My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

शुक्रवार, 28 अगस्त 2020

NationL SPORTS DAY - Catch them young but when

 लड़कियों के खेल को हौसले व प्रात्साहन की जरूरत 
बाजार में खेल-खेल का बाजार 
पंकज चतुर्वेदी



 बात  सन 2016 की यानी चार साल पहले की है,  ओलंपिक से जीत हासिल करने के बाद जिस समय पूरा देश बेडमिंटन खिलाड़ी पीवी सिंधु पर चार करोड़ रूपए व ढेर सारा प्यार लुटा रहा था, तभी पटियाला की खेल अकादेमी की एक हेड बाल खिलाडी पूजा के लिए महज 3750 रूपए बतौर होस्टल की फीस ना चुका पाने का दर्द असहनीय हो गया था और उसने आत्महत्या कर ली थी। ठीक उन्हीं दिनों विभिन्न राज्य सरकारों की तर्ज पर मध्यप्रदेश षासन कुश्ती में देश का नाम रोशन करने वाली साक्षी मलिक को दस लाख रूपए देने की घोशणा कर रहा था, तभी उसी राज्य के मंदसौर से एक एक ऐसी बच्ची का कहानी मीडिया में तैर रही थी जो कि दो बार प्रदेश की हॉकी टीम में स्थान बना कर नेशनल खेल चुकी है, लेकिन उसे अपना पेट पालने के लिए दूसरों के घर पर बरतन मांजने पड़ते हैं। यही नहीं छह गोल्ड मैडल लेकर इतिहास रचने वाली उड़नपरी हिमादास को 50 हजार रुपये केंद्र सरकार से,और एक लाख रुपये असम सरकार ने दिये हैं, अब 2020 खेल पुरस्कार मे भी नाम नही है। सफल खिलाड़ी व संघर्शरत या प्रतिभावान खिलाड़ी के बीच की इस असीम दूरी की कई घटनाएं आए रोज आती है, जब किसी अंतरराश्ट्रीय स्पर्धा में हम अच्छा नहीं करते तो कुछ व्यंग्य, कुछ कटाक्ष, कुछ नसीहतें, कुछ बिसरा दिए गए खिलाड़ियों के किस्से बामुश्किल एक सप्ताह सुर्खियों में रहते हैं। उसके बाद वही संकल्प दुहराया जाता है कि ‘‘कैच देम यंग’’ और फिर वही खेल का ‘खेल’ षुरू हो जाता है। 



भारतीय महिला हॉकी टीम की कप्तान व स्टार खिलाड़ी रानी रामपाल को हरियाणा पुलिस में नौकरी मिल गई तो उसी हरियाणा की सविता पुनिया को अर्जुन अवार्ड तो मिला, हॉकी में गोल रक्षक के रूप में पहचान भी मिली लेकिन तीस साल की उम्र तक नौकरी नहीं मिली, यहां तक की खेल प्राधिकरण में कोच की भी नहीं। बबिता फोगट को पुलिस में सीधे डीएसपी बना दिया गया लेकिन आठ साल तक कुश्ती की राज्य चैंपियन और 2009 के नेशनल गेम्स में कांस्य पदक विजेता रही बिहार के पंडारक(पटना) की कौशल नट को पेट पालने के लिए दूसरे के खेतों में नौकरी करनी पड़ रही है। यही हाल कैमूर की पूनम यादव का है, उन्होंने कुश्ती में चार बार बिहार का प्रतिनिध्त्वि कियाथा और आज खेत-मजदूर हैं। नरकटियागंज(पश्चिम चंपारण) की सोनी पासवान तो अभी देश की अंडर 14 फुटबाल टीम की कैप्टन हैंलेकिन वे आज भी एक झुग्गी में रहती हैं जहां षौचालय भी नहीं। 

एरिक 1948 में लंदन ओलंपिक में भारत की तरफ से 100 मीटर फर्राटा दौड़ में हिस्सा लिया था। उन्होंने 11.00 सेकेंड का समय निकाला और क्वार्टर फाइनल तक पहुंचे। महज षुरू दशमलव तीन संेकड से वे पदक के लिए रह गए थे। हालांकि  सन 1944 में वे 100 मीटर के लिए 10.8 सेकंड का बड़ा रिकार्ड बना चुके थे। वे सन 1942 से 48 तक लगातार छह साल 100 व 400 मीटर दौड के राश्ट्रीय चेंपियन रहे थे।  उनकी किताब  ‘द वे टु एथलेटिक्स गोल्ड’ हिंदी व कई अन्य भारतीय भाशाओं में उपलब्ध है। काश हमारे महिला खेलों के जिम्मेदार अफसर इस पुस्तक को पढ़ते। इसमें बहुत बारीकी से और वैज्ञानिक तरीके से समझाया है कि भारत में किस तरह से सफल एथलीट तैयार किये जा सकते हैं। उन्होंने इसमें भौगोलिक स्थिति, खानपान चोटों से बचने आदि के बारे में भी अच्छी तरह से बताया है। पीटी उशा का उदाहरण इसमें प्रेरणादायक है कि किस तरह समुद्र केकिनारे रहने व वहां प्रेक्टिस करने से उनकी क्षमता वृद्धि हुई थी। यदि यह पुस्तक हर महिला खिलाड़ी, हर कोच, प्रत्येक खेल संघ के सदस्यों को पढने और उस पर ईमादारी से मनन करने को दी जाए तो परिणाम अच्छे निकलेंगे। 

