My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

बुधवार, 29 अगस्त 2018

climate change going dangerous for india




मानव के अस्तित्व पर संकट की आहट

पंकज चतुर्वेदी

इस बार केरल बरसात में बह गया। पिछले साल चेन्नई में यही हुआ था और उससे पहले साल कश्मीर में। देश का बड़ा हिस्सा सूखा रहता है और किसी एक जगह सारा पानी बरस जाता है। इसी साल 18 फरवरी को गत पांच सालों में सबसे गर्म दिन कहा गया था। दरअसल, मौसम एक दशक से समाज को तंग कर रहा है। हाल ही में अमेरिका की स्पेस एजेंसी नासा ने भी कहा है कि फरवरी में तापमान में अप्रत्याशित वृद्धि ने पूर्व के महीनों के रिकार्ड को तोड़ दिया है। आज तापमान में वृद्धि के रिकार्ड टूटने जा रहे हैं। 1951 से 1980 की तुलना में धरती की सतह और समुद्र का तापमान फरवरी में 1.35 सेल्सियस अधिक रहा है।



बदलाव को समझने के लिए भारत के आदिग्रंथ महाभारत के एक हिस्से को बांचते हैं। करीब पांच हज़ार वर्ष पूर्व के ग्रंथ महाभारत में ‘वनपर्व’ में महाराजा युधिष्ठिर मार्कण्डेय ऋषि से विनम्रतापूर्वक पूछते हैं— ‘महामुने, आपने युगों के अन्त में होने वाले अनेक महाप्रलय के दृश्य देखे हैं, मैं आपके श्रीमुख से प्रलयकाल का निरूपण करने वाली कथा सुनना चाहता हूं।’ इसमें ऋषि जवाब देते हैं— ‘हे राजन! प्रलय काल में सुगंधित पदार्थ नासिका को उतने गंधयुक्त प्रतीत नहीं होंगे। रसीले पदार्थ स्वादिष्ट नहीं रह जाएंगे। वृक्षों पर फल और फूल बहुत कम हो जाएंगे और उन पर बैठने वाले पक्षियों की विविधता भी कम हो जाएगी। वर्षाऋतु में जल की वर्षा नहीं होगी। ऋतुएं अपने-अपने समय का परिपालन त्याग देंगी। वन्य जीव, पशु-पक्षी अपने प्राकृतिक निवास की बजाय नागरिकों के बनाए बगीचों और विहारों में भ्रमण करने लगेंगे। संपूर्ण दिशाओं में हानिकारक जन्तुओं और सर्पों का बाहुल्य हो जाएगा। वन-बाग और वृक्षों को लोग निर्दयतापूर्वक काट देंगे।’ कृषि और व्यापार पर टिप्पणी करते हुए मार्कण्डेय ऋषि कहते हैं— ‘भूमि में बोये हुए बीज ठीक प्रकार से नहीं उगेंगे। खेतों की उपजाऊ शक्ति समाप्त हो जाएगी। लोग तालाब-चरागाह, नदियों के तट की भूमि पर भी अतिक्रमण करेंगे। समाज खाद्यान्न के लिए दूसरों पर निर्भर हो जाएगा।’

वे आगे कहते हैं— ‘हे राजन! एक स्थिति ऐसी भी आएगी कि जनपद जन-शून्य होने लगेंगे। चारों ओर प्रचण्ड तापमान संपूर्ण तालाबों, सरिताओं और नदियों के जल को सुखा देगा। लंबे काल तक पृथ्वी पर वर्षा होनी बंद हो जाएगी। प्रचण्ड तेज वाले सात सूर्य उदित होंगे और जो कुछ भी धरती पर शेष रहेगा, उसे वे भस्मीभूत कर देंगे।’
धरती की सतह का इस तरह गर्म होना चिंताजनक है और हालात मार्कण्डेय ऋषि द्वारा किए गये वर्णन की ही तरह हैं। तापमान के संतुलन बिगड़ने का अर्थ है हमारे अस्तित्व पर संकट। यह तो सभी जानते हैं कि 750 अरब टन कार्बन डाइआक्साइड वातावरण में मौजूद है। कार्बन की मात्रा बढ़ने का दुष्परिणाम है कि जलवायु परिवर्तन व धरती के गर्म होने जैसेे प्रकृतिनाशक बदलाव हम झेल रहे हैं। कार्बन की मात्रा में इजाफे से दुनिया पर तूफान, कीटों के प्रकोप, सुनामी या ज्वालामुखी जैसे खतरे मंडरा रहे हैं।

आज विश्व में अमेरिका सबसे ज्यादा 1,03,30,000 किलो टन कार्बन डाइआक्साइड उत्सर्जित करता है जो कि वहां की आबादी के अनुसार प्रति व्यक्ति 17.4 टन है। उसके बाद कनाडा प्रति व्यक्ति 15.7 टन, फिर रूस 12.6 टन है। भारत महज 20 लाख सत्तर हजार किलो टन या प्रति व्यक्ति महज 1.7 टन कार्बन डाइआक्साइड ही उत्सर्जित करता है। चूंकि भारत नदियों का देश है, वह भी अधिकांश ऐसी नदियां जो पहाड़ों पर बर्फ पिघलने से बनती हैं।


कार्बन उत्सर्जन की मात्रा कम करने के लिए हमें एक तो स्वच्छ ईंधन को बढ़ावा देना होगा। गरीब लोगों को बेहद कम दाम पर गैस उपलब्ध करवाना ही बड़ी चुनौती है। कार्बन उत्सर्जन घटाने में सबसे बड़ी बाधा वाहनों की बढ़ती संख्या, मिलावटी पेट्रो पदार्थों की बिक्री, घटिया सड़कें व ऑटो-पार्ट्स की बिक्री व छोटे कस्बों तक यातायात जाम होने की समस्या है। देश में बढ़ता कचरे का ढेर व उसके निपटान की माकूल व्यवस्था न होना भी कार्बन उत्सर्जन नियंत्रण की बड़ी बाधा है। साथ ही बड़े बांध, सिंचाई नहरों के कारण बढ़ते दल-दल भी कार्बन डाइआक्साइड पैदा करते हैं।

कार्बन की बढ़ती मात्रा से दुनिया के गर्म होने से उत्पन्न हालात से जूझना सारी दुनिया का फर्ज है, लेकिन भारत में मौजूद प्राकृतिक संसाधन व पारपंरिक ज्ञान इसका सबसे सटीक निदान है। छोटे तालाब, कुएं, पारंपरिक मिश्रित जंगल, खेती व परिवहन के पुराने साधन, कुटीर उद्योग का सशक्तीकरण कुछ ऐसे प्रयास हैं जो बगैर किसी मशीन या बड़ी तकनीक या फिर अर्थव्यवस्था को प्रभावित किए बगैर ही कार्बन पर नियंत्रण कर सकते हैं।
धरती के गर्म होने से सबसे ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं ग्लेशियर। ग्लोबल वार्मिंग या धरती का गर्म होना, कार्बन उत्सर्जन, जलवायु परिवर्तन से जूझने के तरीके भी बताया जाना अनिवार्य है।

गुरुवार, 23 अगस्त 2018

In Era of climate change, interlink of rivers should be rethink

नई चुनौतियां के परिपेक्ष्य में नदी जोड़ पर पुनर्विचार जरूरी
पंकज चतुर्वेदी

केरल में बरसात साल के आठ महीने होती है। वहां बादलों का स्थाई डेरा कहलाता है, लेकिन इस बार वहां जैसी बरसात हुई, वह ठीक उसी तरह थी जैसे कि दो साल पहले चैन्ने में और उससे पिछले साल कष्मीर में। जाहिर है कि जलवायु परिवर्तन का भयानक असर हिंदुस्तान में दिखने लगा है जिसके कारण अचानक किसी क्षेत्र विोश में भयंकर बरसात हो जाती है तो बाकी हिस्से सूखे रहते हैं या फिर मौसम का चक्र गड़बड़ा रहा है। जब बरसात की जरूरत हो तब गरमी होती है और ठंड के दिनों में गरमी। केरल बानगी है कि बड़े बांधों  में बरसात का पानी रोक  कर रखना मौसम के इस बैतुके मिजाज में तबाही ला सकता है। केरल के चार जिलों में भारी नुकसान का कारक बांधेंा के लबालब होने पर उनके मजबूरी में सभी दरवाजे खोलना था। यह हालात चेतावनी है उन परियोजनओं को जिनमें बड़े बांध बनाए जा रहे हैं।

