिन है . आज जरूरत है कि हर गाँव- कसबे का  जल बजट तैयार किया जाए , जिससे हिसाब लगया जा सके कि उस क्षेत्र में कितना भूजल उपलब्ध है, कितना पुनर्भरण होने की संभावना है . इसमें खेती के लिए कितना चाहिए और पेय जल और अन्य काम के लिए कितना . यदि न्यूनतम बरसात होती है तो  अधिकतम जल-व्यय का कितना हिस्सा फिर से जमीन में उतारना जरुरी है .

उदाहरण के लिए, गुजरात में, किसान कपास और गेहूं जैसे पानी की अधिकता वाली फसलों से अनार और जीरा की ओर जाने की आवश्यकता को समझने लगे हैं, जो न केवल कम पानी का उपयोग करते हैं बल्कि अच्छी कीमत भी प्राप्त करते हैं. हरियाणा और पंजाब में सरकार कोशिश कर रही है कि धान की जगह मोटे अनाज की खेती बढे . यह तभी संभव है जब आम लोग इस संकट को खुद महसूस करेंगे , क़ानूनी पाबंदी से पानीदार समाज बनाने  से रहा .   

 

गुरुवार, 14 दिसंबर 2023

Chennai sinks by draining its water resources

 

अपनी जल निधियां डुबाने से डूबता है चैन्नई

पंकज चतुर्वेदी



 

समुद्री चक्रवात मेचोंग के चेन्नई से गुजरे हुए एक हफ्ता हो गया है, चार दिन से अच्छी धुप भी है लेकिन शहर के बड़े हिस्से में  घुटनों से कमर तक पानी भरा है, बहुमंजिला इमारतों की बेसमेंट पार्किंग हज़ारों कारों का कब्रगाह बन गई हैं . चेन्नई में बरसात कोई नई बात नहीं हैं लेकिन इतनी अधिक बरसात और तेज आंधी ने  बिजली, सडक सभी तो ध्वस्त कर दिया . सन 2015 के बाद यह हर साल की त्रासदी है कि शहर डूबता ही हैं।  कहा जाता है कि चक्रवात के कारण इतनी अधिकझमाझम बारिश अप्रत्याशित है लेकिन  हकीकत यह है कि एक तरफ जलवायु परिवर्तन का कुप्रभाव सबसे पहले तटीय शहरों में पड़ने की चेतावनी अब सामने दिख रही है साथ ही इस महानगर के वेट लैंड या जलग्रहण क्षेत्र बीते चार दशक में लगभग 250 वर्ग किलोमीटर घट गए और वहां कंक्रीट का सागर लहरा रहा है, जो बरसात के जलजमाव को  सागर की जल निधि में जाने से रोकता है। जान लें यह भी बड़ा सच है कि मद्रास शहर क पारंपरिक बुनावट और बसावट इस तरह की थी कि एक दिन में 15 मिमी तक पानी बरसने पर भी शहर की जल निधियां में ही पानी एकत्र होता और वे उफनते तो पानी समुद्र में चला जाता।

चैन्नई के पश्चिमी हिस्से का कोरात्तुर इलाका जलभराव से बेहाल है यहा की आबादी कोई साथ हजार होगी . वैसे यहाँ ९०० एकड़ में फैली झील भी है लेकिन उसके चरों तरफ इतने  निर्माण हुए कि बरसात का जल वहां तक आता नहीं . यदि यहाँ की अम्बातुर झील का जुड़ाव सदियों पहले की तरह फिर से कूवम नाद से कर दिया आजाता तो न तो यहाँ पानी भरता न ही पानी की कमी होती . यह खानी चेन्नई के लगभग सभी नए बसे  मध्यवर्गीय मुहल्लों की है – या तो वहां के तलब सुखा दिए गये या फिर उनको नदी से जोड़ने वाले रास्ते बंद कर दिए गए .

