My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

शुक्रवार, 27 मई 2022

Not only digging , also necessary to save the ponds

 तालाब खोदने  नहीं, बचाने भी जरूरी हैं

पंकज चतुर्वेदी




जब देश के प्रधनमंत्री आजादी के 75वे साल में हर जिले में 75 सरोवर बनाने की बात कर रहे हैं तभी बंगलूरू विकास प्राधिकरण 12 मई 2022 को विज्ञापन छाप कर डोडाबेट्टा हल्ली गांव में  चार एकड़ के तालाब पर आवासीय कालोनी खड़ा करने पर आम लोगों का आपत्तियों आमंत्रित कर रहा है। आजादी के 75 साल होने पर अमृतोत्सव की धूम में तालाबों का नाम भी जुड़ गया है और यूपी के रामपुर के उत्साही अफसरों ने भरी गरमी में एक पुराने तालाब पर सीमेंट-टाईल्स का प्रसाधन किया और उसे टैंकर से लबालब भर का देश का पहला अमृत तालाब बनाने की घोषणा  भी कर दी।  यह सर्वमान्य तथ्य है कि  बढ़ते तापमान,सिकुड़ती नदियों, बरसात के कम हो रहे दिनों और जल-संसाधन की बहुत बड़ी परियोजनाओं के  अपेक्षित परिणाम ना निकल पाने  और बढ़ती आबदी की प्यास व भूख शांत  करने के लिए पुरखों  से मिले तालाब ही काम आएंगे।  कोई तीन दशकों से नारे में तालाब खूब उछलते हैं लेकिन  सूरज के तपते ही उनसे पानी की आस समाप्त हो जाती है।  कहना होगा कि असल में हमारे आधुनिक शिक्षा प्राप्त अफसरों-इंजीनियरों को असल में तालाब  की वह समझ नहीं है जो सैंकड़ों साल पहले के उस पारंपरिक समाज को थी जो मिट्टी की संरचना, पानी की जरूरत व आवक, हर  बात की गणना  उनके दिमाग में होती थी .



कितना सुखद है कि किसी सरकार ने लगभग 78 साल पुरानी एक ऐसी रपट को गंभीरता से अमल करने की सोची जो कि सन 1943 के भयंकर बंगाल दुर्भिक्ष में तीन लाख से ज्यादा मौत होने के बाद ब्रितानी सरकार द्वारा गठित एक आयोग की सिफारिशों में थी। सन 1944 में आई अकाल जांच आयोग की रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत जैसे देश में नहरों से सिंचाई के बनिस्पत तालाब खोदने व उनके रखरखाव की ज्यादा जरूरत है। सन 1943 में ग्रो मोर कैंपेन चलाया गया था जोकि बाद में देश की पहली पंचवर्षीय  योजना का हिस्सा बना, उसमें भी लघु सिंचाई परियोजनाओं यानि तालाबों की बात कही गई थी।  उसके बाद भी कई-कई योजनाएं बनीं, मप्र जैसे राज्य में सरोवर हमारी धरोहर जैसे अभियान चले, लेकिन जब आंकड़ों पर गौर करें तो दिल्ली हो या बंगलूरू या फिर छतरपुर, रांची या लखनउ, सभी जगह विकास के लिए रोपी गई कालेनियां,सड़क, कारखानों, फ्लाई ओवरों को तालाब को समाप्त कर ही बनाया गया।



हालांकि इसके कोई सरकारी रिकार्ड मौजूद नहीं हैं, लेकिन अंदाजा है कि मुल्क में आजादी के समय लगभग 24 लाख तालाब थे। बरसात का पानी इन तालाबों में इकट्ठा हो जाता था, जो भूजल स्तर को बनाए रखने के लिए बहुत जरूरी होता था। अकेले मद्रास प्रेसीडेंसी में ही पचास हजार तालाब और मैसूर राज्य में 39 हजार होने की बात अंग्रेजों का रेवेन्यू रिकार्ड दर्शाता है। बुंदेलखंड के सूखे के लिए सबसे ज्यादा पलयन के लिए बदनाम टीकमगढ़ जैसे छोटे से जिले में हजार से ज्यादा हष्ट पुष्ट  तालाब होने और आज इनमें से 400 से ज्यादा गुम हो जाने का रिकार्ड तो अभी भी मौजूद है। उत्तर प्रदेश के पीलीभीत, लखीमपुर और बरेली जिलों में आजादी के समय लगभग 182 तालाब हुआ करते थे।



