My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

शुक्रवार, 28 अगस्त 2020

NationL SPORTS DAY - Catch them young but when

 लड़कियों के खेल को हौसले व प्रात्साहन की जरूरत 
बाजार में खेल-खेल का बाजार 
पंकज चतुर्वेदी



 बात  सन 2016 की यानी चार साल पहले की है,  ओलंपिक से जीत हासिल करने के बाद जिस समय पूरा देश बेडमिंटन खिलाड़ी पीवी सिंधु पर चार करोड़ रूपए व ढेर सारा प्यार लुटा रहा था, तभी पटियाला की खेल अकादेमी की एक हेड बाल खिलाडी पूजा के लिए महज 3750 रूपए बतौर होस्टल की फीस ना चुका पाने का दर्द असहनीय हो गया था और उसने आत्महत्या कर ली थी। ठीक उन्हीं दिनों विभिन्न राज्य सरकारों की तर्ज पर मध्यप्रदेश षासन कुश्ती में देश का नाम रोशन करने वाली साक्षी मलिक को दस लाख रूपए देने की घोशणा कर रहा था, तभी उसी राज्य के मंदसौर से एक एक ऐसी बच्ची का कहानी मीडिया में तैर रही थी जो कि दो बार प्रदेश की हॉकी टीम में स्थान बना कर नेशनल खेल चुकी है, लेकिन उसे अपना पेट पालने के लिए दूसरों के घर पर बरतन मांजने पड़ते हैं। यही नहीं छह गोल्ड मैडल लेकर इतिहास रचने वाली उड़नपरी हिमादास को 50 हजार रुपये केंद्र सरकार से,और एक लाख रुपये असम सरकार ने दिये हैं, अब 2020 खेल पुरस्कार मे भी नाम नही है। सफल खिलाड़ी व संघर्शरत या प्रतिभावान खिलाड़ी के बीच की इस असीम दूरी की कई घटनाएं आए रोज आती है, जब किसी अंतरराश्ट्रीय स्पर्धा में हम अच्छा नहीं करते तो कुछ व्यंग्य, कुछ कटाक्ष, कुछ नसीहतें, कुछ बिसरा दिए गए खिलाड़ियों के किस्से बामुश्किल एक सप्ताह सुर्खियों में रहते हैं। उसके बाद वही संकल्प दुहराया जाता है कि ‘‘कैच देम यंग’’ और फिर वही खेल का ‘खेल’ षुरू हो जाता है। 



भारतीय महिला हॉकी टीम की कप्तान व स्टार खिलाड़ी रानी रामपाल को हरियाणा पुलिस में नौकरी मिल गई तो उसी हरियाणा की सविता पुनिया को अर्जुन अवार्ड तो मिला, हॉकी में गोल रक्षक के रूप में पहचान भी मिली लेकिन तीस साल की उम्र तक नौकरी नहीं मिली, यहां तक की खेल प्राधिकरण में कोच की भी नहीं। बबिता फोगट को पुलिस में सीधे डीएसपी बना दिया गया लेकिन आठ साल तक कुश्ती की राज्य चैंपियन और 2009 के नेशनल गेम्स में कांस्य पदक विजेता रही बिहार के पंडारक(पटना) की कौशल नट को पेट पालने के लिए दूसरे के खेतों में नौकरी करनी पड़ रही है। यही हाल कैमूर की पूनम यादव का है, उन्होंने कुश्ती में चार बार बिहार का प्रतिनिध्त्वि कियाथा और आज खेत-मजदूर हैं। नरकटियागंज(पश्चिम चंपारण) की सोनी पासवान तो अभी देश की अंडर 14 फुटबाल टीम की कैप्टन हैंलेकिन वे आज भी एक झुग्गी में रहती हैं जहां षौचालय भी नहीं। 

एरिक 1948 में लंदन ओलंपिक में भारत की तरफ से 100 मीटर फर्राटा दौड़ में हिस्सा लिया था। उन्होंने 11.00 सेकेंड का समय निकाला और क्वार्टर फाइनल तक पहुंचे। महज षुरू दशमलव तीन संेकड से वे पदक के लिए रह गए थे। हालांकि  सन 1944 में वे 100 मीटर के लिए 10.8 सेकंड का बड़ा रिकार्ड बना चुके थे। वे सन 1942 से 48 तक लगातार छह साल 100 व 400 मीटर दौड के राश्ट्रीय चेंपियन रहे थे।  उनकी किताब  ‘द वे टु एथलेटिक्स गोल्ड’ हिंदी व कई अन्य भारतीय भाशाओं में उपलब्ध है। काश हमारे महिला खेलों के जिम्मेदार अफसर इस पुस्तक को पढ़ते। इसमें बहुत बारीकी से और वैज्ञानिक तरीके से समझाया है कि भारत में किस तरह से सफल एथलीट तैयार किये जा सकते हैं। उन्होंने इसमें भौगोलिक स्थिति, खानपान चोटों से बचने आदि के बारे में भी अच्छी तरह से बताया है। पीटी उशा का उदाहरण इसमें प्रेरणादायक है कि किस तरह समुद्र केकिनारे रहने व वहां प्रेक्टिस करने से उनकी क्षमता वृद्धि हुई थी। यदि यह पुस्तक हर महिला खिलाड़ी, हर कोच, प्रत्येक खेल संघ के सदस्यों को पढने और उस पर ईमादारी से मनन करने को दी जाए तो परिणाम अच्छे निकलेंगे। 

कुछ दशक पहले तक स्कूलों में राश्ट्रीय खेल प्रतिभा खोज जैसे आयोजन होते थे जिसमें दौड, लंबी कूद, चक्का फैक जैसी प्रतियोगिताओं में बच्चों को प्रमाण पत्र व ‘सितारे’ मिलते थे। वे प्रतियोगिताएं स्कूल स्तर, फिर जिला स्तर और उसके बाद राश्ट्रीय स्तर तक होती थीं। तब निजी स्कूल हुआ नहीं करते थे या बहुत कम थे और कई बार स्कूली स्तर पर राश्ट्रीय रिकार्ड के करीब पहुंचने वाली प्रतिभाएं भी सामने आती थीं। जिनमें से कई आगे जाते थे। ऐसी प्रतिभा खेाज की नियमित पद्धति अब हमारे यहां बची नहीं है। कालेज स्तर की प्रतियोगिताओं में जरूर ऐसे चयन की संभावना है, लेकिन चीन, जापान के अनुभव बानगी हैं कि ‘‘केच देम यंग’’ का अर्थ है कि सात-आठ साल से कड़ा परिश्रम, सपनों का रंग और तकनीक सिखाना। चीन की राजधानी पेईचिंग में ओलंपिक के लिए बनाया गया ‘बर्डनेस्ट स्टेडियम’ का बाहरी हिस्सा पर्यटकों के लिए है लेकिन उसके भीतर सुबह छह बजे से आठ से दस साल की बच्चियां दिख जाती है। वहां स्कूलों में खिलाड़ी बच्चों के लिए शिक्षा की अलग व्यवस्था होती है, तोकि उन पर परीक्षा जैसा दवाब ना हो। जबकि दिल्ली में स्टेडियम में सरकारी कार्यालय व सचिवालय चलते हैं। कहीं षादियां होती हैं। महानगरों के सुरसामुखी विस्तार, नगरों के महानगर बनने की लालसा, कस्बों के षहर बनने की दौड़ और गांवों के कस्बे बनने की होड़ में मैदान, तालाब, नदी बच नहीं रहे हैं । 

