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शनिवार, 24 जनवरी 2015

India can learn urbanisation from Peking

आखिर हम पेकिंग से सीखते क्यों नहीं ?

भास्‍कर, रसरंग 25 जनवरी 2015 
http://epaper.bhaskar.com/magazine/rasrang/211/25012015/mpcg/1/पंकज चतुर्वेदी

बीते दो दकों के दौरान हमारे देष के कई सौ मंत्री-अफसर, विशेषज्ञ चीन गए, पेकिंग(बीजिंग) में कई दिन बिताए - हर एक का उद्देश्‍य था वहां की व्यवस्था को देखना और उसके अनुरूप भारत में सुधार करना। जान कर आष्चर्य होगा कि चीन की व्यवस्था को अपनाने के लिए वहां की यात्रा करने वाले सबसे ज्यादा दक्षिणपंथी राजनीतिक दलों द्वारा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री व मंत्री थे। इसमें कोई शक नहीं कि वहां सीखने को बहुत कुछ है- परिवहन, सड़कें, सुरक्षा, नगरीकरण......, लेकिन हमारे नेता-अफसर शायद वहां से मिली सीख को वहीं छोड़ कर आ जाते हैं।
सन 2010 में हमने कई हजारों करोड़ खर्च कर कामनवैल्थ खेलों का आयोजन किया, हालांकि जो लोग पिछला लंदन ओलंपिक देख कर आए है वे बताते हैं कि हमारी व्यवस्थाएं लंदन से लाख गुणा बेहतर थी, इसके बावजूद खेल के बाद हमारे खेल केल घोटालों के खेल के लिए मषहूर हुए। इसके विपरीत बीजिंग या पेकिंग में छह साल पहले हुए आलंपिक खेल के लिए बनाया गया ‘‘ बर्ड नेस्ट’’ स्टेडियम आज भी पर्यटकों, खिलाडि़यों का स्वर्ग बना हुआ है। हमारे नेहरू स्टेडियम के बड़े हिस्से में सरकारी दफ्तर चल रहे हैं , त्यागराज स्टेडियम शादी व अन्य आयोजनों के लिए खोल दिया गया है। इन स्टेडियमों के कोई पांच सौ मीटर दूरी पर ही झुग्गियों सड़क पर आ गई हैं। वहीं ‘बर्ड नेस्ट’ स्टेडियम पेकिंग के चारों ओर सफाई, सुंदरता , हरियाली बरकरार हे। पेंिकंग आने वाले पर्यटकों के लिए इसका बाहरी हिससा खुला हुआ है। यहां हर शाम बेहतरीन रोशनी होती है। परिसर में ही सुंदर सा बाजार लगा हुआ है, जिनमें कई खाने-पीने के स्टाल भी हैं। स्टेडियम के भीतर कम उम्र के प्रशिक्षु बच्चों के लिए सभी सुविधाएं निशुल्क उपलब्ध हैं और आज भी यह परिसर कई ओलंपिक विजेता तैयार कर रहा है। काश हमने कम से कम जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम को इस लायक छोड़ होता कि पर्यटक और खिलाड़ी इसे देख सकते- इस्तेमाल कर सकते। शायद पेकिंग का यह अनुसरण करने में बेहतर इच्छा-शक्ति के अलावा कुछ हर्जा-खर्चा नहीं होना था।
पेंिकग में मैं कम से कम दो हजार किलोमीटर दूरी की सड़कों से तो गुजरा ही होउंगा, टैक्सी, बस, पैदल, और सबवे यानी मेट्रो- कई बाग-बगीचे, शापिंग माॅल, दर्षनीय स्थल भी ; बामुश्‍किल कहीं सुरक्षाकर्मी दिखे, कई जगह निजी सुरक्षा गार्ड दिखे, लेकिन बगैर किसी लाठी-असलहा के। तीन साल तक वहां का चार दिन का अंतरराष्‍ट्रीय पुस्तक मेला भी देखा है , उसमें घुसते समय कड़ी सुरक्षा-जांच, फिर भीतर सतर्क निगरानी,लेकिन आम लोग भांप तक नहीं पाते हैं कि उन पर कहीं कोई नजर रखे हुए है। हां, सड़क पर ट्राफिक नियंत्रण करने वाले लोग तो दिखेंगे ही नहीं। कुछ व्यस्त चैराहों पर पैदल लोगांे को सड़क पार करने में मदद करने वाले वालेंटियर जरूर दिख जाएंगे। ये वालेंटियर उसी इलाके के बाषिंदे होते हैं- कई बुजुर्ग और औरतें भी। जब हम कहते हैं कि आतंकवाद वैश्‍विक खतरा है तो जाहिर है कि दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्था और सबसे अधिक आबादी वाले देश की राजधानी इससे अछूती नहीं रह सकती। लेकिन वहां सुरक्षा एक तनाव नहीं, बंधन नहीं; एक अनिवार्य गतिविधि है, जो किसी हादसे का इंतजार नहीं करती। तिपहया साईकिल(बैटरी चालित) पर दौडते सुरक्षाकर्मियों की चैाकस निगाहें, उनके पास केवल एक छोटा सा हेंडीकैम होता है और वायरलेस। उनका काम केवल किसी संदिग्ध परिस्थिति की सूचना देना मात्र है, पलक झपकते ही तेज गति वाली कारों में सवार पुलिसकर्मी घटनास्थल पर पहुंच जाते हैं।
पेकिंग दिल्ली एनसीआर से बड़ा इलाका है- लगभग 16,800 वर्ग किलोमीटर, आबादी भी दो करोड़ के करीब पहुंच गई है। सड़कों पर कोई 47 लाख वाहन सूरज चढ़ते ही आ जाते हैं और कई सड़कों पर दिल्ली-मुंबई की ही तरह ट्राफिक रैंगता दिखता है, हां जाम नहीं होता।  बावजूद इसके हजारों-हजार साईकिल और इलेक्ट्रिक मोपेड वाले सड़कों पर सहजता से चलते हैं। एक तो लेन में चलना वहां की आदत है, दूसरा सड़कों पर या तो कार दिखती हैं या फिर बसें- रेहड़ी, रिक्षा, इक्का, छोटे मालवाहक कहीं नहीं- उनके लिए इलाके तय हैं। इतना सबकुछ होते हुए भी किसी भी रेड-लाईट पर यातायात पुलिस वाला नहीं दिखता। जरा ध्यान से देखेंगे तो पता चलेगा कि बेहद कम-कम दूरी पर सीसीटीवी कैमरे लगे हैं और सड़कों पर घूमने के बनिस्पत यातायात कर्मी कहीं बैठ कर देखते रहते हैं। वहां रोक कर वसूली करने की व्यवस्था कहीं दिखी नहीं। कार-बसें उलटे हाथ की तरफ स्टेयरिंग वाली होती हैं सो सड़क के कट भी उसीके अनुरूप हैं। यहां अधिकांष चालक लेन-ड्राईविंग का पालन करते हैं। इतनी कड़ी व्यवस्थ होने पर भी वहां के टैक्सी चालक दिल्ली के आटो रिक्षा चालकों के बड़े भाई ही दिखते हैं। असल में स्थानीय लोग टैक्सी बहुत कम इस्तेमाल करते हैं। यह केवल पर्यटकों के लिए मान कर शायद लूट की छूट दी गई है।
दिल्ली में कुछ किलोमीटर का बीआरटी कारीडोर जी का जंजाल बना हुआ है, काश पेकिंग गए हमारे नेता ईमानदारी से वहां की बसों को देख करे आते। पेकिंग में 800 रूटों पर बसें चलती हैं। कुछ बसें तो दो केबिन को जोड़ कर बनाई हुई यानी हमारी लोफ्लोर बस से दुगनी बड़ी, लेकिन कमाल है कि कहीं मोड़ पर ड्रायवर अटक जाए। इन बसों में पहले 12 किलोमीटर का किराया एक यूआन यानी हमारे हिसांब से कोई साढे सात रूप्ए है , उसके आगे प्रत्येक पांच किलोमीटर के लिए आधा युआन चुकाना होता है। अधिकांश बसों में आटोमेटिक टिकट सुविधा और स्मार्ट कार्ड व्यवस्था हे। स्मार्ट कार्ड वालों को साठ फीसदी की छूट दी जाती हे। इन बसों में तीन दरवाजे होते हैं -चढ़ने के लिए केवल बीच वाला और उतरने के लिए आगे और पीछे दो दरवाजे।  पुराने पेकिंग में जहां सड़कों को चैाडा करना संभव नहीं था, बसें बिजली के तार पर चलती हैं मेट्रो की तरह। इसके लिए कोई अलग से लेन तैयार नहीं की गई हैं । एक तो बस की रफ्तार बांध दी गई हैं फिर सिर पर लगे बिजली के हैंगर स ेचल रही है सो इधर-उधर भाग नहीं सकती। यदि बीआरटी , मेट्रो, मोनो रेल पर इतना धन खर्च करने के बनिस्पत केवल बसों को सीधे बिजली से चलाने पर विचार किया होता तो हमारे शहर ज्यादा सहजता से चलते दिखते। यदि किसी यातायात विषेशज्ञ ने वहां की बस-वयवस्था को देख लिया होता तो हम कम खर्चें में बेहतर सार्वजनिक परिवहन दे सकते थे।
सार्वजनिक परिवहन का सबसे ज्यादा लोकप्रिय तरीका सबवे या मेट्रो है और इसकी किसी भी लाईन पर कितना भी लंबा सफर करने के लिए केवल दो यूआन चुकाने होते हैं। छात्रों को कार्ड दिखाने पर आधी छूट मिलती है। टिकट खिड़की भी ओटोमेटिक है, अपनी करंसी डालों और दो युआन का टिकट ले लो। दिल्ली मेट्रो के सामने आए रोज लोग कूद कर खुदकुशी कर लेते हैं। शायद ऐसी ही घटनाओं से बचाव के लिए पेकिंग के मेट्रो स्टेशनों पर ट्रेन के दरवाजे से पहले एक अलग से कांच का दरवाजा होता है जो कोच आ कर ठहरने के बाद ही खुलता है। पता नहीं हमारे तकनीकी विषेशज्ञों ने इस छोटी सी चीज को क्यों नहीं देखा।
पेकिंग की मुख्य सड़कों पर सफाई कर्मचारी भी हमारे लिए मिसाल हैं। वे साईकिल पर चलते हैं, छोटी ऊचाई वाली साईकिल। उसके पीछे कैरियर में सफाई में काम आने वाले उपकरण, फिनाईल आदि होतेहैं और कर्मचारी के हाथ में चिमटा जैसा यंत्र। सड़क पर कोई बोतल, कागज दिखा कि वह चिमटे से उठे चलते-चलते उठाता है और पीछे कैरियर में लगी टोकरी में डाल देता हे। ये सफाईकर्मी नांरगी रंग की वेषभूशा में होते हैं और हाथों में दस्ताने जरूर पहनते हैं।
शहरीकरण का बेहतरीन माॅडल है बीजिंग का विकास। चूंकि वहां का अंरराष्‍ट्रीय प्रदर्शनी मैदान बीच शहर में होने के कारण सड़क पर भीड़ व दिक्कत पैदा कर रहा था सो वहां एयरपोर्ट के पास विशाल प्रदर्शनी मैदान बनाया गया, हमारे प्रगति मैदान की तरह। पहले वहां चैाड़ी सड़कें बनीं, शापिंग माॅल व अंतरराष्‍ट्रीय स्तर के होटल बने, सबवे की लाईन नंबर 15 शुरू की गई, उसके बाद सभी अंतरराष्‍ट्रीय प्रदर्शनियां वहां लगने लगीं। जबकि हमारे यहां ग्रेटर नोएडा में एक्सपो बने कई साल हो गए, अभी तक वहां के लिए परिवहन व संपर्क के रास्ते नहीं बन पाए हैं। शहर में सभी विश्‍वविद्यालय व शिक्षण संस्थान हाईडायन जिले में हैं तो नया विकास, नए दफ्तर आदि षुनेयी जिले में हैं इसी तरह आवासीय, व्यापारिक प्रतिश्ठानों के लिए जगह तय है, वहां बेतरतीब कहीं भी खुली दुकाने नहीं मिलेंगी। शहर का अधिकांश खुदरा व्यापार बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों के बड़े-बड़े स्टोर्स से होता है।
ऐसा नहीं है कि पेकिंग  में राम-राज है और उसे आदर्श के रूप में मान लिया जाए, लेकिन जब हमारे हुक्मरान जनता के पैसे से यह कहते हुए वहां घूमने जाते हैं कि वे व्यवस्था को आंकने जा रहे हैं तो कुछ अच्छाईयों का अनुसरण किया जाता तो उनके दौरे व हमारा व्यय हुआ धन, दोनो ही सार्थक होता। हां , एक बात और समूचे बीजिंग शहर में किसी भी तरह के सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक प्रदर्षन,धरनों पर कड़ाई से पाबंदी है।