सारी दुनिया जब अपने यहां कार्बन फुट प्रिंट घटानें को प्रतिबद्ध है वहीं भारत में नदियों को जोड़ने की परियोजना लागू की जा रही है। उसकी शुरूआत बुंदेलखंड से होगी जहां केन व बेतवा को जोड़ा जाएगा। असल में आम आदमी नदियें को जोड़ने का अर्थ समझता है कि किन्हीं पास बह रही पदो नदियों को किसी नहर जैसी संरचना के माध्यम से जोड़ दिया जाए , जिससे जब एक में पानी कम हो तो दूसरे का उसमें मिल जाए। पहले यह जानना जरूरी है कि असल में  नदी जोड़ने का मतलब है, एक विशाल  बांध और जलाशय  बनाना और उसमें जमा देानेां नदियों के पानी को नहरों के माध्यम  से  उपभोक्ता तक पहुंचाना। केन-बेतवा जोड़ योजना कोई 12 साल पहले जब तैयार की गई थी तो उसकी लगात 500 करोड के करीब थी, अभी वह कागज पर ही है और सन 2015 में इसकी अनुमानित लागत 1800 करोड़ पहुंच गई है। सबसे बड़ी बात जब नदियों को जोउ़ने की येाजना बनाई गई थी, तब देष व दुनिया के सामने ग्लोबल वार्मिंग, ओजोन क्षरण, ग्रीन हाउस इफेक्ट, जैसी चुनौतियां नहीं थीं और गंभीरता से देखें तो नदी जोड़ जैसी परियोजनाएं इन वैश्विक  संकट को और बढ़ा देंगी।
जलवायु परिवर्तन के कारण प्राकृतिक आपदा का स्वाद  उस बुंदेलखंड के लोग चख ही रहे है। जहां नदी जोड़ योजना लागू की जाना है। सूखे को तो वहां तीन साल में एक बार डेरा रहता ही है। लेकिन अब वहां बरसात का पेटर्न बिल्कुल बदल गया है। सावन तक सूखा फिर भाछों में किसी एक जगह पर इतनी बरसात की तबाही हो जाए। बरसात की त्रासदी इतनी गहरी है कि भले ही जल-स्त्रोत लबालब हो गए हैं लेकिन खेतों में बुवाई नहीं हो पाई और जहां हुई वहां बीज सड़ गए। ग्लोबल वार्मिंग से उपज रही जलवायु अनियमितता और इसके दुश्प्रभाव के प्रति सरकार व समाज में बैठे लोग कम ही वाकिफ या जागरूक हैं।  यह भी जान लें कि आने वाले दिनों यह संकट और गहराना है, खासकर भारत में इसके कारण मौसम के चरम रूप यानि असीम गरमी, भयंकर ठंड, बेहिसाब सूखा या बरसात।  प्रायः जिम्मेदार लोग यह कह कर पल्ला झाड़ते दिखते हैं कि यह तो वैष्विक  दिक्कत है और हम इसमें क्यों कर सकते हैं। फिर दिसंबर-2015 में पेरिस में संपन्न ‘जयवायु षिखर सम्मेलन’ में भारत के तत्कालीन पर्यावरण मंत्री श्री प्रकाष जावडेकर की वह प्रतिबद्धता याद करने की जरूरत है जिसमें उन्होंने आने वाले दस सालों में भारत की ओर से कार्बन उत्सर्जन घटाने का आष्वासन दिया था।
‘‘नदियों का पानी समुद्र में ना जाए, बारिष  में लबालब होती नदियां गांवेंा -खेतों में घुसने के बनिस्पत ऐसे स्थानों की ओर मोड़ दी जाए जहां इसे बहाव मिले तथा समय- जरूरत पर इसके पानी को इस्तेमाल किया जा सके ’’ - इस मूल भावना को ले कर नदियों को जोड़ने के पक्ष में तर्क दिए जाते रहे हैं । लेकिन यह विडंबना है कि केन-बेतवा के मामले में तो ‘‘ नंगा नहाए निचोडै़ क्या’ की लोकोक्ति सटीक बैठती है । केन और बेतवा दोनों का ही उदगम स्थल मध्यप्रदेष में है । दोनो नदियां लगभग समानांतर एक ही इलाके से गुजरती हुई उत्तर प्रदेष में जा कर यमुना में मिल जाती हैं । जाहिर है कि जब केन के जल ग्रहण क्षेत्र में अल्प वर्शा या सूखे का प्रकोप होगा तो बेतवा की हालत भी ऐसी ही होगी । तिस पर 1800 करोड़(भरोसा है कि जब इस पर काम षुरू होगा तो यह 22 करोड़ पहुंच जाएगा) की येाजना ना केवल संरक्षित वन का नाष, हजारों लेागेां के पलायन का करक बन रही है, बल्कि इससे उपजी संरचना दुनिया का तापमान बढ़ाने का संयत्र बन जाएगा।
नेषनल इंस्टीट्यूट फार स्पेस रिसर्च(आईएनपीसी), ब्राजील का एक गहन षोध है कि दुनिया के बड़े बांध हर साल 104 मिलियन मेट्रीक टन मीथेन गैस का उत्सर्जन करते हैं और यह वैष्विक तापमान में वृद्धि की कुल मानवीय योगदान का चार फीसदी है। सनद रहे बड़े जलाषय, दलदल बड़ी मात्रा में मीथेन का उत्सर्जन करती है। ग्लोबल वार्मिंग के लिए ज़िम्मेवार  माने जाने वाली गैसों को ग्रीन हाउस या हरितगृह गैस कहते हैं। इनमें मुख्य रूप से चार गैस- कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड और सल्फ़र हेक्साफ़्लोराइड, तथा दो गैस-समूह- हाइड्रोफ़्लोरोकार्बन और परफ़्लोरोकार्बन शामिल हैं।ग्रीन हाउस गैसों के अत्यधिक उत्सर्जन से वायुमंडल में उनकी मात्रा निरंतर बढ़ती ही जा रही है। ये गैसें सूर्य की गर्मी के बड़े हिस्से को परावर्तित नहीं होने देती हैं, जिससे गर्मी की जो मात्रा वायुमंडल में फंसी रहती है, उससे तापमान में वृद्धि हो जाती है। पिछले 20 से 50 वर्षों में वैश्विक तापमान में करीब एक डिग्री सेंटीग्रेड की वृद्धि हो चुकी है। केन-बेतवा नदी को जोड़ने के लिए छतरपुर जिले के ढोढन में 77 मीटर उंचा और 2031 मीटर लंबाई का बंध बनाया जाएगा। इसके अलावा 221 किलोमीटर लंबी नहरें भी बनेंगी। इससे होने वले वनों के नाष और पलायन को अलग भी रख दें तो भी निर्माण, पुनर्वास आदि के लिए जमीन तैयार करने व इतने बड़े बांध व नहरों से इतना दलदल बनेगा और यह मीथेन गैस उत्सर्जन का बड़ा कारध बनेगा। भारत आज कोई तीन करोड़ 35 लाख टन मीथेन उत्सर्जन करता है व हमारी सरकार अंतरराश्ट्रीय स्तर पर इसे कम करने के लिए प्रतिबद्ध है।
इस परियोजना का सबस बड़ा असर दुनियाभर में मषहूर तेजी से विकसित बाघ क्षेत्र के नुकसान के रूप् ेमं भी होगा, पन्ना नेषनल पार्क का 41.41 वर्ग किलोमीटर वह क्षेत्र पूरी तरह जलमग्न हो जएगा, जहां आज 30 बाघ हैं । सनद रहे सन 2006 में यहां बाघेां की संख्या षून्य थी। अकेले बाघ का घरोंदा ही नहीं जंगल के 33 हजार पेड़ भी काटे जाएंगे। यह भी जान लें कि इतने बड़े हजरों पेड़े तैयार होने में कम से कम आधी सदी का समय लगेगा। जाहिर है कि जंगल कटाई व वन का नश्ट होना, जलवायु परिवर्तन को प्रभावित करने दवाले कारक हैं। यही नहीं जब यह परियोजना बनाई गई थी, तब बाघ व जंगली जानवर कोई विचारणीय मसले थे ही नहीं, जबकि आज दुनिया के सामने जैवविविधता संरक्षण एक बड़ी चुनौती है।
राट्रीय जल संवर्धन प्राधिकरण के दस्तावेज बताते हैं कि भारत में नदी जोड़ों की मूलभूत योजना सन 1850 में पहली बार सर आर्थर कॉटन ने बनाई थी फिर सन 1972 में डा. के.एल. राव ने गंगा कावेरी जोड़ने पर काम किया था। सन 1978 में केप्टन डास्टर्स का गार्लेंड नहर योजना पर काम हुआ और सन 1980 में नदी जोड़ का राश्ट्रीय परिदृष्य परियोजना तैयार हुई। आज देष में जिन परियोजनाओं पर विचार हो रहा है उसका आधार वही सन 1980 का दस्तावेज हैं। जाहिर है सन 1980 में जलवायु परिवर्तन या ग्रीनहाउस गैसों की कल्पना भी नहीं हुई थी। कहने की जरूरत नहीं है कि यदि इस योजना पर काम षुरू भी हुआ तो कम से कम एक दषक इसे पूरा होने में लगेगा व इस दौरान अनियमित जलवायु, नदियों के अपने रास्ता बदलने की त्रासदियां और गहरी होंगी।
ऐसे में जरूरी है कि सरकार नई वैष्विक परिस्थितियों में नदियों को जोड़ने की योजना का मूल्यांकन करे। सबसे बड़ी बात इतने बड़े पर्यावरणीय नुकसान, विस्थापन, पलायन और धन व्यय करने के बाद भी बुंदेलखंड के महज तीन से चार जिलों को मिलेगा क्या? इसका आकलन भी जरूरी है। इससे एक चौथाई से भी कम धन खर्च कर समूचे बुंदेलखंड के पारंपरिक तालाब, बावड़ी कुओं और जोहड़ों की मरम्म्त की जा सकती है। सिकुड़ गई छोटी नदियों को उनके मूल स्वरूप् में लाने के लिए काम हो सकता है। गौर करें कि अं्रगेजों के बनाए पांच बांध 100 साल में दम तोड़ गए हैं, आजादी के बाद बने तटबंध व स्टाप डेम पांच साल भी नहीं चले, लेकिन समूचे बुंदेलखंड में एक हजार साल पुराने चंदेलकालीन तालाब, लाख उपेक्षा व रखरखाव के अभाव के बावजूद आज भी लेागों के गले व खेत तर कर रहे हैं। उनके आसपास लगे पेड़ व उसमें पल रहे जीव स्वयं ही उससे निकली मीथेन जैसी ग्रीन हाउस गैसों का षमन भी करते हैं।