यदि खिलाड़ियों को लंबे समय तक मैदान में रखना है तो जरूरी है कि देश की युवा नीति को भी खेलोन्मुखी बनाया जाए। क्षेत्रीय, प्रांतीय व राष्ट्रीय स्तर पर युवा कल्याण की कुछ सरकारी योजनाओं की चर्चा यदा-कदा होती रहती है । अतंरराष्ट्रीय युवा उत्सवों में शिरकत के नाम पर मंत्रियों की सिफारिशों से ‘फन’ या मौज मस्ती । ‘यूथ हास्टल’ यानि सुविधा संपन्न वर्ग के ऐश का अड्डा । या फिर स्पोर्ट सेंटर, पत्र पत्रिकाएं , रेडियो-टेलीविजन, सैर सिनेमा, चटक-मटक जिंदगी, - लेकिन ग्रामीण युवा इन सभी से कोसों दूर है । कभी युवाओं के लिए चौपाल हुआ करते थे और पंचायत घर में कुछ पठन-सामग्री मिल जाया करती थी । लेकिन अब इन दोनो स्थानों पर काबिज है गंदी राजनीति के परजीवी ।

अब समाज को ही अपनी खेल प्रतिभाओं को तलाशने, तराशने का काम अपने जिम्मे लेना होगा। किस इलाके की जलवायु कैसी है और वहां किस तरह के खिलाड़ी तैयार हो सकते हैंं, इस पर वैज्ञानिक तरीके से काम हो। जैसे कि समुंद के किनारे वाले इलाकों में दौड़ने का स्वाभाविक प्रभाव होता हे। पूर्वोत्तर में षरीर का लचीलापन है तो वहां जिम्नास्टिक, मुक्केबाजी पर काम हो। झाारखंड व पंजाब में हाकी। ऐसे ही इलाकों का नक्शा बना कर लड़कियों की प्रतिभाओं को उभारने का काम हो। जिला स्तर पर समाज के लेागों की समितियां, स्थानीय व्यापारी और खेल प्रेमी ऐसे खिलाड़ियों  को तलाशंे। इंटरनेट की मदद से उनके रिकार्ड को आंकड़ों के साथ प्रचारित करें। हर जिला स्तर पर अच्छे एथलेटिक्स के नाम सामने होना चाहिए। वे किन प्रतिस्पर्दाओं में जाएं उसकी जानकारी व तैयारी का जिम्मा जिला खेल कमेटियों का हो। बच्चों को संतुलित आहार, ख्ेालने का माहौल, उपकरण मिले,ं इसकी पारदर्शी व्यवस्था हो और उसमें स्थानीय व्यापार समूहों से सहयोग लिया जाए। सरकार किसी के दरवाजे जाने से रही, लेागों को ही ऐसे लेागों को षासकीय योजनाओं का लाभ दिलवाने के प्रयास करने होंगे। सबसे बड़ी बात जहां कहीं भी बाल प्रतिभा की अनदेखाी या दुभात होती दिखे, उसके खिलाफ जोर से आवाज उठानी होगी। 





गुरुवार, 27 अगस्त 2020

Sallow river can not bear boon of Nature

 सिमटती नदियों में कैसे समायेगा सावन-भादौ

पंकज चतुर्वेदी


सावन तो सामान्य ही था फिर भादो  जो झमक कर बरसा तो एक-एक बूंद पानी के लिए तरसने वाला देश प्रकृति की इस अनमोल देन को आफत कहने लगा। घर-गांव- बस्ती में पानी से लबा-लब हो गए। सभी जानते हैं कि बरसात की ये बूंदे सारे साल के लिए यदि सहेज कर नहीं रखीं तो सूखे-अकाल की संभावना बनी रहती है। हर बूंद को सहेजने के लिए हमारे पास छोटी-बड़ी नदियों का जाल है। तपती धरती के लिए बारिश अकेले पानी की बूंदों से महज ठंडक ही नहीं ले कर आती  हैं, यह समृद्धि, संपन्नता की दस्तक भी होती है। लेकिन यह भी हमारे लिए चेतावनी है कि यदि बरसात वास्तव में औसत से छह फीसदी ज्यादा हो गई तो हमारी नदिया में इतनी जगह नहीं है कि वह उफान को सहेज पाए, नतीजतन बाढ और तबाही के मंजर उतने ही भयावह हो सकते हैं जितने कि पानी के लिए तडपते-परसते बुंदेलखंड या मराठवाड़ा के। सन 2015 की मद्रास में बाढ़ बानगी है कि किस तरह षहर के बीच से बहने वाली नदियों को जब समाज ने उथला बनाया तो पानी उनके घरों में घुस गया था। बंबई तो हर साल अनी चा नदियों को लुप्त करने का पाप भोगती है। दूर भारत की बात क्या की जाए, दिल्ली राजधानी में यमुना नदी टनों मलवा उड़ेल देने के कारण  उथली हो गई है। एनजीटी ने दिल्ली मेट्रो सहित कई महकमों को चेताया भी इसके बावजूद निर्माण से निकली मिट्टी व मलवे को यमुना नदी में खपाना आम बात हो गई है।



यह सर्वविदित है कि पूरे देश में कूड़ा बढ़ रहा है और कूड़े के खपाने के स्थान सिमट रहे हैं। विडंबना है कि चलती ट्रैन से पैन्ट्री के कूड़े से ले कर स्थानीय निकाय भी अपने कूड़ा वाहनों को अपने शहर-गांव की नदियों में ढकेलने से बाज नहीं आ रहे हैं। इसका ही कुप्रभाव है कि नदियां मर रही हैं और उथली हो रही हैं। नदियों के सामने खड़े हो रहे संकट ने मानवता के लिए भी चेतावनी का बिगुल बजा दिया है, जाहिर है कि बगैर जल के जीवन की कल्पना संभव नहीं है। हमारी नदियों के सामने मूलरूप से तीन तरह के संकट हैं - पानी की कमी, मिट्टी का आधिक्य और प्रदूशण।