Prefece of my forth coming book on water

पानी एक-रूप अनेक

. ‘‘पानी रे पानी, तेरा रंग कैसा- जिसमें मिला दो लगे उस जैसा।’’ जल और जीवन एक दूसरे के पूरक हैं। प्रकृति के हर कोने में प्रत्येक जीव-जन्तु, वनस्पति में पानी अत्यावश्यक घटक है। पानी जीवन का आधार है। आलू में 80 प्रतिशत और टमाटर में 90 प्रतिशत पानी है। मानव शरीर में 70 फीसदी से अधिक पानी रहता है। जो साग, फल हम खाते हैं उसका भी बड़ा हिस्सा पानी है। यहाँ-वहाँ जहाँ देखो पानी-ही-पानी है लेकिन हर जगह रंग-रूप और अवस्थाएँ अलग हैं।

यदि पृथ्वी को बाहरी अन्तरिक्ष से देखे तो पाएँगे कि यह पानी के एक बड़े बुलबुले के समान है। इसका लगभग 70 फीसदी हिस्सा सागरों के कारण जलमय है। ध्रुव प्रदेश तथा पहाड़ों की चोटियाँ बर्फ अर्थात् पानी के ठोस रूप से ढंकी हैं। फिर असंख्य झीलें, ताल-तलैया, झरने, नदियाँ हैं। सम्पूर्ण भूमण्डल वायु की एक ऐसी चादर में लिपटा है जिसमें काफी कुछ वाष्पित जल है।

यदि इस पूरी वाष्प को द्रव में बदल दिया जाए तो पूरा भूमण्डल कई सेंटीमीटर गहरे पानी में डूब जाएगा। पानी अजेय है। इसका रूप बदलता रहता है। कभी भूमण्डल के किसी हिस्से पर बादल होते हैं और इससे पानी या बर्फ बरस जाती है। यह पानी या बर्फ ही नदियों, झरनों, कच्छ-भूमि को पानी से भरपूर रखते हैं।

पृथ्वी पर पानी तीन रूपों मे मिलता है - वाष्प यानि वायु में; द्रव, तो समुद्र, झील, नदियों में है और घनीभूत यानि हिम नदियाँ। जल की ये परिस्थितियाँ आपस में बदला करती है। द्रवीय जल गैसीय वाष्प के रूप में उड़ता है, वाष्प द्रवीय वर्षा मे परिवर्तित होती है।

