My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

मंगलवार, 27 जून 2023

Assam goes back 19 years every year due to floods

 

बाढ़ के कारण हर साल 19 साल पीछे हो जाता है असम


पंकज चतुर्वेदी



इस बार जल-प्लावन कुछ पहले आ गया , चैत्र का महीना खतम हुआ नहीं और पूरा राज्य जल मग्न हो गया। इस समय असम के 20 जिलों के 2246 गांव  बुरी तरह बाढ़ की चपेट में हैं।  इससे पांच लाख से अधिक लोग प्रभावित हुए हैं। 140  राहत शिविरों में 35 हज़ार लोग रह रहे है।  अभी तक दो लोगों की जान गई है . सड़कों, पुल, बिजली वितरण तंत्र, सरकी इम्मार्तों के साथ साथ 10,782 हेक्टेयर खेतों की फसल नष्ट हो गई .  कोई चार लाख 28 हज़ार पालतू मवेशी संकट में हैं . वैसे अभी तो यह शुरूआत है और अगस्त तक राज्य में यहां-वहां पानी ऐसे ही विकास के नाम पर रची गई संरचनाओं को  उजाड़ता रहेगा। हर साल राज्य के विकास में जो धन व्यय होता है, उससे ज्यादा नुकसान दो महीने में ब्रह्मपुत्र का कोप कर जाता है।



असम पूरी तरह से नदी घाटी पर ही बसा हुआ है। इसके कुल क्षेत्रफल 78 हजार 438 वर्ग किमी में से 56 हजार 194 वर्ग किमी ब्रह्मपुत्र नदी की घाटी में है। और बकाया 22 हजार 244 वर्ग किमी का हिस्सा बराक नदी की घाटी में है। इतना ही नहीं राष्ट्रीय बाढ़ आयोग के मुताबिक, असम का कुल 31 हजार 500 वर्ग किमी का हिस्सा बाढ़ प्रभावित है। यानी, असम के क्षेत्रफल का करीब 40फीसदी हिस्सा बाढ़ प्रभावित है। अनुमान है कि इसमें सालाना कोई 200 करोड़ का नुकसान होता है । राज्य में इतनी मूलभूत सुविधाएं खड़ा करने में दस साल लगते हैं , जबकि हर साल औसतन इतना नुकसान हो ही जाता है। यानि असम हर साल विकास की राह पर 19 साल पिछड़ता जाता है। 


असम में प्राकृतिक संसाधन, मानव संसाधन और बेहतरीन भौगोलिक परिस्थितियां होने के बावजूद यहां का समुचित विकास ना होने का कारण हर साल पांच महीने ब्रहंपुत्र का रौद्र रूप होता है जो पलक झपकते ही सरकार व समाज की सालभर की मेहनत को चाट जाता है। वैसे तो यह नद सदियों से बह रहा है । बारिश में हर साल यह पूर्वोत्तर राज्यों में गांव-खेत बरबाद करता रहा है । वहां के लेागों का सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक जीवन इसी नदी के चहुओर थिरकता है, सो तबाही को भी वे प्रकृति की देन ही समझते रहे हैं । लेकिन पिछले कुछ सालों से जिस तरह सें बह्मपुत्र व उसके सहायक नदियों में बाढ़ आ रही है,वह हिमालय के ग्लेशियर  क्षेत्र में मानवजन्य छेड़छाड़ का ही परिणाम हैं । केंद्र हो या राज्य , सरकारों का ध्यान बाढ़ के बाद राहत कार्यों व मुआवजा पर रहता है, यह दुखद ही है कि आजादी के 75  साल बाद भी हम वहां बाढ़ नियंत्रण की कोई मुकम्मल योजना नहीं दे पाए हैं। यदि इस अवधि में राज्य में बाढ से हुए नुकसान व बांटी गई राहत राषि को जोड़े तो पाएंगे कि इतने धन में एक नया सुरक्षित असम खड़ा किया जा सकता था।

पिछले कुछ सालों से इसका प्रवाह दिनोंदिन रौद्र होने का मुख्य कारण इसके पहाड़ी मार्ग पर अंधाधुंध जंगल कटाई माना जा रहा है । ब्रह्मपुत्र का प्रवाह क्षेत्र उत्तुंग पहाड़ियों वाला है, वहां कभी घने जंगल हुआ करते थे । उस क्षेत्र में बारिष भी जम कर होती है । बारिश की मोटी-मोटी बूंदें पहले पेड़ंों पर गिर कर जमीन से मिलती थीं, लेकिन जब पेड़ कम हुए तो ये बूंदें सीधी ही जमीन से टकराने लगीं । इससे जमीन की टाप सॉईल उधड़ कर पानी के साथ बह रही है । फलस्वरूप नदी के बहाव में अधिक मिट्टी जा रही है । इससे नदी उथली हो गई है और थोड़ा पानी आने पर ही इसकी जल धारा बिखर कर बस्तियों की राह पकड़ लेती है ।

असम में हर साल तबाही मचाने वाली ब्रह्मपुत्र और बराक नदियां, उनकी कोई 48 सहायक नदियां और  उनसे जुड़ी असंख्य सरिताओं पर सिंचाई व बिजली उत्पादन परियोजनाओं के अलावा इनके जल प्रवाह को आबादी में घुसने से रोकने की योजनाएं बनाने की मांग लंबे समय से उठती रही है। असम की अर्थ व्यवस्था का मूल आधार खेती-किसानी ही है, और बाढ़ का पानी हर साल लाखों हैक्टर में खड़ी फसल को नष्ट  कर देता है। ऐसे में वहां का किसान कभी भी कर्ज से उबर ही नहीं पाता है। एक बात और ब्रह्यंपुत्र नदी के प्रवाह का अनुमान लगाना भी बेहद कठिन है। इसकी धारा की दिशा  कहीं भी, कभी भी  बदल जाती है। परिणाम स्वरूप जमीनों का कटाव, उपजाऊ जमीन का नुकसान भी होता रहता है। यह क्षेत्र भूकंप ग्रस्त है। और समय-समय पर यहां धरती हिलने के हल्के-फुल्के झटके आते रहते हैं। इसके कारण जमीन खिसकने की घटनाएं भी यहां की खेती-किसानी को प्रभावित करती है। इस क्षेत्र की मुख्य फसलें धान, जूट, सरसो, दालें व गन्ना हैं। धान व जूट की खेती का समय ठीक बाढ़ के दिनों का ही होता है। यहंा धान की खेती का 92 प्रतिषत आहू, साली बाओ और बोडो किस्म की धान का है और इनका बड़ा हिस्सा  हर साल बाढ़ में धुल जाता है। 

राज्य में नदी पर बनाए गए अधिकांश  तटबंध व बांध 60 के दशक में बनाए गए थे । अब वे बढ़ते पानी को रोक पाने में असमर्थ हैं । फिर उनमें गाद भी जम गई है, जिसकी नियमित सफाई की कोई व्यवस्था नहीं हैं। पिछले साल पहली बारिश के दवाब में 50 से अधिक स्थानों पर ये बांध टूटे थे । इस साल पहले ही महीने में 27 जगहों पर मेढ़ टूटने से जलनिधि के गांव में फैलने की खबर है। वैसे मेढ़ टूटने की कई घटनाओं में खुद गांव वाले ही शामिल होते हैं । मिट्टी के कारण उथले हो गए बांध में जब पानी लबालब भर कर चटकने की कगार पर पहुंचता है तो गांव वाले अपना घर-बार बचाने के लिए मेढ़ को तोड़ देते हैं । उनका गांव तो थोड़ सा बच जाता है, पर करीबी बस्तियां पूरी तरह जलमग्न हो जाती हैं । बराक नदी गंगा-ब्रह्यपुत्र-मेधना नदी प्रणाली की दूसरे नंबर की सबसे बड़ी नदी है। इसमें उत्तर-पूर्वी भारत के कई सौ पहाड़ी नाले आकर मिलते हैं जो इसमें पानी की मात्रा व उसका वेग बढ़ा देते हैं। वैसे इस नदी के मार्ग पर बाढ़ से बचने के लिए कई तटबंध, बांध आदि बनाए गए और ये तरीके कम बाढ़ में कारगर भी रहे हैं।

ब्रह्मपुत्र घाटी में तट-कटाव और बाढ़ प्रबंध के उपायों की योजना बनाने और उसे लागू करने के लिए दिसंबर 1981 में ब्रह्मपुत्र बोर्ड की स्थापना की गई थी । बोंर्ड ने ब्रह्मपुत्र व बराक की सहायक नदियों से संबंधित योजना कई साल पहले तैयार भी कर ली थी । केंद्र सरकार के अधीन एक बाढ़ नियंत्रण महकमा कई सालों से काम कर रहा हैं और उसके रिकार्ड में ब्रह्मपुत्र घाटी देष के सर्वाधिक बाढ़ ग्रस्त क्षेत्रों में से हैं । इन महकमों ने इस दिशा  में अभी तक क्या कुछ किया ? उससे कागज व आंकड़ेां को जरूर संतुश्टि हो सकती है, असम के आम लेागों तक तो उनका काम पहुचा नहीं हैं। असम को सालाना बाढ़ के प्रकोप से बचाने के लिए ब्रह्मपुत्र व उसकी सहायक नदियों की गाद सफाई, पुराने बांध व तटबंधों की सफाई, नए बांधों को निर्माण जरूरी हैं .