धरती के तापमान में हो रही बढ़ौतरी के चलते मौसम में बदलाव  हो रहा है और इसी का परिणाम है कि या तो बारिश अनियमित हो रही है या फिर बेहद कम।  मानसून के तीन महीनों में बामुश्किल चालीस दिन पानी बरसना या फिर एक सप्ताह में ही अंधाधंुध बारिश हो जाना या फिर बेहद कम बरसना, ये सभी परिस्थितियां नदियों के लिए अस्तित्व का संकट पैदा कर रही हैं। बड़ी नदियों में ब्रह्मपुत्र, गंगा, महानदी और ब्राह्मणी के रास्तों में पानी खूब बरसता है और इनमें न्यूनतम बहाव 4.7 लाख घनमीटर प्रति वर्गकिलोमीटर होता है। वहीं कृश्णा, सिंधु, तापी, नर्मदा और गोदावरी का पथ कम वर्शा वाला है सो इसमें जल बहाव 2.6 लख घनमीटर प्रति वर्गकिमी ही रहता है। कावेरी, पेन्नार, माही और साबरमति में तो बहाव 0.6 लाख घनमीटर ही रह जाता है। सिंचाई व अन्य कार्यों के लिए नदियों के अधिक दोहन, बांध आदि के कारण नदियों के प्राकृतिक स्वरूपों के साथ भी छेड़छाड़ हुई व इसके चलते नदियों में पानी कम हो रहा है। भारतीय नदियों के मार्ग से हर साल 1645 घन किलोलीटर पानी बहता है जो सारी दुनिया की कुल नदियों का 4.445 प्रतिशत है।  आंकडों के आधार पर हम पानी के मामले में पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा समृद्ध हैं, लेकिन चिंता का विशय यह है कि पूरे पानी का कोई 85 फीसदी बारिश के तीन महीनों में समुद्र की ओर बह जाता है और नदियां सूखी रह जाती हैं। 



नदियां अपने साथ अपने रास्ते की मिट्टी, चट्टानों के टुकड़े व बहुत सा खनिज बहा कर लाती हैं। पहाड़ी व नदियों के मार्ग पर अंधाधंुध जंगल कटाई, खनन, पहाड़ों को काटने, विस्फोटकों के इस्तेमाल आदि के चलते थेाडी सी बारिश में ही बहुत सा मलवा बह कर नदियों में गिर जाता है। परिणामस्वरूप नदियां उथली हो रही हैं, उनके रास्ते बदल रहे हैं और थोड़ा सा पानी आने पर ही वे बाढ़ का रूप ले लेती हैं। यह भी खतरनाक है कि सरकार व समाज इंतजार करता है कि नदी सूखे व हम उसकी छोड़ी हुई जमीन पर कब्जा कर लें। इससे नदियांे के पाट संकरे हो रहे हैं उसके करीब बसावट बढ़ने से प्रदूशण की मात्रा बढ़ रही है। कल-कारखानों की निकासी, घरों की गंदगी, खेतों में मिलाए जा रहे रायायनिक दवा व खादों का हिस्सा, भूमि कटाव, और भी कई ऐसे कारक हैं जो नदी के जल को जहर बना रहे हैं। अनुमान है कि जितने जल का उपयोग किया जाता है, उसके मात्र 20 प्रतिशत की ही खपत होती है, षेश 80 फीसदी सारा कचरा समेटे बाहर आ जाता है। भले ही हम कारखानों को दोशी बताएं, लेकिन नदियों की गंदगी का तीन चौथाई  हिस्सा घरेलू मल-जल ही है। 



आज देश की 70 फीसदी नदियां प्रदूषित हैं और मरने के कगार पर हैं। इनमें गुजरात की अमलाखेडी, साबरमती और खारी, हरियाणा की मारकंडा, मप्र की खान, उप्र की काली और हिंडन, आंध्र की मुंसी, दिल्ली में यमुना और महाराष्ट्र की भीमा मिलाकर 10 नदियां सबसे ज्यादा प्रदूषित हैं। हालत यह है कि देश की 27 नदियां नदी के मानक में भी रखने लायक नहीं बची हैं। वैसे गंगा हो या यमुना, गोमती, नर्मदा, ताप्ती, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, महानदी, ब्रह्मपुत्र, झेलम, सतलुज, चिनाव, रावी, व्यास, पार्वती, हरदा, कोसी, गंडगोला, मसैहा, वरुणा हो या बेतवा, ढौंक, डेकन, डागरा, रमजान, दामोदर, सुवणर्रेखा, सरयू हो या रामगंगा, गौला हो या सरसिया, पुनपुन, बूढ़ी गंडक हो या गंडक, कमला हो या फिर सोन हो या भगीरथी या फिर इनकी सहायक, कमोेबेश सभी प्रदूषित हैं और अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही हैं। दरअसल पिछले 50 बरसों में अनियंत्रित विकास और औद्योगीकरण के कारण प्रकृति के तरल स्नेह को संसाधन के रूप में देखा जाने लगा, श्रद्धा-भावना का लोप हुआ और उपभोग की वृत्ति बढ़ती चली गई। चंूकि नदी से जंगल, पहाड़, किनारे, वन्य जीव, पक्षी और जन जीवन गहरे तक जुड़ा है, इसलिए जब नदी पर संकट आया, तब उससे जुड़े सभी सजीव-निर्जीव प्रभावित हुए बिना न रहे और उनके अस्तित्व पर भी। जान कर आश्चर्य होगा कि नदियों की मुक्ति का एक कानून गत 64 सालों से किसी लाल बस्ते में बंद है। संसद ने सन 1956 में रिवर बोर्ड एक्ट पारित किया था। इस एक्ट की धारा चार में प्रावधन है कि केंद्र सरकार  एक से अधिक राज्यों में बहने वाली नदियों के लिए राज्यों से परामर्श कर बोर्ड बना सकती हे। इन बोर्ड के पास बेहद ताकतवर कानून का प्रावधान इस एक्ट में है, जैसे कि जलापूर्ति, प्रदूषण आदि के स्वयं दिशा निर्देश तैयार, नदियों के किनारे हरियाली , बेसिन निर्माण और योजनओं के क्रियान्वयन की निगरानी आदि करना।  नदियों के संरक्षण का इतना बड़ा कानून उपलब्ध है लेकिन आज तक किसी भी नदी के लिए रिवर र्बोउ बनया ही नहीं गया। संविधान के कार्यों की समीक्षा के लिए गठित वैंकटचलैया आयायेग ने तो अपनी रिपोर्ट में इसे एक ‘मृत कानून’ करार दिया था। द्वितीय प्रशासनीक सुधार आयोग ने भी कई विकसित देशों का उदाहरण देते हुए इस अधिनियम को गंभीरता से लागू करने की सिफारिश की थी। यह बानगी है कि हमारा समजा अपनी नदिंया के लिए अस्तित्व के प्रति कितना लापरवाह है ।


 

दुर्भाग्य है कि विभिन्न कारणो से नदियों के उथला होने, उनकी जल-ग्रहण क्षमता कम होने और प्रदूशण बढ़ने से सामान्य बरसात का पानी भी उसमें समा नहीं रहा है और जो पानी जीवनदायी है, वह  आम लोगों के लिए त्रासदी बन रहा है। यही नहीं एक महीने बाद ही ये लेाग फिर पानी को तरसेंगें। 



सोमवार, 24 अगस्त 2020

Why Indore is so clean but Patna on tail

 

स्वच्छता सर्वे : पटना फिसड्डी तो इंदौर अव्वल कैसे?