द्रवीय जल संघनीकृत बर्फ के रूप में पिघलता है। लेकिन किसी भी समय, पानी के इन रूपों की मात्रा कमोबेश एक समान रहती है। पृथ्वी पर पानी का लगभग 98 फीसदी द्रव के रूप में है, शेष भाग बर्फ और बहुत ही मामूली हिस्सा वायुमण्डल में वाष्प के रूप में विद्धमान है। धरती की जलकुण्डली सूर्य द्वारा संचालित होती है। इसके मुख्य तीन संघटक हैं-

1. समुद्र से जल का वाष्पीकरण
2. पृथ्वी और सागरों पर इसका बर्फ या वर्षा के रूप में पतन
3. नदियों के जरिए पानी का समुद्र को लौटना।

इस अपरिमित चक्र में कुछ छोटे घटना क्रम भी होते हैं। जैसे वर्षा के पानी का कुछ हिस्सा भूमि द्वारा सोखना, आदि।

भूमण्डल पर पानी का सबसे विशाल भण्डार है महासागर। सात से आठ किलोमीटर तक गहरे महासागरों के भीतर की जीव दुनिया अजीब व अद्भुत होती है। भूमण्डल का तीन चौथाई हिस्सा चार किलोमीटर गहरे पानी है। ढँका हुआ ही यह कोई आश्चर्य नहीं है कि पृथ्वी का 97.3 फीसदी पानी महासागरों और अन्तरदेशीय महासागरों में ही है। शेष 2.7 प्रतिशत पानी अण्टार्कटिक तथा आर्कटिक क्षेत्रो एवं पहाड़ी चोटियों पर जमा हुआ है।

ग्लेशियरबर्फ के रूप में इतना पानी उपलब्ध है कि इससे संसार भर की नदियाँ एक हजार साल तक लबालब रह सकती हैं। बहुत थोड़ा पानी है जो धरती पर साधारण रूप में उपलब्ध है। लेकिन यह मात्रा भी कोई कम नहीं है। धरती पर एक लाख छत्तीस हजार घन किलोमीटर पेयजल उपलब्ध है, जिसमें से मात्र 14,000 घन किलोमीटर पानी ही उपयोग में आ पाता है।

समुद्री पानी खारा होता है। इसके एक लीटर पानी में लगभग 35 ग्राम नमक होता है। आप भी यही सोच रहे होंगे ना कि बरसाती पानी तो मीठा होता है, फिर समुद्री पानी खारा क्यों हो जाता है। जबकि समुद्र में पानी वर्षा से ही आता है। होता यह है कि बारिश का पानी जब जमीन पर गिरता है तो मिट्टी व चट्टानों में छुपे नमक के बारीक-बारीक कण इसमें घुल जाते हैं। यह हलका खारा पानी नदियों में बह जाता है।

नदियों के पानी में खारापन इतना कम होता है कि चखने पर इसका एहसास नहीं होता है। इसके विपरीत हवा द्वारा समुद्रों से पृथ्वी ओर लाई गई वाष्प, वर्षा बनकर बरसती है। यह वाष्प विशुद्ध पानी होता है और इसमें नमक की शून्य मात्रा होती है। इस तरह नमक की रफ्तार धरती से समुद्र की तरफ एक तरफा होती है। कई करोड़ वर्षों से यह प्रक्रिया चल रही है, जिसके कारण समुद्र जल में खारापन दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। यह प्रक्रिया आज भी जारी है।

महासागर धरती के लिए वरदान है। ये पृथ्वी के तापमान को अनुकूल बनाए रखने में शीतक की तरह भी कार्य करते हैं। वो पहेली तो आपने सुनी होगी ना- उड़ते हैं, पर पक्षी नहीं काले है, पर भील नहीं गरज बड़ी, पर सिंह कहे देते जल, पर झील नहीं। बूझ गए ना। हाँ, हम बादलों की बात कर रहे हैं। ये बादल भी तो पानी का ही रूप होते है। जब सूर्य देवता तपते हैं तो पृथ्वी पर स्थित जलस्रोतों समुद्र, नदियों, झीलों, मिट्टी, वनस्पति,सभी से पानी भाप बनकर उड़ता है।

एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने के अतिरिक्त हवा वातावरण में ऊपर से नीचे भी घूमती है। जब यह ऊपर की ओर जाती है, तब यह उच्च दबाव क्षेत्र से कम दबाव वाले क्षेत्र में जाती है। इस प्रकार हवा फैलती है। इसके लिए वह पहले से मौजूद हवा को हटाकर अपने लिए स्थान बनाती है। इस कार्य के लिए यह अपनी ही ताप-ऊर्जा का प्रयोग करती है और इस प्रकार अपने भीतर ठण्डापन लाती है।

यदि यह ठण्डक काफी बढ़ जाती है तब वाष्प धूल कणों के चारों ओर ही घनीभूत हो जाती है। ये धूल कण सदैव हवा के साथ-साथ ही होते हैं। इस प्रकार तैयार जलकण हवा में तैरते रहते हैं, जिन्हें हम बादल कहते हैं। एक मिलीमीटर अथवा इसी आकार की छोटी बूँद के लिए लाखों-करोड़ों जलकणों को एक होना पड़ता है। जब बूँद भारी हो जाती है तो उसका हवा में तैरना कठिन हो जाता है। ऐसे मेें वर्षा होने लगती है।

कई बार हवा जमाव के तापमान तक सर्द हो जाती है। तब बर्फ कणों की बारिश होने लगती है, जिसे हम ‘हिमलव’ या आम बोलचाल की भाषा में ‘ओले गिरना’ कहते हैं। लोगों में धारणा रहती है कि बादल पहाड़ से टकराते हैं तो पानी बरसता है। लेकिन वास्तव में बरसात का किसी वस्तु से टकराने का कोई सम्बन्ध नहीं है।

वास्तव में जब गतिशील आर्द्र हवा की राह में पहाड़ी या अन्य कोई अवरोधक आता है तो यह हवा ऊपर उठने के विवश हो जाती है। इस प्रक्रिया में हवा ठण्डी होती है, परिणामस्वरूप वायु का संघनीकरण और तदुपरान्त वर्षा होती है। आपने भी देखा-सुना होगा कि पहाड़ी क्षेत्रों में बादल घर में घुसकर सील कर देते हैं। हाँ, पेड़-पौधे अवश्य बरसात में सहायक होते हैं।

आप तो जानते ही हैं कि पेड़-पौधे वायुमण्डल में नई और आर्द्रता उत्सर्जित करते हैं। इससे जंगलों के ऊपर बहने वाली हवा और अधिक आर्द्र हो जाती हैं और बरसात हो जाती है।

पृथ्वी और समुद्र दोनों पर फैली होती है। इसी प्रकार ऊँचे पर्वतों पर हिम की बाड़ी-बाड़ी और मोटी परतें होती हैं जो पहाड़ों के ढलानों और घाटियों पर आच्छादित रहती हैं। इन पर्वतीय हिमनदियों का निचला सिरा उन क्षेत्रों में होता है जहाँ हिम कुछ पिघलने लगता है। परिणामस्वरूप हिमानी शीतल जल मैदानों में बहता है।

बारिश के दौरान कभी-कभी इतनी अधिक बारिश हो जाती है कि उसे मापना कठिन हो जाता है। यदि एक घण्टे में सौ किलोमीटर या चार इंच से अधिक पानी गिरे तो कहते हैं कि बादल फट गए। बादल फटने पर बूँदों का आकार पाँच मिलीमीटर से भी बड़ा हो सकता है और इनके गिरने की रफ्तार 10 मीटर प्रति सेकेण्ड तक होती है।