कभी समुद्र के किनारे का छोटा सा गांव मद्रासपट्टनम आज भारत का बड़ा नगर है। अनियोजित विकास, षरणार्थी समस्या औ जल निधियों की उपेक्षा के चलते आज यह महानगर बड़े षहरी-झुग्गी में बदल गया है। यहां की सड़कों की कुल लंबाई 2847 किलोमीटर है और इसका गंदा पानी ढोने के लिए नालियों की लंबाई महज 855 किलोमीटर। लेकिन इस शहर  में चाहे जितनी भी बारिश  हो उसे सहेजने और सीमा से अधिक जल को समुद्र तक छोड़कर आने के लिए यहां नदियों, झीलों, तालाबों और नहरों की सुगठित व्यवस्था थी। नेशनल इंस्टीट्यूट आफ डिजास्टर मैनेजमेंट की रिपोर्ट में बताया गया है कि इस महानगर में 650 से अधिक जल निधियों में कूड़ा भर कर चौरस मैदान बना दिए गए । यही वे पारंपरिक स्थल थे जहां बारिश का पानी टिकता था और जब उनकी जगह समाज ने घेर ली तो पानी समाज में घुस गया। उल्लेखनीय है कि हर साल जब अधिक बरसात होती है तो सबसे ज्यादा दुर्गति दो पुरानी बस्तियों-वेलाचेरी और तारामणि की होती है । वेलाचेरी यानि वेलाय- ऐरी। सनद रहे तमिल में ऐरी का अर्थ है तालाब व मद्रास की ऐरी व्यवस्था सामुंदायिक जल प्रबंधन का अनूठा उदाहरण हैं।  आज वेलाय ऐरी के स्थान पर गगनचुंबी इमारतें हैं। शहर का सबसे बड़ा मॉल ‘‘ फोनिक्स’’ भी इसी की छाती पर खड़ा है। जाहिर है कि ज्यादा बारिश  होने पर पानी को तो अपने लिए निर्धारित स्थल ‘ऐरी’ की ही ओर जाना था।  शहर  के वर्षा   जल व निकासी को सुनियोजित बनाने के लिए अंग्रेजों ने 400 किलोमीटर लंबी बर्किंघम नहर बनवाई थी, जो आज पूरी तरह प्लास्टिक, कूड़े से पटी है  कीचड़ के कारण इसकी गहराई एक चौथाई रह गई है। जब तेज बारिश  हुई तो पलक झपकते ही इसका पानी उछल कर इसके दोनो तरफ बसी बस्तियों में घुस गया।

चैन्नई शहर  की खूबसूरती व जीवन रेखा कहलाने वाल दो नदियों- अडयार और कूवम के साथ समाज ने जो बुरा सलूक किया, प्रकृति ने इस बारिश  में इसी का मजा जनता को चखाया। अडयार नदी कांचीपुरम जिले में स्थित विषाल तालाब चेंबरवक्कम के अतिरिक्त पानी के बहाव से पैदा हुई। यह पष्चिम से पूर्व की दिषा में बहते हुए कोई 42 किलोमीटर का सफर तय कर चैन्नई में सांथम व इलियट समुद्र तट के बीच बंगाल की खाड़ी में मिलती है। यह नदी शहर  के दक्षिणी इलाके के बीचों बीच से गुजरती हैं और जहां से गुजरती है वहां की बस्तियों का कूड़ा गंदगी अपने साथ ले कर एक बदबूदार नाले में बदल जाती है। यही नहीं इस नदी के समुद्र के मिलन-स्थल बेहद संकरा हो गया है व वहां रेत का पहाड़ हे। हालात यह हैं कि नदी का समुद्र से मिलन हो ही नहीं पाता है और यह एक बंद नाला बन गया है। समुद्र में ज्वार की स्थिति में ऊंची लहरें जब आती हैं तभी इसका मिलन अडयार से होता है। तेज बारिश  में जब शहर  का पानी अडयार में आया तो उसका दूसरा सिरा रेत के ढेर से बंद था, इसी का परिणाम था कि पीछे ढकेले गए पानी ने शहर  में जम कर तबाही मचाई व दो सप्ताह बीत जाने के बाद भी पानी को रास्ता नहीं मिल रहा है। अडयार मे ंशहर  के 700 से ज्यादा नालों का पानी बगैर किसी परिशोधन के तो मिलता ही है, पंपल औद्योगिक क्षेत्र का रासायनिक अपषिश्ट भी इसको और जहरीला बनाता है।

कूवम शब्द ‘कूपम ’ से बना है- जिसका अर्थ होता हैं कुआँ। कूवम नदी 75 से ज्यादा तालाबों के अतिरिक्त जल  को अपने में सहजे कर तिरूवल्लूर जिले में कूपम नामक स्थल से उदगमित होती है। दो सदी पहले तक इसका उद्गम धरमपुरा जिले था, भौगोलिक बदलाव के कारण इसका उदगम स्थल बदल गया।  कूवम नदी चैन्नई शहर  में अरूणाबक्कम नाम स्थान से प्रवेष करती है और फिर 18 किलोमीटर तक शहर  के ठीक बीचों बीच से निकल कर बंगाल की खाड़ी में मिलती है। इसके तट पर चूलायमेदू, चेरपेट, एग्मोर, चिंतारीपेट जैसी पुरानी बस्तियां हैं और इसका पूरा तट मलिन व झोपड़-झुग्गी बस्तियों से पटा है। इस तरह कोई 30 लाख लोगों का जल-मल सीधे ही इसमें मिलता है। कहने की जरूरत नहीं है कि यह कहीं से नदी नहीं दिखती। गंदगी, अतिक्रमण ने इसे लंबाई,चौड़ाई और गहराई में बेहद संकरा कर दिया है। अब तो थेाडी सी बारिश  में ही यह उफन जाती है।