स्वच्छता सर्वेक्षण में मध्य प्रदेश का इंदौर लगातार चौथे साल अवल रहा तो दस लाख से ज्यादा आबादी वाले 47 शहरों में बिहार की राजधानी पटना का नाम सबसे अंत में था।


यदि इंदौर को बारीकी से देखें तो स्पट हो जाएगा कि जब तक किसी शहर के लोगों में स्थानीयता पर गर्व का भाव नहीं होता, तब तक उसकी देखभाल का स्व:स्फरूत संकल्प उभरता नहीं है।
प्रशासनिक प्रयास अपनी जगह, लेकिन जब  निवासी खुद ठान लेते हैं तभी स्वच्छता जैसा कार्य कोई बंधन नहीं, कर्तव्य बन जाता है। हालांकि पटना ने देश के कुल 4242 शहरों के स्वच्छता सर्वे में पिछली बार के 318वें स्थान से 105 वें पर छलांग लगाई है, लेकिन गौर करना होगा कि बिहार की राजधानी को स्वच्छता रैंकिग की अंकतालिका में 6000 में से मात्र 1552.11 अंक ही मिले। एक तो इस शहर का ओडीएफ अर्थात खुले में शौच मुक्ति प्रमाणित नहीं हो पाया, दूसरा यहां कचरा प्रबंधन बदतर हालत में है। पिछले दिनों एक सांसद महाकाल मंदिर के दर्शन करने के लिए इंदौर एयरपोर्ट पर उतरे और बाहर निकलते ही उन्होंने अपने बैग पर लगा टैग फाड़ कर फेंक दिया। उनकी टैक्सी का ड्राइवर तत्काल लपका, कागज उठाया व कूड़ेदान में डाल दिया।

इंदौर में भी 2015 तक बीते 60 साल से जमा कोई 15 लाख टन कूड़े के ढेर जमा थे। आज कोई भी ढेर बकाया नहीं, सारे कूड़े को मिट्टी में बदल दिया गया। यहां भी खुले में शौच की मजबूरी या आदत थी। जगह-जगह साफ-सुथरे सार्वजनिक शौचालयों ने लोगों की यह आदत बदली। एक तो यहां लोगों को जागरूक करने में समाज सफल रहा, फिर अधिकारियों ने भी जासूस जैसा काम किया। यदि कहीं कूड़ा पड़ा मिल जाए तो कलेक्टर स्तर के अधिकारी खुद खोजते थे कि यह है कहां का? एक कूड़े को उसमें पड़े टिशु पेपर से पहचाना व उस होटल पर पचास हजार का जुर्माना किया गया, जिसका नाम उस टिशु पेपर पर छपा था। इंदौर में कूड़े का निस्तारण खर्चीला नहीं बल्कि आय का साधन बन गया है। आम लोग तो गीला व सूख कूड़ा अलग करते ही हैं ,यहां मशीनों से 12 किस्म के कूड़े को छांटा जाता है।  इस कूड़े से ईटें व  इंटरलाकिंग टाइल्स, कंपोस्ट खाद आदि बनाया जा रहा है, जिससे निगम को आय हो रही है। इस धन का इस्तेमाल सार्वजनिक शौचालयों के रखरखाव व हरियाली के विस्तार में किया जा रहा है। जहां तक पटना की बात है; उसके लिए पिछले साल महानगर में आई बाढ़ बानगी है। स्मार्ट सिटी परियोजना में शामिल लगभग 109 वर्ग किलोमटर में फैले पटना शहर की कुल धरती का साठ प्रतिशत आवासीय क्षेत्र है। यहां हर दिन लगभग एक हजार मीट्रिक टन कूड़ा पैदा होता है और नगर निगम की अधिकतम हैसियत बामुश्किल 600 मीट्रिक टन कूड़ा उठाने या उसका निबटारा करने की है। यह भी दुखद है कि निबटारे के नाम पर नदी के किनारे या उसकी जल धारा में उसे प्रवाहित कर देने का अघोषित काम तो गंगा को उथला बना ही रहा था, हर दिन औसतन 400 मीट्रिक टन कूड़ा शहर की नालियों, ड्रैन, सीवर में जज्ब कर दिया जाता था। उधर शहर के अशोधित गंदे पानी  के 33 नाले गंगा में गिरते हैं। पिछले साल बरसात हुई तो कूड़े से भरे नाले व सीवर उफन गए। जब शहर में पानी भरने लगा तो कोशिश हुई कि ड्रैनेज को हाई कंप्रेशर से साफ करवाएं ताकि पानी की निकासी सुचारू हो। विडंबना कि नगर निगम के पास शहर की नालियों के नेटवर्क का नक्शा सन 2017 में  गुम हो गया था। पटना शहर से कचरा उठाने व निस्तारण के लिए सन 2009 से तीन कंपनियां हाथ आजमा चुकी हैं।
इस समय एक अमेरिकी कंपनी के पास इसका ठेका है। इसे रामचक बेरिया में कई एकड़ का डंपिंग मैदान दिया गया है, जहां दूर-दूर तक बदबू और बेतरतीब कूड़ा फैला दिखता है। हालांकि इस कंपनी का भी कूड़े से बिजली बनाने व कूड़े को मिट्टी में बदल देने की तकनीक का वायदा है, लेकिन अभी तक जमीन पर कुछ होता दिखा नहीं। यह दुखद है कि पटना में अभी तक गीला व सूखा कचरा अलग-अलग एकत्र नहीं हो पा रहा है। इसके लिए आम लोगों में जागरूकता का बहुत अभाव है।  कभी यहां दो रंग के डस्ट बीन लगाए गए थे जो अब नदारद हैं। सबसे बुरी हलात तो सार्वजनिक शौचालयों की है, जो या तो टूटे हैं या पर्याप्त जल-प्रबंधन ना होने के कारण गंदे। पटना को इंदौर बनने के लिए सबसे पहले स्थानीयता पर गर्व व संरक्षण करने का भाव पैदा करना होगा इसमें लेखक, कलाकार, शिक्षक व समाज के सभी प्रबुद्ध वर्ग को काम करना होगा। जब जनता जागरूक होगी तो स्थानीय निकाय को मजबूरी में स्वच्छता योजनाओं को कागजों से क्रियान्वयन के कैनवास पर लाना ही होगा।

शुक्रवार, 21 अगस्त 2020

Teachers has to be technical trained

 हमें चाहिए नए जमाने के शिक्षक

                                                                        पंकज चतुर्वेदी 



कोरोना संकट के दौरान स्कूली शिक्षा को ले कर भारत में एक नई बहस खड़ी हुई- क्या डिजिटल प्लेटफार्म की कक्षाएं , आस्तविक क्लासरूम का विकल्प हो सकती हैं? अब इसे मजबूरी समझें या अनिवार्यता कोरोना से बचाव के एकमात्र उपाय - ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ के साथ यदि बच्चों को पढ़ाई से जोड़ कर रखना है तो फिलहाल घर बैठे मोबाईल या कंपल्यूटर पर कक्षाएं ही विकल्प हैं। नई शिक्षा नीति के दस्तावेज में तो  कम व्यय में अधिक छात्रों तक प्रभावी तरीके से पहुंचने के लिए ई लर्निंग पर अधिक जोर दिया गया है। उधर दिल्ली से सटे महानगर नोएडा के सरकार स्कूलों में 42 ऐसे शिक्षक हैं जिन्हें दो बार प्रशिक्षण दिया लेकिन वे अभी भी आनलाईन नहीं पढ़ा पा रहे हैं। 