पिछले कुछ सालों के दौरान पेड़ों की कटाई अन्धाधुन्ध हुई, सो बारिश का पानी सीधे जमीन पर गिरता है और मिट्टी की ऊपरी परत को काटते हुए बह निकलता है। इससे नदियों में मिट्टी अधिक पहुँचने के कारण वे उथली तो हो रही है, साथ ही भूमिगत जल का भण्डार भी प्रभावित हुआ है। इसके विपरीत नलकूप, कुँओं आदि से भूमिगत जल का खींचना बेतरतीब बढ़ा है। कागजों पर आँकड़ों में देखें तो हर जगह पानी दिखता है लेकिन हकीकत में पानी की एक-एक बूँद के लिए लोग पानी-पानी हो रहे हैं। अभी तक मौसम वैज्ञानिक बादल फटने की प्रक्रिया को पूरी तरह तो नहीं जान पाए हैं पर अक्सर देखा गया है कि बादल फटने की घटना ऐसी जगह पर होती है, जहाँ एक ओर पहाड़ हों, गर्म हवाएँ वहाँ से ऊपर उठती हों और दूसरी ओर मैदान या नाला हो जहाँ से ठण्डी हवाएँ गुजरती हों। धरती पर बारिश का पानी गिरता है और पानी बहाव के लिए अपना रास्ता बनाने लगता है। इस प्रकार सरिताएँ बनती हैं। कई छोटी-छोटी सरिताओं से नदी और नदियों के समावेश से दरिया बन जाते हैं।

अधिकांश बड़ी-बड़ी नदियों की गति समुद्र के किनारों के पास पहुँच कर धीमी पड़ जाती हैं, क्योंकि वहाँ जमीन का ढलान सीधा सपाट होता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि नदियों के साथ बहकर आई मिट्टी वहाँ एकत्र हो जाती है। इस कारण नदियाँ अनेक छोटी-छोटी धाराओं मे बदल जाती है जो समुद्र में जाकर गिरती है। ऐसे स्थान को डेल्टा कहा जाता है।

सदियों से सतत् जारी भू-परिवर्तनों के फलस्वरूप धरती पर कई विशाल गड्ढे बन गए हैं, जिनमें पानी एकत्र हो जाता है। ये झील कहलाते हैं। धरती से उफन कर ऊँची पर्वतमालाओं से प्रवाहित होने वाली हिम की जमी हुई नदियाँ अथवा अण्टार्कटिक व ग्रीनलैण्ड महाद्वीपों की स्थाई विशिष्टता को ‘हिमनद’ कहते हैं।

उच्च पर्वतमालाओं व शिखरों से उद्गमित हिमनद अपनी स्वयं की घाटियाँ निर्मित करते या पुरानी घाटियों को ग्रहण करते हुए धीरे-धीरे नीचे की ओर खिसकते हैं। अकेले हिमालय क्षेत्र में लगभग 15,000 हिमनद हैं, जो हिन्दूकुश-कराकोरम पर्वतमाला तथा पूर्वी हिमालय-पटकाई बम पर्वतमालाओं के दो अक्षसन्धि मोड़ों के बीच स्थित है। ये हिमनद आकार में 60 किलोमीटर से लेकर 4 किमी तक लम्बे हैं।

महासागरीय जल और मीठे जल का कुल स्टाक, भूवैज्ञानिक इतिहास में हमेशा ही स्थिर रहा है। लेकिन महासागरीय और मीठे जल का अनुपात, जलवायु की दशाओं के अनुसार हमेशा बदलता रहता है। अधिक ठण्ड होने पर बहुुत सा समुद्री जल हिमनदों और बर्फ टोपों द्वारा अवशोषित हो जाता है तथा समुद्री जल की कमी के कारण मीठे जल का परिमाण बढ़ जाता है। जब जलवायु गर्म हो जाती है जो हिमनद गलने लगते हैं, तब बर्फ पिघलने लगती है, फलस्वरूप समुद्री जल बढ़ जाता है। चूँकि पिछले 60-70 वर्षों से धरती का तापमान बढ़ रहा है, सो समुद्र स्तर में बढ़ोतरी हो रही है।

भूमध्य रेखा का अतिरिक्त उठान पानी को नीचे की ओर उत्तरी तथा दक्षिणी ध्रुवों की ओर बहने के लिए प्रेरित करता है चूँकि भूमध्य रेखा का गर्म पानी उत्तर और दक्षिण की ओर बहता है, अतः ध्रुवीय क्षेत्रों में भारी ठण्डा पानी, गर्म जल के नीचे चला जाता है और तल के साथ-साथ धीरे-धीरे भूमध्य रेखीय क्षेत्रों तक फैला जाता है।

जल पर्यावरण का जीवनदायी तत्व है। पारिस्थितिकी के निर्माण में जल आधारभूत कारक है। वनस्पति से लेकर जीव-जन्तु अपने पोषक तत्वों की प्राप्ति जल के माध्यम से करते हैं। जब जल में भौतिक या मानविक कारणों से कोई बाह्य सामग्री मिलकर जल के स्वाभाविक गुण में परिवर्तन लाती है, जिसका कुप्रभाव जीवों के स्वास्थ्य पर प्रकट होता है।

इन दिनों ऐसे ही प्रदूषित जल की मात्रा दिनों दिन बढ़ रही है, फलस्वरूप पृथ्वी पर पानी की पर्याप्त मात्रा मौजूद होने के कारण दुनिया के अधिकांश हिस्से में पेयजल की त्राहि-त्राहि मची दिखती है। भारत में हर साल कोई 40 करोड़ हेक्टेयर मीटर पानी मिलता है। उसका खर्च तीन प्रकार से होता है: सात करोड़ हेक्टेयर मीटर भाप बन कर उड़ जाता है, 11.5 करोड़ हेक्टेयर मीटर नदियों आदि से बहता है, शेष 21.5 करोड़ हेक्टेयर मीटर जमीन में जज्ब हो जाता है।

फिर इन तीनों में लेन-देन चलता रहता है। जमीन में जज्ब होने वाले कुल 21.5 करोड़ हेक्टेयर मीटर पानी में से 16.5 करोड़ हेक्टेयर मीटर पानी मिट्टी की नमी बनाए रखता है और बाकी पाँच करोड़ हेक्टेयर मीटर जल भूमिगत जल स्रोतों में जा मिलता है।

पिछले कुछ सालों के दौरान पेड़ों की कटाई अन्धाधुन्ध हुई, सो बारिश का पानी सीधे जमीन पर गिरता है और मिट्टी की ऊपरी परत को काटते हुए बह निकलता है। इससे नदियों में मिट्टी अधिक पहुँचने के कारण वे उथली तो हो रही है, साथ ही भूमिगत जल का भण्डार भी प्रभावित हुआ है। इसके विपरीत नलकूप, कुँओं आदि से भूमिगत जल का खींचना बेतरतीब बढ़ा है।

तालाबकागजों पर आँकड़ों में देखें तो हर जगह पानी दिखता है लेकिन हकीकत में पानी की एक-एक बूँद के लिए लोग पानी-पानी हो रहे हैं। जहाँ पानी है, वह इस्तेमाल के काबिल नहीं है। आज जलनिधि को बढ़ता खतरा, बढ़ती आबादी से कतई नहीं है।

खतरा है आबादी में बढ़ोतरी के साथ बढ़ रहे औद्योगिक प्रदूषण, दैनिक जीवन में बढ़ रहे रसायनों के प्रयोग और मौजूद जल संसाधनों के अनियोजित उपयोग से। यह दुखद है कि जिस जल के बगैर एक दिन भी रहना मुश्किल है, उसे गन्दा करने में हम-हमारा समाज बड़ा बेरहम है।