सोमवार, 20 अगस्त 2018

Kerala needs long term planning for flood relief

केरल को तत्काल राहत की दरकार





युद्ध हो, भूकंप या बाढ़ या फिर किसी भी अन्य प्रकार की प्राकृतिक आपदा, भारत के नागरिकों की खासियत है कि ऐसे दुर्भाग्यपूर्ण अवसरों पर उनके हाथ पीड़ितों की मदद व सहयेाग के लिए हर समय खुले रहते हैं। छोटे-छोटे गांव-कस्बे तक आम लोंगों से इमदाद जुटाने के कैंप लग जाते हैं, गली-गली लोग झोली फैला कर घूमते हैं, अखबारों में फोटो छपते हैं कि मदद के ट्रक रवाना किए गए। फिर कुछ दिनों बाद आपदा ग्रस्त इलाकों के स्थानीय व राज्य प्रशासन की लानत-मनानत करने वाली खबरें भी छपती हैं कि राहत सामग्री लावारिस पड़ी रही और जरूरतमंदों तक पहुंची ही नहीं। हो सकता है कि कुछ जगह ऐसी कोताही भी होती हो, लेकिन वास्तविकता तो यह है कि आम लोगों को यही पता ही नहीं होता है कि किस आपदा में किस समय किस तरह की मदद की जरूरत है। उदाहरण के लिए बीते वर्षाें आए अब बिहार के जल प्लावन को ही लें तो देशभर में कपड़ा-अनाज जोड़ा जा रहा है, और दीगर वस्तुएं जुटाई जा रही हैं, पैसा भी। भले ही उनकी भावना अच्छी हो लेकिन यह जानने का कोई प्रयास नहीं कर रहा है कि आज वहां तत्काल किस चीज की जरूरत है और आने वाले महीनों या साल में कब क्या अनिवार्य होगा।1समुद्र तट पर बसे केरल में बीते एक सदी की सबसे भयानक जल-त्रसदी है यह और शायद भारत का सबसे बड़ा राहत अभियान भी। करीब दस लाख लोग 6,000 से अधिक राहत शिविरों में रह रहे हैं। राज्य की करीब 16,000 किलोमीटर सड़क व 164 से ज्यादा पुल पूरी तरह नष्ट हो गए हैं। सेना और अन्य सुरक्षा बलों के एक लाख से ज्यादा जवान 24 घंटे राहत कार्य में लगे हैं। 1चूंकि केरल की बड़ी आबादी विदेश में है अत: समूचे विश्व से राहत सामग्री भी आ रही है। अलप्पुझा, एर्नाकुलम और त्रिशुर जिलों में सड़कें, रेलवे-पथ, पुल, सरकारी स्कूल व भवन सब कुछ तबाह हो गया है। कई हजार हेक्टेयर खेत बर्बाद होने से किसान की तबाही का आंकड़ा तो अकल्पनीय है। कई हजार वर्ग किलोमीटर का इलाका ऐसा है जहां आने वाले कई महीनों तक पानी व उसके साथ आई रेत और गाद जमा रहेगी। जब बारिश थमी है तो उन गलियों-मुहल्लों में भरे पानी को निकालना, कीचड़ हटाना, मरे हळ्ए जानवरों और इंसानों का निस्तारण करने के साथ समग्र साफ-सफाई करना सबसे बड़ा काम है और यह सबसे बड़ी चळ्नौती भी है। 1चळ्नौती इसलिए क्योंकि इसके लिए तत्काल जरूरत है पानी के बड़े पंपों की, जेसीबी मशीन, टिप्पर व डंपर की, ईंधन की, गेती-फावड़ा दस्ताने, गम बूट आदि की। जब तक गंदगी, मलबा और गंदा पानी इस इलाके से हटेगा नहीं, तब तक जीवन को फिर से पटरी पर लाना मुश्किल है। यह भी तय है कि किसी भी सरकारी सिस्टम में इतनी भारी व महंगी मशीनों को तत्काल खरीदना संभव नहीं होता। यदि समाज के लोग इस तरह के औजार-उपकरण खरीद कर राज्य सरकार को भेंट स्वरूप दें तो पुनर्वास कार्य सही दिशा में चल पाएंगे और एक समयसीमा के दायरे में इन कार्यों को अंजाम देते हळ्ए बड़ी आबादी की जिंदगी को व्यवस्थित किया जा सकता है। 1पानी में फंसे लोगों के लिए भोजन तो जरूरी है ही और उसकी व्यवस्था स्थानीय सरकार व कई जन संगठन कर भी रहे हैं, लेकिन इस बात पर कम ध्यान है कि वहां पीने के लिए साफ पानी की बहुत कमी है। आसपास एकत्र हळ्आ पानी बदबूदार है। दूसरी ओर राज्य के सभी वाटर ट्रीटमेंट प्लांट बंद पड़े हैं और यदि ऐसे में गंदा पानी पीया तो हैजा फैलने की आशंका रहेगी। लाखों बोतल पेयजल की रोज की मांग के साथ-साथ बिना बिजली के चलने वाले वाटर फिल्टर, बड़े आरओ, बैटरी, इन्वर्टर व आम लोगों के लिए मोमबत्तियां व माचिस की वहां बेहद जरूरत है। कारण वहां बिजली की सप्लाई सामान्य करने में बहुत सी बाधाएं हैं। बिजली के तार- खंभे, इंसुलेटर आदि विभिन्न तकनीकी चीजों की जरूरत तो है ही और उसे भी स्थापित करने के लिए अधिक कामगारों की जरूरत है। हालांकि ये सब ऐसे तकनीकी काम हैं जिनमें अभी महीनों लग सकते हैं। ऐसे में छोटे जेनरेटर और इन्वर्टर बेहद महत्वपूर्ण भूमिका में हो सकते हैं।1ऐसा नहीं है कि बड़ी व्यवस्थाएं जुटाने के लिए आम पीड़ित लोगों का ध्यान ही नहीं रखा जाए। हजारों लोग ऐसे हैं जो मधुमेह, ब्लड प्रेशर, थायरायड जैसी ऐसी बीमारियों से पीड़ित हैं जिन्हें नियमित दवाई लेना होता है और बाढ़ उनकी सारी दवा बहा कर ले गई है। इसके अलावा अपना सबकुछ लुटने का दर्द और राहत शिविरों की सीमित व्यवस्था के चलते मानसिक रूप से अव्यवस्थित लोगों की संख्या भी बढ़ रही है। इन लोगों के लिए उनकी नियमित दवाएं, पीने के पानी की बोतलें, डेटॉल, फिनाईल, नेफथेलीन की गोलियां, क्लोरिन की गोलियां, पेट में संक्रमण, बुखार जैसी बीमारियों की दवाएं, ग्लूकोज पाउडर, सेलाईन, औरतों के लिए सेनेटरी नैपकीन, फिलहाल तत्काल जरूरत की चीजें हैं। अब यदि आम लोग अपने घर के पुराने ऊनी कपड़ों की गठरियां या गेंहू चावल आदि वहां भेजेंगे तो तत्काल उसका इस्तेमाल हो नहीं पाएगा। वैसे भी केरल में इतना जाड़ा कभी होता नहीं कि ऊनी कपड़े पहनने की नौबत आए। इसकी जगह वहां चादर, हल्के कंबल भेजे जाएं तो उन वस्तळ्ओं का तत्काल उपयोग हो सकता है। वरना भेजे गए बंडल लावारिस सड़ते रहेंगे और हरी झंडे दिखा कर फोटो खिंचाने वाले लोग हल्ला करते रहेंगे कि मेहनत से जुटाई गई राहत सामग्री राज्य सरकार इस्तेमाल नहीं कर पाई। यदि हकीकत में ही कोई कुछ भेजना चाहता है तो सीमेंट, लोहा जैसी निर्माण सामग्री के ट्रक भेजने के संकल्प लेना होगा।1केरल के आंचलिक गांवों से ढाई लाख लोग अपने घर से पूरी तरह विस्थापित हुए हैं। वहां के बाजार बह गए हैं। वाहन नष्ट हो गए हैं। ऐसे में हुए जान-माल के नुकसान के बीमा दावों का तत्काल व सही निबटारा एक बड़ी राहत होता है। चूंकि राज्य सरकार का बिखरा-लुटा-पिटा अमला अभी खुद को ही संभालने में लगा है, अभी तक राज्य सरकार का अनुमान है कि नदियों के रौद्र रूप ने राज्य को 10,787 करोड़ रुपये का नुकसान कर दिया है। 1नुकसान के आकलन, दावों को प्रस्तुत करना, बीमा कंपनियों पर तत्काल भुगतान के लिए दबाव बनाने आदि कार्यों के लिए बहुत से पढ़े-लिखे लोगों की वहां जरूरत है। ऐसे लोगों की भी जरूरत है जो दूरदराज में हुए माल-असबाब के नुकसान की सूचना, सही मूल्यांकन को सरकार तक पहुंचा सकें और यह सुनिश्चित कर सकें कि केंद्र या राज्य सरकार की किन योजनाआंे का लाभ उन्हें मिल सकता है। 1कई जिलों में बाढ़ का पानी तो उतर रहा है लेकिन वहां अपने जीवन को फिर से पटरी पर लाने की समस्या सामने आ खड़ी हुई है।1सरकार कहती है कि राहत का पैसा बैंक खाते में जाएगा और उसी खाते में जाएगा जिसके पास आधार कार्ड है। इसके लिए अभी तो फॉर्म भरा जाएगा। जिसका घर व सामान सबकुछ बाढ़ में बह गया, उसके पास आधार तो होने से रहा, फिर जब भूख आज लगी है तो राहत का एक महीने बाद मिला पैसा किस काम का? ऐसे में लोगों को उनकी पहचान के कागजात उपलब्ध कराने के कार्य के लिए ढेर सारे स्वयंसेवकों को आगे आना होगा, जबकि दिल्ली या अन्य शहर में बैठ कर उनके डुप्लीकेट आधार आदि कंप्यूटर से निकाल कर उन तक पहुंचा सकें। 

एक महीने के भीतर जब हालात कुछ सुधरेंगे तो स्कूल व शिक्षा की याद आएगी और तब पता चलेगा कि सैलाब में स्कूल, बच्चों के बस्ते, किताबें सब कुछ बह गया है। इस समय कोइ दो लाख बच्चों को बस्ते, कापी-किताबों, पैंसिल, पुस्तकों की जरूरत है। 