 उनमें से अब महज 20 से 30 तालाब ही बचे हैं। जो बचे हैं, उनमें पानी की मात्रा न के बराबर है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में अंगरेजों के जमाने में लगभग 500 तालाबों के होने का जिक्र मिलता है, लेकिन कथित विकास ने इन तालाबों को लगभग समाप्त ही कर दिया। देश भर में फैले तालाबों ,बावड़ियों और पोखरों की सन 2000--01 में गिनती की गई थी। देश में इस तरह के जलाशयों की संख्या साढे पांच लाख से ज्यादा है, इसमें से करीब 4 लाख 70 हजार जलाशय किसी न किसी रूप में इस्तेमाल हो रहे हैं, जबकि करीब 15 प्रतिशत बेकार पड़े हैं। यानी आजादी के बाद के 53 सालों में हमारा समाज कोई 20 लाख तालाब चट कर गया। बीस लाख तालाब बनवाने का खर्च आज कई लाख करोड़ से कम नहीं होगा। सनद रहे ये तालाब मनरेगा वाले छोटे से गढडें नहीं है, इनमें से अधिकांश कई-कई वर्ग किलोमीटर तक फैले हैं। ऐस ही सन 2006--07 की गणना में सरकार ने स्वीकार किया कि  देश के ग्रामणी अंचल में 5,23,816 तालाब हैं जिनमें से 80128 उपयोग में नहीं आ रहे। 22 जुलाई 2021 को संसद में जल संसाधन मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत ने एक गैर तारांकित प्रश्न के जवाब में कहा कि वर्ष  2013--14 की गणना के अनुसार ग्रामीण भारतमें 5,16303 जल निधियां हैं जिनमें से 53,396 गाद, गंदगी या अन्य कारणों से इस्तेमाल में नहीं है। गौर करें कि छह साल के अंतराल में ही 7513 तालाब कहीं गुम हो गए। गौर करें कि इन आंकड़ों में वे शहरी  तालाब शामिल नहीं है जिन्हें विकास के नाम में जायज  तरीके से  मैदान बना दिया गया। एक अन्य सवाल के उत्तर में संसद को बताया गया कि अभी देश में 0.01 हैक्टर आकार से अधिक की सात लाख,98 हजार, 908 जल संरचनाएं हैं जिनमें से 5,16,303 में ही पानी बचा है।



सन 2001 में देश की 58 पुरानी झीलों को पानीदार बनाने के लिए केंद्र सरकार के पर्यावरण और वन मंत्रालय ने राश्ट्रीय झील संरक्षण योजना षुरू की थी। इसके तहत कुल 883.3 करोड़ रूपए का प्रावधान था। इसके तहत मध्यप्रदश की सागर झील, रीवा का रानी तालाब और शिवपुरी झील, कर्नाटक के 14 तालाबों, नैनीताल की दो झीलों सहित 58 तालाबों की गाद सफाई के लिए  पैसा बांटा गया। इसमें राजस्थान के पुष्कर  का कुंड और धरती पर जन्नत कही जाने वाली श्रीनगर की डल झील भी थी। झील सफाई का पैसा पश्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर राज्यों को भी गया। अब सरकार ने मापा तो पाया कि इन सभी तालाबों से गाद निकली कि नहीं, पता नहीं - लेकिन इसमें पानी पहले से भी कम आ रहा है। केंद्रीय जल आयोग ने जब खर्च पैसे की पड़ताल की तो ये तथ्य सामने आए। कई जगह तो गाद निकाली ही नहीं और उसकी ढुलाई का खर्चा दिखा दिया। कुछ जगह गाद निकाल कर किनारों पर ही छोड़ दी, जोकि अगली बारिश में ही फिर से तालाब में गिर गई।


दसवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान 2005 में केंद्र सरकार ने जलाशयों  की मरम्मत , नवीकरण और जीर्णोध्दार ( आर आर आर ) के लिए योजना बनाई। ग्यारहवीं योजना में काम शुरू भी हो गया, योजना के अनुसार राज्य सरकारों को योजना को अमली जामा पहनाना था। इसके लिए कुछ धन केंद्र सरकार की तरफ से और कुछ विश्व बैंक जैसी संस्थाओं से मिलना था। इस योजना के तहत इन जलाशयों की क्षमता बढ़ाना, सामुदायिक  स्तर पर  बुनियादी ढाँचे का विकास करना था। गाँव ,ब्लाक, जिला व राज्य स्तर पर योजना को लागू किया गया है। हर स्तर पर तकनीति सलाहकार समिति का  गठन किया जाना था। सेन्ट्रल वाटर कमीशन और  सेन्ट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड को इस योजना को तकनीकी सहयोग देने का  जिम्मा दिया गया, जबकि निरीक्षण का काम जल संसाधन मंत्रालय कर रहा है। बस खटका वही है कि तालाब का काम करने वाले दीगर महकमें तालाब तो तैयार कर रहे हैं, लेकिन तालाब को तालाब के लिए नहीं। मछली वाले को मछली चाहिए तो सिंचाई वाले को खेत तक पानी। जबकि तालाब पर्यावरण, जल, मिट्टी, जीवकोपार्जन की एक एकीकृत व्यवस्था है और इसे अलग-अलग आंकना ही बड़ी भूल है।



12वीं पंचवर्शीय योजना में भी 1765 करोड़ खर्च कर 2064 तालाबों के जीर्णोद्वार का प्रावधान था लेकिन योजना  की अवधि में मात्र 1160 पर ही काम हुआ। आंध््रा प्रदेश और मणिपुर जैसे राज्यों ने इस बजट को खर्च ही नहीं कया और  उपलब्धि में शून्य  तालाब लिखे थे तो उड़िसा में 145.18 करोड़ खर्च कर 810 तालाबों के कायाकल्प की जानकारी सरकार को भ्ेजी गई। गुजरात महज 8.81 करोड़ व्यय के साथ तीन तालाब पर काम कर पाया।

उप्र के आदर्श तालाब योजना के तहत सीतापुर और लखनउ के  इस समय सूखे पड़े सैंकड़ों गड्ढे बानगी हैं कि  सरोवर को खेदना या सुंदर बनाने से ज्यादा जरूरी है कि उसमें पानी की नैसिर्गिक आवक, जल निधि में गंदगी ना मिलना सुनिश्चित करना और उसका नियमित प्रयोग ज्यादा जरूरी है ना कि प्रचार और नारे।

 

बुधवार, 18 मई 2022

fire is a good friend but a very bad master

 आग से बेपरवाह क्यों हैं

पंकज चतुर्वेदी




दिल्ली  के मुंडका में एक व्यावसायिक  परिसर में एक इलेक्ट्रानिक कंपनी के कर्मचारियों के लिए मोटिवेषन लेक्चर चल रहा था । अचानक  लाईट गई, जनरेटर चलते ही पूरी इमारत आग का गोला बन गई। जब तक सरकार चेतती कि  भवन भी अवैध था और उसमें आग से बचाव के उपाय थे ही नहीं, तीस लोग मारे जा चुके थे। उनके शरीर इतने बुरे जले हैं कि मृतकों की पहचान नहीं हो पा रही।  इतना हल्ला हुआ लेकिन ना तो दिल्ली में आग रूकी और ना ही लापरवाही। उसके बाद भी हर दिन किसी कारखाने में आग लगती रही और वही गलतियों दोहराती दिखीं। है। यह समझना जरूरी है कि आग एक अच्छी दोस्त है लेकिन बहुत बुरी मालिक, यानि यदि आग आप पर बलवती हो गई तो उसे दूरगामी दुष्प्रभावों से जूझना बहुत कठिन होता है।

आग के प्रति कोताही का जब यह हाल दिल्ली का है तो समझ सकते हैं कि सुदूर अंचलों में लोग किस तरह आग से खेलते होंगे। देश के कई अन्य अग्निकांडों को भी देखें तो पाएंगे कि इन हादसों को असल में इंसान ने खुद ही बुलाया था - लापरवाही में, ज्यादा पैसे कमाने के लालच में और सतर्कता के अभाव के माध्यम से। जान लें कि आग लगने से जान-माल का नुकसान तो होता ही है, जो लोग इस हादसे में घायल हो जाते हैं उनका इलाज भी बेहद महंगा होता