बॉक्स

रौद्र रूप ब्रहमपुत्र नद का

ब्रह्मपुत्र एक ऐसा नद है जिसका आकार बढ़ रहा है . असम सरकार द्वारा  1912 से 1928 के बीच किये  गए सर्वे में  ब्रह्मपुत्र का राज्य के तीन हजार 870 वर्ग किमी क्षेत्र में विस्तार था । आखिरी बार 2006 में जब सर्वे हुआ, तो ब्रह्मपुत्र नदी का इलाका  बढ़कर छ हजार 80 वर्ग किमी हो गया। 

यही नहीं इस नद की औसतन चौड़ाई 5.46 किमी है। लेकिन, कुछ-कुछ जगहों पर इसका पाट  15 किमी या उससे भी ज्यादा है। 

असम सरकार के पर्यावरण मंत्रालय द्वारा सितंबर 2015 में जारी  एक रिपोर्ट कहती है कि  1954 से लेकर 2015 के बीच बाढ़ की वजह से असम में तीन  हजार 800 वर्ग किमी की खेती की जमीन बर्बाद हो गई। मतलब 61 साल में बाढ़ के कारण असम में जितनी खेती की जमीन बर्बाद हुई है, वो गोवा राज्य  के क्षेत्रफल से भी ज्यादा है। उल्लेखनीय है कि गोवा का क्षेत्रफल तीन  हजार 702 वर्ग किमी है।

 

असम में जल-प्लवन के मुख्य कारण

1.  जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक असर हिमालयन पर्वतमाला पर है और वहन ग्लेशियर  तेजी से पिघलने से नदियों का प्रवाह अनियमित और चरम है .

2.  नदी घाटी होने के कारण यहाँ  समतल स्थान कम है और तभी साल दर  साल आवास का दायरा सिकुड़ रहा है . पहाड़ों पर चाय बगान हैं तो निचले स्थानों पर नदी . अधिक से अधिक लोग नदी के किनारे ही बसते हाँ ताकि खेती किसानी आकर सकें और फिर नदी में जल स्तर बढ़ते ही ये उसके शिकार हो जाते हैं

3.  . सामान्य से ज्यादा बारिशः ब्रह्मपुत्र बेसिन की वजह से हर साल यहां सामान्य से 248 सेमी से 635 सेमी ज्यादा बारिश होती है। मानसून सीजन में यहां हर घंटे 40 मिमी से भी ज्यादा बारिश होती है। इतना ही नहीं, कई इलाकों में तो एक ही दिन में 500 मिमी से ज्यादा बारिश दर्ज की गई है। 

4.   असम  के अधिकांश हिस्से में पहाड़ और घाटियाँ हैं , जब उपरी इलाकों में बरसात होती है तो नीचले कशेत्रों में तेजी से पानी भरता आहें, बेह्त्न जल प्रबंधन, निकास कि सुविधा न होने के कारण बस्ती में बाढ़ आती है

5.  एक तो राज्य में आबादी घनत्व बहुत अधिक है . यहाँ प्रति किलोमीटर 200 लगों का औसत निवास है . संकरे इलाकों और सघन बस्ती के कारण भी बाढ़ का पानी लम्बे समय तक जमा रहता है

 

 

बुधवार, 21 जून 2023

environment conservation in temples

 पर्यावरण संरक्षण के साथ देवोपासना के उदाहरण देवालय !

पंकज चतुर्वेदी



यह परम्परा भी है और संस्कार भी, .जयपुर के परकोटे में स्थित ताड़केश्वर मंदिर की खासियत है कि यहाँ शिव लिंग पर चढ़ने वाले पानी को नाली में बहाने के बनिस्पत ,एक चूने के बने कुंड , जिसे परवंडी कहते है , के जरिये धरती के भीतर एकत्र किया जाता है । यह प्रक्रिया उस इलाके के भूजल के संतुलन को बनाए रखने में बड़ी भूमिका निभाती है।  हो सकता है कि प्राचीन परम्परा में शिव लिंग पर जल चढ़ा़ने का असली मकसद इसी तरह भविष्य के प्रकृति-प्रकोप के हालात में जल को सहेज कर रखना हुआ करता हो । उस काल में मंदिरों में नाली तो होती नहीं थी , यह एक सहज प्रयोग है और बहुत कम व्यय में शुरू किया जा सकता है । यदि दस हज़ार मंदिर इसे अपनाते हें और हर मंदिर में औसतन एक हज़ार लीटर पानी प्रति दिन शिवलिंग पर आता है तो गणित लगा लें हर महीने कितने अधिक जल से धरती तर रहेगी ।



जयपुर के इस शिव मंदिर के बारे में मान्यता है कि यहां शिवजी की प्रतिमा भूमि के भीतर से अवतरित हुई है। चौड़ा रास्ता स्थित इस मंदिर का निर्माण 1784 ईस्वी में किया गया था। उस वक्त यहां धुंधरमीनाज गांव हुआ करता था। मुख्य शिवलिंग काले पत्थर का बना है। इसका व्यास 9 इंच है। इस मंदिर से पाराशर व्यास परिवार का संबंध हैं और नित्य पूजा अर्चना इसी परिवार द्वारा की जाती है। मंदिर का फर्श संगमरमर का है। चौक के पास ही जगमोहन सभा हॉल है। इस हॉल में चार विशाल घंटे हैं, जिनमें प्रत्येक का वजन 125 किलोग्राम है। यहां एक पीतल का नंदी बैल है और गणेशजी की भी प्रतिमा है, जिनकी सूंड बाईं ओर है। 


षायद इसी मंदिर से प्रेरणा पा कर जयपुर के ही एक ज्योतिषी और सामाजिक कार्यकर्ता ने पंडित पुरुषोत्तम गौड़ ने पिछले दो दषकों में राजस्थान के करीब 300 मंदिरों में जलसंरक्षण ढांचे का विकास किया है। समाज सेवा और ज्योतिष के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम करने के लिए गौड़ को महाराणा मेवाड़ अवार्ड समेत कई सम्मानों से नवाजा जा चुका है। श्री गौड़ ने वर्ष 2000 में उन्होंने अपना जलाभिषेक अभियान शुरू किया। वे मंदिरों में 30 फुट गहरा गढडा बनवाते हैं और षिवलिग से आने वाले पानी को रेत के फिल्टरों से गुजार कर जमीन में उतारते हैं। इसके अलावा प्रतिमाओं पर चढाए जाने वाले दूध को जमा करने के लिए पांच फुट के गड्ढे की अलग से जरूरत पड़ी। हिसाब लगाया गया था कि शहर में 300 से ज्यादा मंदिर हैं जहां श्रावण महीने में रोजाना कम से कम चार करोड़ 50 लाख लीटर जल भगवान शिव व अन्य देवी देवताओं की प्रतिमाओं पर अर्पित किया जाता है। इससे जल संरक्षण तो हुआ ही मंदिरों के आसपास रहने वाली कीचड़, गंदगी से भी छुटकारा मिला। 


ठीक ऐसा ही प्रयोग लखनऊ के सदर स्थित द्वादश ज्योतिर्लिग मंदिर में भी किया गया। यहां भगवान शंकर के जलाभिषेक के बाद जल नालियों के बजाय सीधे जमीन के अंदर जाता है। कोई 160 साल पुराने इस मंदिर का  वर्ष 2014 में मंदिर का जीर्णाद्धार किया गया। 12 ज्योतिर्लिग की स्थापना उनके मूल स्वरूप के अनुसार की गई है। यहां करीब 40 फीट गहरे सोख्ते में सिर्फ अभिषेक का जल जाता है जबकि दूध और पूजन सामग्री को अलग इस्तेमाल किया जाता है। बेलपत्र और फूलों को एकत्रित कर खाद बनाई जाती है। चढ़ाए गए दूध से बनी खीर का वितरण प्रसाद के रूप में होता है। यहीं मनकामेश्वर मंदिर में भी सोख्ते का निर्माण किया गया है। यहां चढ़े फूलों से अगरबत्ती बनाई जाती है। वहीं बेलपत्र और अन्य पूजन सामग्री को खाद बनाने के लिए उपयोग में लाया जाता है। बड़ा शिवाला और छोटा शिवाला में चढ़ने वाले दूध की बनी खीर भक्तों में वितरित की जाती है और जल को भूमिगत किया जाता है।