इस बार यदि ईद, दीपावली या क्रिसमस के तोहफों में हर घर से यदि एक-एक बच्चे के लिए बस्ता, कंपास, टिफिन बॉक्स, वाटर बोटल, पांच नोट बुक, पेन-पैंसिल का सेट वहां चला जाए तो केरल के भविष्य के सामने छाया धुंधलका छंटने की संभावनाएं बढ़ जाएंगी। वहां की पाठ्य पुस्तकों को फिर से छपवाना पड़ेगा, ब्लेक बोर्ड व फर्नीचर बनवाना पड़ेगा। इसके लिए राज्य के छोटे-छोटे क्लस्टर में, मुहल्लों में संस्थागत या निजी तौर पर बच्चों के लिए काम करने की जरूरत है। इसके साथ उनके पौष्टिक आहार के लिए बिस्किट, सूखे मेवे जैसे खराब न होने वाले भोच्य पदार्थ की मांग वहां है।1यदि आवश्यकता के अनुरूप दान या मदद न हो तो यह समय व संसाधन दोनों का नुकसान ही होता है। यह सही है कि हमारे यहां आज तक इस बात पर कोई दिशा-निर्देश बनाए ही नहीं गए कि आपदा की स्थिति में किस तरह की तात्कालिक तथा दीर्घकालिक सहयोग की आवश्यकता होती है। असल में यह कोई दान या मदद नहीं है, हम एक मुल्क का नागरिक होने का अपना फर्ज अदा करने के लिए अपने संकटग्रस्त देशवासियों के साथ खड़े होते हैं। ऐसे में यदि हम जरूरत के मुताबिक काम करें तो हमारा सहयोग सार्थक होगा। 1जलवायु परिवर्तन व प्रकृति के साथ छेड़छाड़ से यह तो तय है कि आने वाले दिनों में देशभर में लोगों को कई किस्म की प्राकृतिक विपदाओं का सामना करना पड़ सकता है। ऐसे में जिस तरह आपदा प्रबंधन के लिए अलग से महकमे बनाए गए हैं, वैसे ही इस तरह के हालात से निबटने के लिए जरूरी सामान को देशवासियों से एकत्र करने का काम पूरे साल करना चाहिए।

केरल में हालिया बाढ़ ने वहां लोगों की जिंदगी तबाह कर दी है। केवल सरकार के भरोसे लाखों लोगों की जिंदगी को पटरी पर लाना बहुत मुश्किल है। इसलिए बतौर नागरिक हमें भी आगे आना होगा। साथ ही यह भी समझना होगा कि वहां तत्काल किस तरह की मदद की जरूरत है और उसेकिस तरह से पूरा किया जा सकता है। इससे सबक यह भी लेने की जरूरत है कि भविष्य में आपदा के बाद राहत के लिए इंतजाम पहले से तैयार रखने होंगे1


पश्चिमी घाट में केरल सर्वाधिक संवेदनशील


जाने-माने वैज्ञानिक डॉ. माधव गाडगिल ने केरल में आई बाढ़ को मानव-जनित त्रसदी के रूप में करार दिया है। दअरसल, वन एवं पर्यावरण मंत्रलय ने दक्षिण भारत के पश्चिमी घाट इलाके में पारिस्थितिकी के संदर्भ में प्रसिद्ध वैज्ञानिक माधव गाडगिल के नेतृत्व में वर्ष 2010 में एक एक्सपर्ट पैनल का गठन किया था। मौजूदा संकट की आशंका जताते हळ्ए उन्होंने उसी समय सरकार को आगाह किया था। उस समय प्रस्तळ्त की गई अपनी रिपोर्ट में उन्होंने सरकार को इस बारे में आगाह किया था कि पश्चिमी घाट इलाके की पारिस्थितिकी व्यापक रूप से नाजळ्क है और यहां किसी तरह की छेड़छाड़ करना भविष्य में खतरनाक साबित हो सकता है। रिपोर्ट में कहा गया कि छह राज्यों के बीच फैले पश्चिमी घाट में केरल का इलाका सर्वाधिक संवेदनशील है। 1इस इलाके में जारी विविध विकास कायरें को विशेषज्ञों के सलाह से अंजाम दिए जाने पर जोर दिया गया था। लेकिन उसका अनळ्पालन नहीं किया गया, जिसका गंभीर नतीजा आज लोगों को भळ्गतना पड़ रहा है। पर्यावरण मंत्रलय ने पश्चिमी घाट में 57,000 वर्ग किमी इलाके को संवेदनशील घोषित करते हळ्ए इसमें किसी भी प्रकार के निर्माणकार्य पर रोक लगाने को कहा था, जिसमें यहां चल रही खनन गतिविधियों, बड़े निर्माणों समेत थर्मल पावर प्लांट और प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों पर पूर्णतया पाबंदी लगाने की बात की थी।

शुक्रवार, 10 अगस्त 2018

Justice delayed is justice denied

सावधान ! यह चेतावनी न्यायपालिका के लिए भी है 

पंकज चतुर्वेदी

दिल्ली से सटे गाजियाबाद में बीते एक सप्ताह से वकील अदालत में काम नहीं कर रहे हैं। अनुमान है कि हर दिन 100 से अधिक मामले फैसले के लिए टलते जा रहे हैं, जमानत और मामूली धारा वाले मामलों को तो कोई ध्या नही नहीं रख रहा। कोई वकील साहब ढाबे में खाना खा रहे थे और गरम रोटी देने को लेर विवाद हुआ। पुलिस वालों ने वकील साहब को पीट दिया, उसके बाद वकील हाथों में डंडे ले कर पुलिस अकप्तान के पास पहुंच गए, रास्ता जाम किया। उसके बाद पुलिस ने वकीलों पर लाठी चला दी। वकील सिटी एसपी पर कार्यवाही के लिए अड़े हैं। इस तरह देखते ही देखते कुछ हजार प्रकरणों का बोझ यहां दिन दुगना-रात चौगुना हो रहा है। देष के 6़00 से अधिक जिला अदालतों में ऐसी घटनाएं होती ही रहती हैं  और न्याय का मंदिर पेंडिंग मामलों का अंबार बनता जाता है। बीते एक साल में तीन बार देष की सर्वोच्च अदालत के मुख्य न्यायाधीष ने सरकार से अदालतों में बढते मुकदमे के बोझ तथा जजों की कमी पर गंभीरता से गौर करने के लिए सार्वजनिक बयान दिया है। देष की सबसे बड़ी अदालत- सुप्रीम कोर्ट , लंबित मामलों की संख्या 54,864, हाई कोर्ट - पेंडिंग मुकदमें - 40 लाख साठ हजार 709। देश में सर्वाधिक मामले निचली अदालतों में लंबित है, जहां इनकी संख्या करीब पौने तीन करोड़ है। यदि इसी गति से मुकदमों का निबटान होता रहा तो 320 साल चाहिए।इस बीच अदालतों में भ्रश्टाचार का मामला भी खूब उछल रहा है।  दूसरी तरफ आए रोज ऐसे मामले सामने आ रहे हैं जिसमें षिक्षित लोग कानून अपने हाथेां में ले कर खुद ही न्याय करना चाहते हैं। लोकतंत्र में न्याय व्यवस्था तीसरा स्तंभ है और उसकी ऐसी जर्जर हालत पूरे तंत्र को कमजोर कर रही है। ऐसे में अदालतों के सामाजिक सरोकार पर विचार होना जरूरी है।
यदि विधि मंत्रालय के आंकड़ों पर ही भरोसा करें तो हमारे यहां आबादी की तुलना में न्यायाधीशों का अनुपात प्रति 10 लाख पर 17.86 न्यायाधीशों का है। मिजोरम में यह अनुपात सर्वाधिक है। वहां प्रति 10 लाख पर 57.74 न्यायाधीश हैं। दिल्ली में यह अनुपात 47.33 है और देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में प्रति 10 लाख आबादी पर मात्र 10.54 न्यायाधीश हैं। पश्चिम बंगाल में न्यायाधीशों का यह अनुपात सबसे कम है। वहां प्रति 10 लाख की आबादी पर सिर्फ 10.45 न्यायाधीश हैं। कोई भी जज हर साल 2600 से ज्यादा मुकदमों का निबटारा नहीं कर पाता , जबकि नए दर्ज मालों की संख्या इससे कहीं अधिक होती है। दरअसल, ऊपरी अदालतों में न्यायाधीशों की संख्या संसद द्वारा कानून बनाकर ही बढ़ाई जा सकती है। विडंबना तो यह है कि काम के बोझ को देखते हुए नई नियुक्तियां तो हो नहीं रहीं, हां कुल स्वीकृत पदों पर भी जज आसीन नहीं है। देश के 24 उच्च न्यायालयों में फिलहाल 43 फीसद नियुक्तियां खाली पड़ी हैं। जहां इन अदालतों में जजों की संख्या 1044 होनी चाहिए थी, वहीं अभी यह संख्या केवल 599 है। सर्वाेच्च न्यायलय में 3 पद रिक्त हैं। इन रिक्तियों के बढ़ने का एक कारण एनजेएसी के गठन पर विवाद भी रहा, क्योंकि जब तक यह मामला लंबित रहा, तब तक कोई भी नियुक्ति नहीं हुई और जब कोलेजियम प्रणाली बहाल कर दी गई, तब भी समन्वय की कमी के चलते नियुक्तियां लटक जाती हैं। सर्वाेच्च न्यायलय में 2008 के संशोधन अधिनियम के द्वारा संख्या बढाकर 30 कर दी गई थी, लेकिन वर्तमान में सर्वाेच्च न्यायलय में 27 न्यायाधीश ही नियुक्त हैं, हालांकि पिछले कुछ समय से सर्वाेच्च अदालत पर मुकदमों का बोझ कम करने के लिए एक राष्ट्रीय अपील न्यायालय के गठन पर विचार चल रहा है, लेकिन यदि इस अपीलीय न्यायलय का गठन किया गया तब भी अतिरिक्त न्यायाधीशों की नियुक्ति करनी होगी।