हाल की घटनांओं को फौरी तार पर देखें तो हर एक अग्निकांड का कारण मानवजन्य लापरवाही ही हैं अतिक्रमण, अवांछित निर्माण और सुरक्षा के उपायों को पूरी तरह नजरअंदाज करना । ऐसी लापरवाही जिससे बगैर किसी खास प्रयुक्ति के भी बचा जा सकता है। अपने दैनिक जीवन में हम यदि कुछ मामूली सावघानियां बरतें तो ऐसी घटनाओं को होने से रोका जा सकता है । इससे कई लोगों का जीवन बचाया जा सकता है । दिल्ली या अन्य नगरों की बात करें या खलिहान में रखी सूखी फसल में आग लगने की, अधिकांश मामलों में बिजली के उपकरणों क्रे प्रति थोड़ी सी लापरवाही ही बड़े अग्निकांड में बदलती दिखती हैं। उसके बाद तबाही के अलावा कुछ नहीं बचता।

विश्व में जलने के मामलों में सबसे अधिक संख्या संभवतया भारत की है । यह चिंता का विषय है कि दुनिया के कुल जलने के मामलों में भारत का हिस्सा एक तिहाई है । जहां विकसित देशों में जलने के मामले लगातार कम होते जा रहे हैं, वहीं भारत जैसे विकासशील देशों में इनकी संख्या लगातार बढ़ रही है । यह गहरी चिंता का विषय है । एक अनुमान है भारत में हर साल लगभग 30 लाख लोग जलने की घटनाओं के शिकार होते हैं । । इनमें से कोई पांचवा हिस्सा ही अस्पताल तक पहुंचता है और विडंबना है कि इनके एक तिहाई मौत की चपेट में आ जाते हैं । जबकि इतने ही लोग विकलांग हो जाते हैं । ऐसी घटनाओं के शिकार 80 प्रतिशत लोग अपने जीवन के सबसे सक्रिय काल यानि 15 से 35 साल आयु के होते हैं। इनमें बच्चे या महिलाओं की बड़ी संख्या होती है । जलने की आठ फीसदी दुर्घटनाएं घर पर ही घटित होती हैं ।



जले हुए लोगों का इलाज बेहद खर्चीला और लंबे समय तक चलता है । यही नहीं देश में सभी जगह इसके उचित इलाज की व्यवस्था भी नहीं हैं । अपने दैनिक जीवन में हम यदि कुछ मामूली सावघानियां बरतें तो ऐसी घटनाओं को होने से रोका जा सकता है । इससे कई लेगों का जीवन बचाया जा सकता है ।

चिकित्सा विज्ञान में अधिकांश बीमारियों के इलाज के लिए दवाईयां या शल्य का प्रावधान है । आग से हुई चोटों का भी इलाज होता है, लेकिन दुर्भाग्य है कि कोई भी इलाज शरीर को असली आकार या रंग लौटाने में सक्षम नहीं है ।  कई बार जब शरीर का बड़ा हिस्सा जल जाता है तो रेगी की मृत्यु हो जाती है । जले हुए रोगियों की बड़ी संख्या चेहरे या शरीर के अन्य हिस्सों में विकृति का शिकार बन जाती है ।  कई बार शरीर का कोई हिस्सा बकाया जीवन के लिए बेकार हो जाता है ।

जलने के कारण  पीड़ित मरीज पर कई मनोवैज्ञानिक व सामाजिक प्रभाव भी होते हैं । करीबी रिश्तेदार कई बार अलग तरीके से प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं और मरीज को बोझ मानते हैं। कई बार माता-पिता भारी आर्थिक बोझ के तले दब जाते हैं । कुछ लोग खुलेआम विकलांग बच्चों को  अस्वीकार कर देते हैं । कई बार जले हुए पीड़ित को विकृति और कुरूपता के कारण अपने भाई-बहन और हमउम्र दोस्तों से उपेक्षा झेलनी पड़ती है । जाहिर है कि जिस बात से आसानी से बचाव किया जा सकता है, कई बार उसकी भारी कीमत चुकानी पड़ती है ।