मध्यप्रदेष के षजापुर जिला मुख्यालय पर स्थित प्रसिद्ध मां राजराजेश्वरी मंदिर में चढ़ने वाले फूल अब व्यर्थ नहीं जाते। इनसे जैविक खाद बनाई जा रही है। इसके लिए केंचुए लाए गए हैं। इस खाद को पास के गांव वाले श्रद्धा स ेले जा रहे हें और अपने खेतों में इस आस्थ के साथ इस्तेमाल कर रहे हैं कि देवी कृपास ेउनकी फसल अच्छी रहेगी। यहां पर खाद बनाने के लिए मंदिर प्रांगण में चार चक्रीय वर्मी कम्पोस्ट यूनिट का शेड सहित निर्माण किया गया है. मंदिर में नित्य आने वाले श्रद्धालुओं द्वारा फूल व मालायें चढ़ाई जाती हैं। पहले उन फूल व मालाओं को नदी में फेंका जाता था जिससे नदी भी दूशित होती थी। मंदिर प्रांगण में वर्मी कम्पोस्ट तैयार करने के लिए 12 फीट लम्बाई 12 फीट चौड़ाई व 2.5 फीट गहरे चार टांके बनाए गए है, जिसके बीच की दीवार जालीनुमा बनाई गई है. इनके ऊपर छाया हेतु टीन शेड भी बनाए गए. सबसे पहले प्रथम टांके में मंदिर में इकट्ठा होने वाला फूलों आदि का कचरा एकत्रित किया गया. जिसे एक माह सड़ने देने के बाद उसमें केचूएं डाले गए. । यह प्रक्रिया तीसरे एवं चौथे टांके के लिए भी अपनाई गई । इस चक्रीय पद्धति में चौथे महीने से बारहवें महीने तक हर महीने लगभग 500 किलो खाद मिलना प्रारंभ हो गई। इस प्रकार 8 महीनों में 4000 किलो जैविक खाद तैयार हो रही है। इस प्रकार रोज एकत्रित होने वाले फूल व मालाओं के कचरे जैविक खाद बनाने की प्रक्रिया सतत चलते रहेगी। तैयार होने वाली इस खाद में पोषक तत्वों व कार्बनिक पदार्थों के अलावा मिट्टी को उर्वरित करने वाले सूक्ष्म जीवाणु भी बहुतायत में होते हैं. यह खाद डालने से मिट्टी में समस्त प्रकार के पोषक तत्वों की मात्रा उपलब्धता बढ़ती है और मिट्टी की प्राकृतिक उर्वरा शक्ति बढ़ती है. जिससे फसलों एवं पौधों का सर्वांगीण विकास होकर उत्पादित फसल स्वास्थ्य हेतु लाभप्रद होती है।


मंदिर में चढ़ाए गए फूलों को खाद में बदलने का काम दिल्ली के मषहूर झंडेवालाना मंदिर में भी हो रहा है। इसके अलावा देवास, ग्वालियर, रांची के पहाड़ी मंदिर सहित कई स्थानों पर चढ़ावे के फूल-पत्ती को कंपोस्ट में बदला जा रहा है। अभी जरूरत है कि मंदिरों में पॉलीथीन थैलियों के इस्तेमाल, प्रसाद की बर्बादी पर भी रोक लगे। इसके साथ ही षिवलिंग पर दूध चढ़ाने के बनिस्पत उसके अलग से एकत्र कर जरूरतमंद बच्चों तक पहुंचाने की व्यवस्था की जाए। 


यह जानना जरूरी है कि भगवान को पुष्प या बेल पत्र चढ़ाने से भगवान के प्रसन्न होने की परंपरा असल में आम लोगों को अपने घर में हरियाली लगाने को प्रेरित करने का प्रयास  था। विडंबना है कि अब लोग या तो बाजार से फूल खरीदते हें या फिर दूसरों की क्यारियों से उठा लेते है।। काश हर मंदिर यह अनिवार्य करेंं कि केवल स्वयं के बगीचे या गमले में लगाए फूल ही भगवान को स्वीकार करे जाएंगे तो हर घर में हरियाली का प्रसार सहजता से हो जाएगा। 


सोमवार, 19 जून 2023

Sand storm is increasing due to destruction of Aravalli

 

अरावली के उजड़ने से बढ़ रहे हैं अंधड़

पंकज चतुर्वेदी



अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका 'अर्थ साइंस इंफोर मैटिक्स'  के ताजा अंक में प्रकाशित एक शोध ने चेतावनी दी है कि अरावली पर्वतमाला में पहाड़ियों के गायब होने से राजस्थान में रेत के तूफान में वृद्धि हुई है। भरतपुर, धोलपुर, जयपुर और चित्तौड़गढ़ जैसे स्थान , जहां अरावली पर्वतमाला पर अवैध खनन, भूमि अतिक्रमण और हरियाली उजाड़ने की अधिक मार पड़ी है , को सामान्य से अधिक रेतीले तूफानों  का सामना करना पड़ रहा है. केंद्रीय विश्वविद्यालय राजस्थान के पर्यावरण विज्ञानं के प्रोफेसर एल के शर्मा और पीएचडी स्कॉलर आलोक राज द्वारा किए गए इस अध्ययन का शीर्षक है “ एसेसमेंट ऑफ़ लेंड यूज़ डायनामिक्स  ऑफ़ थे अरावली यूजिंग इंटीग्रेटेड”

इस साल अप्रैल और मई में, इनमें से कई इलाके बालू के तूफ़ान और बारिश से बह गए थे, जिसमें कई लोगों की जान गई  थी। अकेले 28 -29 मई को ही तेज अंधड़ से प्रदेशभर में 16 लोगों की मौत हो गई है. इनमें छह बच्चे और सात बुजुर्ग हैं. अरावली की पहाड़ियों से घिरे टोंक जिले में सबसे अधिक 12 मौतें हुई हैं. 40 से अधिक लोग घायल हुए हैं. गुरूवार देर रात पांच साल बाद राजस्थान में 90-100 किमी की रफ्तार से तूफान आया. शुक्रवार को भी 50-60 किमी प्रति किमी की रफ्तार से अंधड़ चला. इससे कई गांव-शहरों में बिजली के पोल गिर गए. पेड़ उखड़ गए. तूफान की रफ्तार के आगे मकान भी बौने साबित हुए. घरों की छतें उड़ गईं, सैंकड़ों गांवों में कच्चे घर माटी की तरह बिखर गए. आधे राजस्थान की बिजली गुल हुई.  वर्ष 2015  की बाद ऐसे अंधड़ों की संख्या बढती जा रही है .  अंधड़ से जान-माल का नुकसान तो होता ही है , सार्वजनिक संपत्तियों को जबर्दस्त नुकसान होता है .

असलियत तो यह है कि  अकेल राजस्थान ही नहीं दिल्ली और  हरियाणा का अस्तित्व ही अरावली पर टिका है. है। इसरो का एक शोध बताता है कि थार रेगिस्तान अब राजस्थान से बाहर निकल कर कई राज्यों में जड़ जमा रहा है। इस बात पर बहुत कम लोग ध्यान देतें हैं कि भारत के राजस्थान से सुदूर पाकिस्तान व उससे आगे तक फैले भीषण  रेगिस्तान से हर दिन लाखों टन रेत उड़ती है . खासकर गर्मी में यह धूल पूरे परिवेश में छ जाती है और इसके रादुष्ण का मानवीय जीवन पर कुप्रभाव ठण्ड में दिखने वाले स्मोग से अधिक होता है . रेत के बवंडर  खेती और हरियाली वाले इलाकों तक ना पहुंचे इसके लिए  सुरक्षा-परत या शील्ड  का काम अरावली पर्वतमाला सदियों से करती रही है। विडंबना है कि बीते चार दशकों में यहां मानवीय हस्तक्षेप और खनन इतना बढ़ा कि कई स्थानों पर पहाड़ की श्रंखला की जगह गहरी खाई हो गई और एक बड़ा कारण यह भी है कि अब उपजाऊ जमीन पर रेत की परत का विस्तार हो रहा है।

गुजरात के खेड ब्रह्म से षुरू हो कर कोई 692 किलोमीटर तक फैली अरावली पर्वतमाला का विसर्जन देश के सबसे ताकतवर स्थान रायसीना हिल्स पर होता है जहां राश्ट्रपति भवन स्थित है। अरावली पर्वतमाला को कोई 65 करोड़ साल पुराना माना जाता है और इसे दुनिया के सबसे प्राचीन पहाड़ों में एक गिना गया है। ऐसी महत्वपूर्ण प्राकृतिक संरचना का बड़ा हिस्सा बीते चार दशक में पूरी तरह ना केवल नदारद हुआ, बल्कि कई जगह उतूंग शिखर की जगह डेढ सौ फुट गहरी खाई हो गई। असल  में अरावली पहाड़ रेगिस्तान से चलने वाली आंधियों को रोकने का काम करते रहे हैं जिससे एक तो मरूभूमि का विस्तार नहीं हुआ दूसरा इसकी हरियाली साफ हवा और बरसात का कारण बनती रही।

अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका में छपी रिपोर्ट में कहा  गया है कि  पिछले दो दशकों में कई अन्य पहाड़ियों के अलावा, ऊपरी अरावली पर्वतमाला की हरियाणा और उत्तरी राजस्थान  में कम  और मध्य  उंचाई की कम से कम 31 पहाड़ियां पूरी तरह गायब हो गई हैं । ऊपरी स्तर पर पहाड़ियों का गायब होना नरैना, कलवाड़, कोटपुतली, झालाना और सरिस्का में समुद्र तल से 200 मीटर से 600 मीटर की ऊँचाई पर दर्ज किया गया था। याद करें कोई तीन साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने भे सरकार से पूछा था कि आखिर कौन हनुमान जे ये पहाड़ियां उठा कर ले गए ? सन 1975 से 2019 के दौरान किए गए अध्ययन में, यह पता चला कि वन क्षेत्र में सघन बस्तियां बस जाना ,पहाड़ियों के गायब होने के प्रमुख कारणों में से एक थे।

अध्ययन के परिणामों से पता चला है कि 1975 से 2019 के बीच अरावली की 3676 वर्ग किमी भूमि बंजर हो गई . इस अवधी  में अरावली  के वन क्षेत्र में 5772.7 वर्ग किमी (7.63 प्रतिशत) की कमी आई है . यदि यही हाल रहे तो 2059 तक कुल 16360.8 वर्ग किमी (21.64 प्रतिशत) वन भूमि पर कंक्रीट के जंग उगे दिखेंगे . ऐसे हालात में अंधड़ की मार का दायरा बढेगा . अरावली पहाड़ का उजड़ना अर्थात वहां के जंगल और जल निधियों का उजड़ना, दुर्लभ वनस्पतियों का लुप्त होना. इसके दुष्परिणाम  सामने आरहे हैं . तेंदुए, हिरण और चिंकारा भोजन के लिए मानव बस्तियों में प्रवेश करते हैं और मानव- जानवर टकराव के वाकिये बढ़ रहे हैं . जान लें अंधड़ बढ़ने से भी जानवरों के बस्ती में घुसने की घटनाएँ बढती हैं .