यह पुस्तक भारत में पानी के अलग-अलग स्रोतों के साथ हो रही निर्ममताओं की जीवन्त रपट प्रस्तुत करती है। इसमें पारम्परिक व आधुनिक जल निधियों पर हो रहे आधुनिकता के प्रभाव का थोड़ा सा अन्दाजा भी लग जाएगा। यहाँ उल्लिखित कई आलेख समय-समय पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं मे छपते रहे, लेकिन उनकी एक शब्द-सीमा होती है, पुस्तक में अपनी बात को खुल कर कहने की गुंजाईश ज्यादा होती है।

हमारा इरादा केवल समस्या का बखान करना मात्र नहीं हैं, हम चाहते हैं कि आने वाले पन्नों को पढ़कर आप खुद विचार करें कि हम किस त्रासदी की ओर बढ़ रहे हैं और इसके निराकरण के लिए निजी तौर पर हम क्या कर सकते हैं।

हिन्द महासागर

Book Review - Paanidar Samaaj

पानीदार समाज

.भारत का बड़ा हिस्सा पानी के मामले में दूभर माना जाता है। विशेष रूप से राजस्थान, गुजरात का सौराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश का रायलसीमा, महाराष्ट्र का मराठवाड़ा, मध्य प्रदेश का बुन्देलखण्ड, कनार्टक का कुर्ग क्षेत्र लगभग प्रत्येक तीन वर्ष में एक बार अल्प वर्षा व चार वर्ष में एक बार अति वर्षा से जूझता है।
यहाँ जल संकट साल भर बना रहता है। इसके बावजूद कई गाँवों में कई ऐसे सेनानी हैं, जोकि जल संग्रहण के कार्य में अपनी तकनीक, श्रम और धन से पानी के प्राकृतिक संकट पर भारी हैं। देश के विभिन्न क्षेत्रों में कई स्वयंसेवी संस्थाएँ व व्यक्ति पानी के संरक्षण के अनूठे प्रयोग कर रहे हैं। जहाँ देश का बड़ा हिस्सा पानी का संकट खड़ा होने पर सरकार व प्रकृति को कोसने व चीखने में लिप्त रहता है व इसे अपनी नियति मानकर कहीं से भी पानी चुराने की जुगत में रहता है, वहीं देश में कई लोग ऐसे भी हैं जो संकट को चुनौती के तौर पर लेते हैं, पानी की हर बूँद को सहेजते हैं, किफायत से खर्च करते हैं और वक्त के साथ अपने पुरखों से मिले ‘‘जल-संचय’’ ज्ञान को संवर्धित करते हुए अगली पीढ़ी को भरोसा दिलाते हैं कि यदि दिल में जज्बा हो तो पानी का कहीं अकाल नहीं है।
सौराष्ट्र इलाके में कई लाख कुएँ और नलकूप हैं, जिनमें से कई का जल स्तर 200 फीट तक गहरा है। पाँच लाख से ज्यादा पम्प सेट पानी को जमीन से उलीचने में लगे हुए हैं, जाहिर है कि पाताल पानी कितने दिन जिन्दा रहेगा। ऐसे में भावनगर जिले के खाणका, राजकोट के राजसमढियाला सांवरकुडला जैसे गाँवों में प्रेमजी भाई पटेल, हरदेव सिंह जडेजा, श्यामजी भाई अंटाला जैसे लेागों ने स्थानीय भूविज्ञान को पढ़कर पानी को संचित करने के अपने तरीके गढ़े है। और वे लाखें रुपए खर्च कर इंजीनियरिंग की डिग्री पाए ज्ञानियों की समझ से परे हैं। राजस्थान के अलवर जिले में अरवरी नदी के क्षेत्र में बसे 70 गाँवों द्वारा नदी को जिन्दा करने व अब उसके पानी व संसाधनों के उपभोग का फैसला सामूहिक तौर पर एक संसद बुलाकर करने का प्रयोग तो भारत सरकार द्वारा सम्मानित किया जा चुका है।
‘‘पानीदार समाज’’ एक ऐसी पुस्तक है जिसमें ऐसे ही आशा जगाते चुनिन्दा अनूठे व अनुकरणीय प्रयोगों को चित्रों के साथ प्रकाशित किया गया है। यह जल संकट से परेशान लोगों के लिए उम्मीद की किरण तो है ही, साथ ही यह देश की जल-नीति निर्धारकों के लिए दस्तावेज भी है। झारखण्ड की राजधानी राँची से करीब अनगढ़ा प्रखण्ड में टाटी पंचायत के सिंगारी गाँव में 18 तालाब हैं जो हर कंठ की प्यास व हर खेत की आस को पूरा करते हैं।
पहले यहां ‘‘दांडी’’ हुआ करते थे, तालाब की ही तरह पारम्परिक जल-निधि। दांडी नष्ट होने के बाद वहाँ पानी की मारामारी हुई व गाँव वाले अपनी जड़ों की तरफ लौटे व तालाब बना दिए। जल जागरुकता के बाद अब वहाँ हरियाली व जंगल बचाने का काम भी बेहतरीन चल रहा है। उड़ीसा के सम्भलपुर का पाएँधरा में जल का जादू हो या अहमदाबाद जिले के धन्धुका तालुके के बोरासू जैसे गाँव जहाँ पानी पर ताला लगाया जाता है और उससे पानी निकालने व भरने का हिसाब रखा जाता है, या फिर उज्जैन जिले में महिदपुर के पास मोहिनुद्दीन पटेल द्वारा रची गई ‘‘बूँदों की बैरक’’- ऐसे ही कई प्रयोगों की जीवन्त कहानियों का संकलन अमन नम्र ने ‘‘चरखा’’ में काम करने के दौरान किया था।
लेखक अमन नम्र पत्रकार हैं और पिछले एक दशक से देश के विभिन्न हिस्सों में जारी कई जनान्दोलनों, सकारात्मक सामुदायिक प्रयासों के सहयात्री रहे हैं। लेखन व संचार विषय पर सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए देशभर में लगभग 50 कार्यशालाओं के संचालन के साथ-साथ कई पुस्तकों का लेखन व संपादन। नेशनल बुक ट्रस्ट के लिए ‘‘हमारा पर्यावरण’’ पुस्तक का हिन्दी अनुवाद करने वाले श्री नम्र को वर्ष 2001 में भारतीय प्रतिष्ठान की ओर से दक्षिण एशिया मीडिया एक्सचेंज कार्यक्रम के तहत् नेपाल के लिए विशेष फ़ेलोशिप प्रदान की गई थी। इन दिनों वे दैनिक भास्कर, भोपाल के सम्पादकीय विभाग में कार्यरत हैं।
यदि आपको भी यह भरोसा रखना है कि छोटे स्तर पर स्थानीय संसाधनों, तकनीक और पारम्परिक ज्ञान से किए गए प्रयोग कभी निराश नहीं करते तो यह पुस्तक जरूर पढ़ें। बड़े आकार में रंगीन चित्रों के साथ 70 पेज की इस पुस्तक का दाम महज रु. 135/ है और इसे आनॅलाईन भी खरीदा जा सकता है।
नेशनल बुक ट्रस्ट http://nbtindia.gov.in/books_detail__20__popular-
social-science__1387__paanidar-samaj.nbt
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शनिवार, 17 जनवरी 2015