कुछ दशक पहले तक स्कूलों में राश्ट्रीय खेल प्रतिभा खोज जैसे आयोजन होते थे जिसमें दौड, लंबी कूद, चक्का फैक जैसी प्रतियोगिताओं में बच्चों को प्रमाण पत्र व ‘सितारे’ मिलते थे। वे प्रतियोगिताएं स्कूल स्तर, फिर जिला स्तर और उसके बाद राश्ट्रीय स्तर तक होती थीं। तब निजी स्कूल हुआ नहीं करते थे या बहुत कम थे और कई बार स्कूली स्तर पर राश्ट्रीय रिकार्ड के करीब पहुंचने वाली प्रतिभाएं भी सामने आती थीं। जिनमें से कई आगे जाते थे। ऐसी प्रतिभा खेाज की नियमित पद्धति अब हमारे यहां बची नहीं है। कालेज स्तर की प्रतियोगिताओं में जरूर ऐसे चयन की संभावना है, लेकिन चीन, जापान के अनुभव बानगी हैं कि ‘‘केच देम यंग’’ का अर्थ है कि सात-आठ साल से कड़ा परिश्रम, सपनों का रंग और तकनीक सिखाना। चीन की राजधानी पेईचिंग में ओलंपिक के लिए बनाया गया ‘बर्डनेस्ट स्टेडियम’ का बाहरी हिस्सा पर्यटकों के लिए है लेकिन उसके भीतर सुबह छह बजे से आठ से दस साल की बच्चियां दिख जाती है। वहां स्कूलों में खिलाड़ी बच्चों के लिए शिक्षा की अलग व्यवस्था होती है, तोकि उन पर परीक्षा जैसा दवाब ना हो। जबकि दिल्ली में स्टेडियम में सरकारी कार्यालय व सचिवालय चलते हैं। कहीं षादियां होती हैं। महानगरों के सुरसामुखी विस्तार, नगरों के महानगर बनने की लालसा, कस्बों के षहर बनने की दौड़ और गांवों के कस्बे बनने की होड़ में मैदान, तालाब, नदी बच नहीं रहे हैं । 

यदि खिलाड़ियों को लंबे समय तक मैदान में रखना है तो जरूरी है कि देश की युवा नीति को भी खेलोन्मुखी बनाया जाए। क्षेत्रीय, प्रांतीय व राष्ट्रीय स्तर पर युवा कल्याण की कुछ सरकारी योजनाओं की चर्चा यदा-कदा होती रहती है । अतंरराष्ट्रीय युवा उत्सवों में शिरकत के नाम पर मंत्रियों की सिफारिशों से ‘फन’ या मौज मस्ती । ‘यूथ हास्टल’ यानि सुविधा संपन्न वर्ग के ऐश का अड्डा । या फिर स्पोर्ट सेंटर, पत्र पत्रिकाएं , रेडियो-टेलीविजन, सैर सिनेमा, चटक-मटक जिंदगी, - लेकिन ग्रामीण युवा इन सभी से कोसों दूर है । कभी युवाओं के लिए चौपाल हुआ करते थे और पंचायत घर में कुछ पठन-सामग्री मिल जाया करती थी । लेकिन अब इन दोनो स्थानों पर काबिज है गंदी राजनीति के परजीवी ।

अब समाज को ही अपनी खेल प्रतिभाओं को तलाशने, तराशने का काम अपने जिम्मे लेना होगा। किस इलाके की जलवायु कैसी है और वहां किस तरह के खिलाड़ी तैयार हो सकते हैंं, इस पर वैज्ञानिक तरीके से काम हो। जैसे कि समुंद के किनारे वाले इलाकों में दौड़ने का स्वाभाविक प्रभाव होता हे। पूर्वोत्तर में षरीर का लचीलापन है तो वहां जिम्नास्टिक, मुक्केबाजी पर काम हो। झाारखंड व पंजाब में हाकी। ऐसे ही इलाकों का नक्शा बना कर लड़कियों की प्रतिभाओं को उभारने का काम हो। जिला स्तर पर समाज के लेागों की समितियां, स्थानीय व्यापारी और खेल प्रेमी ऐसे खिलाड़ियों  को तलाशंे। इंटरनेट की मदद से उनके रिकार्ड को आंकड़ों के साथ प्रचारित करें। हर जिला स्तर पर अच्छे एथलेटिक्स के नाम सामने होना चाहिए। वे किन प्रतिस्पर्दाओं में जाएं उसकी जानकारी व तैयारी का जिम्मा जिला खेल कमेटियों का हो। बच्चों को संतुलित आहार, ख्ेालने का माहौल, उपकरण मिले,ं इसकी पारदर्शी व्यवस्था हो और उसमें स्थानीय व्यापार समूहों से सहयोग लिया जाए। सरकार किसी के दरवाजे जाने से रही, लेागों को ही ऐसे लेागों को षासकीय योजनाओं का लाभ दिलवाने के प्रयास करने होंगे। सबसे बड़ी बात जहां कहीं भी बाल प्रतिभा की अनदेखाी या दुभात होती दिखे, उसके खिलाफ जोर से आवाज उठानी होगी। 





कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

How will the country's 10 crore population reduce?

                                    कैसे   कम होगी देश की दस करोड आबादी ? पंकज चतुर्वेदी   हालांकि   झारखंड की कोई भी सीमा   बांग्...