इसमें कोई षक नहीं कि पढ़ाने का यह नया अंदाज फिलहाल षहरी, सक्षम आर्थिक स्थिति वाले और अधिकांश निजी विद्यालय के बच्चों तक ही सीमित है, लेकिन बारिकी से गौर करंे तो यह भविश्य के विद्यालय की परिकल्पना भी है। दूरस्थ अंचलों तक षालाभवन बनवाने, वहां शिक्षकों की नियमित हाजिरी सुनिश्चित करने,  स्कल भवनों में मूलभूत सुविधांए एकत्र करने , हमारे देश के विशम मौसमी हालातों में स्कूल संचालित करने जैसी कई चुनौतियों को जोड़ लें तो एक बच्चे तक गजट पहुंचाने और उसकी मनमर्जी की जगह पर बैठ कर सीखने की प्रक्रिया पूरी करने का कार्य ना केवल प्रभावी लगता है, बल्कि आर्थिक रूप से भी कम खर्चीला है। 

जिस देश में मोबाईल कनेक्शन की संख्या देश की कुल आबादी के लगभग करीब पहुंच रही हो, जहां किशोर ही नहीं 12 साल के बच्चे के लिए मोबाईल स्कूली-बस्ते की तरह अनिवार्य बनता जा रहा है, वहां बच्चों को डिजिटल साक्षरता, जिज्ञासा, सृजनशीलता, पहल और सामाजिक कौशलों की ज़रूरत । हालांकि यह भी सच है कि स्कूल में बच्चों को मोबाईल का इस्तेमाल शिक्षा के राते में बाधक माना जाता है, परिवार भी बच्चों को अनचाहे तरीके से कड़ी निगरानी(जहां तक संभव हो) के बीच मोबाईल थमाते हैं। वास्तविकता यह है कि सस्ते डाटा के साथ हाथों में बढ़ रहे मोबाईल का सही तरीके से इस्तेमाल खुद को शिक्षक कहने वालों के लिए एक खतरा सरीखा है। हमारे यहां बच्चों को मोबाईल के सटीक इस्तेमाल का कोई पाठ किताबांें में हैं ही नहीं। 


भारत में शिक्षा का अधिकार  व कई अन्य कानूनों के जरिये बच्चों के स्कूल में पंजीयन का आंकड़ा और साक्षरता दर में वृद्धि निश्चित ही उत्साहवर्धक है लेकिन जब गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की बात आती है तो यह आंकड़ा हमें शर्माने को मजबूर करता है कि हमारे यहां आज भी 10 लाख शिक्षकों की कमी है। यदि इस नई फौज का प्रशिक्षण महज दूरस्थ शिक्षा के लिए किया जाए तो देश में प्राथमिक शिक्षा की तस्वीर को बदला जा सकता है।

आज स्कूली बच्चे को मिडडे मील लेना हो या फिर वजीफा हर जगह डिजिटल साक्षरता की जरूरत महसूस हो रही है।  हम पुस्तकों में पढ़ाते हैं कि गाय रंभाती है या शेर दहाड़ता है। कोई भी शिक्षक यह सब अब मोबाईल पर सहजता से बच्चों को दिखा कर  अपने पाठ को कम शब्दों में सहजता से समझा सकता है। मोबाईल पर सर्च इंजन का इस्तेमाल, वेबसाईट पर उपलब्ध सामग्री में यह चीन्हना कि कोैन सी पुष्ट-तथ्य वाली नहीं है,  अपने पाठ में पढ़ाए जा रहे स्थान, ध्वनि, रंग , आकृति को तलाशना व बूझना प्राथमिक शिक्षा में शमिल होना चाहिए। किसी दृश्य को  चित्र या वीडिया के रूप में सुरक्षित रखना एक कला के साथ-साथ सतर्कता का भी पाठ है। मैंने अपने रास्ते में कठफोडवा देखा, यह जंगल महकमे के लिए सूचना हो सकती है कि हमारे यहां यह पक्षी भी आ गया है। साथ ही आवाजों को रिकार्ड करना, भी महत्वूपर्ण कार्य है। 

दुखद है कि जब डिजिटल गजेट्स हमारे लेन-देन, व्यापार, परिवहन, यहां तक कि अपनी पहचान के लिए अनिवार्य होते जा रहे हैं हम बच्चों को वहीं घिसे-पिटे विषयों पर ना केवल पढ़ा रहे हैं, बल्कि रटवा रहे हैं। हाथ व समाज में गहरे तक घुस गए मोबाईल का इस्तेमाल छोटेपन से ही सही तरीके से ना सिखा पाने का ही कुपरिणाम है कि बच्चे पोर्न, अपराध देखने के लिए इस ज्ञान के भंडार का इस्तेमाल कर रहे हैं। यूट्यूब ऐसे वीडियो से पटी पड़ी  है जिनमें सुदूर गांव-देहात में किन्हीं लड़के-लड़कियों के मिलन के दृश्य होते हैं।  काश अपने पाठ के एक हिस्से से संबंधित फिल्म बनाने जैसा कोई अभ्यास इन बच्चों के सामने होता तो वे काले अक्ष्रों में छपी अपनी पाठ्य पुस्तक को दृश्य-श्रव्य से सहजता से प्रस्तुत करते। जान लें इस यंत्र को जागरूकता के लिए इस्तेमाल करने का प्रारंभ स्कूली स्तर से ही होना है। 

हमारे शिक्षक आज भी बीएड, एलटी या बीएलएड पाठ्यक्रमांे को उर्त्तीण कर आ रहे है जहां कागज के चार्ट, थर्माकोल के मॉडल या बेकार पड़ी माचिस, आईसक्रीम की डंडी से कुछ बना कर बच्चों को विषय समझाने की प्रक्रिया से गुणवत्ता का निर्धारण होता है। रंग और परिकल्पना के क्षेत्र में वैचारिक रूप से कंगाल हो रहे बच्चों को नकल या नदी-झोपड़ी-पहाड़ वाली सीनरी खींचने से उबारने के लिए शिक्षकों को नई तकनीक का सहरा लेना होगा। एक मोटा अनुमान है कि अभी हमें ऐसे कोई साढ़े छह लाख शिक्षक चाहिए जो कि सूचना-विस्फोट के युग में तेजी से किशोर हो रहे बच्चों में शिक्षा की उदासी व उबासी दूर कर, नए तरीके से , नई दुनिया की समझ विकसित करने में सहायक हों। यह भी  कुटु सत्य है कि अभी इस तरह का कोई पाठ्यक्रम शिक्षकों के लिए ही उपलब्ध नहीं है, तो बच्चों की बात कौन करे। 