देष की सड़कों पर आए रोज अपराध होने के बाद न्याय दिलवाने के लिए सड़कों पर गुस्सा भले ही महज पुलिस या व्यवस्था का विरोध नजर आ रहा हो, हकीकत में यह हमारी न्याय व्यवस्था के लिए गंभीर चुनौती है - लोग अब महसूस कर रहे हैं कि देर से मिला न्याय अन्याय के बराबर ही है। यह बात भी लोग अब महसूस कर रहे हैं कि हमारी न्याय व्यवस्था में जहां अपराधी को बचने के बहुत से रास्ते खुले रहते हैं , वहीं पीड़ित की पीड़ा का अनंत सफर रहता है। हाल ही में देष की सुप्रीम कोर्ट ने हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली पर ही सवाल खड़े करते हुए कहा है कि  निचली अदालतों के दोशी को दी जाने वाली सजा के निर्धारण के लिए कोई विधायी या न्यायिक दिषा-निर्देष ना होना हमारी न्याय प्रणाली की सबसे कमजोर कड़ी है। कई मामाले पहले दस साल या उससे अधिक निचली अदालत में चलते हैं फिर उनकी अपील होती रहती है। कुछ मिला कर एक उम्र बीत जाती है, न्याय की आस में वहीं लंपट और पेष्ेावर अपराधी न्याय व्यवस्था की इस कमजोरी का फायदा उठा कर कानून से बैखोफ बने रहते हैं।

भले  ही हमारी न्याय व्यवस्था में लाख खामियां हैं, अदालतों में इंसाफ की आस कभी-कभी जीवन की संास से भी दूर हो जाती है । इसके बावजूद देश को विधि सममत तरीके से चलाने के लिए लोग अदालतों को उम्मीद की आखिरी किरण तो मानते ही हैं । बीते कुछ सालों से देष में जिस तरह अदालत के निर्देशों पर सियासती दलों का रूख देखने को मिला हैै, वह न केवल शर्मनाक है, बल्कि इससे संभावना जन्म लेती है कि कहीं पूरे देश का गणतंत्रात्मक ढ़ांचा ही पंगु न हो जाए ।
यह विडंबना है कि देष का बहुत बड़ा तबका थोडे़ से भी न्याय की उम्मीद न्यायपालिका से कर ही नहीं पाता है। गरीब लोग तो न्यायालय तक पहुंच ही नहीं पाते। इसकी औपचारिकताओं और जटिल प्रक्रियाओं के कारण केवल वकीलों द्वारा ही न्यायालय में बात कही जा सकती है, लेकिन गरीब लोग वकीलों की बड़ी-बड़ी फीसें नहीं दे सकते, वे न्याय से वंचित रह जाते हैं। जो कुछ लोग न्यायालय तक पहुंच पाते हैं उन्हें यह उम्मीद नहीं होती कि एक निष्चित समयावधि में उनके विवाद का निपटारा हो पाएगा। मुकदमे के निर्णय में जितने समय की सजा दी जाती है उससे ज्यादा समय तो मुकदमों की सुनवाई में ही लग जाता है। अगर इस दौरान मुवक्किल जेल से बाहर हुआ तो इस सारे मुकद्मे के दौरान अपने को बचाने की कवायद की परेषानी और सजा से ज्यादा खर्चे और जुर्माना ही कष्टदायी हो जाता है। पुलिस और प्रभावषाली लोग न्यायिक प्रक्रिया को और भी ज्यादा दूरूह बना रहे हैं क्योंकि प्रभावषाली लोग पुलिस को अपने इषारों पर नचाते हैं और उन लोगों को डराने धमकाने और चुप कराने के लिए पुलिस का इस्तेमाल करते हैं जो अत्याचारी और षोषणपूर्ण व्यवस्था को बदलने का प्रयास कर रहे हैं। एक तरफ न्याय प्रक्रिया जटिल है तो दूसरी ओर वकील या अदालतों पर कोई जिम्मेदारी या समयबद्धता का दवाब नहीं है। देषभर की अदालतों में वकील साल में कई दिन तो हडताल पर ही रहते हैं, यह जाने बगैर कि एक पेषी चूकने से उनके मुवक्किल की न्याय से दूरी कई साल की बढ़ जाती है। यह भी कहना गलत ना होगा कि बहुत से मामलों में वकील खुद ज्यादा पेषी की ज्यादा फीस के लालच में केस को खींचते रहते हैं।

देष की बड़ी और घनी आबादी, भाशाई, सामाजिक और अन्य विविधताओं को देखते हुए मौजूदा कानून और दंड देने की प्रक्रिया पूरी तरह असफल रही है। ऐसे में कुछ सिनेमा याद आते हैं- 70 के दषक में एक फिल्म में हत्या के लिए दोशी पाए गए राजेष खन्ना को फरियादी के घर पर देखभाल करने के लिए रखने पर उसका ह्दय परिवर्तन हो जाता है। अभिशेक बच्चन की एक फिल्म में बड़े बाप के बिगड़ैल युवा को एक वृद्धाश्रम में रह कर बूढ़ों की सेवा करना पड़ती है।  वैसे पिछले साल दिल्ली में एक लापरवाह ड्रायवर को सड़क पर खड़े हो कर 15 दिनों तक ट्राफिक का संचालन करने की सजा वाला मामला भी इसी श्रंखला में देखा जा सकता है, लेकिन दुर्भाग्य कि ऐसी व्यावहारिक सजा को बाद में बड़ी अदालत ने कानूनसम्मत ना मानते हुए रोक लगा दी थी। मोटर साईकलों पर उपद्रव काटने वाले सिख युवकों को कुछ दिनों के लिए गुरूद्वारे में झाड़ू-पोंछा करने का सजा की भी समाज में बेहद तारीफ हुई थी।
क्या यह वक्त नही आ गया है कि लिखे कानून के बनिस्पत सुधार के लिए जरूरी कदमों या अपराध-निवारण को अपनाया जाए ? आज की न्यायीक व्यवस्था बेहद महंगी, डरावनी, लंबी खिंचने वाली है। गरीब लोग तो अदालतों की प्रक्रिया में सहभागी ही नहीं हो पाते हैं। उनके लिए न्याय की आस बेमानी है। साक्ष्य अधिनियम को सरल बनाना, सात साल से कम सजा वाले मामालों में सयब़ नीति बनाना, अदालतों में बगैर वकील की प्रक्रिया को प्रेरित करना, हडताल जैसी हालत में तारीख आगे बढत्राने की जगह वकील को दंडित करना जैसे कदम अदालतों के प्रति आम आदमी के विष्वास को बहाल करने में मददगार हो सकते हैं। ऊंची फीस लेने वाले वकीलों का एक वर्ग ऐसी सिफारिषों को अव्यावहारिक और गैरपारदर्षी या असंवदेनषील करार दे सकता है, लेकिन देषभर में सड़कों पर उतरे लोगों की भावना ऐसी ही है और लोकतंत्र में जनभावना ही सर्वोपरि होती है।
पंकज चतुर्वेदी
यू जी-1, 3/186 राजेन्द्र नगर, सेक्टर-2
साहिबाबाद, गाजियाबाद
201005
गाजियाबाद 201005




मंगलवार, 7 अगस्त 2018

India unsafe for girl child

  • इस तरह कैसे बचेंगी बेटियां?

    पंकज चतुर्वेदी


    rashtriy sahara 8-8-18
    पहले मुजफ्फरपुर और अब देवरिया, समाज की उपेक्षित बच्चियों को जहां निरापद आसरे की उम्मीद थी, वहीं उनकी देह नोची जा रही थी।कुछ साल पहले ऐसा एक नृशंस प्रकरण कांकेर में भी सामने आया था। ये वाकिये विचार करने पर मजबूर करते हैं कि क्या वास्तव में हमारे देश में छोटी बच्चियों को आस्था के चलते पूजा जाता रहा है, या फिर हमारे आदि समाज ने बच्चियों को हमारी मूल पाशविक प्रवृत्ति से बचा कर रखने के लिए परंपरा बना दी थी।सवाल है कि हमारे देश में छोटी बच्चियों को आस्था के चलते पूजा जाता रहा है या फिर हमारी मूल पाषविक प्रवृति से उन्हें बचाकर रखने के लिए यह परंपरा बनायी गयी थी?
    भारत सरकार के राष्ट्रीय अपराध अनुसंधान ब्यूरो के आंकड़े गवाह हैं कि देश में हर साल औसतन 90 हजार बच्चों के गुमने की रपट थानों तक पहुंचती है जिनमें से 30 हजार से ज्यादा का पता नहीं लग पाता। हाल ही में संसद में पेश एक आंकड़े के मुताबिक सिर्फ 2011-14 के बीच सवा तीन लाख बच्चे लापता हो गये थे। जब भी बच्चों के गुम होने के तथ्य आते हैं, तो सरकार समस्या के समाधान के लिए नए उपाय करने की बातों से आगे कुछ नहीं कर पाती।
    independent mail. bhopal 