रेगिस्‍तान की रजत बूंदें

मरूभूमि की प्यास को झुठलाते पारम्परिक जल साधन
लेखक:
पंकज चतुर्वेदी
.‘राजस्थान’ देश का सबसे बड़ा दूसरा राज्य है परन्तु जल के फल में इसका स्थान अन्तिम है। यहाँ औसत वर्षा 60 सेण्टीमीटर है जबकि देश के लिए यह आँकड़ा 110 सेमी है। लेकिन इन आँकड़ों से राज्य की जल कुण्डली नहीं बाची जा सकती। राज्य के एक छोर से दूसरे तक बारिश असमान रहती है, कहीं 100 सेमी तो कहीं 25 सेमी तो कहीं 10 सेमी तक भी।

यदि कुछ सालों की अतिवृष्टि को छोड़ दें तो चुरू, बीकानेर, जैलमेर, बाड़मेर, श्रीगंगानगर, जोधपुर आदि में साल में 10 सेमी से भी कम पानी बरसता है। दिल्ली में 150 सेमी से ज्यादा पानी गिरता है, यहाँ यमुना बहती है, सत्ता का केन्द्र है और यहाँ पूरे साल पानी की मारा-मारी रहती है, वहीं रेतीले राजस्थान में पानी की जगह सूरज की तपन बरसती है।

दुनिया भर के अन्य रेगिस्तानों की तुलना में राजस्थान के मरू क्षेत्र की बसावट बहुत ज्यादा है और वहाँ के वाशिन्दों में लोक, रंग, स्वाद, संस्कृति, कला की सुगन्ध भी है।

पानी की कमी पर वहाँ के लोग आमतौर पर लोटा बाल्टी लेकर प्रदर्शन नहीं करते, इसकी जगह एक एक बूँद को बचाने और उसे भविष्य के लिए सहेजने के गुर पीढ़ी-दर-पीढ़ी सिखाते जाते हैं। रेगिस्तानी इलाकों में जहाँ अंग्रेजी के ‘वाय’ आकार की लकड़ी का टुकड़ा दिखे तो मान लो कि वहाँ कुईयाँ होगी। कुईयँ यानि छोटा कुआँ जो पूरे साल पानी देता है।

सनद रहे कि रेगिस्तान में यदि जमीन की छाती खोदकर पानी निकालने का प्रयास होगा तो वह आमतौर पर खारा पानी होता है। गाँव वालों के पास किसी विश्वविद्यालय की डिग्री या प्रशिक्षण नहीं होता, लेकिन उनका लोक ज्ञान उन्हें इस बात को जानने के लिए पारंगत बनाता है कि अमुक स्थान पर कितनी कुईयाँ बन सकती हैं। ये कुईयाँ भूगर्भ जल की ठाह पर नहीं होती, बल्कि इन्हें अभेद चट्टानों के आधार पर उकेरा जाता है।

कुईयाँ तो खुद गई लेकिन इसमें पानी कहाँ से आएगा? क्योंकि इन्हें भूजल आने से पहले ही खोदना बन्द किया जाता है। इस तिलस्म को तोड़ा है गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली के मशहूर पर्यावरणविद तथा अभी तक हिन्दी की सबसे ज्यादा बिकने वाली पुस्तक ‘आज भी खरे हैं तालाब’ के लेखक अनुपम मिश्र ने।

उन्होंने रेगिस्तान के बूँद-बूँद पानी को जोड़कर लाखों कण्ठ की प्यास बुझाने की अद्भुत संस्कृति को अपनी पुस्तक - ‘राजस्थान की रजत बूँदें’ में प्रस्तुत किया है। यह पुस्तक काफी पहले आई थी, लेकिन तालाब वाली पुस्तक की लोकप्रियता की आँधी में इस पर कम विमर्श हुआ। हालांकि इस पुस्तक की प्रस्तुति, उत्पादन, भाषा, तथ्य, कहीं भी तालाब वाली पुस्तक से उन्नीस नहीं हैं।

बारिश का मीठा पानी यदि भूजल के खारे पानी में मिल जाए तो बेकार हो जाएगा। मानव की अद्भुत प्रवीणता की प्रमाण ये कुईयां रेत की नमी की जल बूँदों को कठोर चट्टानों की गोद में सहेज कर रखती हैं।

ऐसी कुईयाँ राजस्थान के शेखावटी इलाके में मिलती हैं। इनका केवल थार वाले इलाके में मिलने का कारण महज् वहाँ का रेगिस्तान ही नहीं है। तथ्य यह है कि वहाँ के लोग जानते हैं कि मिट्टी के तले कठोर चट्टानों की संरचना केवल यहीं मिलती हैं।

हालांकि इन छोटे कुओं में पानी की तल घटता-बढ़ता है, परन्तु ‘वाई’ आकार के लकड़ी के लट्ठों वाली इन कुइयों से पूरे साल हर दिन तीन-चार बाल्टी पानी मिल ही जाता है। जिन इलाकों में सरकारी जल योजनाएँ फ्लाप हैं वहाँ ये कुइयाँ बगैर थके पानी देती रहती हैं।

ये कुइयाँ कहाँ खुद सकती है? इसका जानकार तो एक व्यक्ति होता है, लेकिन इसकी खुदाई करना एक अकेले के बस का नहीं होता। सालों साल राजस्थान की संस्कृति में हो रहे बदलाव के चलते अब कई समूह व समुदाय इस काम में माहिर हो गए हैं।

खुदाई करने वालों की गाँव वाले पूजा करते हैं, उनके खाने-पीने, ठहरने का इन्तजाम गाँव वाले करते हैं और काम पूरा हो जाने पर शिल्पकारों को उपहारों से लाद दिया जाता हैं। यह रिश्ता केवल यहीं समाप्त नहीं हो जाता, प्रत्येक वार-त्योहार पर उन्हें भेंट भेजी जाती हैं। आखिर वे इस सम्मान के हकदार होते भी हैं।

.रेतीली जमीन पर महज् डेढ़ मीटर व्यास का कुआं खोदना कोई आसान काम नहीं हैं। रेत में दो फुट खोदो तो उसके ढहने की सम्भावना होती हैं। यहीं नहीं गहरे जाने पर सांस लेना दूभर होता हैं।

कुईयाँ खोदने वाला एक सदस्य छोटे से औजार से गहरा खोदता हैं, उसके सिर पर एक काम चलाऊ हेलमेट होता हैं। यह कारीगर खुदाई के साथ-साथ दीवार पर कुण्डली के आकार की रस्सी से बनी परत चढ़ाता हैं। सौ मीटर गहरे कुएँ के लिए चार हजार मीटर लम्बी रस्सी की जरूरत होती है। यह रस्सी स्थानीय स्तर पर मिलने वाले जंगली पौधे ‘सीतु’ से बनाई जाती हैं।

टीम के शेष सदस्य, खुदाई की मिट्टी बाल्टी से बाहर निकालने, सीतु से रस्सी बनाने, कुण्डली तैयार करने जैसे काम करते रहते है। एक बात और जो लोग बाहर खड़े होते हैं वे कुछ समय अन्तराल में भीतर मिट्टी रेत आदि फेंकते रहते हैं, असल में ये कण अपने साथ बाहर की ताजी हवा लेकर जाते हैं जो भीतर गहराई में काम कर रहे शिल्पकार को साँस लेने में मदद करते हैं।

ये कुईयाँ डेढ़ सौ फुट तक गहरी होती हैं। कई गाँवों में 200 साल पुरानी कुइयाँ भी हैं जिससे आज भी पानी मिल रहा है।

जिन लोगों ने अनुपम बाबू की पुस्तक ‘आज भी खरे हैं तालाब’ को सहेज कर रखा है, उनके लिए यह पुस्तक भी अनमोल निधि होगी। इसकी कीमत भी रु. 200 है और इसे गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान, दीनदायाल उपाध्याय मार्ग, नई दिल्ली 110002 से मँगवाया जा सकता है।http://hindi.indiawaterportal.org/node/487