किसी सुदूर गांव के ऐसे विद्यालय का गंभीरता से आकलन करें तो पाएंगे कि वहां की शिक्षा व्यवस्था की धुरी पाठ् पुस्तक है। बिल्कुल हमारी व्यवस्था को औपनिवेषिक चरित्र प्रदान करती एक किताब । इस किताब से उपजते हैं भय- बच्चे का भय कम अंक लाने का और शिक्षक का भय अच्छा रिजल्ट ना आने का।  शिक्षक भी अनमने मन से उसे पढ़ाता है क्यों कि उसे तो किताब पूरी तरह रट गई है, उसका कोई रस या आनंद बचा नहीं है। 

बच्चे का अपना विस्तारित अनुभव जगत, बच्चे का ज्ञान, बच्चे के अपने अनुभव उन सबका यहां ना तो कोई अर्थ है ना ही कदर। ऐसे में डिजिटल साक्षरता के उद्देश्य से किए गए कुछ प्रयोग बच्चों को हर दिन कुछ नया करने के उत्साह में स्कूल की ओर खंीच लाएंगे। 




शुक्रवार, 14 अगस्त 2020

मेरा घर कब आयेगा | Pankaj Chaturvedi | Antima Bhagchandani | लघुकथा

Without understanding Mansoon India can not over come from water scarcity

 मानसून को समझे बगैर नहीं बुझगी प्यास

पंकज चतुर्वेदी


 

विनाश कर दिया,नष्ट  कर दिया, उजाड़ दिया, बर्बाद कर दिया-- बीते दो महीने से भारते के प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया पर उस बात के लिए ये नफरतें घंटों- पन्नों में उकेरी जा रही हैं जिसके संरक्षण के लिए सरकार-समाज चिंतित है और उसके सहेजने के लिए पूरी ताकत लगाई जा रही है। असल में पानी को ले कर हमारी सोच प्रारंभ से ही त्रुटिपूर्ण है- हमें पढ़ा दिया गया कि नदी, नहर, तालाब झील आदि पानी के स्त्रोत हैं, हकीकत में हमारे देश में पानी का स्त्रोत केवल मानूसन ही हैं, नदी-दरिया आदि तो उसको सहेजने का स्थान मात्र हैं। मानसून को हम कदर नहीं करते और उसकी नियामत को सहेजने के स्थान हमने खुद उजाड़ दिए।  गंगा-यमुना के उद्गम स्थल से छोटी नदियों के गांव-कस्बे तक बस यही हल्ला है कि बरसात ने खेत-गांव सबकुछ उजाड़ दिया। यह भी सच है कि अभी मानसून विदा होते ही उन सभी इलाकों में पानी की एक-एक बूंद के लिए मारा-मारी होगी और लोग पीने के एक गिलास पानी में आधा भर कर जल-संरक्षण के प्रवचन देते और जल जीवन का आधार जैसे नारे दीवारों पर पोतते दिखेंगे।


मानसून श ब्द असल में अरबी श ब्द ‘मौसिम’ से आया है, जिसका अर्थ होता है मौसम। अरब सागर में बहने वाली मौसमी हवाओं के लिए अरबी मल्लाह इस षब्द का इस्तेमाल करते थे। हकीकत तो यह है कि भारत में केवल तीन ही किस्म की जलवायु है - मानसून, मानून-पूर्व और मानसून-पश्चात। तभी भारत की जलवायु को मानसूनी जलवायु कहा जाता है । जान लें मानसून का पता सबसे पहले पहली सदी ईस्वी में हिप्पोलस ने लगाया था और तभी से इसके मिजाज को भांपने की वैज्ञज्ञनकि व लोक प्रयास जारी हैं। 


यह हम सभी जानते हैं कि भारत के लेाक-जीवन, अर्थ व्यवस्था, पव-त्योहार का मूल आधार बरसात या मानसून का मिजाज ही है। कमजोर मानसून पूरे देश को सूना कर देता है। कहना अतिशियोक्ति नहीं होगा कि मानसून भारत के अस्तित्व की धुरी है। जो महानगर- षहर पूरे साल वायु प्रदूशण के कारण हल्कान रहते हैं, इसी मौसम में वहां के लोगों को सांस लेने को साफ हवा मिलती है।  खेती-हरियाली और साल भर के जल की जुगाड़ इसी बरसात पर निर्भर है। इसके बावजूद जब प्रकृति अपना आशीश इन बूंदों के रूप में देती है तो समाज व सरकार इसे बड़े खलनायक के रूप में पेश करने लगते हैं। इसका असल कारण यह है कि हमारे देश में मानसून को सम्मान करने की परंपरा समाप्त होती जा रही है - कारण भी है , तेजी से हो रहा षहरों की ओर पलायन व गांवों का शहरीकरण। 


भारतीय मानसून का संबंध मुख्यतया  गरमी के दिनों  में होने वाली वायुमंडलीय परिसंचरण में परिवर्तन से है। गरमी की षुरूआत होने से सूर्य उत्तरायण हो जाता है। सूर्य के उत्तरायण के साथ -साथ अंतःउष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र का भी उत्तरायण होना प्रारंभ हो जाता है इसके प्रभाव से पश्चिमी जेट स्ट्रीम हिमालय के उत्तर में प्रवाहित होने लगती है। इस तरह तापमान बढने से निम्न वायुदाब निर्मित होता है। दक्षिण में हिंद महासागर में मेडागास्कर द्वीप के समीप उच्च वायुदाब का विकास होता है इसी उच्च वायुदाब के केंद्र से दक्षिण पश्चिम मानसून की उत्पत्ति होती है । जान लें तामान बढ़ने के कारण एशिया पर न्यून वायुदाब बन जाता है। इसके विपरीत दक्षिणी गोलार्द्ध में शीतकाल के कारण दक्षिण हिंद महासागर तथा उत्तर-पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया के पास उच्च दाब विकसित हो जाता है। परिणामस्वरूप उच्च दाब वाले क्षेत्रों से अर्थात् महासागरीय भागों से निम्न दाब वाले स्थलीय भागों की ओर हवाएँ चलने लगती हैं। सागरों के ऊपर से आने के कारण नमी से लदी ये हवाएँ पर्याप्त वृष्टि प्रदान करती हैं। जब निम्न दाब का क्षेत्र अधिक सक्रिय हो जाता है तो दक्षिण-पूर्वी व्यापारिक हवा भी भूमध्य रेखा को पार करके मानसूनी हवाओं से मिल जाती है। इसे दक्षिण-पश्चिमी मानसून अथवा भारतीय मानसून भी कहा जाता है। इस प्रकार एशिया में मानसून की दो शाखाएँ हो जाती हैं-भारत में भी दक्षिण-पश्चिम मानसून की दो शाखाएँ हो जाती हैं-बंगाल की खाड़ी और अरब सागर की शाखा। लवायु परिवर्तन का गहरा असर भारत में अब दिखने लगा है, इसके साथ ही ठंड के दिनों में अलनीनो और दीगर मौसम में ला नीना का असर हमारे मानसून-तंत्र को प्रभावित कर रहा है। 