यह रिपोर्ट  दिल्ली से लेकर गुजरात तक पूरी रेंज में मार्बल डंपिंग यार्ड की बढती संख्या को बेहद घटक निरुपित करती है . अवैध खनन और भूमि अतिक्रमण को कम करने के लिए उपाय किए जाने चाहिए और लगातार क्षेत्र की निगरानी, ​​वन की रोकथाम और समाशोधन भी किया जाना चाहिए। जान लें  यदि अरावली को और अधिक नुकसान हुआ तो तेज अंधड़ की मार से दिल्ली भी नहीं बचेगा .


 

सोमवार, 12 जून 2023

Child buggers a big problem

 बाल भिक्षावृति बाल एसएचआरएम से भयावह है

पंकज चतुर्वेदी



दक्षिणी दिल्ली के आरके पुरम, भीकाजी कामा प्लेस सहित अधिकांश ट्रेफिक सिग्नल अपर जैसे ही लाल बत्ती होती है, सात- आठ साल की कुछ लडकीय एक लोहे का छलला ले कर आ जाते हैं, एक बच्छा ढोलकी बजाता है और लड़की करतब दिखाती है- आधिया मिनिट बाद ही उनके म्हाथ फ़ेल जाते हैं भीख  के लिए । यह रोज का तमाशा है और बच्चों को तप्ति सड़क पर करतब की आड़ मेन भीखा मांगता देख अब शायद ही किसी के दिल में कसक उठती हो। चीथड़ों में लिपटे और नंगे पैर चार से आठ-दस साल की उम्र के ये बच्चे भोर होते ही सड़कों प आ जाते हैं । थोइडे से शरीर को तोड़ने मरोड़ने के बाद दुत्कार के साथ कुछ एक से पैसा मिल जाने की खुशी भले ही इन्हें होती हो, लेकिन यह खुशी इस देश के लिए कितनी महंगी पड़ेगी, इस पर गौर करने का कष्ट कोई भी शासकीय या स्वयंसेवी संगठन नहीं कर रहा है। 


यूनिसेफ के अनुसार पिछले 6 सालों में देश में 7 करोड़ बाल श्रमिक बढ़ गए हैं. अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन आईएलओ और यूनिसेफ की रिपोर्ट कहती है किवर्ष 2016 में देशभर में करीब 9.40 करोड़ बाल श्रमिक थे जो अब बढ़कर 16 करोड़ हो गए हैं. दुर्भाग्य है कि  एचआर शहर कस्बे मेन  सड़क, परिवहन मेन हाथ फैलाने वाले बच्चों को षड ही बल एसएचआरएम मेन शामिल किया गया  हो । इनकी संख्या भी लाखों में है , जरा सोचे देश की कुल आबादी का 21.87 फीसद यह वर्ग आने वाले दिनों में किस भारत का निर्माण करेगा, इस पर हर तरफ चुप्पी है । ट्राफिक  सिग्नल पर भीखा मांगना , ट्रेन-बस में भौडी आवाज में गाना गाने के अलावा, इन मासूमों का इस्तेमाल और भी तरीकों से होता है। कुछ बच्चे (विशेषकर लड़कियां) भीड़ में पर्चा बांटती दिखेंगी कि वह गूंगी है, उसकी मदद करनी चाहिए। छोटे बच्चों को बीच सड़क पर लिटाकर बीमार होने या मर जाने का नाटक कर पैसे ऐंठने का खेल अब छोटे-छोटे कस्बों तक फैल गया है। मथुरा, काशी सरीखे धार्मिक स्थानों पर बाल ब्रrाचारियों के फेर में भिक्षावृत्ति जोरों पर है। इसके अलावा जादू या सांपने वले का खेल दिखाने वाले मदारी के जमूरे, सेकेंड क्लास डिब्बों में झाडू लगा व क्रासिंग पर कार-स्कूटर की धूल झाड़ने जैसे कार्य के जरिए या सीधे भीख मांगते बच्चे सरेआम मिल जाएंगे। 


अनुमान है कि देश में कोई पचास लाख बच्चे हाथ फैलाए एक अकर्मण्य व श्रमहीन भारत की नींव रख रहे हैं। सत्तर के दशक में देश के विभिन्न हिस्सों में कुछ ऐसे गिरोहों का पर्दाफाश हुआ था, जो अच्छे-भले बच्चों का अपहरण कर उन्हें लोमहर्षक तरीके से विकलांग बना भीख मंगवाते थे। यह दानव बच्चों की खरीद-फरोख्त भी करते थे लेकिन नब्बे का दशक आते-आते इस समस्या का रंग-ढंग बदल गया है। ऐसे गिरोहों के अलावा महानगरों में ‘झुग्गी संस्कृति’ से अनाचार-कदाचार के जो रक्तबीज प्रसवित हुए, उनमें अब अपने सगे ही बच्चों को भिक्षावृत्ति में धकेल रहे हैं। हारमोनियम लेकर बसों में भीख मांगने वाले एक बच्चे से बात करने पर पता चला कि उसके मां-बाप उसे सुबह छह बजे जगा देते हैं। बगैर मंजन-कुल्ला या स्नान के इनको ऐसे बस रूटों की ओर धकेल दिया जाता है, जहां दफ्तर जाने वालों की बहुतायत होती है। भूखे पेट बच्चे दिन में 12 बजे तक एक बस से दूसरी बस में चढ़कर वही अलापते रहते हैं। फिर ये शाम 4.30 बजे से 8.00 बजे तक बसों के चक्कर काटते हैं। रोजाना औसतन 50 से 75 रुपये एक संगीत पार्टी कमा लेती है। ये भिखारी ज्यादातर फुटपाथों पर ही रहते हैं। मां जहां भीख मांगती फिरती है, वहीं बाप नशा करके दिन काट देता है। जाहिर है नशा खरीदने के लिए पैसे बच्चों की मशक्कत से ही आते हैं । यह भी देखा गया है कि भीख मांगने वाली लड़कियां 14 वर्ष की होते-होते मां बन जाती हैं और दुबली पतली देह पर एक मरगिल्ला सा बच्चा आय का अच्छा ‘एक्सपोजर’ बन जाता है। 


आंख खुलने ही हिकारत, तिरस्कार और श्रम के अवमूल्यन की भावना के शिकार ये बच्चे किस हद तक कुंठित होते हैं, इसका मार्मिक उदाहरण दिल्ली के एक मध्यम वर्ग कालोनी के बगीचे में बच्चों के बीच हो रही तकरार का यह वाकिया है। कुछ भिखारी बच्चे (उम्र सात से नौ वर्ष,) कालोनी के झूले पर झूलने लगे। कालोनी के उतनी उम्र के बच्चे झूला खाली कराना चाहते थे। भिखारी लड़की गुस्से में कहती है,‘भगवान करे तुम्हारा भी बाप मर जाए। जब किसी का बाप मरता है तो मुझे बड़ी खुशी होती हैं।’ कालोनी के बच्चे ने कहा ‘तुझसे क्या मुंह लगें, तू तो फुटपाथ पर सोती है।’ ‘एक दिन फुटपाथ पर सोकर देख ले, पता चल जाएगा।’ मुश्किल से नौ साल की इस भिखारी लड़की के दिल में समाज और असमानता को लेकर भरा जहर किस हद तक पहुंच गया है, यह इस वार्तालाप से उजागर होता है। यह विष भारत के भविष्य पर क्या असर डालेगा, यह सवाल अभी कहीं खड़ा ही नहीं हो पा रहा है, हल की बात कौन करे! 