     संयुक्त राष्ट्र की एक रपट कहती है कि भारत में हर साल 24,500 बच्चे गुम हो जाते हैं। सबसे ज्यादा बच्चे महाराष्ट्र में गुमते है। यहां 2011-14 के बीच 50,947 बच्चों के नदारद हो जाने की खबर पुलिस थानों तक पहुंची थी। मध्य प्रदेश से 24,836, दिल्ली से 19,948 और आंध्र प्रदेश से 18,540 बच्चे लापता हुए थे। विडंबना है कि गुम हुए बच्चों में बेटियों की संख्या सबसे ज्यादा होती है। सन् 2011 में गुम हुए कुल 90,654 बच्चों में से 53,683 लडकियां थीं। सन् 2012 में कुल गुमशुदा 65,038 में से 39,336 बच्चियां थीं, 2013 में कुल 1,35,262 में से 68,869 और सन् 2014 में कुल 36,704 में से 17,944 बच्चियां थीं। यह बात भी सरकारी रिकार्ड में दर्ज है कि भारत में कोई 900 संगठित गिरोह हैं जिनके सदस्यों की संख्या पांच हजार के आसपास है। लापता बच्चों से संबंधित आंकड़ों की एक हकीकत यह भी है कि राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो सिर्फ अपहरण किये गये बच्चों की गिनती बताता है। केंद्रीय समाज कल्याण बोर्ड ने कुछ साल पहले एक सर्वेक्षण करवाया था जिसमें बताया गया था कि देश में लगभग एक लाख वैश्याएं हैं जिनमें से 15 प्रतिशत 15 साल से भी कम उम्र की हैं। असल में देश में पारंपरिक रूप से कम उम्र की कोई 10 लाख बच्चियां देह व्यापार के नरक में हैं।

    यह बात सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज है कि भारत में कोई 900 संगठित गिरोह हैं, जिनके सदस्यों की संख्या पांच हजार के आसपास है। अभी कुछ साल पहले ही दिल्ली पुलिस ने राजधानी से लापता बच्च्यिों की तलाश में एक ऐसे गिरोह को पकड़ा था जो बहुत छोटी बच्चियों को उठाता था, फिर उन्हें राजस्थान में वैश्यावृति के लिए बदनाम एक जाति को बेचा जाता था। अलवर जिले के दो गांवों में पुलिस के छापे से पता चला था कि कम उम्र की बच्चियों का अपरहण किया जाता है। फिर उन्हें इन गांवों में ले जा कर खिलाया-पिलाया जाता है। गाय-भैंस से ज्यादा दूध लेने के लिए लगाये जाने वाले हार्मोन के इंजेक्शन 'आॅक्सीटासीन' देकर छह-सात साल की उम्र की इन लड़कियों को कुछ ही दिनों में 14-15 साल की किशोरी बना दिया जाता और फिर उनसे देह व्यापार कराया जाता। ऐसा नहीं है कि दिल्ली पुलिस के इस खुलासे के बाद यह घिनौना धंधा रुक गया है। अलवर, मेरठ, आगरा, मंदसौर सहित कई जिलों के कई गांव इस पैशाचिक कृत्य के लिए ही जाने जाते हैं। पुलिस छापे मारती है, बच्चियों को महिला सुधार गृह भेज दिया जाता है, फिर दलाल लोग ही बच्चियों के परिवारजन बन कर उन्हें महिला सुधार गृह से छुड़वाते हैं और उन्हें बेच देते हैं। बच्चियों की खरीद-फरोख्त करने वाले दलाल स्वीकार करते हैं कि एक नाबालिग बच्ची को धंधे वालोें तक पहुंचाने के लिए उन्हें चैगुना दाम मिलता है। वहीं कम उम्र की बच्ची के लिए ग्राहक भी ज्यादा दाम देते हैं। तभी दिल्ली व कई बड़े शहरों में हर साल कई छोटी बच्चियां गुम हो जाती हैं और पुलिस कभी उनका पता नहीं लगा पाती। इस बात को लेकर सरकार बहुत कम गंभीर है कि भारत, बांग्लादेश और नेपाल जैसे पड़ोसी देशाें की गरीब बच्चियों के लिए अतंरराष्ट्रीय बाजार बन गया है।
     भले ही मुफलिसी को बाल वैश्यावृति का प्रमुख कारण माना जाए लेकिन इसके और भी कई कारण हैं जो समाज में मौजूद विकृृत मन की सूचना देते हैं। एक तो एड्स के भूत ने दुराचारियों को भयभीत कर दिया है, सो वे छोटी बच्चियों की मांग ज्यादा करते हैं, फिर कुछ हकीमों ने भी फैला रखा है कि संक्रमण ठीक करने के लिए कम उम्र की बच्ची से संबंध बनाना कारगर उपाय है। इसके अलावा देश में कई लोग इन मासूमों का इस्तेमाल पोर्न वीडियो बनाने में कर रहे हैं। अरब देशों में भारत की गरीब मुस्लिम लड़कियों को बाकायदा निकाह करवा कर सप्लाई किया जाता है। ताईवान, थाईलैंड जैसे देह-व्यापार के अड्डों की सप्लाई-लाइन भी भारत बन रहा है। यह बात समय-समय पर सामने आती रहती है कि गोवा, पुष्कर जैसे अंतरराष्ट्रीय पर्यटक केंद्र बच्चियों की खपत के बड़े केंद्र हैं।
    कहने को तो सरकारी रिकार्ड में कई बड़े-बड़े दावे हैं: जैसे कि सन 1974 में देश की संसद ने बच्चों के संदर्भ में एक राष्ट्रीय नीति पर मुहर लगायी थी जिसमें बच्चों को देश की अमूल्य धरोहर घोषित किया गया था। भारतीय दंड संहिता की धारा 372 में नाबालिग बच्चों की खरीद-फरोख्त करने पर 10 साल की सजा का प्रवधान है लेकिन इस धारा में अपराध को सिद्ध करना बेहद कठिन है, क्योंकि अभी हमारा समाज बाल-वैश्यावृति जैसे कलंक से निकली किसी भी बच्ची के पुनर्वास के लिए सहजता से राजी नहीं होता। इस फिसलन में जाने के बाद खुद परिवार वाले बच्ची को अपनाने को तैयार नहीं होते।
     संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार समझौते की धारा 34 में उल्लेख है कि बच्चों को सभी प्रकार के उत्पीड़न से निरापद रखने की जिम्मेदारी सरकार की है। कहने को तो देश का संविधान बिना किसी भेदभाव के बच्चों की देखभाल, विकास और अब तो शिक्षा की भी गारंटी देता है लेकिन इसे नारे से आगे बढ़ाने के लिए न तो इच्छा-शक्ति है और न ही धन। कहने को कई आयोग बने हुए हैं लेकिन वे विभिन्न सियासती दलों के लोगों को पद-सुविधा देने से आगे काम नहीं कर पाते। आज बच्चियों को केवल जीवित रखना ही नहीं बल्कि उन्हें इस तरह की त्रासदियों से बचाना भी जरूरी है और इसके लिए सरकार की सक्रियता, समाज की जागरूकता और हमारी सोच में बदलाव जरूरी है।

    बुधवार, 1 अगस्त 2018

    It is not only death due to hunger

    यह अकेले भूख से मौत नहीं है। 

    पंकज चतुर्वेदी


    मुजफ्फरपुर, फिर एनआरसी और कांवड़िये--- ऐसे ही नए मुद्दे क्या खड़े हुए कि समाज भूल गया कि दिल्ली में संसद से बामुश्किल 12 किलोमीटर दूर गगनचुंबी इमारातों के बीच बसे मंडावली गांव में तीन मासूम बच्चियों की मौत भूख से हुई थी। तभी ,खबर आई कि दिल्ली से सटे साहिबाबाद में एक बच्ची भूख ना सहन कर पाने के कारण मर गई। जिला अस्पताल मानता है कि मरने वाली बच्ची व उसकी तीन बहनें कुपोषण की शिकार हैं। शायद मरने वाली बच्ची का बगैर पोस्टमार्टम के आनन फानन में अंतिम संस्कार भी इस लिए कर दिया गया कि कहीं इस पर सियासत ना हो। हालांकि दिल्ली की घटना बानगी है कि उस परिवार मरने पर सियासत से ज्यादा कुछ होता नहीं है। कोई इसमें राज्य सरकार की कमी खोज रहा है तो कहीं मानवीय संवेदना के शून्य होने की बात है। सभी गेंद को दूसरे के पाले में फैंक कर खुद को कर्मठ, ईमानदार बता रहे हैं। मसला दिल्ली का हो या साहिबाबाद या फिर झारखंड या छत्तीसगढ़ का ,असल में पेट की आंच में झुलस कर असामयिक काल के गाल में समाने वाले महज भूख से ही नहीं मरते, उनकी मौत के कई कारण होते हैं- जिसमें अज्ञानता, स्वास्थ्य सेवा, परिवार नियोजन, रोजगार जैसे मसले शामिल हैं।

    जब कभी भूख से मौत की खबर आती है तो कोई समाज की निष्ठुरता को कोसता है तो कोई सरकार की कार्यप्रणाली को आड़े हाथों लेता है, असलियत यह है कि हमारे यहां भोज्य पदार्थों का प्रबंधन नाम की कोई व्यवस्था नहीं है। भोजन में असमानता ही भूख से मौतों के मूल में है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य व कृषि संगठन की एक रपट के मुताबिक भारत में 19.4 करोड़ लोग भूखे सोते हैं , हालांकि सरकार के प्रयासों से पहले से ऐसे लोगों की संख्या कम हुई है। भूख, गरीबी, कुपोषण व उससे उपजने वाली स्वास्थ्य, शिक्षा, मानव संसाधन प्रबंधन की दिक्क्तें देश के विकास में सबसे बड़ी बाधक हैं। हमारे यहां ना तो अन्न की कमी है और ना ही रोजगार के लिए श्रम की। कागजों पर योजनाएं भी हैं, नहीं हैं तो उन योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए जिम्म्ेदार स्थानीय स्तर की मशीनरी में जिम्मेदारी व संवेदना की।
    मंडावली और साहिबाबाद में मरीं बच्चियों की यदि पोस्टमार्टम रिपोर्ट पर गौर करें तो पता चलेगा कि उनके शरीर में वसा तो था ही नहीं, यानि वे लंबे समय से कुपोषण की शिकार थीं। यह मौत केवल दो या तीन दिन की भूख की  नहीं थी। वे लगभग जन्म से ही प्रोटिन, वसा, कार्बोहाईड्रट जैसे भोजन से वंचित थीं। उनके शरीर में खून की मात्रा भी बेहद कम थी। दिल्ली में मरी तीनों बच्चों की मां मानसिक रूप से कमजोर है। वहीं साहिबाबाद वाली महिला का पति किसी ढाबे पर तंदूर की रोटी बनाता है लेकिन अपनी सारी कमई शराब में उड़ा देता है। मांत्र शाहदरा में भीख मांग कर गुजारा कतर है। सोचने वाली बात है कि  एक मानसिक बीमार औरत और दूसरी भीख मांगने वाली महिला ; को दो-दो साल के अंतर में मां बनने पर मजबूर करने वाले पति के पास जागरूकता, परिवार नियोजन जैसे बड़े-बड़े दावे पहुंचे ही नहीं।