Delayed Justice is denied justice

देर से मिला न्याय बेमानी है

                                                                  पंकज चतुर्वेदी





दिल्ली से सटे गाजियाबाद में अदालती प्रक्रिया वीभत्स चेहरा देखा जा सकता है। पश्‍िचिमी उत्तर प्रदेश में उच्च न्यायालय की पीठ की मांग को ले कर वकील दो महीने से हडताल पर हैं। उधर जेल में ऐसे लेागों की संख्या बढ़ती जा रही है, जो एक ही दिन में जमानत पाने वाले सामान्य अपराध में जेल भेज दिए गए हैं। कड़ाके की ठंड में ऐसे कैदियों की बढ़ती भीड़ से प्रशासनकी परेशानी बढ़ गई है। दो दिन वकीलों ने एहसान किया मोटी फीसले कर चुनिंदा मुवक्किलों के मामले आगे बढ़ाए।  ना जाने कितनों का फैसला, जमानत, गवाही , पैरवी इस हड़ताल के चलते सालों लटक गई। लेकिन अदालत में काम कराना है तो वकीलों को लाना ही होगा और वकीलों की मनमानी रोकने का कोई कानून है नहीं। हालांकि यहां एक प्रयोग भी हुआ है- जिला अदालत के जज खुद जेल जा कर बैठ रहे हैं, छोटे मुकदमों मंे बंद मुजरिमों को प्रेरित किया कि वे खुद अपनी पैरवी करें। इस तरह कई लोगों की जमानत हो गई। लेकिन मुकदमों के फैसले आने के लिए वकील की भूमिका महति है। मेरठ की अदालतों में वकीलों के अड़ंगे के चलते वहां के केस सहारनपुर भजे गए तो नया बखेड़ा खउ़ा हुआ। ऐसे ही हालात देशभर में जिला, ब्लाक स्तर की अदालतों में आए रोज दिखते हैं -किसी की मौत तो किसी पर हमले का विरोध तो कभी आपसी गुटबंदी, वकील हड़ताल पर चले जाते हैं अदालतें ठप्प हो जाती हैं। भले ही उच्च न्यायालय नसीहतें देते रहें लेकिन वकील हैं कि मानते ही नहीं।
देश की सर्वोच्च अदालत में मुकदमों की संख्या कोई 55 हजार है, विभिन्न हाई कोर्ट में पैंतालिस लाख मुकदमें न्याय की बाट जोह रहे हैं। निचली अदालतों में लंबित मुकदमों की संख्या दो करोड़ पैंतालिस लाख को पार कर गई है।  यदि इसी गति से मुकदमों का निबटान होता रहा तो 320 साल चाहिए। इस बीच अदालतों में भ्रष्‍टाचार के मामले भी खूब उछल रहे हंै। ऐसे में अदालतों के सामाजिक सरोकार पर विचार होना जरूरी है। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रहते हुए माननीय आर.एस लोढा ने विचार जताया था कि मुकदमों के बढ़ते बोझ से निबटने के लिए अदालतों को 365 दिन काम करना चाहिए। इससे पहले अदालतों को दो सत्रों में लगाने की बात भी हो चुकी है। हालांकि वकीलों का मानना है कि 365 दिन काम करने से भी मुकदमों पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला असल में मुकदमों की सुनवाई की प्रक्रिया, एक फैसला आने पर अपील का विकल्प और कानूनी प्रक्रिया का दिनों-दिन जटिल, महंगा आम आदमी की पहुंच से बाहर आना, ना केवल आम लोगों के दिल में न्याय-मंदिर के प्रति आस्था कम कर रहा है, साथ ही निराषा में और अपराध करने या खुद ही न्याय कर देने की प्रवृति को भी बढ़ावा दे रहा है।
JANSANDESH TIMES UP 21-1-15
बिहार में शंकर बिगहा के नृशस सामूहिक हत्याकांड में फैसला आया 19 साल बाद और नता चला कि उन 22 लोगों को किसी ने नहीं मारा था। मृतकों के परिवार, अभियुक्तों के कुल, की पीढि़यां बदल गईं, इलाके का भूगोल सियासत बदल गई, लेकिन न्याय नहीं मिला। इंदिराजी के मंत्रीमंडल में रेल मंत्री रहे ललित नारायण मिश्र की हत्या के मामले में फैसला आने में चालीस साल लगे। मुंबई धमाकों में पूरे 20 साल लग गए सुप्रीम कोर्ट तक फैसला आने में  इसी तरह एक मामला था सन 2000 में केरल मे ंनकली शराब पीने से 31 लोगों से हुई मौत का। पुलिस ने गैरइरादतन हत्या का मामला दर्ज किया और निचली अदालत ने इसके तहत दो साल की सजा सुना दी। मामला उच्च न्यायालय में गया और अदालत ने सजा बढ़ा कर पांच साल कर दी। आरोपी सुप्रीम कोर्ट गया, वहां न्यायमूर्ति आफताब आलम और रंजना प्रकाश देसाई की खंडपीठ ने उच्च न्यायालय की सजा को बरकरार रखते हुए कहा कि दंड तो मानव जीवन की पवित्रता को स्वीकार करने वाला होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट को दुख था कि 31 लोगों की मौत का कारण बने व्यक्ति को इतनी कम सजा हो रही है। यह बानगी है कि किस तरह निचली अदालतें मनमाने तरीके से अपराधियों की सजओं का निर्धारण करती हैं यह बात अब किसी से दबी-छुपी नहीं है कि जिला स्तर पर अदालतों में जम कर लेन-देन हो रहा हे। कई बार तो चर्चित अपराधों में सजा के फैसले इस तरह लिखने के मोल-भाव हो जाते हैं कि जब उसकी अपील ऊंची अदालत में जाए तो आरोपी को बरी होने में मदद मिल जाए। एक अन्य मामले का जिक्र करना जरूरी है जिसमें जयपुर यूनिवस्रिटी के जेसी बोस हाॅस्टल में कोई पंद्रह साल पहले एक राह चलती लड़की को अगवा कर ले जाया गया था और डेढ़ दर्जन लोगों ने उसके साथ बलात्कार किया था। 05 सितंबर 1997 कांे अपराध हुआ और मामले की जिला अदालत में सुनवाई पूरी हुई 25 अक्तूबर 2012 को पंद्रह साल बाद नौ लोग इस मामले में बरी कर दिए गए , जबकि आठ को 10 साल की सजा सुनाई गई। जरा सोचिए कि न्याय पाने के लिए उस 21 साल की लड़की को अपने प्रौढ होने का इंतजार करना पड़ा। हो सकता है इस बीच उसकी नौकरी लग गई हो, उसका परिवार हो बच्चे हो। वहीं आधे आरोपी छूट गए और सजा पाए आरोपियो के पास भी अभी उच्च न्यायालय जाने का विकल्प खुला है। क्या कोई आम आदमी इतनी लंबी कानूनी लड़ाई के लिए आर्थिक, मानसिक, सामाजिक और व्यावहारिक तौर पर सक्षम होता है ?