बाल श्रम निवारण कानून हो या फिर  भिक्षावृति निरोधक अधिनियम के अंर्तगत, भीख मांगने वाले को एक से तीन साल के कारावास का प्रावधान है लेकिन कई राज्यों में सपेरे, मदारी, नट, साधु आदि को पुरातन भारतीय लोक-कलाओं व संस्कृति का रक्षक माना जाता है और वे इस अधिनियम की परिधि से बाहर होते हैं। अलबत्ता भिखारी बच्चों को पकड़ने की जहमत कोई सरकारी महकमा उठाता नहीं हैं। फिर यदि इस सामाजिक समस्या को कानूनी डंडे से ठीक करने की सोचें तो असफलता ही हाथ लगेगी। देश के बाल सुधार गृहों की हालत अपराधी निर्माणशाला से अधिक नहीं है। यहां बच्चों को पीट-पीट कर मार डाला जाता है। भूख से बेहाल बच्चे यौन शोषण का शिकार होते हैं। बाल भिक्षावृत्ति समस्या की र्चचा बालश्रम के बगैर अधूरी लगेगी। देश में बचपन-बचाने के नाम पर संचालित दुकानों द्वारा बालश्रम की रोकथाम के नारे केवल उन उद्योगों के इर्द-गिर्द भटकते दिखते हैं, जिनके उत्पाद देश को विदेशी मुद्रा अर्जित कराते हैं। भूख से बेहाल बच्चे की पेट व बौद्धिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए न तो कानून या शासन सक्षम है, न ही समाज जागरूक। ऐसे में बच्चा यदि छुटपन से कोई ऐसा तकनीकी कार्य सीखने लगता है, जो आगे चल कर न सिर्फ उसके जीवकोपार्जन का साधन बनता है, बल्कि देश की आर्थिक व्यवस्था की सुदृढ़ता में भी सहायक होता है, तो यह सुखद है। एक्सपोर्ट कारखानों से बच्चों की मुक्ति की मुहिम चलाने वालों द्वारा सड़कों पर हाथ फैलाए नौनिहालों की अनदेखी करना, उनका बच्चों के प्रति प्रेम व निष्ठा के विद्रूप चेहरे को उघाड़ता है। बच्चों के शारीरिक, मानसिक व सामाजिक विकास के लिए 22 अगस्त 1974 को बनी ‘राष्ट्ीय बाल नीति’ हो या 2020  की राष्ट्रीय शिक्षानीति ,  फिलहाल सभी कागजी शेर की तरह दहाड़ते दिख रहे हैं। सभी बच्चों को शिक्षा के अधिकार के ढिंढोरे से ज्यादा उस मानवीय दृष्टिकोण जरूरत है जो मासूमों के दिल के अरमानों को पूरा कर सके।

Where delhi water bodies has gone

 दिल्ली : उजड़तीं जल निधियां, बढ़ती प्यास



राजधानी दिल्ली की करीब 31 फीसद आबादी को स्वच्छ पेय जल घर में लगे नल से नहीं मिलता।




हजारों टैंकर हर दिन कालोनियों में जाते हैं, और टैंकरों के लिए पानी जुटाने के लिए पाताल को इतनी गहराई तक खोद दिया गया है कि सरकारी भाषा में इन जगहों में कई जगह अब ‘डार्क जोन’ बन गए हैं। केंद्रीय जल शक्ति मंत्रालय द्वारा जारी देश की जल निधियों की गणना की रिपोर्ट के मुताबिक, दिल्ली में कोई 983 तालाब-झील-जोहड़ हैं, और इनमें से किसी को भी प्यास बुझाने के काबिल नहीं माना जाता। दुर्भाग्य है कि दिल्ली गंगा और भाखड़ा से सैकड़ों किमी. दूर से पानी मंगवाती है लेकिन अपने ही तालाबों को इस लायक नहीं रखती कि ये बरसात का जल जमा कर सकें।


सरकारी गणना बताती है कि दिल्ली की तीन-चौथाई जल निधियों का तो इस्तेमाल महज सीवर की गंदगी बहाने में ही होता है। दिल्ली देहात के कंझावला का जौंती गांव कभी मुगलों की पसंदीदा शिकारगाह था। वहां  घने जंगल थे और जंगलों में रहने वाले जानवरों के लिए बेहतरीन तालाब। तालाब का निर्माण मुगल बादशाह शाहजहां ने करवाया था। आज इसका जिम्मा पुरातत्व विभाग के पास है, बस जिम्मा ही रह गया है क्योंकि तालाब तो कहीं नदारद हो चुका है। कुछ समय पहले ऐतिहासिक-सांस्कृतिक संस्था इंटैक को इसके रखरखाव का जिम्मा देने की बात आई थी, लेकिन मसला  कागजों से आगे बढ़ा नहीं। न अब वहां जंगल बचा और न ही तालाब।


 को चौपट करने का खमियाजा समाज ने किस तरह भुगता, इसकी सबसे बेहतर बानगी राजधानी दिल्ली ही है। यहां समाज, अदालत, सरकार सभी असहाय हैं जमीन माफिया के सामने। अवैध कब्जों से दिल्ली के तालाब बेहाल हो चुके हैं। थोड़ा पानी बरसा तो सारा शहर पानी-पानी हो जाता है और अगले ही दिन पानी की एक-एक बूंद के लिए हरियाणा या उत्तर प्रदेश की ओर ताकने लगता है। सब जानते हैं कि यह त्रासदी दिल्ली के नक्शे में शामिल उन तालाबों के गुमने से हुई है, जो हवा-पानी का संतुलन बनाए रखते थे, मगर दिल्ली को स्वच्छ और सुंदर बनाने के दावे करने वाली सरकार इन्हें दोबारा विकसित करने की बजाय इनकी लिस्ट छोटी करती जा रही है। इतना ही नहीं, हाई कोर्ट को दिए गए जवाब में जिन तालाबों को फिर से जीवित करने लायक बताया गया था, उनमें भी सही ढंग से काम नहीं हो रहा। यह अनदेखी दिल्ली के पर्यावरणीय संतुलन को बिगाड़ चुकी है।


2000 में दिल्ली के कुल 794 तालाबों का सर्वे किया गया था। ज्यादातर तालाबों पर अवैध कब्जा हो चुका था और जो तालाब थे भी, उनकी हालत खराब थी। इस बारे में दिल्ली हाई कोर्ट में जनहित याचिका दायर की गई, जिसकी सुनवाई में तीन बार में दिल्ली सरकार ने 629 तालाबों की जानकारी दी जो दिल्ली सरकार, डीडीए, एएसआई, पीडब्ल्यूडी, एमसीडी, फॉरेस्ट डिपार्टमेंट, सीपीडब्ल्यूडी और आईआईटी के तहत आते हैं। सरकार ने इनमें से 453 को ही पुनर्जीवन करने के लायक बताया था। इस मामले में हाई कोर्ट ने 2007 में आदेश दिया कि जीवित करने लायक 453 तालाबों को दोबारा विकसित किया जाए और इनकी देखरेख के लिए मुख्य सचिव की अध्यक्षता में कमिटी गठित की जाए। निर्देश दिया कि तालाबों के विकास संबंधी छमाही रिपोर्ट सौंपी जाए। मगर कोई रिपोर्ट नहीं दी गई।


जब अदालत ने सख्ती दिखाई तो फ्लड एंड इरिगेशन डिपार्टमेंट ने कह दिया कि दिल्ली सरकार के 476 तालाबों में से 185 की दोबारा खुदाई कर दी गई है, जब बारिश होगी तब इनमें पानी भरा जाएगा। बाकी 139 खुदाई के काबिल नहीं हैं, 43 गंदे पानी वाले हैं, और 89 तालाबों को विकसित करने के लिए डीएसआईडीसी को सौंपा गया है जबकि 20 तालाब ठीक-ठाक हैं। अब यह काम जमीन पर कितना हुआ, एक दशक बाद भी अनुत्तरित है। 2015 में केंद्र सरकार ने दिल्ली के सूखते जलाशयों की सुध लेने के लिए केंद्रीय शहरी विकास मंत्रालय के तहत कार्यदल गठित किया था। उस दल का क्या हुआ? कोई जानकारी नहीं है। अभी भी अमृत सरोवर के तहत कुछ तालाब का जिम्मा कभी दिल्ली सरकार लेती है तो कभी दिल्ली विकास प्राधिकरण लेकिन सभी आसपास चमक दिखने पर जोर देते हैं। तालाब में नैसर्गिक मार्ग से जल आए और उसमें गंदा पानी न मिले, इस पर कोई कार्ययोजना नहीं बनती।


विडंबना है कि जब दिल्ली हाई कोर्ट तालाबों का पुराना स्वरूप लौटाने के निर्देश दे रहा था तब राज्य सरकार ने तालाबों को दीगर कामों के लिए आवंटित कर दिया। डीडीए ने वसंत कुंज के सूखे तालाब को एक गैस एजेंसी को अलॉट कर दिया और घड़ोली के तालाब की जगह एक स्कूल को आवंटित कर दी। दिल्ली की प्यास का सवाल हो या थोड़ी बरसात में जल भराव का-निदान पुराने तालाबों को उनके मूल स्वरूप में लौटाने में ही छिपा है।

गुरुवार, 8 जून 2023

climate change can enhance migration

 

मौसम की मार से पलायन के बढ़ते खतरे

पंकज चतुर्वेदी



 ‘आजादी के बाद भारत की सबसे बड़ी त्रासदी किसको कहा जा सकता है ?’ यदि इस सवाल का जवाब ईमानदारी से खोजा जाए तो वह होगा -कोई पचास करोड़ लोगों का अपने पुश्तैनी  घर, गांव, रोजगार से पलायन। और ‘आने वाले दिनों की सबसे भीषण  त्रासदी क्या होगी ?’ आर्थिक-सामाजिक ढ़ांचे में बदलाव का अध्ययन करें तो जवाब होगा- पलायन से उपजे शहरों का --अरबन-स्लम’ में बदलना, जहां  सामाजिक, आर्थिक, पर्यावरणीय और विकास के विमर्श में केवल पूंजी की जयजयकार होगी । पलायन विकास के नाम पर उजाड़े गए लोगों  का, पलायन आतंकवाद के भय से उपजा, पलायन माकूल रोजगार ना मिलने के कारण, पलायन पारंपरिक दक्षता या वृत्ति के बाजारवाद की भेट चढ़कर अप्रासंगिक हो जाने का। और अब जिस तरह मौसम के बदलते तेवर के कुप्रभाव सामने आ रहे हैं  , खेती या मछलीपालन पर निर्भर लोगों का बड़ी संख्या में  महज पेट पालने के लिए घर छोड़ने की अंधियारी त्रासदी मुंह बाए सामने खड़ी है .