    दिल्ली वाले मामले में भूख, जागरूकता के अभाव और सरकारी योजनाओं की आंच उस इंसान तक नहीं पहुचने का सबसे बड़ा कारण है बच्चियों के पिता की बेराजगारी। वह पश्चिम बंगाल से दिल्ली काम की तलाश में आया और यहां रिक्शचलाता रहा। रिक्शा चेारी हो गया तो रेाजगार का संकट खउ़ा हो गया। बंगाल से दिल्ली हजारों किलोमीटर दूर कोई रिक्शा चलाने आ रहा है तो जाहिर है कि उसे अपने मूल निवास में पेट भरने के लाले पड़े हुए थे और मजबूरी में किया गया पलायन उसके परिवार के अस्तित्व पर संकट का आधार बना। एक बात और, डाक्टर का यह भी कहना है कि तीन बच्चियों की मां के मानसिक रूप से कमजोर होने का मूल कारण भी उसक कुपोषण ही है। जाहिर है कि कुपोषण से लड़ने के बड़े-बड़े इश्तेहार, गरीब लोगों को बीमारी के इलाज के रंगीन दावे और रोजगार मुहैया करवाने वाली खरबों की येाजनाएं उसके असली हितग्राहियों से बहुत दूर हैं। हर बच्चे को स्कूल और स्कूल में मिडडे मील के सुनहरे दावे जब दिल्ली में इस तरह औंधे मूंह गिरते दिख रहे हैं तो दूरस्थ अंचल में इनकी कितनी भयावह हालत होगी।
    समूचा सिस्टम इस बात के लिए भी कटघरे में खड़ा है कि रिक्शा खींचने, ढाबे पर जूठे बरतन मांजने , निर्माण कार्य में मजदूरी करने जैसे कार्य, जिसमें रोज कुंआ खोद कर प्यास बुझाने की मजबूरी होती है ,उन्हें रोजगार या उनके परिवार के भरण-पोषण व स्वास्थ्य की सुनिश्चितता की कौनसी योजना जमीनी स्तर पर काम कर रही है। यदि नहीं तो क्या ऐसे लोगों को हम रोजगार प्राप्त की सूची में गिन सकते हैं?  जिस देष  में नए खरीदे गए अनाज को रख्,ाने के लिए गोदामों में जगह नहीं है, जहां सामाजिक जलसों में परोसा जाने वाला आधे से ज्यादा भोजन कूड़ा-घर का पेट भरता है, वहां ऐसे भी लोग हैं जो अन्न के एक दाने के अभाव में दम तोड़ देते है। महाराश्ट्र में अरबपति षिरडी मंदिर के पास ही मेलघाट में हर साल हजारों बच्चों की कुपोश्ण से मौत की खबर या फिर राजस्थान के बारां जिले में सहरिया आदिवासियों की बस्ती में पैदा होने वाले कुल बच्चें के अस्सी फीसदी के उचित खुराक ना मिल पाने के कारण छोटे में ही मर जाने के वाकिये.... यह इस देष में हर रोज हो रहा है, लेकिन विज्ञापन में मुस्कुराते चैहरों, दमकती सुविधाओं के फेर में वास्तविकता से परे उन्मादित भारतवासी तक ऐसी खबरें या तो पहुंच नहीं रही हैं या उनकी संवेदनाओं को झकझोर नहीं रही हैं। ये अकेले भाजन की कमी का मसला नहीं है, इसके पीछे कई-कई महकमों की कार्य प्रणाली सवालों के घेरे में है।
    भूख से मौत वह भी उस देष में जहां खाद्य और पोशण सुरक्षा की कई योजनाएं अरबों रूपए की सबसिडी पर चल रही हैं, जहां मध्यान्य भोजन योजना के तहत हर दिन 12 करोड़ बच्चें को दिन का भरपेट भोजन देने का दावा हो, जहां हर हाथ को काम व हर पेट को भोजन के नाम पर हर दिन करोड़ों का सरकारी फंड खर्च होता हो; दर्षाता है कि योजनाओं व हितग्राहियों के बीच अभी भी पर्याप्त दूरी है। वैसे भारत में हर साल पांच साल से कम उम्र के 10 लाख बच्चों के भूख या कुपोशण से मरने के आंकड़े संयुक्त राश्ट्र संगठन ने जारी किए हैं। ऐसे में नवरात्रि पर गुजरात के गांधीनगर जिले के एक गांव में माता की पूजा के नाम पर 16 करोड़ रूपए दाम के साढ़े पांच लाख किलो षुद्ध घी को सड़क पर बहाने, मध्यप्रदेष में एक राजनीतिक दल के महासम्मेलन के बाद नगर निगम के सात ट्रकों में भर कर पूड़ी व सब्जी कूड़ेदान में फैंकने की घटनाएं बेहद दुभाग्यपूर्ण व षर्मनाक प्रतीत होती हैं।
    हर दिन कई लाख लोगों के भूखे पेट सोने के गैर सरकारी आंकड़ो वाले भारत देष के ये आंकड़े भी विचारणीय हैं। देष में हर साल उतना गेहूं बर्बाद होता है, जितना आस्ट्रेलिया की कुल पैदावार है। नश्ट हुए गेहूं की कीमत लगभग 50 हजार करोड़ होती है और इससे 30 करोड़ लोगों को सालभर भरपेट खाना दिया जा सकता है। हमारा 2.1 करोड़ टन अनाज केवल इस लिए बेकाम हो जात है, क्योंकि उसे रखने के लिए हमारे पास माकूल भंडारण की सुविधा नहीं है। देष के कुल उत्पादित सब्जी, फल, का 40 फीसदी प्रषीतक व समय पर मंडी तक नहीं पहुंच पाने के कारण सड़-गल जाता है। औसतन हर भारतीय एक साल में छह से 11 किलो अन्न बर्बाद करता है।  जितना अन्न हम एक साल में बर्बाद करते हैं उसकी कीमत से ही कई सौ कोल्ड स्टोरेज बनाए जा सकते हैं जो फल-सब्जी को सड़ने से बचा सके। एक साल में जितना सरकारी खरीदी का धान व गेहूं खुले में पड़े होने के कारण मिट्टी हो जाता है, उससे ग्रामीण अंचलों में पांच हजार वेयर हाउस बनाए जा सकते हैं। यह आंकड़ा किसी से दबा-छुपा नहीं है, बस जरूरत है तो एक प्रयास करने की। यदि पंचायत स्तर पर ही एक कुंटल अनाज का आकस्मिक भंडारण व उसे जरूरतमंद को देने की नीति का पालन हो तो कम से कम कोई भूखा तो नहीं मरेगा। बुंदेलखंड के पिछड़े जिले महोबा के कुछ लेागों ने ‘‘रोटी बैंक’’ बनाया है।  बैंक से जुड़े लेाग भेाजन के समय घरों से ताजा बनी रोटिया एकत्र करते हैं और उन्हें अच्छे तरीके से पैक कर भूखें तक पहुंचाते हैं। बगैर किसी सरकारी सहायता के चल रहे इस अनुकरणीयप्रयास से हर दिन 400 लेागों को भोजन मिल रहा है। बैंक वाले बासी या ठंडी रोटी लेते  नहीं है ताकि खाने वाले का आत्मसम्मान भी जिंदा रहे। यह बानगी है कि यदि इच्छा शक्ति हो तो छोटे से प्रयास भी भूख पर भाारी पड़ सकते हैं।
    विकास,विज्ञान, संचार व तकनीक में हर दिन कामयाबी की नई छूने वाले मुल्क में इस तरह बेरोजगारी व खाना ना मिलने से होने वाली मौतें मानवता व हमारे ज्ञान के लिए भी कलंक हैं। हर जरूरतमंद को अन्न पहुंचे इसके लिए सरकारी योजनाओं को तो थोडा़ा चुस्त-दुरूस्त होना होगा, समाज को भी थोड़ा संवेदनषील बनना होगा। हो सकता है कि हम इसके लिए पाकिस्तन से कुछ सीख लें जहां षादी व सार्वजनिक समारोह में पकवान की संख्या, मेहमानों की संख्या तथा खाने की बर्बादी पर सीधे गिरफ्तारी का कानून है। जबकि हमारे यहां होने वाले षादी समारोह में आमतौर पर 30 प्रतिषत खाना बेकार जाता है। गांव स्तर पर अन्न बैंक, प्रत्येक गरीब, बेरोजगार के आंकड़े रखना जैसे कार्य में सरकार से ज्यादा समाज को अग्रणी भूमिका निभानी होगी। बहरहाल हमें एकमत से स्वीकार करना होगा कि दिल्ली में तीन बच्चों की ऐसी मौत हम सभी के लिए षर्म की बात है। यह विडंबना है कि मानवता पर इतना बड़ा धब्बा लगा और उस इलाके के एक कर्मचारी या अफसर को सरकार ने दोशी नहीं पाया, जबकि ये अफसरान इलाके की हर उपलब्धि को अपनी बताने से अघाते नहीं हैं।