आग से बचने का सबसे सटीक उपाय है सतर्कता और जागरूकता। कुछ बातें सभी को गांठ बांध कर रखना चाहिए, जैसे कि आग तेजी से फैलती है । एक छोटी सी चिंगारी महज 30 सेकंड में काबू से बाहर हो जाती है तथा विकराल आग का रूप ले सकती है । कुछ मिनटों में ही घर में गहरा काला धुंआ भर सकता है । आग की लपटें थोड़ी ही देर में किसी घर को निगल लेती है । दूसरा. आग गरम होती है और गरमी अकेले ही जानलेवा होती है । आग लगने की दशा में कमरे का तापमान पैरों के पास 100 डिगरी और आंखों तक आते-आते 600 डिगरी हो जाता है । इतनी गरम हवा में सांस लेने से फैंफड़े झुलस सकते हैं । मुंडका में कुछ इसी तरह लोगों की मौत हुई थी। कुछ ही मिनटों में कमरा गरम भट्टी बन जाता है।, जिसमें प्रत्येक वस्तु सुलग उठती है । आग की शुरूआत तो रोशनी से होती है, लेकिन जल्दी ही इससे निकलने वाले काले घने धुएं के कारण अंधेरा छा जाता है। आग की लपटों से कहीं अधिक उसके धुएं और जहरीली गैसों से जान-माल का नुकसान होता है । प्राणदायक आक्सीजन गैस के कारण आग का फैलाव होता है और इससे धुआं व घातक गैसे निकलती हैं । धुंए या जहरीली गैस की यदि थोड़ी सी मात्रा भी सांस के साथ भीतर चली जाए तो आप निढ़ाल, बैचेन हो सकते हैं च सांस लेने में परेशानी हो सकती है । कई बार तो आग की लपटें आप तक पहुंचे उससे पहले ही रंगहीन, गंधहीन धुआं आपको गहरी नींद में ढकेल सकता है।



ऐसे हादसे आमतौर पर भीड़ भरे संकरे स्थानों पर घटित होते हैं , जैसे कि स्कूल, कालेज, बाजार, सिनेमा हॉल , शादी के मंडप, अस्पताल, होटल, रेलवे स्टेशन, कारखाने, सामुदायिक भवन, धार्मिक समागम आदि ।

आग लगने की 60 प्रतिशत घटनाओं के मूल में बिजली के साथ बरती जाने वाली लापरवाही होती हैं , इनमें शार्ट र्सिर्कट, ओवर हीटिंग, ओवर लोडिंग, घटिया उपकरणों का इस्तेमाल, बिजली की चोरी, गलत तरीके से की गई वायरिंग, लापरवाही, आदि आम हैं। यदि दिशा-निर्देशों का सही तरीके से पालन ना किया जाए तो भयानक आग व बड़ी दुर्घटना घटित हो सकती है । थोड़ी सी सावधानी बरतने पर ऐसी घटनाओं से बचा जा सकता है । बिजली से लगने वाली आग ,विशेषरूप से बड़े भवनों में बहुत तेजी से फैलती है , जिसके कारण जान-माल की बड़ी हानि हो सकती है। अतः यह जरूरी है कि आग लगने पर त्वरित कार्यवाही की जाए ।



अग्निशमन विशेषज्ञ यह बात स्वीकारते हैं कि हमारे देश में होने वाली असामयिक मृत्यु के कारणों में आग सबसे बड़ा कारक है । जले हुए लोगों का उपचार करना बेहद खर्चीला व बहुत समय खपाने वाला कार्य है । आग से बचाव के उपायों का क्रियान्वयन, जले हुए लोगों के इलाज के लिए अस्पताल बनाने से कम खर्चीला व सरल होता है । थोड़ी सी सावधानी, लोगों की जागरूकता और सामान्य सा प्रशिक्षण हमारे देश को आग की घटनाओं से मुक्त देश बना सकता है । यही नहीं अग्निशमन जैसे विभाग आग लगने पर जिस तत्परता से काम करते हैं और कई बार आग से जूझने में अपने साथियों को भी गंवा देते हैं, उससे बेहतर हो कि कोई हादसा होने से पूर्व ही सार्वजनिक स्थानों पर आग की संभावनओं को शून्य करने पर अधिक ध्यान दें। एक बात और हमारी सड़कें व सार्वजनिक स्थल फायरब्रिगेड की गाडियों के आवागमन और उनके उपकरणों के ठीक तरह इस्तेमाल के अनुकूल नहीं हैं। हम लोग देरी के लिए अग्निशमन को कोसते हैं, असल में उस देरी के पीछे भी वही कारण होते हैं जो आग लगने के - अतिक्रमण , अवैध निर्माण और कोताही। आज अनिवार्य है कि आग के कारणो के प्रति  लापरवाहियां को ले कर समाज में भी नियमित विमर्श और सतर्कता हो।

 