जलवायु परिवर्तन के  चलते नदी किनारे वालों को किस तरह विस्थापन करना पड़ता है ? इसका जीता जागता उदाहरण पूर्वोत्तर, खासकर  ब्रहमपुत्र है .

वर्ष  1912-28 के दौरान जब ब्रहंपुत्र नदी का अध्ययन किया था तो यह कोई 3870 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र  से गुजरती थी। सन 2006 में किए गए इसी तरह के अध्ययन से पता चला कि नदी का भूमि छूने का क्षेत्र 57 प्रतिशत बढ़ कर 6080 वर्ग किलोमीटर हो गया।  वैसे तो नदी की औसत चौड़ाई 5.46 किलोमीटर है लेकिन कटाव के चलते कई जगह ब्रहंपुत्र का पाट 15 किलोमीटर तक चौड़ा हो गया है। सन 2001 में कटाव की चपेट में 5348 हैक्टर उपजाऊ जमीन आई, जिसमें 227 गांव प्रभावित हुए और 7395 लोगों को विस्थापित होना पड़ा। सन 2004 में यह आंकड़ा 20724 हैक्टर जमीन, 1245 गांव और 62,258 लोगों के विस्थापन पर पहुंच गया। अकेले सन 2010 से 2015 के बीच नदी के बहाव में 880 गांव पूरी तरह बह गए, जबकि 67 गांव आंषिक रूप से प्रभावित हुए। ऐसे गांवों का भविष्य  अधिकतम दस साल आंका गया है।  वैसे असम की लगभग 25 लाख आबादी ऐसे गांवो ंमें रहती है जहां हर साल नदी उनके घर के करीब  आ रही है। ऐसे इलाकों को यहां ‘चार’ कहते हैं। इनमें से कई नदियों के बीच के द्वीप भी हैं।  हर बार ‘चार’ के संकट, जमीन का कटाव रोकना, मुआवजा , पुनर्वास चुनावी मुद्दा भी होते हैं. चूँकि अभी डिब्रूगढ़ जैसे पर्यटन स्थल अपर ख़तरा मंडरा रहा है तो उसकी चर्चा भी है लेकिन यह तो राज्य की बड़ी आबादी के लिए का स्थाई रोग है .

बंगाल की खाड़ी में लगातार आ रहे चक्रवात के कारण भारत के सुंदर बन के 54 आबाद  द्वीपों में सबसे तेजी से पलायन हुआ .  तटीय कटाव और समुद्र का बढ़ता जलस्तर धीरे-धीरे सुंदरबन की धरती को निगल रहा है. गांवों के कई लोग कोलकाता जैसे शहरों की ओर पलायन करने के लिए मजबूर हो रहे हैं, क्योंकि उनकी उपजाऊ भूमि तूफान और बाढ़ की बढ़ती संख्या के साथ खारी हो रही है. समुद्र के बढ़ते स्तर और खारापन ने सुंदरबन के मुख्य क्षेत्रों में रहने वाले लोगों से उनकी आजीविका का प्रमुख साधन छिन लिया. पृथ्वी और विज्ञान मंत्रालय का एक अध्ययन बताता है की कर्नाटक राज्य  की समुद्री रेखा के 22 फीसदी इलाके की जमीन धीरे धीर पानी में जा रही है.दक्षिण कन्नड़ जिले की तो 45 प्रतिशत भूमि पर कटाव का असर  दिख रहा है . उडुपी और उत्तर कन्नड़ के हालात भी गम्भीर हैं . धरती के अप्रत्याशित बढ़ते तापमान और उसके चलते तेजी से पिघलते ग्लेशियरों के चलते  सागर की अथाह  जल निधि अब अपनी सीमाओं को तोड़ कर तेजी से बस्ती की ओर भाग रही है। समुद्र की तेज लहरें तट को काट देती हैं और देखते ही देखते आबादी के स्थान पर नीले समुद्र का कब्जा हो जाता है । किनारे की बस्तियों में रहने वाले मछुआरे अपनी झोपड़ियां और पीछे  कर लेते हैं। कुछ ही महीनों में वे कई किलोमीटर पीछे खिसक आए हैं । अब आगे समुद्र है और पीछे जाने को जगह नहीं बची है । कई जगह पर तो समुद्र में मिलने वाली छोटी-बड़ी नदियों को सागर का खारा पानी हड़प कर गया है, सो इलाके में पीने, खेती और अन्य उपयोग के लिए पानी का टोटा हो गया है ।

केरल  के कोच्ची के शहरी इलाके चेलेन्नम में सैकड़ों घर अब समुद्र के “ज्वार-परिधि” में आ गए हैं , यहं सदियों पुरानी बस्ती है लेकिन अब हर दिन वहां घर ढह रहे हैं . यूनिवर्सिटी ऑफ़ केरल , त्रिवेंद्रम द्वारा किये गये और जून -22 में प्रकाशित हुए शोध में बताया गया है कि त्रिवेन्द्रम जिले में पोदियर और अचुन्थंग के बीच के 58 किलोमीटर के समुद्री तट का 2.62 वर्ग किलोमीटर हिस्सा बीते 14 सालों में सागर की गहराई में समा गया . यही हाल देश के लगभग सभी समुद्र तट की बस्तियों का है , जहां का समाज मछली पकड़ने या खेती के अलावा कुछ जानता नहीं था और अब जब उनसे जमीन और पानी छीन गया तो मज़बूरी में वे महानगरों में मजदूरी तलाशने जा रहे हैं  .

इंटरनल डिस्प्लेसमेंट मोनिटरिंग सेंटर, जेनेवा की ताजा रिपोर्ट कहती है कि गत वर्ष 2022 में कोई 25 लाख लोग प्राकृतिक आपदाओं के कारण विस्थापन का शिकार हुए हैं . यह रिपोर्ट  असम में बाढ़ से बिगड़े हालात पर विशेष उल्लेख करती है . रिपोर्ट में  जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ रहे चक्रवाती तूफ़ान के खतरे और उससे विस्थापन की मार के साल दर साल बढ़ने की चेतावनी दी गई है . इससे पहले आई आई टी , गांधी नगर के एक शोध में भी  बाढ़ और लू से  लोगों के घर गाँव छोड़ने की बात कही गई  है . हमें अब उस वैश्विक रिपोर्ट को आधार बना कर  भविष्य की योजना बनानी होगी जिसमे कहाँ गया है कि सन 2100 तक धरती का तापमान 2.7 डिग्री बढेगा और उससे भारत के लगभग 60 करोड़ लोग  जीवनयापन, जल और रहने की असहनीय परिस्थितियों के चलते अस्तित्व के संकट से  जूझेंगे. इस तरह होने वाले व्यापक पलायन से समग्र पर्यावास और पर्यावरणीय चक्र गडबडा जाएगा .

 

 

मंगलवार, 6 जून 2023

Lack of concrete policy for teenagers

 

किशोरों के लिए ठोस नीति के अभाव का नतीजा है साक्षी की पाशविक हत्या

 

पंकज चतुर्वेदी



जब एक 16 साल की लड़की को पाशविकता से मार दिया गया तो देश, समाज, धर्म, सरकार सभी को याद आई कि दिल्ली में रोहिणी की आगे कोई शाहबाद डेयरी नामक बस्ती भी है  महज जीने की लालसा लिए  दूर दराज के इलाकों से सैंकड़ों किलोमीटर पलायन कर आये मज़दूर-मेहनतकश बहुल झुग्गी इलाक़ा है यह । न तो  यहाँ  रहने वाली आबादी को साफ़ पानी मिलता है , गन्दे नाले, टूटी-फूटी सड़कों की भीषण समस्या तो है ही , एक इन्सान होने के अस्तित्व के तलाश यहाँ किसी गुम  अंधेरों में खो जाती है . चूँकि साक्षी की हत्या एक समीर खान ने की थी तो किसी के लिए  धार्मिक साजिश है तो किसी के लिए पुलिस की असफलता तो किसी के लिए और कुछ . एक सांसद पहुँच गये , कई विधायक मंत्री गये , यथासंभव सरकारी फंड से पैसे दे आये .



एक समय तो ऐसा आया कि “पीपली लाइव “ की तरह कुछ लोगों ने मृतका के घर को भीतर से बंद आकर लिया ताकि किसी अन्य दल का आदमी उनसे न मिल पाए और बाहर मीडिया, नेता , समाजसेवा के लोग कोहराम मचाते रहे . दुर्भाग्य है कि नीतिनिर्धारक  एक बच्ची की हत्या को एक अपराध और एक फांसी से अधिक नहीं देख रहे , मरने वाली 16 की और मारने वाला भी 20 का . दिल्ली की एक तिहाई आबादी शबाद देरी जैसे नारकीय झुग्गियों में बस्ती है, मेरठ, आगरा में कुल  आबादी का 45 फ़ीसदी ऐसे  असहनीय पर्यावास में बसता है . अब देश का कोई क़स्बा-शहर-महानगर बचा नहीं है जो पलायन-मजदूरी और मज़बूरी के त्रिकोण के साथ ऐसी बस्तियों में बस रहा है . इस हत्याकांड के  व्यापक पक्ष पर कोई  प्रश्न नहीं उठा रहा- एक तो इस तरह की बस्तियों में पनप  रहे अपराध और कुंठा और देश में किशोरों के लिए, खासकर निम्न आयवर्ग और कमजोर सामाजिक स्थिति के  किशोरों के लिए किसी ठोस  कार्यक्रम का अभाव .