भीषण चक्रवात और साथ में बारिश  चैन्नई शहर  के लिए जलवायु परिवर्तन की तगड़ी मार के आगमन की बानगी है। यह संकट समय के साथ और क्रूर होगा और इससे बचने के लिए अनिवार्य है कि शहर  के पारंपरिक तालाबों व सरोवरों को अतिक्रमण मुक्त कर उनके जल-आगम के प्राकृतिक मार्गों को मुक्त करवाया जाए। नदियों व नहर के तटों से अवैध बस्तियों को विस्थापित कर महानगर की सीवर व्यवस्था का आधुनिकीकरण करना होगा।

 

मंगलवार, 12 दिसंबर 2023

Only slogans can not save Yamuna In Delhi

 

अब नारों नहीं इरादों से ही बचेगी यमुना

पंकज चतुर्वेदी



 

जो यमुना दिल्ली में अभी दो महीने  बाढ़ के हालात से लबालब थी , सरकारी दस्तावेज़ कह रहा है कि अब उसमें प्राण वायु ही नहीं बची । इस बीच एक नया  शिगूफा उछल गया कि यदि नदी के किनारे करीब 20 बायोडायवर्सिटी पार्क विकसित कर दिये जाएँ तो नदी साफ हो जाएगी । इस रिपोर्ट को कुछ  नागरिक समाज के लोगों ने तैयार किया है । यमुना के नाम पर यह कोई पहला शिगूफ़ा नहीं है। इसी साल ऐसे ही नागरिक समाज ने  विश्व पर्यावरण दिवस पर दिल्ली में यमुना के किनारे 22 किलोमीटर लंबी मानव श्रृंखला बनाई थी जिसमें लगभग एक लाख लोग शामिल हुये । हम तो भूल गए कि मार्च 2016  
में दिल्ली में ही  यमुना तट पर आर्ट ऑफ़ लीविंग श्री रविशंकर ने एक बड़ा आयोजन किया था और उसके बाद राष्ट्रिय हरित अभिकरण (एन जी टी ) ने पांच करोड़  रूपये का जुर्माना लगा कर बताया था कि  यमुना के कछार , अर्थात वह भूमि जो  कम पानी के कारण  गर्मी में रीती रह गई, पर लाखों लोगों की चहल कदमी से वहां के पारिस्थिकी तंत्र को बड़ा नुक्सान हुआ है . इस  हानि को ठीक करने में दस साल का समय और 42 करोड़ का खर्च आएगा .

एक बात समझना अहोगा कि यमुना सुधार को ले कर हमारा नज़रिया ठीक उस तरह है कि उपर से नल खुला छोड़ दो और नीचे पोंछा मारो । यमुना में सी टी पी , परिशोधन से अधिक जरूरी है कि उसमें दूषित जल-माल जाये ही न । रही है ?  सबसे बड़ी बात फरवरी -15 से अब आठ साल बीत गये , नारे- वायदे, खर्चे सभी हुए और जब यमुना के हालात नहीं सुधरे तो सरकार को अपनी मंशा और योजना देखना चाहिए ।

यह विडम्बना है कि अभी नवरात्रि के बाद  चाहे निगम बोध घाट का पूल हो या  राजघाट के पीछे या फिर निजामुद्दीन या कालिंदी कुञ्ज. आई टी ओ  – जहां भी यमुना पर ब्रिज है और एन जी टी  की आदेश के बाद वहां ऊँची लोहे की जालियां लगाई गई थीं  ताकि लोग पूजा की सामग्री नदी में न फेंकें – सड़क तक इस्तेमाल की गई पूजा सामग्री पड़ी थी, इसे फैंकने वाले बड़ी बड़ी कारों में आ रहे थे . जाहिर है कि सरकारी विज्ञापन अभी तक मध्य वर्ग के शिक्षित लोगों को भी यह समझाने में असफल रहे हैं कि दिल्ली के अस्तित्व की मूल कड़ी यमुना में कूड़ा  नहीं फैंकना है. ये व्ही लोग हैं जो सारे दिन इन नदियों के किनारे चमकती-दमकती सब्जी- फल खरीदने को रुकते हैं , इस बात से बेपरवाह कि यमुना के कछार में सब्जी उगाने को ये लोग किस हद तक रासायनिक खाद व् दवा इस्तेमाल कर रहे हैं और इससे नदी को स्थाई नुक्सान हो रहा है .  