मंगलवार, 17 मई 2022

Amrit pond can make India self-dependent on water

 अमृत  तालाब बना सकते हैं भारत को पानीदार

पंकज चतुर्वेदी



भारत के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में भले ही खेती-किसानी का योगदान महज 17 फीसदी हो लेकिन आज भी यह रोजगार मुहैया करवाने का सबसे बड़ा माध्यम हे। ग्रामीण भारत की 70 प्रतिशत आबादी का जीवकोपार्जन खेती-किसानी पर निर्भर है।  लेकिन दुखद पहलु यह भी है कि हमारी लगभग 52 फीसदी खेती इंद्र देवता की मेहरबानी पर निर्भर है। महज 48 फीसदी खेतों को ही सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है और इसमें भी भूजल पर निर्भरता बढ़ने से बिजली, पंप, खाद, कीटनाशक के मद पर खेती की लागत बढ़ती जा रही है। एक तरफ देश की बढ़ती आबादी के लिए अन्न जुटाना हमारे लिए चुनौती है तो दूसरी तरफ लगातार घाटे का सौदा बनती जा रही खेती-किसानी को हर साल छोड़ने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है।  अब यह किसी से छुपा नहीं है कि सिंचाई की बड़ी परियोजनाएं  लागत व निर्माण में गने वाले समय की तुलना में कम ही करगर रही हैं। ऐसे में समाज को सरकार ने अपने सबसे सशक्त पारंपरिक जल-निधि तालाब की ओर  आने का आह्वान किया है।  आजादी के 75 साल के अवसर पर देश के हर जिले में  75 सरोवरों की येजना पर काम हो रहा है।

जलवायु परिवर्तन का कुप्रभाव अब सभी के सामने है, मौसम की अनिश्तिता और चरम हो जाने की मार सबसे ज्यादा किसान पर है। भूजल के हालात पूरे देश में दिनों-दिन खतरनाक होते जा रहे हैं। उधर बड़े बांधों के असफल प्रयोग  और कुप्र्रभावों के चलते पूरी दुनिया में इनका बहिष्कार हो रहा है। बड़ी सिंचाई परियोजनाएं एक तो बेहद महंगी होती हैं, दूसरा उनके विस्थापन व कई तरह की पर्यावरणीय समस्याएं खड़ी होती हैं। फिर इनके निर्माण की अवधि बहुत होती है। ऐसे में खेती को अपने पैरों पर खड़ा करने के लिए भारतीय समाज को डअपनी जड़ों की ओर लौटना होगा- फिर से खेतों की सिंचाई के लिए तालाबों पर निर्भरता। यह जमीन की नमी सहेजने सहित कई पर्यावरणीय संरक्षण के लिए तो सकारात्मक है ही, मछली पालन, मखाने, कमल जैसे उत्पादों के उगाने की संभावना के साथ किसान को अतिरिक्त आय का जरिया भी देता है। तालाबा को सहेजने और उससे पानी लेने का व्यय कम है ही। यही नहीं हर दो-तीन साल में तालाबों की सफाई से मिली गाद बेशकीमती खाद के रूप में किसान की लागत घटाने व उत्पादकता बढ़ाने का मुफ्त माध्यम अलग से है।

आजादी के बाद सन 1950-51 में लगभग 17 प्रतिशत खेत(कोई 36 लाख हैक्टेयर) तालाबों से सींचे जाते थे। आज के कुल सिंचित क्षेत्र में तालाब से सिंचाई का  रकवा घट कर 17 लाख हैक्टेयर अर्थात महज ढाई फीसदी रह गया है। इनमें से भी दक्षिणी राज्यों ने ही अपनी परंपरा को सहजे कर रखा। हिंदी पट्टी के इलाकों में तालाब या तो मिट्टी से भर कर उस पर निर्माण कर दिया गया या फिर तालाबों को घरेलू गंदे पानी के नाबदान मे बदल दिया गया। यह बानगी है कि किस तरह हमो किसानों ने सिंचाई की परंपरा से विमुख हो कर अपने व्यय, जमीन की बर्बादी को आमंत्रित किया।