यह उस इलाके के सभी लोग जानते हैं कि मृतका कोई एक महीने से अपने घर शाहबाद डेरी ई ब्लॉक जा ही नहीं रही थी .  वह रोहिणी सेक्टर-26 स्थित अपनी दोस्त नीतू के साथ उसके घर रह रही थी। नीतू के दो बच्चे हैं और उसका आदमी किसी गंभीर अपराध में जेल में है , साक्षी ने दसवीं का इम्तेहान पास किया था . उसके माँ-बाप , जो कि मजदूरी करते  हैं , कई बार पड़ोसियों को कह चुके थे कि  उनके लिए लड़की है ही नहीं .और अब उनकी झोली पैसों से भरी जा रही है , पर्ची निकाल आकर लोगों का भविष्य बताने वाले एक बाबा जी उसे बेटी कह कर पुकार रहे हैं . काश जो भी साक्षी को बेटी कह रहे हैं उन्होंने कभी साक्षी के मोहल्ले या ऐसे देश की दीगर बस्तियों में जा कर “अपनी बेटियों “ की नारकीय स्थिति देखी  होती .यहाँ न विद्यालय है न ही पार्क, न ही क्लिनिक और न ही साफ़ शौचालय .


कोई एक लाख की आबादी वाले इस घनी आबादी में बच्चों के गुमशुदा होने के मामले सबसे अधिक होते हैं.  चूँकि यहाँ मज़दूरों और ग़रीबों के बच्चे रहते हैं इसलिए इनकी गुमशुदगी पर पुलिस कोई कार्रवाई नहीं करती। अपराध का भी यहाँ ज़बर्दस्त बोलबाला है। आये दिन लोगों से छीना-झपटी होती रहती है। हर झुग्गी इलाक़े की तरह यहाँ भी नशाखोरी की विकराल समस्या है। यदि कोई पहले इस तरह के


 इलाकों में किशोरों कि मनोस्थिति के लिए सोचने विचारने जाता तो  साक्षी  जैसे बच्चे घर से भागने की क्यों सोचते हैं ? इसके उत्तर मिलते . यह पुलिस जांच में सामने आया है कि छ
 मई को नीतू ने मैसेज किया, 'साक्षी यार कहां है तू, बात नहीं करेगी मुझसे' इसके बाद साक्षी जवाब देती है, 'यार, मम्मी-पापा ने बंद करके रखा है घर में। फोन भी नहीं देते। मैं क्या करूं, भाग जाऊंगी'। हत्या के बाद सामने आई इस चैट से कई सवाल खड़े हो रहे हैं। वहाँ साक्षी जैसे किशोरियाँ किन दिक्कतों से गुजर रही हैं , वहाँ किशोरों में यौनिकता को ले कर कैसे आकर्षण, भ्रांति और अल्प ज्ञान है ।


 
किशोर लड़कियों को सहानुभूति, उनकी दिक्कत सुनने वाला चाहिए . बालपन से किशोरावस्था में आ रहे बच्चों में शारीरिक और यौन बदलाव होते हैं . मेहनत  मजदूरी अकरने वाले परिवारों के पास यह सब समझने का न समय है और न ही बौद्धिक विवेक . आयु के इस दौर में उनकी बुद्धिमता, भावनाओं , नैतिकता में भी परिवर्तन आते हैं . उनके सामने एक पहचान का संकट होता हिया उर इसके चलते अपने पालक और मित्रों से टकराव होते हैं.  


साक्षी  की साहिल से दोस्ती थी, किसी झबरू से भी थी और किसी प्रवीन से हो गई.
हमलावर के लड़की पर बेदर्दी से  कई बार चाकू घोंपने और फिर सर को पत्थर से कुचल देने का मतलब यह हो सकता है कि उसमें हीन भावना थी और आत्मसम्मान बचा नहीं रह गया था, जिसके कारण अस्वीकृति को वह सह नहीं पाया.  .

यह भी समझना होगा कि  बमुशिक जीवन जी रहे लोगों के बीच जाती- धर्म कोई मसला होता नहीं हैं , साहिल  किस संप्रदाय से है यह साक्षी के लिए कोई मायने नहीं रखता था. उधर साहिल ने पूछताछ में बताया है कि उसकी मां बीमार रहती हैं। किसी ने उसे बताया था कि हाथ में कलावा बांधने और गले में रूद्राक्ष की माला पहनने से उसकी मां जल्दी ठीक हो जाएंगी, इसलिए वह रूद्राक्ष की माला पहनता था और कलावा बांधता था।जाहिर है कि उस लडके के लिए बहे संप्रदाय कोई कट्टर मसला था ही नहीं  .



सन 2013 में अर्तःत एक दशक पहले  विभिन्न गंभीर अपराधों में किशोरों की बढ़ती संलिप्तता को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिए थे कि हर थानों में किशोरों के लिए विशेश अधिकारी हो। देश में शायद ही इसका कहीं पालन हुआ हो।’’ देश की सबसे बड़ी अदालत की चिंता अपने जगह ठीक थी लेकिन सवाल तो यह है कि किशोर या युवा अपराधों की तरफ जाएं ना, इसके लिए हमारी क्या कोई ठोस नीति है ? रोजी रोटी के लिए मजबूरी में षहरों में आए ये युवा फांसी पर चढने के रास्ते क्यों बना लेते हैं ? असल में किसी भी नीति में उन युवाओं का विचार है ही नहीं।

तंगी, सुविधाहीनता व तमाम उपेक्षाओं की गिरफ्त में फंसी एक पूरी कुंठित पीढ़ी । गांव की माटी से उदासीन और वहां से बलात उखाड़ी गई और शहर की मृग मरीचिका को छू लेने की ललक साधे किशोर  शक्ति । भारतीय संस्कार, संस्कृति और सभ्यता की महक अभी कहीं शेष है तो वह है ग्रामीण किशोर  । वस्तुतया कुशल जन-बल के निर्माण के लिए निम्न आय वर्ग बस्तियों में रहने वाले किशोर  वास्तव में ‘कच्चे माल’ की तरह है , जिसका मूल्यांकन कभी ठीक से किया ही नहीं गया । जरूरत है ऐसे बस्तियों में नियमित काउंसलिंग , मनोवैज्ञानिक और स्वास्थ्य विमर्श की . किशोरों को स्वास्थ्य मनस्थिति के लिए व्यस्त रखने वाली गतिविधियों की और इस ताकत को समाज और देश निर्माण  के लिए  परिवर्तित करने वाली गतिविधि, नीति और मार्गदर्शकों की . साक्षी की हत्या अपराध तो है लेकिन इससे आगे यह देश के लिए बड़ी सामाजिक समस्या  का इशारा भी है .

शुक्रवार, 2 जून 2023

every tap can not supply water on dependency on ground water

 नल जल योजना बन गई है आत्मघाती
 भूजल के बदौलत नल रीते तो रहेंगे ही, हम बड़े खतरे को कर रहे आमंत्रित 

-- --


विश्व बैंक की रिपोर्ट बताती है कि दुनिया भर में भारत सबसे अधिक भूजल का उपयोग करता है- अमेरिका और चीन- दोनों को मिलाकर जितना इसका उपयोग किया जाता है, उससे अधिक भारत में ही इसका उपयोग हो रहा है। आईआईटी, गांधीनगर के अध्ययन के अनुसार, बीते कुछ समय में देश के अन्य हिस्सों की तुलना में उत्तर भारत में भूजल के स्तर में सर्वाधिक कमी आई है। अध्ययन के मुताबिक, देश में भूजल के स्तर में जितनी कमी आई है, उसमें 95 प्रतिशत कमी उत्तर भारत से है

-- --

पंकज चतुर्वेदी



....  ....

किसी भी शहर के एक हिस्से में ही एक दिन भी नल से पानी न आने पर जो हाहाकार मचता है, उसका हम सबको अनुभव है। बुंदेलखंड और राजस्थान में ही नहीं, देश के लगभग हर हिस्से में गांवों में भी पानी के लिए लोगों को जिस तरह मशक्कत करनी होती है, वह भी हम जानते-देखते-महसूस करते ही हैं। ऐसे में 2019 में 73वें स्वतंत्रता दिवस पर लाल किला से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जल जीवन मिशन के तहत हर घर को नल से पानी की सप्लाई का जब ऐलान किया, तो कानों को बहुत सुकून मिला। लेकिन यह मिशन आत्मघाती सिद्ध हो रहा है।

इस मिशन के तहत भूजल (ग्राउंडवाटर) का उपयोग किया जा रहा है। विश्व बैंक के अध्ययन की ’एंड पॉवर्टी इन साउथ एशिया’ पर पिछले साल मई में प्रकाशित जॉन रूम की रिपोर्ट बताती है कि दुनिया भर में भारत सबसे अधिक भूजल का उपयोग करता है- अमेरिका और चीन- दोनों को मिलाकर जितना इसका उपयोग किया जाता है, उससे अधिक भारत में ही इसका उपयोग हो रहा है। आज भारत में खेती-किसानी से लेकर घरेलू उपयोग तक के लिए भूजल ही एकमात्र उपयोगी रास्ता है।