कोई तीन दशक तक अदालती निगरानी के बावजूद  दिल्ली में यमुना के हालात नहीं बदले . सन 2010 में राष्ट्रमंडल खेलों की मेजबानी से पहले  राजधानी में  यमुना नदी को टेम्स की तरह  चमका देने के वायदे के बाद आम आदमी पार्टी के चुनावी घोषणा पत्र की बात हो या  केंद्र सरकार के दावे के , महज 42 किलोमीटर के दिल्ली प्रवास में  यह पावन  धारा हांफ जाती है , कई करोड़ रूपये इसकी बदतर हालत को सुधार नहीं पाए क्योंकि नदी धन से नहीं मन और आस्था से पवित्र बनती है . दिल्ली प्रदूषण कंट्रोल कमिटी(डीपीसीसी) की नवंबर की रिपोर्ट बताती है कि यमुना के पानी में अधिकांश स्थानों पर ऑक्सिजन है ही नहीं 

इस रिपोर्ट के मुताबिक ओखला बैराज पर यमुना में कोई बहाव नहीं है। तभी यहां पानी का नमूना नहीं लिया जा सका। यमुना एक बार फिर पानी की कमी से इस स्थिति में पहुंच गई है, जबकि बरसात अभी केएम से केएम आठ महीने दूर है । रिपोर्ट बताती है कि पानी में डिटर्जेंट का धिक्य है और इसी के कार्न झाग  उठ रहे हैं ।

अब तक यमुना में 30 फीसदी सीवेज का पानी बिना ट्रीट किए ही गिरता है। यमुना में गिरने वाले 100 फीसदी सीवेज को ट्रीट करने के लिए ट्रीटमेंट प्लांट बन रहे हैं, लेकिन इनमें से अधिकतर का कार्य तय वक्त से पीछे चल रहा है।

 

सन 1993  से अभी तक  दिल्ली में यमुना के हालात सुधारने के नाम पर  दिल्ली सरकार ने 5400 करोड़ का खर्चा हुआ , इसमें से 700 करोड़ की राशी सन 2015 के बाद खर्च की गई .

विडंबना तो यह है कि इस तरह की संसदीय  और अदालती चेतावनियां, रपटें ना तो सरकार के और ना ही समाज को जागरूक कर पा रही हैं। यमुना की पावन धारा दिल्ली में आ कर एक नाला बन जाती है। आंकडों और कागजों पर तो इस नदी की हालत सुधारने को इतना पैसा खर्च हो चुका है कि यदि उसका ईमानदारी से इस्तेमाल किया जाता तो उससे एक समानांतर धारा की खुदाई हो सकती थी। दिल्ली मे यमुना को साफ-सुथरा बनाने की कागजी कवायद कोई 40 सालों से चल रह है। सन अस्सी में एक योजना नौ सौ करोड़ की बनाई गई थी। दिसंबर-1992 में भारत सरकार ने यमुना को बचाने के लिए जापानी संस्था ओवरसीज इकोनोमिक कारपोरेषन फंड आफ जापान से 403रोड़ की मदद ली और 1997 तक कार्य पूरा करने का लक्ष्य रखा था। लेकिन यमुना का मर्ज बढ़ता गया और कागजी लहरें उफनती रहीं। 14 साल  पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के निर्देश पर यमुना नदी विकास प्राधिकरण(वाईआरडीए) का गठन किया गया था, जिसमें दिल्ली के उपराज्यपाल की अध्यक्षता में दिल्ली जल बोर्ड, प्रदूशण बोर्ड सहित कई सरकारी व गैर सरकारी संगठनों को साथ ले कर एक तकनीकी सलाहकार समूह का गठन हुआ था। उस समय सरकार की मंशा थी कि एक कानून बना कर यमुना में प्रदुषण  को अपराध घोशित कर राज्यों व स्थानीय निकायों को इसका जिम्मेदार बना दिया जाए। लेकिन वह सबकुछ कागजों से आगे बढ़ा ही नहीं ।

हरियाणा सरकार  इजराइल के साथ मिल कर यमुना के कायाकल्प की योजना बना रही है और इस दिशा में हरियाणा सिंचाई विभाग ने अपने सर्वे में पाया है कि यमुना में गंदगी के चलते दिल्ली में सात माह पानी की किल्लत रहती है। दिल्ली में यमुना, गंगा और भूजल से 1900 क्यूसेक पानी प्रतिदिन प्रयोग में लाया जाता है। इसका 60 फीसद यानी करीब 1100 क्यूसेक सीवरेज का पानी एकत्र होता है। यदि यह पानी शोधित कर यमुना में डाला जाए तो यमुना निर्मल रहेगी और दिल्ली में पेयजल की किल्लत भी दूर होगी।

 

 

 

Do not burn dry leaves

  न जलाएं सूखी पत्तियां पंकज चतुर्वेदी जो समाज अभी कुछ महीनों पहले हवा की गुणवत्ता खराब होने के लिए हरियाणा-पंजाब के किसानों को पराली जल...