देश की सड़कों पर आए रोज दिखने वाला आम आदमी का गुस्सा भले ही उस समय महज पुलिस या व्यवस्था का विरोध नजर आता हो, हकीकत में यह हमारी न्याय व्यवस्था के लिए गंभीर चुनौती है - लोग अब महसूस कर रहे हैं कि देर से मिला न्याय अन्याय के बराबर ही है। यह बात भी लोग अब महसूस कर रहे हैं कि हमारी न्याय व्यवस्था में जहां अपराधी को बचने के बहुत से रास्ते खुले रहते हैं , वहीं पीडि़त की पीड़ा का अनंत सफर रहता है। हाल ही में देश की सुप्रीम कोर्ट ने हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली पर ही सवाल खड़े करते हुए कहा है कि  निचली अदालतों के दोशी को दी जाने वाली सजा के निर्धारण के लिए कोई विधायी या न्यायिक दिषा-निर्देश ना होना हमारी न्याय प्रणाली की सबसे कमजोर कड़ी है। कई मामाले पहले दस साल या उससे अधिक निचली अदालत में चलते हैं फिर उनकी अपील होती रहती है। कुछ मिला कर एक उम्र बीत जाती है, न्याय की आस में वहीं लंपट और पेशेवर अपराधी न्याय व्यवस्था की इस कमजोरी का फायदा उठा कर कानून से बैखोफ बने रहते हैं।
देशभर में हो रहे मौजूदा प्रदर्षनों में फास्ट-ट्रैक अदालतों या जल्दी फैसले का जिक्र हो रहा है। अभी पिछले साल ही मध्यप्रदेश के धार जिले में हत्या के एक मामले में एक महीने के भीतर आरोपियों को सजा सुना दी गई। राजस्थान में भी 21 दिन में फैसले हुए हैं। जाहिर है कि अदालतों में जल्दी फैसले सकते हैं। साफ नजर आता है कि आखिर मामलों को लंबा खींचने में किसके स्वार्थ निहित होते हैं। आजादी के बाद चुने हुए प्रतिनिधियों, नौकरशाही ने किस तरह आम लोगों को निराश किया,इसकी चर्चा अब मन दुखाने के अलावा कुछ नहीं करती है यह समाज ने मान लिया है कि ढर्रा उस हद तक बिगड़ गया है कि उसे सुधरना नामुमकिन है भले  ही हमारी न्याय व्यवस्था में लाख खामियां हैं, अदालतों में इंसाफ की आस कभी-कभी जीवन की संास से भी दूर हो जाती है इसके बावजूद देश को विधि सममत तरीके से चलाने के लिए लोग अदालतों को उम्मीद की आखिरी किरण तो मानते ही हैं बीते कुछ सालों से देश में जिस तरह अदालत के निर्देशों पर सियासती दलों का रूख देखने को मिला हैै, वह केवल शर्मनाक है, बल्कि इससे संभावना जन्म लेती है कि कहीं पूरे देश का गणतंत्रात्मक ढ़ांचा ही पंगु हो जाए
यह विडंबना है कि देश का बहुत बड़ा तबका थोडे़ से भी न्याय की उम्मीद न्यायपालिका से कर ही नहीं पाता है। गरीब लोग तो न्यायालय तक पहुंच ही नहीं पाते। इसकी औपचारिकताओं और जटिल प्रक्रियाओं के कारण केवल वकीलों द्वारा ही न्यायालय में बात कही जा सकती है, लेकिन गरीब लोग वकीलों की बड़ी-बड़ी फीसें नहीं दे सकते, वे न्याय से वंचित रह जाते हैं। जो कुछ लोग न्यायालय तक पहुंच पाते हैं उन्हें यह उम्मीद नहीं होती कि एक निष्चित समयावधि में उनके विवाद का निपटारा हो पाएगा। मुकदमे के निर्णय में जितने समय की सजा दी जाती है उससे ज्यादा समय तो मुकदमों की सुनवाई में ही लग जाता है। अगर इस दौरान मुवक्किल जेल से बाहर हुआ तो इस सारे मुकद्मे के दौरान अपने को बचाने की कवायद की परेशानी और सजा से ज्यादा खर्चे और जुर्माना ही कष्टदायी हो जाता है। पुलिस और प्रभावशाली लोग न्यायिक प्रक्रिया को और भी ज्यादा दूरूह बना रहे हैं क्योंकि प्रभावशाली लोग पुलिस को अपने इषारों परनचाते हैं और उन लोगों को डराने धमकाने और चुप कराने के लिए पुलिस का इस्तेमाल करते हैं जो अत्याचारी और शोषणपूर्ण व्यवस्था को बदलने का प्रयास कर रहे हैं। एक तरफ न्याय प्रक्रिया जटिल है तो दूसरी ओर वकील या अदालतों पर कोई जिम्मेदारी या समयबद्धता का दवाब नहीं है। देशभर की अदालतों में वकील साल में कई दिन तो हडताल पर ही रहते हैं, यह जाने बगैर कि एक पेषी चूकने से उनके मुवक्किल की न्याय से दूरी कई साल की बढ़ जाती है। यह भी कहना गलत ना होगा कि बहुत से मामलों में वकील खुद ज्यादा पेषी की ज्यादा फीस के लालच में केस को खींचते रहते हैं।
देश की बड़ी और घनी आबादी, भाषाई, सामाजिक और अन्य विविधताओं को देखते हुए मौजूदा कानून और दंड देने की प्रक्रिया पूरी तरह असफल रही है। ऐसे में कुछ सिनेमा याद आते हैं- 70 के दशक में एक फिल्म में हत्या के लिए दोशी पाए गए राजेश खन्ना को फरियादी के घर पर देखभाल करने के लिए रखने पर उसका ह्दय परिवर्तन हो जाता है। अभिशेक बच्चन की एक फिल्म में बड़े बाप के बिगड़ैल युवा को एक वृद्धाश्रम में रह कर बूढ़ों की सेवा करना पड़ती है।  वैसे पिछले साल दिल्ली में एक लापरवाह ड्रायवर को सड़क पर खड़े हो कर 15 दिनों तक ट्राफिक का संचालन करने की सजा वाला मामला भी इसी श्रंखला में देखा जा सकता है, लेकिन दुर्भाग्य कि ऐसी व्यावहारिक सजा को बाद में बड़ी अदालत ने कानूनसम्मत ना मानते हुए रोक लगा दी थी। मोटर साईकलों पर उपद्रव काटने वाले सिख युवकों को कुछ दिनों के लिए गुरूद्वारे में झाड़ू-पोंछा करने का सजा की भी समाज में बेहद तारीफ हुई थी।
क्या यह वक्त नही गया है कि लिखे कानून के बनिस्पत सुधार के लिए जरूरी कदमों या अपराध-निवारण को अपनाया जाए ?आज की न्यायीक व्यवस्था बेहद महंगी, डरावनी, लंबी खिंचने वाली है। गरीब लोग तो अदालतों की प्रक्रिया में सहभागी ही नहीं हो पाते हैं। उनके लिए न्याय की आस बेमानी है। साक्ष्य अधिनियम को सरल बनाना, सात साल से कम सजा वाले मामालों में सयब़ नीति बनाना, अदालतों में बगैर वकील की प्रक्रिया को प्रेरित करना, हडताल जैसी हालत में तारीख आगे बढाने की जगह वकील को दंडित करना जैसे कदम अदालतों के प्रति आम आदमी के विश्‍वास को बहाल करने में मददगार हो सकते हैं। ऊंची फीस लेने वाले वकीलों का एक वर्ग ऐसी सिफारिशों को अव्यावहारिक और गैरपारदर्शी या असंवदेनशील करार दे सकता है, लेकिन देशभर में सडकों पर उतरे लोगों की भावना ऐसी ही है और लोकतंत्र में जनभावना ही सर्वोपरि होती है।

पंकज चतुर्वेदी
यू जी-1, 3/186 राजेन्द्र नगर, सेक्टर-2
साहिबाबाद, गाजियाबाद
201005
गाजियाबाद 201005




201005
गाजियाबाद 201005




Why was the elephant not a companion?

    हाथी क्यों न रहा साथी ?                                                                    पंकज चतुर्वेदी   हाथियों और मानव के ब...