2021 की सीएजी रिपोर्ट बताती है कि 2014 से 2017 के बीच ही भूजल निकालने की दर 58 से बढ़कर 63 प्रतिशत हो गई। जल शक्ति मंत्रालय के अनुसार, केन्द्रीय भूजल बोर्ड (सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड) देश के गतिशील (डायनेमिक) भूजल संसाधनों का समय-समय पर आकलन करता रहता है और 2022 से यह वार्षिक स्तर किया जा रहा है। अभी 8 अप्रैल को ही मंत्रालय ने प्रेस विज्ञप्ति में बताया है कि भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), गांधीनगर द्वारा किए गए अध्ययन के अनुसार, बीते कुछ समय में देश के अन्य हिस्सों की तुलना में उत्तर भारत में भूजल के स्तर में सर्वाधिक कमी आई है। अध्ययन के मुताबिक, देश में भूजल के स्तर में जितनी कमी आई है, उसमें 95 प्रतिशत कमी उत्तर भारत से है। अध्ययन में पाया गया है कि भविष्य में बारिश में वृद्धि पहले से ही समाप्त हो चुके संसाधनों के पूरी तरह से पुनर्जीवन करने के लिए अपर्याप्त होगी। शोधकर्ताओं ने यह भी पाया है कि भारत में भूजल की कमी तब तक जारी रहेगी, जब तक भूजल के अत्यधिक दोहन को सीमित नहीं किया जाता है जिससे भविष्य में जल स्थिरता के मुद्दे सामने आएंगे।

इसलिए यह नहीं माना जा सकता कि सरकार को इस मिशन से होने वाले खतरे का अंदाजा नहीं है। फिर भी, इस मिशन को न सिर्फ जारी रखा जा रहा है बल्कि इस पर जोर भी दिया जा रहा है। इस मिशन में ग्रामीण भारत के सभी घरों में 2024 तक व्यक्तिगत घरेलू नल कनेक्शन के माध्यम से सुरक्षित और पर्याप्त पेयजल उपलब्ध कराने की कल्पना की गई है। केन्द्र सरकार ने वर्ष 2022-23 में देश भर के 3.8 करोड़ परिवारों तक साफ पीने का पानी पहुंचाने की योजना बनाई है। इसके लिए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने इस बजट में 60 हजार करोड़ रुपये ’हर घर नल’ योजना को आवंटित किए हैं।

....  ......

मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले के लवकुशनगर का गांव परसनिया हो या नगर पंचायत वाला कस्बा हरपालपुर- दोनों जगह दूर से ही ऊंची पानी की टंकी तो दिखती है लेकिन यहां के लोग पानी के लिए तीन-चार किलोमीटर दूर किसी के कुएं से पानी निजी वाहनों से ढोकर ही लाते हैं। दोनों का कारण लगभग एकसमान है- टंकी बनी, पाईप लगे, पानी के लिए कई ट्यूबवेल खोद दिए गए लेकिन सूरज तपा तो पाताल पानी सूख गया और टंकी, पाईप, घर में लटकी नल की टोंटी- सब कुछ मुंह चिढ़ाते से दिखे। यह कहानी लगभग एक-सी है, बस गांव-मोहल्ले के नाम बदल जाते हैं।

सरकारी रिकॉर्ड में यहां घर-घर नलों से पानी की धारा बहती है। जल जीवन मिशन की हकीकत गरमी शुरू  होते ही सामने आने लगी। उत्तर प्रदेश  के लगभग सभी जिलों में ऐसी योजनाएं दम तोड़ रही हैं। बिहार में टंकी बनाने और पाईप बिछाने का काम तो हो गया लेकिन घर में नल सूखे ही रहते हैं। देश में हजारों ऐसे गांव हैं जहां पानी की टंकी है, पाइप भी बिछ गए, टोंटी लग गई लेकिन यही तय नहीं हो पाया कि इसमें पानी कहां से आएगा।

दरअसल, इस तरह मिशन को लागू करने से पहले भूजल रिचार्ज के तरीके अख्तियार किए जाने चाहिए थे जो किए ही नहीं गए हैं। दूसरा, घर में नल आने के बाद वहां से निकलने वाले गंदे पानी के कुशल निबटान और उनके पुनर्चक्रण (रीसाइक्लिंग) की योजना नहीं बनी। भूजल ऐसा संसाधन है जो यदि दूषित  हो जाए तो उसका निदान बहुत कठिन होता है। तीसरा, देश के अधिकांश हिस्से में जिसे भूजल मानकर हैंडपंप रोपे जाते हैं, वह असल में जमीन की अल्प गहराई में एकत्र बरसात का रिसाव होता है जो गरमी आते-आते समाप्त हो जाता है। जाहिर है, जब तक जल संचलन की स्थानीय प्रणाली विकसित नहीं होती, जब तक बरसात की हर बूंद को स्थानीय पारंपरिक पद्धतियों से सहेजने के यत्न नहीं किए जाते, तब तक हर घर नल से पानी का सपना साकार नहीं हो सकता। 

न्यूनतम बरसात की दशा  में भी प्रकृति हमें इतना पानी देती है कि सलीके से खर्च किया जाए तो पूरे साल हर इंसान की जरूरत को आसानी से पूरा किया जा सकता है। नदी में 365 दिन अविरल धारा बहती रहे, तालाब में लबालब पानी रहे, तो उसके करीब के कुओं से पंप लगाकर पूरे साल घरों तक पानी भेजा जा सकता है। ओवरहेड टैंक या ऊंची पानी की टंकी बना कर उसमें अधिक बिजली लगाकर पानी भरने और फिर बिजली पंप से दवाब से घर तक पानी भेजने से बेहतर और किफायती होगा कि हर मुहल्ला-पुरवा में ऐसे कुएं विकसित किए जाएं जो तालाब, झील, जोहड़, नदी के करीब हों और उनमें साल भर पानी रहे। एक कुएं से 75 से 100 घरों को पानी सप्लाई का लक्ष्य रखा जाए, तब ही मिशन सफल हो सकता है। सबसे बड़ी त्रासदी यही है कि जिला स्तर पर जितना उत्साह  टंकी बनाने या पाइप डालने में दिखाया जाता  है, उसमें पानी कहां से आएगा, उस पर विचार ही नहीं होता। और जब दवाब आता है तो फटाफट भूजल से टंकी जोड़कर  कागजी खाना पूरी कर ली जाती है।

इसे जाम्बा के उदाहरण से समझा जा सकता है। करनाल से कैथल जाने वाले मुख्य मार्ग पर यह एक संपन्न गांव है। यहां की आबादी लगभग 1,250 की है। यहां 242 घर हैं और सभी पक्के हैं। यहां ‘हर घर जल’ योजना के तहत हर घर तक पानी की लाईन डली है। हरियाणा के जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग ने एक ट्यूबवेल लगा रखा है जिस पर 25 हॉर्स पावर की मोटर है। एक कर्मचारी सुबह-शाम एक-एक घंटा इसे चलाकर घरों तक पानी पहुंचाता है। पानी को क्लोरीन से शुद्ध  किया जाता है। सरकार इसके लिए महज चालीस रुपये महीना लेती है और वह भी कई ग्रामीण चुकाते नहीं। जब मैंने गांव वालां से पूछा कि क्या वे जल आपूर्ति से संतुष्ट हैं, तो बहुत से लोगों का कहना था कि पानी कम आता है। दिन में दो घंटे मोटर चलने से आठ लोगों के एक परिवार के पीने, रसोई, नहाने का पानी पर्याप्त पहुंच जाता है। लगभग हर घर में मवेशी पले हैं और ग्रामीण चाहते हैं कि ढोर के नहलाने का पानी भी नल से ही आए। हरियाणा का कैथल जिला पंजाब के पटियाला से सटा हुआ है। जिले की समृद्धि का दारोमदार खेती-किसानी को है। जब से यहां धान उगाया जाने लगा, किसानों ने जमकर भूजल उलीचा और आज यह जिला पाताल में पानी के मामले में काली सूची में है, अर्थात अब यहां का सारा पानी चुक गया है। यह पूरी सरकारी योजना जिस भूजल  पर टिकी है, असल में वह किसी भी दिन धोखा दे सकती है। 

यही हाल बिहार का है। हर जिले में जलस्तर आधा से एक मीटर नीचे चला गया है। सिवान जिले के बड़हरिया प्रखंड के कैल पंचायत के शिवधरहाता, नहीबाता, चुल्हाईहाता और मुसेहरी-जैसे कई गांव हैं जहां पाइप तो बिछा दी गई लेकिन नल किसी के दरवाजे पर नहीं दिखता। किसी गांव में नल लग भी गया तो जल आज तक नहीं आया। कुछ जगहों पर बोरिंग होते ही ट्यूबवेल फेल हो गया। इसी तरह छत्तीसगढ़ के कोरबा जिले में मई में भूजल स्रोत में गिरावट आ रही है। कई स्थानों पर 16 से 20 मीटर तक भू-जल स्तर गिर गया है जिससे 82 में से 30 नल जल योजना बंद पड़े हैं। जो चालू है, उसमें भी नियमित पानी नहीं आ रहा है।

इसी से समझा जा सकता है कि खतरा कितना बड़ा है।

Do not burn dry leaves

  न जलाएं सूखी पत्तियां पंकज चतुर्वेदी जो समाज अभी कुछ महीनों पहले हवा की गुणवत्ता खराब होने के लिए हरियाणा-पंजाब के किसानों को पराली जल...