विडंबना यह है कि हम अपनी जरूरतों के कुछ लीटर पानी को घटाने को तो राजी हैं लेकिन मानसून से मिले जल को संरक्षित करने के मार्ग में खुद ही रोड़ अटकाते हैं। जबकि मानूसन को सहेजने वाली नदियों में पानी सुरक्षित रखने के बनिस्पत रेत निकालने पर ज्यादा ध्यान देते हैं।हम यह भूल जाते हैं कि नदी की अपनी याददाश्त होती है, वह दो सौ साल तक अपने इलाके को भूलती नहीं। गौर से देखें तो आज जिन इलाकों में नदी से तबाही पर विलप हो रहा है, वे सभी किसी नदी के बीते दो सदी के रास्ते में यह सोच कर बसा लिए गए कि अब तो नदी दूसरे रास्ते बह रही है, खाली जगह पर बस्ती बसा ली जाए। दूर क्यों जाएं, दिल्ली में ही अक्षरधम मंदिर से ले कर खेलगांव तक को लें, अदालती दस्तावेजों में खुड़पेंच कर यमुना के जल ग्रहण क्षेत्र में बसा ली गईं। दिल्ली के पुराने खादर बीते पांच दशक में ओखला-जामिया नगर से ले कर गीता कालोनी, बुराड़ी जैसी घनी कालेानियों में बस गए और अब सरकार यमुना का पानी अपने घर में रोकने के लिए खादर बनाने की बात कर रही है। 

बिहार राज्य में ही उन्नीसवीं सदी तक हिमालय से चल कर कोई छह हजार नदियां यहां तक आती थीं जो संख्या आज घट कर बामुश्किल 600 रह गई है।  मधुबनी-सुपौल में बहने वाली नदी तिलयुगाअ भी कुछ दशक पहले तक कोसी से भी बड़ी कहलाती थी, आज यह कोसी की सहायक नदी बन गई है। मध्यप्रदेश में नर्मदा, बेतबा, काली सिंध आदि में लगातार पानी की गहराई घट रही है। दुखद है कि जब खेती, उद्योग और पेयजल की बढ़ती मांग के कारण जल संकट भयावह हो रहा है वहीं जल को सहेज कर शुद्ध रखने वाली नदियां उथली, गंदी और जल-हीन हो रही हैं। 

तनिक ध्यान दें देश में जहां-जहां नदियों की अविरल धारा को बांध बना कर रोका गया, वहां इस साल के अच्छी बरसात ने जल-मग्न कर दिया । जिस सरदार सरोवर को देश के विकास का प्रतिमान कहा जा रहा है, उसमें क्षमता से कम पानी भरने पर भी अनुमान से अधिक गांव-खेत-इलाके डूब रहे है।। बिहार क अधिकांश बाढ़ का कारण ही बांधों के भरने पर उनके दरवाजे खोल देना है। महाराश्ट्र के हालात भी इन्ही बांधेां के कारण बिगड़े।  हमारी नदियां उथली हैं और उनको अतिक्रमण केा कारण संकरा किया गया। नदियों का अतिरिक्त पानी  सहेजने वाले तालाब-बावली-कुएं नदारद हैं।  फिर पानी सहेजने व उसके बहुउद्देशीय इस्तेमाल के लिए बनाए गए बांध, अरबों की लगात,  दशकों के समय, विस्थापन  के बाद भी थोडाी सी बरसात को समेट नहीं पा रहे हैं।


असल में हम अपने मानसून के मिजाज, बदलते मौसम में बदलती बरसात, बरसात के जल को सहेज कर रखने के प्राकृतिक खजानों की रक्षा के प्रति ना तो गंभीर हैं और ना ही कुछ नया सीखना चाहते हैं।  पूरा जल तंत्र महज भूजल पर टिका है जबकि यह सर्वविविदत तथ्य है कि भूजल पेयजल का सुरक्षित साधन नहीं है।  हर घर तक नल से जल पहुंचाने की योजना का सफल क्रियान्वयन केवल मानूसन को सम्मान देने से ही संभव होगा। मानसून अब केवल भूगोल या मौसम विज्ञान नहीं हैं- इससे इंजीनियरिंग, सेनिटेशन, कृशि, सहित बहुत कुछ जुड़ा है। मानसून-प्रबंधन का गहन अध्ययन हमारे स्कूलों से ले कर  इंजीनियरिंग पाठ्यक्रमों में हो , जिसके तहत केवल मानसून से पानी ही नहीं, उससे जुड़ी फसलों, सड़कों, षहरों में बरसाती पानी के निकासी के माकूल प्रबंधों व संरक्षण जैसे अध्याय हों। 



मंगलवार, 11 अगस्त 2020

Elephant-Human conflict

 विश्व हाथी दिवस 12 अगस्त पर विशेष 


हाथी क्यों ना रहा साथी ?


पंकज चतुर्वेदी



 https://www.spsmedia.in/wildlife-and-biodiversity/why-is-elephant-not-companion/


कुछ महीनों पहले केरल में एक हाथी को बारूद खिलाने से हुई मौत के बाद मंत्री से ले कर आम लोग दुखी थे। कई जगह आंदोलन हुए, ज्ञापन-खतो कितावत भी हुई और मसला आया-गया हो गया। षायद ही लोगों को पता हो कि जून महीने के दूसरे सप्ताह के बाद  दस दिनों में अकेले छत्तीसगढ़ में छह हाथी संदिग्ध हालात में मरे मिले । हाथियों के समूह यहां आए दिन खेती या गांव-घर तहस-नहस करते हैं। भले ही हम कहें कि हाथी उनके गांव-घर में घुस रहा है, हकीकत यही है कि प्राकृतिक संसाधनों के सिमटने के चलते भूखा-प्यासा हाथी अपने ही पारंपरिक इलाकों में जाता है। दुखद है कि वहां अब बस्ती, सड़क  का जंजाल है। सरकारी रिपोर्ट कहती है कि औसतन हर साल हाथी के हाथों में कोई पांच सौ लोग मारे जाते हैं जबकि सौ हाथी भी इंसान से टकराव में अपनी जान गंवाते हैं। 

दुनियाभर में हाथियों को संरक्षित करने के लिए गठित आठ देशों के समूह में भारत शामिल हो गया है। भारत में इसे ‘राष्ट्रीय धरोहर पशु’ घोषित किया गया है। इसके बावजूद भारत में बीते दो दशकों के दौरान हाथियों की संख्या स्थिर हो गई हे। जिस देश में हाथी के सिर वाले गणेश को प्रत्येक शुभ कार्य से पहले पूजने की परंपरा है , वहां की बड़ी आबादी हाथियों से छुटकारा चाहती है ।  