    Mobile use in school should be ban


    आखिर क्यों न लगे भारत में भरी स्कूलों में मोबाईल फोन पर रोक

    पंकज चतुर्वेदी 

    पिछले दिनों फ्रांस की संसद ने एक कानून बना कर देश के प्राथमिक और जूनियर हायर सेकेंडरी स्कूलों में बच्चों द्वारा मोबाईल फोन के इस्तेमाल पर पाबंदी लगा दी गयी है । यह कानून अगले स्कूली सत्र यानि सितम्बर 2018 से लागू हो जाएगा । इसके बाद दुनियाभर में इस पर बहस शुरू हो गयी है , कई लोग स्कूल में मोबाईल के फायदे गिना रहे हैं जबकि फ्रांस  के युवा राष्ट्रपति इमानुअल मकरन ने विभिन्न सर्वेक्षण, रिपोर्ट को आधार बना आकर बच्चों के स्कूल में सेल फोन के इस्तेमाल पर पाबंदी का बिल खुद पेश किया और सांसदों से इसके लिए समर्थन माँगा । जान लें कि फ्रांस  में स्कूल के भीतर बच्चों के मोबाईल फोन पर रोक की बहस लम्बे समय से चल रही हैं । सन 2006 में भी इस पर एक बिल पेश किया गया था, लेकिन तब संसद से उसे माकूल समर्थन नहीं मिला था । फ्रांस जैसे विकसित देश के इस कदम से भारत में भी कुछ लोग ऐसी पाबंदी के कानून की बात कर रहे हैं क्योंकि हमारे यहां मोबाईल फोन के दुरूपयोग, वह भी स्कूल व किशोरों में , के मामले बए़ते जा रहे हैं।

    पिछले कुछ महीनों के दोैरान देश के विभिन्न हिस्सों से ऐसे वीडियो खूूब टीवी समाचारों की सुर्खियां बनीं हैं जिनमें कम उम्र के लड़के किसी अवयस्क लड़की के साथ जोर-जबरदस्ती कर रहे थे या कहीं किसी को महज किसी शक में पीट-पीट कर जान से मार दिया गया। हाथ में मोबाईल व उसमें इंटरनेट कनेक्शन ने इन युवाओं के दिल में अपराध की गंभीरता के बनिस्पत जल्दी कुख्यात होने या व्यापक भय पैदा करने की अपाराधिक भावना को बलवती बनाया। हमारा देश दुनिया में सबसे तेजी से मोबाईल उपभौक्ता में विस्तार वाले देशों में से एक है। यह किसी से छुपा नहीं है कि भारत  में सस्ता इंटरनेट और साथ में कम दाम का स्मार्ट फोन अपराध का बड़ा कारण बना हुआ है,- खासकर किशोरों में यौन अपराध हों या मारापीटी या फिर शेखी बघारने को किये जा रहे दुःसाहस। । मोबाईल के कमरे व् वीडियो और उसे इन्टरनेट के जरिये पलक झपकते ही दुनिया तक पहुंचा कर अमर-अजर होने की आकांक्षा युवाओं को कई गलत रास्ते की और मोड़ रही है। दिल्ली से सटे नोयडा में स्कूल के बच्चों ने अपनी ही टीचर का गन्दा वीडियो बना कर सोशल मीडिया पर डाल दिया । क्षणिक आवेश में किसी के प्रति आकर्षित हो गयी स्कूली लड़कियों के अश्लील  वीडियो क्लिप से इन्टरनेट संसार पटा  पडा हैं । इसके विपरीत कई बच्चों के लिए अनजाना रास्ता तलाशना हो या, किसी गूढ़ विषय का हल या फिर देश दुनिया के जानकारी या फिर अपने विरुद्ध हुए अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाना ; इन सभी में हाथ की मुट्ठी में सिमटी दुनिया के प्रतीक मोबाईल ने नयी ताक़त और राह दी है, खासकर युवा लड़कियों को मोबाईल ने बेहद सहारा दिया है ।
    हालांकि यह भी सच है की भारत और फ्रांस  के सामजिक- आर्थिक समीकरण बेहद भिन्न हैं, फ्रांस  में किये गए एक सर्वे के अनुसार देश के 12 से 17 साल आयु वर्ग के नब्बे प्रतिशत बच्चों के पास स्मार्ट मोबाईल है । भारत में यह आंकडा बहुत कम होगा । असल में फ्रांस  के शिक्षकों  की शिकायत थी कि कम उम्र के बच्चे क्लास में फोन ले कर बोर्ड और पुस्तकों के स्थान पर मोबाईल पर ज्यादा ध्यान देते हैं, वे एक दुसरे को मेसेज भेज कर चुहल करते है या फेसबुक, इन्स्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया पर लगे रहते हैं । इससे उनके सीखने और याद रखने की गति तो प्रभावित हो ही रही है, बच्चों के स्वास्थ्य पर भी विपरीत असर हो रहा है । अब वे खेल के मैदान में पसीना बहाने के बनिस्पत आभासी दुनिया में व्यस्त रहते है, इससे उनमें मोटापा, आलस आ रहा है, आँखें कमजोर होना , याददाश्त कमजोर होना भी इसके प्रभाव दिखे, पहले बच्चे जिस गिनती, पहाड़े, स्पेलिंग या तथ्य को अपनी स्मृति में रखते थे, अब वे सर्च इंजन  की चाहत में उसे याद नहीं रखते , यहाँ तक की कई बच्चों को अपने घर का फोन नम्बर तक याद नहीं था,
    हालांकि फ्रांस के कोई इक्यावन हज़ार प्रायमरी और सात हज़ार जूनियर सेकेंडरी स्कूलों में से आधे में स्कूल प्रशासन ने पहले से ही फोन पर रोक लगा रखी है , लेकिन अब यह एक कानून बन गया है, कानूनन बच्चा स्कूल में फोन तो ले कर आ सकता है लेकिन उसे फोन को अपने बसते के भीतर या ऐसे स्थान पर रखना होगा, जहां से वह दिखे नहीं , वैसे इस कानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है की यदि कोई बच्चा इसका उलंघन कर्फे तो उसके साथ क्या किया जाये, फ्रांस  के स्कूलों में अभी तो फोन मिलने पर टीचर उसे अपने पास रख लेते हैं और अगले दिन उनके माता-पिता  को बुला कर उन्हें सौंप देते हैं । वैसे जानकार इसे फ़िज़ूल की कवायद मान रहे हैं, बस्ते में रखे फोन से चेटिंग या सोशल मीडिया इस्तेमाल करना बच्चों के लिए कोई कठिन नहीं होगा ।
    उल्लेखनीय है कि पूर्व में अमेरिका के कुछ राज्यों में भी बच्चों के स्कूल में सेल फोन पर पाबंदी लग चुकी है लें बाद में उसे उठा लिया गया। जमैका में सन 2005 में , नाईजीरिया में 2012 में मलेशिया में, 2014 में ऐसे नियम बने - जापान, बेल्जियम में । इंडोनेशिया आदि देशों  में  बच्चों के फोन के इस्तेमाल पर कुछ सीमायें हैं, जैसे जापान में रात में नौ बजे के बाद बच्चे फोन के इस्तेमाल से परहेज करते हैं ।
    यह कटु सत्य है कि स्कूल में फोन कई किस्म की बुराइयों को जन्म दे रहा है । इसके साथ ही आज फ़ोन में खेल, संगीत, वीडियों,  जैसे कई ऐसे  एप उपलब्ध है जिसमें बच्चे का मन लगना ही है और इससे उसकी शिक्षा पर विपरीत प्रभाव पड़ता हैं । लेकिन इम्तेहान में धोखाधड़ी और नक़ल का एक बड़ा औजार यह बन गया हैं। यही नहीं इसके कारण अपराध भी हो रहे हैं।
    निर्कुश अश्लीलता स्मार्ट फोन पर किशोर बच्चों के लिए सबसे बड़ा जहर है , चूँकि ये फोन महंगे भी होते हैं इस लिए अक्सर बेहतर फोन खरीदने या ज्यादा इन्टरनेट  पेक खरीदने के लिए बच्चे चोरी जैसे काम भी करने लगते हैं । विद्यालयों में फोन ले कर जा रहे बच्चों में से बड़ी संख्या धमकियों को भी झेलती है , कई एक शोषण का शिकार भी होते हैं ।
    वैसे बगैर किसी दंड के फ्रांस का कानून कितना कारगर होगा यह तो वक़्त ही बताएगा लेकिन डिजिटल दुनिया पर आधुनिक हो रहे विद्यालयों में इस कदम से एक बहस जरुर शुरू हो गयी है, खासतौर पर भारत जैसे देश में जहां अशिक्षा , असमानता , बेरोजगारी और गरीबी से कुंठित युवाओं की संख्या बढती जा रही है , जहां कक्षा आठ के बाद स्कूल से ड्राप आउट दर बहुत ज्यादा है , लेकिन कई राज्यों में स्कूल के मास्टर को स्मार्ट फोन पर सेल्फी के साथ हाजिरी लगाना अनिवार्य है, ऐसे देश में विद्यालय में बच्चे ही नहीं शिक्षक के भी सेल फोन के इस्तेमाल की सीमाएं, पाबंदियां अवश्य लागु होना चाहिए।
    खेद है कि भारत का सुप्रीम कोर्ट गत तीन साल से सरकार से अश्लील वेबसाईट पर पाबंदी के आदेश दे रहा है और सरकार उस पर अधूरे मन से कार्यवाही अक्रती है और अगले ही दिन वे नंगी साईट फिर खुल जाती हैं , देश के झारखण्ड राज्य के जामताड़ा जिले के आंचलिक क्षेत्रों में अनपढ़ युवा मोबाईल से बेंक फ्रौड का अंतर्राष्ट्रीय गिरोह चलाते हैं लेकिन  सरकार असहाय रहती हैं । ऐसे में हमारे यहाँ ऐसे कानून की सोचना दूर की कौड़ी है लेकिन इस पर व्यापक बहस अवश्य होना चाहिए ।

    Why was the elephant not a companion?

        हाथी क्यों न रहा साथी ?                                                                    पंकज चतुर्वेदी   हाथियों और मानव के ब...