तालाब केवल इस लिए जरूरी नहीं हैं कि वे पारंपरिक जल स्त्रोत हैं, तालाब पानी सहेजते हैं, भूजल का स्तर बनाए रखते है, धरती के बढ़ रहे तापमान को नियंत्रित करने में मदद करते हैं और उससे बहुत से लोगों को रोजगार मिलता है। सन 1944 में गठित फेमिन इनक्वायरी कमीशन ने साफ निर्देश दिए थे कि आने वाले सालों में संभावित पेयजल संकट से जूझने के लिए तालाब ही कारगर होंगे । कमीशन की रिर्पाट तो लाल बस्ते में कहीं दब गई । आजादी के बाद इन पुश्तैनी तालाबों की देखरेख करना तो दूर, उनकी दुर्दशा करना शुरू कर दिया । चाहे कालाहांडी हो या फिर बुंदेलखंड या फिर तेलंगाना ; देश के जल-संकट वाले सभी इलाकों की कहानी एक ही है। इन सभी इलाकों में एक सदी पहले तक कई-कई सौ बेहतरीन तालाब होते थे। यहां के तालाब केवल लोगों की प्यास ही नहीं बुझाते थे, यहां की अर्थ व्यवस्था का मूल आधार भी होते थे । मछली,कमल गट्टा , सिंघाड़ा ,कुम्हार के लिए चिकनी मिट्टी - यहां के हजारों-हजार घरों के लिए खाना उगाहते रहे हैं । तालाबों का पानी यहां के कुओं का जल स्तर बनाए रखने में सहायक होते थे  ।

जरा सोचें देश के कुल 773 जिलों मे यदि योजना  सफल हो गई तो 57,975  तालाब होंगे। यदि प्रत्येक तालबा औसतन एक हैक्टर और दस फुट गहराई का भी हुआ तो 60 हर हैक्टर के ऐसी जल निधियां होंगी जो बरसात की हर बूंद को अपनी गोदी में सहेज लेंगी। एक हैक्टर यानी 10 हजार मीटर, दस  फुट यानी 3.048 मीटर, हर तालाब  की क्षमता  30 हजार वर्ग मीटर । एक हजार लीटर जल यानी एक क्यूबिक मीटर -जाहिर है कि हर तालाब में 30 हजार क्यूबिक मीटर जल होगा और सभी 57 हजार सरोवर सफल हुए तो  हम पानी पर पूरी तरह स्थानीय स्तर पर आत्म निर्भर बन सकते हैं।

उल्लेखनीय है कि हमारे देश में औसतन 1170 मिमी पानी सालाना आसमान से नियामत के रूप में बरसता है।  देश में कोई पांच लाख 87 हजार के आसपास गांव हैं।  यदि औसत से आधा भी पानी बरसे और हर गांव में महज 1.12 हैक्ेयर जमीन पर तालाब बने हों तो  देश की कोई एक अरब 30 करोड़ ़ आबादी के लिए पूरे साल पीने, व अन्य प्रयोग के लिए 3.75 अरब लीटर पानी आसानी से जमा किया जा सकता है। एक हैक्टेयर जमीन पर महज 100मिमी बरसात होने की दशा में 10 लाख लीटर पानी एकत्र किया जा सकता है। देश के अभी भी अधिकांश गांवों-मजरों में पारंपरिक तालाब-जोहड़, बावली, झील जैसी संरचनांए उपलब्ध हैं- जरूरत है तो बस उन्हें करीने से सहेजने की और उसमें जमा पानी को गंदगी से बचाने की। ठीक इसी तरह यदि इतने क्षेत्रफल के तालाबों को निर्मित किया जाए तो किसान को अपने स्थानीय स्तर पर ही सिंचाई का पानी भी मिलेगा। चूंक तालाब लबालब होंगे तो जमन की पर्याप्त नमी के कारण सिंचाई-जल कम लगेगा, साथ ही खेती के लिए अनिवार्य प्राकृतिक लवण आदि भी मिलते रहेंगे।

यदि देश में खेती-किसानी को बचाना है, अपनी आबादी का पेट भरने के लिए विदेश से अन्न मंगवा कर विदेशी मुद्रा के व्यय  से बचना है, यदि शहर की ओर पलायन रोकना है तो जरूरी है कि स्थानीय स्तर पर उपलब्ध तालाबों की ओर लौटा जाए। खेतों की सिंचाई के लिए तालाबों के इस्तेमाल को बढ़ाया जाए और तालाबों को सहेजने के लिए सरकारी महकमों के बनिस्पत स्थानीय समाज को ही शामिल किया जाए।

 

 

After all, why should there not be talks with Naxalites?

  आखिर क्यों ना हो नक्सलियों से बातचीत ? पंकज चतुर्वेदी गर्मी और चुनाव की तपन शुरू हुई   और   नक्सलियों ने धुंआधार हमले शुरू कर दिए , हा...