पिछले एक दशक के दौरान मध्य भारत में हाथी का प्राकृतिक पर्यावास कहलाने वाले झारखंड, छत्तीसगड़, उड़िया राज्यों में हाथियों के बेकाबू झंुड के हाथों एक हजार से ज्यादा लाग मारे जा चुके हैं। धीरे-धीरे इंसान और हाथी के बीच के रण का दायरा विस्तार पाता जा रहा है। देश में हाथी के सुरक्षित कॉरीडोरों की संख्या 88 हैं, इसमें 22 पूर्वोत्तर राज्यों , 20 केंद्रीय भारत और 20 दक्षिणी भारत में हैं। कभी हाथियों का सुरक्षित क्षेत्र कहलाने वाले असम में पिछले सात सालों में हाथी व इंसान के टकराव में 467 लोग मारे जा चुके हैं। अकेले पिछले साल 43 लोगों की मौत हाथों के हाथों हुई। उससे पिछले साल 92 लोग मारे गए थे। झारखंड की ही तरह बंगाल व अनय राज्यों में आए रोज  हाथी को गुस्सा आ जाता है और वह खड़े खेत, घर, इंसान; जो भी रास्ते में आए कुचल कर रख देता है । दक्षिणी राज्यों  के जंगलों में गर्मी के मौसम में हर साल 20 से 30 हाथियों के निर्जीव शरीर संदिग्ध हालात में मिल रहे हैं । 

जानना जरूरी है कि हाथियों केा 100 लीटर पानी और 200 किलो पत्ते, पेड़ की छाल आदि की खुराक जुटाने के लिए हर रोज 18 घंटेां तक भटकना पड़ता है । गौरतलब है कि हाथी दिखने में भले ही भारीभरकम हैं, लेकिन उसका मिजाज नाजुक और संवेदनशील होता है । थेाड़ी थकान या भूख उसे तोड़ कर रख देती है । ऐसे में थके जानवर के प्राकृतिक घर यानि जंगल को जब नुकसान पहुचाया जाता है तो मनुष्य से उसकी भिडं़त होती है । 

कई-कई सदियों से यह हाथी अपनी जरूरत के अनुरूप अपना स्थान बदला करता था । गजराज के आवागमन के इन रास्तों को ‘‘एलीफेंट कॉरीडार’’ कहा गया । जब कभी पानी या भोजन का संकट होता है गजराज ऐसे रास्तों से दूसरे जंगलों की ओर जाता है जिनमें मानव बस्ती ना हो। सन 1999 में भारत सरकार के वन तथा पर्यावरण मंत्रालय ने इन कॉरीडारों पर सर्वे भी करवाया था । उसमें पता चला था कि गजराज के प्राकृतिक कॉरीडार  से छेड़छाड़ के कारण वह व्याकुल है । हरिद्वार और ऋषिकेश के आसपास हाथियों के आवास हुआ करते थे । आधुनिकता की आंधी में जगल उजाड़ कर ऐसे होटल बने कि अब हाथी गंगा के पूर्व से पश्चिम नहीं जा पाते हैं्र। रामगंगा को पार करना उनके लिए असंभव हो गया है । अब वह बेबस हो कर सड़क या रेलवे ट्रैक पर चला जाता है और मारा जाता है । 

दरअसल, गजराज की सबसे बड़ी खूबी है उनकी याददाश्त। आवागमन के लिए वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी परंपरागत रास्तों का इस्तेमाल करते आए हैं। राजाजी नेशनल पार्क के हाथी भी देहरादून-हरिद्वार के बीच मोतीचूर से डोईवाला तक के चार गलियारों का उपयोग ऋषिकेश के सात मोड़ और नरेंद्रनगर वन प्रभाग तक आने-जाने में करते हैं। 2010 से हाईवे चौड़ीकरण के चलते ये गलियारे बाधित हैं। हालांकि, इन स्थानों पर अंडर पास बनने हैं, लेकिन सात साल में वहां ढांचे ही खड़े हो पाए हैं। यही नहीं, वहां बड़े पैमाने पर निर्माण सामग्री भी पड़ी है। ऐसे में हाथियों की आवाजाही बाधित हो रही है और वे जैसे-तैसे निकल पा रहे हैं।ओडिसा के हालात तो बहुत ही खराब हैं । हाथियों का पसंदीदा ‘‘ सिंपलीपल कॉरीडार’’ बोउला की क्रोमियम खदान की चपेट में आ गया । सतसोकिया कॉरीडोर को राष्ट्रीय राजमार्ग हड़प गया । 

ठीक ऐसे ही हालात उत्तर-पूर्वी राज्यों के भी हैं । यहां विकास के नाम पर हाथी के पारंपरिक भोजन-स्थलों का जम कर उजाड़ा गया और बेहाल हाथी जब आबादी में घुस आया तो लोगों के गुस्से का शिकार बना । हाथियों के एक अन्य प्रमुख आश्रय-स्थल असम में हाथी बेरोजगार हो गए है और उनके सामने पेट भरने का संकट खड़ा हो गया है। सन 2005 में सुप्रीम कोट के एक आदेश के बाद हाथियों से वजन ढुलाई का काम गैरकानूनी घोषित कर दिया गया था। इसके बाद असम के कोई 1200 पालतू हाथी एक झटके में बेरोजगार हो गए। हाथी उत्तर-पूर्वी राज्यों के समाज का अभिन्न हिस्सा रहा है सदियों से ये हाथी जंगलों से लकड़ी के लठ्ठे ढोने का काम करते रहे । दक्षिणी राज्यों में जंगल से सटे गांवों मे रहने वाले लोग वैसे तो हाथी की मौत को अपशकुन मानते हैं , लेकिन बिगड़ैल गजराज से अपने खेत या घर को बचाने के लिए वे बिजली के करंट या गहरी खाई खोदने को वे मजबूरी का नाम देते हैं । यहां किसानों का दर्द है कि ‘हाथी प्रोजेक्ट’ का इलाका होना उनके लिए त्रासदी बन गया है । यदि हाथी फसल को खराब कर दे तो उसका मुआवजा इतना कम होता है कि उसे पाने की भागदौड़ में इससे कहीं अधिक खर्चा हो जाता है । ऐसे ही भूखे हाथी बिहार के पलामू जिले से भाग कर छत्तीसगढ़ के सरगुजा व सटे हुए आंध्रप्रदेश के गंावों तक में उपद्रव करते रहते हैं । 

बढ़ती आबादी के भोजन और आवास की कमी को पूरा करने के लिए जमकर जंगल काटे जा रहे हैं। उसे जब भूख लगती है और जंगल में कुछ मिलता नहीं या फिर जल-स्त्रोत सूखे मिलते हैं तो वे खेत या बस्ती की ओर आ जाते हैं । नदी-तालाबों में शुद्ध पानी के लिए यदि मछलियों की मौजूदगी जरूरी है तो वनों के पर्यांवरण को बचाने के लिए वहां हाथी अत्यावश्यक हैं । मानव आबादी के विस्तार, हाथियों के प्राकृतिक वास में कमी, जंगलों की कटाई और बेशकीमती दांतों का लालच; कुछ ऐसे कारण हैं जिनके कारण हाथी को निर्ममता से मारा जा रहा है । यदि इस दिशा में गंभीरता से विचार नहीं किया गया तो जंगलों का सर्वोच्च गौरव कहलाने वाले गजराज को सर्कस, चिड़ियाघर या जुलूसों में भी देखना दुर्लभ हो जाएगा ।



पंकज चतुर्वेदी

नई दिल्ली-110070




Why was the elephant not a companion?

    हाथी क्यों न रहा साथी ?                                                                    पंकज चतुर्वेदी   हाथियों और मानव के ब...